जंग होगी या टलेगी!

जंग शब्द ही ऐसा है, जिसे शायद ही कोई पसंद करता हो। लेकिन अगर अब भी तनाव बढ़े तो जंग हो सकती है। इससे हर कोई चिन्तित है। ज़ाहिर है, यदि यह तनाव युद्ध में तब्दील होता है, तो दुनिया पर इसका दुष्प्रभाव दिखेगा। हाल की घटनाएँ ज़ाहिर कर रही हैं कि दोनों में कोई हार मानने के लिए तैयार नहीं। हालाँकि अब यह तनाव कम हो गया है और युद्ध का खतरा िफलहाल नहीं दिख रहा। इसी को रेखांकित करता राकेश रॉकी का यह विश्लेषण

मध्य पूर्व फिर सुॢखयों में है, लेकिन खराब खबरों के लिए। अमेरिका और ईरान में तनाव चरम पर है। अमेरिका ने ईरान के टॉप कमांडर कासिम सुलेमानी को जब मार गिराया और ईरान ने बदले में ईराक स्थित अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइल दागे तो साफ हो गया कि यह तनाव किसी भी वक्त एक युद्ध में बदल सकता है। ज़ाहिर है इस तनाव को लेकर दुनिया भर में चिन्ता है, और बहुमत चाहता है कि शान्ति बहाल हो जाए। हालाँकि िफलहाल तनाव कम हो गया है और उम्मीद की जा रही है कि अब युद्ध नहीं होगा। लेकिन फिर भी वाक्युद्ध जारी है, जिससे फिर तनाव पैदा हो सकता है।

पिछले साल जुलाई में जब ईरान ने कहा था कि उसने अमेरिकी खुिफया एजेंसी सीआईए के 17 जासूसों को पकड़ा है और उन्हें फाँसी दे दी है, तभी यह तय हो गया था कि दोनों देशों के बीच पिछले कुछ महीनों से पक रहा तनाव अब और गम्भीर रुख ले सकता है। ऐसा नहीं कि अमेरिका और ईरान के बीच यह तनाव कुछ ही महीनों या कुछ वर्षों पुराना हो। यह तनाव तो कई दशक से पक रहा है। इस तनाव ने दुनिया भर को चिन्ता में डाल दिया है। बीते साल ही इसकी आहट मिल गयी थी, लेकिन किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि नया साल शुरू होते ही मध्य पूर्व ही नहीं खाड़ी में भी युद्ध के बादल मँडराने लगेंगे। ईरान ने ऐसी धमकी भी दी है कि दुबई और इज़रायल को भी निशाने पर लिया जाएगा। ज़ाहिर है थोड़ा-सा भी मामला गड़बड़ हुआ, तो पूरी दुनिया की शामत आ जाएगी।

िफलहाल तो मध्य पूर्व (मिडल ईस्ट) में हालात खराब होते दिख रहे हैं। इसकी शुरुआत इस साल तब हुई, जब अमेरिका ने ईरानियन रिवोल्‍यूशनरी गार्ड के मेजर जनरल और कमांडर कासिम सुलेमानी को एक ड्रोन हमले में मार गिराया। सुलेमान की हत्या ने ईरान में तूफान ला दिया। सुलेमानी के बारे में ईरान में यह माना जाता है कि वे ईरान में देश के राष्ट्रपति हसन रूहानी से भी ज़्यादा लोकप्रिय थे।

साल 2018 में बाकायदा एक सर्वे में यह सामने आया था कि सुलेमानी रूहानी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हैं। यह सर्वे और किसी ने नहीं, बल्कि ईरान की ही एक पोलिंग एजेंसी ने कराया था; जिसमें ईरान की 83 फीसदी जनता ने अपना मनपसंद नेता माना था। ऐसे सुलेमानी की मौत ने मानों ईरान में बज्रपात कर दिया। ईरान ने इसका बदला लेने की चेतावनी देने में देर नहीं की। ईरान के धार्मिक नेता खामनेई तो उसे ‘क्रान्ति का ज़िन्दा शहीद’ कहते थे।

