कहानी: पारो आफ्टर द ब्रेक

उसने कभी शरतचंद्र का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. उसने देवदास फिल्म भी नहीं देखी थी. उसके पति ने जरूर देवदास देखी थी और उसे पारो कहना शुरू कर दिया था. पारो के लिए पारो शब्द भी वैसा ही था जैसा कि रोपा होता या कोई भी दूसरा अनजाना शब्द, पर पारो के पास इतनी समझ थी कि उसके बच्चों का बाप जब उसे पारो कहता है तो उसकी अपनी महत्ता बढ़ जाती है. Read More>>

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    शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. Read More>>
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    मुझे मालूम नहीं
     कि आप वयोवृद्धा हैं या प्रौढ़ा या युवती, इसलिए वयोचित संबोधन नहीं कर पाने के लिए क्षमा चाहती हूं. तहलका में प्रकाशित आपका लेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ पढ़ा, जिसमें आपने समकालीन स्त्री लेखन की समीक्षा करते हुए अपने सामाजिक सरोकारों की दुहाई दी है. लेखकों को आलोचनाओं से विचलित होकर उत्तर-प्रत्युत्तर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए. Read More>>

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