
‘अविनाश, पहुंचते ही फोन कर देना वरना तुम्हारी मां को चिंता हो जाएगी.’
‘ जी मामा जी.’ और बस चल पड़ी थी.
‘अविनाश, तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिए भेजा जा रहा है. वहां मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहां तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियां बिताने जा रहा है.’ वह जानता है यह जाल शादी के लिए ही बिछाया जा रहा है.
बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद अविनाश के मन की कड़वी स्मृतियां धुआं देने लगीं. सात साल हो गए. मन के छाले हैं कि सूखते नहीं बल्कि बार बार फूट कर उसे आहत करते हैं. हर स्त्री अब एक छलावा लगती है, आखिर उसका क्या गुनाह था? यही कि उसने तयशुदा शादी की थी? मां तो बस घर-बार और उनकी शानदार मेहमाननवाजी पर रीझ गईं. लड़की की सुंदरता, मौन और सादगी मां को अटपटी नहीं लगी. देखने-दिखाने की रस्म के बाद सबके कहने पर एकांत में उसने बस संक्षिप्त में बात की और फौजी जीवन की दुश्वारियों पर बात चलाते ही वह अचानक उठ कर चली गई , तब उसे लगा था कि शरमा रही होगी. उसने सोचा लिया था कि अब तो शादी हो ही रही है, जिंदगी भर बातें कर लेंगे, मां की पसंद, मां का इकलौता यही तो सुख होगा उनके जीवन में. शादी के ताम-झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने की, वो इत्मीनान की, एक-दूसरे को जानने की रात आई तो शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे काली नाइटी में वह पैर सिकोड़े सोई मिली….जगाने पर बहुत ठंडी आवाज में उसने कहा था, ‘यह शादी नहीं है, अविनाश, समझौता है. सो जाओ.’
‘किस तरह का समझौता? मना कर देना था तुम्हें.’
‘किया था बहुत, कोई माना नहीं.’
‘…अब?’
‘अब क्या! कुछ भी नहीं. मैं नहीं रहूंगी यहां.’
जब वह अगले दिन मायके गई तो उसकी जगह लौट कर विवाह को शून्य साबित करने के लिए उसके वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं. वह जड़ होकर रह गया. मां और मामाजी ने उसके घरवालों से कहासुनी की, कोर्ट का फैसला होने तक अपमान उसे जलाता रहा. हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह संबंध बना रहे. उसने तलाक मंजूर कर लिया.
उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली थी और मां की दूसरे विवाह की जिद को टाल गया था. पर अब मां के अकेलेपन और अस्वस्थता की वजह से उसे जोधपुर पोस्टिंग करवानी पड़ी और मां के साथ रह कर उनकी जिद न टाल सका. थक गया था, हर बार वही बहस!
‘मां, इस अगस्त में 35 का हो जाऊंगा.’
‘चुप कर! 35 की कोई उमर होती है आजकल.’
पिछले कई दिनों से मामा यह माऊंट आबू प्रकरण चलाए जा रहे थे. इस बार मामा छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते थे सो वे उसे लड़की और उसके परिवार के साथ पूरे हफ्ते छोड़ना चाह रहे थे. ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के बचपन के दोस्त हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित. अविनाश के मन में किसी बात को लेकर कोई उत्साह नहीं बल्कि मलाल हो रहा है, उसने सोचा था कि इस बार सालाना छुट्टी लेकर मां के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएगा और … वह माउंटआबू जा रहा है, किसी अजनबी परिवार में.