सुलेमानी सरकार के वफादार थे और इतनी लोकप्रियता के बावजूद उन्होंने हमेशा कहा कि उनकी ईरान का राष्ट्रपति बनने की कोई इच्छा नहीं। वे समानांतर सरकार भी नहीं थे; लेकिन फिर भी वे देश के हीरो थे। उनके एक वाक्य ने उन्हें देश का हीरो बना दिया था। यह था अमेरिका को दी चेतावनी। इसमें सुलेमानी ने कहा था- ‘ट्रम्प ने युद्ध शुरू किया, तो उसे खत्म हम करेंगे।’ अमेरिका के प्रति उनकी नफरत अपने देश में उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। यह कहा जाता है कि सुलेमानी के शव की पहचान उनके हाथ में पहनी अँगूठी से की गयी थी।

सुलेमानी की मौत के बाद ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामनेई ने ब्रिगेडियर जनरल इस्माइल गनी को रिवॉल्यूशनरी गाड्र्स का नया कमांडर तैनात किया है। गनी यह पद सँभालने से पहले रिवॉल्यूशनरी गाड्र्स के डिप्टी कमांडर थे। गनी अब देश की सेनाओं के प्रमुख के रूप में नियुक्त हो गये हैं।

ईरान की धमकी

अमेरिकी हमले, जिसमें सुलेमानी और कई अन्य अधिकारियों की मौत हो गयी; के बाद ईरान ने इसका बदला लेने की धमकी दी। इसके बाद, ज़ाहिर है, पूरी दुनिया में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। ईरान ने बगदाद में दो अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर 22 मिसाइलें दागीं। इसके बाद ट्रम्प ने कहा कि ईरान पर और कड़े प्रतिबन्ध लगाये जाएँगे और उसका परमाणु शक्ति बनने का सपना पूरा नहीं होगा। ईरान ने दावा किया कि इसमें 80 लोग मारे गये हैं, लेकिन अमेरिका ने इसे गलत करार दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने बाकायदा एक सन्देश में कहा कि ईरान का दावा झूठा है।

लेकिन यह मानना गलत होगा कि ईरान चुप बैठ जाएगा। बगदाद में अमेरिकी दूतावास ने अपने नागरिकों से तत्काल ईराक छोड़ देने को कहा। अमेरिका की इस एडवाइजरी के बाद ईराकी तेल कम्पनियों के अमेरिकी कर्मचारी वापस लौटने शुरू हो गये। भारत ने भी ऐसी ही सलाह अपने नागरिकों को दी। ब्रिटिश विदेश मंत्री डोमिनिक राब ने अपने नागरिकों को कहा कि वे ईराक से लौट आएँ।  ब्रिटेन ने मध्य-पूर्व में अपने सैन्य अड्डों पर भी सुरक्षा बढ़ा दी। ब्रिटेन को अमेरिका का सैनिक भागीदार माना जाता है और उसके ईराक में 375 से ज़्यादा सैन्य अधिकारी हैं। इस तनाव के बीच इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ग्रीस का दौरा बीच में छोडक़र अपने देश लौट आये। ईरान धमकी दे चुका है कि इस्राइल पर भी हमला किया जाएगा। लिहाज़ा देश की सेना को हाई अलर्ट पर रखा गया है।

बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि वर्तमान तनाव से हालात बिगड़ सकते हैं। इसका कारण सुलेमानी को लेकर ईरान के लोगों का प्यार है। वे उनकी मौत से बहुत विचलित हैं और इसका मनोवैज्ञानिक दबाव ईरान सरकार पर है। भले कुछ दिन से मामला शान्त दिख रहा है; लेकिन भीतर ही भीतर क्या पाक रहा है, इसे कुछ नहीं कहा जा सकता है। ईरान के जवाबी हमलों से इज़राइल पर भी असर पड़ेगा। अमेरिका का इतिहास रहा है कि वह दूसरे देशों की धरती पर अपने दुश्मनों से लड़ता है। ईरान चूँकि अमेरिकी कार्रवाई को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दे चुका है, वह चुप बैठने वाला नहीं है और बगदाद में उसने अमेरिकी हिकानों पर मिसाइलों से जो हमला किया था, वह उसकी पुनरावृत्ति कर सकता है। या किसी और ठिकाने या देश (अमेरिकी मित्र देश) को अपना निशाना बना सकता है।

