नस्लवादी दिल्ली?

इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम
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साल 2014 में राजनीतिक बदलाव से लेकर टेस्ट क्रिकेट से धोनी के सन्यास तक काफी कुछ हुआ लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में बसा एक तबका ऐसा भी है जिसके लिए बीता साल सिर्फ दुख और अवसाद के पल ही लाया. पूर्वोत्तर भारत के ये लोग किसी अन्य राज्य के लोगों की तरह ही दिल्ली की प्रगति की आंच को तेज करते हैं. ‘चिंकी’, ‘मोमोस’ और कई दूसरी नस्ली टिप्पणियों से उन्हें हर रोज दो-चार होना पड़ता है. सालभर का आंकड़ा देखें, तो दिल्ली के अंदर उत्तर भारतीयों के खिलाफ बढ़ती आपराधिक घटनाएं राजधानी का अलग चेहरा दिखलाती हंै. क्या यह शहर उत्तर पूर्व के लोगों के प्रति घृणाभाव रखता है या फिर सारी घटनाए एक संयोग मात्र हैं? इसमें मेन लैंडर यानी ‘मूल निवासी’ होने की दम्भी सोच किस हद तक जिम्मेदार है, यह भी महत्वपूर्ण सवाल है. नस्लवादी घटनाओं की बढ़ती संख्या देखकर कह सकते हैं कि यह दिलवालों की दिल्ली का बदनुमा चेहरा है.

बीते साल दिल्ली में पूर्वोत्तर भारत से आए छात्रों और कामकाजी लोगों के साथ भेदभाव का नतीजा मारपीट, हमले और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के रूप में हमारे सामने आया. मणिपुर महिला गन सरवाईवर्स नेटवर्क की संस्थापक बिनालक्ष्मी नेप्राम बताती हंै, ‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. 2009 से 2014 के बीच में नस्लभेदी घंटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. पूर्वोतर की महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ 60 फीसदी हिंसा के मामलें अकेले पूर्वोतर की महिलाओं के साथ होते हैं’. पूर्वोत्तरवासियों के साथ घट रही हिंसा की घटनाएं हमें मामले की गंभीरता को समझने और सोचने पर मजबूर करती है. दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के अनुसार बीते वर्ष में नवंबर महीने तक पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और मारपीट की 650 घटनाएं दर्ज हुई थी. इनमंे से 139 में एफआईआर दर्ज हुईं थी. यह आंकड़ा साल 2013 में इसी अवधि के दौरान घटी घटनाओं का दो गुना है. इनमें से सिर्फ दक्षिणी दिल्ली में 259 वारदातें सामने आईं.

साल की शुरुआत में नीडो तनिया पर हुआ हमला इसकी शुरुआत थी. इसके बाद पूरे साल दिल्ली में पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और झड़प की खबरें आती रहीं. जनवरी में 19 वर्षीय नीडो पर हुए हमले में पुलिस ने सात लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी. इनमें से तीन नाबालिग थे, जिनका मामला जुवेनाइल कोर्ट में चल रहा है. उत्तरपूर्वी क्षेत्र के लोगों के बढ़ते गुस्से और दबाब को देखते हुए नीडो का मामला सीबीआई को सौंपा गया था. मई में सीबीआई ने हत्या की धाराओं को गैर-इरादतन हत्या के मामले में तब्दील कर दिया. बाद में कोर्ट ने दिल्ली पुलिस द्वारा लगाई गई एससी-एसटी की धाराओं को भी खारिज कर दिया. यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है.

