रांची वाया दिल्ली

rachiamitshah

सात-आठ सितंबर को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह झारखंड की राजधानी रांची में थे. मौका था पार्टी के कार्यकर्ता समागम आयोजन का. आधिकारिक तौर पर शाह विधानसभा चुनाव के पहले झारखंड में पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए पहुंचे थे. इससे कुछ समय पहले अनाधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यहां चुनावी रणभेरी बजा चुके थे, जब वे एक सरकारी आयोजन में यहां पहुंचे थे. शाह के आगमन के पहले रांची की सड़कों पर स्थिति देखने लायक थी. कोई सड़क, कोई गली ऐसी नहीं बची थी जहां भाजपा के झंडे-बैनर-होर्डिंग न लगे हों. जिन-जिन रास्तों से अमित शाह को गुजरना था उन्हें देखकर लग रहा था कि भाजपा के नेताओं के बीच बैनर-पोस्टर-होर्डिंग-झंडे की होड़ लगी है. प्रदेश भाजपा के सभी बड़े नेताओं के अपने-अपने कार्यकर्ताओं ने पूरी कोशिश की थी कि अपने नेताजी का होर्डिंग विरोधी नेताजी से बड़ा और आकर्षक तरीके से लगे. पता नहीं अमित शाह उन होर्डिंगों में से किसी को देख भी सके या नहीं, लेकिन आठ सितंबर को रांची के प्रभात तारा मैदान में आयोजित कार्यकर्ता समागम में अपने भाषण में उन्होंने यह जरूर साफ कर दिया कि लाखों रुपये फूंककर अंजाम दी गई बैनर-पोस्टर-होर्डिंग की लड़ाई का असर नहीं होनेवाला. शाह ने साफ कहा कि अगले कुछ ही माह में झारखंड में जो विधानसभा चुनाव होनेवाला है, वह नरेंद्र मोदी के नाम और नेतृत्व के आधार पर लड़ा जाएगा और किसी को भी मुख्यमंत्री के तौर पर चुनाव के पहले पेश नहीं किया जाएगा.

अमित शाह ने कार्यकर्ता समागम में और कई बातें कहीं. मसलन, लोकसभा में कांग्रेसमुक्त नारे के साथ झारखंड के 14 संसदीय सीटों में से 12 पर कब्जा हुआ, विधानसभा में भाजपायुक्त नारे के साथ 81 में से 70 सीटों पर कब्जा कीजिए और इसके लिए विधानसभा सीट की बजाय एक-एक बूथ को जीतने की योजना पर काम कीजिए. उन्होंने यह भी गुरुमंत्र दिया कि झारखंड में भाजपा कार्यकर्ता विधायक को विजयी बनाने के लिए ऊर्जा नहीं लगाएं बल्कि सीधे मुख्यमंत्री बनवाने के लिए चुनाव में भाग लें.

शाह की इन बातों से कार्यकर्ताओं में जोश आता रहा. मंच पर भाजपा के दो सबसे चर्चित दुश्मनों पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और पूर्व उपमुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को वर्षों बाद एक दूसरे से गले मिलते देख, एक दूसरे को शॉल ओढ़ाते देख कार्यकर्ताओं को खुशी भी हुई. लेकिन कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ में जोश के बीच यह सवाल भी उछलता रहा कि जब कोई मुख्यमंत्री का उम्मीदवार ही घोषित नहीं होगा तो यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर कैसे लड़ेंगे!

कार्यकर्ताओं के मन में उठने वाले ये सवाल बेजा नहीं हैं. भाजपा मोदी के नाम पर जिस तरह झारखंड में 14 में से 12 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही, उसी तरह वह विधानसभा चुनाव में भी मोदी के सहारे बेड़ा पार कर लेना चाहती है. लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? माना जा रहा है कि भले ही झारखंड की जनता ने लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा की झोली भर दी हो, लेकिन मुख्यमंत्री कौन होगा, यह आश्वस्त किए बिना विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए यह प्रदर्शन दोहराना मुमकिन नहीं. इसके अलावा जब आदिवासी या गैर आदिवासी मुख्यमंत्री होने के सवाल पर अमित शाह ने चुनाव के बाद ही कुछ तय करने की बात कही तो उससे भी ऊहापोह की स्थिति बढ़ गई है. कुछ महीने पहले व्यक्ति के नाम पर वोट पाकर झारखंड में इतिहास रचनेवाली पार्टी अब विधानसभा चुनाव में व्यक्ति निरपेक्ष होकर सिर्फ पार्टी के नाम पर वोट चाहती है. जानकारों के मुताबिक यह दांव उलटा पड़ जाने की भी गुंजाइश कोई कम नहीं!

