ममता की छांव तले

वे इस दिन का पिछले 27 साल से इंतजार कर रही थीं. दिसंबर, 1984 में जब माकपा की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली सीटों में से एक जाधवपुर में उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को हराया तो यह ऐसा था मानो किसी बच्चे ने शेर का शिकार कर दिया हो. तब से ही ममता बनर्जी ने वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंकने का सपना अपने मन में पाला हुआ था जो अब 27 साल बाद कहीं जाकर हकीकत में तब्दील हुआ है. ममता के इस उभार के पीछे की कहानी क्या है और उन्हें विरासत में किस तरह का बंगाल मिलने जा रहा है? और इस बंगाल के लिए उनके पास क्या योजनाएं हैं?

मुख्यमंत्री के बतौर ममता की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे किस हद तक बुद्घदेव के ही एजेंडे को लागू कर पाती हैं

ममता की जीत को सिंगूर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों के परिणाम के रूप में देखना अधूरी तसवीर देखने सरीखा होगा. निश्चित रूप से सिंगूर और नंदीग्राम के प्रदर्शनों और उपजाऊ जमीन को टाटा मोटर्स को सौंपे जाने के खिलाफ ममता बनर्जी की भूख हड़ताल ने तृणमूल कांग्रेस में एक नया जोश और जज्बा पैदा किया. फिर भी अगर आज ममता जीत रही हैं तो इसमें दूसरी महत्वपूर्ण चीजों का भी योगदान है. ममता जनता की बदलाव की भावना या थोड़े बंगाली लहजे में कहें तो ‘पॉरिबॉर्तन’ की प्रतिनिधि बन गईं. पश्चिम बंगाल की जनता पिछले तीन दशकों के माकपा शासन की एकरसता और आत्ममुग्धता से ऊब चुकी थी. यह भी विडंबना ही है कि बदलाव की इस बयार की जड़ में कई मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें ममता द्वारा खलनायक के रूप में पेश किए गए बुद्घदेव भट्टाचार्य ने ही सबसे पहले उठाया था. 2006 में बुद्घदेव भट्टाचार्य ने खुद को अपनी ही पार्टी की परंपरागत नीतियों के खिलाफ दिखाकर भारी जनादेश हासिल किया था. उन्होंने व्यापार के अनुकूल माहौल बनाने की बात की, नौजवानों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने की बात की, कोलकाता के पुनर्निर्माण की बात कही जिसमें उदाहरण के तौर पर कई फ्लाईओवरों का निर्माण भी शामिल था. संक्षेप में कहें तो वे एक बदली हुई सहृदय और विनम्र स्वभाव वाली माकपा की बात कर रहे थे. यह माकपा की पश्चिम बंगाल के समाज के हर क्षेत्र में कठोरता के साथ हस्तक्षेप रखने-करने वाली उस पारंपरिक छवि के विपरीत था जो पार्टी ने दशकों के शासनकाल में खुद को दी थी. मगर सिंगूर के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि माकपा ऊपरी बदलाव से अधिक की इजाजत नहीं दे सकती. परिणामस्वरूप भट्टाचार्य को राइटर्स बिल्डिंग से एक ऐसे आदमी की तरह रुखसत होना पड़ रहा है जिसकी नीयत में कोई खोट नहीं था, जिसके विचार ठीक थे लेकिन जो उन्हें लागू करने की क्षमता नहीं रखता था. बहुत हद तक मुख्यमंत्री के बतौर ममता की सफलता इस बात पर ही निर्भर करेगी कि वे किस हद तक बुद्घदेव के एजेंडे को लागू कर पाती हैं.

लेकिन बंगाल ने इस तरह वोट क्यों किया? भविष्य को लेकर ममता की क्या योजनाएं हैं? यह समझने के लिए बंगाल को इसकी राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के प्रिज्म से देखना पड़ेगा. ममता ने इनमें से पहले यानी राजनीति पर पकड़ बनाई, समाज को अपने वश में किया और तीसरी चीज यानी अर्थव्यवस्था उनका और बंगाल का भविष्य तय करने वाली है.

