महाघोटाले की 'जमीन'

जयपुर के पॉश इलाके से गुजरते हुए शहर को जोड़ने वाला सबसे महत्वपूर्ण मार्ग है जेएलएन मार्ग. यहां जमीनों के भाव आसमान छूते हैं. यहीं गुलाबी शहर के सबसे कीमती इलाके जवाहर सर्किल से सटी है गोकुलवाटिका सोसायटी. यहां एक भूखंड एक लाख प्रति वर्ग गज की दर से भी महंगा बिकता है. कई बड़े घोटालों की तरह यहीं छिपा है देश का एक और महा घोटाला. जिसमें राज्य के आला अधिकारी अपने दायित्वों के विरुद्ध, चुपचाप और बड़ी चालाकी से 15 सौ करोड़ रुपये की 52 बीघा सरकारी जमीन को कौडि़यों के भाव हड़प गए.  

राज्य सरकार द्वारा की गई जमीन अवाप्ति (अधिगृहण), सोसायटी के पंजीयन, सहकारिता विभाग की जांच रिपोर्ट और न्यायालयों के आदेशों को बारंबार अंगूठा दिखाते हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने यहां न केवल आवासीय भूखंड खरीदे और मकान बनाए बल्कि कॉलोनी का नियमन तक कर दिया. इस प्रकरण में नगरीय विकास विभाग ने नियमन की भूमिका बनाई और जेडीए यानी जयपुर विकास प्राधिकरण ने आंख बंद करके नियमन किया. अहम बात यह रही कि गोकुलवाटिका का नियमन करने और उसकी भूमिका बनाने वाले अधिकारियों के भूखंड भी गोकुलवाटिका में ही हैं.

गोकुलवाटिका के अपने उद्देश्यों के विरुद्ध काम करने पर भी जेडीए ने कभी उसके खिलाफ  कार्रवाई नहीं की

जेडीए और नगरीय विकास विभाग के कॉलोनी नियमन के नियम स्पष्ट हैं. फिर भी नियमन करने वाले जिन अधिकारियों पर नियमों के पालन की जिम्मेदारी थी उन्हीं ने गोकुलवाटिका में आवासीय भूखंड हासिल करने के लिए नियमों को ताक पर रखा और कॉलोनी का नियमन कर दिया.

जमीन सरकारी और खरीददार अधिकारी

तहलका के पास मौजूद दस्तावेज खुलासा करते हैं कि गोकुलवाटिका की बसाहट राज्य सरकार की जमीन पर हुई है. दस्तावेजों के मुताबिक 25 मई, 1984 को जेडीए ने सामरिक दृष्टि से हवाई अड्डे के विस्तार के लिए इस 52 बीघा जमीन को अवाप्त (अधिगृहीत) किया था. 1993 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे जायज ठहराया था. हद तब हो गई जब सोसायटी के पंजीयन और जमीन की अवाप्ति संबंधी पड़ताल किए बिना ही 22 फरवरी, 2007 को नगरीय विकास विभाग ने महज 439 रु प्रति वर्ग गज की दर पर गोकुलवाटिका का कॉलोनी नियमन कर दिया. जबकि जेडीए विनियमन, 1998 के अलावा 22 दिसंबर, 1999 और 7 जनवरी, 2000 को जेडीए द्वारा जारी परिपत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अवाप्तशुदा जमीन पर अगर प्राधिकरण का अधिकार हो तो उसमें कॉलोनी नियमन नहीं किया जा सकता. इसी प्रकार 9 मार्च, 2000 को जेडीए द्वारा जारी एक अन्य परिपत्र कहता है कि नियमन के दौरान जमीन पर किसी तरह का विवाद या न्यायालय में प्रकरण नहीं होना चाहिए. जबकि गोकुलवाटिका नियमन के दौरान सोसायटी के विरुद्ध स्थानीय न्यायालय और हाई कोर्ट में जमीन के मालिकाना हक को लेकर दो प्रकरण चल रहे थे.