शाम का झुटपुटा रास्तों और पहाड़ियों पर उतर आया है, तोतों का एक झुंड शोर मचाते हुए अपने ठिकाने को लौट रहा है, हवा में सर्दी की खुनकी महसूस होने लगी है. वह खुली खिड़की जरा सा सरका देता है. बस के अंदर नजर डालता है. सामने वाली सीट पर एक विदेशी युवती बैठी है. उसे देख मुस्कुरा देती है. वह उस बेबाक निश्छल मुस्कान पर जवाब में मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता. न जाने किस गुमान में उसके हाथ बाल संवारने लगते हैं. अपनी इस कॉलेज के लड़कों जैसी हरकत पर उसे हंसी आ जाती है. वैसे आजादी में कितना सुकून है. अब उम्र के 35 साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह जरा भी नहीं पर यहां भारत में जिस तरह बड़ी उमर की लड़कियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है वहीं बड़ी उम्र के कंुवारे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते. समाज का इतना दबाव होता है कि आप को कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता. शादी-वादी. बेकार का बवाल! उसकी नजर फिर उधर चली गई, वह भी इधर ही देख रही थी. दोनों ने फिर मुस्कान बांटी.
लड़ी आकर्षक है. उसने मां की जबरदस्ती रखी हुई जैकेट निकाल कर पहन ली. लड़की ने फिर उसे देखा इस बार उसकी आंखों में आमंत्रण था, वह मुस्कुराया नहीं इस बार. एक गहरी नजर डाल, खिड़की के बाहर फैलते अंधेरे में दृष्टि डालने लगा. पहाड़ों-पेड़ों की सब्ज आकृतियां धीरे-धीरे स्याही में बदल रही थीं, उसके मन पर अन्यमनस्कता घिर आई. कहां जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से जरूरी काम कुछ और नहीं? बेकार है यह विवाह नामक संस्था. मामा क्यों कहते हैं कि शारीरिक जरूरतें तो हैं ही, एक साथी की मानसिक जरूरत भी होती है? शारीरिक जरूरतों का क्या है, उस जैसे आकर्षक पुरुष के लिए लड़कियों की कमी है क्या? जैसे-जैसे अंधेरा गहरा रहा है, वह उस विदेशी युवती की नजरों को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा है. उसने चेहरा घुमा लिया है खिड़की की तरफ फिर से, हालांकि इस एक मुद्रा में उसकी गर्दन दुखने लगी है पर वह नहीं चाहता कि लड़की किसी किस्म की गलतफहमी पाल ले.
पहाड़ी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले पर पहुंचने में 15 मिनट लग गए. सारे रास्ते वे बोलते रहे वह सुनता रहा, कि कैसे फौज छोड़कर वे यहां सेटल हुए, फार्मिंग में उनकी शुरू से रुचि रही है. वे स्ट्राबेरीज उगाना चाह रहे हैं इस बार. यहां वे बहुत लोकप्रिय हैं आदि-आदि. उनके बंगले के गेट से पोर्च तक एक मिनट की ड्राइव से लग रहा था कि खूब बड़ी जगह लेकर घर बनाया गया है. अंदर पहुंच कर, राम सिंह को उनका सामान गेस्टरूम में रखने का आदेश देकर, उसे हॉलनुमा ड्रॉइंगरूम में बिठा कर वे अंदर कहीं गायब हो गए. हॉल की सज्जा कलात्मक थी. किसी के हाथ से बनी सुन्दर पंेटिग्स, जिनमें ज्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लंबोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल भरी आंखें और तीखी नाक वाली. पूरे हॉल पर नजर घूमती हुई एक जगह आ टिकी, एक लंबी आकृति स्टूल पर चढ़ी, एक पेंटिग के लिए कीलें ठोक रही थी. अचानक वह जीती जागती पेंटिंग धम्म से ड्रॉइंगरूम के गलीचे पर कूदी.
‘हलो’ कह कर वह खिसकने लगी….
‘अविनाश, ये मेरी बेटी है नीलांजना. बीएससी कर रही है.’
‘बेटा जाओ मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के
लिए कहना.’
चाय की औपचारिकता के बाद वह गेस्टरूम में आ गया, जो एक छोटा-मोटा सा समस्त सुविधाओं से युक्त फ्लैट ही था.
डिनर टेबल पर बहुत से अनजाने चेहरे थे.
‘अविनाश, ये रेवा है मेरी बहन, जेजे आर्टस में लैक्चरर है. मयंक मेरा बेटा, आईआईटी बॉम्बे से इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग कर रहा है , ये मयंक का दोस्त केतन है. तुम पहले आए होते, ये सब एक सप्ताह से यहीं थे, कल जा रहे हैं. रेवा ! तुम तो रुकोगी ना! ‘
‘जी दादा, पर वो…एक एक्जीबीशन थी मेरे स्टूडेन्ट्स की’
‘बुआ! रुक जाओ ना! भाई को जाने दो कल, आप अभी तो आई थीं.’