कोलकाता में रिजवानुर रहमान की मृत्यु ने तृणमूल के हाथ में मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी दे दिया

पहले राजनीति की ही बात करते हैं. वाममोर्चा के गढ़ के ढहने की भविष्यवाणी एक प्रकार से 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान ही हो गई थी जब तृणमूल और कांग्रेस ने मिलकर 42 में से 26 लोकसभा सीटों पर जबर्दस्त जीत अर्जित की थी. पूरे खेल का रुख बदल देने वाले इस जनादेश के पहले और बाद में एक-एक कर समाज के तमाम हिस्से तृणमूल में शामिल होते चले गए. टूटने वाला पहला हिस्सा वामपंथी बुद्घिजीवी समुदाय था जो बुद्घदेव पर मार्क्सवादी विचारधारा से भटक जाने के आरोप लगा रहा था. इस बौद्घिक समुदाय की भूमिका को ठीक से समझने की जरूरत है, जिसे ममता बनर्जी का एक विज्ञापन पार्टी का ‘सांस्कृतिक प्रतीक’ कहता है. बंगाल से बाहर के लोगों को यह समझ में आना जरा मुश्किल है कि बंगाल के किसी भावी मुख्यमंत्री को नाटककारों और कवियों की एक पूरी फौज का साथ क्यों चाहिए और किसी पार्टी को अपने चुनाव घोषणापत्र में यह लिखने की जरूरत क्यों पड़ती है कि वह साहित्य, फिल्म, थिएटर, कविता, संगीत और चित्रकारी की महान बंगाली परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयास करेगी. ये इतिहास के एक खास मोड़ पर बंगाली पुनर्जागरण के प्रमुख घटक रहे हैं और इनसे जुड़ाव ने बंगाली मध्यवर्ग में वर्षों से बनी तृणमूल कांग्रेस की सड़कछापों वाली छवि को तोड़कर उसे एक खास तरह का सम्मान दिलाया है.

इन तथाकथित सांस्कृतिक प्रतीकों से अपने को जोड़ने की ममता की आकांक्षा का आलम यह है कि उनकी पार्टी ने कोलकाता के मृतप्राय थिएटरों को सरकारी खर्चे पर पुनर्जीवित करने की घोषणा तक कर रखी है. दक्षिणी कोलकाता के कालीघाट में ममता के घर के पास के एक पुराने थिएटर का तृणमूल के कब्जे वाली नगर महापालिका ने अधिग्रहण कर लिया है और फिल्म अभिनेता स्वर्गीय उत्तम कुमार के नाम पर इसका नामकरण किया गया है. किस्सा यहीं खत्म नहीं होता. ममता ने बंगाल के कई सांस्कृतिक प्रतीकों को चुनाव में प्रत्याशी भी बनाया. माकपा प्रत्याशी और बंगाल के आवास मंत्री गौतम देव के खिलाफ प्रतिभाशाली नाटककार और अभिनेता ब्रत्य बसु को दमदम से प्रत्याशी बनाया गया. उनके सहयोगी उन्हें विचारधारात्मक रूप से ‘वामपंथियों के भी बायें’ और भविष्य में तृणमूल का सांस्कृतिक चेहरा मानते हैं. इन ‘सांस्कृतिक प्रतीकों’ को अपने साथ जोड़ने को लेकर ममता इतनी गंभीर हैं कि हो सकता है दो तिहाई बहुमत पाने के बाद जल्द ही वे पश्चिम बंगाल विधान परिषद को पुनर्जीवित करके अपने इस नये समर्थक वर्ग में से कइयों को इसमें नामित करना शुरू कर दें. सांस्कृतिक लोगों को अपने पक्ष में करना ममता के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि यह एक तरह से ब्रांड बनाने की कवायद जैसा था. अब तक उनकी पार्टी दक्षिणी बंगाल के कस्बों और छोटे शहरों तक ही सीमित थी. इन इलाकों में पुराने औद्योगिक मजदूरों के परिवार, बेरोजगार नौजवान और वामपंथ की छत्रछाया से बाहर धकेल दिए गए लोग रहते हैं. ग्रामीण बंगाल में परिवर्तन की बड़ी प्यास तब जगी जब सिंगूर और नंदीग्राम में माकपा ने मुसलमानों के एक समुदाय को केमिकल फैक्टरी के लिए विस्थापित करने की कोशिश की.

