सीएए के खिलाफ केरल के बाद पंजाब विधानसभा में प्रस्ताव पेश
भीम आर्मी प्रमुख रिहा होने के बाद फिर जुमा को पहुंचे जामा मस्जिद
अजीबोगरीब : मां लक्ष्मी की तस्वीर से सुधरेगी रुपये की स्थिति : स्वामी
अपने बयानों को लेकर अक्सर चर्चा में रहने वाले भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने एकबार फिर अजीबोगरीब बयान दिया है। एक ओर जहां भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आए दिन नकारात्मक आंकड़े सामने आ रहे हैं। पिछले 11 साल में जीडीपी विकास सबसे निचले स्तर पर है। वहीं, दूसरी ओर बेहतर कदम उठाए जाने की बजाय सुझाव दर सुझाव मिल रहे हैं। जहां पहले वित्त मंत्रालय पर सवाल उठाए तो अब देश की मुद्रा यानी रुपये के गिरते स्तर को ऊपर उठाने के लिए मां लक्ष्मी की तस्वीर छापने की बात कह डाली है।
दरअसल, राज्यसभा सांसद से डॉलर के मुकाबले गिरते रुपये के हालात जानना चाहा था कि इसमें कैसे सुधार हो सकता है, इसी सवाल के जवाब में उन्होंने लक्ष्मी माता की तस्वीर छापने की वकालत की। इतना ही नहीं, इस दौरान उन्होंने इंडोनेशिया की करेंसी में छपी हुई भगवान गणेश की तस्वीर का भी जिक्र किया। तस्वीर छापने के सवाल पर सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि इस पर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही जवाब दे सकते हैं। मैं यही चाहता हूं। मेरी मानें तो भगवान गणेश बाधाओं को दूर करते हैं।
धारा 370 को निरस्त करना एक ऐतिहासिक कदम : सेना प्रमुख एमएम नरवणे
सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवने ने बुधवार को कहा कि धारा 370 का उन्मूलन एक ऐतिहासिक कदम है और यह जम्मू-कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ेगा।
72 वें सेना दिवस पर बोलते हुए, जनरल एमएम नरवने ने कहा, “धारा 370 का उन्मूलन एक ऐतिहासिक कदम है जो जम्मू और कश्मीर को मुख्यधारा के भारत के साथ एकीकृत करने में मदद करेगा। इस कदम ने हमारे पश्चिमी पड़ोसी द्वारा छद्म युद्ध को बाधित किया है। ”
इससे पहले दिन में, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत, चीफ ऑफ नेवल स्टाफ एडम करमबीर सिंह, चीफ ऑफ एयर स्टाफ एसीएम आरकेएस भदौरिया और आर्मी चीफ जनरल एमएम नरवणे ने नेशनल वॉर मेमोरियल पर शहीदों को पुष्पांजलि अर्पित की।
सेना दिवस हर साल 15 जनवरी को मनाया जाता है, क्योंकि यह दिन था जब 1949 में भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ के रूप में प्रथम भारतीय जनरल – जनरल कोडंडेरा एम करियप्पा ने पदभार संभाला था।
राष्ट्रपति कोविंद ने 72 वें सेना दिवस पर शुभकामनाएं दी
भारत ने बुधवार को अपना 72 वां सेना दिवस मनाया, राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा, “सेना दिवस पर, भारतीय सेना के बहादुर पुरुषों और महिलाओं को, दिग्गजों और उनके परिवारों को शुभकामनाएं। आप हमारे राष्ट्र के गौरव हैं, हमारी स्वतंत्रता के प्रहरी हैं। आपके असीम बलिदान ने हमारी संप्रभुता को सुरक्षित किया है, हमारे देश में गौरव बढ़ाया है और हमारे लोगों की रक्षा की है। जय हिन्द!”
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ट्वीट किया, ” सेना दिवस पर आज, मैं सभी बहादुर भारतीय सेना के जवानों को सलाम करता हूं और गर्व के साथ उनकी अदम्य भावना, वीरता और बलिदान को भारत को एक सुरक्षित स्थान बनाने के लिए याद करता हूं।#ArmyDay2020″
सभी भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस और धैर्य को सलाम करते हुए केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, “आइए हम एक साथ आएं और भारतीय सेना को राष्ट्र के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवा के लिए अपना आभार व्यक्त करें और उन सभी लोगों का सम्मान करें जिन्होंने हमारे लिए अपना बलिदान दिया।”
सेना दिवस हर साल 15 जनवरी को मनाया जाता है, क्योंकि यह दिन था जब 1949 में भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ के रूप में प्रथम भारतीय जनरल – जनरल कोडंडेरा एम करियप्पा ने पदभार संभाला था।
सेना दिवस उन बहादुर सैनिकों को सलाम करने के लिए एक दिन है, जिन्होंने देश और इसके नागरिकों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।
भय पैदा करते डिटेंशन सेंटर्स
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) में अपडेट को पिछले साल के आिखर में मोदी सरकार ने हरी झंडी दिखा दी, जिससे पहले से ही नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर देश भर में मच रहे बवाल के बीच हिरासत केन्द्र (डिटेंशन सेंटर्स) को लेकर विवाद छिड़ गया है। राज्यसभा में नवंबर 2019 में गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने असम के डिटेंशन सेंटर्स में 28 लोगों की मौत होने की बात स्वीकार की थी।
इसकी शुरुआत हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक कार्यक्रम में बयान से कि देश में ऐसा कोई हिरासत केन्द्र है ही नहीं। विपक्ष सीएए, एनपीआर और एनआरसी के बहाने यह सन्देश देने की कोशिश कर रहा है कि नागरिकता का पेच फँसने पर लोगों को इन डिटेंशन सेंटर्स में रहने को मजबूर होना पड़ेगा। आन्दोलन को लेकर पहले ही दबाव में दिख रही मोदी सरकार को सफाई देनी पड़ी कि डिटेंशन सेंटर्स की योजना तो यूपीए सरकार के समय ही बन गयी थी।
