गले तक गुटबाजी

 

हरियाणा कांग्रेस में गुटबाजी और वर्चस्व की लड़ाई अगर ऐसे ही चलती रही तो वह जमीन ही नहीं रह जाएगी जिसपर राज्य के कांग्रेसी नेता अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट.

परिवारवाद और व्यक्तिवाद की जो परंपरा कांग्रेस में शीर्ष पर काबिज है उसका असर निचले स्तर पर भी दिखता है. दिल्ली से सटे हरियाणा को ही लें. राज्य में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की यह दूसरी पारी है. अपने हर बयान में मुख्यमंत्री पार्टी के तीसरी बार सत्ता में आने का आत्मविश्वास दिखाते हैं. लेकिन राज्य में कांग्रेस की जो स्थिति है उसे देखते हुए पार्टी की राह मुश्किल लगती है. 

हरियाणा में कांग्रेस की खिसकती जमीन का अंदाजा 2004  से लेकर अब तक उसके प्रदर्शन के ग्राफ को देखने पर लगता है. 2004 में पार्टी ने लोकसभा की 10 में से नौ सीटों पर कब्जा जमाया था. इसके अगले साल 2005 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला. 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 69 सदस्य पार्टी के थे. साल 2009 में हुए विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि पार्टी सिर्फ 40 सीटों पर सिमट गई. मौजूदा सरकार निर्दलीय विधायकों की बैसाखियों के सहारे चल रही है जिनमें से एक विधायक गोपाल गोयल कांडा भी हैं जिनकी वजह से सरकार की खासी किरकिरी हो चुकी है. देखा जाए तो स्थितियां 2009 से अब तक और भी खराब हुई हैं. इस बीच तीन विधानसभा के उपचुनाव हुए हैं और एक लोकसभा का. इनमें से पार्टी दो विधानसभा चुनाव हार चुकी है और हिसार लोकसभा के उपचुनाव में तो पार्टी के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई. फिर भी मुख्यमंत्री आशान्वित हैं क्योंकि राजनीति उम्मीदों का ही खेल है. 

लेकिन जमीनी सच्चाइयां पार्टी की उम्मीदों के पंख काटती दिखती हैं. हरियाणा में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष का पद ही पिछले दो साल से खाली पड़ा है. फूलचंद्र मुलाना कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में बने हुए हैं पर सक्रिय कामकाज में उनकी कोई भूमिका नहीं रहती. दो साल पहले उन्हें लकवा मार गया था. तब से उन्होंने संगठन के कामकाज में सक्रिय हिस्सेदारी कम कर दी थी. हिसार चुनाव में हार के बाद उन्होंने कार्यकारी अध्यक्ष के पद से भी इस्तीफा देकर पूरी तरह से किनारा कर लिया. बावजूद इसके पार्टी आज तक कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं खोज सकी है. हरियाणा के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सांसद चौधरी बिरेंदर सिंह इस समस्या की वजह पर रोशनी डालते हुए कहते हैं, ‘इसमें मुख्यमंत्री सबसे बड़ा फैक्टर है. वे नहीं चाहते कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने जो उनके लिए सिरदर्द बन जाए. बाकी पार्टी के लोग नहीं चाहते कि कोई ऐसा व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष बने जो मुख्यमंत्री की जेब में हो. दो साल पहले पार्टी ने प्रस्ताव पास किया था कि नया अध्यक्ष नियुक्त किया जाए, लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ.’ 

चौधरी बिरेंदर सिंह जो बात कहते है उससे एक संकेत साफ मिलता है कि पार्टी में गुटबाजी चरम पर है. तमाम गुट हैं और इनके हित आपस में टकराते रहते हैं. इस गुटबाजी पर लगाम लगाने की नीयत से ही 2009 में आलाकमान के इशारे पर एक समन्वय समिति  बनी थी. कहने को यह समिति संगठन और सरकार के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए बनी थी लेकिन इसका असली मकसद था राज्य कांग्रेस में मौजूद चार-पांच गुटों को किसी भी तरह के टकराव से दूर रखना. मुख्यमंत्री के अलावा कुमारी शैलजा, राव इंद्रजीत सिंह, कैप्टन अजय यादव और चौधरी बिरेंदर सिंह जैसे नेता राज्य में कांग्रेस के दिग्गज हैं और इनका टकराव किस तरह से संगठन को नुकसान पहुंचा रहा है उसका नमूना दो साल से खाली पड़ा अध्यक्ष का पद भी है. समन्वय समिति कितनी कारगर रही इसका एक नमूना हाल ही में यमुनानगर में केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने पेश किया. एक प्रेस वार्ता में उनका कहना था, ‘मुझे आज तक पता ही नहीं चल पाया है कि समन्वय समिति की बैठक कब होती है और इसमें कौन लोग हिस्सा लेते हैं.’ गौरतलब है कि कुमारी शैलजा भी इसी समन्वय समिति का एक हिस्सा हैं. 

