
29 जुलाई 1993 की रात कई पुलिसवाले किसी चोरी के संदिग्ध को खोजते हुए पुड्डुचेरी के अतियुर में रहने वाली विजया के घर घुस आए. तब वह सिर्फ 17 साल की थी. उसे परिवार सहित उठा लिया गया. पुड्डुचेरी के एक थाने में छह पुलिसवालों ने उसके साथ बलात्कार किया. बाद में यह मामला अखबारों में भी आया और अदालतों में भी. विजया को अदालत से बाहर मामला खत्म करने की पेशकश भी मिली, जिसे उसने ठुकरा दिया. बाद में निचली अदालत से अभियुक्तों को सजा भी हुई. लेकिन अभियुक्तों की अपील पर 2008 में हाई कोर्ट ने सबको बरी कर दिया क्योंकि तब विजया समय पर अदालत में अपना पक्ष नहीं रख पाई. इंसाफ के लिए विजया तब लड़ती जब जीवन के लिए लड़ने से फुरसत मिलती. अपने आखिरी वर्षों में वह नरेगा के तहत रोजगार की गारंटी खोज रही थी. बीमार-परेशान वह, इस गुरुवार को जीवन से अपनी लड़ाई हार बैठी. यह एक लंबी एकाकी लड़ाई का दारुण अंत रहा.
12 जुलाई के ‘द हिंदू’ में एक छोटी सी खबर छपी तो विजया के जीवन की इस त्रासदी, उसकी यातना, लड़ाई और मौत से मेरा परिचय हुआ. उसकी कोई खबर 20 बरस पहले कहीं पढ़ी भी होगी तो याद नहीं. हममें से बहुतों ने पहले उसका नाम भी नहीं सुना होगा. यह खबर बस याद दिलाती है कि हमारे चारों तरफ कई विजयाएं हैं- बहुत सारी लड़कियां- जो तरह-तरह के शोषण और उत्पीड़न झेल रही हैं और इसके विरुद्ध अपनी एकाकी लड़ाई एक दिन हार जा रही हैं.