दरअसल, डिटेंशन सेंटर्स को लेकर भय सरकार के बयानों से ही खड़ा हुआ। जितने नेता, उतनी बातें। देश में डिटेंशन सेंटर्स की बात सामने आने पर भय का जो वातावरण बना, तो एनआरसी को लेकर उन लोगों का भय दोगुना हो गया, जो असम के अनुभव के बाद देश के दूसरे हिस्सों में फैल गया। अब दस्तावेज़ जुटाने को लेकर लोग चिन्तित हैं। हालाँकि, लोगों के कड़े विरोध और विदेशों में भारत सरकार की निंदा के बाद एनडीए सरकार एनआरसी मामले में सुस्त पड़ी है, लेकिन डिटेंशन सेंटर्स बन रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा था- ‘देश में नहीं कोई डिटेंशन सेंटर’
गत 22 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में कहा था कि देश में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है, यह झूठ कांग्रेस और विपक्ष की दूसरी पार्टियाँ फैला रही हैं, ताकि लोगों के मन में भय पैदा किया जा सके। लेकिन इसके बाद गृह मंत्री का एक बयान आया, जिसमें डिटेंशन सेंटर्स होने की बात की गयी। इससे इतना भ्रम फैला कि एक मौके पर सरकार को रक्षात्मक होना पड़ा।
बाद में सरकार की तरफ से कमोवेश हर मंत्री ने यह लाइन पकड़ ली कि डिटेंशन सेंटर्स को तत्कालीन मनमोहन सरकार ही प्रस्तावित कर गये थे। यानी मोदी सरकार ने डिटेंशन सेंटर्स को लेकर उठे विवाद से पल्ला झाडऩा चाहा। इससे सरकार की स्थिति ही खराब हुई। कई मंत्रियों को मोर्चे पर झोंकने के बावजूद देश में डिटेंशन सेंटर्स को लेकर अब चर्चा बड़ा रूप ले चुकी है।
पुलिस कार्रवाई पर दी सफाई
पहले से ही एनआरसी, एनपीआर और सीएए को लेकर सरकार की स्थिति सफाई देने वाली हो चुकी है। यूपी, दिल्ली से लेकर असम तक आज भी विरोध-प्रदर्शन जारी हैं। यूपी और अन्य हिस्सों विरोध-प्रदर्शनों के दौरान 25 से ज़्यादा लोगों की जान चली गयी। यूपी पुलिस तो सफाई देती रही कि पुलिस की गोलियों से कोई नहीं मरा। बाद में कुछ तथ्य सामने आये, तो पुलिस प्रशासन ने बड़ी झिझक के साथ एकाध मामले में पुलिस की गोली से किसी के मरने की बात स्वीकारी।
सरकार भले हाल के विरोध-प्रदर्शनों को आसामाजिक तत्त्वों का काम और विपक्ष के हिंसा को उकसाने के अलावा इसमें विदेशी हाथ की बात कह रही हो, सच यह कि इन विरोध-प्रदर्शनों को समाज के हर वर्ग का समर्थन मिला है, जिससे मोदी सरकार के भीतर चिन्ता बढ़ी है।
लोगों में बढ़ी चिन्ता और घबराहट
इन सब परिस्थितियों में डिटेंशन सेंटर्स के मुद्दे ने देश में एनआरसी को लेकर बड़ी चिन्ता पैदा कर दी है। देश में रह रहे भारतीयों में से अधिकतर लोगों में, खासकर ग्रामीणों, आदिवासियों, बेघरों और खानाबदोशों में इस बात को लेकर घबराहट है कि अगर उन्हें यह साबित करना पड़ा कि वे भारतीय हैं, तो उनके सामने पुराने दस्तावेज़ जुटाने की समस्या शत्-प्रतिशत आयेगी। अनेक लोग ऐसे हैं, जिन्हें यह तक नहीं पता कि उनके दादा या परदादा का नाम क्या था? वहीं एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित लोगों के पास भी पुराने दस्तावेज़ नहीं मिलेंगे। ऐसे में वे भारतीय होते हुए भी विदेशी साबित कर दिये जाएँगे और उन्हें हिरासत में लेकर डिटेंशन सेंटर्स में भर दिया जाएगा। देश में लाखों की संख्या में ऐसे मज़दूर हैं, जो कभी एक जगह काम नहीं करते। इन्हें घुमंतू मज़दूर कह सकते हैं। अर्थात् जहाँ काम मिला, वहीं डेरा जमा लिया। इनके पास तो न आधार कार्ड हैं, न राशन कार्ड, न बिजली या गैस के बिल या कनेक्शन। इसके अलावा दूरदराज के इलाकों में लाखों लोग हैं जिनके पास दस्तावेज नहीं। देश में अभी तक 100 प्रतिशत लोगों के आधार कार्ड भी नहीं बने हैं। मुस्लिम समुदाय की ही बात की जाये तो देश में उनकी संख्या करीब 20 करोड़ है। इनमें से सिर्फ 10 प्रतिशत भी एनआरसी के पेच में उलझ जाएँ (या उलझा दिए जाएँ), तो अकेले यह संख्या ही दो करोड़ हो जाएगी। दूसरे समुदाओं को भी इसमें जोड़ लिया जाये तो देश में डिटेंशन सेंटर्स के निर्माण के लिए ही बाकायदा अलग बजट का प्रावधान करना पड़ेगा। नहीं भूलना चाहिए कि असम में बड़ी संख्या हिन्दू भी एनआरसी के पेच में फँस चुके हैं और दस्तावेज़ जुटाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। इसके अलावा गाँवों में ऐसे असंख्य लोग हैं, जिनके मकानों के पंजीकरण के कागज़ात हैं ही नहीं। इनमें से बहुत से मकान पुश्तैनी हैं। दूसरे इस सारी कवायद से दुनिया में भारत की एक सभ्य देश के रूप में पहचान को बहुत बड़ा धक्का लगने का भी बड़ा खतरा पैदा हो रहा है।
सरकार को करना पड़ा बड़े आन्दोलन का सामना
