कैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा किसी भी कीमत पर जीत को बेकरार है…

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भाजपा ने 2014 में लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की. इस चुनाव में उसने उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से 71 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था. अब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में एक साल से कम समय बचा है. अगली सर्दी के मौसम में राज्य में चुनावी माहौल पूरी तरह से गर्म होगा. यह चुनाव भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर आएगा. प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है. मुख्य विपक्षी बसपा भी जोर-शोर से मैदान में है. इसके बावजूद इस समय भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद उसका अपना प्रदर्शन है, जो उसने लोकसभा चुनाव में दिखाया है. इसलिए हाल में जब उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. इस बैठक में एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने राज्य में चुनाव अभियान का श्रीगणेश ही कर दिया.

इस बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा, ‘बदलाव होते रहते हैं, लेकिन हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए. हमें हमेशा नए आइडिया पर विचार करते रहना चाहिए. जो कार्यकर्ता हमारे साथ जुड़ा है, उसको एकजुट करके आगे बढ़ना है. हमारे देश में 80 करोड़ युवा हैं. उनके मन को पढ़ते हुए जरूरी बदलाव करना होगा.’ उन्होंने कहा, ‘प्रयाग का नाम ही सबसे बड़ा है. यहां बहुत बड़ा यज्ञ होने की वजह से ही नाम प्रयाग पड़ा था. अब यहां फिर से विकास का यज्ञ होगा. विकास का यज्ञ अहंकार, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, अनैतिकता, बेईमानी की आहुति लेकर सफल होता है.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दौरान कार्यकर्ताओं व पार्टी नेताओं को सेवाभाव, संतुलन, संयम, समन्वय, सकारात्मकता, सद्भावना और संवाद कायम रखने संबंधी सात मंत्र भी दिए. वहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना होगा. यहां कानून का नहीं माफिया का राज चल रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम साबित हुई है. मथुरा और कैराना का मामला सबके सामने है. इसमें सीधा दोष राज्य सरकार का है.’ इस बैठक में यह भी साफ हो गया कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बीच का श्रम विभाजन स्पष्ट है. मोदी विकास के मंत्र का जाप करेंगे और शाह मथुरा, कैराना जैसे भावनात्मक मुद्दों को उछाल कर जनता का समथन हासिल करने की कोशिश करेंगे.

इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह प्रयाग में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक पर कहते हैं, ‘भाजपा की इस कार्यकारिणी में शामिल होने संगम आए नेता पुण्य कमाते नजर आए. ज्यादातर नेताओं ने संगम में स्थान, बनारस में बाबा विश्वनाथ के दर्शन और विंध्याचल में मां विंध्यवासिनी की पूजा की. इन नेताओं ने पुण्य चाहे जितना कमाया हो पर सियासी रूप से कार्यकारिणी का कोई बड़ा फैसला नहीं दिखा. प्रधानमंत्री मोदी विकास की माला जपते रहे तो अध्यक्ष अमित शाह कैराना और मथुरा के इर्द-गिर्द ही सिमटे रहे. उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए किसी ठोस घोषणा या भावी मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम तक इस कार्यकारिणी में तय नहीं हो पाया.’

‘हमारा अभी का नारा ‘हर बूथ पर बीस यूथ’ का है. इसी नारे पर काम चल रहा है. इसके तहत एक बूथ अध्यक्ष और 20 युवाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है. इसके अलावा अनुभवी और पुराने कार्यकताओं को भी जोड़ा गया है. इसके बाद हम हर गांव में कम से कम 20 समर्पित युवाओं को पार्टी के प्रचार की कमान सौंपेंगे. अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर इन बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे हैं’

गौरतलब है कि भाजपा के कट्टर समर्थक भी यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से काफी भिन्न होंगे. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी जब चुनाव प्रचार के लिए उतरे थे, तब वे मतदाताओं से कोई भी वादा करने के लिए स्वतंत्र थे. उन्होंने इस दौरान ढेर सारे वादे भी किए. विदेशों से काला धन वापस लाकर हर देशवासी की जेब में 15 लाख रुपये डालना, भ्रष्टाचार मिटाना और तेजी के साथ देश की अर्थव्यवस्था का विकास, युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करना और कीमतें घटाने का वादा उनमें से प्रमुख हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव आते-आते मोदी सरकार के कार्यकाल के भी लगभग तीन साल पूरे होने वाले होंगे. इस दौरान सरकार का प्रदर्शन भी जनता के सामने होगा और जनता इस आधार पर अपना निर्णय सुनाएगी.

भाजपा को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम से बड़ा सबक भी मिल चुका है. दिल्ली में उसने लोकसभा की सातों सीटें जीती थीं लेकिन एक साल के भीतर ही उसकी यह हालत हो गई कि विधानसभा चुनाव में उसे 70 सीटों में से केवल तीन पर सफलता मिल सकी. बिहार में बड़े जोर-शोर से प्रचार और पूरे संसाधन झोंक देने के बाद भी उसे हार का सामना करना पड़ा. इसलिए उत्तर प्रदेश में वह बहुत सावधानी के साथ कदम बढ़ा रही है.

