Home Blog Page 922

चुनाव आयोग ने भाजपा को अनुराग ठाकुर, प्रवेश का नाम स्टार प्रचारक सूची से हटाने को कहा

दिल्ली के चुनाव में प्रचार के मामले में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। चुनाव आयोग ने उसके स्टार प्रचारक केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर को स्टार प्रचारक की सूची से हटाने की भाजपा को ताकीद की है। अनुराग ठाकुर पर यह कार्रवाई उनके ‘गद्दारों …’ वाले नारे पर की गयी है। उनके अलावा भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा के खिलाफ भी ऐसी ही कार्रवाई की गयी है।

चुनाव आयोग के निर्देश से जाहिर होता है कि अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा अब शायद दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए प्रचार नहीं कर पाएंगे। इससे पहले चुनाव आयोग ने अनुराग ठाकुर को दिल्ली विधानसभा चुनाव में विवादित बयान देने के लिये मंगलवार को कारण बताओ नोटिस जारी कर दो दिन में जवाब देने को कहा था। आयोग ने ठाकुर से ३० जनवरी को दोपहर १२ बजे तक जवाब देने को कहा था।  आयोग ने इस मामले में दिल्ली के मुख्य चुनाव अधिकारी (सीईओ) की रिपोर्ट के आधार पर यह कार्रवाई की।

रिपोर्ट्स के मुताबिक सीईओ कार्यालय की आयोग को मंगलवार को सौंपी गई रिपोर्ट में ठाकुर के दिल्ली में चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली में भड़काऊ नारेबाजी करने की पुष्टि की गयी। भाजपा के एक और स्टार प्रचारक और पश्चिमी दिल्ली से सांसद वर्मा के भी एक साक्षात्कार में शाहीन बाग के बारे में भड़काऊ बयान देने की भी पुष्टि की गयी।

बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल भाजपा में शामिल, प्रचार भी करेंगी  

विजेंद्र सिंह, योगेश्वर दत्त, बबिता फोगाट और गौतम गंभीर के बाद अब बैडमिंटन स्टार साइना नेहवाल भी दिल्ली की राजनीति में कूद गयी हैं। उन्होंने बुधवार (आज) भाजपा ज्वाइन की। खबर है कि नेहवाल विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए प्रचार भी करेंगी।

केजरीवाल की आप के मुकाबले टिके रहने के लिए साइना का आना देखना होगा भाजपा के लिए कितना फायदेमंद रहता है। दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में भाजपा ज्वाइन करते के बाद नेहवाल ने कहा कि वे पीएम मोदी की कड़ी म्हणत से प्रभावित होकर भाजपा में आई हैं। उन्होंने कहा कि वे खुद मेहनत में भरोसा रखती हैं और नरेंद्र जी  (पीएम) भी मेहनत करके देश को ऊंचाई पर ले जा रहे हैं।

दिल्ली विधानसभा के लिए ८ फरवरी को वोट पड़ने हैं और भाजपा विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी के मुकाबले शाहीनबाग और राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्भर है। पीएम मोदी भी जल्द ही पूरी ताकत से दिल्ली में जुटने वाले हैं लिहाजा भाजपा नेहवाल को मैदान में लाकर अपनी स्थिति पुख्ता करने की उम्मीद कर रही है।

अभी तक नेहवाल राजनीति से दूर ही रही हैं और और भाजपा में जाना उनके लिए नया अनुभव होगा। अभी तक की चर्चा के मुताबिक २९ साल की नेहवाल भाजपा के लिए सिर्फ प्रचार भी करेंगी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि के बैडमिंटन करियर का क्या होता है।

आम तौर पर खिलाड़ी सन्यास के बाद हे राजनीति में आने को प्राथमिकता देते हैं। साइना की उम्र अभी इतनी नहीं है कि वे खेल से संन्यास ले लें। इसमें कोइ दो राय नहीं की नेहवाल खेल जगत की बड़ी हस्ती हैं और उनकी जबरदस्त फैन फाल्विंग हैं।

नेताओं का पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं : मंत्री जेके सिंह

वैसे तो हर समय में नेताओं के बयान चर्चा में रहे हैं, पर आजकल इन्होंने अलग ही अपना स्थान बनाया है। पहले कहीं मूल्यों व नैतिकता का ध्यान रखा जाता था। पर, अब से पराये होते नजर आ रहे हैं। अब खुलेआम नेता-मंत्रियों के मुँह से मारो, काटो, दुष्कर्म करो, लूटो, तोड़ो, फोड़ो जैसे भड़काऊ शब्द रैलियों, जनसभाओं में दिये जा रहे हैं। खास बात ये है कि इन नेताओं पर कोई लगाम लगाता नजर भी नहीं आ रहा, ताकि आगे इस तरह के बयानों पर लगाम लगे। दिल्ली चुनाव में पहले आप से भाजपा में शामिल हुए और उम्मीदवार बनाए गए कपिल मिश्रा नेा भारत-पाकिस्तान के बीच ‘मुकाबला’ करार दिया।  बात यहीं नहीं रुकी, इसके बाद केंंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर देश के गद्दारों को, गोली मारो… को! जैसा नारा जनसभा में लोगों से लगवाया। इससे आगे बढ़ते हुए भाजपा ने सांसद प्रवेश वर्मा ने तो वोटरों को एक तरह से धमकाते हुए कहा कि शाहीन बाग में लाखों लोग इकट्ठा हैं, जो आप लोगों के घरों में घुसकर बहन-ब्ेटियों से दुष्कर्म करेंगे, मारेंगे-तब कोई मोदी और शाह बचाने नहीं आएगा।

