‘लोगों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, बहस इस पर होनी चाहिए राष्ट्रवाद पर नहीं’

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फोटो : अमरजीत सिंह

किसी से आप पूछेंगे कि वह किसको मानता है राष्ट्रवाद तो वह नहीं बता पाएगा. कुछ धुंधली-सी अवधारणा है लोगों के दिमाग में कि मुल्क हमेशा खतरे में रहता है, सैनिक उसकी रक्षा करते हैं, वे मारे जाते हैं, और इधर बुद्धिजीवी हैं जो तरह-तरह से सवाल उठाते रहते हैं, जबकि इत्मिनान से तनख्वाहें ले रहे हैं और जनता के पैसे पर शानदार जगहों में बैठकर पढ़ रहे हैं, जबकि हमारे सैनिक सियाचीन में बर्फ में दबकर मर जाते हैं.

अगर आप लोगों से पूछें तो कुल मिलाकर आपको जवाब यही मिलेगा जो आजकल मिल रहा है. अब आप इस अवधारणा को तोड़ेंगे कैसे? इसको तोड़ना बहुत ही मुश्किल है. लोगों को यह समझाना कि जो लोग विश्वविद्यालयों में बैठकर पढ़ रहे हैं, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, या जो सवाल कर रहे हैं, वह सवाल करना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. यह समझाना भी बहुत कठिन है कि छत्तीसगढ़ में भी जिन सैनिकों को लगा दिया जा रहा है उनको देश के ही खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है. क्योंकि उनको बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में इस्तेमाल किया जा रहा है. तो इसे कैसे समझाया जाएगा, यह एक प्रश्न है.

जिसको कहा जा रहा है कि राष्ट्रवाद क्या है, इसमें किसी को भी राष्ट्रद्रोही साबित करना बहुत आसान है. राष्ट्रवाद के घालमेल के चलते हिंदूवाद को आत्मसात करना बहुत आसान है. उसके प्रतीक चिह्न, उसके संकेत सारे ऐसे हैं जिसको आप हिंदू धर्म से जोड़कर देख सकते हैं. और एक तरह की प्रतिध्वनि है जो बहुत दिनों से लोगों के मन में चली आ रही है, अब जिसको खुलकर निकलने का मौका मिला है कि यह देश पूरी तरह से हिंदू क्यों नहीं है और क्यों नहीं इसे होने दिया जा रहा है. लंबे समय तक इसके लिए नेहरू को दोषी ठहराया गया, कि नेहरू क्योंकि आधा ईसाई थे, आधा मुसलमान थे, तो उनकी वजह से ऐसा नहीं हो पाया. वरना पटेल, राजेंद्र बाबू होते तो हिंदू राष्ट्र हो ही जाता. वह घृणा अभियान जारी है.

अब इस चीज को समझना अति आवश्यक है कि क्यों सबसे ज्यादा निशाने पर राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी सोनिया के बेटे हैं और नेहरू से जुड़े हैं. तो वह जो पुरानी घृणा है उसे इटली से जोड़कर और ताजा किया जा सकता है. तो यह बहुत ही पेचीदा घालमेल किया गया है. अफवाहों और दूसरे तमाम माध्यमों से इसे इतना ज्यादा पकाया गया है, इसकी काट के बारे में बात करने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई. हम लोग अगर बात करने लगेंगे समझदारी से तो उसकी तो जगह नहीं है. क्योंकि पूरा सामाजिक विचार-विमर्श है वह इस भाषा में ढल गया है.

दो-तीन चीजें जो बहुत ही असंगत मालूम पड़ती हैं, वो ये कि माओवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? नक्सलवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? यह प्रश्न किया जा सकता है! क्योंकि ये लोग तो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ रहे हैं. यह तो एक आंतरिक संघर्ष है. इनको राष्ट्रविरोधी बार-बार क्यों कहा जा रहा है? यह जो हो रहा है कि आप दोनों-तीनों चीजों का घालमेल कर रहे हैं, इससे कुछ बातें समझ में आती हैं. क्योंकि सशस्त्र माओवादियों का संघर्ष हमारे सैन्य बल से होता है. सैन्य बल राष्ट्र का सबसे बड़ा प्रतीक है. इसलिए आप माओवादियों को राष्ट्रविरोधी घोषित कर सकते हैं, बिना यह सोचे हुए कि ये सैन्य बल आदिवासियों के घर जला रहे हैं, उन पर हमला कर रहे हैं तो ये किनके हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं. ये बातें करेगा कौन?