इसके पहले भी नगरीय विकास विभाग द्वारा कृषि भूमि पर बसी आवासीय कॉलोनियों के नियमन के लिए जारी कई परिपत्रों में यह स्पष्ट किया जा चुका था कि 22 अक्टूबर, 1999 से पहले की योजनाओं में 25 प्रतिशत से अधिक निर्माण होना चाहिए. इसके साक्ष्य में बिजली या पानी के बिल मान्य होंगे. इन परिपत्रों के मुताबिक जिस सोसायटी द्वारा कब्जे की नीयत से सरकारी जमीन पर भूखंड काटे गए हैं उसके विरुद्ध जेडीए द्वारा एफआईआर दर्ज कराई जाए और खाली जमीन को प्राधिकरण के अधिकार में लिया जाए. जबकि गोकुलवाटिका में नियमन की तारीख तक जेडीए की नोटशीट के मुताबिक एक दर्जन मकान भी नहीं बने थे. इसके बावजूद एफआईआर कराना तो दूर, आश्चर्य कि जेडीए ने गोकुलवाटिका का नियमन ही कर दिया. आश्चर्य यह भी कि इसके आसपास पंचशील एनक्लेव, विष्णु एनक्लेव, श्रीविहार और सियाराम नगर में 25 प्रतिशत से कहीं अधिक गृह निर्माण होने के बावजूद नियमन नहीं किया गया.

सहकारिता विभाग की तीनों जांचों में उजागर हुआ है गोकुलवाटिका हाऊसिंग सोसायटी नहीं है

राज्य के आला अधिकारियों से इतनी जानकारी की उम्मीद तो की ही जाती है कि एक बार जमीन पर तय प्रक्रिया के तहत सरकारी अवाप्ति हो जाए तो उसे खरीदना अपराध है. इस तरह के विज्ञापन भी जेडीए द्वारा समय-समय पर प्रसारित किए जाते हैं. इसके बावजूद गोकुलवाटिका की सरकारी जमीन पर उन्हीं अधिकारियों ने बढ़-चढ़कर भूखंड खरीदे जिन्हें सरकारी जमीन की रक्षा के लिए तैनात किया गया था. मुआयना करने पर यहां दो दर्जन से अधिक आला अधिकारी और उनके रिश्तेदारों के भूखंड पाए गए. इसी कड़ी में आईएएस डीबी गुप्ता की आईएएस पत्नी वीनू गुप्ता के नाम का भूखंड भी है. डीबी गुप्ता के नाम का उल्लेख यहां इसलिए खास हो जाता है कि गुप्ता इस पूरे प्रकरण के दौरान जेडीए आयुक्त थे जो  नियमन का काम करने के लिए उत्तरदायी प्राधिकरण है. 13 मार्च 2001 को आईएएस वीनू गुप्ता ने यहां 446 वर्ग गज का भूखंड खरीदा. भूखंड खरीदने के लिए हर नागरिक को स्टांप ड्यूटी चुकानी होती है. मगर आईएएस गुप्ता ने स्टांप ड्यूटी से बचते हुए यह भूखंड इकरारनामे के जरिए खरीदा.

यही नहीं नियमानुसार आवेदन के लिए जेडीए के नागरिक सेवा केंद्र के जरिए आवेदन करना अनिवार्य है. मगर यहां भी गुप्ता ने नियम विरुद्ध भूखंड के नाम हस्तांतरण के लिए नागरिक सेवा केंद्र की बजाय सीधे जेडीए जोन को आवेदन किया. उन्हें जोन में सिर्फ चार हजार छह सौ सत्तर रुपये नाम हस्तांतरण के लिए देने पड़े. कुल मिलाकर, गुप्ता ने यह भूखंड सिर्फ चार लाख एक हजार रुपये में अपने नाम करा लिया. जबकि उस समय बाजार दर के हिसाब से यह भूखंड अस्सी लाख रुपये का आंका गया था.  कथिततौर पर यहां एक अन्य भूखंड डीबी गुप्ता के रिश्तेदार प्रबोध भूषण गुप्ता के नाम से भी खरीदा गया.

जयपुर विकास प्राधिकरण ने सभी नियमित कॉलोनियों के नक्शे ऑनलाइन किए हैं सिवाय गोकुलवाटिका के

आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक गोकुलवाटिका नियमन का प्रस्ताव जब जेडीए की भवन निर्माण समिति में लाया गया था तो कुछ अधिकारियों ने विरोध करते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. यह पूरी कार्रवाई मिनिट्स में दर्ज है. 7 मई, 2005 को भवन निर्माण समिति की चर्चा (82वीं बैठक की एजेंडा संख्या 26)  में सहायक नगर नियोजक ने नियमन से पहले गोकुलवाटिका सोसायटी का निरीक्षण करने पर जोर दिया था. इस पर तत्कालीन जेडीए आयुक्त डीबी गुप्ता ने कहा कि योजना काफी पुरानी हो चुकी है और सोसायटी के पदाधिकारियों ने जमीन समर्पित करने में सहयोग किया है, लिहाजा योजना का अनुमोदन किया जाए (यहां गुप्ता यह बात छिपा गए कि जब जमीन सरकारी है और उस पर जेडीए का कब्जा हो ही चुका है तो सोसायटी कैसे उसे समर्पित कर सकती है और कैसे उस पर नियमन की प्रक्रिया हो सकती है). इस दौरान अतिरिक्त आयुक्त (पूर्व) और उपायुक्त(जोन-4) सहमत नहीं हुए और उन्होंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. इसके बाद भी भवन निर्माण समिति ने दोनों प्रमुख अधिकारियों की राय को दरकिनार करते हुए कहा कि उपायुक्त द्वारा सभी प्रशासनिक बिंदुओं की जांच हो चुकी है. अतः गोकुलवाटिका के नियमन का सैद्धांतिक अनुमोदन किया जाता है.

हाउसिंग सोसायटी न होते हुए भी

सहकारिता उपपंजीयक द्वारा अक्टूबर, 2010 में हाई कोर्ट में दिए गए जवाब और उसके पहले सभी विभागीय जांच रिपोर्टों से यह स्पष्ट होता है कि जेडीए ने नियमन से पहले सोसायटी के पंजीयन का परीक्षण नहीं किया साथ ही सहकारिता तथा पंजीयन विभाग द्वारा उसे समय-समय पर भेजी गई कई जांच और तथ्यात्मक रिपोर्टों को भी अनदेखा किया. हर जांच रिपोर्ट में उजागर हुआ कि गोकुलवाटिका सोसायटी का मूल उद्देश्य सामूहिक खेती और उससे संबंधित कार्य करना था. सोसायटी के पंजीयन में हाउसिंग सोसायटी का कहीं उल्लेख तक नहीं है. मगर गोकुलवाटिका सोसायटी ने अपने मूल उद्देश्य के विरुद्ध हाउसिंग सोसायटी न होते हुए भी हाउसिंग सोसायटी की तरह ही कार्रवाई की.

तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि 1960 में गोकुलवाटिका को एग्रीकल्चर सोसायटी के तौर पर पंजीकृत किया गया था. तब सोसायटी ने चैनपुरा गांव और मौजूदा दुर्गापुरा इलाके की 52 बीघा जमीन खरीदी थी. इसके उद्देश्यों में स्पष्ट लिखा है कि यह सोसायटी और इसके सभी 12 पदाधिकारी कृषि कार्यों और फार्म हाउस के लिए जमीन का उपयोग करेंगे. 21 जुलाई, 2003 को नगरीय विकास विभाग द्वारा जारी एक अधिसूचना में साफ उल्लेख है कि फार्म हाउस से संबंधित जमीन का मूल चरित्र इको फ्रेंडली (पर्यावरण के अनुकूल) तथा कृषि आधारित होगा. गोकुलवाटिका सोसायटी कृषि कार्यों के लिए ही पंजीकृत है और इसके नियम और उद्देश्य भी कृषि से संबंधित हैं. मगर जमीन की कीमत तेजी से बढ़ते देख सोसायटी के पदाधिकारियों ने इसे हाउसिंग सोसायटी के तौर पर प्रचारित किया और गृह निर्माण के लिए भूखंड काटने शुरू कर दिए.