‘ठीक है.’ उसने अविनाश पर उड़ती हुई निगाह डालते हुए कहा.
उसने पहली बार रेवा को गौर से देखा. तांबई रंग, बड़ी, काजल से लदी आंखें, भरे होंठ और थोड़ी चौड़ी नाक चेहरे पर परिपक्व, सधा हुआ भाव. भरे संतुलित जिस्म पर बाटिक प्रिंट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने काले लंबे बाल आकर्षक मगर बेतरतीब जूड़े में लपेटे हुए. एकाएक आप पर छा जाने वाला दृढ़ व्यक्तित्व. बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से ही लगता है कोई बुद्धिजीवी कलाकार बात कर रहा है. फिर नजर घूमी तो नीला पर जा टिकी गंदुमी रंग, बुआ की सी ही बड़ी-बड़ी लंबी आंखें पर नाक और होंठ मां जैसे, नाजुक.
‘क्या देख रहे हैं आप, पापा ! आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे.’ ‘ओह हां अविनाश लो न .’
सुबह वह देर से उठ सका. उठते ही खिड़की में आया तो देखा नीचे मयंक और उसका दोस्त जिप्सी में सामान रख रहे थे. मयंक ने वहीं से चिल्ला कर अलविदा ली और ब्रिगेडियर सिन्हा उन्हें छोड़ने चले गए. वह नहा धोकर नीचे उतर आया. नीलांजना जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी. उसके लिए भी वहीं चाय आ गई.
‘मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का पर आज मेरा प्रैक्टिकल पीरियड है, बाहर बुआ मेरे लिए एक पेटिंग बना रही है, देखते रहिएगा, बोर नहीं होंगे. शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे.’
वह हंस पड़ा. चाय पीकर वह बाहर आ गया. रेवा सचमुच एक पेंटिंग में व्यस्त थी. वह पीछे जाकर खड़ा हो गया.
‘छोड़ क्यूं दी? मैं तो…
‘कोई बात नहीं. वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है पूरी हो ही नहीं पाती. इसके बीच न जाने कितनी पेटिंग्स बना डालीं. यह अटकी हुई है. दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला ले ही नहीं जाने देती.’
हंसती हुई रेवा अच्छी लगती है. हंसी चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है. उसने पेंटिंग को ध्यान से देखा, उसे वह नीला की ही पोर्ट्रेट लगी. चेहरा अभी अधूरा था, बड़ी आंखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों का गुच्छा, लैस वाला गुलाबी टॉप, बाकी पीछे बैकग्राउंड अधूरा था. तस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास सी लग रही थी. रेवा ने बालों से लकड़ी का मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था और बाल कमर तक फैल गए और पहाड़ी बयार में उड़ने लगे. वह गौर से देखे बिना न रह सका. रेवा ने उसकी नजर को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट यहीं मंगवाने के लिए कह कर चली गई. ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और परिवार के बचे हुए सदस्य वहीं आ गए. ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी तो वह चर्चा देर तक चलती रही. रेवा ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी. वह उठ कर लाइब्रेरी में चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गए. ‘तो अविनाश तुम्हारा रेवा को लेकर क्या ख्याल है?’
वह अचकचा गया. क्या कहे?
‘देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, रेवा को भी मैंने बताया है. अब तुम दोनों को ही विवाह को लेकर निर्णय ले लेना चाहिये. यह समझ लो यह आखिरी गाड़ी है, उसके बाद या तो सफर टाल दो, या इसी में चढ़ जाओ.’
लंच के बाद वह अपने कमरे में आने के बाद देर तक इस विषय पर सोच सोच कर उलझता रहा. रेवा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लड़की है. क्या हां कह दे?
‘क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?’
‘नीला, तुम कब आई?’