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प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता का कारण मोदी-केंद्रित प्रचार था. इससे सबसे अधिक प्रभावित और उत्साहित नौजवान हुए थे क्योंकि उन्हें लगा था कि भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा, उनका रोजगार पाने का सपना पूरा होगा, कीमतों में कमी आ जाएगी, महंगाई खत्म होगी. अब तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वही नौजवान मतदाता देखेगा कि कितने रोजगार पैदा हुए. कीमतों में कितनी गिरावट आई, भ्रष्टाचार में कितनी कमी आई.’
जानकार कहते हैं कि इसी डर के चलते भाजपा विकास के साथ उन मुद्दों को भी नहीं छोड़ना चाहती है जिससे मतदाताओं को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जा सके. इसके संकेत भी इलाहाबाद में हुई कार्यकारिणी की बैठक में मिल चुके हैं. हालांकि इसमें प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की मौन सहमति भी उसे मिल रही है. समाजवादी पार्टी को यह लगता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति में उसे भी फायदा होगा क्योंकि सुरक्षा की तलाश में मुसलमान उसकी शरण में आएंगे. पर अभी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वे मायावती की बहुजन समाज पार्टी के पास नहीं जाएंगे.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर आफताब आलम कहते हैं, ‘अल्पसंख्यकों में वोट को लेकर अभी भ्रम की स्थिति है. अभी वे सपा से नाराज हैं, कांग्रेस के पास जाने का विकल्प सुरक्षित नहीं है. क्योंकि अल्पसंख्यक मतदाताओं की दिक्कत यह है कि वे उसी पार्टी को एकमुश्त वोट देते हैं जो सरकार बनाने की स्थिति में होती है. कांग्रेस इस स्थिति में अभी दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में बसपा बेहतर विकल्प है. लेकिन जिस तरह की परिस्थितियां अभी चल रही हैं उस हिसाब से लगता है कि प्रदेश में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने जा रहा है. लंबा वक्त है, अगर प्रदेश में चुनाव से पहले गठजोड़ बनता है जैसे बसपा और कांग्रेस के बीच में तो स्पष्ट है मुसलमान मतदाता इस ओर आकर्षित होंगे.’

‘उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की संभावना तो है. लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. हम अगर लोकसभा से विधानसभा चुनाव में करीब दस प्रतिशत वोट की गिरावट मानें तब भी भाजपा फायदे में है. अब हमें यह देखना होगा कि राज्य में मुकाबला कैसे होता है. विपक्ष एकजुट होता है या नहीं. अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय रहा तो निश्चित रूप से भाजपा को फायदा होगा’

हालांकि ऐसी परिस्थितियां अभी भाजपा के लिए फायदेमंद दिख रही हैं. कांग्रेस अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह प्रदेश की राजनीति में कोई जादू दिखा सके. उसकी समस्या दोनों स्तरों पर है. कार्यकर्ताओं की कमी के साथ-साथ प्रदेश में पार्टी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो उम्मीद जगा सके. चुनावी मैनेजमेंट के गुरु प्रशांत किशोर की सेवाएं भी स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को लुभाने में असफल रही हैं. प्रदेश की जनता ने पिछली दो विधानसभा चुनावों में दोनों बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों का भी कार्यकाल देख लिया है. दोनों के शासनकाल में कुछ बेहतर होने के साथ बहुत कुछ बुरा भी रहा है. लेकिन, लगता है भाजपा उत्तर प्रदेश की लड़ाई के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही. पार्टी उत्तर प्रदेश में जीत के लिए निर्णायक मुद्दा और निर्णायक चेहरा ही नहीं तलाश पा रही है लेकिन पार्टी के नेता इस बात से इनकार कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि अभी हमारे पास वक्त है और पार्टी अपनी कमियों को दूर करने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है.

भाजपा ने अगले साल यूपी विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए कई प्लान बनाए हैं. इस पर काम भी जारी है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि चुनाव में जीत के लिए पूरे राज्य को छह हिस्सों में बांटा गया है- अवध, कानपुर-बुंदेलखंड, गोरखपुर, बृज, काशी और पश्चिम. इसके लिए हर क्षेत्र में एक अध्यक्ष होगा. इसके लिए आरएसएस बैकग्राउंड रखने वाले भाजपा नेताओं को चुना गया है. इसके साथ ही संघ का महासचिव इनका नेतृत्व करेगा. इनका चुनाव हो गया है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक रत्नाकर पांडे (काशी), शिवकुमार पाठक (गोरखपुर), बृज बहादुर (अवध), ओम प्रकाश (कानपुर-बुंदेलखंड), भवानी सिंह (बृज) और चंद्रशेखर (पश्चिम) कमान संभालेंगे. इनमें से ज्यादातर नेताओं ने एबीवीपी के लिए काम किया है.

इसके अलावा पार्टी का लक्ष्य राज्य के हर चुनावी बूथ पर अपनी पकड़ मजबूत करना है. इस काम में अमित शाह खुद दिलचस्पी ले रहे हैं. इसमें उनका साथ पार्टी के राज्य प्रभारी ओम प्रकाश माथुर और प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य दे रहे हैं. पार्टी से जुड़े लोगों का कहना है कि पूरे राज्य में हर बूथ के अध्यक्ष और 20 समर्पित कार्यकर्ताओं की सूची तैयार हो गई है. अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उन्हें आगे की रणनीति समझा रहे हैं. इसके लिए कानपुर, बाराबंकी, बस्ती समेत कई जगहों पर बूथ स्तरीय बैठकें हो चुकी हैं.

