खेती में लिंगभेद के बीज

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सभी फोटो : विजय पांडेय

स्कूूल के दिनों में हम सबने ‘अपना देश भारत’ या ‘हमारा देश भारत’ विषय पर निबंध जरूर लिखा होगा. यह निबंध एक किस्म के आध्यात्मिक अनुष्ठान की तरह होता था, लिखा ही होगा. जहां तक मुझे याद है इसका एक शुरुआती वक्तव्य होता था- भारत एक कृषि प्रधान देश है. निबंध का विषय आज भी बना हुआ है, किंतु यह वक्तव्य मृत्युशैया पर पड़ा हुआ है. अब भी जबकि भारत की 48.17 करोड़ की कामकाजी जनसंख्या में से 26.30 करोड़ लोग खेती पर सीधे-सीधे निर्भर हैं (जनगणना 2011), वहां विकास की नीति का मूल मकसद यह है कि खेती क्षेत्र से लोगों को बाहर निकलना है. तर्क यह है कि खेती पर बहुत ज्यादा बोझ है और लोगों को दूसरे क्षेत्रों में रोजगार खोजना चाहिए.

ऐसे में पांच अहम बातों को छिपाकर रखा जाता है. पहला- अगर लोग खेती छोड़ेंगे तो कंपनियों या औद्योगिक समूहों को इसमें निर्णायक दखल देने का मौका मिल जाएगा. दूसरा- जब खेतिहर समाज उत्पादन से दूर होगा, तो वह अपनी खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार में आएगा, जहां उसे राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा. उसकी जिंदगी ठेके पर संचालित होगी. तीसरा- कृषि एक व्यापक व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों (जंगल, पशुधन, जल स्रोत, जमीन, पहाड़ आदि) का जुड़ाव अंतर्निहित है. जब समाज का रिश्ता खेती से टूट जाएगा, तब इन संसाधनों का खनिज संपदा और भीमकाय औद्योगिकीकरण के लिए ‘बेतहाशा’ शोषण करना आसान हो जाएगा. चौथा- जब हम समाज को संगठित और असंगठित क्षेत्र में बांटते हैं, तब यह भूल जाते हैं कि समाज अपने आप में असंगठित नहीं है. जब राज्य अपने दायरे का व्यापक तौर पर विस्तार करके खेती-संसाधनों-सामाजिक व्यवहार को अपने कब्जे में कर लेने की नीति पर काम करता है, तब समाज का सबसे ज्यादा संगठित हिस्सा अपने आप असंगठित की श्रेणी में आ जाता है, क्योंकि उसका अपने संसाधनों पर नियंत्रण खत्म हो जाता है. और एक समूह, जो हमेशा इस फिराक में रहता है कि किस तरह से सामाजिक-आर्थिक-प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल किया जाए, वह एकदम से ‘संगठित’ क्षेत्र का आकार ले लेता है. पांचवां- जब यह सवाल पूछा जाता है कि रोजगार कहां है और सरकार क्यों आजीविका सुरक्षित नहीं करती; तो अचानक विवादित बयान आने लगते हैं, दंगे भड़क जाते हैं और मीडिया मूल सवाल छिपा देता है.

ऐसा नहीं है कि खेती में सब कुछ अच्छा ही चलता रहा है. वहां भी कुछ मूल विषय छिपाए जाते रहे हैं. भारत पर लिखे जाने वाले अपने निबंधों में हमने भी शायद यह कभी उल्लेख नहीं किया होगा कि खेती और उससे जुड़े कामों में हमारे घर-समाज की महिलाओं की भूमिका सबसे अहम रही है. इस नजरिये पर कोई शंका नहीं की जा सकती है कि जिस तरह की भूमिका महिलाओं ने कृषि में निभाई है, उनके बिना खेती के होने और बने रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा?

श्रम का असमान विभाजन और लैंगिक आधार पर अमान्यता

ईयू-एफटीए एेंड द लाइकली इम्पैक्ट आॅन इंडियन विमेन; सेंटर फाॅर ट्रेड एेंड डेवलपमेंट के अनुसार, भारत में कुल कामकाजी महिलाओं में से 84 प्रतिशत महिलाएं कृषि उत्पादन और इससे जुड़े कार्यों से आजीविका अर्जित करती हैं. चाय उत्पादन में लगने वाले श्रम में 47 प्रतिशत, कपास उत्पादन में 48.84 प्रतिशत, तिलहन उत्पादन में 45.43 प्रतिशत और सब्जियों के उत्पादन में 39.13 प्रतिशत का सीधा योगदान महिलाओं का होता है. मानव समाज में श्रम के असमान बंटवारे और उसके भेदभाव मूलक महत्व के निर्धारण के जरिये लैंगिक भेदभाव को स्थापित किया गया है. खेती के घरेलू काम में महिलाएं सबसे ज्यादा श्रम वाला काम करती हैं, किन्तु उनके काम को मान्यता नहीं दी जाती है और उस काम के जरिए किए जाने वाले आर्थिक योगदान को ‘नगण्य’ मान लिया जाता है. रोल आॅफ फार्म विमेन इन एग्रीकल्चर एेंड लेसंस लर्न्ड (सेज पब्लिकेशन) की ओर से समय के उपयोग पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय महिलाएं सप्ताह में 25 घंटे अपने घर के काम के लिए श्रम करती हैं. इसके साथ ही पांच घंटे देखभाल और सामुदायिक काम में लगाती हैं. इसके बाद वे 30 घंटे ‘बिना भुगतान का श्रम’ करती हैं.  