पिछले करीब साढ़े पाँच साल के शासन में यह पहला अवसर है, जब मोदी सरकार का किसी बड़े आन्दोलन से सामना हुआ है। विपक्ष ने यह भी आरोप लगाये कि हिंसा के पीछे सरकार के प्रायोजित लोगों का हाथ था, ताकि आन्दोलन को बदनाम किया जा सके और उसकी धार कुन्द की जा सके। भले सरकार आन्दोलन में हिंसा के लिए प्रदर्शनकारियों और विपक्ष को •िाम्मेदार ठहरा रही हो। अब जो माहौल बना है, उसमें लोगों में एनआरसी के बाद के हालात को लेकर चिन्ता पैदा हो रही है। भले अभी तक एनआरसी को मंत्रिमंडल में नहीं लाया गया और यह भी साफ नहीं है कि सरकार कब तक इससे जुड़ा बिल संसद में लाएगी? लेकिन सरकार के मंत्री जिस तरह यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि एनआरसी आएगा ही, उससे लोगों में भय का माहौल बन गया है। उन्हें लग रहा है कि कहीं वे दस्तावेज़ नहीं जुटा पाये, तो डिटेंशन सेंटर्स में रहने की नौबत न आ जाए।
पुराने रिकॉर्ड खँगालने में लगे लोग
सच यह है कि देश भर में लोग अभी से अपने पुराने रिकॉर्ड और दस्तावेज़ खँगालने लगे हैं। वे चाहते हैं कि समय रहते दस्तावेज़ जुटा लिये जाएँ। ऐसे लाखों लोग हैं, जो दस्तावेज़ों को लेकर आशंकित हैं कि जुटा भी पाएँगे या नहीं। इनमें सभी धर्मों और समुदायों के लोग हैं। इस मामले में लोग अब दस्तावेज़ जारी करने वाले अफसरों की ओर लाचारी से देख रहे हैं। बता दें कि दस्तावेज़ इकट्ठा करने के मामले में माना जा रहा कि रिश्वत का खेल शुरू हो गया है। हालाँकि इस तरह के आरोप तब तक पुख्ता नहीं माने जा सकते, जब तक किसी पर आरोप सिद्ध न हो जाए।
डिटेंशन सेंटर का हो रहा निर्माण
डिटेंशन सेंटर्स को लेकर सरकार का बयान निश्चित ही गलत है; क्योंकि असम में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बहुत बड़े स्तर पर विरोध हुआ है। वहाँ के गोलपारा के मटिया में डिटेंशन सेंटर्स का तेज़ गति से निर्माण चल रहा है। इसका निर्माण भाजपा सरकार के ही समय 2018 में शुरू हुआ लिहाज़ा इससे मोदी सरकार की नीयत पर सवाल उठाये जा रहे हैं। तहलका संवाददाता ने जो जानकारी जुटायी उसके मुताबिक, मटिया डिटेंशन सेंटर का करीब 70 फीसदी हिस्सा बनकर तैयार हो चुका है।
छोटा-मोटा नहीं होगा डिटेंशन सेंटर
डिटेंशन सेंटर कोई छोटा-मोटा भवन नहीं होगा। इसमें करीब 15 इमारतें होंगी और हरेक इमारत चार-चार मंजिला बनायी जाएंगी। वैसे तो इसे पिछले साल के आिखर तक पूरा किया जाना था, लेकिन अब यह 2020 के मध्य या आिखर तक ही बनकर तैयार हो पाएगा। कारण पिछली बरसात में वहाँ जल भराव हो गया था, जिसके चलते काम रुका था।
बहुत खराब होती है डिटेंशन सेंटर की हालत
अगर हम दुनिया के डिटेंशन सेंटर्स की बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि उनमें से ज़्यादातर की हालत बहुत खराब होती है और वहाँ सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं होता। हालाँकि, गोवालपारा के डिटेंशन सेंटर में स्कूल और अस्पताल के लिए भवन का अलग से इंतज़ाम करने की बात कही जा रही है। जो भवन वहाँ बन रहा है, उसकी 15 में से तीन इमारतें महिलाओं के लिए बन रही हैं।
यह भी सच कि राज्यों में कई बार ऐसे विदेशी पकड़े जाते हैं, जिनकी रहने की अवधि या तो खत्म हो चुकी होती है या वे बिना वैध दस्तावेज़ों के कारण वहाँ रह रहे होते हैं। कायदे से उनके रहने के लिए अलग सेंटर्स होने चाहिए; लेकिन उन्हें इसकी अनुपस्थिति में जेलों में रखा जाता है। पहले पुलिस थानों में जिन जगहों को डिटेंशन सेंटर्स में तब्दील किया गया, उनकी हालत अब बेहद खराब मानी जाती है। यह भी सामने आया है कि यह इंसानों के रहने लायक ही नहीं।
सरकार के पास है अधिकार
सरकार के पास द फॉरेनर्स एक्ट के सेक्शन 3(2)(सी) के तहत यह अधिकार है कि वह किसी भी ऐसी व्यक्ति, जो देश का नागरिक नहीं है या जिसके पास पूछताछ के वक्त वैध दस्तावेज़ नहीं हैं, उसे देश से बाहर भेज सकती है। जब तक उसे देश से बाहर नहीं भेजा जाता, उसे उस प्रक्रिया के दौरान डिटेंशन सेंटर्स में ही रखा जाता है। जेल में ही डिटेंशन सेंटर्स बनाने की शुरुआत भी असम से ही हुई, जब 2009 में केन्द्र में यूपीए की सरकार दूसरी बार सत्ता में आयी थी। घुसपैठियों की संख्या आदि से जुड़े एक मामले में तब सरकार को न्यायालय में हलफनामा दािखल करना था। हलफनामा दािखल करते वक्त महसूस किया कि इन घुसपैठियों को लेकर कोर्ट में दी जा रही जानकारी कहीं गलत न हो जाए, घुसपैठियों को किसी सुरक्षित जगह पर रखना होगा। इसके बाद जेल में ही हिरासत केन्द्र बनाने की बात हुई।
असम में बन रहा है सातवाँ डिटेंशन सेंटर
दस्तावेज़ों की छानबीन से ज़ाहिर होता है कि इस तरह के डिटेंशन सेंटर्स असम के छ: ज़िलों में हैं। इनमें गोलपारा, कोकराझार, सिल्चर, डिब्रूगढ़, जोरहाट और तेजपुर शामिल हैं; जबकि नया सेंटर मटिया में बन रहा है। यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि इस सेंटर का निर्माण सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद हो रहा है और सर्वोच्च अदालत का साफ निर्देश है कि इन सेंटर्स में आम सहूलियत की सभी सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जाएँ। माना जा रहा है कि अभी और भी डिटेंशन सेंटर्स बनाये जाएँगे।
डिटेंशन सेंटर्स बनाने में खर्च होगा मोटा बजट
भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी अवैध रूप से लोग आते हैं। सच यह है कि यह अब वैश्विक विषय बन गया है। अमेरिका के पिछले चुनाव में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तो मेक्सिको-अमेरिका बॉर्डर पर घुसपैठ रोकने के दीवार बनाने का वादा कर सत्ता में आये थे। एक अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में करीब 1.10 करोड़ ऐसे अवैध नागरिक (शरणार्थी) हैं।