ऑब्‍जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफेसर हर्ष वी पंत का कहना है कि हो सकता है कि ईरान अमेरिका से सीधी लड़ाई से बचे; लेकिन वह आने वाले समय में अमेरिका के  समर्थकों या मित्र सेनाओं को निशाना बना सकता है। पंत कहते हैं कि बड़े युद्ध के बारे में नहीं किया जा सकता, लेकिन सीमित युद्ध की सँभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पंत कहते हैं- ‘हो सकता है कि िफलहाल खाड़ी युद्ध की तरह हालात खराब न हों; लेकिन एक सीमित दायरे के युद्ध की बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। यदि ऐसा हुआ, तो इसका भी व्यापक असर होगा।’

ईरान के लिए अमेरिका से बड़े स्तर का टकराव लेना इसलिए सम्भव नहीं दिखता कि उसकी अर्थ-व्‍यवस्‍था लगभग डाँवाडोल हालत में है। वहाँ रिफॉर्मिस्‍ट काफी दबाव में हैं। लेकिन इसके बावजूद ईरान-अमेरिका तनाव िफलहाल जल्दी खत्म होने वाला नहीं है। अमेरिका लम्बे समय से अपने हाथ खींचे हुए था; लेकिन अब उसने ईरान के िखलाफ कार्रवाई कर दी है तो ईरान भी चुप नहीं बैठ सकेगा।

ईरान और अमेरिका के बीच इस तनाव का सबसे ज़्यादा नुकसान ईराक को झेलना पड़ सकता है, जो एक तरह से दोनों के बीच घुन की तरह पीस रहा है। सच यह है कि ईराक अमेरिका और ईरान के बीच नया युद्ध क्षेत्र बन गया है। ईराक में अंदरूनी राजनीति बहुत तनाव भरी है; क्योंकि जनता सरकार के िखलाफ पिछले लम्बे समय से विरोध-प्रदर्शन कर रही है। शिया-सुन्‍नी का टकराव वहाँ पहले से है। जानकार मानते हैं कि अपने नेता सद्दाम हुसैन की मौत के बाद ईराक अब तक का सबसे बड़ा दबाव झेल रहा है।

ईरान-अमेरिका के बीच तनाव का इतिहास है पुराना

ईरान और अमेरिका के बीच तनाव का इतिहास पुराना है। करीब 40 साल पहले जब 1979 में ईरानी क्रांति का आरम्भ हुआ। उस समय ईरान के सुल्तान रेज़ा शाह पहल्वी को हटाने की योजना बनी। यह दिलचस्प है कि सुलतान को इससे करीब 18 साल पहले अमेरिका की सहायता से ही ईरान का ताज मिला था।

अपने काल में शाह अमेरिका के प्रति काफी नरम तो रहे; लेकिन उनकी छवि एक अत्याचारी शाह की रही। इसका नतीजा यह हुआ कि राण के धार्मिक गुरु शाह के िखलाफ लामबंद हो गये। आिखर 1979 में शाह को भागकर अमेरिका शरण लेनी पड़ी। इसके साथ ही धर्म गुरु अयातोल्लाह रूहोलियाह खोमिनी कई धार्मिक संगठनों और कट्टरवादी छात्रों के उनके साथ आने से बहुत ताकतवर हो गये और ईरान में इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू कर दिया गया।

कुछ ही समय बाद नवंबर में ईरान की राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला हो गया, जिसमें 66 लोगों को बन्धक बना लिया गया। बाद में कुछ को तो छोड़ दिया गया; लेकिन 52 लोग लम्बे समय तक दूतावास में ही बन्धक बनाकर रखे गये। अमेरिका ने इसे विएना सन्धि के िखलाफ बताया और सैनिक कार्रवाई से बन्धकों को छुड़ाने की नाकाम कोशिश की। उलटे इस कार्रवाई में आठ अमेरिकी सैनिक और एक ईरानी की मौत हो गयी। इन बन्धकों को  डेड़ साल बाद जाकर छुड़ाया जा सका।

