वाहियात चीजों से अच्छा है, कुछ ऐसा करूं जो एक कलाकार के तौर पर मुझे खुशी दे: मानव कौल

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आप जैसे अभिनेता को हम फिल्मों में काफी समय के बाद देखते हैं. क्या आपकी प्राथमिकता थियेटर ही है?
थियेटर तो मेरी जिंदगी का अहम पहलू है ही लेकिन मुझे अच्छा लगता है कि मैं नई तरह की अभिव्यक्तियों से भी खुद को गुजारूं. जहां तक फिल्मों में अंतराल की बात है तो मैं भूमिकाओं को लेकर काफी सोचता-समझता हूं और चूजी हूं. वाहियात चीजों के साथ ज्यादा फिल्में करूं, इससे अच्छा है कि कम फिल्में करूं और ऐसी चीजें करूं जो मुझे कलाकार के तौर पर खुशी दें. इसके अलावा मैं बहुत-सी चीजें एक साथ करता रहता हूं जिसमें से लिखना मेरे लिए काफी अहम है और यह काफी समय और ऊर्जा की मांग करता है.
थियेटर में आपकी दिलचस्पी कैसे जगी?
कॉलेज के दिनों में मैंने ‘मातादीन चांद पे’ नाम का एक नुक्कड़ नाटक देखा. इससे पहले कहानियां पढ़ने में मेरी काफी दिलचस्पी थी ही, जब मैंने यह नाटक देखा तो मुझे लगा कि बस मैं यही करना चाहता हूं. उसके बाद मैं मुंबई आ गया और रंगकर्मी और फिल्मकार सत्यदेव दुबे के साथ मैंने काफी काम किया. थियेटर की बेहतरीन चीजें मैंने उन्हीं से सीखीं.
 
आपके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म  ‘हंसा’  में पहाड़ी गांव का बचपन दिखाया गया है. क्या ऐसा बचपन आपके अनुभवों का हिस्सा रहा है या यह सिर्फ अवलोकन पर आधारित था?
उत्तराखंड के गांव में मैंने कुछ वक्त बिताया है. उस समय वहां के निवासियों और बच्चों के जीवन को बहुत पास से देखा और महसूस किया है. तो आप कह सकते हैं कि यह अनुभव का हिस्सा भी है और अवलोकन भी है.
 
आपके नाटक  ‘इलहाम’  के मुख्य पात्र का एक पागल भिखारी से गहरा लगाव हो जाता है, जिसके बाद उसका परिवार और दूसरे लोग उसे पागल समझने लगते हैं. क्या ऐसे विषय पर नाटक लिखते समय आशंका नहीं हुई कि लोग इसे समझ नहीं सकेंगे?
देखिए ‘इलहाम’ के बारे में मुझे लगा तो था कि शायद इसे उतना अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिले, लेकिन मेरे भीतर से नाटक उपजा था. मुझे इसे लिखना ही था, मैंने लिखा. जब कोई चीज इस तरह निकलती है तो मैं लोगों की बहुत परवाह नहीं करता. वे मेरी चीज पसंद करें या नहीं, जो मुझे करना है मैं वो करता हूं. नाटक यह सोचकर खेलना शुरू किया कि 4-5 शो के बाद बंद कर देंगे. लेकिन आज कई भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं और मैं हैरान भी होता हूं कि इसे भी लोग उतना ही पसंद करते हैं जितना कि मेरे दूसरे नाटकों को सराहा जाता है.
 
इस विषय पर नाटक लिखने का ख्याल कहां से आया?
कॉलेज के दिनों में ही मन में काफी सवाल उपजने लगे थे, जिनका कोई माकूल जवाब कहीं मिल नहीं रहा था. फिर मैंने काफी वक्त मैकलॉडगंज में बिताया और वहां नीत्शे, सार्त्र, महर्षि रमण, जे. कृष्णमूर्ति जैसे लोगों को पढ़ा. कह सकते हैं कि इन्हें पढ़कर जो कुछ भी जेहन में उपजा उसी से ‘इलहाम’  निकला.
 