लेकिन यह भी सच है कि डिटेंशन सेंटर्स बनाना और उन पर खर्च करना बहुत महँगा पड़ता है। भारत की ही बात करें, तो जैसी बड़ी संख्या यहाँ इस तरह के अवैध निवासियों की बतायी जाती है, उसके हिसाब से यदि डिटेंशन सेंटर्स बनाने पड़ें, तो उससे तो देश के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा इनके निर्माण में ही खप जाएगा।
असम के मटिया में निर्माणाधीन डिटेंशन सेंटर्स पर करीब 47 करोड़ का खर्च आयेगा, जो निर्माण के पूरा होने तक बढ़ भी सकता है। इसकी कुल 15 इमारतों में महिलाओं समेत करीब 2950 लोगों (अवैध नागरिकों, घुसपैठियों) को रखा जा सकेगा। इसके अलावा उसमें अधिकारियों, कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों के लिए भी इमारत होगी। इसे बनाने के लिए करीब 28,700 वर्ग फुट ज़मीन का इस्तेमाल किया जा रहा है। राजधानी गुवाहाटी से यह करीब सवा सौ किलोमीटर दूर है। इसे बनाया भी आबादी से दूर जा रहा है। इसे सही मायने में देश का पहला शुद्ध डिटेंशन सेंटर्स कहा जाएगा; क्योंकि अभी तक अवैध लोगों को जेलों में बनाये गये डिटेंशन सेंटर्स में ही रखा जाता था। असम में ही जेलों में चल रहे डिटेंशन सेंटर्स एक-दो नहीं हैं। असम के मटिया में महज 2950 लोगों के लिए बन रहे डिटेंशन सेंटर के निर्माण का खर्चा ही 47 करोड़ के आसपास बैठ रहा है यानी प्रति व्यक्ति करीब 1.75 लाख रुपये का खर्चा। यदि जो 19 लाख सूची से बाहर हुए हैं, उनके लिए ही कहीं डिटेंशन सेंटर्स बनाने पड़े, तो उसके लिए इस हिसाब से 25,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए बड़े पैमाने पर अतिरिक्त स्टाफ की ज़रूरत पड़ेगी। यदि 2950 लोगों के लिए 28,000 वर्ग फीट ज़मीन इस्तेमाल हो रही है, तो 19 लाख या फिर एनआरसी आने के बाद सूची से बाहर रहने वालों के लिए कितनी ज़मीन की ज़रूरत पड़ेगी, समझना मुश्किल नहीं। इसके लिए हज़ारों डिटेंशन सेंटर्स की ज़रूरत पड़ेगी। जिस देश का दुनिया में हंगर इंडेक्स में 117 देशों में 102वाँ नम्बर हो, उसके लिए इतना पैसा डिटेंशन सेंटर पर बर्बाद कर देना कितना उचित होगा, यह एक बड़ा सवाल है।
सेंटर बनाने में लगेगा लम्बा समय
एक अनुमान के मुताबिक, एनपीआर तैयार करने में कोई तीन साल का वक्त लगेगा और इसे तीन चरणों में पूरा किया जाएगा। पहला चरण पहली अप्रैल, 2020 से होगा और 30 सितंबर तक केन्द्र और राज्य सरकार के कर्मचारी घर-घर जाकर जनसंख्या के आँकड़े जुटाएँगे। एनपीआर का दूसरा चरण अगले साल 9 फरवरी से 28 फरवरी के बीच होना है, जबकि तीसरा चरण पहली मार्च से 5 मार्च के बीच। इसमें अपडेट की प्रक्रिया की जाएगी।
क्या कहते हैं सरकारी आँकड़े?
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, असम में 1985 से लेकर पिछले साल अक्टूबर तक 1.29 लाख लोगों को विदेशी घोषित किया गया है। दिलचस्प यह है कि इनमें करीब 72 हज़ार लोगों की कोई जानकारी ही नहीं है कि वे कहाँ हैं? असम की एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख लोगों को विदेशी बताया गया है। इनमें सबसे अधिक हिन्दू हैं।
पहले भी हुई कोशिश
डिटेंशन सेंटर्स को लेकर पहले भी कोशिशें हुई हैं। भारत में 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तब राज्यों को एक पत्र लिखा गया था। इस पत्र में कहा गया था कि ऐसे विदेशी नागरिकों, जिनकी हिरासत की अवधि पूरी हो चुकी है, उनकी गतिविधियाँ सीमित की जाएँ। जब यूपीए की सरकार दूसरी बार बनी तो राज्यों के लिए एक एडवाइजरी जारी की गयी, जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेश के अवैध शरणार्थियों को डिपोर्ट करने (वापस भेजने) के लिए सम्पूर्ण विवरण वाली प्रक्रिया अपनायी जाए।
मनमोहन सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में बाकायदा पत्र लिखकर राज्यों से इतने डिटेंशन सेंटर्स बनाने को कहा था, जिनमें ऐसे तमाम लोगों को वापस भेजने तक रखा जा सके, जो अवैध माने गये हैं या जिनकी जाँच प्रक्रिया चल रही है। ऐसे ही पत्र बाद में मनमोहन सरकार के समय में 2012 और मोदी सरकार में 2014 और 2018 में राज्यों को लिखे गये।
डिटेंशन के नाम पर लोगों को डराया जा रहा है। इसको लेकर देश भर में जो खबरें चल रही हैं, वे गलत हैं। डिटेंशन सेंटर्स की अफवाहें हैं। यह झूठ है! झूठ है!! झूठ है!!!
नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री
डिटेंशन सेंटर्स एक सतत प्रक्रिया है। यदि एक नागरिक पकड़ा जाता है, तो उसे डिटेंशन सेंटर में रखते हैं।
अमित शाह
गृह मंत्री
क्या आप लोगों ने प्रधानमंत्री का भाषण सुना है? क्या आपने डिटेंशन सेंटर्स का वीडियो देखा है? ‘आरएसएस के प्रधानमंत्री’ भारत माता से झूठ बोलते हैं।
राहुल गाँधी
कांग्रेस नेता
मैं अपनी जान देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन भाजपा को बंगाल में डिटेंशन सेंटर्स नहीं बनाने दूँगी। कभी नहीं!
ममता बनर्जी
मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल
क्या होगा एनपीआर के तहत?