अमेरिका को इस घटना से बहुत फज़ीहत जैसे स्थिति झेलनी पड़ी। एक तरह से उसके ताकतवर अमेरिका होने के उसके एहसास को बहुत बड़ा धक्का लगा। उस समय जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति थे। ईरानी रेवोल्यूशन के विद्रोहियों ने अमेरिका में इलाज कर रहे सुलतान शाह की वापसी की माँग की; लेकिन अमेरिका ने इसे खारिज कर दिया। इससे ईरान-अमेरिका में तनाव और गहरा गया। ईरान में अमेरिकी लोगों से खराब व्यवहार हुआ और बहुत को देश से बाहर कर दिया गया। इससे ईरान-अमेरिका के रिश्ते बहुत कटु हो गये। इन 40 वर्षों में अमेरिका इस अनुभव को भूल नहीं पाया है और रह-रहकर ईरान के साथ उसका तनाव बन जाता है। वर्तमान स्थिति भी इन्हीं घटनाओं की एक कड़ी है।

प्रमुख रणनीतिकार थे सुलेमानी

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जनरल सुलेमानी पश्चिम एशिया में ईरानी गतिविधियों के प्रमुख रणनीतिकार थे। यही नहीं अमेरिका उन्हें इस्राइल में भी रॉकेट हमलों का आरोपी मानता था। अमेरिका को सुलेमानी की बहुत देर से तलाश थी। यह माना जाता है कि सुलेमानी को मारने के आदेश सीधे राष्ट्रपति ट्रम्प से आये। अमेरिका मानता था कि सुलेमानी बहुत सक्रियता से ईराक में अमेरिकी सेना और राजनयिकों पर हमले की योजना बना रहा था। अमेरिकी रिपोट्र्स बताती हैं कि सुलेमानी अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए  सीरिया और लेबनान में सदस्यों को सक्रिय कर रहा था। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) का कहना है कि जनरल सुलेमानी और उसकी कुर्द फोर्स असंख्य अमेरिकी लोगों, जिनमें सैनिक भी शामिल हैं, की मौत का ज़िम्मेदार था।

कई बार उड़ी मौत की खबर

जनरल सुलेमानी की मौत कई बार उड़ी। लेकिन हर बार यह गलत साबित हुई। साल 1999 में जब सुलेमानी को कुद्स सेना के प्रमुख का ज़िम्मा मिला, तो उसकी बाद कई बार उनकी मौत की अफवाह फैली। साल 2006 में उनकी मौत की खबर उड़ी कि उत्तर-पश्चिम ईरान में एक विमान हादसे में वह मारे गये। ऐसी ही खबर 2012 में फैली जब कहा गया कि सीरिया के दमिश्क में बम धमाके में उनकी मौत हो गयी। यह खबर भी बाद में गलत साबित हुई। तीन साल बाद 20156 में अलप्पो में आईएस के िखलाफ अंग में भी सुलेमानी की मौत हो जाने की खबर झूठी निकली। हालाँकि, अब ईरान ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार कर लिया है कि उनका यह ताकतवर जनरल और रणनीतिकार मारा गया है।