‘जब तक बाबरी मस्जिद बनी हुई थी तब तक वह इसके नाम पर लोगों को एकजुट कर लेती थी. जब से यह मस्जिद गिरी है तब से इसके नाम पर वोट लेने की क्षमता भी घटती गई है. आज की स्थिति यह है कि अयोध्या के नाम पर वोट मिलना संभव नहीं है. भाजपा इस मुद्दे का जितना दोहन कर सकती है वह कर चुकी है. अब लोग मंदिर के नाम पर जान नहीं देने वाले हैं. ऐसे में भाजपा के पास मुद्दे की कमी है’

कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर कहते हैं, ‘पार्टी का मुख्य जोर संगठन को मजबूत करने का है. हम हर बूथ पर करीब 20 ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज तैयार कर रहे हैं जो लोगों को पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित कर सकें. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रदेश अध्यक्ष इस काम में जोर-शोर से लगे हैं. हर दिन रैलियां हो रही हैं. जनता पूरे उत्साह में है. हमारा मुख्य मुकाबला सपा से है और इस बार हम उसकी सरकार को उखाड़ फेंकेंगे.’

वहीं उत्तर प्रदेश भारतीय जनता युवा मोर्चा के सोशल मीडिया संयोजक और बस्ती के रहने वाले भावेश पांडेय कहते हैं, ‘पार्टी के कार्यकर्ताओं में भरपूर ऊर्जा है. हमारा अभी का नारा ‘हर बूथ पर बीस यूथ’ का है. इसी नारे पर काम चल रहा है. इसके तहत एक बूथ अध्यक्ष और 20 युवाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है. इसके अलावा अनुभवी और पुराने कार्यकर्ताओं को भी जोड़ा गया है. इसके बाद हम हर गांव में कम से कम 20 समर्पित युवाओं को पार्टी के प्रचार की कमान सौंपेंगे. अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर इन बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे हैं. हम प्रदेश की अपनी सफलता को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हैं.’
पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया के सहारे जीत हासिल की थी. इस बार भी वह इसी फिराक में है. कार्यकर्ताओं और नेताओं को इस बारे में संकेत दिए जा चुके हैं. भावेश कहते हैं, ‘हमारी सोशल मीडिया पर तगड़ी पकड़ है. राज्य के कोने-कोने में हमारा कार्यकर्ताओं से संवाद हो रहा है. सबसे अच्छी बात है कि ये पेड वर्कर नहीं हैं जैसे कांग्रेस में लोगों को भर्ती किया जा रहा है. ये लोग अपना पैसा खर्च करके हमसे जुड़ रहे हैं. यह हमारी ताकत है. इसी के सहारे हम 2017 में मिशन 265 प्लस को साकार करेंगे.’

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प्रदेश भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि चुनावी तैयारियों में पार्टी का ध्यान पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर ज्यादा है. पार्टी ने लोकसभा चुनावों में यहां बेहतर प्रदर्शन किया था. अब उसे दोहराने की कोशिश भी जारी है. इस तरफ के नेता इस तरह की तैयारियों में लगे हुए हैं. इसकी कमान कैराना से सांसद हुकुम सिंह, केंद्रीय मंत्री डॉ. महेश शर्मा, आगरा के सांसद रामशंकर कठेरिया, मुजफ्फरनगर सांसद संजीव बालियान और सरधना से विधायक संगीत सोम ने संभाल ली है. इन सभी नेताओं की पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर अच्छी पकड़ है. ये नेता अलग-अलग मुद्दों के आधार पर पार्टी की जीत के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में आखिरी बार भाजपा की सरकार 2002 में थी. 08 मार्च, 2002 को पार्टी नेता राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से प्रदेश में कभी कमल नहीं खिल पाया है. अभी अपने हाल के भाषणों में राजनाथ सिंह बार-बार जनता से 14 साल के वनवास को खत्म करने की मांग करते हुए नजर आए हैं. पार्टी के कार्यकर्ताओं में भी इस बार उत्साह दिख रहा है. विश्लेषक इसके पीछे कुछ कारण बताते हैं. दरअसल केंद्र में पहली बार भाजपा की बहुमत वाली सरकार आई है. इसमें उत्तर प्रदेश की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर पार्टी के कार्यकर्ता जनता के बीच जा रहे हैं. इलाहाबाद कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने भी पार्टी नेताओं से कहा है कि वे सरकार की गरीबों और आम लोगों से जुड़ी योजनाओं को सोशल मीडिया और आधुनिक तकनीक के जरिए फैलाएं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष एचके शर्मा कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में जो समीकरण बन रहे हैं उससे भाजपा को फायदा मिल रहा है. राज्य में क्षेत्रीय पार्टियों सपा और बसपा का जो हालिया शासन रहा है वह बहुत ही स्वेच्छाचारी रहा है. इस दौरान प्रदेश का विकास पूरी तरह से ठप रहा है.

मतदाताओं के दिमाग में यह बात है कि हमने केंद्र में भाजपा को एक बार मौका दिया है तो राज्य में भी यह दिया जाना चाहिए. भाजपा को वोट देने का फायदा यह है कि अगर प्रदेश का नेतृत्व सही ढंग से काम नहीं कर रहा है तो केंद्र का मजबूत नेतृत्व उसे दुरुस्त कर देगा. उस पर अंकुश लगाएगा. भाजपा के पास बहुत अच्छा केंद्रीय नेतृत्व है जिससे लोगों को बहुत उम्मीद है. अभी तक भ्रष्टाचार का कोई मामला केंद्रीय सरकार के खिलाफ नहीं आया है. इसका फायदा निश्चित रूप से राज्य के चुनाव में मिलेगा.’