मोदी सरकार ने पिछले साल के आिखर में जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की घोषणा की, तो देश में एनआरसी को लेकर नई बहस छिड़ गयी। इससे लोगों को यह लगने लगा है कि सरकार अब एनआरसी लाएगी ही। एनपीआर के तहत पहली अप्रैल से 30 सितंबर, 2020 तक नागरिकों का डेटाबेस तैयार करने की तैयारी सरकार कर चुकी है। इसमें देश भर में घर-घर जाकर जनगणना के फॉर्म भरे जाएँगे। हालाँकि यह फॉर्म पिछली जनगणना के थोड़े भिन्न हैं और इन्हें अलग फॉर्मेट के तहत लाया जा रहा है। सरकार का कहना है कि देश के सामान्य निवासियों की व्यापक पहचान का डेटाबेस बनाना एनपीआर का मुख्य उद्देश्य है। इस डाटा में जनसांख्यिकी के साथ बायोमैट्रिक जानकारी भी होगी।
माँगी जाएगी यह जानकारी
एनपीआर के तहत अप्रैल से इसकी कवायद शुरू हो रही है। एनपीआर में नाम दर्ज करवाने के लिए इसमें निम्न जानकारी की ज़रूरत पड़ेगी- व्यक्ति का नाम, लिंग, परिवार के मुखिया से सम्बन्ध, पिता का नाम, माता का नाम, पति/पत्नी का नाम, जन्म तिथि, वैवाहिक स्थिति, जन्म स्थान, नागरिकता, वर्तमान पता, पते पर रहने की अवधि, स्थायी पता, व्यवसाय और शैक्षणिक योग्यता।
बजट मंज़ूर कर चुकी है केन्द्र सरकार
केन्द्र सरकार पहले ही जनगणना 2021 के लिए करीब 8,754.23 करोड़ रुपये की राशि और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट करने के लिए भारी भरकम 3,941.35 करोड़ रुपये की राशि को मंज़ूरी दे चुकी है।
भारतीयों की पहचान के लिए है एनपीआर
एनपीआर का जो खाँचा सरकार ने देश के सामने रखा है उसके मुताबिक, एनपीआर और एनआरसी में अन्तर यह है कि एनआरसी देश में अवैध नागरिकों की पहचान के लिए है। जबकि छ: महीने या उससे अधिक समय से स्थानीय क्षेत्र में रहने वाले किसी भी निवासी को एनपीआर में अनिवार्य रूप से खुद को पंजीकृत कराना होगा। कोर्ई भी व्यक्ति देश के किसी हिस्से में छ: महीने से रह रहा है, तो उसे उसी जगह एनपीआर में अपनी जानकारी दर्ज करानी होगी। विपक्ष का आरोप है कि एनपीआर में यदि सरकारी कर्मचारी ‘संतुष्ट नहीं’ टिप्पणी कर देता है, तो एनआरसी के वक्त उस व्यक्ति के लिए दिक्कतें बढ़ेंगी और दस्तावेज़ का पूरा पुलिंदा उसे तैयार करना होगा। आरोपों के बाद सरकार ने कहा कि एनपीआर की पहल तो 2010 में यूपीए सरकार के ही समय ही हो गयी थी। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 2011 में जनगणना के पहले इस पर काम शुरू हुआ था। अब फिर 2021 में जनगणना होनी है, लिहाज़ा एनपीआर पर काम शुरू किया जा रहा है। अब तो पासपोर्ट बनाने को लेकर भी लोगों की तरफ से दिक्कतें झेलने की शिकायतें आने लगी हैं।
सुलगते सवाल?
उन लोगों को सरकार किस देश में भेजेगी, जो भारतीय नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाएँगे?
क्या सरकार डिटेंशन सेंटर्स में रहने वालों के लिए मूलभूत सुविधाएँ, जैसे मतदान का अधिकार, जीने के लिए ज़रूरी सुविधाएँ, उनके बच्चों को शिक्षा अधिकार, नौकरी का अधिकार, अपनी बात रखने का अधिकार देगी?
देश में बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो भारतीय मूल के ही हैं, परन्तु उनके पास पूर्व के प्रमाण या तो थे ही नहीं या गुम हो चुके, उनका सरकार क्या करेगी?
वे लोग, जो खानाबदोश हैं, आदिवासी हैं, बेघर हैं, उनका क्या होगा? क्या सरकार उनको विदेशी मानकर बनाये जा रहे डिटेंशन सेंटर्स में बन्द कर देगी?
ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक लोगों के पास घर तो हैं, पर खेती की ज़मीन नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं कि सदियों से बसे गाँवों में घरों की कोई रजिस्ट्री नहीं होती। ऐसे में क्या इस तरह के लोग, जिन्हें गरीब कहा जाता है; विदेशी मान लिए जाएँगे?
एक राज्य से दूसरे राज्य में बस चुके लोग, जिनका अब गाँवों या अपने पैदाइशी स्थानों पर कोई रिकॉर्ड नहीं है, उन लोगों को क्या विदेशी घोषित कर दिया जाएगा?
क्या तीन देशों- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आये छ: धर्मों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने से देश पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ेगा?
क्या भारत सरकार चीन में सताये गये हिन्दुओं, नेपाल के हिन्दुओं, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों में बसे इन छ: धर्मों के लोगों को भी भारतीय नागरिकता देगी?
क्या सरकार भारत में अवैध रूप से रह रहे नाइजिरियन्स को, अफ्रीकियों को और अन्य देशों के लोगों को बाहर करने के लिए कोई उपाय कर रही है?
क्या सरकार उन लोगों को भी डिटेंशन सेंटर्स में डालेगी, जो कई-कई पहचान प्रमाण-पत्र बनाकर देश में रह रहे हैं?
क्या सरकार उन लोगों को भी विदेशी घोषित करेगी, जो फर्ज़ी पहचान बनाकर देश में रह रहे हैं?
कुछ राज्य की जेलों में हैं विदेशी
