क्या एनडीए का हिस्सा बनेगी रालोद?

देश में आम चुनाव के मद्देनज़र राजनीतिक पारा चढऩे लगा है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) किसी भी क़ीमत पर अपने अलाइज की संख्या बढ़ाना चाहती है, जिसमें वह साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग कर रही है। हाल ही में भाजपा द्वारा एनसीपी को तोडक़र उसके मुखिया शरद पवार के भतीजे अजित पवार को अपनी कमज़ोर होती गठबंधन वाली महाराष्ट्र सरकार में मिलाना इसका ताज़ा उदाहरण है। इससे पहले मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बनाने के लिए देश की इस सबसे बड़ी पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस से समर्थकों समेत तोडक़र अपनी सरकार बना ली थी। गोवा और अन्य राज्यों में भी जोड़तोड़ करके सरकार बनायी थी। जो कर्नाटक भाजपा बुरी तरह हारी है, उसमें भी उसने पिछली बार जोड़-तोड़ करके सरकार बनायी थी। अब लोकसभा में जीत की तैयारी के तहत भाजपा के शीर्ष नेता इस जुगाड़ में लगे हैं कि किस प्रकार से छोटे मज़बूत दलों को अपने साथ लेकर 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत की रणनीति बना रही है।

इसी रणनीति के तहत भाजपा अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनीतिक दल राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) को अपने साथ मिलाने की जुगत में है। कहा जा रहा है कि कभी भी भाजपा-रालोद गंठबंधन की ख़बरें सामने आ सकती हैं। सूत्रों का कहना है कि जुलाई के पहले सप्ताह में रालोद के अध्यक्ष जयंत चौधरी की मुलाक़ात अमित शाह से हुई थी। जयंत चौधरी ने भाजपा को समर्थन देने की शर्त के रूप में उत्तर प्रदेश में उप मुख्यमंत्री या केंद्र में मंत्री का पद और 7 लोकसभा सीटों की माँग की थी। रालोद की इस माँग को ठुकराते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने विचार करने की बात कही थी। सूत्रों ने बताया कि अमित शाह ने रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को भाजपा में विलय करने के लिए कहा था। हालाँकि जयंत चौधरी ने भाजपा में विलय करने से मना कर दिया था।

दरअसल बेहद गोपनीय और क़रीबी सूत्रों से मुझे पता चला था कि जयंत चौधरी का समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव से नाराज़ हैं। बस इसकी अधिकारिक तौर पर घोषणा मात्र होनी बाक़ी है। इसमें दो-राय नहीं है कि 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही सपा और रालोद में एक प्रकार की तल्ख़ी देखी जा रही है। क्योंकि जिस प्रकार से काफ़ी दबाव के बाद समाजवादी पार्टी ने जयंत चौधरी को राज्यसभा की सीट दी थी, उस दौरान रालोद को समझ में आ गया था कि मामला इतना आसान नहीं है। हालाँकि उसके बाद भी लग रहा था कि रालोद, सपा और कांग्रेस के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन कहा जा रहा है कि सपा और रालोद में लोकसभा सीटों पर असहमति है।

दरअसल रालोद की मुज़फ़्फ़रनगर की महत्त्वपूर्ण लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी ने बिना चर्चा किये अपने नेता हरेंद्र मलिक को प्रभारी घोषित करके लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए मुख सहमति दे दी है। इससे रालोद सकते में है और यही रालोद व सपा के बीच कड़वाहट का कारण माना जा रहा है। हालाँकि रालोद प्रमुख जयंत चौधरी की जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव से बातचीत हुई, तो उन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर के अलावा दो-तीन लोकसभा सीटों की माँग की थी। लेकिन अखिलेश मुज़फ़्फ़रनगर सीट पर ख़ुद का प्रत्याशी उतारकर रालोद को मथुरा और बाग़पत की दो सीटें देने के इच्छुक हैं।

