‘बे’ रंगमंच!

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फोटोः तहलका अार्काइव

सतीश मुख्तलिफ पिछले 15 सालों से रंगमंच से जुड़े हैं. काफी समय से दिल्ली में जुंबिश आर्ट्स नाम का समूह बनाकर नाटक कर रहे हैं. इनका नाटक ‘एकलव्य उवाच’ काफी चर्चित भी रहा है. लेकिन इसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी सतीश के किसी नाटक का मंचन दिल्ली में थियेटर का गढ़ कहे जाने वाले मंडी हाउस में नहीं हुआ. क्यों? सतीश बताते हैं, ‘ये तो सभी जानते हैं कि थियेटर में पैसा नहीं है. लोग इसे अपने जुनून की वजह से ही कर पाते हैं. ऐसे में यदि नाटक के मंचन के लिए किसी ऑडिटोरियम को 30-50 हजार रुपये किराये में देने पड़ें तो हम जैसे छोटे ग्रुप के लिए ये कैसे संभव है? हम यूनिवर्सिटी कैंपस में चंदा लेकर नाटक कर सकते हैं पर चंदे से मंडी हाउस पहुंचना मुमकिन नहीं है. शो करना तो दूसरी बात है, हमारे पास रिहर्सल करने की भी जगह नहीं है. मैं अपनी स्कॉलरशिप से मिले पैसों से थियेटर कर रहा हूं.’ सतीश दिल्ली के ऑडिटोरियम के बढ़ते किराये से परेशान होने वालों में अकेले नहीं हैं. दिल्ली के चर्चित ‘बहरूप’ थियेटर ग्रुप से लंबे समय से जुड़े हादी सरमादी भी सतीश की बात से इत्तफाक रखते हैं. हादी बताते हैं, ‘शौकिया तौर पर नाटक करने वाले किसी ग्रुप का तो मंडी हाउस पहुंच पाना मुमकिन ही नहीं है. अगर हम बहरूप की ही बात करें तो हमने स्वतंत्र रूप से लगभग तीन साल से मंडी हाउस में कोई नाटक नहीं किया है. किसी महोत्सव के चलते ही हमारे नाटक वहां हुए हैं. वजह सिर्फ वहां के ऑडिटोरियमों का आसमान छूता किराया है. कुछ सालों पहले तक जब किराया 10 से 15 हजार रुपये के बीच होता था तब हम किसी तरह वहां तक पहुंच जाते थे पर 50 हजार रुपये देना हमारे बस की बात नहीं है. बहरूप अपने नाटकों में टिकट नहीं रखता है. हमारे लिए ये आमदनी का जरिया नहीं है.’

रंगमंच को अभिनय की पाठशाला माना जाता है. हर साल देश में रंगमंच के कई आयोजन होते हैं जहां देश के कई हिस्सों से रंग समूह आकर अपने नाटकों का प्रदर्शन करते हैं, सम्मान भी दिए जाते हैं. लेकिन देश की राजधानी में रंगमंच का गढ़ माने जाने वाले मंडी हाउस और बाकी ऑडिटोरियमों में किसी रंग समूह के लिए अपने नाटक का प्रदर्शन करके जनता के बीच पहुंच पाना इतना आसान नहीं है. कला में अर्थ यानी धन के बढ़ते प्रभुत्व ने रंगकर्मियों और दर्शकों के बीच एक खाई खड़ी कर दी है. अगर शुरुआत से देखा जाए तो रंगकर्म का उद्देश्य कभी पैसा या मुनाफा कमाना नहीं रहा. रंगकर्मी सामाजिक सरोकारों से जुड़े संदेशों के वाहक के रूप में ही काम करते रहे हैं, पर पिछले कुछ सालों में जिस तरह से थियेटर का बाजारीकरण हुआ है उसका सबसे ज्यादा नुकसान रंगकर्मियों को ही उठाना पड़ा है.

गौरतलब है कि मंडी हाउस के प्रसिद्ध ऑडिटोरियमों में किराये की रकम काफी ज्यादा है जिसके चलते रंगकर्मियों के एक बहुत बड़े वर्ग का दिल्ली के नाट्य प्रेमी दर्शकों से नाता टूट-सा गया है. लिटिल थियेटर ग्रुप (एलटीजी) हो या श्री राम सेंटर, सभी जगह किराये की न्यूनतम राशि 15 से 20 हजार रुपये है, जिसे बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के वहन करना इन थियेटर समूहों के लिए संभव नहीं है.