गोकुलवाटिका सोसायटी के पंजीयन में मूल सदस्यों की संख्या 12 है. मगर 13 जून, 1994 को सहकारिता निरीक्षक किशोर कुमार जलूथरिया द्वारा की गई जांच रिपोर्ट में सदस्यों की संख्या 225 निकल आई. जांच के बाद खुलासा हुआ कि 225 सदस्यों में से 218 को आवासीय भूखंड आवंटित कर दिए गए हैं. जलूथरिया के मुताबिक सोसायटी के 12 मूल सदस्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी बाहरी हैं, जो एग्रीकल्चर सोसायटी की उपनियमों के विरुद्ध है. इसके बाद 27 मार्च, 1995 को उप सहकारिता पंजीयक भारतभूषण ने भी अपनी जांच रिपोर्ट में गोकुलवाटिका सोसायटी के हाउसिंग सोसायटी से संबंधित गतिविधियों को अवैध करार दिया. इसी प्रकार, 23 दिसंबर, 1996 को सहकारिता निरीक्षक वीरपाल सिंह ने भी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि सोसायटी ने अपनी मूल प्रकृति के विरूद्ध हाउसिंग सोसायटी के तौर पर पत्राचार किया और गलत तथ्यों के आधार पर आवासीय भूखंडन किया, जो धारा 130 के तहत जघन्य अपराध है. सहकारिता विभाग की जांचों ने कुछ अहम तथ्यों को भी उजागर किया. मसलन, सोसायटी ने कभी ऑडिट नहीं कराया, 1977 के बाद का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं कराया और लंबे समय से चुनाव भी नहीं कराया. अनियमितताओं की लंबी सूची सामने आने के बाद पदाधिकारियों ने उससे सबक लेना तो दूर, उल्टा उसी सूची में एक नयी अनियमितता जोड़ दी. 22 नवंबर, 2001 को उन्होंने गोकुलवाटिका हाउसिंग सोसायटी का लेटरहेड बनाया और उस पर सोसायटी के चुनाव की सूचना जेडीए सचिव को भिजवा दी. जबकि नियमानुसार यह सूचना सहकारी समिति को दी जाती है. सहकारी विभाग द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक सहकारी समिति के उपपंजीयक को इसकी सूचना 19 नवंबर, 2008 तक नहीं थी.

20 नवंबर, 2008 को सहकारी समिति के उपपंजीयक ने उपपंजीयक (हाउसिंग) को भेजी तथ्यात्मक रिपोर्ट में एक बार फिर स्पष्ट किया कि गोकुलवाटिका हाउसिंग सोसायटी नहीं है. रिपोर्ट में कहा गया कि धारा 68 के तहत सोसायटी के विरुद्ध कार्रवाई की जा रही है और धारा 68ए के तहत उसे नोटिस जारी किया जा चुका है. मगर सहकारिता विभाग द्वारा इन जांचों के आधार पर कोई कार्रवाई न करने का नतीजा यह हुआ कि राज्य की प्रशासनिक लॉबी ने राजधानी की इस बेशकीमती सरकारी जमीन का बंदरबांट कर लिया, जिसमें जेडीए और नगरीय विभाग के कुछ अधिकारी सहित सोसायटी के पदाधिकारी भी लाभान्वित हुए. इस पूरे प्रकरण पर तत्कालीन जेडीए आयुक्त डीबी गुप्ता का मानना है, ‘गोकुलवाटिका का अंतिम निर्णय जेडीए का नहीं बल्कि सरकार का है.’ वहीं दूसरी और सहकारिता मंत्री परसादी लाल मीणा इस मसले पर अनभिज्ञता जताते हुए कहते हैं कि यह मामला काफी पुराना है और वे इसके दस्तावेज देखने के बाद ही पर कुछ कह सकते हैं.

हालांकि यह हाईप्रोफाइल प्रकरण हाईकोर्ट में चल रहा है, इसलिए तीनों (जेडीए, नगरीय विकास और सहकारी) विभागों के जवाबदेह अधिकारी कोई सार्वजनिक जवाब देने से बच रहे हैं, ऐसे में सहकारी समिति के पूर्व सह पंजीयक अशोक कुमार का साफ जवाब है कि किसी भी कॉलोनी नियमन के लिए सहकारी समिति की राय लेना जरूरी होता है लेकिन ‘गोकुलवाटिका के नियमन में जेडीए ने सहकारी समिति से कोई राय नहीं ली.’  

गलत तथ्यों का आधार

मौजूद दस्तावेज और पड़ताल से यह जाहिर होता है कि गोकुलवाटिका नियमन के दौरान न केवल अहम तथ्यों को छिपाया गया बल्कि गलत तथ्यों को भी आधार बनाया गया था. गोकुलवाटिका नियमन की भूमिका बनाने में तत्कालीन नगरीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव परमेशचंद्र की भूमिका अहम बताई जाती है. परमेशचंद ने भी गोकुलवाटिका में ही आवासीय भूखंड लिया था, जिस पर उनका बंगला बनकर तैयार हो चुका है. 22 जुलाई, 1997 को परमेशचंद्र ने एक पत्र तत्कालीन विधि सचिव एनसी गोयल के पास विधिक राय के लिए भेजा था. उन्होंने जानना चाहा था कि क्या गोकुलवाटिका को एग्रीकल्चर की बजाय हाउसिंग सोसायटी मानना उपयुक्त होगा? गोयल का स्पष्ट जवाब था कि सहकारिता पंजीयक द्वारा पंजीयन से इनकार किया जा चुका है, लिहाजा इसे हाउसिंग सोसायटी नहीं माना जा सकता. बात बिगड़ती देख परमेशचंद्र ने दुबारा लिखा कि सोसायटी की उद्देश्य संख्या छह और 14 में सदस्यों के गृह निर्माण का उल्लेख है. इसके अलावा, सोसायटी द्वारा एक जनवरी, 1973 को सहकारिता पंजीयक को हाउसिंग सोसायटी के रूप में माने जाने के लिए पत्र लिखा गया था.

