बाशिंदा/तीसरी दुनिया

इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

वह जब हमारी क्लास में पहली बार आया था तो उसे हमने किसी दूसरी दुनिया का बाशिंदा समझा था. मतलब एलियन जैसा कुछ- हमउम्र बच्चों में सबसे छोटा कद, काला रंग (हालांकि इससे हमें एतराज नहीं था क्योंकि क्लास में कई बच्चों का रंग काला था, मगर उसका काला कुछ अलग था, चिक-चिक करता-सा, जैसे करैत सांप अचानक गुजर गया हो आपके सामने से और बस जरा-सी झलक देख ली हो आपने) पर सबसे ज्यादा एतराज जिस चीज से हमें था और जो सबसे ज्यादा लुभावनी भी लगती थी वह थी उसकी मोटी-सी चुटिया. उस जमाने में भी जबकि बच्चे कैसे-कैसे बालों की डिजाइन बनवाने लगे थे उसमें वो उसकी चुटिया बड़ी आकर्षक लगती थी हमें. कभी कलम उठाने, कभी पैसा उठाने और कभी कॉपी लेने के बहाने हम उसकी चुटिया खींच लेते थे. पर उसने कभी प्रतिवाद नहीं किया- सिर्फ उह! करता और मुलुर-मुलुर देखता था.

दूसरी दुनिया का बाशिंदा होने की धारणा और पुख्ता तब हो गई जब संस्कृत टीचर (जिन्हें वह गुरुजी कहता था) को संस्कृत के श्लोकों का सस्वर पाठ करके चमत्कृत कर दिया था और वह बोल पड़े थे – वाह बटुक! वाह! और हम लोगों की तरफ हिकारत से देखते हुए बोले- सीखो कुछ! इसे कहते हैं संस्कार! डेहंडल सब कहीं का! इस पर बटुक और उत्साहित हो गया और संस्कृत टीचर के पैरों को छूकर प्रणाम किया उसने. इस पर गुरुजी और गदगद! – आह ह! शतं जीवेत ! कहकर पूरे मन से आशीर्वाद दिया और हमारी ओर जहर बुझी नजरों से देखा जैसे कि वह हमेशा देखते ही रहते थे. उसी दिन से बटुक से (ये नाम नहीं था उसका जबकि हम शुरू से यही समझते थे. नाम तो आत्मप्रकाश झा जैसा कुछ था पर हम ‘करेला झा’ बुलाते थे जिसके लिए हमारे पास युक्तिसंगत कारण थे) हमारी स्थायी दुश्मनी हो गई थी. वैसे यह दुश्मनी एकतरफा ही थी क्योंकि वह तो बस निरीह भाव से मुस्कुराता रहता था. हम कुछ भी, कैसे भी बोलें बस वही मुस्कान, और इससे हम और चिढ़ जाते थे. फुटबॉल खेलने के दौरान जो हमारे लिए दुश्मनी निकालने का एक बड़ा अवसर था वैसे लड़कों से जिन्हें हम पीटना चाहते थे, हमें कभी मौका नहीं मिला क्योंकि वह खेलता ही नहीं था, बस मैदान के चारों ओर ‘इवनिंग वॉक’ जैसा कुछ करता रहता था. निशाना लगाकर उसकी तरफ मारे गए फुटबॉल से कभी चोट लग भी गई तो बस मुस्कुराकर बॉल हमारी तरफ फेंक देता था और फिर ‘इवनिंग वॉक’ करने लगता. हद तो तब हो जाती थी जब कभी वह मेरे घर पहुंच जाता शाम को. मेरे पिता उस वक्त घर पर होते थे और हम पढ़ने की तैयारी (झूठमूठ ही) करते होते थे. मेरे पिता का प्रिय शगल था ट्रांसलेशन पूछना – तो बताओ तो बाबू – ‘मैं जाने को हूं’, का क्या होगा? हमारे सोचने-बोलने से पहले ही वह गोल-आंखें करके टप से बोल देता. ‘देखो कितना अच्छा लड़का है एक तुम हो, ऐं-ऐं करते रह गए.’ हम जलती नजरों से उसको धमकाते मगर वह नजरें झुकाए मुस्कुराता रहता. अब आप ही सोचिए ऐसे में गुस्सा भला किसे नहीं आएगा.

