फैसले की फांस

प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर उत्तराखंड सरकार इधर कुआं-उधर खाई वाली स्थिति में फंसी नजर आ रही है. मनोज रावत की रिपोर्ट.

प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर उत्तराखंड में चल रहा सरकारी कर्मचारियों का आंदोलन शांत होने की बजाय राजनीतिक रंग लेता जा रहा है. 10 अक्टूबर को होने वाले टिहरी लोकसभा उपचुनाव पर भी इस आंदोलन की छाया पड़ती दिख रही है. आरोप लग रहे हैं कि इस मामले में कहीं पर भी राजनीतिक स्तर पर निर्णय नहीं लिया गया.  दोनों वर्गों को खुश करने के लिए बनाए गए नौकरशाही के फॉर्मूले को प्रोन्नति में आरक्षण चाहने और उसका विरोध करने वाले दोनों ही नकार रहे हैं. दरअसल 10 जुलाई, 2012 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि राज्य सेवाओं में प्रोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाए. सामान्य वर्ग के कर्मचारी इस निर्णय के बाद वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नतियों की उम्मीद लगाए बैठे थे. लेकिन 19 जुलाई को राज्य सरकार ने प्रोन्नतियों को अंजाम देने वाली सभी विभागीय प्रोन्नति समितियों पर रोक लगा दी. सरकार के निर्णय से सामान्य वर्ग के कर्मचारी भड़क गए. उन्होंने पहले इसके विरोध में अलग-अलग जगहों पर प्रदर्शन और क्रमिक अनशन किया जो सरकार द्वारा ध्यान न दिए जाने के बाद हड़ताल में बदल गया.           

दूसरी ओर उत्तराखंड अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कर्मचारी फेडरेशन प्रोन्नति में आरक्षण खत्म करने के किसी भी संभावित निर्णय का विरोध करने की रणनीति बना रहा था. इससे सरकार के लिए इधर कुआं- उधर खाई वाली स्थिति हो गई. इससे बचने की कोशिश में तीन अगस्त को राज्य कैबिनेट ने विभागीय प्रोन्नति समितियों पर लगी रोक हटाने का निर्णय लिया. सरकार ने तय किया कि उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार प्रोन्नतियों को बिना आरक्षण के और वरिष्ठता व योग्यता के आधार पर भरा जाएगा. लेकिन एससी और एसटी वर्ग के कर्मचारियों की नाराजगी से बचने के लिए साथ ही उसने यह फैसला भी किया कि प्रोन्नति में मिलने वाले आरक्षण से उन्हें जितने पद मिलने थे उसके बराबर अतिरिक्त पद एक्स कैडर में सृजित किए जाएंगे और उन पर इस वर्ग के कर्मचारियों को प्रोन्नत किया जाएगा.

इस आंदोलन ने जातियों को लगभग भुला चुके कर्मचारियों को उनकी जातियां याद दिला दीं.  इस विवाद से उपजी खटास मिटने में बहुत वक्त लगेगा

इसके साथ सरकार ने राज्य सेवाओं में आरक्षित वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व और उनकी सामाजिक स्थिति जांचने के लिए एक सदस्यीय जस्टिस इरशाद हुसैन आयोग का गठन कर दिया. आयोग को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी है. सरकार को लगा कि इन निर्णयों से दोनों वर्गों के अधिकारी और कर्मचारी शांत हो जाएंगे. पर हुआ उल्टा. एक्स कैडर के निर्णय से सामान्य और एससी-एसटी, दोनों ही कर्मचारी संगठन भड़क गए. इसी दौरान राजधानी दिल्ली में कैबिनेट ने प्रोन्नति में कोटे पर मुहर लगाकर संविधान संशोधन विधेयक को संसद में लाने वाले प्रस्ताव पर मुहर लगा दी. केंद्र सरकार के निर्णय से सामान्य वर्ग और उत्तराखंड में सरकार के अधकचरे निर्णय से दोनों वर्ग के कर्मचारी असंतुष्ट थे.