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फरवरी में पूर्वोत्तर वासियों पर हमलों की गति तेज हो गई. मुनिरका इलाके में किराए पर रह रही मणिपुर की 14 वर्षीय लड़की के साथ उसके ही मकान मालिक के बेटे ने बलात्कार किया. इस घटना के बाद विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा पुलिस स्टेशन का घेराव कर प्रदर्शन हुआ. इधर छात्र प्रदर्शन कर रहे थे दूसरी तरफ मुनिरका गांव में स्थानीय लोगों ने एक पंचायत बुलाई. वहां से उड़ती-पड़ती खबर आई की पंचायत ने ‘गंदे लोग’ यानी उत्तर पूर्व समुदाय के किराएदारों से छुटकारा पाने का निर्णय लिया है. पंचायत के फैसले के खिलाफ जेएनयू छात्र संघ और पूर्वोत्तर के छात्र संगठनों ने मुनिरका पुलिस थाने का घंटों घेराव किया. उस समय प्रदर्शन में शामिल आइसा कार्यकर्ता शेहला राशीद बताती हैं, ‘पंचायत के फैसले के बाद मुनिरका में रह रहे पूर्वोत्तर के छात्रों के अंदर डर बैठ गया था. उनके रिश्तेदार इतने सहमे हुए थे कि उन्होंने मुनिरका छोड़, दिल्ली के किसी और इलाके में रहने का दबाव बना दिया था.’ स्थानीय लोगों का कहना था कि मुनिरका में देर रात लड़के शराब पीकर हंगामा करते हैं और पंचायत या आरडब्ल्यूए की सभा इस मसले से निपटने के लिए की गई थी. अगर पंचायत के फैसले में थोड़ा भी सच का अंश है तो यह दिल्ली में बढ़ रही मूल निवासी की सोच को दर्शता है, और यह चिंता की बड़ी वजह है.

दिल्ली विश्वविद्यायल पूर्वोत्तर से आने वाले छात्रों का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. यहां बड़ी संख्या में पूर्वोत्तर के छात्र रहते और पढ़ते हैं. स्थितियां यहां भी बहुत बेहतर नहीं हैं. नस्लभेदी टिप्पणियां और हिंसा यहां भी रोजमर्रा का हिस्सा है. साउथ कैंपस के पीजीडीएवी कॉलेज में एक मामूली बात पर भरी कैंटीन में असम के प्राण सैकिया को बुरी तरह से पीटा गया. ‘मेरी हालत को देखते हुए मुझे तुरंत ट्रामा सेंटर ले जाया गया था. कान पर लगी गहरी चोटों की वजह से काफी समय तक सुनने में भी दिक्कत होती रही. हालांकि इस मामले में कॉलेज प्रसाशन ने तेजी दिखाते हुए प्रशासनिक व कानूनी दोनों करवाईयों को तेजी से अंजाम दिया. हमला करनेवाले लड़के को सस्पेंड भी कर दिया गया’ प्राण बताते हैं. प्रशासनिक कार्रवाई के नजरिये से डीयू में पढ़ रहे पूर्वोत्तर के हर छात्र की किस्मत प्राण जैसी नहीं है. नस्लवादी हिंसा से निपटने के लिए कॉलेज कैंपसों के अंदर कोई भी एंटी रेसियल सेल नहीं है. डीयू प्रशासन ने अब तक इस ओर कुछ खास प्रयास नहीं किए हैं. ऐसे में सालों बाद भी कैंपस के अंदर किसी ठोस तंत्र का न होना मामले को लेकर विश्वविद्यालय प्रसाशन के लचर रवैये को दर्शाता है. डूसू चुनाव के दौरान भी हर साल यह मुद्दा एनएसयूआई और आईसा वोट बैंक की राजनीत के बीच खो जाता है.

दिल्ली में नस्लीय हिंसा पूर्वोत्तरवासियों के मानस का हिस्सा बन चुकी है. मई में तीस हजारी कोर्ट में हुई घटना बेहद शर्मनाक है. पूर्वोत्तर की नोशी अपनी 38 वर्षीय मुवक्किल के साथ बीती रात हुई छेड़खानी का मामला दर्ज कराने पहुंची थी. अभियुक्त जो खुद भी पेशे से एक वकील था उसने अपने साथियों के साथ मिलकर कोर्ट परिसर में ही नोशी से बदसलूकी शुरू कर दी. बाद में मामले ने हिंसक रूप ले लिया. जमा हुई भीड़ ने बिना सोचे-समझे नोशी और उसके साथियों को खदेड़ दिया.