1951 में कोलकाता में राज्य की 10.3 फीसदी आबादी रहती थी, लेकिन आज यह आंकड़ा घटकर 5 फीसदी पर पहुंच गया है

नंदीग्राम के साथ ही कोलकाता में रिजवानुर रहमान की मृत्यु भी एक बड़ा मुद्दा बनी. कथित तौर पर उसके विवाह से नाखुश हिंदू ससुर के कहने पर पुलिस ने रिजवानुर को इतना प्रताड़ित किया कि उसने आत्महत्या कर ली. इसने तृणमूल के हाथ में मुसलिम मतदाताओं को आकर्षित करने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा दे दिया. परिणाम अब सबके सामने है. माकपा के एक नेता स्वीकार करते हैं, ‘दक्षिणी कोलकाता में, खास तौर पर कोलकाता और आसपास के जिलों में हम मुसलिम वोट पूरी तरह खो चुके हैं.’ बंगाल में चुनाव जीतने के लिए मुसलमान काफी नहीं हैं, लेकिन करीब 30 फीसदी आबादी के चलते चुनाव जीतने के लिए उनका साथ होना बेहद जरूरी है. दक्षिणी बंगाल से गुजरते हुए साफ दिखाई पड़ता है कि ममता बुद्घदेव भट्टाचार्य को खलनायक बनाने में सफल रही हैं, एक ऐसा खलनायक जिस पर मुसलमान भरोसा नहीं कर सकते. तृणमूल के एक पदाधिकारी कहते हैं कि ‘मुसलमानों को माकपा से कोई समस्या नहीं है, लेकिन उन्होंने बुद्घदेव के खिलाफ मत देने का निर्णय लिया है.’ स्थितियां 1990  के दशक की याद दिलाती हैं. बाबरी विध्वंस के बाद उत्तर भारतीय मुसलमान को कांग्रेस से उतनी समस्या नहीं थी, लेकिन पीवी नरसिंहराव के प्रति उनका अविश्वास चरम पर था. राव की हार के बाद मुसलमानों का विश्वास फिर से हासिल करने के लिए गांधी-नेहरू परिवार की दूसरी पीढ़ी को सामने आना पड़ा. चुनावों के बाद मुसलमानों के माकपा में आने का सिलसिला तभी शुरू हो सकता है जब वह बुद्घदेव को पार्टी नेता की जगह से हटा दे.

जैसे-जैसे वामपंथ में पराजयवाद घर कर रहा था, इसे मजबूती देने वाले खंभे एक के बाद एक ढहे जा रहे थेे. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता बताते हैं कि कोलकाता के व्यापारी खास तौर पर मारवाड़ी समुदाय के लोग और कुछ पंजाबी और गुजराती भी कम्युनिस्टों की अपेक्षा ममता बनर्जी को अधिक उदारतापूर्वक चंदा दे रहे थे. ‘मेरी सीट पर मुझे अपने पोस्टर लगवाने के लिए स्थानीय पार्षदों को पैसा देना पड़ा, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों. उन्होंने बहुत ऊंची कीमत मांगी लेकिन माकपा उन्हें वे कीमतें नहंी दे पाई.’ लंबे समय से माकपा के करीबी रहे कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर बताते हैं, ‘हमें खतरे का अंदाजा तभी हो गया जब हॉकर और ऑटोरिक्शा यूनियनें हमारे खिलाफ हो गईं. वे तृणमूल के साथ चले गए हैं.’