विश्वविद्यालयों के खिलाफ घृणा का एक माहौल पहले से है. हमारे यहां एक एंटी इंटेलेक्चुअलिज्म है और एक हीनताबोध जो भाजपा-आरएसएस में है कि उनको कोई बौद्धिक मानता नहीं है. बौद्धिकता के विरुद्ध उनके मन में एक घृणा है. और बौद्धिकता मात्र को वामपंथी मान लिया गया है. यह बहुत मजेदार चीज है. लेकिन तब प्रताप भानु मेहता क्या ठहरेंगे? आंद्रे बेते क्या होंगे? पीएन मदान क्या होंगे? आशीष नंदी क्या होंगे? इसी बीच यह खबर आई जिसकी मैं आशीष नंदी से पुष्टि नहीं कर पाया. आशीष नंदी ने कहा है कि वे माफी मांगने को तैयार हैं. उन्होंने गुजरात को लेकर जो लेख वर्षों पहले लिखा था, उसके चलते उन पर देशद्रोह का मुकदमा है. यह मुकदमा उनके खिलाफ है और टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद के खिलाफ है, जिसने उनका लेख छापा था. यह लेख तो गुजरात सरकार की आलोचना थी. गुजरात जिस दिशा में जा रहा है, उसकी आलोचना थी. उस पर देशद्रोह का मुकदमा कैसे हो गया? वह चल रहा है और आशीष नंदी ने उस पर माफी मांगने की पेशकश की है. वे माफी मांग सकते हैं. इससे समझा जा सकता है कि दरअसल बौद्धिकता पर हमला बहुत पहले से चल रहा था. गुजरात में वह प्रोजेक्ट पूरा हो गया. इसलिए आप कह सकते हैं अब गुजरात एक तरह का बैरेन लैंड है. अब आप देखें कि कैसे व्यवस्थित ढंग से वह हमला हो रहा है. जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय में अभी कुछ ही दिन पहले एक सेमिनार हुआ ‘कश्मीर में बहुलतावाद की संस्कृति’ विषय पर. अब यह सेमिनार कैसे राष्ट्रविरोधी है? लेकिन इस सेमिनार को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आपत्ति जताता है और उस आपत्ति के आधार पर कुलपति नोटिस जारी करते हैं. तो यह सब क्या हो रहा है?

इसी तरह अभी एक घटना लखनऊ में घटी जो बहुत ही हास्यास्पद थी. हालांकि वह घटना थोड़ी-बहुत मुझसे जुड़ी हुई है, लेकिन हास्यास्पद है. राजेश मिश्रा जो समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं, उन्होंने फेसबुक पर मेरा लेख शेयर किया जो इंडियन एक्सप्रेस में छपा था. उसके चलते उनका पुतला जलाया गया, विरोध-प्रदर्शन किया गया, क्लास नहीं चलने दी गई और कुलपति ने उनको कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. अब देखिए कि मूर्खता किस हद तक जा रही है. वह लेख उन्होंने लिखा भी नहीं है. वह लेख उन्होंने सिर्फ शेयर किया है. उस लेख में कोई हिंसा का आह्वान नहीं है. उन्होंने कोई हिंसा का आह्वान नहीं किया है. लेकिन उनके खिलाफ हिंसा होती है और उन्हीं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाता है. तो हम लोग धीरे-धीरे कहां जा रहे हैं, यह तो समझ में आता है.

राष्ट्रवाद चूंकि इतनी धुंधली अवधारणा है कि कई चीजें घुल-मिल जाती हैं जैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद. अवधारणा में तो दोनों दो हैं, लेकिन यहां दोनों एक हो गए हैं