भाजपा जब उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता में आई थी तो उसका नारा था कि वह औरों से अलग है लेकिन बाद में पार्टी ने राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन से लेकर दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ तक का सहारा लिया. इससे उसकी छवि को बट्टा लगा. बाद में जमीनी नेता कल्याण सिंह के पार्टी से अलगाव ने भाजपा का बंटाधार कर दिया. वे पिछड़े वर्ग के नेता थे और उनका राज्य में बेहतर जनाधार था

उत्तर प्रदेश में चार प्रमुख दलों भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच मुकाबला होने की उम्मीद है. विश्लेषक कहते हैं कि अगर चुनाव पूर्व भाजपा विरोधी दलों के बीच किसी तरह का गठबंधन नहीं होगा तो इसका फायदा मिलेगा. अभी प्रदेश में जो हालात हैं उसे देखकर यही लग रहा है कि सभी दल अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेंगे. कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि सपा जितनी मजबूती से चुनाव लड़ेगी उतना ही फायदा भाजपा को होगा, क्योंकि इससे बसपा और कांग्रेस का सीधा नुकसान होगा.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की संभावना तो है. लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. हम अगर लोकसभा से विधानसभा चुनाव में करीब दस प्रतिशत वोट की गिरावट मानें तब भी भाजपा फायदे में है. अब हमें यह देखना होगा कि राज्य में मुकाबला कैसे होता है. विपक्ष एकजुट होता है या नहीं. अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय रहा तो निश्चित रूप से भाजपा को फायदा होगा.’

वहीं जानकार अमित शाह के चुनावी प्रबंधन को भाजपा की मजबूती बताते हैं. उनका मानना है कि अमित शाह किसी भी चुनाव में अपना सब कुछ झोंक देते हैं. वे इस विधानसभा चुनाव की तैयारी लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद से कर रहे हैं. इसी योजना के तहत प्रदेश से बहुत सारे नेताओं को मंत्री बनाया गया. वे लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे थे. तब समर्पित कार्यकर्ताओं की बनाई गई सूची को उन्होंने अब और विस्तार दे दिया है.

भाजपा कार्यकर्ता और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के नेता राघवेंद्र सिंह कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में एक बार जब अमित शाह उत्तर प्रदेश आ गए तब से वे वापस नहीं गए हैं. उनकी सबसे अच्छी खूबी यह है कि वे कार्यकर्ताओं से सीधे जुड़ रहे हैं. उनका मैनेजमेंट लाजवाब है. दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद विरोधी भले ही उन पर सवाल उठाएं लेकिन इससे पहले भाजपा के चुनाव प्रचार में कभी इतना उत्साह नजर नहीं आता था.’

राघवेंद्र की इस बात से नीरजा चौधरी भी सहमत हैं. वे कहती हैं, ‘भाजपा जमकर चुनाव मैदान में उतर रही है. यह उसके लिए फायदेमंद है. यह चुनाव उनके लिए जीने-मरने वाली बात है. यह विधानसभा चुनाव अगले लोकसभा चुनाव की दिशा को तय करेगा. अगर भाजपा इसमें बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो पार्टी के अंदर से भी लोग छूरियां निकाल लेंगे. मोदी-शाह की जोड़ी पर सवाल उठना शुरू हो जाएगा.’

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हालांकि सारे लोग इससे सहमत हों ऐसा नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि आज की स्थिति में उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है. ऐसा भी नहीं है कि भाजपा नंबर एक पर आने वाली है. हाल में उन्होंने जिस तरह की राजनीति की है उससे तो मामला और भी खराब हुआ है. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता के आधार पर आप सरकार नहीं बना सकते हैं. बस वोट में बढ़ोतरी हो सकती है. योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज और अमित शाह स्वयं इसी तरह की राजनीति करते नजर आ रहे हैं. जबकि मोदी ने जब 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा था तो उन्होंने स्वयं इस तरह की कोई राजनीति नहीं की थी. उन्होंने विकास और भ्रष्टाचार जैसे मसले उठाए थे.’

भाजपा जब उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता में आई थी तो उसका नारा था कि वह औरों से अलग है लेकिन बाद में पार्टी ने राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन से लेकर दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ तक का सहारा लिया. इससे उसकी छवि को बट्टा लगा. बाद में जमीनी नेता कल्याण सिंह के पार्टी से अलगाव ने भाजपा का बंटाधार कर दिया. वे पिछड़े वर्ग के नेता थे और उनका राज्य में बेहतर जनाधार था. उनके बाद कोई उतना बड़ा जनाधार वाला नेता भाजपा में सामने नहीं आया. इसके अलावा भाजपा में जो भी बड़े नेता थे वे सिर्फ कागजी शेर थे या फिर क्षेत्र विशेष या जातीय नेता के रूप में ही स्थापित होते रहे.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जात और जमात एक हकीकत है. ऐसे में हर पार्टी को इस हिसाब से अपनी रणनीति बनानी होती है. भाजपा इसमें बुरी तरह से असफल रही. वह अब भी ठाकुरों, ब्राहमणों और बनियों की पार्टी बनी हुई है. बीच-बीच में उसका यह जनाधार भी खिसकता रहा. इसका सीधा असर पार्टी के प्रदर्शन पर दिखता है. 1991 में पार्टी ने 221 सीटों पर जीत दर्ज की थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने थे. करीब डेढ़ साल बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद 1993 में हुए चुनाव में पार्टी सपा और बसपा के गठजोड़ को भेद पाने में असफल रही और 177 सीटों पर जीत हासिल की. हालांकि प्रदेश में सरकार सपा और बसपा की बनी. 1996 के चुनाव में भाजपा को 174 सीटें मिलीं. इस दौरान उसने बसपा के साथ गठबंधन और बाद में बसपा में तोड़फोड़ करके राज्य में सरकार बनाई. हालांकि इस दौरान कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्त और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने. इसके बाद 2002 के चुनाव में पार्टी की बुरी गत हुई. उसे मात्र 88 सीटों पर जीत हासिल हुई. इस चुनाव के बाद से पार्टी कभी लय नहीं पकड़ पाई. 2007 के चुनाव में पार्टी ने 51 तो 2012 के चुनाव में मात्र 47 सीटों पर जीत दर्ज की.