आखिर कोलकाता और आसपास के इलाकों में हॉकर और ऑटोरिक्शा यूनियनों का पाला बदलना इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें पिछले 34 वर्षों में परिश्रम से बने माकपा के गढ़ के बारे में कुछ बातें जाननी होंगी. पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था न तो साम्यवादी है और न ही बाजारवादी. इसे माकपाई अर्थव्यवस्था कहना ज्यादा उचित होगा. इसने कैसे काम किया?
ऐसे समझते हैं कि आठ ऑटो लाइन में खड़े हैं और एक जगह से दूसरी जगह नियमित तौर पर फेरी लगाते हैं. स्थानीय पार्टी पदाधिकारी एक नोटबुक में उनके फेरों का ब्योरा रखता है. उन्हें इन दो जगहों के बीच की दूरी तय करने में जितना समय लगता है, उतने ही समय में वापस आना होता है. यदि किसी ड्राइवर को किसी फेरे में ज्यादा समय लगता है, तो उसे इसकी सफाई देनी पड़ती है, उसे अपने रूट से इधर-उधर जाने और अतिरिक्त सवारियां बैठाने के लिए दंडित किया जाता है.

देश के 600 जिलों में से 18 पश्चिम बंगाल में हैं. जबकि इन 18 में से 14 देश के 100 सबसे गरीब जिलों में शामिल हैं

समतावाद की नीति भी अपनी जगह पर कायम है. यदि कोई ड्राइवर 25 साल का है और पूरी तरह स्वस्थ है और दूसरा 55 साल का है और जल्दी थक जाता है, तो नौजवान ड्राइवर इस बात का फायदा उठाते हुए अतिरिक्त फेरे लगाकर ज्यादा पैसा नहीं बना सकता. वह दूसरे ड्राइवरों जितने ही फेरे लगा सकता है और हर फेरे के खात्मे पर उसे लाइन के अंत में आकर लगना होता है. इस तरह पार्टी समानता के सिद्घांत को लागू करती है और मु्क्त प्रतियोगिता की पाश्विक वृत्तियों पर लगाम लगाती है. यही फार्मूला हॉकरों पर भी लागू होता है कि वे कैसे केवल उनके लिए तय घरों में ही अखबार पहुंचाएंगे, उनकी शारीरिक स्थिति चाहे जो हो.

पूर्व प्रोफेसर बताते हैं, ‘मैंने ऐसा रजिस्टर देखा है. इन्हें बड़ी मेहनत से व्यवस्थित किया जाता है. ड्राइवर या हॉकर को अपनी आय से एक हिस्सा पार्टी को सुरक्षा कोष के बतौर देना पड़ता है. बदले में पार्टी इनके बीच बराबरी का व्यवहार सुनिश्चित करती है. अगर कोई बीमार पड़ता है और कुछ दिन काम नहीं कर पाता तो सुरक्षा कोष में से पार्टी उसे कुछ पैसा भी देती है.’ आज ये पूरी तरह से तृणमूल के पाले में चले गए हैं. यूनियनें और व्यापार संगठन माकपा के वर्चस्व के आधार रहे हैं और स्थानीय स्तर पर संगठन को चलाने के लिए धन भी मुहैया कराते रहे हैं. ये मंझोले स्तर के नेताओं को ताकत भी देते हैं और एक प्रतिबद्ध वोट बैंक भी तैयार करते हैं. माकपा से जुड़े एक बुद्धिजीवी कहते हैं, ‘ये बहुत अच्छे और उपयोगी पार्टी ढांचे हैं. मुझे नहीं पता तृणमूल इनका क्या करेगी. अगर उनमें जरा भी समझदारी है तो वे इन्हें ऐसे ही बनाए रखेंगे.’