दूसरे प्रदेशों में भी जब कोई विदेशी अवैध रूप से रह रहा पकड़ा जाता है, तो उसे भी वहाँ जेल में ही अस्थायी रूप से बनाये गये डिटेंशन सेंटर्स में रखा जाता है। वैसे पिछले साल जनवरी में केन्द्र ने राज्यों को एक ‘मॉडल डिटेंशन सेंटर्स मैनुअल’ भेजा था, जिसमें जेल और डिटेंशन सेंटर्स में अन्तर को बताया, ताकि राज्य इसे फॉलो करें। लेकिन तहलका संवाददाता ने जो जानकारी जुटायी उसके मुताबिक, राज्य नाममात्र को ही इस पर काम कर रहे हैं या उन्होंने ऐसे सेंटर्स बनाने से ही मना कर दिया। देश के विभिन्न राज्यों में जेलों में ऐसे लोग हैं, जो अवैध रूप से भारत में रहते हुए पकड़े गये। असम के अलावा भाजपा शासित कर्नाटक के राज्य मुख्यालय बेंगलूरु की आबादी से थोड़ा हटकर नेलामंगला में छोटा डिटेंशन सेंटर इस साल बनकर तैयार होगा। वहीं महाराष्ट्र के नवी मुम्बई में भी ऐसा ही एक डिटेंशन सेंटर बनाने का प्रस्ताव था। हालाँकि वहाँ सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस और एनसीपी विरोध कर सकते हैं। डिटेंशन सेंटर्स बनाने का सबसे मुखर विरोध पश्चिम बंगाल से हुआ है, जहाँ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐसे सेंटर्स बनाने से साफ मना कर दिया है। वहाँ पश्चिम बंगाल ने दो स्थानों पर डिटेंशन सेंटर्स बनाने का प्रस्ताव दिया था मगर सीएम ममता बनर्जी ने राज्य में ऐसा कुछ करने से मना कर दिया है। केरल की वामपंथी सरकार भी डिटेंशन सेंटर्स योजना को ठंडे वास्ते में डाले हुए है। भाजपा शासित गोवा में भी मापुसा नामक जगह में एक डिटेंशन सेंटर पिछले साल फरवरी में बनाया गया। इसके अलावा राजधानी दिल्ली के लामपुर में एक डिटेंशन सेंटर फॉरेनर्स रीजनल रजिस्ट्रेशन ऑफिस के तहत काम करता है, जबकि राजस्थान की अलवर सेंट्रल जेल में भी ऐसा सेंटर विकसित गया है। दिलचस्प है कि पाकिस्तान सीमा से सटे पंजाब में ऐसा कोर्ई डिटेंशन सेंटर नहीं है। वहाँ अवैध रूप से रहते हुए पकड़े गये विदेशियों को अमृतसर सेंट्रल जेल में ही रखा जाता है।
मौत की राजनीति
पहले उत्तर प्रदेश में इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से पीडि़त 63 बच्चों की तब मौत हो गयी, जब वहाँ पेमेंट न मिलने के कारण सप्लायर ने ऑक्सीजन की आपूर्ति रोक दी थी। फिर यह 2019 में बिहार में हुआ, जहाँ एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम से 150 से अधिक बच्चों की मौत हुई। अभी राजस्थान के कोटा और जोधपुर में कथित चिकित्सीय लापरवाही के कारण 250 से ज़्यादा बच्चों की मौत के शोक से हम उबर भी नहीं सके थे कि गुजरात के राजकोट में सरकारी अस्पताल में भी केवल दिसंबर माह में सैकड़ों बच्चों की मौत की खबर आ गयी। राज्यों में ऐसी घटनाओं ने हमें शर्मसार किया है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने राजस्थान सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। एनसीपीसीआर की चेयरपर्सन, प्रियंक कानूनगो ने टिप्पणी की कि ‘सूअर अस्पताल के परिसर के भीतर घूमते पाये गये, जबकि बीमार बच्चे मौसम की दया पर निर्भर थे।’ ऐसे आरोप हैं कि कोटा के अस्पताल में 19 में से 13 वेंटिलेटर सहित महत्त्वपूर्ण चिकित्सा उपकरण काम नहीं कर रहे थे। यही नहीं अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञों और नर्सों की कमी थी। वहीं गुजरात में डॉक्टर अपना पल्ला झाडऩे की कोशिश कर रहे हैं और भाजपा नेता खामोश हैं।
दुर्भाग्य से राजनीतिक आरोपबाज़ी का खेल शुरू हो गया है; लेकिन हमेशा की तरह समस्या समाधान पर किसी का कोई ध्यान नहीं है। राजस्थान मामले में भाजपा संसदीय प्रतिनिधिमंडल के तीन सदस्यीय दल ने प्रशासनिक लापरवाही, चरमराते बुनियादी ढाँचे, गंदगी के माहौल और चिकित्सा क्षेत्र में उदासीनता को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट करके कांग्रेस अध्यक्ष पर असंवेदनशीलता का आरोप लगाया। आदित्यनाथ ने लिखा- ‘कोटा के अस्पताल में 100 बच्चों की मौत बहुत दु:खद है। यह दु:खद है कि कांग्रेस प्रमुख सोनिया गाँधी और महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा, महिला होने के बावजूद समझ नहीं पायीं।’ यहाँ यह भी कहना ज़रूरी है कि योगी खुद को दोषी क्यों नहीं मानते? राजस्थान मामले में ही बसपा प्रमुख और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी ट्वीट् करके लिखा- ‘यह बहुत दु:ख की बात है कि कांग्रेस महासचिव कोटा के अस्पताल में 100 बच्चों की मौतों पर चुप्पी साधे हैं। उत्तर प्रदेश की तरह यह भी अच्छा होता कि वह उन बच्चों की माताओं से भी मिलतीं, जिनकी मृत्यु राजस्थान के अस्पताल में कांग्रेस सरकार की उदासीनता के कारण हुई है। अगर कांग्रेस महासचिव त्रासदी से प्रभावित कोटा के परिवारों से नहीं मिलती हैं, तो उत्तर प्रदेश में पीडि़तों के प्रति सहानुभूति राजनीतिक अवसरवाद ही माना जाएगा, जिससे उत्तर प्रदेश की जनता को सतर्क रहने की सलाह दी जाती है।’
राजस्थान का मामला ठंडा भी नहीं हुआ कि बच्चों की मौत मामले में भाजपा भी बुरी तरह फँस गयी। गुजरात में भाजपा सरकार और बाकी भाजपा नेता गुजरात मामले पर चुप्पी साध गये हैं। वहीं राजस्थान मामले में कांग्रेस ने तथ्यों को स्वीकार करने के बजाय अस्पताल में मामलों के लिए पूर्ववर्ती भाजपा सरकार को दोषी ठहराया। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ट्वीट की एक शृंखला में विपक्ष की आलोचना का जवाब देते हुए आश्वासन दिया कि उनकी सरकार जे.के.लोन मातृ एवं शिशु चिकित्सालय में बीमार शिशुओं की मौत के प्रति संवेदनशील है। समय आ गया है कि इस तरह की गम्भीर त्रासदी पर राजनीति खेलने की जगह उससे निपटने के लिए सुधारात्मक उपाय किये जाएँ।
दलीलें अपनी-अपनी
पक्ष
पहले से चल रही प्रक्रिया का ही कर रहे हैं पालन : शाह
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि डिटेंशन सेंटर्स लगातार चलने वाला कार्यक्रम है। अगर कोई विदेशी पकड़ा जाता है, तो उसे पहले डिटेंशन सेंटर्स में रखा जाता है; क्योंकि उसे जेल में नहीं रखा जा सकता। ये लम्बे समय से चली आ रही प्रक्रिया है, जिसका हम पालन कर रहे हैं।