उसका टिफिन देखता तो हमें उल्टी आ जाती थी. हर दिन वही रोटी और करेले की भुजिया, जिसकी पौष्टिकता एवं रोग विनाशी गुणों के बारे में बाकायदा हमें समझाने की भी कोशिश करता था. उसी करेला खाने की प्रतिभा से पूरे क्लास को चमत्कृत कर दिया था- एक दिन जब एक कच्चे करेले को बिना एक बार भी मुंह बिचकाए कचर-कचर करके खा गया था वह. हमें तो सोचकर ही उल्टी आ रही थी. ऐसी विकट प्रतिभा के कारण ही हमने उसे ‘करेला झा’ बुलाना शुरू कर दिया. अब आप ही बताइए नाम का कारण युक्तिसंगत था या नहीं. तो करेला झा तीन भाइयों में बीचवाला था. बड़े और छोटे के नाम भी लंबे-लंबे थे हमें याद नहीं रहते थे तो हम उन्हें बड़ा करेला और छोटा करेला कहते थे.  तीनों लेकिन पढ़ाई-लिखाई में जिसे कहते हैं ‘बिक्ख’. हम लोग पता करने की कोशिश करते थे कब कैसे पढ़ते हैं लेकिन एजी कॉलोनी की दीवारें-खिड़कियां-दरवाजे कुछ बताने को तैयार ही नहीं. करेला झा के पिता भी एजी ऑफिस में ही थे और हमारे पिताओं की बातचीत से पता चला था हमें कि  ‘बड़ा काबिल बनता है झाजीवा पूरा माहौल खराब कर दे रहा है. जादे हरिशचंदर है तो बैठे घर में, एजी में क्या कर रहा है. आजकल सूखल तनखा में चलता है कहीं?’ हमें लगा था कि शायद झा परिवार की प्रतिभा का स्त्रोत करेले में हो. एकाध बार कोशिश भी की परीक्षा के समय करेला-भक्षण की मगर बेकार. लेकिन उस दिन भ्रम टूटा हमारा जब खिड़की से हमने झा परिवार की बातें सुनीं. करेला झा के पिता करेले के अनश्वर-अविनाशी-अविकारी गुणों के बारे में बता रहे थे. मगर बड़ा करेला और छोटा करेला इससे इत्तेफाक नहीं रख रहे थे,  ‘घर में होता है तो रोज खाएंगे?’ दूसरी सब्जियों के अवगुणों पर रोशनी डाल रहे थे कि गोभी वायुविकार देता है और आलू चर्बी बढ़ाता है, दिमाग को भोथर करता है वगैरह-वगैरह. मगर दोनों के प्रतिरोधी स्वर हवा में थे. नहीं था तो सिर्फ हमारे करेला झा का स्वर. उत्सुकतावश रसोईघर की खिड़की से हमने झांका तो बरामदे पर हमारा करेला झा निर्विकार भाव से करेले की सब्जी के साथ चावल खा रहा था. उसी भुवन मोहिनी मुस्कान के साथ और बाहर किचन गार्डन में बहुत-सी करेले की लतरें हंस रही थीं जोर-जोर से. अद्भुत प्रतिभा वाले उसके पिता को साइकिल पर दफ्तर जाते देख हम खिसक लिए थे. अद्भुत प्रतिभा इसलिए कि उसके पिता को बहुत सारे कामों में महारत हासिल थी. जैसे कभी भी हमने उसके घर में टूथपेस्ट-ब्रश का इस्तेमाल होते नहीं देखा. नीम के दतवनों का एक छोटा गट्ठर हमेशा पड़ा रहता उसके यहां जो उसके पिता एकदम समान साइज में काटकर बनाते थे. नाई कभी नहीं आता था, वो लोग नाई के यहां भी नहीं जाते, सारे बच्चों के बाल उसके पिता खुद सफाई से काटते थे. कॉपी के बचे हुए पन्नों से एक सुंदर कॉपी तैयार कर देना, डिग-डिग, ढब-ढब बोलने वाले खिलौने बना देना जिसमें कोई प्लास्टिक या टीन का डब्बा, थोड़ी रस्सी और लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल होता था. बिना साबुन-क्रीम की ही दाढ़ी बना लेना, एक ही थान कपडे़ से खुद के एवं बच्चों के कपड़े बनवा लेना (सारे कपड़े अंत में हमारे करेला झा के ही हिस्से में आते थे क्योंकि बड़े करेले और छोटे करेले की उम्र एवं कद दोनों बढ़ जाते थे बस हमारे करेले की सिर्फ उम्र बढ़ती थी). पायजामा रूपांतरित होकर झोले में बदल जाता था. पैकिंग बक्सों से बुकशेल्फ, पढ़ने की मेज-कुर्सी बना लेना सब उसके पिता कर लेते थे – खुद अपने हाथों से. साबुन वगैरह को फिजूलखर्ची समझते हुए गंगा मिट्टी जिसे वे मृत्तिका कहते थे, रगड़-रगड़कर खूब नहाते थे. एजी कॉलोनी मे उन दिनों खूब पानी आता था और निःशुल्क था. गंगा-मिट्टी (मृत्तिका) का एक बड़ा ढेर बगीचे के एक किनारे पड़ा रहता था जिसमें समय-समय पर उसके पिता, घर मतलब अपने गांव से लाकर ढेर की वृद्धि करते रहते. एक दिन अलसुबह कॉलोनी के सारे डेहंडल लड़कों की नींद अपने-अपने पिता की फटकार से खुली जो पानी पी-पीकर कोस रहे थे अपने पुत्रों को ‘सात बजे तक सोया रहेगा तो का करेगा जिनगी में, ’ ‘सीखों झा जी के बेटा लोग से,’ ‘बिना एक भी ट्यूशन के आईआईटी में निकल गया,’ ‘यहां हर सब्जेक्ट का ट्यूशन …नालायक सब !’ ओह हो ! तो हमारे इस सामूहिक अपमान की जड़ में करेला झा का परिवार था. हर मां-बाप के स्वप्नद्वीप का रास्ता जो ढूंढ़ लिया था बड़े करेले ने. करेला झा और छोटा करेला क्लासों में फर्स्ट करते हुए बढ़ते रहे और कॉलोनी में नालायकों को डांट सुनवाते रहे. यहां तक कि एक दिन छोटा करेला भी युगधर्म वाली नौकरी मतलब मैनेजमेंट की तरफ निकल लिया. इसके बाद से हमारा करेला झा थोड़ा कम मुस्कुराने लगा. बड़ा करेला एक स्वनामधन्य कंपनी में बड़े पद पर पहुंच गया और छोटा करेला भी विदेश मुखी हुआ पर हमारा करेला हमारे साथ रहा और इसका हमें घोर आश्चर्य भी था. बैंकिग, यूपीएससी, बीपीएससी, एसएससी तरह-तरह के ठीहे थे, हमारी गर्दन कई बार कट चुकी थी. वो एजी मोड़ की चाय दुकान पर चाय -सिगरेट के दिन थे और ज्योतिषियों के यहां सलाह लेने के. ऐसी ही एक निकम्मी दोपहरी को हमारे करेला ने कहा, ‘जानते हो, मेरी कुंडली में केमद्रुम योग है. ‘अच्छा ! क्या होता है इससे?’ –प्रश्न कुंडली थी मंडली की – ‘सब कुछ रहते हुए भी आदमी खूब सफल नहीं होता’. हमने सामूहिक रूप से मान लिया हम सबकी कुंडली में भी केमद्रुम योग जरूर होगा. सिर्फ झूलन नहीं माना. उसने कहा, ‘तुम्हारा तो आलरेडी करेलाद्रुम योग है ही.’ पांचू की चाय-सिगरेट फिर उधार में पी गई. वह भी हमारे आश्वासन पर यकीन करता था कि नौकरी लगते ही दस गुना चुकाया जाएगा. वैसे कभी-कभी हाथ आने पर कुछ दे भी दिया जाता था. ऐसा कोई कमिटमेंट न तो हमारे करेला ने किया था न उसके हाथ में कुछ रहता था जो देता. अलिखित समझौता यह भी था कि वह हमारे पिताओं को हमारी चाय-सिगरेट के बारे में नहीं बताएगा और हम भी एजी के किसी कर्मचारी को उसके संध्याकालीन गांजे के धंधे के बारे में नहीं बताएंगे. करेला खूब सुड़क-सुड़क कर पूरे चालीस मिनट में एक गिलासिया चाय पीता जैसे पूरा रस चूस ले रहा हो और हम जब नौकरियों में खूब पैसा कमाने की बात करते तब वह हमें प्रवचन देता -‘ पैसे की आवश्यकता आदमी को एक सीमा तक ही पड़ती है. यह सिर्फ एक मानसिक आवश्यकता है. असल चीज है आत्मा का उन्नयन.’ अपने भाइयों का उदाहरण देता – ‘बड़े भैया को देखो, देसी कारपोरेट की नौकरी कर रहे हैं. भगवान ने सब कुछ दिया मगर अपने पिता को ही नहीं देख पा रहे. दिन रात बस भी मीटिंग-पैसा और छोटा- विदेशी कारपोरेट का दास – बस लैपटॉप और मीटिंग.’

