‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मूसा’

pos_negगांव-देहात में बसनेवाला समाज अपने हिसाब से अपनी कहानियां गढ़ता रहता है. देवी-देवता, चुनावी राजनीति और तो और दुनियाभर में घट रही घटनाओं तक पर इस समाज के अपने कुछ मिथक जरूर होते हैं. बिहार के कई इलाकों में एक ऐसी ही मिथकीय कहावत सुनी-सुनाई जाती है.

‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मुसा’ इस कहावत का अर्थ यह है कि बीसवीं सदी की शुरुआत से हजार साल के दौर में यानी सन 3000 तक ईसाई धर्म के मानने वालों और इस्लाम को माननेवालों के बीच जबरदस्त लड़ाइयां होंगी और इस लड़ाई में इन दोनों समुदायों का लगभग सफाया हो जाएगा. दुनिया में सिर्फ भारतीय दर्शन ही शेष रह जाएगा.

इस कहावत का सच से कोई विशेष लेना-देना नहीं है लेकिन फिर भी यह एक खास इलाके में काफी सुनी-सुनाई जाती है. आलम यह है कि बिहार के एक हिस्से में बीसवीं सदी से जुड़ा यह मिथक इतना लोकप्रिय है कि लोग इसे कहावतों का हिस्सा बना चुके हैं. किसी कालखंड में इस कहावत को किसी व्यक्ति ने कहा या बोला होगा. फिर यह पूरे इलाके के मानस में बैठ गई है.

इस साल सात जनवरी को जब फ्रांस से छपनेवाली साप्ताहिक व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था तब बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में इस कहावत से सामना हुआ. शार्ली हेब्दो पर हमले की खबर एक दिन बाद अखबार के जरिए गांव में पहुंची थी. खबर पढ़ने के बाद गांव के कुछ बड़े-बुजुर्ग इसी विषय पर गंभीर चर्चा में लगे हुए थे. तभी एक बुजुर्ग के मुंह से यह कहावत फूट पड़ी. वहां मौजूद बाकी लोगों ने भी पूरे विश्वास से सहमति में सिर हिला दिया. उस कहावत के बारे में थोड़ी गहरी पड़ताल करने पर पता चला कि उन्हें यह कहावत गांव के ही एक बुजुर्ग ने सुनाई थी.

तब 1962 का भारत-चीन युद्ध हो चुका था. गांव-देहात में बसनेवाले लोग भी यह जानते थे कि इस लड़ाई में भारत को चीन ने हरा दिया है. वे अपने कुछ दोस्त-यारों के साथ भारत-चीन युद्ध पर बात कर रहे थे. सारे लोग इस बात से परेशान थे कि चीन से हार जाने के बाद भारत पर कहीं दूसरे देश भी हमला न कर दें. इसी बातचीत के बीच गांव के एक बुजुर्ग भी शामिल हो गए. उन्होंने इस कहावत को सुनाकर लड़कों को भरोसा दिलाया कि भविष्य में जो लड़ाई होगी उससे भारत का कोई नुकसान नहीं होगा. भविष्य में लड़ाई उन देशों के बीच होगी जहां ईसाई और मुसलमान रहते हैं और राज करते हैं. यह कहावत उन बुजुर्ग की भी नहीं थी. गांव के लोगों के मुताबिक उनसे यह कहावत किसी बड़े संत ने कही थी. वो संत भविष्यवाणी के धंधे में थे और बिहार के इस पूरे इलाके उनकी भविष्यवाणी को सत्य माना जाता था.


गौर फरमाएं

इस कहावत में जो कहा गया है उस पर यकीन करने का कोई आधार नहीं है क्योंकि यह बात ऐसे ही किसी ने अपने धर्म के श्रेष्ठता बोध में कही है. इसका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है. इस हवाले से इतना जरूर समझा जा सकता है कि लड़ाई हार चुके एक देश का गंवई समाज कैसे एक कहावत के जरिए अपनी चिन्ता या डर को छुपाने का प्रयास करता है और कैसे एक भविष्यवाणी करनेवाला इस डर की नींव पर अपनी धाक कायम करता है.