पर क्या इन ऑडिटोरियमों के बढ़ते किराये के कारण वहां नाटकों का मंचन होना बंद हो गया है? ‘नहीं,’ बहरूप से जुड़े जेएनयू के एक छात्र चंद्रभान बताते हैं. वे कहते हैं ‘ऐसा नहीं है कि वहां नाटक नहीं हो रहे हैं. ऐसे कई थियेटर समूह हैं जिनके पास अच्छा-खासा पैसा है और वे खास तरह के दर्शकों के लिए नाटक कर रहे हैं. ऐसे दर्शक जिनके लिए थियेटर देखना स्टेटस सिंबल है. वे ऐसे हल्के-फुल्के विषयों या अंग्रेजी में नाटक करते हैं जिसे कुछ लोग पसंद करते हैं. टिकट लेकर देखने आते हैं और फिर कुछ समूहों के पास स्पॉन्सर भी हैं.’ तो क्या इन समूहों की प्रस्तुति को रंगकर्म नहीं माना जा सकता? चंद्रभान इस तरह के नाटक करके धन कमाने को गलत नहीं मानते. उनका मानना है, ‘अभिनय या ड्रामा का प्रशिक्षण लिए व्यक्ति के पास आजीविका कमाने के लिए नाटक करने के अलावा और कोई साधन नहीं होता, ऐसे में वे क्या करें? तो अगर किसी भी तरह का नाटक करना उसको आमदनी देता है तो मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ बुरा है.’

चंद्रभान की बात हादी सरमादी आगे बढ़ाते हैं, ‘देखिए, जब हम कोई अच्छा संगीत सुनते हैं, कोई अच्छी कला देखते हैं तो हमारे दिमाग में कुछ तब्दीलियां आती हैं और यही उस कला का असर होता है. तो अगर कोई कला ये असर नहीं डालती तो कहीं तो कुछ गलत है. यहां लोगों के पास पैसा तो है पर कहने को कुछ नहीं है. वे कुछ पुराने नाटकों को ही मुंबई के किसी बड़े अभिनेता को बुलवाकर करते हैं और मुनाफा कमाते हैं. मैं ये मानता हूं कि थियेटर एक तरह का पॉलिटिकल स्टैंड है. जितनी समस्याएं सामाजिक या राजनीतिक नाटक करने वालों को पेश आती हैं, बाकी किसी को नहीं होतीं और कहीं न कहीं ये हुक्मरानों की गलती है.’ सतीश का अनुभव भी कुछ यही कहता है, ‘थियेटर को केवल मनोरंजन का माध्यम मान लिया गया है. ऐसा सोच लिया गया है कि ये एंटरटेनमेंट से ज्यादा कुछ नहीं है. ऑडियंस भी यही चाहती है कि कुछ ऐसा देखा जाए जो सोचने पर मजबूर न करे. हम सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर नाटक करते हैं. तो हमारे लिए इस पैमाने पर खरा उतर पाना संभव नहीं है. एक रंग महोत्सवों का ही सहारा है पर वहां भी आपके नाटक के थीम को देखकर ही नाटक की अनुमति मिलती है. आपके नाटक का थीम वहां की समिति में बैठे लोगों की मानसिकता के अनुसार होना चाहिए. कुछ समय पहले मैंने देश के एक बड़े रंग महोत्सव में आवेदन किया था. यह नाटक जातिवाद पर आधारित था. जाहिर है मैं वहां नहीं पहुंच पाया.’

‘सरकार द्वारा सस्ती जमीन देकर कमानी और श्री राम सेंटर जैसे ऑडिटोरियम बनाए गए. इनका किराया 80-90 हजार रुपये तक हो गया है. ये पैसा कहां जाता है?’

यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि केंद्र सरकार की ओर से हर साल कुछ निश्चित राशि रंगकर्मियों को अनुदान के रूप में दी जाती है. इस पर सतीश बताते हैं, ‘इसके लिए आपके रंग समूह को रजिस्टर करवाना पड़ता है जो देश में होने वाले हर सरकारी काम की कागजी प्रक्रिया की तरह बहुत जटिल काम है. मैं मूल रूप से हरियाणा का हूं तो जब मैं दिल्ली में रजिस्ट्रेशन के लिए गया तब मुझे हरियाणा का मूल निवासी होने की बात कहकर वापस भेज दिया गया. पर जब मैं हरियाणा में अपने थियेटर ग्रुप को रजिस्टर करवाने पहुंचा तो उन्होंने कहा कि आप दस साल से राज्य से बाहर रह रहे हैं, दिल्ली में ही रंगकर्म करते हैं तो दिल्ली में ही रजिस्ट्रेशन होगा. इस तरह की मुश्किलों का कोई अंत नहीं है.’

थियेटर में अनुदान की प्रक्रिया पर अभिनेता और रंगकर्मी मानव कौल कहते हैं, ‘अनुदान की सबसे ज्यादा जरूरत उन्हें है जो युवा हैं, मेहनत से अपना पैसा लगाकर थियेटर कर रहे हैं. ऐसे कल्पनाशील युवा रंगकर्मी जहां कहीं भी काम कर रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्हें किस तरह का अनुदान चाहिए. कुछ समय पहले एक नाटककार ने कश्मीर पर एक नाटक किया. अब अगर वह वहां रहकर कुछ रिसर्च करना चाहता है तो क्या उसके लिए हमारे यहां कोई अनुदान है? यहां नाटककार से पूछा जाना चाहिए कि आपको किस तरह का अनुदान चाहिए. पर होता क्या है, आप उस नाटककार को यह समझाने में लग जाते हैं कि यह कागज चाहिए, वह कागज चाहिए. मेरे जैसे लोगों के लिए यह प्रक्रिया तकलीफदेह है, इसलिए मैंने कभी किसी अनुदान के लिए आवेदन नहीं किया. यहां अनुदान पाने की पूरी प्रक्रिया ऐसी है जो किसी सार्थक काम करने वाले रंगकर्मी को हतोत्साहित करती है.’

राजेश चंद्र पिछले दो दशकों से रंगमंच से जुड़े हैं. वे नाटककार होने के साथ-साथ आलोचक भी हैं. साथ ही रंगमंच पर एक त्रैमासिक पत्रिका ‘समकालीन रंगमंच’ का प्रकाशन भी करते हैं. उनके अनुसार मंडी हाउस इलाके के ऑडिटोरियमों के किराये का बढ़ना एकदम अतार्किक है. ऐसा कहा जाता है कि सरकार द्वारा इन ऑडिटोरियमों के लिए ये जमीनें बहुत ही न्यूनतम मूल्य पर कला की उन्नति के लिए लीज पर दी गई थीं पर अब ये कॉरपोरेट हितों के लिए काम करते हुए रंगमंच और कला की ही जड़ों को खोखला कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘ऑडिटोरियम मालिकों की सामाजिक जवाबदेही बनती है. वे बिना किसी क्राइटेरिया के किराया बढ़ा रहे हैं. अगर देखा जाए तो ये सत्ताधारियों की थियेटर को कंट्रोल करने की कोशिश है क्योंकि उनकी शह पर ही ऑडिटोरियम मालिक किराया बढ़ा सकते हैं. रंगमंच हमेशा से एक स्थायी प्रतिपक्ष के रूप में काम करता आया है. यहां दो धाराएं काम करती हैं, एक सत्तापक्षीय दूसरी विरोधी. सरकार की कुछ अघोषित नीतियां हैं. अगर आप उनके अनुसार चलेंगे तो शायद आपको कोई परेशानी न हो पर यदि आप सवाल खड़े करते हैं, खुशामद नहीं करते हैं तो आपके लिए ही मुश्किलें बढ़ेंगी.’

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सरकार को बुनियादी सुविधाएं देनी चाहिए तभी आगे बढ़ेगा थियेटर