राष्ट्रवाद चूंकि इतनी धुंधली अवधारणा है कि कई चीजें घुल-मिल जाती हैं जैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद. अवधारणा में तो दोनों दो हैं, लेकिन यहां दोनों एक हो गए. राष्ट्र और राज्य दोनों एक हो गए, जबकि दोनों दो हैं. आप विरोध कर रहे हैं राज्य का लेकिन उसको कहा जा रहा है कि आप राष्ट्र का विरोध कर रहे हैं. देश की अवधारणा तो अलग है न! अपनी भाषाओं में देखें तो हम देश जाते हैं, परदेस जाते हैं. बिहार वालों का चटकल मजदूरों का परदेस कोलकाता हो गया. देश उनका अपना छपरा है, सीवान है. अगर आप पारंपरिक रूप से देखें तो उनका देश और परदेस तो इसी देश में हो जाता है. लोग अपनी मिट्टी में मरने की बात करते हैं. वे यह थोड़े कहते हैं कि मैं भारत में मरूंगा. कोई व्यक्ति जो रह रहा है दिल्ली में उसकी इच्छा होती है कि वह जाकर दफन हो वहीं पर, जहां से वह आया है. उसको आग वहीं दी जाए. तो यह एक दूसरी चीज है जिसे आप अपनी मिट्टी से प्रेम कह सकते हैं. वह राष्ट्रवाद नहीं है. क्योंकि वह तो राष्ट्र है नहीं. अगर मान लिया वह राष्ट्रवादी है तो वह क्यों दिल्ली में ही नहीं मर जाना चाहता है? क्यों वह अपने गांव जाकर ही मरना चाहता है या वहीं की मिट्टी में मिल जाना चाहता है? इसको काफी प्रगतिशील कदम माना जाता है कि अगर मैं लिखकर मर जाऊं कि मेरा शव मेरे गांव न ले जाया जाए. अगर पूरे राष्ट्र की भूमि एक ही है तो यह लगाव, यह खिंचाव क्यों होता है? यह अंतर है, इसको लोगों को समझना चाहिए. लेकिन यहां तो सब घालमेल कर दिया गया.

इसके उलट, राष्ट्रवाद तो एकदम नई अवधारणा है. जो आपका देश है, वही आपका राष्ट्र नहीं है, छपरा के व्यक्ति का देश तो छपरा या वहां का एक गांव मढ़ौरा है, जहां से वह आया है, लेकिन राष्ट्र तो भारत है. उसको यह समझाया है कि मढ़ौरा के मुकाबले भारत का इकबाल बहुत-बहुत ज्यादा है और मढ़ौरा के हितों को भारत के हित पर कुर्बान किया जा सकता है. यह जो भारत है, उसकी देश की जो समझ थी, जो पारंपरिक समझ है, उसके मुकाबले तो यह नई समझ है. इसमें भौगोलिक समझ शामिल है. यह एक भौगोलिक देश है, जिसकी एक चौहद्दी है, जिसके दक्षिण में यह है, उत्तर में यह है, पश्चिम में यह है, यह सब तो उसको बताया गया है कि यह ऐसा है. वह खुद इसका अनुभव नहीं करता है. अगर आप कहें कि मेरे अनुभव की सीमा से बाहर की चीज है. मैं इसकी कल्पना करता हूं, मुझे हर रोज यह बताया जाता है. स्कूल में हम लोगों को जो चीज सबसे पहले याद कराई जाती थी वह भारत की चौहद्दी है. यह क्यों बताया जाता था? क्योंकि यह हमारे दिमाग में बैठ जाए. वह भारत कोई अपने आप अनुभव होने वाली चीज नहीं थी. मेरी जो मानवीय अनुभव की सीमा है, उस मानवीय की सीमा में तो भारत ही है. भारत अंतत: एक कल्पना है जिसके बारे में मुझे रोज-रोज बताकर उस कल्पना को मेरे दिमाग में बिठाकर उसको यथार्थ बना दिया जाता है, जिसका एक तिरंगा है, एक राष्ट्रगान है वगैरह-वगैरह. भारत इन्हीं के माध्यम से मेरे मन में मूर्त भी होता है और जीवित भी होता है. यह सब जो हो रहा है, वह बहुत स्पष्ट है. बीएचयू से संदीप पांडेय को तो नक्सली कहकर ही निकाला गया. नक्सली होना ही राष्ट्रविरोधी हो गया. वामपंथी होना ही राष्ट्रविरोधी होना हो गया. यह तो तय हो गया है. अब इसके बारे में बहस नहीं हो सकती. कुछ चीजें स्थापित कर दी गई हैं जिनके बारे में अब बहस की गुंजाइश नहीं है. जैसे आप यह नारा भारत में लगा सकते हैं कि नक्सलवादियों भारत छोड़ो. कैसे लगा सकते हैं यह नारा? आरएसएस वालों भारत छोड़ो यह नारा नहीं लग सकता लेकिन नक्सलवादियों भारत छोड़ो यह नारा लग सकता है. नक्सलवाद की विचारधारा से हमें आपत्ति हो सकती है, उनके तरीके से हमें असहमति हो सकती है, लेकिन नक्सलवादी जो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ते हैं, उनको आप कहते हैं कि भारत छोड़ो. यह बहुत विचित्र है लेकिन यह स्थापित हो चुका है. अब रहा दलितों का प्रश्न, तो आरएसएस का कहना यह है कि एकमात्र मैं हूं, और कोई नहीं है. गांधी का भी व्याख्याता मैं हूं. आंबेडकर का भी व्याख्याता मैं हूं. मैं किसी और को व्याख्याता होने की इजाजत नहीं देता. हैदराबाद के आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन को लेकर, रोहित वेमुला जिससे जुड़ा था, उसके बारे में वेंकैया नायडू का बयान क्या है? उन्होंने कहा कि वह सिर्फ नाम का आंबेडकरवादी है. वह दरअसल, वाम का मुखौटा है. यह बात वे पहले दिन से कह रहे हैं कि आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन का दलितों से कोई लेना-देना नहीं है, वह दरअसल रेडिकल लेफ्ट का मुखौटा है जो राष्ट्र-विरोधी है, क्योंकि उसने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया. वे यह साबित कर रहे हैं कि इसकी इजाजत दलितों को नहीं है कि वे कौन-सी राजनीति करें और कौन-सी भाषा बोलें, क्योंकि वह हम उनको बताएंगे.