मगर इस छोटे-मोटे अर्थतंत्र के इतर अर्थव्यवस्था से जुड़े कुछ बड़े पहलू भी हैं. पश्चिम बंगाल एक समय भारत का औद्योगिक केंद्र था. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में देश में सबसे पहला स्टील प्लांट और छोटे कल-कारखाने यहीं लगाए गए थे. जैसे-जैसे तकनीक का जोर बढ़ा, प्रदेश को इस औद्योगिक अर्थव्यवस्था के आगे ले जाए जाने की जरूरत थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और प्रदेश अन्य राज्यों से पिछड़ता चला गया. आईटी और बीपीओ बेंगलुरु और हैदराबाद में खुले. 1980 के दशक की शुरुआत में तकनीक और कंप्यूटरीकरण का विरोध और प्राइमरी स्कूलों से अंग्रेेजी हटा देना एक बेहद प्रतिगामी कदम रहा जिसने बंगाल की दो पीढ़ियों को अन्य राज्यों की तुलना में तमाम लाभों से वंचित कर दिया. मोटे तार पर यह ऐसी बात है जिसके लिए कोलकाता के लोगों ने माकपा और खास तौर पर 1977-2000 तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु को कभी माफ नहीं किया.

तृणमूल ने इसका इस्तेमाल वाम दलों पर निशाना साधने के लिए किया. पार्टी के घोषणा पत्र में कहा गया है, ‘1975-76 में राज्य की अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 19 फीसदी थी. 2008-09 में यह घटकर 7.4 फीसदी रह गई.’ इस दौरान गुजरात में यह आंकड़ा 19 फीसदी से बढ़कर 29.6 फीसदी पर पहुंच गया. ममता ने राज्य के औद्योगिक विकास को बाधित करने का दोष माकपा पर मढ़ा है.

सबसे बड़ी समस्या यह है कि बीते दशक में बंगाल ने अवसरों का लाभ नहीं उठाया. 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई और इसके बाद तीन पंचवर्षीय योजनाएं बनीं. आठवीं योजना में राज्य का सकल घरेलू उत्पाद (एसडीपी) राष्ट्रीय औसत से कम रहा जबकि नौवीं योजना में यह राष्ट्रीय औसत से थोड़ा अधिक रहा. लेकिन दसवीं योजना में देश की जीडीपी जहां 7.7 फीसदी रही वहीं बंगाल की एसडीपी की दर उससे काफी कम 6.1 फीसदी थी. हालांकि, लक्ष्य 8.8 फीसदी रखा गया था. दसवीं योजना की अवधि में ही बंगाल में भट्टाचार्य की सरकार रही. इसलिए कहा जा सकता है कि उन्हें जो विरासत में मिला था उसका खामियाजा वे भुगत रहे थे. वैसे भी सियासत और कृषि के मामले में कहा जाता है कि फसल लगाने वाले से ज्यादा नाम उसका होता है जो फसल काटता है.

कोलकाता की स्थिति में गिरावट बंगाल की बदहाली को दिखाती है. 1951 में कोलकाता में राज्य की 10.3 फीसदी आबादी रहती थी, लेकिन आज यह आंकड़ा घटकर 5 फीसदी पर पहुंच गया है. किसी और राज्य की राजधानी की ऐसी बदहाली नहीं हुई है. हाल ही में परिसीमन के बाद कोलकाता में 11 विधानसभा सीटें हैं जबकि 2006 में सीटों की संख्या इसके करीब दोगुना 21 थी. इससे पता चलता है कि शेष बंगाल की तुलना में कोलकाता की आबादी घट रही है.

2009 में अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय और लवीश भंडारी ने पश्चिम बंगाल की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में कोलकाता बंदरगाह की बदहाली का अध्ययन किया गया था. कभी यह बंदरगाह भारत के वैश्विक कारोबार का मुख्य द्वार हुआ करता था. दसवीं योजना में इस बंदरगाह के लिए यह लक्ष्य तय किया गया था कि यहां से हर साल औसतन 2.14 करोड़ टन माल की आवाजाही होगी. 2002-03 में इस बंदरगाह से 72 लाख टन, 2006-07 में 1.26 करोड़ टन और 2009-10 में तकरीबन 1.3 करोड़ टन माल की ही आवाजाही हुई.