उत्तर प्रदेश में बन रही सांप्रदायिक छवि से बड़ी समस्या राज्य में भाजपा के खुद के चेहरे की है. पार्टी में इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है. भाजपा का एक धड़ा उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित किए बिना ही नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की बात कर रहा है. इस धड़े का मानना है कि इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह रहेगा और एकजुटता भी मजबूत होगी

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘जब तक बाबरी मस्जिद बनी हुई थी तब तक वह इसके नाम पर लोगों को एकजुट कर लेती थी. जब से यह मस्जिद गिरी है तब से इसके नाम पर वोट लेने की क्षमता भी घटती गई है. आज की स्थिति यह है कि अयोध्या के नाम पर वोट मिलना संभव नहीं है. भाजपा इस मुद्दे का जितना दोहन कर सकती है वह कर चुकी है. अब लोग मंदिर के नाम पर जान नहीं देने वाले हैं. ऐसे में भाजपा के पास मुद्दे की कमी है. अब कभी वह लव जिहाद, कभी मुजफ्फरनगर, कभी गोहत्या या फिर सांप्रदायिकता बढ़ाने वाले दूसरे मुद्दे उठा रही है लेकिन इससे जनाधार में इजाफा होता नजर नहीं आ रहा है.’
भाजपा द्वारा सांप्रदायिकता के मुद्दे को भुनाने की कोशिश पर ज्यादातर विश्लेषक सहमत दिखते हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भाजपा की संभावना पूरी तरह से ध्रुवीकरण पर आधारित है. अगर वह यह कराने में सफल रहती है तो उसकी सरकार बनेगी. उत्तर प्रदेश में अभी विकास मुद्दा नहीं है. भाजपा के पास न तो सपा, बसपा से इतर कोई मुद्दा है और न ही कोई चेहरा है. विकास की बातें सारी पार्टियां करती हैं. जातीय राजनीति में भी भाजपा सपा और बसपा से पीछे है.’ वहीं एचके शर्मा कहते हैं, ‘भाजपा अब भी ध्रुवीकरण की राजनीति से बाहर नहीं आई है. यह स्पष्ट तौर पर भाजपा को नुकसान पहुंचाएगा. दूसरी बात प्रदेश में भाजपा का संगठन अब भी बहुत मजबूत नहीं है. यहां कार्यकर्ताओं की कमी है. कार्यकर्ताओं के लिए भाजपा अब भी संघ पर निर्भर है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा के साथ पहले भी रहे हैं लेकिन इससे मत प्रतिशत में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है.’

जानकार इस मुद्दे पर भाजपा को नुकसान होने की संभावना जता रहे हैं. आफताब आलम कहते हैं, ‘भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि वह अभी सपा सरकार को घेरने के लिए कोई खास मुद्दा तलाश नहीं पाई है. अभी उनका पूरा ध्यान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर है. वह इसी को आगे बढ़ा रही है. योगी आदित्यनाथ, हुकुम सिंह, संगीत सोम, साक्षी महाराज जैसे लोग इस पर लगातार बोल रहे हैं. मजेदार यह है कि जब ये लोग कुछ उल्टा-सीधा बोल देते हैं तो पार्टी इसे इनका निजी बयान बताकर पीछे हट जाती है. यह एक तरह से टेस्टिंग करती है कि यह उसके लिए कितना फायदेमंद है. यह मसला उसकी छवि को नुकसान पहुंचा रहा है. दरअसल भाजपा के पास विकास का कोई ऐसा मॉडल नहीं है जिसके सहारे वह प्रदेश में अपनी राजनीति चमकाए.’

उत्तर प्रदेश भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा की प्रभारी रुमाना सिद्दीकी इससे इनकार करती हैं. वे कहती हैं, ‘उत्तर प्रदेश की जनता सपा सरकार की गुंडागर्दी से त्रस्त हो चुकी है. इस बार प्रदेश में भाजपा की सरकार आएगी. जहां तक हमारे ऊपर आरोप लगता है कि हम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं तो यह बिल्कुल बेबुनियाद और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है. भाजपा इस तरह की राजनीति में बिल्कुल विश्वास नहीं रखती है. हम मुस्लिम हैं और हमने आज तक ऐसा नहीं देखा कि पार्टी में सांप्रदायिक बातों को बढ़ावा दिया जाता हो. दूसरी पार्टी वाले कुछ भी बोलें और चिल्लाएं इससे हमें फर्क नहीं पड़ता है.’

