‘बिहार में लालू-नीतीश से ही पिछड़ों-दलितों की राजनीति की शुरुआत नहीं होती. मैं पिछड़े जमात से बना पहला मुख्यमंत्री था’

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आप तो बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं. राज्य में अधिकांश लोग जानते तक नहीं कि मांझी, लालू, राबड़ी, जगन्नाथ मिश्र के अलावा आप भी यहां के मुख्यमंत्री रहे हैं. जो आपको जानते हैं वे कहते हैं कि आप तो दो से तीन दिन के मुख्यमंत्री थे.

चलिए कोई दो दिन का मुख्यमंत्री कहता तो है न, बाकी ज्यादातर तो एक दिन का ही कहकर निपटा देते हैं और मैं तो अपने बारे में यही जानता हूं कि मैं 27 जनवरी, 1968 से पांच फरवरी, 1968 तक बिहार का मुख्यमंत्री था और पिछड़े समुदाय से आने वाला पहला सीएम था. वैसे अब उम्र 83 साल की हो गई है और अब तो ये इच्छा भी नहीं रही कि लोग मुझे जानें.

आप राजनीति में कैसे आए और मुख्यमंत्री कैसे बने? क्या आप किसी राजनीतिक परिवार से हैं?

मेरा पारिवारिक परिवेश और वह भी राजनीतिक! बाप रे बाप, क्या कह रहे हैं आप. हुआ ऐसा था कि हम बड़े घराने से ताल्लुक रखते हैं. खगड़िया जिले में गांव है मेरा. गांव का नाम था कुरचक्का. एक बार बाढ़ में बह गया उसके बाद 1976 में उसको फिर से बसाया गया था. तो उसका नाम लोगों ने खुद से ही ‘सतीश नगर’ कर दिया है यानी मेरे ही नाम पर. तो हुआ ऐसा कि मैंने अंतरजातीय विवाह कर लिया था तो घर से लोगों ने मुझे निकाल दिया. भाइयों ने मुझसे किनारा कर लिया. हम लोगों के पास 400 बीघा की जोत थी. उसका बंटवारा हो गया. मैं उस समय बीएससी में पढ़ रहा था. हमारी एक चैरिटेबल डिस्पेंसरी भी चलती थी. अगले साल विधानसभा चुनाव था तो मैंने अपने हिस्से का खेत बेचा और परबत्ता क्षेत्र से स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ गए. राजनीति में आया तो घरवालों ने कहा कि कुलअंगार घर से निकल गया. नाश कर देगा सब. बहरहाल, चुनाव में कुल 17 हजार वोट मिले और मैं कांग्रेस की सुमित्रा देवी से चुनाव हार गया. फिर 1964 में उपचुनाव हुआ तो निर्दलीय खड़ा हुआ. इसमें दो हजार वोट से हार गया. घर में भाई से लेकर बाहर तक सब लोग कुलअंगार कहते रहे और मैं खेत बेच-बेचकर राजनीति करता रहा.

1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुझसे संपर्क किया. इस बार 20 हजार वोट से जीत मिल गई. बात जहां तक मेरे मुख्यमंत्री बनने की है तो महामाया बाबू बिहार के मुख्यमंत्री थे. रईस आदमी थे. हमारे स्वास्थ्य विभाग में मेरे एक परिचित डॉक्टर थे. उन्हें प्रोफेसर बनना था लेकिन बनाया नहीं गया. तब मैंने 17-18 विधायकों को जुटाया और महामाया बाबू के यहां पहुंच गया कि उन्हें उनका अधिकार नहीं मिला तो विरोध करेंगे. इसके बाद मेरे परिचित डॉक्टर को प्रोफेसर बना दिया गया. यह बात धुरंधर नेता केबी सहाय तक पहुंची तो उन्होंने मुझे मिलने को बुलाया. मैं गया तो उन्होंने कहा कि थोड़ा और मेहनत कीजिए सतीश बाबू. 16-17 विधायक जुटा ही ले रहे हैं तो यह संख्या 35-36 कर दीजिए, फिर राज्य के मुखिया आप! मैं बोला कि क्या फालतू बात कर रहे हैं. 318 विधायक में 35-36 से क्या होगा. वे बोले कि 156 मेरी ओर से आपका साथ देंगे, हमारे विधायक हैं. इसके बाद मैंने मेहनत करके 36 विधायक जुटा लिए. इसके बाद उनकी सरकार गिर गई और मैं मुख्यमंत्री बन गया. 27 जनवरी, 1968 से पांच फरवरी, 1968 तक.

इतने दिनों के मुख्यमंत्री काल में आप क्या कुछ कर भी सके?

