बेबसी, हताशा और उम्मीद

राजनीति और व्यवस्थापिका से नाउम्मीदी और न्यायपालिका की बेबसी के चलते ही आज उत्तर प्रदेश में यह स्थिति आ गई है कि लोग हजारे का हथियार आजमाने के लिए बेताब हो उठे है

उत्तर प्रदेश के राजनेता प्रायः बड़े अधिकार से यह दावा करते रहते हैं कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से ही होकर जाता है. इस दावे में दम भी दिखता है. लेकिन इन दिनों उत्तर प्रदेश के नौजवान, बच्चे और बुजुर्ग, किसान, मजदूर और बुद्धिजीवी, सब लोग इसी तर्ज पर एक दूसरी बात कहने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश को भ्रष्टाचार मुक्त कराए बिना देश से भ्रष्टाचार मिटाने की कल्पना करना भी बेकार है. आम लोगों के मन में भ्रष्टाचार से नफरत और तौबा करने की जो हल्की-सी चिंगारी अब तक दबी हुई थी वह अन्ना हजारे के अभियान के प्रभाव में एकाएक भड़ककर शोला बन चुकी है. अन्ना के दिल्ली धरने के दौरान लखनऊ में जीपीओ पर बापू की प्रतिमा के सामने जिस तरह लखनऊ के समाज के हर तरह के हजारों लोग स्वतः स्फूर्त ढंग से आ जुटे थे, वह इसका एक छोटा-सा प्रमाण है. ऐसा लखनऊ ही नहीं, राज्य के हर छोटे-बड़े जिले में हुआ था.

दरअसल आज उत्तर प्रदेश को भी अपने लिए एक अन्ना की बेहद जरूरत है. हाल के दिनों मंे राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह बड़े-बड़े घोटालों की कहानियां सामने आ रही हैं, उसकी वजह से उत्तर प्रदेश के मामले दब-से गए हैं. जबकि यहां हो रहे घोटाले तथा भ्रष्टाचार राष्ट्रीय स्तर के घोटालों से कहीं भी उन्नीस नहीं हैं. समाज विज्ञानी राजेश कुमार कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में राजकाज में इस समय अभूतपूर्व पारदर्शिता है. हर काम के रेट तय हैं. हर जगह लेने वाले तैयार बैठे हैं. संबद्ध लोगों तक उनसे हिस्से की रकम पहले पहुंच जानी चाहिए. उसके बाद कोई काम हो या न हो, इससे किसी को मतलब नहीं. इस तरह के धंधे में किसी का कोई अंकुश नहीं, किसी का कोई डर नहीं, यह एकदम खुला खेल है.’ चाहे दवाओं की खरीद के मामले हों या शिक्षा विभाग से जुड़े विषयों का, चाहे भूमि अधिग्रहण के मामले हों या खनन विभाग के, चाहे पर्यावरण-प्रदूषण नियंत्रण जैसे मामले हों या राशन खरीद आदि के, हर तरफ अंधेर है. यूपीएसआईडीसी के एक मुख्य अभियंता करोड़ों रु की हेराफेरी के मामले में सीबीआई की गिरफ्त में हैं. एक प्रमुख सचिव पद के अधिकारी को हसन अली से जुड़ाव के आरोप में कुर्सी छोड़नी पड़ी है. कई अधिकारियों पर खाद्यान्न घोटाले की गाज गिरनी तय है. आय से अधिक संपत्ति के एक दर्जन से ज्यादा मामले विचाराधीन हैं. भ्रष्टाचार के मामलों में कई अधिकारी निलंबित हैं. 50 से ज्यादा अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में मुकदमा चलाने की अनुमति विचाराधीन है. सचिवालय के गलियारों में चर्चा आम है कि अगर विकीलीक्स ने काले धन वाले भारतीयों के नामों का खुलासा कर दिया तो उसमें यूपी के अधिकारियों की संख्या सबसे अधिक होगी.