Manav-Kaulwebमानव कौल, अभिनेता और रंगकर्मी
मैं ऐसा मानता हूं कि दिल्ली महानगर को किसी नाट्य महोत्सव की जरूरत नहीं है. चाहे वो भारत रंग महोत्सव हो या महिंद्रा फेस्टिवल. सरकारी सहयोग से होने वाले सभी नाट्य महोत्सव हमेशा छोटे शहरों में होने चाहिए. इससे छोटे शहरों के रंगकर्मियों को देश के सर्वश्रेष्ठ रंगमंच को देखने का मौका मिलेगा और उस शहर की जनता थियेटर करना शुरू करेगी. विश्व में कहीं भी देख लीजिए थियेटर के जितने बड़े महोत्सव हैं वे हर साल अलग-अलग शहरों में आयोजित होते हैं. हम अपने सभी बड़े महोत्सव महानगरों में आयोजित करते हैं और खुद ही अपनी पीठ थपथपा लेते हैं. इन महोत्सवों को एक भी नया दर्शक नहीं मिलता और न ही इससे थियेटर की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ता है. छोटे शहरों में थियेटर को प्रोत्साहित करने की जरूरत है.
दूसरी समस्या है कि हमारे पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) जैसा कोई अन्य राष्ट्रीय प्रशिक्षण संस्थान मौजूद ही नहीं है. यह सवाल आज भी अनुत्तरित है कि जिन रंगकर्मियों को यहां प्रवेश नहीं मिल पाता वे क्या करें. मुझे ऐसा लगता है कि जिन रंगकर्मियों को एनएसडी आने का अवसर नहीं मिल पाता उनके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि अगर वे नियमित रंगमंच करते हैं तो उन्हें साल में एक निश्चित राशि अनुदान के रूप में दी जाए. किसी अनुदान का आधार इसे न बनाया जाए कि वह रंगकर्मी एनएसडी से प्रशिक्षित है या नहीं. उनके काम को ही अनुदान का आधार बनाया जाना चाहिए.
रंगमंच में अभ्यास बहुत मायने रखता है. आज कई महानगरों में रंगकर्मियों के पास पूर्वाभ्यास की कोई जगह नहीं है और अगर जगह है तो उसका खर्च भी बहुत है. सरकारी स्कूल हर जगह हैं तो सरकार क्यों न ये प्रावधान करे कि शाम के समय इन स्कूलों का कोई हॉल या बड़ा कमरा नाट्यदलों को अभ्यास के लिए दे. सरकार को थियेटर को ऐसी बुनियादी सुविधाएं देनी चाहिए तभी थियेटर आगे बढ़ेगा. अनुदान या पुरस्कार का उद्देश्य भी प्रोत्साहन देना ही होता है पर आप किसी को बुढ़ापे में पुरस्कार दे रहे हैं तो इसका कोई मतलब नहीं है. आम तौर पर जिन रंगकर्मियों को अवाॅर्ड मिलता है, थियेटर उनके जीवन से जा चुका होता है. जब आपके जीवन में, आपके खून में, दिनचर्या में थियेटर बस रहा है, आप सबसे ज्यादा काम कर रहे हैं, आपको उसी वक्त सहयोग और सम्मान की जरूरत रहती है. अगर उस वक्त रंगकर्मियों को प्रोत्साहित किया जाए तो आप देखिएगा कि एक साल में ही वह अपने काम से देश का नाम रोशन कर देगा. आप उसे तब पूछते हैं जब वह खत्म हो चुका होता है, जब उसके पास नया कुछ रचने की ऊर्जा और साहस नहीं होता.

(समकालीन रंगमंच पत्रिका में छपे लेख से साभार)[/symple_box]

रंगमंच में हमेशा से दो धाराएं रही हैं. एक पूंजीवादी जिसके पास संसाधन हैं पर कहने को सार्थक कुछ नहीं है न ही उसका कोई असर होता है. वहीं दूसरी धारा के पास कोई संसाधन नहीं है बस कथ्य है और सामाजिक जिम्मेदारी है. वैसे इन रंगकर्मियों का यह भी मानना है कि सरकार से अनुदान मिलने के बाद रंगकर्मी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूलकर सिर्फ धन के बारे में ही सोचते हैं. हादी सरमादी कहते हैं, ‘जब आपको किसी भी रूप में पैसा मिलेगा, चाहे वो अनुदान हो या स्पॉन्सर तब आप क्यों बेहतर करने की सोचेंगे? न ही फिर आप अपने साथियों की सोचेंगे जिनकी संसाधनों तक कोई पहुंच नहीं है.’ राजेश भी यही कहते हैं, ‘अनुदान के प्रलोभन में फंसते ही रंगकर्मी सरकार पर आश्रित होकर दर्शकों व अपने रंगकर्म के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी भूल जाता है और उसका सारा ध्यान ज्यादा से ज्यादा अनुदान हासिल करने में लगा रहता है. उसके नाटकों की धार कम हो जाती है, उनका स्वर मंद हो जाता है और वे ऐसे नाटकों से पूरी तरह पीछा छुड़ा लेता है जो व्यवस्था पर सवाल उठाते हों.’