संबित पात्रा ने एक बहस में कहा कि आप दुर्गा के बारे में ऐसा नहीं बोल सकते. हमने कहा कि आप स्क्रिप्ट ताे नहीं देंगे न लिखकर कि हम क्या बोलें और क्या नहीं बोलें! आपकी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी होगी. लेकिन जो महिषासुर का शहादत दिवस मनाएंगे, वह दुर्गा के लिए क्या बोलेंगे यह तो वे ही तय करेंगे. आप तो दुर्गा को महिषासुर मर्दिनी बोले चले जा रहे हैं. आप तो यह ख्याल नहीं कर रहे हैं कि महिषासुर को देवता मानने वालों की भावना का क्या हो रहा है. उलटकर यह प्रश्न किया जाए कि उनकी भावनाओं का क्या हो रहा है. आप उनके शहादत दिवस में मत जाइए. आप अपना महिषासुर मर्दिनी दिवस मनाते रहिए. यह सब जो चल रहा है, इससे निपटना बहुत ही कठिन है. दो स्तर की लड़ाई हो गई है. एक लड़ाई है सांस्कृतिक और एक लड़ाई है राजनीतिक. अब यह पूरी लड़ाई सांस्कृतिक राजनीति में बदल गई है तो और भी कठिन हो गई है. अब देखिए कि यह कितना दिलचस्प है कि एक बहुत बड़ा तबका बिल्कुल खामोश बैठा है. वह है मुसलमानों का तबका. इस पूरी बहस में एक आवाज नहीं है. क्योंकि मान लिया गया है कि वे प्रासंगिक नहीं हैं. अब वे कैसे दावेदारी पेश करें इस भारतीय राष्ट्र पर? वे अपने को इस घोल में मिलाकर ही शामिल हो सकते हैं.

यह जो सांस्कृतिक राजनीति की लड़ाई है यह अभी और तीखी होने वाली है. इसकी तार्किक परिणति कुछ और भी हो सकती है इसके लिए लोगों को, पूरे भारत को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जिस दिशा में धकेल दिया गया है, उस दिशा में आप समाज के दूसरे तबकों को रोक नहीं सकते. तब वे अपनी भाषा में बात करेंगे. आज ऐसा लग रहा है कि वे चुप हैं, लेकिन वे क्यों चुप रहें और कब तक चुप रहें, कब तक अपमानित होते रहें? तो एक तो यह सांस्कृतिक स्तर की लड़ाई है. दूसरे, यह राजनीतिक स्तर की लड़ाई है, जिसमें भाजपा को काफी नुकसान होने वाला है दलितों और आदिवासियों की ओर से. यह तो बहुत स्पष्ट दिख रहा है. उन्होंने रोहित वेमुला और आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को राष्ट्रविरोधी घोषित करने का जो दांव खेला है, वह उन्हें महंगा पड़ेगा. दलित और आदिवासी अब बेचारे नहीं हैं.