आदिवासी या गैर आदिवासी मुख्यमंत्री होने के सवाल पर जब शाह ने चुनाव के बाद ही कुछ तय करने की बात कही तो उससे भी ऊहापोह की स्थिति बढ़ गई है

फिलहाल सभी दलों के बागियों, और अपने कुंठित या अपार आकांक्षा रखनेवाले नेताओं के लिए एक मजबूत प्लेटफॉर्म की तरह बनी भाजपा प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में बड़े सपने देख रही है. यह सपना देखने का हक भी उसे लोकसभा चुनाव परिणाम ने दिया है. लेकिन सवाल यह है कि कहीं पार्टी के लिए ज्यादा जोगी मठ उजाड़ जैसी स्थिति नहीं हो रही. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा से पांच विधायक भाजपा की झोली में आ चुके हैं. झामुमो के हेमलाल मुर्मू जैसे नेता भी अब पार्टी की झोली में हैं. और भी कई दलों के नेताओं का थोक में भाजपा में आना हुआ है. इन नेताओं की भाजपा से ज्यादा रुचि अपनी सीट की पक्की जीत में है. भाजपा से इनका कितना सरोकार है, इसे अमित शाह के भाषण के दौरान भी देखा जा सकता था. जब शाह मंच से बड़े-बडे़ मंत्र दे रहे थे और जोर-जोर से आह्वान कर रहे थे, तब नए-नए भाजपाई बने इन नेताओं में से अधिकांश नीचे दर्शक दीर्घा में लगभग सो ही रहे थे. वैसे उनकी नींद भी बाद में तब गायब हो गई जब भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने यह कहा कि यह जरूरी नहीं कि जो भाजपा में आए हैं या आ रहे हैं, उन्हें टिकट दिया ही जाए.

बहरहाल, यह दूसरी बात है. सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर ही अगर भाजपा झारखंड में विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है तो क्या प्रदेश भाजपा के ही दिग्गज उतनी ऊर्जा से चुनाव लड़ पाएंगे. प्रदेश भाजपा में नेताओं का एक समूह है, जो किसी तरह मुख्यमंत्री बनने के सपने के साथ दिन-रात जीता है. अर्जुन मुंडा तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. वे स्वाभाविक तौर पर इस कुर्सी के सबसे बड़े दावेदार माने जाते हैं. मुंडा आदिवासी नेतृत्व के नाम पर सबसे बड़े दावेदार होंगे तो दूसरी ओर यह बात भी हवा में इन दिनों तेजी से फैली है कि संघ की इच्छा है कि लोहरदगा से सांसद और पक्के संघनिष्ठ सुदर्शन भगत को भी एक बार आदिवासी के नाम पर आजमाया जाना चाहिए.

यह तो आदिवासी के नाम पर भाजपा से मुख्यमंत्री बनाने की बात हुई. गैर आदिवासी नेतृत्वकर्ता में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा अपनी इच्छा का इजहार खुद कर चुके हैं तो रघुवर दास की अर्जुन मुंडा से लड़ाई ही इस बात की रही है कि वे योग्य होते हुए भी अब तक एक बार भी मुख्यमंत्री बनने का स्वाद क्यों नहीं चख सके.

इन सबके बीच भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय हैं जिनके लिए भाजपा से ज्यादा महत्व सत्ता का रहा है. वे बीच में बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो की बेहतर स्थिति होने से उसके पाले में भी खिसक चुके थे. बाद में लौटे तो अर्जुन मुंडा ने एंड़ी-चोटी का जोर लगाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया ताकि स्थिति उनके अनुकूल रहे.