ट्रम्प के लिए समस्याएँ

भले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ईरान के साथ अपनी खुन्नस पूरे करने को कल्तसंकल्प दीखते हों, अपने ही देश में उनके लिए हज़ार समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। वे पहले ही महाभियोग प्रस्ताव का सामना कर रहे हैं और अमेरिकी संसद में उनकी शक्तियों पर अंकुश लगाने की गम्भीर   कोशिश होती दिख रही है। ईरान पर अमेरिकी कार्रवाई के बाद कांग्रेस के निचले सदन प्रतिनिधि सभा ने ईरान के िखलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए ट्रम्प के अधिकार सीमित करने वाला एक प्रस्ताव पास किया है, जिससे ईरान पर हमला करने के लिए ट्रम्प को सोचना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि ट्रम्प की विरोधी डेमोक्रेटिक पार्टी ने आरोप लगाया कि ईरान पर कार्रवाई से पहले ट्रम्प ने संसद को जानकारी ही नहीं दी। अर्थात् संसद को जानकारी दिये बिना ट्रम्प ने ईरान के जनरल सुलेमानी पर ड्रोन हमले की मंज़ूरी दे दी। निचले सदन में प्रतिनिधि सभा अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने इसके बाद अमेरिकी सांसदों को पत्र लिखा, इसमें यह प्रस्ताव किया गया कि राष्ट्रपति ट्रम्प की सैन्य कार्रवाई का दायरा सीमित कर दिया जाए। नैंसी का कहना था कि ट्रम्प प्रशासन ने ईरान के जनरल सुलेमानी की हत्या की और तेहरान के साथ तनाव बढ़ाकर अमेरिका के अधिकारियों, राजनयिकों और अन्य लोगों जा जीवन खतरे में डाला है। वैसे निचले सदन में चूँकि डेमोक्रेट्स का बहुमत है, 224 में से 194 मत प्रस्ताव के पक्ष में पड़े। हालाँकि, ऊपरी सदन सीनेट में चूँकि रिपब्लिकन का बहुमत है, ट्रम्प को ज़्यादा मुश्किल नहीं आएगी। उनके लिए चिन्ता की यही बात रही कि निचले सदन में उनकी अपनी पार्टी के तीन सांसदों ने भी ट्रम्प के िखलाफ मत किया। ट्रम्प के लिए दूसरी बड़ी समस्या ईराक है, जहाँ जनता अपनी सरकार के िखलाफ हो गयी है। इससे बने दबाव में ईराक के कार्यवाहक प्रधानमंत्री अदेल अब्देल महदी ने अमेरिका से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए आवाज़ उठानी शुरू कर दी है। ईराक में सरकार के िखलाफ जनता प्रदर्शन कर रही है। ईरान के जनरल सुलेमानी की अमेरिकी हमले में मौत के बाद ईराकी संसद ने बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर अमेरिका से कहा कि वह अपने सैनिक वापस बुलाये। ट्रम्प के लिए इससे बहुत पेचीदी स्थिति पैदा हो सकती हैं, क्योंकि ईराक से सैनिक हटने की स्थिति में उनके लिए ईरान के िखलाफ कार्रवाई मुश्किल काम बन जाएगी। अभी तक तो वह ईराक को इसके लिए इस्तेमाल कर रहा है। उधर यूरोपीय देश भी अमेरिका-ईरान के बीच बढ़ते तनाव से चिन्तित हैं और शान्ति के लिए दबाव बना रहे हैं।

मारे गये बेकसूर

ईरान-अमेरिका के बीच तनाव का ही असर था कि यूक्रेन के एक विमान में बैठे 176 बेकसूर लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। दरअसल, अमेरिकी ड्रोन हमले के बाद यूक्रेन का एक जहाज़ तेहरान हवाई अड्डे से उड़ान भरते ही हादसे का शिकार हो गया। ईरान ने शुरू में इसे हादसा ही बताया। लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि यह विमान तो ईरानी मिसाइल का शिकार हो गया था। हो सकता है तनाव के लम्हों में ईरान की सेना ने इसे अमेरिका के हमले का कोई हिस्सा मान लिया हो। आिखर ईरान ने दुनिया को सच भी बता दिया और इसे एक मानवीय भूल करार देते हुए यूक्रेन, प्लेन में जान गँवाने वाले लोगों के सभी परिजनों से माफी माँगी। ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ ने अपने ट्वीट में कहा- ‘दु:खद दिन! अमेरिकी दुस्साहस के चलते पैदा हुए संकट के समय मानवीय चूक के चलते यह दुर्घटना हुई। हमें गहरा दु:ख है। सभी पीडि़तों के परिवारों और अन्य प्रभावित राष्ट्रों से हमारी माफी और संवेदना।’ सम्भवता दुनिया के इतिहास में यह भी एक अकेली घटना होगी, जो युद्ध के हालात में युद्ध का हिस्सा न होते हुए भी हटी और इतने बड़े पैमाने पर लोगों की जान चली गयी।