हालांकि उत्तर प्रदेश में बन रही सांप्रदायिक छवि से बड़ी समस्या राज्य में भाजपा के खुद के चेहरे की है. पार्टी में इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है. भाजपा का एक धड़ा उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित किए बिना ही नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की बात कर रहा है. इस धड़े का मानना है कि इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह रहेगा और एकजुटता भी मजबूत होगी. लेकिन पार्टी में ज्यादातर कार्यकर्ताओं की इच्छा है कि उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के नाम पर उसके पास एक चेहरा जरूर हो. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ही इस मुद्दे को लेकर अलग-अलग मौके पर अलग-अलग राय जाहिर कर चुके हैं. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में और भी कनफ्यूजन पैदा हो रहा है. पार्टी के कुछ लोग कहते हैं कि अभी वे अपने नए प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य का चेहरा जनता के बीच ले जाना चाहते हैं. अगर अभी ही मुख्यमंत्री का चेहरा सामने आ गया तो मौर्य का प्रभाव फीका पड़ जाएगा.

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उत्तर प्रदेेश में भाजपा नेताओं के समर्थकों ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर फेसबुक पर अभियान चला रखा है.

मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भाजपा ने अभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. उसे इसका नुकसान होगा. राज्य की जनता ने अखिलेश और मायावती दोनों का राज देखा है. इन दोनों के शासनकाल में कुछ कमियां सामने आईं तो कुछ खूबियां भी रही हैं. मायावती को आज भी लोग कानून व्यवस्था के लिए याद करते हैं. अखिलेश यादव की व्यक्तिगत तौर पर छवि बहुत अच्छी है. पार्टी के बाहर के भी लोग उन्हें पसंद करते हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में भाजपा अब भी राम मंदिर के लिए याद की जाती है, जबकि इस मुद्दे को देखते-सुनते एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई है. पार्टी के जितने भी चेहरे हैं वे सब गुटबंदी के शिकार हैं. अगर राजनाथ सिंह उम्मीदवार बनते हैं तो खेल पलट सकता है. लेकिन जाति का मसला फंसेगा.’

भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरे का सवाल उठते ही अलग-अलग कोनों से अलग-अलग चेहरों की बात सामने आने लगती है. कभी बेहद बुजुर्ग हो चुके राज्यपाल कल्याण सिंह की बात आती है तो कभी तेजतर्रार स्मृति ईरानी की. उमा भारती वाला दांव तो पिछले विधानसभा चुनाव में ही फुस्स हो गया था. हालांकि उनके समर्थक मानते हैं कि उन्हें सही तरीके से जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई थी इसलिए ऐसा हुआ है. इस बार उनके नाम पर माहौल बन सकता है. इसके अलावा गोरखपुर के योगी आदित्यनाथ और सुल्तानपुर के वरुण गांधी को लेकर उनकेे समर्थक बहुत उत्साहित हैं. दावेदारों में केंद्र सरकार में मंत्री मनोज सिन्हा, कलराज मिश्र और महेश शर्मा से लेकर राज्यसभा सांसद विनय कटियार तक का नाम चर्चा में है. लेकिन इनमें से कोई भी चुनावी कुंभ में बसपा और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व जितना वजनी नहीं है, ऐसी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व के ही एक वर्ग की राय है.

वैसे मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा में एक बड़ा नाम राजनाथ सिंह का भी है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में और प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वे अपना राजनीतिक कौशल दिखा भी चुके हैं. हालांकि राजनाथ सिंह स्वयं इस दावेदारी को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. इस प्रश्न के उत्तर में अब तक उन्होंने जो कुछ भी कहा है उससे ऐसे ही संकेत मिलते हैं. हाल ही में उन्होंने कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही काम करना चाहते हैं. जहां-जहां वे जाएंगे वहां-वहां हम भी जाएंगे.
ऐसे में यह माना जा रहा है कि केंद्रीय राजनीति का आनंद ले रहे राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति में वापसी के लिए जरा भी उत्सुक नहीं हैं और शायद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी इस स्थिति में नहीं हैं कि उन्हें इसके लिए निर्देशित कर सकें. इन स्थितियों और भीतरी अंतर्द्वंद्वों के कारण उत्तर प्रदेश में चेहरा चुनने और न चुनने के मुद्दे ने भाजपा के लिए ऊहापोह की स्थिति बना दी है. हालांकि भाजपा नेतृत्व का कहना है कि उत्तर प्रदेश में वह मुद्दों पर आधारित चुनाव लड़ेगी न कि चेहरे पर आधारित. मगर बिहार में चेहरा न चुनने के नुकसान और असम में चेहरा चुन लेने के फायदे देख चुकी भाजपा उत्तर प्रदेश के लिए तो फिलहाल चेहराविहीन ही दिख रही है.

‘भाजपा ने अभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. उसे इसका नुकसान होगा. राज्य की जनता ने अखिलेश और मायावती दोनों का राज देखा है. इन दोनों के शासनकाल में कुछ कमियां सामने आईं तो कुछ खूबियां भी रही हैं. मायावती को आज भी लोग कानून व्यवस्था के लिए याद करते हैं. अखिलेश यादव की व्यक्तिगत तौर पर छवि बहुत अच्छी है. पार्टी के बाहर के भी लोग उन्हें पसंद करते हैं’