जुलाई 21 की रात दिल्ली के साउथ एक्स इलाके में सीसीटीवी कैमरे में माणिपुर के शालोनी की आखिरी तसवीरें कैद हुईं. सेनापति गांव का रहनेवाला शालोनी अपने दोस्त को छोड़ने कोटला मुबारकपुर आया था. हमलावरों ने पहले उसे छेड़ा और विरोध करने पर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी. इस मामले में किसी तरह की कहासुनी भी नहीं हुई थी. हत्या करने वाले सभी अभियुक्त दक्षिणी दिल्ली के गढ़ी गांव के रहने वाले थे. ठीक इसी तरह 15 सितम्बर की रात में मणिपुर के 20 वर्षीय लैथ गोलाइन और बॉयले पर चार स्थानीय लड़कों ने नस्लभेदी टिप्पणी करने के बाद बुरी तरह से हमला किया. चार में से दो हमलावर नाबालिग थे.

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binalakshmi‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. पूर्वोतर की लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है.

बिनालक्ष्मी नेप्राम समाजिक कार्यकर्ता

 


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फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं.

रॉबिन हिबू ज्वाइंट कमिश्नर दिल्ली पुलिस

 


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पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है.

‌डॉ अवनिजेश अवस्थी प्रो. दिल्ली विश्वविद्यालय

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जो हाल दिल्ली शहर का है वही स्थिति इससे सटे एनसीआर की भी है. गुड़गांव की साइबर सिटी के समीप बसे सिकंदरपुर गांव में 15 अक्टूबर की रात नागालैंड के रहनेवाले अवांग स्वांग और अलोतो चीसी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. सात स्थानीय लड़कों ने पहले दोनों को हॉकी स्टिक और बल्लों से पीटा और फिर अवांग के बाल कतर दिए. पीड़ित के परिजनों का कहना था कि हमलावरों ने इलाके में रह रहे सभी पूर्वोत्तर के किराएदारों को मकान खाली करने की भी धमकी दी.

पूर्वोत्तर के लोग रूप-रंग से बाकी भारतीयों से अलग दिखते हैं, लेकिन नस्लवाद की समस्या सिर्फ दिल्ली में तेजी से फैली है. दिल्ली और बंगलुरु के अलावा किसी और मेट्रो शहर में नस्लवाद ने इतना हिंसक रूप नहीं लिया है. इग्नू की प्रो वाईस चांसलर प्रो सुषमा यादव कहती हैं, ‘बाकी मेट्रो शहरों की तरह दिल्ली अभी कॉस्मोपॉलिटन नहीं हो पाई है. इस वजह से भी वह सांस्कृतिक भिन्नता व मातृप्रधान सोच में पले समुदाय के प्रति अपना नजरिया बदल नहीं पा रही है. खुद को मूल भारतीय मानने के साथ-साथ यह भावना भी दिल्लीवालों के मन में बैठी हुई है कि पूर्वोत्तर के लोग चीनी मूल के हैं.’ उनका कहना है, ‘यह एक सुनियोजित षड्यंत्र भी हो सकता है. जिसके तहत उत्तर पूर्व को मूल भारत से दूर रखने की कोशिश की जा रही हो. लेकिन इस ओर अभी गंभीर अध्यन व विश्लेषण की जरूरत है.’