इसी प्रकार से वह कांग्रेस के लिए भी सिर्फ़ अमेठी और रायबरेलवी की (दो) सीटें देने के इच्छुक हैं। कहा गया कि मुज़फ़्फ़रनगर सीट न देने से नाराज़ जयंत चौधरी एनडीए में जा सकते हैं। यहाँ तक कहा गया कि भाजपा उन्हें मुज़फ़्फ़रनगर समेत क़रीब पाँच लोकसभा सीटें देने को राज़ी हो सकती है। इसके साथ ही उनके कुछ विधायकों को योगी सरकार में मंत्री पद देगी। गोपनीय सूत्रों ने यहाँ तक बताया कि जयंत चौधरी इन दिनों अंडरग्राउंड हैं और न किसी से बात कर रहे हैं और न मिल रहे हैं। यहाँ तक कि चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ तक से वह नहीं मिल रहे हैं। हालाँकि अभी तस्वीर बिलकुल साफ़ नहीं है। मेरा मानना है कि जयंत चौधरी इतनी आसानी से एनडीए में नहीं जाने वाले, क्योंकि वह भाजपा के मगरमच्छ वाले रवैये को पहचानते हैं। हो सकता है कि वह अखिलेश यादव पर मुज़फ़्फ़रनगर सीट के लिए इस प्रकार दबाव बना रहे हों। हालाँकि अगर भाजपा जयंत चौधरी को मना रही है, तो मुझे लगता है कि जयंत चौधरी को जाना चाहिए और उत्तर प्रदेश सरकार में कृषि मंत्री बनना चाहिए, और एमएसपी लागू कर किसानों का भला करना चाहिए। क्योंकि रालौद किसानों के समर्थन से ही मज़बूत है और किसानों का भला बिना सत्ता में रहे नहीं किया जा सकता।

बहरहाल आज की भाजपा का स्वभाव बन चुका है कि वह किसी पार्टी को अपने साथ लाने के लिए या उसे सत्ता की सीढ़ी बनाने के लिए उस पार्टी को मनाने के अलावा अपने अन्य संसाधनों और हथियारों का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकती। अब तो यह बात सरेआम चर्चा में है कि भाजपा कथित तौर पर केंद्रीय जाँच एजेंसियों का प्रयोग भी इस प्रकार के काम में कर रही है। राजनीति के जानकार यही कह रहे हैं कि भाजपा के शीर्ष नेता रालोद को अपने साथ लाने के लिए ऐसा कुछ भी कर सकती है। क्योंकि भाजपा के नेताओं को सत्ता हासिल हो, तो वो यह भी नहीं देखते कि सामने वाली पार्टी या उससे नेता कितने भ्रष्टाचारी हैं, कितने किस मानसिकता के हैं। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी जैसी पार्टी के साथ भाजपा का मिलकर सरकार बनाना इसका एक बड़ा उदाहरण है।

यह वही पार्टी है, जिसे भाजपा के नेता हमेशा पाकिस्तानी समर्थक, आतंकी समर्थक कहते रहे हैं। इसी तरह अभी कुछ दिन पहले एनसीपी नेताओं, ख़ासतौर पर अजित पवार पर ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और उसके तीन दिन के भीतर उन्हीं अजित पवार को महाराष्ट्र सरकार में उप मुख्यमंत्री और उनके कई साथियों को मंत्री बना दिया। साफ़ है कि पूर्व भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह रालोद प्रमुख जयंत चौधरी से दूसरी पार्टियों के दम पर सत्ता हासिल करने के अपने एजेंडे के तहत ही मिले हों।

बहरहाल देश में जिस प्रकार से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, उससे तो यही लगता है कि उत्तर प्रदेश में कई राजनीतिक दलों को भाजपा अपने साथ मिलाने में कामयाब हो सकती है। मुख्य रूप से राष्ट्रीय लोकदल की बात अगर यहाँ करें, तो हमें देखना होगा कि सन् 2017 के चुनाव में मात्र एक विधानसभा की सीट जीतने वाली रालोद 2022 के विधानसभा चुनाव में नौ सीटें जीतने में कामयाब रही थी। पार्टी के बढ़ते जनाधार से भाजपा में सुगबुगाहट है। क्योंकि हाल ही में ज़िला पंचायत चुनाव में ज़िला परिषद् की 27 सीट में राष्ट्रीय लोकदल ने जीती हैं, जो कि इस दल के लिए एक बड़ी बात है। लम्बे समय बाद रालोद को मिली इतनी मज़बूती के चलते भाजपा उसकी ओर देखने को मजबूर हो रही है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश को रालोद का गढ़ माना जाता है। इसमें हमें यह भी देखना होगा कि जबसे चंद्रशेखर आज़ाद का गठबंधन रालोद के साथ हुआ है, तबसे पार्टी में कहीं-न-कहीं और ज़्यादा मज़बूती दिखायी दी है। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि जिस प्रकार से मायावती कमज़ोर हो रही हैं, उसी तरी$के से चंद्रशेखर आज़ाद की लोकप्रियता और पार्टी की शक्ति बढ़ रही है। पिछले दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले में चंद्रशेखर आज़ाद के ऊपर गोली चलने से उसकी लोकप्रियता में ख़ासा इज़ाफ़ा देखने को मिला है, जिसका सीधा फायदा उसकी आज़ाद समाज पार्टी को आने वाले लोकसभा चुनाव में मिल सकता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि कई स्थानीय दल चंद्रशेखर आज़ाद से गठबंधन करने के लिए बातें आगे बढ़ा रहे हैं।