इस चलन से जहां विकास कार्य और जनहित की योजनाएं ध्वस्त हो रही हैं, वहीं भ्रष्टाचार की बेल एकदम निचले स्तर तक फैल गई है

उत्तर प्रदेश के हालात इतने खराब पहले कभी नहीं रहे. स्थितियां तो पिछले कई वर्षों से बिगड़ रही थीं, मगर अब वे इतनी बिगड़ चुकी हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में उनमें सुधार की कोई संभावना ही नजर नहीं आ रही. हालांकि देश में इस वक्त सत्तारूढ़ कांग्रेस ही भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी प्रतीक बनी दिख रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश की विडंबना यह है कि यहां सत्ता से कांग्रेस की विदाई के बाद ही भ्रष्टाचार का घुन पनपा और फला-फूला है. गैरकांग्रेसी सरकारों के आने के साथ-साथ राज्य में नौकरशाही प्रभावशाली होती गई, भ्रष्टाचार बढ़ता गया और अब बसपा ने इसी प्रभावशाली नौकरशाही को पालतू बनाकर भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दे दिया है. आज सरकार में वही अधिकारी प्रभावशाली है जो कमाकर दे सकता है और कमाने के नये-नये रास्ते सुझा सकता है. राज्य में निर्माण कार्यों से जुडे़ सबसे बड़े विभाग लोक निर्माण विभाग के सर्वेसर्वा जो अधिकारी हैं वे सवा साल पहले रिटायर हो चुके हैं. मगर सरकार को उनकी योग्यता पर इतना भरोसा है कि उन्हें  लोक निर्माण के साथ-साथ सेतु निर्माण निगम का भी प्रबंध निदेशक बना दिया गया है. इसी तरह राजकीय निर्माण निगम में भी प्रबंध निदेशक के पद पर सेवा विस्तार वाले ही भरोसेमंद अधिकारी नियुक्त हैं. प्रायः सभी मोटी कमाई वाले विभागों में ऐसे ही ‘कर्मठ’ अधिकारी तैनात हैं. 

उत्तर प्रदेश में इस समय सरकारी धन की खुली लूट मची है. चाहे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन हो या मनरेगा या फिर कोई भी अन्य योजना, हर जगह सरकारी पैसा सिर्फ लूटा जा रहा है. सामाजिक संस्था ‘सोशल वॉच’ से जुड़े डा एएन सिंह कहते हैं, ‘हर काम में 30 फीसदी तो पहले ही यह कहकर अग्रिम रखवा लिया जाता है कि यह ‘ऊपर’ का हिस्सा है. शेष 70 फीसदी में 40 से 60 फीसदी तक दलालों, अधिकारियों और ठेकेदारों तथा नेताओं की जेबों में चला जाता है. अगर इस सबकी सही जांच हो तो एक-एक जिले में कई-कई कलमाड़ी नजर आएंगे.’ भ्रष्टाचार के घुन ने एकदम निचले स्तर तक पैठ बना ली है. गांवों में ग्राम प्रधानों के चुनावों में जिस तरह लोगों ने लाखों रु फूंक डाले थे, खेत, घर और जेवर तक गिरवी रखकर चुनाव लड़ा था, वह महज इसीलिए था कि एक बार पद हाथ आ जाए तो फिर चांदी की ही फसल कटनी है. समाज विज्ञानी इसे दोहरे संकट के तौर पर देखते हैं. उनके मुताबिक इससे जहां विकास कार्य और जनहित की योजनाएं ध्वस्त हो रही हैं, वहीं इसके कारण भ्रष्टाचार की बेल एकदम निचले स्तर तक फैल गई है. ग्राम पंचायत स्तर तक भ्रष्ट नेताओं और दबंगों का ऐसा गठजोड़ बन गया है कि उसमें किसी तरह के प्रतिरोध की गुंजाइश ही नहीं बचती. इससे ग्रामीण स्तर पर तनाव और सामाजिक ताने-बाने में गड़बड़ियां भी शुरू हो गई हैं.