2003 में आपने अपना पहला नाटक  ‘शक्कर के पांच दाने’  लिखा. आपके द्वारा लिखे नाटकों में आपका पसंदीदा कौन-सा है?
सच बताऊं तो जब मैं अपने नाटक देखता हूं तो मुझे यकीन भी नहीं होता कि ये मैंने लिखे हैं. मैं इनमें से किसी भी एक नाटक को पसंदीदा नहीं कह सकता. मुझे सभी से प्यार है.
Kaul3WEB आपका पहला कहानी संग्रह  ‘ठीक तुम्हारे पीछे’  आने वाला है. बतौर लेखक आपको किन लेखकों ने प्रेरित किया?
जब मैं कॉलेज में था तो मेरी पढ़ने में ज्यादा रुचि नहीं थी लेकिन फिर मेरे हाथ देवकी नंदन खत्री का ‘चंद्रकांता’ उपन्यास लगा और उसके बाद पढ़ने में मेरी जो रुचि जगी तो फिर मैक्सिम गोर्की, दोस्तोवयस्की, मायाकोवस्की जैसे लेखकों के हिंदी अनुवादों से दोस्ती हुई. विनोद कुमार शुक्ल, अल्बैर कामू और निर्मल वर्मा को भी मैंने काफी पढ़ा है.
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कहानी संग्रह में किस तरह के विषयों पर कहानियां हैं?
बहुत अलग-अलग तरह के विषय हैं. नाटकों की तरह कहानियों में भी मैंने नए तरह के प्रयोग किए हैं. कहीं-कहीं कहानियां आपको बहुत अजीब लग सकती हैं. लेकिन अजीब होना भी जीवन का रंग है और उसे मैंने शब्द दिए हैं. प्रेम भी है और बहुत सारा प्रेम है. ये कहानियां दरअसल नाटक लिखने के पहले की हैं. मैंने ‘मुमताज भाई पतंग वाला’ नाम की पहली कहानी लिखी थी. बाद में इसे नाटक का रूप दिया. इस कहानी को भी संग्रह में रखा गया है. मैं काफी उत्साहित हूं, पहली बार मेरा लिखा कुछ प्रकाशित हो रहा है. मैं टिपिकल लेखक जैसा धीर-गंभीर तो नहीं दिखता लेकिन इसके बाद मैं स्थापित लेखक हो जाऊंगा (हंसते हुए).
 
पटकथा लेखक, अभिनेता, निर्देशक और लेखक, इन सबमें कौन-सी भूमिका आपके लिए सबसे अहम है?
मैं काफी समय तक एक ही चीज नहीं करता रह सकता. मुझे अच्छा लगता है अलग-अलग चीजें करूं, अलग-अलग भूमिकाएं निभाऊं. यहां तक कि मैं जीवन में अलग-अलग पात्रों की जिंदगी को जीना चाहता हूं, चायवाले और रिक्शेवाले की जिंदगी को भी. लेखन और अभिनय इसका मौका देते हैं कि आप अलग-अलग तरह की जिंदगी जी सकें. ये सभी पहलू मेरे जीवन का हिस्सा हैं और मैं इन सभी में काम करता रहूंगा.
 
जय गंगाजल में अपनी भूमिका के बारे में कुछ बताएं.
फिल्म में मैं बबलू पांडे नाम के विधायक की भूमिका मैं निभा रहा हूं, जो अपने मूल में ग्रे शेड का व्यक्तित्व है. वह नकारात्मकता लिए है लेकिन यह काफी भावुक किरदार है. अब तक निभाए मेरे किरदारों में सबसे ज्यादा भावुक. काफी चुनौतीपूर्ण काम होता है ऐसे पात्र को निभाना. उम्मीद है लोगों को मेरा काम पसंद आएगा.