बराबरी की बात करने वाली पार्टी की सरकार द्वारा शासित राज्य का समाज भी उसके तीन दशक से ज्यादा के शासन के बाद भी बुनियादी स्तर पर समान नहीं है. अपनी सभाओं में ममता कहती हैं कि राज्य के महज 16 फीसदी अस्पताल ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं और इनमें से भी एक चौथाई ही ग्रामीण क्षेत्रों में हैं. जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में राज्य की 72 फीसदी आबादी रहती है. माकपा गांवों पर ध्यान देने की बात भले ही करती रही हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य सामाजिक जरूरतों को पूरा करने में उसकी सरकार पूरी तरह से नाकाम रही.

पुरुलिया और बांकुड़ा जैसे दक्षिण बंगाल के जिले खास तौर पर पिछड़े हुए हैं. उत्तर दिनाजपुर राज्य का सबसे गरीब जिला है और इसकी प्रति व्यक्ति एसडीपी कोलकाता की एक तिहाई है. भारतीय सांख्यिकी संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक मुर्शिदाबाद के 56 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. देश के 600 जिलों में से 18 बंगाल में हैं. जबकि इन 18 में से 14 देश के 100 सबसे गरीब जिलों में शामिल हैं.

सच्चाई तो यह है कि भट्टाचार्य ने बंगाल के ठहराव को समझ लिया था. 2006 में उन्होंने उन बदलावों की बात की थी जिन्हें ममता ने पांच साल बाद अपने परिवर्तन के वादों में शामिल किया. थोड़े समय के लिए बुद्धदेव की बातों का असर दिखा भी. टाटा मोटर्स निवेश के लिए तैयार भी हुई लेकिन कोलकाता के एक कारोबारी की मानें तो उसकी (टाटा मोटर्स) रजामंदी बेहद फायदे वाले जमीन समझौते के बाद हुई थी. इस कारोबारी के मुताबिक, ‘अगर बुद्धदेव टाटा को राजमार्ग से सटी बेहद मौके की जमीन नहीं देते, जिस पर उसके कर्मचारियों के लिए टाउनशिप बसाई जा सकती हो, तो वे निवेश के लिए तैयार नहीं होते. कोई नहीं आता. क्योंकि बंगाल पर कोई दांव लगाने को तैयार नहीं था.’

यहां के बिगड़े हालात का एक अन्य संकेतक है कोलकाता का लग्जरी होटल उद्योग. सालों तक यहां ओबरॉय ग्रैंड के अलावा कोई दूसरा पांचसितारा होटल नहीं था. 1980 के दशक में यहां ताज बंगाल खुला और 2000 के ठीक बाद सोनार और हयात की शुरुआत हुई. आईटीसी सोनार में 800 कमरे हैं और यह शहर का सबसे बड़ा होटल है. पर यह आईटीसी के मुंबई और बेंगलुरु के नये होटलों की तुलना में छोटा है. ओबरॉय में भी 300 कमरे हैं, लेकिन कारोबार की पर्याप्त संभावना नहीं होने की वजह से 100 बंद रहते हैं. ऐसा दिल्ली और मुंबई के किसी होटल में नहीं हो सकता. 2006 के चुनाव के दौरान हुई आर्थिक संभावनाओं की बारिश के चलते आईटीसी ने यहां 500 कमरे के एक दूसरे होटल की योजना बना डाली. जेडब्ल्यू मैरियट समूह भी यहां 800 कमरों का होटल बना रहा है. इन दोनों के कमरों को मिला दिया जाए तो ये कोलकाता के लग्जरी होटलों की क्षमता को दोगुना कर देंगे. पर क्या इनके लिए बाजार है? आईटीसी के एक अधिकारी बताते हैं, ‘योजनाएं इतनी आगे बढ़ गई हैं कि पीछे नहीं हटा जा सकता. 2006 में कारोबार में सुधार की उम्मीद थी. पर अब सावधानी बरती जा रही है. देखते हैं क्या होता है.’