नेतृत्वविहीन चुनाव लड़ने के सवाल पर कई भाजपा नेताओं से बात होती है. कोई साफ-साफ जवाब नहीं दे पाता. भाजपा सांसद सुदर्शन भगत कहते हैं, ‘भाजपा विकास करेगी, इसलिए यह प्रमुख एजेंडा होगा और जनता वोट देगी.’ अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘भाजपा समस्याओं का समाधान करना जानती है, इसलिए जनता का रुझान भाजपा की ओर होगा.’ भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव कहते हैं कि झारखंड की जनता बेचैन है, वर्तमान सरकार से परेशान है, इसलिए जनता कमल पर बटन दबाएगी.

सब गोलमटोल बातें रखते हैं, लेकिन सवाल फिर वही है कि क्या वाकई भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभा की भी वैतरणी पार कर लेना इतना आसान होगा. क्या लोकसभा में 14 में से 12 सीटों को पा लेने का मतलब इसके लिए आश्वस्त होना है कि विधानसभा में भी वैसा ही जादू चलेगा?

इस सवाल का कुछ ठीक-ठाक जवाब भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान देते हैं. वे कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने अकेले ही विधानसभा में चुनाव लड़ने का मन बनाया है लेकिन राजनीति में कभी किसी से परहेज नहीं होता. हमेशा बातचीत के रास्ते खुले होते हैं.’ अतीत की याद दिलाते हुए वे बताते हैं कि 2004 में पार्टी को लोकसभा में मात्र एक सीट पर संतोष करना पड़ा था जबकि उसी वक्त विधानसभा में 31 सीटें आई थीं. फिर 2009 में लोकसभा में जब भाजपा के सांसदों की संख्या आठ हो गयी तो विधानसभा में सीटें घट गईं. प्रधान कहते हैं, ‘इस बार हमें 14 में से 12 सांसद मिले हैं तो इतिहास देखते हुए बिल्कुल ही अलग रणनीति से चुनाव लड़ना होगा.’

प्रधान की चिंता वाजिब है. लोकसभा के आधार पर विधानसभा का अनुमान लगाना इतना आसान नहीं. यानी नरेंद्र मोदी के नाम पर केंद्र की सत्ता पर कब्जा करने का मतलब यह नहीं कि उनके ही नाम पर रांची की सत्ता पर भी कब्जा हो जाए. और फिर इस बार झारखंड विधानसभा में भाजपा के सामने इसके पहले वाले विधानसभा चुनाव से ज्यादा बड़ी चुनौती भी है. बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 67 सीटों पर चुनाव लड़ा. 24.44 फीसदी वोट के साथ उसकी सीटों की संख्या 18 रही. उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस 61 सीटों पर चुनाव लड़कर 21.43 प्रतिशत मतों के साथ 14 सीटें पाने में सफल रही थी. झामुमो ने 78 सीटों पर चुनाव लड़ा. 15.79 प्रतिशत वोट पाए और उसकी सीटों की संख्या भाजपा के ही बराबर रही यानी 18. उधर, महज 25 सीटों पर चुनाव लड़कर बाबूलाल मरांडी की पार्टी का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा रहा. 28.24 प्रतिशत वोट पाकर झाविमो 11 सीटों पर कब्जा करने में सफल हो गई. लालू प्रसाद की पार्टी राजद ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा और 7.28 प्रतिशत वोटों के साथ पांच सीटें पाईं. उधर, बिहार में नीतीश कुमार की लोकप्रियता के उफानी दिनों में उनकी पार्टी जदयू 14 सीटों पर नीतीश कुमार के ही नाम पर चुनाव लड़ी और 5.94 प्रतिशत वोटों के साथ दो सीटें हासिल करने में सफल रही.

ये आंकड़े भाजपा की चुनौतियों को बड़ा करते हैं. साफ है कि एक-दो प्रतिशत का वोट इधर-उधर होना भी खेल बिगाड़ सकता है. भाजपा के विरोधी इसकी तैयारी भी कर रहे हैं. भाजपा के खिलाफ जदयू, राजद, कांग्रेस और झामुमो महागठबंधन बनाने की तैयारी है. यानी बिहार की तर्ज पर ही समीकरण बन सकता है. बिहार में विगत माह उपचुनाव के आये नतीजे से यह महागठबंधन बनने की प्रक्रिया और तेज हुई है. जैसे बिहार में नीतीश और लालू प्रसाद के मिलने से भाजपा को नुकसान हुआ, वैसे ही झारखंड में विरोधियों को लगता है कि सबके मिलने से वोट प्रतिशत अचानक बढ़ेगा और भाजपा चारों खाने चित्त हो जाएगी.