अहम बात है कि सोसायटी की उद्देश्य संख्या 6 और 14 में सदस्यों के रहने के लिए मकान बनाने का प्रावधान तो है लेकिन उन सदस्यों का मूल कार्य खेती करना था. जबकि गोकुलवाटिका के आवासीय भूखंड उन बड़े अधिकारियों, व्यापारियों और उद्योगपतियों को दिए गए हैं जिनका खेती से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है. जहां तक सवाल सोसायटी द्वारा 1 जनवरी, 1973 को सहकारिता पंजीयक को हाउसिंग सोसायटी के रुप में माने जाने के लिए लिखे पत्र का है तो सहकारी विभाग द्वारा गोकुलवाटिका सोसायटी की हुई अलग-अलग जांचों से यह सामने आया है कि ऐसा कोई पत्र सहकारिता पंजीयक को कभी नहीं मिला. हालांकि बाद में ऐसे अहम तथ्यों की अनदेखी करते हुए जुलाई, 1997 में विधि सचिव और 25 सितंबर, 2001 को महाधिवक्ता ने हाउसिंग सोसायटी के पक्ष में अपनी राय जाहिर कर दी. यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि 3 अक्टूबर, 2002 को राजस्थान में सहकारिता कानून लागू हो गया था, जिसमें राज्य मंत्रिमंडल से सोसायटी के मूल उद्देश्यों को बदलने का अधिकार वापस ले लिया गया. इसके बावजूद सात जून, 2003 को नगरीय विकास विभाग ने महाधिवक्ता की राय को आधार बनाया और मंत्रिमंडल से निर्णय करा लिया. इसमें नये सहकारिता कानून को भी छिपा लिया गया. आखिर, नगरीय विकास विभाग ने दो जुलाई, 2003 को जेडीए को एक पत्र {संख्या 5(18) नविवि, 385} के जरिए सूचित किया कि मंत्रिमंडल ने गोकुलवाटिका सोसायटी की आवासीय योजना को अनुमोदित किया है. मगर यह सूचना भी सहकारिता विभाग को नहीं दी गई. जबकि सहकारिता विभाग को यह सूचना देना अनिवार्य है. सरकारी जमीन पर नियमन के विरुद्ध जनहित याचिका दायर करने वाले संजय शर्मा जेडीए द्वारा 7 जनवरी, 1997 को जारी एक अधिसूचना का हवाला देते हुए बताते हैं कि अगर कोई निर्माण होने की स्वीकृति गलत तथ्यों के आधार पर सक्षम अधिकारी से मिलीभगत करके ली जाती है तो ऐसी स्वीकृति स्वतः अवैध मानी जाती है. इसलिए गोकुलवाटिका का निर्माण कार्य भी अवैध माना जाएगा और यह सोसायटी भी.
जेडीए ने सभी नियमित कॉलोनियों के नक्शे और कॉलोनियों के आवंटियों की सूची ऑनलाईन कर रखी है, लेकिन जयपुर की संभवतः गोकुलवाटिका एकमात्र ऐसी कॉलोनी है जिसका ऑनलाइन रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं किया गया. न तो इस कॉलोनी का नक्शा ही सार्वजनिक है और न ही कॉलोनियों के आवंटियों का विवरण. इसी प्रकार, पुराने नक्शे में गोकुलवाटिका को भूखंडों के अनुसार बांटा गया था, जबकि नये नक्शे में इसे ब्लॉकों के अनुसार बांट देने से भूखंड आवंटियों की जानकारी नहीं मिल पा रही है. संजय का आरोप है कि गोकुलवाटिका में जिन अधिकारियों ने भूखंड हासिल किए हैं वे नहीं चाहते कि उनके नाम के साथ ही सोसायटी से जुड़ी सूचनाएं भी जगजाहिर हों.