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन चुके भारत देश में अब तक घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के लिए किए गए श्रम और काम को नीतिगत स्तर पर कोई सामाजिक-आर्थिक मान्यता नहीं मिली है. पहले समाज तय करता है कि घर का काम करना स्त्री की जिम्मेदारी है और फिर यह तय भी कर दिया जाता है कि इस काम का कोई ‘मोल’ नहीं होगा. लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि अगर आर्थिक पैमानों पर समाज में महिलाओं के नियमित घरेलू काम का ही आकलन करें तो प्रचलित कुशल मजदूरी की न्यूनतम दर (भारत के राज्यों की औसत मजदूरी) के आधार पर उनके काम का सालाना आर्थिक मूल्य (16.29 लाख करोड़ रुपये) भारत सरकार के सालाना बजट (वर्ष 2013-14 के बजट का संशोधित अनुमान 15.90 लाख करोड़ रुपये था) से अधिक होता है.

यह काम करने वालों के लिए कोई अवकाश नहीं होता है. यह समूह संगठित और असंगठित श्रम की अवधारणाओं से ऊपर है. 16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा? घर में खाना न बनेगा, सफाई न होगी, बच्चों की देखभाल न हो पाएगी, कपड़े धुल न पाएंगे, मेहमाननवाजी न हो पाएगी. इस तर्क को लैंगिक भेदभाव के नजरिये से न भी देखें, तो भी उस भूमिका को मान्यता दी जानी चाहिए. उनके इस योगदान को खारिज करने का मतलब है घरेलू श्रम की उपेक्षा और महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक न्याय के हकों का सुनियोजित उल्लंघन.

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कृषि की मौजूदा स्थिति
21वीं सदी का पहला दशक हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौतियां लाया है. सरकार उस नीति में सफल होती दिखाई दे रही है, जिसे लागू करके वह खेती से लोगों को दूर करना चाहती थी. इस शुरुआती दशक में भारत में कुल कामकाजी जनसंख्या में 8 करोड़ का इजाफा हुआ, किंतु खेती से जुड़े लोगों को आजीविका के अपने संसाधन त्यागने पड़े. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ लोग किसान की श्रेणी में आते थे, यानी कृषि उत्पादन का काम कर रहे थे. वर्ष 2011 में इनकी संख्या में 86.2 लाख की कमी आई. हर रोज 2368 किसानों को खेती का साथ छोड़ना पड़ा. अकेले उत्तर प्रदेश में 31 लाख किसानों ने खेती छोड़ी. पंजाब में 13 लाख, हरियाणा में 5.37 लाख, बिहार में 9.97 लाख, मध्य प्रदेश में 11.93 लाख और आंध्र प्रदेश में 13.68 लाख किसानों ने खेती को त्यागा.
इसका दूसरा पहलू ज्यादा भयावह और दर्दनाक है. इन्हीं दस साल में खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की बढ़ोतरी हुई. महाशक्ति का मुखौटा ओढ़ रहा भारत हर घंटे 430 कृषि मजदूर पैदा करता है. उत्तर प्रदेश में दस साल में कृषि मजदूरों की संख्या में 1.25 करोड़ का इजाफा हुआ. बिहार में 49.27 लाख, आंध्र प्रदेश में 31.35 लाख और मध्य प्रदेश में 47.91 लाख कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है.