अब सवाल यह है कि इन होटलों में जाता कौन है. मारवाड़ी समुदाय की शादियों का इन होटलों के कारोबार में बड़ा योगदान है. एक अन्य होटल अधिकारी बताते हैं, ‘बीपीओ में काम कर अच्छी कमाई करने वाले नौजवान यहां आते हैं. मध्य वर्ग के बुजुर्ग भी आते हैं. यह एक ऐसा वर्ग है जिसने कभी किसी पांचसितारा होटल में खाने को सोचा नहीं होगा लेकिन बंगाल से बाहर अच्छी कमाई कर रहे अपने बच्चों की आमदनी के बूते ये लोग पांचसितारा होटलों में आ रहे हैं.’

ममता को इस बात का एहसास है कि कारोबार की सेहत को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. लेकिन वे इसके लिए हर तरह की कोशिश नहीं कर सकतीं. उदाहरण के लिए, वे भट्टाचार्य की तरह जमीन अधिग्रहण की अनुमति नहीं दे सकतीं और संभव है कि सिंगूर के उन किसानों को 400 एकड़ जमीन भी वापस लौटा दें जो अपनी जमीन नहीं देना चाहते. तृणमूल के एक प्रवक्ता कहते हैं, ‘टाटा 600 एकड़ गैरविवादित जमीन पर कारखाना लगा सकते हैं.’ ममता लघु एवं मझोले उद्योग के साथ-साथ हस्तशिल्प और परिधान तैयार करने वालों को प्रोत्साहन देने की बात भी करती हैं. पर यह एक हद तक ही मदद कर पाएगा. माना जा रहा है कि बड़े उद्योग राज्य में जल्दबाजी में नहीं आएंगे. इसकी वजह तृणमूल नहीं बल्कि बंगाल का औद्योगिक नक्शे से हटना है. तृणमूल के एक सूत्र बताते हैं, ‘संभव है कि दीदी वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय अपने पास ही रखें और वित्त मंत्रालय अमित मित्रा को सौंप दें.’ ममता निवेश के मोर्चे पर भी सांकेतिक जीत चाहती हैं. कहा जा रहा है कि शुरुआती छह महीने में ही इंफोसिस या विप्रो में से कोई बंगाल में बड़ा निवेश करने वाला है. इसके लिए बुनियादी ढांचा तैयार है. कोलकाता हवाई अड्डे से सटे राजरहाट में भट्टाचार्य ने एक नया शहर बसाया है. यहां बहुमंजिली इमारतें और चौड़ी सड़कें हैं और  इसे कोलकाता का गुड़गांव भी कहा जा रहा है.

एक तरफ तो ममता माकपा की राजरहाट परियोजना को बदनाम करना चाहती हैं और दूसरी तरफ विकसित बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल भी करना चाहती हैं. उन्होंने ‘राजरहाट घोटाले’ और माकपा समर्थित बिल्डरों और कारोबारियों को सस्ती दरों पर जमीन दिए जाने के मामलों की जांच कराने का वादा भी किया है. तृणमूल के एक नेता बताते हैं कि चुनाव तिथियों की घोषणा के एक दिन पहले ही 600 भूखंड आवंटित कर दिए गए और उनकी नेता पश्चिम बंगाल हाउसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड और उसके प्रभारी मंत्री गौतम देब को निशाना बना रही हैं. कॉरपोरेशन ने ही राजरहाट परियोजना के लिए जमीन दी है.
हो सकता है कि आने वाले वक्त में राजरहाट को कुछ बुरा समय देखना पड़े लेकिन कोलकाता और इससे सटे दो जिले उत्तर और दक्षिण 24 परगना ममता के लिए काफी अहमियत रखते हैं. ये मिलकर दक्षिण बंगाल में तृणमूल का गढ़ बनाते है. इन जिलों में कुल 75 सीटें हैं जिनमें से करीब 90 फीसदी तृणमूल ने जीती हैं. बतौर रेल मंत्री ममता ने पश्चिम बंगाल के लिए 19 परियोजनाएं शुरू कीं जिनमें से आधी इन तीन जिलों में ही हैं. इन परियोजनाओं के जरिए छोटे शहरों और इन जिलों में रहने वाले कामकाजी लोगों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने की योजना है. इसमें मेट्रो रेल का विस्तार भी शामिल है. ममता को उम्मीद है कि इससे आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी.