तगाबी नाम का ऋण हुआ करता था, उसे हटवा दिया. और अगर मेरे मुख्यमंत्री रहते हुए मेरे असर की बात करते हैं तो इतना जान लीजिए कि मैं मुख्यमंत्री बना तभी बिहार में पिछड़ों-दलितों के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ. मेरे बाद भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर आदि पिछड़े समुदाय से मुख्यमंत्री बने. मेरे बाद के 12 मुख्यमंत्री तो अब दुनिया से विदा हो चुके हैं. और मेरे मुख्यमंत्री बनने या राजनीति में आने का असर जानना चाहते हैं तो सुनिए, जिस मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद देश की राजनीति बदली और मंडलवादी राजनीति की शुरुआत हुई, उस मंडल कमीशन के अध्यक्ष बीपी मंडल का समय तो खत्म हो चुका था और समय बढ़ नहीं रहा था. मैंने इंदिरा जी से व्यक्तिगत आग्रह करके मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरा करवाने के लिए छह माह का समय बढ़वाया था. आज नीतीश और लालू कूद रहे हैं और कह रहे हैं कि जो किया सब उन्हीं दो लोगों ने किया लेकिन इसमें बहुतों का योगदान रहा है.

राजनीति में आया तो घरवालों ने कहा कि कुलअंगार घर से निकल गया. नाश कर देगा सब. लेकिन मैं खेत बेचकर राजनीति करता रहा. 1967 में 20 हजार वोट से जीत मिल गई

नीतीश-लालू कूद रहे हैं और क़ह रहे हैं कि जो किया उन्होंने किया, आपकी इस बात का क्या आशय है?

मैं बस सच्चाई बता रहा हूं. सामाजिक न्याय की लड़ाई को 1990 से देखा जाता है और मीडिया भी दिखाती है लेकिन सबको यह जानना चाहिए कि लालू से पहले बिहार में मैं, दारोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, बीपी मंडल, रामसुंदर दास, कर्पूरी ठाकुर जैसे लोग मुख्यमंत्री बन चुके थे. सब पिछड़े और दलित वर्ग से ही थे. लोगों को यह जानना चाहिए कि लालू प्रसाद के आने या नीतीश के आने के बाद सामाजिक न्याय का यह अध्याय बिहार में शुरू नहीं हुआ है. राममनोहर लोहिया 1967 में ही ‘सौ में पिछड़ा पावे साठ’ का नारा देकर माहौल बदल रहे थे. इसलिए बार-बार लालू-नीतीश का नाम ले रहा हूं, नहीं तो ऐसा कोई शौक नहीं मुझे. इन लोगों ने भ्रम फैलाया है. अरे इन लोगों ने तो लोहिया जी का मूल सिद्धांत ही खत्म कर दिया. लोहिया जी ने नियम बनाया था कि कोई भी विधान पार्षद, पार्टी का वरिष्ठ पदाधिकारी, राज्यसभा सांसद मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं बनेगा लेकिन देखिए इन लोगों को विधानसभा चुनाव तो लड़ते ही नहीं और मंत्री बन जाते हैं. एक बार बिहार सरकार में रामानंद तिवारी, भोला सिंह और बीपी मंडल मंत्री बने तो तीनों में से कोई विधायक नहीं था. हम लोगों ने तब लोहिया जी से शिकायत की कि आपका बनाया गया नियम तोड़ा जा रहा है. मैंने उसी समय उनसे कह दिया था कि पार्टी का नियम टूट रहा है मैं विरोध करूंगा और मैंने किया भी.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव से आप नाराज नजर आ रहे हैं. इसकी क्या वजह है?

वजह क्या है? अरे, दोनों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थोड़े ही है. व्यक्तिगत दुश्मनी होगी भी क्यों? न कभी बात-मुलाकात है, न मेरी उनसे कभी कोई अपेक्षा रही है. नाराजगी तो है कि राजनीति में अजीब सड़ांध मचाए हुए हैं और जो सड़ांध है, उससे आगे क्या होगा राजनीति में. आजकल दोनों का पसंदीदा काम भाजपा को गाली देना है और दोनों ही भाजपा के सौजन्य से बिहार की सत्ता संभाल चुके हैं.