मुश्किल से निकलने के लिए सरकार ने पांच सितंबर को आरक्षण रोस्टर बगैर प्रोन्नति के शासनादेश के एक्स कैडर के पदों वाला शासनादेश भी जारी कर दिया. इन शासनादेशों से नाराज होने के बावजूद अगले दिन एससी और एसटी कर्मचारी काम पर लौट गए, लेकिन वे एक्स कैडर के बजाय पहले की ही तरह रोस्टर से प्रमोशन में आरक्षण की अपनी मांग पर कायम थे. 10 सितंबर को राज्य भर से आए इस वर्ग के कर्मचारियों ने सचिवालय का घेराव किया. इस आंदोलन को बसपा के विधायक हरि दास, रक्षा मोर्चा के नेता और पूर्व नौकरशाह एसएस पांग्ती सहित एससी-एसटी समाज के कई राजनेताओं ने समर्थन दिया. इन शासनादेशों से सामान्य वर्ग के कर्मचारी भी खुश नहीं थे.

पांच सितंबर को ही मुख्यमंत्री द्वारा खाली की गई टिहरी लोकसभा की सीट पर उपचुनाव की अधिसूचना जारी हो गई. सामान्य वर्ग के कर्मचारियों के नेता चुनाव आचार संहिता के कारण सरकार को समय देते हुए हड़ताल समाप्त करना चाहते थे पर इस निर्णय को ज्यादातर कर्मियों ने नहीं माना और इन नेताओं को अलग-थलग करके आंदोलन जारी रखा. इस पर सरकार ने कड़ा रुख अपनाते हुए 11 सितंबर की रात सचिवालय सुरक्षा से जुड़े 18 कर्मियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया. प्रमुख सचिव (सचिवालय प्रशासन) ओमप्रकाश के अनुसार प्रोबेशन अवधि में चल रहे नव नियुक्त कर्मियों को नोटिस दिया जाना शुरू हो चुका है. लेकिन सरकार का यह दांव और भी उल्टा पड़ता नजर आ रहा है. बर्खास्त हुए 18 कर्मियों में से 13 टिहरी लोकसभा के निवासी हैं जहां एक महीने बाद उपचुनाव होना है. इस उपचुनाव में मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा दांव पर है. इस इलाके में सरकार के इस निर्णय पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है.   

अब सामान्य वर्ग के कर्मचारियों की बनी संघर्ष समिति का कहना है कि एक्स कैडर के पदों वाला निर्णय जब तक वापस नहीं लिया जाता तब तक उनकी हड़ताल जारी रहेगी. इस समिति के संयोजक एसएस वाल्दिया कहते हैं, ‘सामान्य वर्ग के कर्मचारी इस बार आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं. वे सरकार की बर्खास्तगी की गीदड़ भभकी से डरने वाले नहीं हैं. बर्खास्तगी के जवाब में हम सामूहिक इस्तीफा देंगे.’ संयोजक मंडल के संतोष बडोनी का मानना है कि सरकार को 2006 के उच्चतम न्यायालय में एम नागराज  केस (जिसमें अदालत ने कहा था कि जहां प्रोन्नति में आरक्षण दिया जाना है वहां पहले इस बात का समुचित आकलन हो कि एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व बहुत कम है) का फैसला आने के बाद ही उत्तराखंड में प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त कर लेना चाहिए था. पर उसने ऐसा नहीं किया. वे बताते हैं कि इससे राज्य में हर स्तर पर सामान्य वर्ग के अधिकारियों और कर्मचारियों को नुकसान पहुंचा है. राज्य में प्रमोशन में रोस्टर की व्यवस्था के अनुसार प्रमोशन में पहला पद एससी वर्ग के लिए आरक्षित था जिस कारण अधिकांश वरिष्ठ पदों पर सामान्य वर्ग की तुलना में कनिष्ठ एससी व एसटी वर्ग के विभागाध्यक्ष पहुंच गए हैं. बडोनी बताते हैं कि इन विभागाध्यक्षों से पहले नौकरी में आए सामान्य वर्ग के लोग उनसे पांच स्तर नीचे के पदों पर हैं. उनके अनुसार इससे सामान्य वर्ग के कर्मियों के भीतर सालों से कुंठा पनप रही है.