यह अनुमान लगाना कोई हवाई महल बनाने जैसा भी नहीं. ऐसा हो सकता है. लेकिन दूसरी ओर भाजपा को इससे लाभ होने की भी गुंजाइश होगी, क्योंकि तब भाजपा बनाम अन्य की लड़ाई होगी. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक तब भाजपा को शहरी मतदाताओं के साथ-साथ सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में आसानी होगी. महागठबंधन बनने की स्थिति में भाजपा के पास दो दलों से गठबंधन करने की गुंजाइश बनती दिखती है. राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो की पार्टी आजसू के साथ और दूसरा पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो के साथ. दोनों को साथ लेकर एक साझा गठबंधन बनाने का विकल्प भी है. सूत्र बता रहे हैं कि इसके लिए कोशिशें जारी हैं. दोनों ही ओर से. लेकिन सीटों पर बात नहीं बन पा रही. आजसू से तो फिर भी भाजपा को कोई परहेज-गुरेज नहीं, क्योंकि दोनों वर्षों साथ-साथ रह चुके हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव में आजसू के ही मुखिया सुदेश महतो ने भाजपा को कमजोर करने के लिए रांची संसदीय सीट से खुद चुनाव लड़ा था. फिर भी यह इतना बड़ा मसला नहीं कि दोनों का मेल न हो सके. संभव है दोनों में साझा-समझौता हो जाए, लेकिन बाबूलाल मरांडी, जो इन दिनों सबसे मुश्किल दौर में हैं और जिनके विधायक समूह बनाकर भाजपा में जा चुके हैं, उनसे तालमेल करना भाजपा के लिए इतना आसान नहीं होगा. हालांकि संघ का एक बड़ा खेमा और भाजपा में भी एक छोटा खेमा यह चाहता है कि बाबूलाल की घर वापसी हो जाए यानी वे फिर भाजपा में आ जाएं या कम से कम भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ें.

लेकिन, बाबूलाल मरांडी की महात्वाकांक्षा दूसरी है. शिबू सोरेन काफी बुजुर्ग हो चले हैं. सक्रिय राजनीति में उतने सक्रिय नहीं रहते. अपने बेटे हेमंत को लगभग राजपाट सौंप चुके हैं. जानकारों के मुताबिक हेमंत भले नंबर गेम के तहत मुख्यमंत्री बन गये हैं लेकिन अभी भी उनमें अपने पिता की तरह राजनीतिक नेतृत्व के गुण और गुर नहीं दिखते. बाबूलाल की महत्वाकांक्षा शिबू सोरेन के बाद सबसे बड़ा और सर्वमान्य आदिवासी नेता बनने की है. इसी के चलते वे एक बड़ा दांव खेलते हुए सोरेन से टकराने संथाल परगना चले गए थे. यह अलग बात है कि चुनाव हार गए.

दूसरी बात यह भी है कि बाबूलाल किसी भी तरह भाजपा से सटें, यह भाजपा के ही कई नेता नहीं चाहते. कम से कम अर्जुन मुंडा तो कतई नहीं क्योंकि वे बाबूलाल के समय में ही अचानक उभरे थे और बाबूलाल के बाद मुख्यमंत्री बन गए थे. मुंडा जानते हैं कि बाबूलाल अगर किसी तरह भाजपा से सट गए तो भाजपा में आदिवासी नेता होने की वजह से उन्हें वह तरजीह नहीं मिलेगी, जो संघ से संबंध होने की वजह से बाबूलाल को मिल सकती है.

उधेड़बुन के ऐसे ही दौर से गुजर रही भाजपा के बीच नरेंद्र मोदी पिछले माह तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पिछले सप्ताह कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच चुनावी शंखनाद कर जा चुके हैं. मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने का असर क्या होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी है. बस भाजपा के लिए सुकून की बात यही है कि कांग्रेस अभी आपस में ही माथाफोड़ी दौर में है. राज्य के वर्तमान मंत्रियों के कारनामे सामने आ रहे हैं. और इस वजह से कांग्रेस से लेकर झामुमो के खिलाफ एक निराशा का माहौल है.