‘तुम भी तो नौकरी करना चाहते हो, बथुआ कबाड़ना?’ झूलन ने

प्रश्न जड़ा.

‘सरकार और देश की सेवा और आत्मसंतुष्टि’, भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ कहा करेले ने.

‘भोरे से कोय मिला नै है? आत्मसंतुष्टि! – जय हो आत्मा बाबा!’ झूलन बोला .

‘शॉर्ट में – एटीएम बाबा की जय,’ मेरी टीप थी.

एटीएम में एक ‘ए’ जुड़ता है यानी आत्मा का आलोक तभी आत्मा …. हम सबने एक साथ मिलकर करेले को धकिया दिया था पांचू की दुकान से.

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मनीषा यादव

आखिर केमद्रुम योग भी कितने दिन पीछा करता हमारा. उसकी नजर जरा-सी इधर-उधर हुई कि हम अंतिम सवारी की तरह नौकरियों के पायदान पर लटक गए. झूलन और करेला ग्रामीण बैंक में और मैं एक ऐसे विभाग में जहां हवा में शब्दों और आवाजों की खेती होती थी. हम लोग स्ट्राइकर लगने पर कैरमबोर्ड की गोटियों की तरह बिखर चुके थे और अपने-अपने पाकेट्स के गड्ढ़ों में गिर चुके थे लंबे समय के लिए.

कई बरस बाद फेसबुक पर झूलन का अता-पता ढूंढ़ते हुए जब एक फोटो पर नजर पड़ी तो – ये तो अपना करेला लग रहा है लेकिन बाल ऐसे सन की तरह सफेद! चेहरा तो वही है जिसे देखकर स्कूल के ही शिक्षक रामसिंगार झा कहते थे, ‘कियो झा जी! करिया बामन गोरा शूद्र, तकरा सॅ कॉपे ब्रहमा- रूद्र.’ सभी हंस पड़ते थे मगर हमारे करेला के चेहरे पर वही भुवनमोहिनी मुस्कान रहती. मगर इस फोटो में मुस्कान गायब थी. आंखें थोड़ी जलती-सी थीं, कुछ असामान्य. क्या हुआ होगा ? झूलन से ही पता लगेगा. कुछ चैट कुछ फोन, कुछ एसएमएस के जरिए जो मालूम हुआ वह … साथ में झूलन की टीपें भी…