दो साल से संगठन का अध्यक्ष न होने की कीमत पार्टी चुका रही है. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नाम न छापने की शर्त पर वह बात बताते हैं जिसे कहने से हरियाणा का हर कांग्रेसी नेता बचता है क्योंकि ऐसा होने पर उसकी पार्टी से विदाई तय है. वे कहते हैं, ‘हुड्डा ने पूरी पार्टी और सरकार को अपने कब्जे में कर रखा है. वे नहीं चाहते कि संगठन में कोई मजबूत नेता आए. पिछले आठ साल का रिकॉर्ड देख लीजिए. संगठन के स्तर पर एक भी कार्यक्रम नहीं हुआ है. हर आयोजन सरकार करती है, सारा श्रेय भी वही लेती है. मुख्यमंत्री की मनमानी देखिए कि 2004 में जो कुलदीप शर्मा करनाल सीट से पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ जाकर निर्दलीय चुनाव लड़े और हार गए थे और इसके चलते उन्हें छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया गया था, उन्हें 2005  में मुख्यमंत्री ने न सिर्फ पार्टी में लिया बल्कि कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया. हुड्डा अपने रिश्तेदारों और परिजनों को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं.

हाल ही में संपन्न हुए यूथ कांग्रेस के सदस्यता अभियान में यह साफ दिखा. बताया जाता है कि मुख्यमंत्री के गृह जिले रोहतक में यूथ कांग्रेस की लोकसभा सीट की दौड़ में उनके ही एक रिश्तेदार हैं. आरोप लग रहे हैं कि इसलिए सदस्यता अभियान में गड़बड़ियां देखने को मिल रही हैं.’  इस बारे में पार्टी के हरियाणा प्रभारी बीके हरिप्रसाद से बात करने की कोशिश की गई मगर वे उपलब्ध नहीं हो सके. यूथ कांग्रेस राहुल गांधी का प्रिय विषय रहा है. इसे लेकर वे हमेशा गंभीर रहे हैं. इन चुनावों की निष्पक्षता को लेकर वे इतने गंभीर थे कि उन्होंने इसके लिए पूर्व चुनाव अधिकारी केजे राव की सेवाएं ले रखी हैं. इसके बावजूद हरियाणा में यूथ कांग्रेस के लिए वोट डालने वाले सदस्यों के सदस्यता अभियान में गंभीर गड़बड़ियां सामने आ रही हैं. पानीपत, रोहतक और झज्जर में गड़बड़ी सबसे ज्यादा है. 

इस गड़बड़ी की तह में जाने से पहले यूथ कांग्रेस की चयन प्रक्रिया समझना जरूरी है. पूरे हरियाणा में पार्टी ने 15,451 बूथ बना रखे हैं. इन बूथों के लिए पांच सदस्यीय बूथ कमेटी का चुनाव होता है. इस कमेटी के चुनाव में वोट डालने का अधिकार 18-35 वर्ष तक की आयु वाले यूथ कांग्रेस के सदस्यों को होता है. इन्हीं सदस्यों का सदस्यता अभियान 17 मई से 13 जून तक हरियाणा में चला. पूरे प्रदेश से लगभग साढ़े पांच लाख सदस्यों ने सदस्यता के लिए फॉर्म भरा था. चुनाव समिति फॉर्म भरने वाले सदस्य को तत्काल ही एक बारकोड स्लिप देती है. इसी बारकोड के आधार पर सदस्य की पहचान होती है और वह वोट डालने का अधिकार पाता है.