शरत प्रधान कहते हैं, ‘जहां तक मुख्यमंत्री के चेहरे का सवाल है तो पार्टी इस स्थिति में है ही नहीं कि वह अपने दम पर सरकार बना सके. इसके बाद उसके पास राजनाथ सिंह के अलावा ऐसा कोई विश्वसनीय चेहरा भी नहीं है जो कुछ उम्मीद जगा सके. योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी, वरुण गांधी जैसे जो बाकी नाम अभी चल रहे हैं वे सर्वमान्य नहीं हैं. अब राजनाथ सिंह के सामने समस्या यह है कि वे खुद को दिल्ली की राजनीति से बाहर नहीं करना चाहते हैं. शायद दिल्ली में बैठे उनके विरोधी उन्हें वहां से बाहर करने के लिए ये चाल चल रहे हैं. अगर वे मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं तो वे उत्तर प्रदेश में ही रह जाएंगे और हार जाते हैं तो फिर भी वह दिल्ली से बाहर हो जाएंगे. उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘जहां तक फायदे-नुकसान की बात है तो यह चेहरे पर निर्भर करता है. अगर उन्हें बेहतर चेहरा नहीं मिलता है तो वे बिना किसी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के मैदान में जाएं. खराब उम्मीदवार को चेहरा बनाने से पार्टी का भला नहीं होने वाला है. ऐसा नहीं है कि भाजपा किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाती है तो रसातल में चली जाएगी या किसी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बना देगी तो वह बड़ी जीत हासिल कर लेगी.’

हालांकि भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश में मिशन 265 प्लस पूरा करने के लिए सुयोग्य चालक की तलाश भले ही नहीं कर पा रहा है लेकिन मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर अभी से नेता अपनी-अपनी दावेदारी पेश करते हुए नजर आ रहे हैं. हालांकि, यह दावेदारी नेता सीधे तौर पर पेश नहीं कर रहे, बल्कि उनके समर्थक इस काम में लगे हुए हैं. हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक सुल्तानपुर से भाजपा सांसद वरुण गांधी के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने की मांग कर रहे हैं.

उनके समर्थकों का दावा है कि भाजपा-आरएसएस के सर्वे में वरुण गांधी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हैं. वरुण पिछले एक साल से राज्य में दौरा कर रहे हैं और अलग-अलग जिलों के गांवों में बैठक कर रहे हैं. हालांकि उनके सहयोगी आधिकारिक तौर पर इससे इनकार कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के समर्थन के लिए दौरे कर रहे हैं. कुछ दिन पहले ऐसे ही कुछ पोस्टर इलाहाबाद में भी नजर आए थे. जिनमें लिखा था, ‘स्मृति ईरानी हुई बीमार. उत्तर प्रदेश की यही पुकार, वरुण गांधी अब की बार.’ इतना ही नहीं वरुण के कुछ सहयोगी फेसबुक अकाउंट बनाकर वरुण को भाजपा सीएम उम्मीदवार बनाए जाने के लिए समर्थन भी मांग रहे हैं.

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हालांकि सोशल मीडिया पर सिर्फ वरुण गांधी के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी, केशव प्रसाद मौर्य समेत सभी नेताओं के समर्थक ऐसी बातों को हवा दे रहे हैं.

इन सबसे इतर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण को सही तरीके से सेट करने में भाजपा बुरी तरह से असफल रही है. हालांकि भाजपा नेताओं को अब भी यह भरोसा है कि उसके साथ प्रदेश में अगड़ी जाति के लोग बने हुए हैं. यह वही वोट बैंक है जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को एकमुश्त वोट दिया था. इसके अलावा भाजपा को यह भी लगता है कि प्रदेश का बनिया वर्ग भी उसके ही साथ है. भाजपा को यह भरोसा है कि इन सभी वर्गों के लोगों के सामने सपा-बसपा के साथ जाने का विकल्प नहीं है इसलिए यह वोट बैंक तो उसके हाथ में है ही.

लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह भी एहसास है कि सिर्फ इसी वर्ग के बूते वह सूबे में अपनी सरकार नहीं बना सकती. इसलिए भाजपा अपने लिए नए समर्थक वर्गों की तलाश में भी है. इसका कारण यह है कि 2007 में मायावती ने दलित और ब्राह्मण का मेल बनाकर सफलता पाई तो 2012 में अखिलेश यादव की युवा छवि के साथ पिछड़ा और मुसलमान गठजोड़ ने सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई थी.

हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस दिशा में एक कदम भी उठा लिया है. शाह का जोगियापुर में बिंद परिवार के यहां जाकर भोजन करना उसी दिशा में एक अहम कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. बिंद सहित 17 जातियां ऐसी हैं जो उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा वर्ग में हैं. इन जातियों के बारे में कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि वे उसकी प्रतिबद्ध वोटर हैं. जहां मायावती दलितों के बीच मजबूत हैं तो वहीं मुलायम सिंह की मुस्लिम और यादव समुदाय में गहरी पैठ है. लेकिन 17 जातियों का यह वोट बैंक अभी किसी दल के साथ एकमुश्त नहीं जुड़ा है.

भाजपा को प्रदेश में यहीं अपने लिए एक अवसर दिख रहा है. उसे लगता है कि अगर कोशिश की जाए तो इन 17 जातियों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ा जा सकता है और अगर ऐसा हो सका तो 2017 के विधानसभा चुनावों में वह सपा-बसपा को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में रहेगी. संभावना जताई जा रही है कि इस वर्ग को अपने साथ लाने की कोशिश में आने वाले दिनों में भाजपा इन जातियों से जुड़े कुछ मुद्दे प्रमुखता से उठाएगी.

हाल ही में राजनाथ सिंह ने पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को दो-दो श्रेणियों पिछड़े व अति पिछड़े और दलित व अति दलित में बांटने के बात कही. मऊ में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘आरक्षण समाज के सभी वर्गों को मिलना चाहिए बशर्ते वह तार्किक हो. हम सरकार नहीं, समाज बनाने के लिए राजनीति करते हैं. हमारी सरकार गरीबों, दलितों, पिछड़ों को समर्पित है.’