भारत पर असर

यह दिलचस्प है कि अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ा, तो ईरान ने भारत को कहा कि वह शान्ति की पहल करे। जबकि इससे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आरोप लगाया कि ईरानी कमांडर सुलेमानी भारत में एक हमले के लिए भी ज़िम्मेदार रहा था।

ज़ाहिर है अमेरिका और ईरान दोनों ने इस मसले में भारत को बीच में रखने की कोशिश की लेकिन भारत ने तटस्थ रहना बेहतर समझा। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि दोनों देशों के बीच तनाव का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ईरान से तेल का भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारत अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए करीब 40 फीसदी तेल सऊदी अरब और ईरान से आयात करता है। हालाँकि ईरान में रह रहे भारतीयों की संख्या देखी जाए, तो यह बहुत ज़्यादा नहीं। करीब 4500 भारतीय ईरान में हैं।

युद्ध की स्थिति में भारत के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। इससे तेल की कीमतें बहुत बढ़ जाएँगी और भारत के सामने मुश्किल स्थिति बन सकती है; क्योंकि युद्ध में तेल के जहाज़ों का आवागमन बन्द हो सकता है।

इसके अलावा एक और बड़ा कारण है, जो खाड़ी में युद्ध को भारत के हक में नहीं मानता। वह यह है कि खाड़ी देशों में भारत के एक करोड़ से ज़्यादा नागरिक रोज़गार के सिलसिले में रहते हैं। युद्ध हुआ तो भारत के ऊपर उनकी रक्षा का बड़ा ज़िम्मा आ पड़ेगा।

नब्बे के दशक में भी खाड़ी के युद्ध में भी भारत के लिए पेचीदी स्थिति बनी थी। तब ईराक ने कुवैत पर हमला कर दिया था। तब भारत सरकार को भारतीयों की मदद के लिए एक बड़ा रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन चलाना पड़ा था। उस समय एयर इंडिया के विमानों ने अरीब दो महीने तक लगातार 490 उड़ानें भरकर पोन दो लाख भारतियों को रेस्‍क्‍यू कर भारत लाया था। इसे दुनिया का सबसे बड़ा और लम्बा चला रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन माना जाता है।

भारत वैसे भी वर्तमान में गम्भीर आर्थिक हालात का सामना कर रहा है और पिछले दो-तीन साल में यहाँ रोज़गार की स्थिति बेहद चिन्ताजनक हुई है। लाखों युवाओं का रोज़गार चला गया है और ऐसे स्थिति में यदि खाड़ी देशों से भी भारतीय लौटने को मज़बूर होते हैं, तो भारत में बेरोज़गार की पंक्ति और लम्बी हो जाएगी।

मध्य पूर्व में 18 देश आते हैं और यह ऐसे देश हैं, जहाँ भारतीय बड़ी संख्या में रोज़गार के लिए जाते हैं। इन देशों में सऊदी अरब और यूएई भी शामिल हैं जहाँ बड़े पैमाने पर भारतीय रोज़गार के लिए रह रहे हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक इन दो देशों में ही करीब 77 लाख भारतीय रोज़गार कर रहे हैं। इसके अलावा कतर, िफलिस्‍तीन, ओमान, लेबनान, कुवैत, जोर्डन, इज़रायल, मिस्र, साइप्रस, बहरीन, अकरोत्री, ईरान, ईराक, यमन, यूएई, तुर्की, सीरिया भी मध्य पूर्व के देशों में शामिल हैं।

सबसे ज़्यादा भारतीय संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में रोज़गार करते हैं। साल 2018 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, वहाँ भारतीयों की संख्या 31,05,486 थी। लेकिन अब एक अनुमान के मुताबिक, वहाँ करीब 38 लाख भारतीय हैं। दूसरे नंबर पर सऊदी अरब आता है, जहाँ 2018 में 28,14,568 भारतीय थे, जो अब करीब 33 लाख हो चुके हैं।

