चैनलों का ' दरिद्र ' लोकतंत्र

न्यूज चैनलों की चर्चाओं और बहसों में दिलचस्पी जगजाहिर है. आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी और हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के नियमित दैनिक कार्यक्रम हैं. इन कार्यक्रमों के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि अधिकांश चैनलों पर रात को प्राइम टाइम पर ये चर्चाएं और बहसें होती हैं. कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर/घटनाक्रम पर चर्चा होती है, लेकिन आम तौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है.

इन चर्चाओं में देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती

हालांकि इन चर्चाओं/बहसों में ज्यादातर मौकों पर ‘तू-तू, मैं-मैं’ या शोर-शराबा ही होता है और भले ही अक्सर उनसे कुछ खास निकलता नहीं दिखता है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र में ये चर्चाएं कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं. ये न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं/मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच भी मुहैया कराती हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि लोकतांत्रिक समाजों में मीडिया खासकर न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिए ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं. मीडिया का एजेंडा सेटिंग सिद्धांत यह कहता है कि समाचार मीडिया कुछ घटनाओं/मुद्दों को अधिक और कुछ को कम कवरेज देकर लोकतांत्रिक समाजों में राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक बहसों/चर्चाओं का एजेंडा तय करता है. इस तरह वह देश-समाज की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्राथमिकताओं का भी एजेंडा तय कर देता है.  

जाहिर है कि इस कारण इन चर्चाओं का राजनीतिक महत्व बहुत बढ़ जाता है. मीडिया खासकर चैनलों के विस्तार और बढ़ती पहुंच के साथ राजनीति ज्यादा से ज्यादा माध्यमीकृत (मेडीएटेड) होती जा रही है. चैनल प्रदर्शन के एक ऐसे मंच के रूप में उभर रहे हैं जहां सुबह-दोपहर और खासकर शाम और रात में प्रदर्शनात्मक राजनीति को खुलकर अपना जलवा दिखाने का मौका मिलता है. सरकार, बड़े राजनीतिक दल और कॉरपोरेट समूह यह खूब समझते हैं. यही कारण है कि वे न सिर्फ इन चर्चाओं को गंभीरता से लेते हैं बल्कि इन चर्चाओं को अपने अनुकूल मोड़ने और प्रतिकूल परिस्थितियों की भी अपने मुताबिक व्याख्या करने के लिए तेजतर्रार प्रवक्ताओं को उतारते हैं जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे सरकार/पार्टी/कॉरपोरेट समूह के पक्ष में जनमत बनाने के लिए तथ्यों/तर्कों/विचारों को ‘स्पिन’ कराने में माहिर होते हैं. पीआर के विशेषज्ञ इन प्रवक्ताओं को उनकी इस खूबी के कारण स्पिन डॉक्टर भी कहा जाता है जिनकी आजकल खूब मांग है. चैनलों के चलते उनकी आजकल एक बड़ी जमात पैदा हो गई है जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे चैनलों की चर्चाओं में चर्चा को घुमाने के उस्ताद हैं. खासकर राजनीतिक दलों में ऐसे बहुतेरे नेता पैदा हो गए हैं जिनकी अपनी कोई राजनीतिक जमीन नहीं है या जिन्होंने जमीन पर कोई राजनीति नहीं की है लेकिन दैनिक प्रेस ब्रीफिंग और टीवी चर्चाओं/बहसों में हिस्सा लेकर वे अपनी-अपनी पार्टियों में बड़े नेता बन गए हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि खुद चैनल अपनी बहसों/चर्चाओं के कार्यक्रमों को बहुत महत्व नहीं देते, सिवाय इस बात के कि ये कार्यक्रम चैनल के सबसे कम खर्च में तैयार होने वाले कार्यक्रम होते हैं और उसका अच्छा-खासा एयर टाइम भर देते हैं. एक तो अधिकांश चैनलों में इन चर्चाओं के एंकर तैयारी करके नहीं आते. सवालों और टिप्पणियों में समझ तो दूर की बात है, सामान्य जानकारी का भी अभाव दिखाई देता है. अक्सर सवाल अटपटे और चलताऊ किस्म के होते हैं. लगता है कि जैसे किसी तरह से टाइम पास किया जा रहा है. यही नहीं, इन चर्चाओं/बहसों में अतिथि भी जाने-पहचाने और उनके उत्तर/टिप्पणियां भी पूर्व निश्चित होते हैं.

इन कारणों से ये चर्चाएं धीरे-धीरे एक दैनिक रुटीन में बदल गई हैं. इनसे इनमें बोरियत भी बढ़ती जा रही है. हालांकि कई बार इन चर्चाओं की बोरियत को खत्म करने के लिए सुनियोजित तरीके से गर्मी पैदा करने की भी कोशिश होती है, लेकिन वह गर्मी वैचारिक रूप से बिना किसी उत्तेजक अंतर्वस्तु के वास्तव में एक पूर्वनिश्चित नाटक में बदल जाती है. इसकी वजह यह है कि इन चर्चाओं/बहसों का वैचारिक दायरा इतना सीमित और संकीर्ण होता है कि उसमें देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती. आश्चर्य नहीं कि महत्वपूर्ण राजनीतिक चर्चाओं में कांग्रेस और भाजपा और बहुत हुआ तो कभी-कभार सरकारी लेफ्ट को पैनल में बुला लिया जाता है. आतंकवाद और सुरक्षा मामलों पर होने वाली चर्चाओं में आक्रामक सैन्य जनरलों की तूती बोलती है.  इसी तरह, आर्थिक मुद्दों पर चर्चा में नव उदारवादी विशेषज्ञों की भरमार होती है. इससे काफी हद तक चैनलों के राजनीतिक-वैचारिक झुकाव का पता चलता है. लेकिन इससे यह भी दिख जाता है कि चैनलों का लोकतंत्र कितना सीमित, संकीर्ण और दरिद्र है.