लालू प्रसाद यादव भी भाजपा का सहयोग लेकर सत्तासीन हुए और नीतीश कुमार तो लंबे समय तक राज किए. अब भाजपा सांप्रदायिक लग रही है. फिर क्या हुआ कि नीतीश कुमार दस साल तक लालू को गाली देते रहे और जब सत्ता पाने में संकट मंडराने लगा तो उन्हीं के साथ मिल गए. अब देखिए, नई कहानी. नीतीश कुमार दस साल तक गांव-गांव शराब की दुकान खुलवाते रहे और अब रोज ढिंढोरा पीट रहे हैं कि शराबबंदी करवाकर उन्होंने ऐतिहासिक काम किया है. ये कह रहे हैं कि पूरा देश उनके मॉडल को क्यों नहीं मान रहा है. शराबबंदी अच्छी बात है लेकिन नीतीश इतना अकुला क्यों रहे हैं. पहले दस साल में बिहारियों को शराब की जो लत लगवाए हैं, उसे पहले बिहार में तो बंद ठीक से करवा दें, फिर देश भर में अपने मॉडल को स्थापित करवाने के लिए परेशान हों.

लालू और नीतीश तो कहते हैं कि सांप्रदायिकता से बिहार को बचाने के लिए और सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए एक हुए. अब तो नीतीश को फिर से पीएम प्रत्याशी की तरह पेश किया जा रहा है!

सांप्रदायिकता को वो लोग क्या दूर करेंगे जो खुद भाजपा की मेहरबानी से बिहार में सत्तासीन हुए हैं और राज भोग रहे हैं. रही बात सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने की तो उसमें दोनों लोग पिछड़ी जाति का ढिंढोरा पीटते हैं. पिछड़ी जाति से तो बिहार का पहला मुख्यमंत्री मैं था. कर्पूरी ठाकुर से भी पहले मैं मुख्यमंत्री बना था. पिछड़ी जाति की राजनीति में कैसे उभार किया जाता है, उसमें लोहिया जी सबसे तेज नेता थे लेकिन नीतीश हों चाहे लालू, लोहिया जी के विचार को तो ताक पर रख दिया गया. और आप कह क्या रहे हैं, पिछड़ा-पिछड़ा का राग गाएंगे और नरेंद्र मोदी बन जाएंगे तो नींद हराम हो जाएगी. नीतीश कुमार को फिर से पीएम प्रत्याशी की तरह पेश किया जा रहा है. अखबार में मैं भी ये सब पढ़ रहा हूं. अब चाहूं तो मैं भी खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करवा सकता हूं. कोई रोक-टोक नहीं है, लेकिन नीतीश कैसे बनेंगे प्रत्याशी पहले ये स्पष्ट कर दें. कांग्रेस तो इनको अपनी पार्टी से प्रत्याशी बनाएगी नहीं. भाजपा भी ऐसा ही करेगी. तो ले-देकर मोर्चा बनाना ही एक विकल्प है. मोर्चा तीन साल से बना रहे हैं. संयोजक बनाए मुलायम सिंह यादव को, लेकिन
वे पहले ही अलग हो चुके हैं. बताइए, संयोजक भाग जाए तो मोर्चा कैसा बनेगा समझ सकते हैं. बिहार में तो मोर्चा इसलिए बन गया क्योंकि लालू चुनाव लड़ने के योग्य रह नहीं गए थे, नहीं तो नीतीश कभी उनसे गठबंधन नहीं करते.

लालू-नीतीश से इतना ही नाराज हैं तो बताइए कि दूसरा कौन-सा नेता आपको दिखता है जो उम्मीद जगाता है? क्या बिहार में भाजपा का राज आ जाता तो आपको शिकायत नहीं रहती?

मेरे कहने का ये मतलब नहीं है और न ही मैं किसी से नाराज हूं. मुझे लगता है बिहार को नई राजनीति चाहिए. वैसे लोग जब खुलकर राजनीति करेंगे, जो राजनीति में तो रुचि रखते हैं लेकिन आर्थिक कारणों से या दूसरी वजहों से राजनीति में नहीं आ रहे, तब सब कुछ बदलेगा. नहीं तो अब यही होगा कि जिसके पास पैसा होगा वह अपना तिकड़म भिड़ा लेगा. प्रशांत किशोर को लेकर आएगा और फिर पैसा झोंक देगा. राजनीति में विचार या सिद्धांत भी एक चीज होती है, वह खत्म हो जाएगा और सारा जोर किसी तरह बस चुनाव जीतने भर का रहेगा, जो बिहार के लिए खतरनाक होगा.