शाह ने कहा कि सिर्फ असम में एक डिटेंशन सेंटर है, जो आज नहीं बना है, बल्कि बहुत पहले से बना हुआ है। उनके मुताबिक, कर्नाटक के डिटेंशन सेंटर की उन्हें जानकारी नहीं और डिटेंशन सेंटर का एनआरसी और सीएए से कोई लेना-देना नहीं है। शाह ने कहा कि कई साल से गैर-भारतीय नागरिकों के लिए डिटेंशन सेंटर्स जैसी व्यवस्था भारत में है और इसे एनआरसी के लिए नहीं बनाया गया है। गृह मंत्री का कहना है कि डिटेंशन सेंटर देश में हैं, तो इसकी एक प्रक्रिया है और ये अवैध पकड़े गये लोगों के लिए है। उनके मुताबिक, असम में जिन लोगों को नागरिकता से बाहर रखा गया है, उन्हें भी डिटेंशन सेंटर में नहीं रखा गया है। वह अपने घर में ही रह रहे हैं। देश में जो डिटेंशन सेंटर हैं, उनमें ऐसे लोगों को रखा जा रहा है, जो अवैध रूप से पकड़े गये हैं। ऐसा तो अमेरिका में भी होता है।
शाह के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति बिना पासपोर्ट के पकड़ा जाता है, तो उसे कहीं तो रखना पड़ेगा। ये इसी की व्यवस्था के तहत हैं। अभी जो डिटेंशन सेंटर चर्चा में आये हैं, उनमें रिफ्यूजी नहीं, बल्कि अवैध पकड़े गये लोगों को रखा जाता है। हमने असम में किसी को नहीं रखा, ये सिर्फ अफवाहें हैं। गृह मंत्री के मुताबिक, असम की एनआरसी में पहचाने लोगों को छ: महीने का वक्त दिया गया है कि वे विदेश पंचायत (फॉरेन ट्रिब्यूनल) के सामने पक्ष रखें। वहाँ 19 लाख लोग डिटेंशन सेंटर में नहीं गये, अपने घर में ही रह रहे हैं। अगर उनके पास पैसा नहीं है, तो उनके वकील का खर्च भी भारत सरकार उठाने को तैयार है।
विपक्ष
फॉरेनर्स एक्ट के तहत बने थे डिटेंशन सेंटर्स : चिदंबरम
देश में डिटेंशन सेंटर्स को लेकर चल रही चर्चा के बीच वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा है कि यूपीए सरकार और अब मोदी सरकार के समय डिटेंशन डिटेंशन सेंटर्स में अन्तर है। चिदंबरम के मुताबिक, कांग्रेस के समय जो डिटेंशन सेंटर्स बने वे फॉरेनर्स एक्ट के तहत बनाये गये थे। लेकिन अब जो सेंटर्स बन रहे हैं, वे नागरिकता कानून के तहत या एनआरसी से सम्बन्धित हैं।
चिदंबरम ने कहा कि फॉरेनर्स एक्ट में यह ज़रूरी होता है कि पकड़े गये विदेशी को कैम्प में रखा जाता है। उच्च न्यायालय ने असम में इसे स्थापित करने का निर्देश दिया था। इसके बाद ही केन्द्र (यूपीए) सरकार ने इसे लेकर फंड जारी किया थे।
यूपीए सरकार और मोदी सरकार के समय के डिटेंशन सेंटर्स को लेकर चिदंबरम का कहना है कि इनकी परिभाषा में ज़मीन आसमान का अन्तर है। उन्होंने कहा कि आाज का संदर्भ अलग है। आज न्यायालय के आदेश के तहत डिटेंशन सेंटर्स नहीं बन रहे।
अब डिटेंशन सेंटर्स एनआरसी के तहत कैम्प लगाये जा रहे हैं। हम 19 लाख लोगों की बात कर रहे हैं। साल 2012 में 100-150 लोगों के लिए एक शिविर लगाने का आदेश दिया गया था। यूपीए ने 19 लाख (असम का मामला) लोगों के लिए कैम्प बनाने की बात तो नहीं की थी। कोई कांग्रेस सरकार (राज्य) अलग से कैम्प नहीं बनवा रही; क्योंकि 100-150 या 200 लोगों के लिए जेल के हिस्से को ही कैम्प में बदलने की योजना थी।
वरिष्ठ नेता ने साफ किया कि हमारे डिटेंशन सेंटर्स या कैम्प का नागरिकता कानून या एनआरसी से कुछ लेना-देना नहीं था, जबकि अब है। यही हमारे और अब बन रहे डिटेंशन सेंटर्स में अन्तर है।
क्या भरोसे के लायक हैं आपराधिक आरोप वाले विधायक?
दिसंबर, 2019 में हुए चुनाव में झारखंड विधानसभा के लिए चुने गये 54 फीसदी विधायकों के िखलाफ आपराधिक मामले लम्बित हैं। सवाल यह है कि क्या हम ऐसे विधायकों पर भरोसा कर सकते हैं, जो खुद आपराधिक मामलों में आरोपी हैं?
झारखंड में जिन विधायकों के िखलाफ आपराधिक मामले लम्बित हैं, उनकी संख्या 44 है। यह जानकारी और कहीं से नहीं खुद चुने गये 81 विधायकों की तरफ से झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए दायर हलफनामों से मिली है। इसके मुकाबले पिछले, यानी 2014 के राज्य विधानसभा के चुनाव के दौरान 68 फीसदी विधायकों के िखलाफ आपराधिक मामले लम्बित थे।
झारखंड इलेक्शन वॉच, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के राज्य समन्वयक सुधीर पाल ने बताया कि 44 विधायकों, जिनके िखलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये गये थे, उनमें से कम-से-कम 34 (42 फीसदी) ऐसे थे, जिनके िखलाफ गम्भीर आपराधिक मामले लम्बित हैं। ये मामले बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण और महिलाओं के िखलाफ अपराधों से सम्बन्धित हैं।
विडंबना यह है कि दो विधायकों को दोषी ठहराया गया था, जबकि दो अन्य विधायकों ने उनके िखलाफ हत्या से सम्बन्धित आईपीसी की धारा-302 के तहत दर्ज होने की बात कही है। यही नहीं दो और विधायकों ने आईपीसी की धारा-307 के तहत हत्या के प्रयास के मामले अपने शपथ-पत्र में बताये हैं।
पाँच विधायक ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं के िखलाफ अपराध से जुड़े मामले दर्ज हैं और इन पाँच में से दो पर आईपीसी की धारा-376 के तहत बलात्कार से सम्बन्धित मामले दर्ज हुए हैं।
यदि दलों के हिसाब से देखें, तो भाजपा के 25 विधायकों में से 12 (48 फीसदी), जेवीएम के तीन में तीन (100 फीसदी), जेएमएम के 30 विधायकों में से 17 (30 फीसदी), आजसू के दो में से एक विधायक (50 फीसदी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 16 में से आठ विधायक (50 फीसदी) और राकांपा, सीपीआई और राजद (100 फीसदी) के चुने क्रमश: एक-एक विधायक के िखलाफ उनके दायर हलफनामों के अनुसार आपराधिक मामले दर्ज हैं।