अनुदान की वर्तमान स्थिति बताते हुए राजेश कहते हैं, ‘सरकारी या गैर-सरकारी अनुदान की बैसाखियों पर खड़े होकर औने-पौने दल भी नगरों-महानगरों में नाट्योत्सव आयोजित कर रहे हैं जिनमें ‘बैंड-बाजा-बाराती’ सभी हैं- सिवाय उस अवाम को छोड़कर जिसे लेकर दावेदारी की जाती है. अनुदान की लालसा ने नाटककार को ‘मैनेजर’ और नाटक को ‘ब्रोशर एक्टिविटी’ तक सीमित कर दिया है. ये नाट्योत्सव जनता के पैसों से जनता के नाम पर मध्यवर्ग की गुदगुदाहट का सामान बनकर रह गए हैं. भूख और रोटी का जिक्र भी यहां इस तरह होता है कि ये बेचैनी की जगह मनोरंजन का सबब बनकर रह जाते हैं.’ सतीश भी इस बात का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं, ‘इन सबकी प्रक्रिया में घुल पाना ही मुश्किल है. हम इस तरह की ‘मैनेजरी’ ही करते रहेंगे तो थियेटर कब करेंगे? जो सिर्फ बेहतर काम करना चाहता है उसके लिए बस परेशानियां ही परेशानियां हैं.’

राजेश की पत्रिका का एक अंक रंगमंच में अनुदान की स्थितियों पर ही केंद्रित था जहां देश के विभिन्न वरिष्ठ रंगकर्मियों ने इस विषय पर अपना नजरिया साझा किया. एक लेख में देश के प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी अनुदान से रंगमंच पर पड़ने वाले प्रभाव की बात पर बाकियों से अलग राय रखते हुए कहते हैं, ‘हमारे यहां मनोरंजन और प्रश्न की जो परंपरा थी वह मनोरंजन और प्रश्नवाचकता को गूंथकर चलती थी. पंडवानी में तीजनबाई को देखें तो वे कथा महाभारत की कह रही हैं पर कहते-कहते वे आसपास की जिंदगी-राजनीति पर टिप्पणी भी करती चलती हैं. अगर अनुदान से इस तरह की प्रश्नवाचकता पर कोई दृष्टिगत प्रभाव पड़ता है तो अनुदान की बंदिश उतनी नहीं है जितना स्वयं रंगदलों की अपनी कमजोरी है कि उन्होंने मान लिया है कि ऐसा करने से शायद अनुदान के लिए उनकी अनुकूलता बढ़ जाएगी.’

रंगकर्मियों की परेशानियों में ऑडिटोरियम के बढ़े किराये, रिहर्सल के लिए उपयुक्त जगह न होना, नाटकों के मंचन से पहले ड्रामेटिक परफॉरमेंस ऐक्ट के तहत पुलिस से अनुमति लेना, प्रशिक्षण संस्थानों की कमी, नाट्य विद्यालय से निकलने के बाद आजीविका के स्रोत जैसी तमाम दिक्कतें शामिल हैं पर इनका कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा गया है. सरकार के स्तर पर बात करें तो राष्ट्रीय बजट का नाममात्र अंश संस्कृति के हिस्से आता है.

प्रख्यात रंगकर्मी रामगोपाल बजाज एक लेख में कहते हैं, ‘संस्कृति के हिस्से में राष्ट्रीय बजट का एक प्रतिशत भी नहीं आता. जिस उद्देश्य से सरकार द्वारा सस्ती जमीन देकर कमानी और श्री राम सेंटर जैसे ऑडिटोरियम बनाए गए, वह आज पूरा नहीं हो रहा है. इनका किराया बढ़कर 80-90 हजार रुपये तक हो गया है. पर न सरकार टोकती है न लोग. ये लोग इन ऑडिटोरियमों के मालिक बने बैठे हैं. ये ट्रस्ट के तहत बनाए गए थे. ये पैसा जमा होकर कहां जा रहा है, इसकी तहकीकात होनी चाहिए. आज मोदी जी कह रहे हैं कि हम देश में इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करेंगे तो क्या उस इंफ्रास्ट्रक्चर में सब वाणिज्य और सिनेमा के लिए ही होगा? मॉल ही बनेंगे? फिर संस्कृति का क्या होगा? संस्कृति मंत्रालय को मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के अंतर्गत होना चाहिए क्योंकि संस्कृति शिक्षण और नाट्य-कर्म मानव विकास का हिस्सा हैं.’