                                         

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एससी-एसटी वर्ग की उत्तराखंड की जनसंख्या में करीब 20 फीसदी भागीदारी है. अनु-सचिव एनएस डुंगरियाल के मुताबिक उत्तराखंड सचिवालय में सेक्शन ऑफिसरों से लेकर अपर सचिव तक के स्तर के लगभग 180 पदों में से 52 पर एससी या एसटी वर्ग के अधिकारी हैं. यह संख्या कुल अधिकारियों के 28 फीसदी के करीब है. अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के प्रतिनिधित्व के लिए बनी इंदु कुमार पांडे कमेटी के अनुसार राज्य की अन्य सेवाओं में क, ख और ग, तीनों श्रेणियों के पदों पर इन दोनों वर्गों के कर्मियों की संख्या कुल कर्मचारियों के 15 प्रतिशत के लगभग है.

उत्तराखंड सचिवालय अनुसूचित जाति जनजाति अधिकारी/ कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष करम राम कहते हैं कि सरकार को इंदु कुमार कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर प्रोन्नति में आरक्षण का निर्णय लेते हुए उच्च न्यायालय को अवगत कराना चाहिए था, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को बिना अपने निर्णय के उच्च न्यायालय भेज दिया जिससे मामला कमजोर हो गया. वे कहते हैं, ‘निर्णय में साफ है कि राज्य सरकार चाहे तो जरूरत पड़ने पर प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है.’ उनके अनुसार एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारी अपने हक पर डाका नहीं पड़ने देंगे. करम राम अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के राज्य सेवाओं में प्रतिनिधित्व और उनकी सामाजिक स्थिति जानने के लिए इरशाद हुसैन कमेटी गठित करने के निर्णय को भी बेतुका बताते हैं. वे कहते हैं, ‘इन सारे मामलों में  तीन सदस्यीय इंदु कुमार पांडे कमेटी पहले ही अपनी रिपोर्ट दे चुकी है. यदि राज्य सरकार सकारात्मक रूप से सोचती तो राज्य में पहले से ही काम कर रहे अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग से संख्यात्मक प्रतिनिधित्व के आंकड़े मंगा सकती थी.’

करम राम का मानना है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार ने दोहरी नीति अपना कर कर्मचारियों को बांटने की जो कोशिश की वह गलत है. वे कहते हैं, ‘सरकार के गलत निर्णय से कर्मचारियों में दरार पैदा हो गई है जिसे पाटने में बहुत समय लग जाएगा.’ उनका आरोप है कि अभी सरकार ने  एससी-एसटी वर्ग के बैकलॉग के हजारों पद ही नहीं भरे हैं. इस विवाद में सत्ता दल कांग्रेस से दोनों ही पक्षों का भरोसा टूटा है. उधर, भाजपा केंद्र की तरह ही वेट एंड वॉच की राजनीति कर रही है. समाजवादी पार्टी ने इस आंदोलन में सबसे पहले शिरकत करके प्रोन्नति में आरक्षण का विरोध करने वाले पक्ष को खुला समर्थन दिया. राज्य निर्माण आंदोलन और मुजफ्फरनगर कांड के बाद से राज्य की राजनीति में शून्य पर पहुंच गई सपा को इस आंदोलन से ऊर्जा और समर्थन मिलता देख क्षेत्रीय दल उक्राद का पंवार धड़ा भी आंदोलन के समर्थन में कूद गया है. आने वाले टिहरी लोकसभा चुनाव पर इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ेगा, पूछने पर एसएस वाल्दिया बताते हैं, ‘यदि सरकार 80 प्रतिशत जनसंख्या वाली सामान्य जातियों की भावनाओं को अपने राष्ट्रीय एजेंडे के कारण नकारेगी तो चुनाव पर उसका प्रभाव दिखेंगा ही.’ इस आंदोलन ने जातियों को लगभग भुला चुके कर्मचारियों को उनकी जातियां याद दिला दीं. जातिहित के नाम पर हो रहे इस संघर्ष की खटास मिटने में कितना समय लगेगा, यह कोई नहीं जानता.