यह आम रास्ता नहीं है

गोकुलवाटिका में जमीन की कीमत जयपुर की उन सभी जमीनों के मुकाबले सर्वाधिक है जिन्हें एक दशक के दौरान जेडीए ने अतिक्रमणमुक्त कराया है. नियमन के दौरान गोकुलवाटिका के पास का एक भूखंड एक लाख रुपये प्रति वर्ग गज के हिसाब से बिका था. इस लिहाज से 2007 में ही इस 52 बीघा यानी एक लाख 56 हजार 600 वर्ग गज जमीन की बाजार दर 15 सौ करोड़ रुपये आंकी गई थी. गांधीवादी कार्यकर्ता सवाई सिंह का मत है कि अगर यह जमीन सरकार के पास होती तो जनहित  की किसी बड़ी परियोजना के उपयोग में लाई जा सकती थी. सिंह का आरोप है कि जेडीए एक बड़ा भूमाफिया बन चुका है और गोकुलवाटिका इसकी एक बड़ी नजीर है.

राजस्थान हाई कोर्ट के वकील प्रेमकृष्ण शर्मा का कई पुख्ता साक्ष्यों के आधार पर यही मानना है कि गोकुलवाटिका का नियमन जेडीए और सहकारी कानूनों के खुले उल्लंघन का बड़ा खेल है. इस दौरान बड़े अधिकारियों ने सोसायटी के पदाधिकारियों के साथ मिलकर कई आपराधिक कारनामों को अंजाम दिया है. इस प्रकरण में दोषियों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की तकरीबन बीस धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हो सकते हैं. इनमें दो साल से लेकर आजीवन कारावास तक के प्रावधान हैं. यह दूसरी बात है कि अतिक्रमणमुक्त जयपुर के नाम पर गरीबों की दर्जनों बस्तियां उजाड़ने वाले जेडीए की अरबों रुपये की इस जमीन पर उसी के आला अधिकारी हर स्तर पर कानून की अवहेलना करते हुए कब्जा जमाए हैं. उन पर कार्रवाई होना तो दूर, उल्टा उन्हीं के लिए और उन्हीं के द्वारा कई तरह की सुविधाएं जुटाई जा रही हैं. भले ही राजस्थान में तीन हजार से ज्यादा कॉलोनियों के कई मामले समय पर न निपटाए जाते हो लेकिन मामला अगर गोकुलवाटिका से जुड़ी योजना का हो तो निर्णय लेने में देर नहीं लगती. जैसे कि अनुमोदित कॉलोनियां में स्वीकृत सड़कें निकालने में ही आम जनता को खासी परेशानियां आती हैं लेकिन विवादास्पद गोकुलवाटिका को और अधिक सुविधासंपन्न बनाने के लिए यहां के खास रहवासियों को कोई परेशानी नहीं आई. यहां के लिए एयरपोर्ट प्लाजा की बेशकीमती जमीन पर एक खास सड़क निकाली गई है. यहां तक कि तामरा गार्डन की निजी तथा विवादास्पद जमीन पर भी न्यायालय के यथास्थिति के आदेश को एक तरफ रखते हुए साठ फुट चौड़ी सड़क निकाले जाने पर भी मुहर लगाई जा चुकी है.
अमानीशाह नाले से विस्थापित रूपकुमार का आरोप है कि सरकारी जमीनों से तो गरीबों को उजाड़ा जाता है, ताकि वहां बड़े बाबुओं का राज हो जाए. सरकारें बदलने के बावजूद इस प्रकरण में कार्रवाई न होने से विस्थापित तबके के बीच यह धारणा और मजबूत हुई है कि कानून केवल आम जनता के लिए होता है. बीते विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने तत्कालीन भाजपा सरकार के विरूद्ध विवादास्पद गोकुलवाटिका का मुद्दा भुनाया था लेकिन पार्टी ने चुनाव जीतने के बाद इसे भुलाने में भी देर नहीं की. 23 अगस्त, 2008 को कांग्रेस की ओर से जारी एक ब्लैकपेपर के हवाले से कहा गया था कि भाजपा सरकार ने गोकुलवाटिका में करोड़ों रुपये डकारे हैं. मगर कांग्रेस सरकार बनने के बाद गोकुलवाटिका प्रकरण में लिप्त अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई, उल्टा उनमें से कुछेक को मौजूदा सरकार ने प्रमुख विभागों में प्रमुख शासन सचिव तक बनाया है.