रंगकर्म के लिए बनाई गई संस्थाओं का भी इन समस्याओं के प्रति गंभीर न होना इसका एक बड़ा कारण है. सतीश और राजेश तो यही मानते हैं. सतीश कहते हैं, ‘बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे लोग जब तक गंभीर नहीं होंगे तब तक कोई बदलाव नहीं हो सकता. और बदलाव को लेकर अगर कोई बात उनके कानों तक पहुंचती भी है तो बदलाव के नाम पर अगले रंग महोत्सव का डेकोरेशन बदल देते हैं! उनके लिए यही बदलाव है. असल में वे लोग इस क्षेत्र के हैं ही नहीं इसलिए उनकी थियेटर में कोई दिलचस्पी ही नहीं है.’ राजेश बताते हैं, ‘कुछ समय पहले दिल्ली सरकार की साहित्य कला परिषद ने एक रंग महोत्सव में दो साल तक एक बड़े निर्देशक द्वारा चार करोड़ रुपये के दो नाटक करवाए. निर्देशक के चुनाव में कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई और नाटकों में भी कोई नवीनता नहीं थी. बस पुराने नाटकों को भव्यता के साथ दिखाया गया. इसका काफी विरोध भी हुआ था. जानकारों की मानें तो इस तरह के रंग महोत्सव इन संस्थानों को मिले बजट की अधिकांश राशि खपाने के लिए किए जाते हैं. दिल्ली सहित देश में बड़ी तादाद ऐसे रंगकर्मियों की है जिनके पास न नाटकों की रिहर्सल के लिए जगह है, न प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त और सस्ती जगह. पर इससे किसे सरोकार है? बिना खुशामद के सिर्फ अपना काम करने वाले के लिए तो ऐसी व्यवस्था है कि वह संसाधनों तक पहुंच ही न सके. आपके पास दो विकल्प हैं- या तो बाजार के हिसाब से चलिए या सरकार के संस्थानों के हिसाब से.’

ये सब परेशानियां लंबे समय से थियेटरकर्मियों के सामने हैं पर क्या कभी उन्होंने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई? सतीश के अनुसार रंगकर्मियों का एकजुट होना मुश्किल है. वे कहते हैं, ‘देखिए सबका अपना दायरा होता है. जिसे मौका मिल रहा है, वो क्यों शिकायत करेगा? गैर-राजनीतिक या हल्के-फुल्के नाटक करने वालों को कभी परेशानी नहीं होती. जो ग्रुप किसी रंग महोत्सव में शामिल हो चुका है तो उसे वहां न पहुंचने वाले की चिंता क्यों होगी?’ राजेश का कहना है कि सबसे पहले तो तो सरकार द्वारा कोई सांस्कृतिक नीति बनाई जानी चाहिए. साथ ही संसाधनों का विकेंद्रीकरण करना भी जरूरी है पर इसके लिए एक मंच पर सभी रंगकर्मियों का साथ आना सबसे बड़ी शर्त है जो पूरी नहीं होती.

हादी सरमादी का भी ऐसा ही मानना है. वे कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि बिना एकजुट हुए कोई परिवर्तन नहीं हो सकता पर यहां तो हाल ये है कि दिल टूटने पर दिल के इतने टुकड़े नहीं होते होंगे जितने यहां रंगकर्मियों के बीच हो गए हैं. यहां हाल कम्युनिस्ट पार्टी जैसा है. हर समूह समझता है कि इंकलाब आएगा तो सिर्फ हमारे झंडे के तले आएगा, अगर दूसरे के झंडे तले आया तो असली इंकलाब वो नहीं होगा. कुछ लोग मठाधीश बनने की कोशिश करते हैं. ऐसे में कैसे किसी एक मुद्दे को लेकर एकमत या फिर एकजुट होंगे, कैसे कोई मुहिम छेड़ी जाएगी?’