वैसे भी अब राजनीतिक दलों के बूते भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ पाना उत्तर प्रदेश के लोगों को संभव नहीं लगता. इसकी कई वजहें हैं. एक तो यह कि राज्य के अनेक प्रमुख नेताओं का चरित्र भ्रष्टाचार के सवाल पर जनता को विश्वसनीय नहीं दिखता. आय से  अधिक संपत्ति के मामले में चाहे मायावती हों या मुलायम, दोनों के लिफाफे अदालतों में मौजूद हैं

ऐसे में अन्ना का मिशन उत्तर प्रदेश को भी उम्मीदों के नये सवेरे की तरह दिखाई दे रहा है. हालत यह है कि उत्तर प्रदेश के दो बड़े राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी और कांग्रेस तो अन्ना को उत्तर प्रदेश आकर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का निमंत्रण तक दे चुके हैं. हालांकि कांग्रेस का रवैया अन्ना प्रकरण में कुछ अजीबोगरीब रहा है. कांग्रेस एक ओर तो उत्तर प्रदेश के लिए अन्ना के अभियान की जरूरत पर जोर देती रही है मगर दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अश्वमेध यज्ञ का बीड़ा उठाए दिग्विजय सिंह टीम अन्ना पर लगातार हमले करते रहे हैं. हालांकि इसके पीछे दिग्गी राजा का मकसद कुछ राजनीतिक लाभ उठाने और जातीय राजनीति का नया समीकरण बनाने का ही रहा होगा, लेकिन भ्रष्टाचार से त्रस्त प्रदेश के लोगों को भी यह हरकत नागवार ही गुजरी और इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेसी रुकावट के तौर पर देखा गया. अब राहुल गांधी लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के कार्यालय पहुंचकर और सूचना के अधिकार के तहत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी की मार्फत कई सूचनाएं मांगकर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली लड़ाई छेड़ते हुए दिग्गी राजा की गलती को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. गौरतलब है कि यह वही महकमा है जिसमें भ्रष्टाचार की आंधी के चलते चार महीने में दो-दो अधिकारियों की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई. फिलहाल इस विभाग के कुछ कर्मचारी और अधिकारी जेल में हैं और इससे जुड़े दो-दो प्रभावशाली मंत्रियों बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्र ‘अंतू’- को अपनी-अपनी कुर्सियों से बेदखल होना पड़ा है. इस महकमे में चल रही लूट के कारण इस विभाग से जुड़े मंत्रियों से लेकर चपरासियों तक सबके सब कुंभ नहा रहे हैं और सीएमओ जैसे पद किसी नोट छापने की मशीन की तरह उत्पादक हो गए हैं. तीन हजार करोड़ की सालाना रकम में किसके हिस्से कितना जाता है, यह किसी से भी छिपा नहीं है. 
2005 से शुरू हुई जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्युअल मिशन या जेएनएनयूआरएम में दस हजार करोड़ की रकम फूंकी जा रही है. इस योजना के तहत शहरों का पुनरुद्घार तो नहीं हो पा रहा, जो कुछ पहले से मौजूद था उसका भी बंटाधार हो चुका है. राज्य के तमाम नगरों में चल रही ऐसी 222 योजनाओं के कारण हर ओर सड़कें खुदी पड़ी हैं, धूल का गुबार है, दुर्घटनाएं हो रही हैं, लोग बीमार हो रहे हैं, मगर काम है कि पूरा होता ही नहीं. कार्य की गुणवत्ता का स्तर इतना घटिया है कि बिना आंख वाले लोग भी खामियां साफ-साफ देख सकते हैं. लेकिन मामला चूंकि ‘मोटे माल’ का है इसलिए सरकार को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा. महात्मा गांधी के नाम पर शुरू मनरेगा तो पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है. हालात इतने खराब हैं कि अभी हाल में हुई एक समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री मायावती को भी अपने मातहतों से मनरेगा की धांधलियों पर नजर रखने के निर्देश देने पड़े हैं. कभी अपने सहयोग से मायावती को मुख्यमंत्री बनवाने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी अब राज्य में सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की ही दिख रही है. पार्टी ने मायावती के राज के 100 बड़े घोटालों का खुलासा करने के लिए एक खास पुस्तिका भी तैयार की है. पार्टी विधानसभा चुनावों से पहले इस मामले को मुख्य मुद्दा बनाकर लड़ाई लड़ने की योजना बना रही है. इससे भले ही उसे थोड़ा-बहुत राजनीतिक लाभ हासिल हो जाए मगर इससे राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार खत्म होने की संभावना कहीं नहीं दिखती.