ऐसा लग रहा है कि ममता उन लोगों की अगुआई करने जा रही हैं जिनका खुद पर से भरोसा उठ गया है. भले ही राज्य के बाहर बंगाल के लोगों ने कामयाबी के झंडे गाड़े हों लेकिन राज्य के अंदर उनके मन में एक हारे हुए समाज का भाव है. ममता के एक सहयोगी कहते हैं कि बंगाल में मनोवैज्ञानिक तौर पर आत्मविश्वास बढ़ाने के उपाय किए जाने की जरूरत है. अभी यहां के लोग बेहतर अवसर की तलाश में राज्य से बाहर जा रहे हैं. राज्य में इतने अवसर विकसित करने होंगे कि युवा वर्ग यहां वापस आने की बात सोचे.

गौरवशाली अतीत वाला बंगाल अपने वर्तमान से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है जिसके चलते यहां 70 के दशक में एक रक्षात्मक स्थानीय पहचान विकसित हुई. इसे माकपा ने जमकर बढ़ावा दिया. इसके फलस्वरूप यह राज्य खुद को अन्य राज्यों से बेहतर समझता रहा है. इस बात की पुष्टि यहां के स्कूलों के अध्ययन से हो सकती है. राज्य के ज्यादातर स्कूल पश्चिम बंगाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्ध हैं. यह बोर्ड और इसके तहत चलने वाली समूची स्कूली शिक्षा व्यवस्था वामपंथी दलों के सियासी प्रभाव का स्रोत रही हैं.

माकपा ने बंगाल में शिक्षा को चार मंत्रालयों में बांटा और स्कूली शिक्षा के लिए एक अलग मंत्री बनाया. राज्य बोर्ड से पढ़ाई करने वाले छात्रों को यहां के कॉलेजों में वरीयता दी जाती है. कुछ इस तरह की सोच विकसित कर दी गई है कि राज्य बोर्ड से पढ़ाई करने वाले बच्चे ज्यादा क्षमतावान होते हैं. बंगाल के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षा में भी बंगाल बोर्ड के छात्रों को परोक्ष तौर पर फायदा मिलता हैैै. इनकी परीक्षा राज्य बोर्ड के सिलेबस के मुताबिक ही आयोजित की जाती है. मगर इस साल कोलकाता के एक प्रमुख स्कूल साउथ प्वाइंट के फैसले ने सभी को चौंका दिया. यह राज्य बोर्ड के सबसे प्रमुख स्कूलों में था. कई पालियों में चलने वाले इस स्कूल में तकरीबन 15,000 छात्र पढ़ते हैं. इस स्कूल ने कई टॉपर दिए हैं और मध्यवर्ग का यह पसंदीदा स्कूल रहा है. इस स्कूल ने यह घोषणा की कि इस साल से वह अपने विद्यार्थियों को सीबीएसई बोर्ड से पढ़ाई करने का विकल्प दे रहा है. एक अभिभावक कहते हैं, ‘अगर आप राज्य के इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए आवेदन करना चाहते हैं तब तो राज्य बोर्ड ठीक है लेकिन अगर राज्य से बाहर के कॉलेजों में दाखिला चाहिए तो सीबीएसई पाठ्यक्रम की जानकारी जरूरी है.’

यहां के दूसरे स्कूल भी साउथ प्वाइंट की राह चल सकते हैं जैसा कि यहां अकसर होता रहा है. इस स्कूल के अभिभावकों का दबाव और मांग आंखें खोलने वाले हैं. पश्चिम बंगाल, इसके संस्थानों और इनमें रोजगार के अवसरों को लेकर भरोसा लगातार कम होता रहा है. अभिभावक चाहते हैं कि स्कूली शिक्षा ऐसी हो जो उनके बच्चों को राज्य से बाहर निकलने में मदद कर सके. बुनियादी स्तर पर यह चुनाव यथास्थितिवाद के खिलाफ है. करीब साढ़े तीन दशक में बनी स्थितियों को बदलना ही ममता की सबसे बड़ी चुनौती होगी.