कुवैत में भी बहुत भारतीय हैं, जिनकी संख्या 2018 में 9,29,903 थी, जो अब करीब 10 लाख है। करीब इतने ही भारतीय ओमान में हैं, जबकि कतर में करीब सवा सात लाख भारतीय हैं। इन देशों के अलावा बहरीन में करीब दो लाख भारतीय हैं। ईराक में भारतीयों की संख्या करीब 10 हज़ार है। इज़रायल, जार्डन, यमन, लेबनान, साइप्रस,  मिस्र, तुर्की, सीरिया और िफलीस्‍तीन में भी भारतीय काम करते हैं।

इस तरह यह आँकड़ा एक करोड़ से ज़्यादा बैठता है। युद्ध की स्थिति में इनमें से ज़्यादातर को भारत लौटना पड़ सकता है। ईराक के लिए तो भारत पहले ही सुरक्षा एडवाइजरी जारी कर चुका है। युद्ध की स्थिति में इनमें से करीब 10 लाख तो सीधे-सीधे खतरे की जड़ में आ सकते हैं और उनकी सुरक्षा भारत के लिए बड़ी चिन्ता का विषय बन जाएगा।

हमारी सेना ने दुनिया के शीर्ष आतंकी कासिम सुलेमानी को मारा। उसने आतंकी संगठन हिज्बुल्लाह को उसने ट्रेनिंग दी थी। मिडिल ईस्ट में उसने आतंकवाद को बढ़ाने का काम किया था। वह अमेरिकी अड्डों पर हमले की िफराक में था। अमेरिका को अपनी सैन्य ताकत के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं है, उसके आर्थिक प्रतिबंध ही ईरान से निपटने के लिए काफी हैं। ईरान के मिसाइल हमले में हमें कोई भारी नुकसान नहीं हुआ है और न ही किसी अमेरिकी की मौत हुई है। सिर्फ सैन्य ठिकाने को थोड़ा बहुत नुकसान पहुंचा है। मेरे राष्ट्रपति रहते ईरान परमाणु शक्ति सम्पन्न नहीं हो पाएगा और उसे परमाणु ताकत बनने का अपना सपना छोड़ देना चाहिए। ईरान को परमाणु हथियार रखने की अनुमति कभी नहीं दी जाएगी। अमेरिका के पास कई ताकतवर मिसाइलें हैं, लेकिन हम शान्ति चाहते हैं और उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहते। अमेरिका ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुका है और उसे पश्चिम एशिया के तेल भण्डार की कोई ज़रूरत नहीं है।

डोनाल्ड ट्रम्प, अमेरिका के राष्ट्रपति

भारत ने अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो से खाड़ी क्षेत्र में पैदा हुए हालात के बारे में चर्चा की है। हमने भारत की चिन्ताओं और भारत के हित के बारे में उन्हें बताया है।

एस. जयशंकर विदेश मंत्री, भारत

यह एक थप्‍पड़ है। हम अमेरिका को इस क्षेत्र से उखाड़ फेंकेंगे।

अयातुल्‍ला अली खुमैनी

ईरान के सर्वोच्‍च धार्मिक नेता

अमेरिका यह जान ले कि मेरे पिता का खून बेकार नहीं जाएगा। ‘घटिया’ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प मारे गये ईरानी नेता की उपलब्धियों को मिटा नहीं सकता है। डोनाल्ड ट्रम्प के पास हिम्‍मत नहीं है; क्‍योंकि मेरे पिता को एक फासले से मिसाइल से निशाना बनाया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति को उनके सामने खड़ा होना चाहिए था। हिज़्बुल्ला नेता हसन नस्रल्लाह मेरे पिता की मौत का बदला ज़रूर लेंगे।

ज़ैनब सुलेमानी, जनरल कासिम सुलेमानी की बेटी (एक टीवी इंटरव्‍यू में)