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मेट्रो के पुल के नीचे दुकानें सजना तो दिल्ली में आम है, लेकिन उसके तले कोई स्कूल चलता दिखे तो बात खास हो जाती है. दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक स्टेशन के पास ऐसी ही एक अनूठी और प्रेरणादायी पाठशाला है. मेट्रो ब्रिज इसे धूप और बारिश से बचाने वाली छत है. ब्लैकबोर्ड के लिए पुल की दीवार का एक हिस्सा काले रंग से रंग दिया गया है. बच्चों के बैठने के लिए कुछेक गत्ते और चटाइयां हैं. सप्ताह में पांच दिन और रोज दो घंटे चलने वाला यह स्कूल आस-पास रहने वाले मजदूरों, रिक्शाचालकों और उन जैसे तमाम लोगों की उम्मीद है जिनके बच्चे बस्ते में अपने सपने रखकर यहां आते हैं.
हमें कई बच्चे मिलते हैं जिनका जुनून और आत्मविश्वास किसी बड़े स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों जैसा दिखता है. करीब 10 साल का प्रवेश कहता है, ‘बड़ा होकर ट्रेन चलाऊंगा.’ स्कूल की शुरुआत से ही यहां आ रहा प्रवेश बताता है, ‘मेरा स्कूल सबसे अच्छा है. मास्टर तो अच्छे हैं ही, स्कूल भी ऐसा है जहां कोई बंधन नहीं. खुला-खुला.’ कई और बच्चे भी मिलते हैं जिन्हें अपना स्कूल बहुत प्यारा लगता है. सबको यह भी पता है िक पढ़-लिखकर उन्हें क्या बनना है.
उम्मीद और हौसले की इस पाठशाला की शुरुआत कुछ साल पहले राजेश कुमार शर्मा ने की थी. अलीगढ़ से ताल्लुक रखने वाले 40 साल के शर्मा 20 साल पहले बीएससी की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दिल्ली आ गए थे. आ क्या गए थे, मजबूरी में आना पड़ा था. वे बताते हैं, ‘मैं पढ़ने में अच्छा था, लेकिन परिवार बहुत गरीब था इसलिए पढ़ाई छोड़कर दिल्ली आ गया. रोजी-रोटी चलती रहे इसलिए मैंने किराने की एक दुकान खोल ली जिससे आज भी परिवार चलता है. जब अपने पैर जम गए, दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो गया तब मैंने सोचा कि अब कुछ ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाए जिनके मां-बाप गरीब हैं और जिनके पास इतने संसाधन नहीं है कि वे बच्चों को स्कूल भेज सकें या पढ़ा सकें. यह इलाका मेरे कमरे के पास है और यहां के लोग भी गरीब ही हैं सो मैंने यहीं से शुरुआत की. यह स्कूल तो दो साल से है लेकिन मैं तो पिछले चार-पांच साल से बच्चों को पढ़ा रहा हूं.’
स्कूल की शुरुआत सिर्फ तीन बच्चों से हुई थी. लेकिन देखते ही देखते बच्चों की संख्या140 तक पहुंच गई. राजेश घबराने लगे क्योंकि अकेले इतने बच्चों को संभालना उनके लिए मुश्किल हो रहा था. उन्होंने बच्चों के मां-बाप से बातचीत करके इस बात के लिए तैयार किया कि जिन बच्चों की उम्र पांच साल से ज्यादा हो चुकी है उन्हें सरकारी स्कूल में भेजा जाए. इस तरह 140 में से 60 बच्चे सरकारी स्कूल में दाखिला पा गए.
[box]‘देश में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत है जो पढ़-लिख नहीं पाते, तो ऐसी हालत में अगर हम कुछेक बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है’[/box]
साल भर पहले स्कूल को एक और शिक्षक मिला. ये थे बिहार के नालंदा से दिल्ली आए लक्ष्मी चंद्रा. लक्ष्मी विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं. रोजी-रोटी के लिए वे प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं. वे बताते हैं, ‘एक दिन ट्यूशन के लिए जाते वक्त मैंने देखा कि पुल के नीचे बच्चे बैठे हैं और एक आदमी उन्हें पढ़ा रहा है. उस दिन तो मैं निकल गया क्योंकि मेरी क्लास का समय हो रहा था. अगली सुबह उत्सुकता के साथ जब मैं यहां पहुंचा तो पता चला कि राजेश गरीब बच्चों को फ्री में पढ़ाते हैं. मुझे लगा कि इस नेक काम में इनका साथ देना चाहिए. बस तभी से मैं स्कूल से जुड़ गया.’
आगे की योजनाओं के बारे में पूछने पर राजेश कहते हैं, ‘देखिए, हमें यह मुगालता नहीं है कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. इस देश में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत है जो पढ़-लिख नहीं पाते तो ऐसी हालत में अगर हम कुछेक बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. दूसरी बात यह भी है कि हमारी सीमा भी यहीं तक है. लाख चाहकर भी हम दोनों इस देश के हर बच्चे को नहीं पढ़ा-लिखा सकते. रही बात भविष्य की तो जब तक बन सकेगा इसी तरह से पढ़ाते-लिखाते रहेंगे और एक समय के बाद इन्हें सरकारी स्कूल में भेजते रहेंगे. क्योंकि असल चीज जो है डिग्री, वह तो इन्हें वहीं से मिलेगी.’
इस अनूठे स्कूल की तरफ कई गैरसरकारी संगठनों ने भी हाथ बढ़ाया. लेकिन राजेश और लक्ष्मी चंद्रा कहते हैं कि वे अपने मिशन को कमाई का जरिया नहीं बनाना चाहते. राजेश कहते हैं, ‘देखिए, ऐसा तो है नहीं कि हमारे परिवार का पेट नहीं पल रहा है. अपने लिए कमाई का जरिया है ही हमारे पास.’ इतना कहकर राजेश चुप हो जाते हैं और अपने छात्रों को कुछ बताने-समझाने में लग जाते हैं. स्कूल के भविष्य और इससे जुड़ी मुश्किलों से जुड़े सवालों का जवाब देते वक्त राजेश के चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक दिखती है. मानो कह रहे हों कि अगर भविष्य और मुश्किलों के बारे में सोचा होता तो मेट्रो के पुल तले यह पाठशाला शुरू ही नहीं हो पाती.