सूत्रों का कहना है कि एक बड़े दल और कई दूसरे दलों के द्वारा मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से भी चंद्रशेखर आज़ाद को अपने लिये कैंपेन करने के लिए अभी से आमंत्रित किया जा रहा है। कर्नाटक चुनाव के बाद देश में उपजी विभिन्न परिस्थितियों और समीकरणों पर राजनीतिक विशेषज्ञों से राय-मशविरा किया जा रहा है।

राजनीतिक विशेषज्ञों और देश में बनी स्थिति और आम लोगों की राय के हिसाब से भिन्न-भिन्न कयास लगाये जा रहे हैं। मसलन, अब भाजपा को चुनाव जीतना आसान नहीं रह गया है। इसलिए इस बड़ी पार्टी के शीर्ष नेता दूसरे दलों के मज़बूत नेताओं के कंधे पर चढक़र सत्ता पाना चाहती है। कुछ लोगों का कहना है कि राजनीति में तो उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कांग्रेस भी ऐसा कर चुकी है। सभी पार्टियाँ अपने हिसाब से वातावरण का आकलन कर नीति बनाती हैं और आगे बढ़ती हैं। भाजपा भी वही कर रही है, जिसमें उसके सत्ता में बने रहने के आसार हैं।

बरहराल उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मी तेज़ रहना और विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का संचालित होना स्वाभाविक है। क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश को देश का सबसे क्रांतिकारी राज्य माना जाता है और उत्तर प्रदेश की गतिविधियाँ हर बार व्यापक परिणाम का आधार बनी हैं। अक्सर कहा भी जाता है कि देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुज़रता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश को केंद्र की सत्ता का दरवाज़ा कहा जाता है। यही कारण है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में हर उस पार्टी को अपने साथ लाना चाहती है, जो उसकी लोकसभा सीटें कम करने का माद्दा रखती है।

बहरहाल यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि अब भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के समय वाली नहीं रही। जब साल 1996 में महज़ 13 दिन चलने के बाद ही वाजपेयी सरकार महज़ एक वोट की वजह से गिर गयी थी। तब उन्होंने एक अच्छे नेता का उदाहरण पेश करते हुए लोकसभा में यादगार भाषण देते हुए कहा था कि ‘मुझ पर आरोप लगाया है कि मैंने पिछले 10 दिन में जो भी किया है, वो सत्ता के लोभ के लिए किया है। यह आरोप मेरे हृदय में घाव कर गया है। मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य रहा हूँ। लोगों ने मेरा व्यवहार देखा है। जनता दल के सदस्यों के साथ सरकार में रहा हूँ। कभी हमने सत्ता का लोभ नहीं किया और ग़लत काम नहीं किया है। पार्टी तोडक़र सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है, तो ऐसी सत्ता को मैं चिमटे से भी नहीं छूना चाहूँगा। मैं मृत्यु से डरता नहीं हूँ।’

मुझे लगता है कि इस समय भाजपा के नेताओं को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इस कथन को याद करना चाहिए और अपने गिरेबान में झाँककर यह ज़रूर देखना चाहिए कि उसका ज़मीर ज़िन्दा है, या नहीं। हाँ, अगर कोई पार्टी अपनी इच्छा से भाजपा के साथ आना चाहती हो, तो अलग बात है। लेकिन किसी पार्टी को सत्ता के लिए डराकर, धमकाकर, लालच देकर, ख़रीदकर अपने साथ लाना राजनीतिक मर्यादा, नैतिकता और लोकतंत्र की रक्षा, तीनों के लिहाज़ से ठीक नहीं है। उन पार्टियों को भी इससे बचना चाहिए, जो दबाव या लालच में आकर किसी बड़ी और ताक़तवर पार्टी के साथ आती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक संपादक हैं।)