लोकतंत्र का लट्ठ

अगर यह लोकतंत्र है तो भट्टा-पारसौल के लोगों ने इसका मतलब देखा और महसूस किया है. देश की संसद से बमुश्किल 70 किलोमीटर दूर बसे 6000 जनों की आबादी वाले इस गांव ने लोकतंत्र को गोलियों के रूप में चलते और लाठियों के रूप में बरसते देखा है.भट्टा जाने वाली सड़क पर मुड़ते ही पुलिस की गाड़ियों की लंबी कतार दिखती है. खेतों में, पेड़ों के नीचे, खाली पड़े घरों में पीएसी और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने डेरा डाल रखा है. गांव में दाखिल होने से पहले पूछताछ से गुजरना पड़ता है.

सात मई को ग्रेटर नोएडा के भट्टा, पारसौल और आछेपुर गांवों में सुबह की शुरुआत जिस खबर से हुई, उसने सारे लोगों को सकते में डाल दिया. इससे पिछली शाम आछेपुर के हरिओम (25 वर्ष) की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अब फरार घोषित हो चुके आंदोलनकारी किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया का आरोप है कि रात में जब वे धरने पर बैठे थे तो जिला प्रशासन के तीन लोगों ने उन पर फायरिंग की और उन्हें बचाने की कोशिश में हरिओम को गोली लग गई. हरिओम के घरवालों को नहीं पता कि उनकी मौत ठीक-ठीक कैसे हुई. उनके द्वारा दर्ज एफआईआर में बताया गया है कि वे भट्टा में एक शादी में शामिल होकर लौट रहे थे. लेकिन हरिओम के भाई विनोद कुमार का संदेह पुलिस पर है. वे कहते हैं, ‘पुलिस का रवैया बताता है कि उसी ने मेरे भाई की हत्या की है. जब हम दनकौर थाना में रिपोर्ट लिखाने गए तो उन्होंने रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया. फिर हम कासना गए. वहां दिन भर कोशिश करने के बाद शाम को रिपोर्ट लिखी गई.

तेवतिया पर हमले और हरिओम की हत्या की खबर पाकर सात मई की सुबह से ही आसपास के गांवों के लोग भट्टा में चल रहे चार महीने पुराने धरने की जगह पर शोक के लिए जमा होने लगे थे. गांववालों के अनुसार वहां 3-4 हजार लोग मौजूद थे. तभी इलाके के डीएम के नेतृत्व में पुलिस भट्टा गांव आई और लोगों पर लाठी बरसाना शुरू कर दिया. लोगों ने जब इसका विरोध किया तो पुलिस ने फायरिंग भी शुरू कर दी.

मोंटिल की उम्र 16 वर्ष है. घटना के वक्त वह वहां मौजूद था. वह बताता है, ‘फायरिंग शुरू होने के बाद लोग गांव की तरफ भागने लगे. गांव के भीतर लौटकर लोगों ने पलटवार किया.’ किसानों के जवाबी हमले में दो पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और ग्रेटर नोएडा के डीएम, एसपी समेत छह दूसरे पुलिसकर्मी घायल हो गए.

मोंटिल ने अपने पिता राजपाल के पैर में गोली लगते और उन्हें पुलिस द्वारा गाड़ी पर बैठाकर ले जाते देखा. अगले दिन की पूरी भागदौड़ के बाद मोंटिल और उसकी मां को राजपाल की लाश मिली, जो गाजियाबाद में हिंडन नदी के पास पड़ी थी. मोंटिल बताता है, ‘मैंने उनके सिर में गोली का निशान देखा. जब मैंने उन्हें अंतिम बार देखा था तो सिर्फ उनके पैर में गोली लगी थी. पुलिस ने ले जाकर उन्हें सिर में गोली मार दी.’ ै. मोंटिल की मां ओममति कहती हैं, ‘वे तो बस बैलगाड़ी चलाते थे और भूसा बेचते थे. वे धरने पर बैठे लोगों को पानी पिलाने गए थे. उनके पास तो कोई हथियार भी नहीं था. फिर पुलिस ने उन्हें क्यों मार दिया?’