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हमारी कुल जनसंख्या को दो भागों में बांटा जाता है- कार्यशील जनसंख्या और अकार्यशील जनसंख्या. जो पूरे समय या अंशकालिक रूप से आर्थिक उत्पादन से जुड़े हैं, वे कार्यशील माने जाते हैं. अकार्यशील जनसंख्या वह मानी गई जिसने किसी तरह का काम नहीं किया. इसमें ये शामिल हैं- विद्यार्थी, भिखारी, आवारा और घरेलू जिम्मेदारी निभाने वाला समूह. जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में कुल 72.89 करोड़ लोगों को अकार्यशील माना गया है. आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक ये वे लोग हैं जिन्होंने संदर्भ समय में कोई और किसी भी तरह का काम नहीं किया है. ये वो लोग हैं जिनके काम या गतिविधि को आर्थिक योगदान करने वाली गतिविधि नहीं माना जाता है. इन 72.89 करोड़ अकार्यशील लोगों में से 16.56 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके जीवन में मुख्य काम ‘घरेलू जिम्मेदारियां’ निभाना रहा है. सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनमें से 15.99 करोड़ यानी 96.50 फीसदी महिलाएं हैं. ताजा जनगणना 2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि मुख्य काम के तौर पर केवल 34.49 लाख पुरुष (3.5 प्रतिशत) ही घरेलू जिम्मेदारियां निभाते हैं. महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियां (खाना, बर्तन, कपड़े धोना, देखभाल, पानी भरना, सफाई आदि) निभाती हैं, पर उन्हें कामगार नहीं माना गया.

महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैं कि हर महिला कामकाजी है, फिर वह चाहे आय अर्जित करने के लिए श्रम करे या फिर परिवार-घर को चलाने-बनाने के लिए. इस हिसाब से मातृत्व हक हर महिला का हक है. माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था. इसका विषय था- परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओं का योगदान. इस अध्ययन में महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं. अगर तात्कालिक सरकारी दर पर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपये प्रतिदिन और महिला को 228 रुपये प्रतिदिन प्राप्त होते. जब इनमें से कुछ कामों की कीमत का आकलन बाजार भाव से किया गया तो पता चला कि लकड़ी, चारे, शहद, पानी और सब्जी लाने के लिए साल भर में परिवार को 34,168 रुपये खर्च करने पड़ते. 

Soya-&-Cotton

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कृषि क्षेत्र में महिलाएं

व्यापक तौर पर समाज में महिलाओं की स्थिति को जांचने के लिए एक महत्वपूर्ण पैमाना है उनकी सहभागिता और उनके योगदान को मान्यता दिया जाना. जब हम कृषि क्षेत्र में लगी जनसंख्या (जो श्रम कर रहे हैं, उनकी संख्या) में महिलाओं की संख्या का आकलन करते हैं, तब पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में आए संकट का उन पर गहरा असर पड़ा है.

किसानी का श्रम करने वालों में महिलाएंः इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि कृषि में महिलाओं की बराबर की भूमिका और योगदान है, पर उन्हें मान्यता नहीं दी जाती है. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ किसान (कृषि उत्पादक) थे. इनमें से 4.19 करोड़ (33 प्रतिशत) महिलाएं थीं. वर्ष 2011 में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में और कमी आई और यह घटकर 3.60 करोड़ (30.3 प्रतिशत) रह गई.

राज्य की स्थिति देखने पर हमें पता चलता है कि खाद्यान्न उत्पादन में नाम कमाने वाले पंजाब में कृषि श्रम करने वालों में केवल 14.6 प्रतिशत महिलाएं थीं. यह संख्या भी दस साल में घटकर 9.36 प्रतिशत रह गई. मध्य प्रदेश में 37.6 प्रतिशत महिलाएं किसान थीं, जो घटकर 33 प्रतिशत रह गईं. बहरहाल इससे हम अंतिम रूप से यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल सकते हैं कि मुख्य काम के रूप में पंजाब में महिलाएं किसानी का काम नहीं कर रही हैं. इसका मतलब यह है कि किसान के रूप में उनकी भूमिका और योगदान को पहचाना नहीं जा रहा है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्च सामाजिक-आर्थिक तबकों में महिलाओं का अस्तित्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा उपेक्षित होता है.

वर्ष 2001 में किसानी का काम करने वालों में सबसे बेहतर स्थिति राजस्थान (46 प्रतिशत महिलाएं) और महाराष्ट्र (43.4 प्रतिशत महिलाएं) की थी. इन दोनों राज्यों में भी महिला किसानों की संख्या में कमी आई है.

खेती छोड़ने वालों में महिलाएं ज्यादाः इन दस सालों में जिन 86.20 लाख किसानों ने खेती छोड़ी, उनमें से 59.10 लाख (68.5 प्रतिशत) महिलाएं थीं. हरियाणा में खेती छोड़ने वाले 5.37 लाख किसानों में से 87.6 प्रतिशत (4.70 लाख) महिलाएं थीं. इसी तरह मध्य प्रदेश में ऐसे 11.93 लाख किसानों में से 75.5 प्रतिशत (9 लाख) महिलाएं थीं.