इस सबका रास्ता तो राजनीतिक संघर्ष है. लेकिन अभी जो दिख रहा है वह निराशाजनक है. अगर आज की बात करें तो. मेरी जो समझ है वह यह है कि जो कुछ चल रहा है वह बेहद अप्रसांगिक है. क्योंकि मसला क्या था? मसला राष्ट्रवाद तो है नहीं. मसला तो यह है कि राज्य ने अपनी हिंसा का प्रयोग गैर-आनुपातिक ढंग से किया. उसने आगे बढ़कर हैदराबाद और दिल्ली में छात्रों पर हिंसा का प्रयोग किया. प्रश्न है राज्य की राजनीतिक हिंसा का, जो एक खास तरह की राजनीति की भाषा में व्यक्त हो रही है. प्रश्न राष्ट्रवाद तो नहीं है, लेकिन पूरी संसद बैठ गई राष्ट्रवाद पर बहस करने, जैसे कि राष्ट्रवाद पर कोई सेमिनार हो रहा हो. बाहर हमले हो रहे हैं, लोगों को पीटा जा रहा है, लोगों को गलत ढंग से गिरफ्तार किया जा रहा है, बहस इस पर होनी चाहिए, न कि राष्ट्रवाद पर, लेकिन सब लोग वहां अकादमिक सेमिनार करने लगे. हर कोई राष्ट्रवाद की परिभाषा दे रहा है. जैसे कि इस बहस के खत्म होते ही यह मसला निपट जाएगा. आप जब संसद में बहस कर रहे हैं, उसी समय जम्मू में यह घटना हो गई, उसी समय लखनऊ में यह घटना हुई, उसी समय इलाहाबाद में प्रदर्शनकारियों पर हमला हो गया. मसला है कि लोगों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला हो रहा है. इस पर बहस होनी चाहिए थी. राजनाथ सिंह ने साफ झूठ बोला. वे झूठ बोलकर निकल कैसे गए और विपक्ष ने निकलने कैसे दिया? स्मृति ईरानी झूठ पर झूठ बोले जा रही हैं और निकलती जा रही हैं. अगर जवाबदेही तय करनी है तो विपक्ष इन मामलों में जवाबदेही तय करेगा, न कि राष्ट्रवाद पर बहस करने लगेगा.

मुझे दिख रहा है कि विपक्ष में फ्लोर मैनेजमेंट नहीं है, आपस में समन्वय भी नहीं है, और शायद स्पष्टता भी नहीं है. मसलन राहुल गांधी ने पहले दिन जेएनयू जाकर जो स्पष्टता दिखाई, या रोहित वेमुला मामले में, बाद में क्या कांग्रेस घबरा गई कि भाजपा उसे राष्ट्रवाद के मसले पर पीछे ले जाएगी? क्या कांग्रेस के जो ओल्ड गार्ड्स हैं, वे घबराए हुए हैं? जिन लोगों ने राजीव गांधी को सलाह दी होगी कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया जाए, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिरने दी, क्या उसी तरह के लोग राहुल को पीछे खींचकर ले गए होंगे कि संसद में मत बोलिए. क्योंकि इससे तो कुछ भी पता नहीं चला कि दरअसल आप करना क्या चाहते हैं. मुझे लगता है कि विपक्ष की तैयारी नहीं है. विपक्ष से ज्यादा स्पष्टता और तैयारी छात्रों में थी, चाहे हैदराबाद के छात्र हों या जेएनयू के. यह सब काफी दुर्भाग्यपूर्ण है. हम सब काफी लंबा खतरनाक समय झेलने को अभिशप्त हैं. यह सब पता नहीं कहां तक जाएगा.

माहौल यह है कि हम लोग आसानी से बात नहीं कर सकते. कक्षाओं में सहजता नहीं रह गई है. कोई भी चीज अब सहज नहीं रह गई है. माहौल पूरी तरह से तनावपूर्ण है और लोग कन्फ्यूज्ड हैं. मुझे लगता है कि भाजपा की रणनीति संभवत: यह थी कि लोगों के मन में बड़ा कन्फ्यूजन पैदा कर दो और टेम्प्रेचर लगातार ऊपर रखो. जितना टेम्प्रेचर ऊपर होगा, लोग सन्निपात की हालत में होंगे. समाज सन्निपात की अवस्था में होगा तो उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो जाएगी. उस समय आप कुछ भी कर सकते हैं. क्योंकि तब समाज की आत्म रक्षात्मक स्थिति भी समाप्त हो जाएगी. आप उस पर कब्जा कर लेंगे. स्थितियां बहुत खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)