जब हम गम्भीर आपराधिक मामलों के बारे में बात करते हैं, तो 25 में से 9 विधायक या कुल 36 फीसदी विधायक भाजपा से हैं, जिनके िखलाफ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसी तरह तीन में से तीन अर्थात् 100 फीसदी जेवीएम से हैं। और 30 में से 12 विधायक यानी 40 फीसदी जेएमएम से हैं। कुल जीते 16 में से आठ विधायक यानी 50 फीसदी कांग्रेस से हैं जबकि राकांपा, भाकपा और आरजेडी का हर विधायक अर्थात् 100 फीसदी गम्भीर मामलों में फँसे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि झारखंड के चुनाव में जीते विधायकों में 69 फीसदी अर्थात् 81 में से 56 विधायक करोड़पति हैं। झारखंड विधानसभा के 2014 के चुनाव के दौरान 81 विधायकों ने जो जानकारी शपथ-पत्र में दी थी, उसके मुताबिक 41 (51 फीसदी) विधायक करोड़पति थे। पार्टी के करोड़पति विधायकों में भाजपा के 25 में से 18 (72 फीसदी), जेवीएम के 3 विधायकों में से 2 (67 फीसदी), जेएमएम के 30 विधायकों में से 22 (73 फीसदी), 2 (100 फीसदी) विधायक शामिल हैं। एजेएसयू के 16 विधायकों में से 9 (56 फीसदी) कांग्रेस और 2 (100 फीसदी) निर्दलीय विधायकों ने एक करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति घोषित की है।
झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 में जीते विधायकों की औसत सम्पत्ति 3.87 करोड़ रुपये है। झारखंड विधानसभा चुनाव 2014 में यह औसत 1.84 करोड़ रुपये था। प्रमुख दलों में, 30 जेएमएम विधायकों के लिए प्रति विधायकों की औसत सम्पत्ति 3.05 करोड़ रुपये है। भाजपा के 25 विधायकों की 4.79 करोड़ रुपये, तो कांग्रेस के 16 विधायकों की सम्पत्ति 4.27 करोड़ रुपये है। आजसू के दो विधायकों की औसत सम्पत्ति 10.26 करोड़ रुपये और जेवीएम के तीन विधायकों के पास 88.84 लाख रुपये की औसत सम्पत्ति है।
शैक्षिक योग्यता की बात करें, तो 30 (37 फीसदी) विधायकों ने अपनी शैक्षिक योग्यता 8वीं और 12वीं पास के बीच होने की घोषणा की है। वहीं 49 (60 फीसदी) विधायकों ने स्नातक और उससे ऊपर की शैक्षणिक योग्यता होने की घोषणा की है। एक विधायक ने खुद को सिर्फ साक्षर घोषित किया है और एक विधायक डिप्लोमा होल्डर है। कुल 46 (57 फीसदी) विधायकों ने अपनी उम्र 25 से 50 साल के बीच बतायी है, जबकि 35 (43 फीसदी) विधायकों ने अपनी उम्र 51 से 80 साल के बीच बतायी है।
कुल 81 विधायकों में से 10 (यानी 12 फीसदी) विधायक महिलाएँ हैं। साल 2014 में 81 विधायकों में से केवल 8 (यानी 10 फीसदी) विधायक महिलाएँ थीं। विधायकों के अन्य विवरण भी दिलचस्प हैं। जैसे 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में फिर से चुने गये विधायकों की संख्या 36 है।
बड़ी देनदारी वाले निर्वाचित विधायक 16 अर्थात् कुल 20 फीसदी हैं। भाजपा के मनीष जायसवाल 5.38 करोड़ की देनदारियों के साथ सूची में सबसे ऊपर हैं, जबकि उनके पास अपनी घोषणा के अनुसार 8.77 करोड़ रुपये की अतिरिक्त विवादित देनदारियाँ थीं। आजसू के सुदेश कुमार महतो को 3.42 करोड़ की देनदारियाँ थीं, जबकि एनसीपी के कमलेश कुमार सिंह को कुल 2.95 करोड़ रुपये की देनदारियाँ थीं। तीनों ने चुनाव में क्रमश: हज़ारीबाग, सिल्ली और हुसैनाबाद से जीत हासिल की थी।
साल 2014 में फिर से चुने गये विधायकों की औसत सम्पत्ति 2.07 करोड़ रुपये थी। 2019 में फिर से चुने गये विधायकों की औसत सम्पत्ति 3.73 करोड़ रुपये है। पुन: निर्वाचित विधायकों की औसत सम्पत्ति में वृद्धि 2014 से 2019 तक 1.65 करोड़ रुपये अर्थात् 80 फीसदी है। इन सभी में 36 विधायक ऐसे हैं, जो 2019 में पुन: चुनाव जीते हैं। फिर से चुने गये विधायकों की सम्पत्ति में आशातीत वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए फिर से चुने गये भाजपा विधायकों की सम्पत्ति में 2014 से 2019 तक 85.88 फीसदी की वृद्धि, झामुमो से पुन: निर्वाचित विधायकों के मामले में 99.54 फीसदी, कांग्रेस के मामले में 25.70 फीसदी और जेवीएम के मामले में 51.34 फीसदी की वृद्धि हुई। निर्दलीय उम्मीदवारों के मामले में यह वृद्धि 39 फीसदी बनती है।
सबसे कम सम्पत्ति वाले निर्वाचित विधायक मंगल कालिंदी हैं, जो झामुमो के टिकट पर जुगलई से जीते हैं। उन्होंने अपने दस्तावेज़ों में 30,000 रुपये की चल सम्पत्ति और शून्य अचल सम्पत्ति घोषित की है। बडक़ागाँव से जीतने वाले कांग्रेस के अम्बा प्रसाद के पास कुल 4.74 लाख की सम्पत्ति है। वहीं जेएमएम के टिकट पर बहरागोड़ा से जीतने वाले समीर कुमार मोहंती की घोषित सम्पत्ति 3.49 लाख रुपये की चल और 1.15 लाख रुपये की अचल सम्पत्ति है।
प्रमुख पार्टियों में 30 जेएमएम विधायकों की औसत सम्पत्ति 3.05 करोड़ रुपये है। 25 भाजपा विधायकों की 4.79 करोड़ रुपये, 16 कांग्रेस विधायकों की सम्पत्ति 4.27 करोड़ रुपये है। आजसू के दो विधायकों की औसत सम्पत्ति 10.26 करोड़ रुपये और 3 जेवीएम (पी) विधायकों के पास 88.84 लाख रुपये की औसत सम्पत्ति है।
कांग्रेस टिकट पर लोहरदगा (एसटी) निर्वाचन क्षेत्र से जीतने वाले रामेश्वर उरांव के पास 28 करोड़ रुपये की कुल सम्पत्ति थी, जिसमें 27 करोड़ रुपये की अचल सम्पत्ति शामिल है। वहीं भाजपा के कुशवाहा शशि भूषण मेहता (पनकी से विजयी) और मनीष जायसवाल (हज़ारीबाग) की कुल सम्पत्ति प्रति विधायक 27 करोड़ रुपये से अधिक है।