गुजरात में पुरुष किसानों की संख्या में 3.37 लाख की वृद्धि हुई, किंतु महिला किसानों की संख्या में 6.92 लाख की कमी हो गई. केवल राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां किसानों (महिला-पुरुष) की संख्या में 4.78 लाख की वृद्धि हुई.  झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां 1.14 लाख पुरुषों ने खेती छोड़ी है, किंतु इस काम में 39 हजार महिलाएं जुड़ी हैं.[/symple_box]

कृषि और महिलाएं यानी बेदखली

पूरे भारत में महिलाएं खेती के लिए जमीन तैयार करने, बीज चुनने, अंकुरण संभालने, बुआई करने, खाद बनाने, खरपतवार निकालने, रोपाई, निराई-गुड़ाई, भूसा सूपने और फसल की कटाई का काम करती हैं. वे ऐसे कई काम करती हैं जो सीधे खेत से जुड़े हुए नहीं हैं, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित हैं. मसलन पशुपालन का लगभग पूरा काम उनके जिम्मे होता है. जहां मछली पालन होता है, वहां उनकी भूमिका बहुत अहम होती है. घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और मान्यता नहीं है. इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है. खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से, जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है. बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि जमीन का आधिकारिक मालिक कौन है. इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है.

फरवरी 2014 में जारी हुई कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं. स्वाभाविक है कि इस कारण से ‘कृषि क्षेत्र’ में उनकी निर्णायक भूमिका नहीं है. यह महज एक प्रशासनिक मामला नहीं है कि जमीन केे कागज पर किसका नाम है; वास्तव में यह एक आर्थिक-राजनीतिक विषय है, जिस पर सरकार कानूनी पहल नहीं कर रही है, क्योंकि उसका चरित्र भी तो पितृ-सत्तात्मक ही है.

घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और पहचान नहीं है

समाज जानता है कि पुरुषों की तुलना में खेती महिलाओं के लिए संसाधन से ज्यादा सम्मान, जिम्मेदारी और भावनाओं का केंद्र है. कृषि जनगणना के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 में कृषि जोतों की संख्या 12.92 करोड़ थी. जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर 13.83 करोड़ हो गई, लेकिन कृषि भूमि में तो इजाफा हुआ नहीं. वास्तव में भूमि सुधार न होने और असमान वितरण के बाद अब भूमि अधिग्रहण के कारण जोतों के आकार लगातार छोटे हो रहे हैं. वर्ष 1970-71 में भारत में जोतों का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2010-11 में घटकर 1.15 हेक्टेयर रह गया है. कुल किसानों में से 85.01 प्रतिशत किसान वे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है, जो छोटे और सीमांत किसान कहलाते हैं. ऐसी स्थिति में जरूरी हो जाता है कि समाज उन तकनीकों से खेती करे जिनसे उत्पादन बढ़े, किंतुु मिट्टी और उसकी उर्वरता को नुकसान न पहुंचे. हरित क्रांति के जरिए थोपी गई तकनीकों, बीजों, रसायनों के कारण छोटी जोतों पर खेती करना नुकसानदायक ‘कर्म’ होता गया. जरा सोचिए कि जब 85 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले हों, तब क्या खेती को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जाना उचित और नैतिक है?

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तथ्यों में झांकने से पता चलता है कि विकास की मौजूदा नीति न केवल कृषि क्षेत्र के लिए घातक है, बल्कि इससे पैदा होने वाले अभावों और असुरक्षा के चलते लैंगिक भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाएगी (देखें बॉक्स). गैर-बराबरी को बढ़ाना विकास के मौजूदा दृष्टिकोण का मूल चरित्र है.

भारत में आज भी सभी महिलाओं को मातृत्व, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार मयस्सर नहीं है. कृषि क्षेत्र (किसान और कृषि मजदूर दोनों ही संदर्भों में) में काम करने वाली महिलाओं के सामने एक तरफ तो सूखा, बाढ़, नकली बीज-उर्वरक-कीटनाशक-फसल के मूल्य का अन्यायोचित निर्धारण सरीखे संकट हैं ही इसके साथ ही उन्हें हिंसा-भेदभाव से मुक्ति और मातृत्व हक जैसे बुनियादी संरक्षण नहीं मिले हैं. वास्तव में हमें अपने विकास की धारा का ईमानदार आकलन करने की जरूरत है. बेहतर होगा कि यह आकलन लैंगिक बाल केंद्रित दृष्टिकोण से किया जाए. हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता चाहते हैं किंतु अपने किसानों की सुरक्षा तो कर नहीं पा रहे हैं. इससे आप अंदाजा लगा लें कि जिन सालों में देश की वृद्धि दर सबसे उल्लेखनीय मानी गई, उन सालों में समाज को क्या हासिल हो रहा था.