आप तो बाद में कांग्रेसी भी हो गए थे.
हां, कांग्रेस से तो मैं एक बार खगड़िया का सांसद भी रहा. भारी वोट से जीता था. हुआ यह कि 1980 में लोकसभा चुनाव होने वाला था. मेरे कई दोस्तों ने बोला कि तुमको इंदिरा जी जानती ही हैं, टिकट के लिए अप्लाई कर दो तो मैंने कर दिया. जगन्नाथ मिश्र नहीं चाहते थे कि मुझे टिकट मिले. कांग्रेसी नेता दिल्ली जाकर मिल रहे थे. वे हमारा नाम कटवाना चाह रहे थे लेकिन इंदिरा जी ने पूछ लिया कि इस समय वहां से कौन प्रत्याशी है तो कोई कुछ बताने की स्थिति में नहीं था. इंदिरा जी ने मुझसे पूछा ‘चुनाव लड़ोगे?’ मैंने हां कहा तो उन्होंने पूछा, ‘जीत जाओगे?’ मैंने कह दिया, ‘जी.’ इसके बाद चुनाव लड़ा और जीत गया.

राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय रहना था, इसलिए सोचा कि फिल्म बनाई जाए. इसके बाद मैंने ‘जोगी और जवानी’ नाम से एक फिल्म बनानी शुरू की जो कभी भी रिलीज नहीं हो सकी

आपने बीच में फिल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया था. एक फिल्म भी बनाई थी. इसकी वजह?

हां, बनाया था न. लेकिन वह फिल्म कहां थी, खबर में बने रहने के लिए ऐसा किया था. जगजीवन राम के एक चेले हरिनाथ मिश्रा ने मेरे खिलाफ केस दर्ज करवा दिया था. धनबाद में पाटलीपुत्र मेडिकल कॉलेज खुला था. मैं उसके संस्थापकों में था. उसी कॉलेज के ट्रस्ट के सचिव की मदद से मेरे खिलाफ केस दर्ज करा दिया गया. आर्यावर्त अखबार और इंडियन नेशन में इसकी खबर भी प्रकाशित कर दी गई. मुझ पर गड़बड़ी का आरोप लगाया गया था. इसके बाद मुझे लगा कि अब तो मेरे खिलाफ अखबार में छप गया है, अब तो लोग मुझे भूल जाएंगे. राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय रहना था, इसलिए सोचा कि फिल्म बनाई जाए. इसके बाद मैंने ‘जोगी और जवानी’ नाम से एक फिल्म बनानी शुरू की जो कभी भी रिलीज नहीं हो सकी.

बाकी सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को तो आलीशान बंगला मिला हुआ है. आपको तो एक कोने में डाल दिया गया है और स्टाफ भी नहीं हैं. क्यों?

अरे, मुझे तो जो मिला, वह भी ले लिया गया. मेरा पटना में अपना कोई घर है क्या? नहीं. मैं तो ज्यादातर गांव या फिर दिल्ली में अपने बच्चों के पास रहता हूं. पटना में अपना कोई घर नहीं बनाया. सरकार की ओर से सबको जमीन भी मिली है, मेरे पास तो कोई जमीन भी नहीं है. और यह जो आवास है, वह तो मुझे सब पूर्व मुख्यमंत्री लोग के लालच के चलते मिल गया है.

जगन्नाथ मिश्र ने सबसे पहले यह व्यवस्था की कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास मिलेगा. लालू आए तो उन्होंने व्यवस्था कर दी कि उसी को मिलेगा जो कम से कम पांच साल रहा हो. अब उसमें खाली लालू ही फिट बैठते थे लेकिन उनकी चाल सफल नहीं हुई. राज्यपाल ने इस फैसले को नहीं माना. बाद में नीतीश को लगा तो उन्होंने किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री के लिए मुख्यमंत्री आवास के साथ आठ स्टाफ और 12 हाउस गार्ड वाला प्रावधान जोड़ दिया. जीतन राम मांझी को मिला तो मुझे भी मिल गया. मुझे जो आवास मिला वह तो सबकी आपसी लड़ाई की वजह से मिला. इससे पहले मुझे कभी कोई आवास या स्टाफ वगैरह नहीं मिला था सो जो मिला तुरंत आकर रहने लग गया.

अब करते क्या हैं? समय कैसे काटते हैं?

अब तो गांव जाता हूं, खेती करता हूं. कुछ समय किताबें पढ़ने में बिताता हूं. हालांकि ज्यादातर समय खेती करने में ही लगाता हूं. कुछ दिन पटना में रहता हूं. फिर दिल्ली बच्चों के पास चला जाता हूं.

आपके बच्चों में से कोई भी राजनीति में नहीं आया.

यह सवाल ही नहीं पैदा होता. यह मुझे पसंद भी नहीं कि अनुकंपा पर बच्चे राजनीति करें और मैं नेता था तो मेरा बेटा मेरा उत्तराधिकारी बने. कोई कह नहीं सकता कि कभी मैंने अपने लिए या अपने बेटे के लिए कुछ भी मांग की हो. मैंने कभी किसी से नहीं कहा कि मुझे फलां पद दे दीजिए या कहीं एडजस्ट करवा दीजिए.