गुटबाजी पर लगाम लगाने की नीयत से ही 2009 में आलाकमान के इशारे पर एक समन्वय समिति बनी थी, लेकिन वह समन्वय अब तक दूर की कौड़ी रहा है

यूथ कांग्रेस फॉर्म की जांच के बाद दो सूचियां जारी करती है- चयनित सदस्यों की और खारिज सदस्यों की. गड़बड़ी तब सामने आई जब अपने बारकोड के साथ कुछ सदस्यों ने अपना नाम ढूंढ़ना शुरू किया, लेकिन उनके नाम दोनों सूचियों से नदारद थे. सबसे ज्यादा गड़बड़ी रोहतक जिले में सामने आई है. यहां लगभग 55,000 फॉर्म भरे गए थे. यूथ कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक लगभग पांच हजार लोगों के नाम सूची से गायब हैं. बताया जा रहा है कि यहां से लोकसभा कमेटी के संभावित उम्मीदवार मुख्यमंत्री के ही एक रिश्तेदार हैं. 

गड़बड़ी की जड़ में प्रभावशाली और ताकतवर नेताओं की मनमानी के संकेत मिल रहे हैं. आरोप लग रहे हैं कि चुनाव लड़ने के इच्छुक उम्मीदवार अपने समर्थकों से ज्यादा से ज्यादा सदस्यता फॉर्म भरवाते हैं ताकि बाद में वे वोट देकर उन्हें चुनाव जितवा सकें. गड़बड़ी की संभावना ऊपर के स्तर पर दिख रही है जहां विपक्षी उम्मीदवारों के गृहजिलों से आए सदस्यता फॉर्म या तो गायब कर दिए गए या फिर उनके नाम ही सदस्यता सूची से हटा दिए गए. गड़बड़ी उजागर होने के बाद मीडिया में खुसर-फुसर शुरू हो गई. जवाब में पार्टी ने तुरंत ही सभी कार्यकर्ताओं को इंटरनल नोटिस जारी कर दिया कि मीडिया में इस विषय पर बोलने वाले को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा. पानीपत के एक युवा नेता कहते हैं, ‘ऐसी स्थिति हो गई है कि तगड़ा मारे और रोने भी न दे. हम लोगों ने इतनी मेहनत से लोगों का फॉर्म भरवाया था. अब उन लोगों के नाम सूची से ही गायब हैं जबकि सबके पास बारकोड है.’ 

झज्जर में भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं कि जिले के एक पूरे बूथ की सूची ही गायब कर दिया गया. इस बारे में जब पार्टी की तरफ से नियुक्त चुनाव आयुक्त  दीपक राठौर से बात की गई तो उनका जवाब था, ‘कोई बड़ी गड़बड़ी नहीं है. थोड़ी बहुत गड़बड़ हुई है. उसकी वजह यह है कि आखिरी समय में एक साथ इतने सारे फॉर्म आ जाते हैं कि सबको संभालना मुश्किल हो जाता है. इस चक्कर में कुछ फॉर्म खराब हो जाते हैं. हम सिर्फ बारकोड जानते हैं. हमारे स्तर पर जो गड़बड़ी होती है उसमें ऐसा होता है कि किसी सदस्य ने जिस बूथ के लिए फॉर्म भरे थे उसकी बजाय उसका नाम दूसरे बूथ में चला जाता है. इस तरह की गड़बड़ियों को दूर करने के लिए हमने एक स्क्रूटनी सेशन रखा था जो दो सितंबर तक चला.

इस दौरान जो लोग हमारे पास आए उनकी गड़बड़ी हमने दूर कर दी.’ जब उनसे पूछा गया कि जिन लोगों के पास बारकोड हैं उनके नाम भी दोनों सूचियों से गायब हैं तो राठौर का कहना था, ‘अक्सर ऐसा होता है कि एक आदमी सौ-सौ फॉर्म लेकर आ जाता है. हम उसे बारकोड स्लिप फाड़कर दे देते हैं और फॉर्म रख लेते हैं. ऐसी स्थिति में बारकोड स्लिप पर नाम, उम्र और पता आदि उसी से भर लेने के लिए कहा जाता है. गड़बड़ी क्या होती है कि किसी और का नाम दूसरे की बारकोड स्लिप में भर देता है, उम्र भूलकर दूसरा लिख देता है. इस चक्कर में कई लोगों के नाम नहीं मिल पाते या कई लोगों के नाम रिजेक्ट हो जाते हैं.’ 

इन चुनावों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि  बूथ कमेटी के लिए चुने गए अधिकारी ही बाद में विधानसभा, लोकसभा व राज्य इकाई के लिए यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी का चुनाव करते हैं. पार्टी पर कब्जे की जो लड़ाई राज्य के बड़े नेता लड़ रहे हैं उसी का अक्स यूथ कांग्रेस के चुनावों में नजर आ रहा है.