‘अरे कब से आकर खड़ी हूं, कॉफी लेकर. आप हैं कि गहरी सोच में
गुम हैं.’
सलवार कुर्ते में नीला बड़ी-बड़ी लगी. दोनों ने कॉफी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-
‘ जाइये, जल्दी कपड़े बदलिए ना. हम घूमने चलेंगे.’
‘हम कौन कौन?’
‘जाना तो मुझे भी था… पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे. प्लीज अविनाश अंकल आप कहिए ना मम्मी से कि मैं भी चलूंगी.’
‘अंकल? क्या मैं इतना बड़ा लगता हूं.’
‘लगते तो नहीं पर …. तो क्या कहूं. फिलहाल अविनाश जी चलेगा!’
रेवा ने भी नीला की पैरवी की क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे, एकांत. एक उमर के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी से बंधना…. महज कुछ शारीरिक जरूरतों और सहारे के लिए. वह भी शायद यही सोच रही होगी. अपनी-अपनी आजादियों की लत लग गई है हमें. वह तो मुझसे भी दो साल बड़ी ही है. उम्र कोई मायने नहीं रखती, क्या उसके कई अच्छे दोस्त उससे बड़े नहीं? नहीं कर सकेगा अभी वह ‘हां’ जैसा ‘हां.’
‘कौन ड्राइव करेगा?’ नीला ने पूछा.
‘ऑफ कोर्स मैं नीलू, अविनाश जी को कहां इन पहाड़ी रास्तों का अंदाजा होगा! और तुम्हें दादा ने मना किया था न.’ रेवा साड़ी में थी, यहां भी वही कलात्मक स्पर्श.
नीला ही बोलती रही. सारे रास्ते दोनों खामोश थे, अपने अपने दायरों में. एक मंदिर की सीढ़ियों के पास जाकर रेवा ने गाड़ी रोक दी. ऊपर चढ़ते हुए उसने कहा-‘मैं अभी आई.’
‘क्या तुम्हारी बुआ जी बड़ी धार्मिक हैं?’

‘ऑ.. ज्यादा तो नहीं, अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्केच के लिए फोटो लेने गई हैं. आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गई हैं कि-हे भगवान इस हैंडसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए. गलतफहमी में मत रहियेगा. मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती है, वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी है अपने जमाने में.’
‘अच्छा!’
‘बुरा तो नहीं लगा न.’
‘नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?’
‘अविनाश जी, मैं बच्ची नहीं हूं, एक बार अंकल क्या कह दिया आपने बच्चों में शुमार कर लिया.’
‘अच्छा मिस नीलांजना…..तो आप क्या कह रही थीं?’
‘श्शSS बुआ आ गई.’ कह कर उसने मेरा हाथ दबा दिया.
रेवा को बोटिंग में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर
किनारे रखी एक बेंच पर बैठ गई, मैं न चाह कर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया.
‘अविनाश जी, सनसेट के वक्त सबकी आंखों का रंग बदल जाता है, देखो आपकी और मेरी.’
नीलांजना की आंखों में समुद्र उफान पर था. उसके खुले सीधे सीधे भूरे बाल सोने के तार लग रहे थे. हवा में उड़ता उसका लेस वाला कॉलर.
‘अविनाश जी! क्या देख रहे थे?’
‘यही कि तुम बहुत सुंदर हो.’
‘हां हूं तो. पर उससे क्या फर्क पड़ता है. प्रकृति में हर चीज सुंदर है. मुझे तो हर चीज सुंदर लगती है.’
‘हां तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुंदर लगता था.’
‘अब.’
‘अब! अब नजरिया बदल गया है. वास्तविकताएं अलग होती हैं.’
‘सबका सोचने का ढंग है अपना अपना! क्या ये झील वास्तविक नहीं? वो तांबई ‘जैसाना’ जलपांखियों का झुंड रियल नहीं?’
‘है, नीला.’
‘अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थे. फिर छोड़ क्यों दीं?’
‘तुम्हें रुचि है?’
‘हां. बहुत. पर आपने क्यों छोड़ा?’
‘वही.’
काफी अच्छी एवं मनोरंजक कहानी.