धीरे-धीरे किसानों को समझ में आने लगा कि मुआवजा बढ़ाना उनकी समस्या का समाधान नहीं है

यमुना एक्सप्रेस वे और इसके साथ बन रहे रिहायशी व व्यावसायिक परिसरों के लिए भट्टा और सक्का गांवों को मिलाकर छह हजार बीघा जमीन सरकार ने लेकर एक निजी कंपनी को सौंप दी है. इसका लगातार विरोध कर रहे भट्टा, पारसौल और आछेपुर सहित आसपास के  किसानों ने आखिरकार  इस साल 17 जनवरी को भट्टा गांव के बाहर धरना शुरू किया था. उनका नेतृत्व कर रहे तेवतिया के साथ पांच किसानों ने प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी से मिलकर उन्हें इस संबंध में ज्ञापन भी सौंपा. इसके बाद लखनऊ में ही उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और वे दो हफ्तों बाद ही छूट सके.

एक्सप्रेस वे परियोजना अपने अंतिम चरण में है. सवाल उठता है कि किसानों ने तब विरोध क्यों नहीं किया जब जमीन ली जा रही थी. राजपाल के भाई श्रीपाल कहते हैं, ‘शुरू में बड़े-बड़े अफसर आए. डीलर आए. उन्होंने समझाया कि सरकार तो जमीन लेगी ही. अगर मर्जी से करार करके जमीन नहीं दोगे तो मुआवजा भी नहीं मिलेगा. हम डर गए व जमीन दे दी.’

किसानों का विरोध मुआवजा बढ़ाने की मांग से शुरू हुआ था. अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, बुलंद शहर और आगरा जिलों में एक्सप्रेस वे से लगे गांवों के किसानों ने उतने मुआवजे की मांग रखी, जितना ग्रेटर नोएडा के पास के किसानों को दिया गया था. लेकिन धीरे-धीरे किसान समझ गए कि मुआवजा बढ़ाना उनकी समस्या का समाधान नहीं है. उन्हें जमीन की असली कीमत का पता लगा. हाथरस के नगला कुशल गांव के रणवीर सिंह  एक हिसाब के जरिए इसे समझाने की कोशिश करते हैं, ‘मान लीजिए हमें पैसा मिल भी जाए तो वह तो कुछ ही साल में खर्च हो जाएगा. फिर अगली पीढ़ी कैसे जिएगी. उसके घर, नौकरी, शादी और इलाज का इंतजाम कैसे होगा? नौकरी का तो यह हाल है कि फौज में भरती होने के लिए तीन लाख रुपये देने पड़ रहे हैं. जमीन ही नहीं रहेगी तो हमलोग तो उजड़ जाएंगे.

वैसे मुआवजा बढ़ाने की मांग बड़े किसानों के एक छोटे-से हिस्से से ही उठ रही है, जबकि इस आंदोलन में शामिल किसानों का बड़ा हिस्सा उन मंझोले-छोटे और भूमिहीन किसानों का है जो जमीन छीने जाने का विरोध कर रहे हैं. ये छोटे और भूमिहीन किसान बंटाई पर खेती करते हैं जो उनकी आजीविका का एकमात्र जरिया है. सरकारी कोशिशें यह  रही है कि बड़े किसानों को थोड़ा अधिक मुआवजा देकर इस आंदोलन को दबा दिया जाए. इसीलिए सरकारी अधिकारियों की तरफ से जो भी बयान आते हैं वे मुआवजा बढ़ाने की किसानों की मांगों के संदर्भ में ही होते हैं. लेकिन इस आंदोलन को मजबूती छोटे-मंझोले तथा भूमिहीन किसानों से मिल रही है, जो मुआवजे की नहीं, जमीन अधिग्रहण को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. भट्टा के सुनील कहते हैं, ‘बड़े किसानों के पास तो कमाई का और भी रास्ता है. वे अपने खेतों को बंटाई पर उठा देते हैं. हम जैसे भूमिहीन लोगों के पास तो पर बंटाई पर खेती करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है. इसलिए हम जमीन छीने जाने का विरोध कर रहे हैं. वैसे भी मुआवजा मिलेगा तो जमीन के मालिकों को. हमें क्या मिलेगा? हमारी तो खेती बंद हो जाएगी.’ भट्टा के ही श्रीपाल कहते हैं, ‘हम जमीन देना नहीं चाहते. जमीन दे देंगे तो हम बेकार हो जाएंगे. जब जमीन ही नहीं रहेगी तो हम क्या करेंगे? तब तो हमें भीख भी नहीं मिलेगी.