वैसे भी अब राजनीतिक दलों के बूते भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ पाना उत्तर प्रदेश के लोगों को संभव नहीं लगता. इसकी कई वजहें हैं. एक तो यह कि राज्य के अनेक प्रमुख नेताओं का चरित्र भ्रष्टाचार के सवाल पर जनता को विश्वसनीय नहीं दिखता. आय से  अधिक संपत्ति के मामले में चाहे मायावती हों या मुलायम, दोनों के लिफाफे अदालतों में मौजूद हैं. कांग्रेस की स्थिति भी विश्वसनीय नहीं है. फिर लोगों ने यह भी देखा है कि अनेक भ्रष्ट नेता पिछली हर सरकार से किसी न किसी रूप से जुड़े रहे हैं. सत्ता बदलते ही उनकी राजनीतिक निष्ठाएं बदल जाती हैं और उनका राजनीतिक धंधा चलता रहता है. लगातार बढ़ रहे चुनावी खर्च के कारण भी भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की उम्मीदें कम होती जा रही हैं.

दूसरा रास्ता लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्थाओं की ओर जाता है. राज्य मंे भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकायुक्त और सतर्कता अधिष्ठान जैसी संस्थाएं मौजूद हैं. लेकिन भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने इन संस्थाओं को नपुंसक बना दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त न तो मुख्यमंत्री के खिलाफ सुनवाई कर सकते हैं और न ही ग्राम प्रधानों के खिलाफ. जिन लोगांे के खिलाफ लोक आयुक्त जांच कर सकते हैं उनके खिलाफ भी कार्रवाई के लिए वे सिर्फ राज्य सरकार से अनुरोध कर सकते हैं. कार्रवाई कितनी होती है इसका प्रमाण यह है कि मौजूदा सरकार के नौ मंत्रियों के खिलाफ की गई कार्रवाई की सिफारिश में से सिर्फ एक मामले में कार्रवाई हुई. ऐसा ही हाल सतर्कता अधिष्ठान का भी है जो अधिकारियों की आर्थिक अनियमितताओं, भ्रष्टाचार और धांधली के मामलों मंे गृह विभाग के निर्देश पर जांच शुरू करता है. जांच पूरी होने पर शासन यह फैसला करता है कि मुकदमा चलाने की इजाजत दी जाए या नहीं. लेकिन बड़े अधिकारियों के मामलों में प्रायः मुकदमे की इजाजत मिलती ही नहीं. कुछ ऐसी ही स्थिति राज्य मंे सूचना के अधिकार की भी है. भ्रष्ट और दबंगों के गठजोड़ के कारण आम आदमी को सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं प्राप्त करने के लिए भी हजारों तरह के पापड़ बेलने पड़ते है.

इसके बाद न्यायपालिका से उम्मीद बचती है. लेकिन बड़े लोगों और खास अधिकारियों को बचाने के लिए उनके मामलों में तो अदालती आदेशों की भी अनदेखी या उपेक्षा करके धांधली जारी रखी जाती है. लखनऊ मंे मायावती के निर्माण कार्यों में अनेक बार अदालती रोक के बावजूद काम बंद नहीं किया गया और आदेशों की अनदेखी करके भी मनमर्जी काम करवा लिया गया.न्यायपालिका बेबस बनकर देखती रह गई. राजनीति और व्यवस्थापिका से नाउम्मीदी और न्यायपालिका की बेबसी के चलते ही आज राज्य में यह स्थिति आ गई है कि लोग अन्ना हजारे के हथियार को आजमाने के लिए बेताब हो उठे हैं. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश सरकार हजारे को उत्तर प्रदेश मंे घुसने ही नहीं देना चाह रही है. उनकी राह में नयी-नयी बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. लेकिन इस तरह की बाधाओं से अब बदलाव की बयार को रोकना मुमकिन नहीं हैं. प्रदेश में भ्रष्टाचार के प्रतिकार का जो तूफान उठ रहा है वह कुछ न कुछ करके ही थमने वाला है. उसे रोकना अब किसी ‘कोतवाल’ के वश की बात नहीं.

गोविंद पंत राजू