‘भाजपा को सभी वर्गों और जातियों का समर्थन मिल रहा है. प्रदेश ने दलित नेता मायावती का बदतर शासनकाल देख रखा है. भाजपा से ज्यादा अनुसूचित जातियों के हितों के लिए किसी पार्टी ने काम नहीं किया है. इस बार हमारी लहर है, जनता हम पर भरोसा जताएगी. प्रदेश में हम अपनी हार से उबर चुके हैं. हमारी सबसे अच्छी बात यह है कि हमने उत्तर प्रदेश में कभी जातीय राजनीति नहीं की है’

दरअसल गृहमंत्री के इस बयान के पीछे असल मंशा मुलायम और मायावती को कमजोर करने की है. भाजपा को लगता है कि पिछड़े तबके के 27 फीसदी आरक्षण कोटे का असली फायदा यादव उठा रहे हैं जिनकी आबादी करीब 10 फीसदी है. इसी तरह दलित आरक्षण का फायदा मुख्य रूप से जाटव जाति के लोग उठा रहे हैं. वाल्मीकि, मेहतर, डोम, खटीक आदि जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण कोटे का लाभ नहीं मिल पाता है.

अमित शाह ने भी इसके संकेत दिए. सिर्फ जोगियापुर जाकर ही नहीं बल्कि इलाहाबाद से लौटकर बनारस में उन्होंने जो बैठकें कीं उनमें भी. इन बैठकों में शामिल भाजपा नेता बताते हैं, ‘उन्होंने साफ तौर पर तो यह नहीं कहा कि हमें किस-किस वर्ग को आधार बनाकर चुनावी रणनीति तैयार करनी है लेकिन इस बारे में स्थानीय नेता उन्हें सुझाव देते रहे और इन सब पर उन्होंने एक तरह से सहमति व्यक्त की. देखने वाले को यह लग सकता है कि वे यही सब सुनना चाहते थे. उन्होंने जो कहा उससे यह तो स्पष्ट है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह चाहता है कि पार्टी सिर्फ खास वर्गों में ही सिमटी नहीं रह सकती बल्कि उसे अपने आधार का विस्तार करना होगा. जाहिर है कि पार्टी का आधार तब ही बढ़ेगा जब पार्टी और नेता पार्टी के परंपरागत समर्थक वर्ग के दायरे से बाहर निकलेंगे.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘बिंद समाज लंबे समय से खुद को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग करता रहा है. संभव है भाजपा के बड़े नेताओं की ओर से आने वाले दिनों में यह कहा जाए कि अगर वे सत्ता में आए तो यह काम कर देंगे. ऐसी ही कुछ और कोशिशें आपको आने वाले दिनों में दिख सकती हैं.’

इन संकेतों को आपस में जोड़ें तो पता चलता है कि जिस मकसद से भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद ब्राह्मण समुदाय के लक्ष्मीकांत वाजपेयी से लेकर पिछड़े वर्ग के एक नेता केशव प्रसाद मौर्य को दिया था, उसे अब वह जमीन पर उतारने में लग गई है. जब मौर्य अध्यक्ष बनाए गए थे तब भी कई जानकारों ने संभावना जताई थी कि भाजपा उत्तर प्रदेश का चुनाव सिर्फ अगड़ों के बूते नहीं बल्कि पिछड़ों को साथ लाने की कोशिश करते हुए लड़ेगी. अब अमित शाह के समरसता भोज और इसके बाद पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को उनके द्वारा दिए जा रहे निर्देशों ने इस बात की पुष्टि कर दी है.

हालांकि इन कोशिशों से भाजपा को कितना फायदा होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन भाजपा नेताओं से बात करने पर तो ऐसा लगता है कि उन्हें अमित शाह की इन कोशिशों से काफी उम्मीदें हैं. इस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रभारी गौतम चौधरी कहते हैं, ‘भाजपा को सभी वर्गों और जातियों का समर्थन मिल रहा है. प्रदेश ने दलित नेता मायावती का बदतर शासनकाल देख रखा है. भाजपा से ज्यादा अनुसूचित जातियों के हितों के लिए किसी पार्टी ने काम नहीं किया है. हमने एक पौधा जनसंघ के जमाने में लगाया था, अब यह बड़ा हो गया है. इस बार हमारी लहर है जनता हम पर भरोसा जताएगी. प्रदेश में हम अपनी हार से उबर चुके हैं. हमारी सबसे अच्छी बात यह है कि हमने उत्तर प्रदेश में कभी जातीय राजनीति नहीं की है. हमारा फोकस विकास और गुड गवर्नेंस पर हमेशा रहा है.’

प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा जीत के लिए सब कुछ झोंक रही है. इसके लिए वह सांप्रदायिकता से लेकर जातीय कार्ड खेल रही है. विकास का नारा दे रही है और गुड गवर्नेंस का वादा कर रही है लेकिन अब भी जनता उसमें विश्वास नहीं जता पा रही है. इसका कारण उसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं और सही मुद्दों की कमी है. अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि भाजपा अभी हवाई प्रचार में ही सिमटी दिख रही है. आम आदमी तक उसकी बात पहुंच नहीं पा रही है. यह उसके लिए नुकसानदेह है. भाजपा को अगर मिशन 265 को पूरा करना है तो इन बातों पर गंभीरता से विचार करना होगा. युवाओं को साथ जोड़ना होगा. हमें याद रखना होगा अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है.’