‘वहां तक तो तुमको मालूम ही है. हम लोग ग्रामीण बैंक में लग गए थे अगल-बगल के गांव के ब्रांच में. शुरू में एक साथ ही खूंटी तक जाते थे. फिर वह अपने ब्रांच हम अपने. लेकिन कुछ ही दिन में करेला गायब -मतलब मालूम हुआ वह वहीं रहने लगा. शादी हो गई थी. एक बच्चा भी – इसमें भी कंजूसी की  (झूलन की टीप). पत्नी से कहा – बाबूजी मां की सेवा के लिए तुम वहीं रहो हम यहां सरकार की सेवा करते हैं. एक बार भेंट हुई थी भाभी जी से. बड़ी उखड़ी-उखड़ी थी – ‘महीना में भी एक बार नहीं आते. कितना दूर है रांची से खूंटी? कहते हैं खर्च करने से क्या फायदा? क्या-क्या जोड़ते रहते हैं – एफडी, आरडी, पैसा भी कभी-कभार ही… मतलब बाबूजी के पेंशन से ही समझिए घर चलता है. जमा करने का हवस हो गया है. हेड ऑफिस जाता रहता हूं तो मालूम है – हमारे करेला झा के नाम से ही लोग मुस्कुराने लगा – पूरा सैलरी एफडी, आरडी..’

‘और दाना-पानी ?’ मेरा स्वाभाविक सवाल था.

‘अरे गांव में ही किसी लोनी के यहां सुबह पहुंच गया. कभी अमरूद, कभी पपीता, कभी कटहले. दिन भर निश्चिंत. रात में भात डभका लिया आलू के साथ. ब्रांचे में दू टेबल जोड़ के सो जाता है – भोरे निकल जाता है खेत के तरफ फिर नहा धो के ड्यूटी.’

‘करेलवा पगला गया क्या?’ फोटो से तो ऐसा ही लगता है.

झूलन कुछ निश्चित जवाब तो नहीं दे पाया लेकिन कुछ हद तक सहमत था मेरे सवाल से.

‘हमको भी लगा था, इसलिए मोबाइल से फोटो खींच लिए उसका. जानते हो सहम- सहम कर बाजार में चल रहा था. दुकान सब के तरफ देख के. लड़कन को मालूम हो गया है उसकी हालत के बारे में तो कोई टोक देता है.’

‘ क्या अंकल ! करेला साठ रूपया हो गया, बताइए.’

‘हां देखो न बाबू ! कैसा समय आ गया चारों तरफ लुटेरा घूम रहा है. खर्च नहीं करोगे तो सीधे (गरदन पर चाकू चलाने की भंगिमा) प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री सब बोल रहा है खर्चा कर, खर्चा कर. पता नहीं देश का वित्तमंत्री है कि अंबानी का.’ सहमी नजर से चारों तरफ देख के, ‘बताना मत किसी को. ई दुकानदार सब को, सब लूट लेगा समझे. हम तो खरीदना ही छोड़ दिए हैं.’

‘हां!’ लड़के आश्चर्य से तो- करेला झा के चेहरे पर चालाकी का भाव. लड़का मुंह दबा कर हंसते हुए निकल जाता है. तब जाकर झा को समझ में आता है कि उसका मजाक उड़ाया जा रहा है और जलती-सी निगाह डालता है. कई रातों से न सोने की वजह से आंखें टेसू हो रही हंै. हेड ऑफिस में कुछ लोग कंसीडरेट हैं तो नौकरी बचा हुआ है.

‘काम-वाम कर लेता है, मतलब कंप्यूटर वगैरह’ मेरी उत्सुकता थी.

‘नहीं ! लेजर लिखता है. हैंडराइटिंग बना-बनाकर. कहता है जब एकदम जरूरी हो जाएगा तो एक आदमी रख लेगा, बताओ ?’

क्या बताता मैं ? बड़ी इच्छा थी इस नए करेले को देखने की. शाम का तय किया. घर पर पहुंचे हम, मतलब मैं और झूलन. मालूम हुआ आया नहीं है, शायद कल आएगा. भाभी जी थीं. चाचा थे – बीमार, करीब-करीब मरणासन्न. बड़ा ही धूसर-सा माहौल था. गमगीन हवा. अलबत्ता घर के सामने एक खटारा काइनेटिक होंडा स्कूटी और एक पुरानी फिएट कार खड़ी थी जिसकी हालत चूहों ने खराब कर रखी थी.

‘कैसी हैं भाभी जी? झा ने क्या हालत बना रखी है घर की?’  मैंने बहुत दिनों के बाद भेंट होने का फायदा उठाते हुए कहा हालांकि हम भाभी के सामने उसे करेला नहीं कहते थे. भाभी आंसू पोंछने लगी. हम अप्रतिभ हो गए थे.

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