इत्तफाकन दिल्ली पुलिस के ज्वॉइंट कमीश्नर व पूर्वोत्तर मामलों के नोडल ऑफिसर रोबिन हिबु खुद भी पूर्वोत्तर के हैं. अरुणाचल कैडर के पहले आईपीएस हिबु पूर्वोत्तरवासियों पर लगातार हो रहे हमलों के संदर्भ में कहते हैं, ‘1093 (पूर्वोत्तर हेल्पलाइन न.) के आने के बाद तस्वीर काफी बदली है. फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं. दिल्ली पुलिस द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों के युवा प्रतिनिधियों को वालंटियर के तौर पर नियुक्त करना और उन्हें अपेक्षित ट्रेनिंग देना, दोनों ही सही कदम थे. ये वालंटियर्स कई मामलों में पीड़ितों के लिए सबसे पहली राहत साबित हुए हैं.’

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नीडो तान्या की हत्या के बाद गठित की गई बेजबरुआ कमेटी के सुझावो पर केंद्र सरकार गौर कर रही है. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को जुलाई 2014 में सौंपते हुए ठोस कदम उठाने की सिफारिश की थी. दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर  के लोगों की प्राथमिकता नस्लभेदी टिप्पणियों पर अंकुश लगाने की है. कमेटी ने इसके लिए आईपीसी के सेक्शन 159 में बदलाव कर ‘चिंकी’, ‘चू-चू’ जैसे शब्दों का प्रयोग करनेवाले लोगों पर नकेल कसने के लिए पांच साल के कारवास के प्रावधान की सिफारिश की है. साथ ही सभी उत्तर पूर्वी राज्यों से दस महिला और दस पुरुष पुलिसकर्मियों की दिल्ली पुलिस में भर्ती करने को कहा है. स्थानीय लोगों, पुलिस और पूर्वोत्तर समुदाय के लोगों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिहाज से यह कदम महत्वपूर्ण है.

बेजबरुआ का दूसरा पक्ष रखते हुए मणिपुर छात्र एसोसिएशन दिल्ली (मसाद) के एक्टिविस्ट मनीश्वर का कहना है, ‘कमेटी की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशें मुआवजे की रकम की तरह हैं. पहले हिंसा करो और फिर पीड़ित समुदाय को संतुष्टि का आभास कराने के लिए कमेटी का गठन कर दो. जब तक सिफारिशों के लिए जमीनी ढांचा तैयार नहीं किया जाता, सब व्यर्थ है.’ मसाद ने दिल्ली में लगातर बढ़ रही नस्लवादी हिंसा को साबित करने के कई महत्पूर्ण दस्तावेज़ कमिटी के सामने रखे थे.

इसका दूसरा पहलू भी है कि दिल्ली में एक तबका ऐसा भी है जो मानता है की इस संघर्ष को नस्लीय रूप देना ठीक नहीं है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अवनिजेश अवस्थी के शब्दों में, ‘भारत एक विशाल देश है और प्रांत व भाषा के नाम पर अलग-अलग समय में यहां टकराव होते आए हैं. पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं, पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है. यह पूर्ण रूप से लॉ एंड आर्डर का मामला है. बेशक इसे प्रांतीय संघर्ष का नाम दिया जा सकता है. लेकिन जब यही व्यवहार यहां पर बिहार जैसे पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ भी होता है तब मीडिया इसे दो गुटों के बीच का मामला बनाकर पेश करती है.’

ऐसे संघर्षों को देखने का एक तरीका न्यूटन का तीसरा सिद्धांत भी है. पूर्वोत्तर में पढ़ रहे हिंदीभाषी छात्र और रह रहे लोगों तक भी इसकी धमक पहुंचने लगी है. निफ्ट शिलांग में पढ़ रहे विकास बताते हैं, ‘जैसा व्यवहार दिल्ली में पूर्वोतर के लोगों के साथ किया जाता है शिलांग मे चीज़ें उसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं. उत्तर भारतीय लड़कियां इनके निशाने पर रहती हैं. पूर्व में भी असम में कई बार हिंदीभाषियों के साथ हिंसा की वारदाते हुई हैं. ऐसे में राष्ट्रीय राजधानी को कई मायनों में खुद को बदलना है.