इस बड़े जनसमर्थन के साथ शुरू हुए भट्टा के किसानों के अनशन पर किसी का ध्यान नहीं गया. उन दिनों जब देश को अन्ना हजारे के अनशन की सफलता के जश्न में डुबो दिया गया था- भट्टा, पारसौल और आछेपुर के किसान अपने विरोध की कीमत अपमान और दमन से चुका रहे थे. राजपाल बताते हैं, ‘दो महीने पहले अधिकारियों ने कुछ गांव वालों को बातचीत करने के लिए दनकौर बुलाया. कई महिलाओं समेत 50 लोग बात करने गए. लेकिन वहां उनके साथ मारपीट हुई.

धरने का कोई असर नहीं होता देख किसानों ने छह मई को परिवहन निगम के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया था. अगले दिन भट्टा के आंदोलनकारी किसानों पर डीएम और दूसरे अधिकारियों के नेतृत्व में जो फायरिंग हुई उसे इन बंधकों को छुड़ाने की कार्रवाई बताया गया. किसी ने किसानों के विरोध की वजह जानने और उनकी समस्या पर बात करने की गंभीर कोशिश नहीं की. गांववालों का कहना है कि उनके नेता तेवतिया ने बंधक बनाए गए कर्मचारियों के परिजनों को आश्वासन दिया था कि वे उन्हें सात मई की सुबह 11 बजे तक छोड़ देंगे. इसके बावजूद पुलिस धरना स्थल पर पहुंची और उन पर फायरिंग की गई. गांव में पुलिस और पीएसी के जवानों ने आतंक का माहौल बना दिया. उन्होंने लोगों को पीटा, घर फूंक डाले, सामान की तोड़-फोड़ की. इस आतंक के कारण गांव के मर्दों को घर छोड़कर खेतों, जंगलों और रिश्तेदारों की शरण लेनी पड़ी. भट्टा, पारसौल और आछेपुर गांवों के अधिकतर पुरुष लापता हैं. गांववालों को संदेह है कि पुलिस द्वारा बताई जा रही मृतकों की संख्या सही नहीं है. पारसौल की संतोष कहती हैं, ‘पता नहीं कितने लोग मारे गए. गांव से पुलिस निकलने नहीं दे रही है, इसलिए कुछ पता नहीं लग पा रहा है कि कौन कहां है.’ तोड़-फोड़ अधिकतर घरों में हुई है. घर में घुसकर लोगों को पीटा भी गया है. मुकुटलाल शर्मा की उम्र भी उन्हें और उनके घर को नहीं बचा पाई. 72 वर्षीय इस बुजुर्ग के शरीर पर चोट के गहरे नीले निशान हैं. गांव से कुल 22 लोग जेल में हैं.  नेतृत्व भूमिगत है. पुलिस ने गांवों को घेर रखा है.  फिर भी किसान आगे की लड़ाई के लिए तैयार हैं. पारसौल के विजेंद्र कहते हैं, ‘हमारी महिलाएं असुरक्षित हैं. हमारा सामान असुरक्षित है. ऐसे में सरकार अगर अब भी हमारी नहीं सुनती तो हम आगे की लड़ाई के लिए तैयार हैं.’

लेकिन सरकार के रवैये को देखकर नहीं लगता कि वह इन किसानों की सुनने जा रही है. इस एक्सप्रेस वे से जुड़े किसान आंदोलनों का ही इतिहास देखें तो एक साफ रणनीति उभर कर सामने आती है. जिन-जिन जगहों पर किसान जमीन छीने जाने के खिलाफ तथा अधिक मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे थे, वहां-वहां पुलिस ने हिंसक कार्रवाई की. इसके बाद बाहर से नेताओं के तूफानी दौरे हुए और किसानों का ध्यान जमीन और मुआवजे से हटाकर हत्याओं की जांच और उनके लिए इंसाफ पर केंद्रित करने की कोशिशें हुईं. बाजना में यही हुआ, टप्पल में यही हुआ और अब भट्टा-पारसौल में भी यही हो रहा है जहां हिंसक पुलिसिया कार्रवाई के बाद राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह आदि नेताओं ने दौरे किए.

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट देने का अधिकार नहीं होता. असहमति और विरोध का अधिकार भी लोकतंत्र का हिस्सा है. राज्य सरकार ने किसानों को बार-बार यह अनुभव कराया है कि उनके पास यह अधिकार नहीं है. जितनी जल्दी वह यह समझ लेगी कि जिस लोकतंत्र का प्रतिनिधि होने का वह दावा करती है, उसकी बुनियाद में ही ये अधिकार निहित हैं, लोकतंत्र की सेहत के लिए यह उतना ही अच्छा होगा. वरना भट्टा-पारसौल में सात मई को चली गोलियों के जरिए भविष्य के संकेत तो साफ हो ही गए हैं.