अब चर्चा में नया नाम सामने आया है उत्तर प्रदेश के जेल मंत्री का बयान। यह बयान कई नेताओं और गुंडो-लुटेरों के लिए भी आदर्श वाक्य बन जाए तो कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। योगी सरकार में जेल मंत्री जेके सिंह का एक वीडियो सामने आया है, जिसमें वह खुले तौर पर स्वीकार करते हैं कि नेता या मंत्री बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना कोई जरूरी नहीं है।

जेके सिंह के शब्दों में कहें तो ‘नेता कोई पढ़ा लिखा हो, इसकी उसको आवश्यकता नहीं है। मैं मंत्री हूं, मेरे पस निजी सचिव होता है, स्टाफ होता है… जेल मुझे थोड़ी चलानी है, जेल के अधीक्षक बैठे हैं, जेलर बैठे हैं, उन्हें चलानी है। इस बयान से महज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यूपी और देश में राजनेता अपने दिल की बात कितने खुले तौर पर और सच्चाई के साथ पढ़े-लिखे लोगों के सामने पेश कर दे रहे हैं। इससे राजनीति का स्तर और आने वाले कैसे नेताओं की उम्मीद समाज से कर सकते हैं।

नासिक हादसे में २५ की मौत

महाराष्ट्र के नासिक में तेज रफ्तार बस के कुएं में गिरने से मरने वाले लोगों की संख्या २५ हो गयी है। यह हादसा महाराष्ट्र के नासिक में मंगलवार देर शाम हुआ।

रिपोर्ट्स के मुताबिक एक बस और ऑटो रिक्शा में टक्कर हो गयी। टक्कर इतनी भयंकर थी कि उछलकर दोनों वाहन पास के कुएं में जा गिरे। हादसे की जानकारी मिलते ही स्थानीय लोग और प्रशासन के लोग घटनास्थल पर पहुंचे और राहत कार्य शुरू किया। १५ से ज्यादा लोगों की मौत हटना स्थल पर ही हो गयी जबकि अन्य ने अस्पताल जाकर दम तोड़ा।

कुछ लोगों को बचा लिया गया है। राहत कर्मियों ने शवों को बाहर निकाला और घायलों को अस्पताल पहुँचाया गया। वाहनों के कुएं में गिरने की वजह से राहत और बचाव कार्य में बहुत मुश्किलें आई

घटना के मुताबिक नासिक के देवला में बस सामने से आ रहे एक ऑटो रिक्शा से टकरा गई। हादसे के बाद दोनों ही गाड़ियां अनियंत्रित होकर पास में एक गहरे कुएं में जा गिरीं। इस हादसे में बस सवार कई लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए हैं। कई लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। घटना की जानकारी पर मौके पर पहुंचे पुलिस अधिकारियों ने राहत टीमों के साथ बस में फंसे लोगों को बाहर निकालने का काम शुरू किया।

एक करोड़ रोजगार चले गए, जीडीपी ९ से ५ फीसदी पहुंच गया, यही मोदी की उपलब्धि : राहुल गांधी

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मंगलवार को कहा पीएम मोदी और केंद्र सरकार पर जोरदार हमला करते हुए कहा कि देश में पिछले एक साल में एक करोड़ युवाओं का रोजगार चला गया है और यूपीए सरकार के समय देश का जो जीडीपी ९ फीसदी था वह मोदी के कार्यकाल में सिर्फ पांच फीसदी पर पहुँच गया जो बहुत चिंताजनक स्थिति है।

राजस्थान के जयपुर में युवा आक्रोश रैली को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कि देश की इतनी डांवाडोल हालत पर प्रधान मंत्री मोदी खामोश हैं और उनकी सरकार ऐसे मुद्दों पर केंद्रित है जिनसे देश में तनाव बन रहा है और जनता के बीच असंतोष बढ़ रहा है।

कांग्रेस नेता ने जनता से कहा कि वे उन्हें एक सन्देश देने आए हैं। उनहोंने कहा – ”कांग्रेस पार्टी का मानना है कि देश को सिर्फ एक शक्ति बदल सकती है और वो है हिंदुस्तान का युवा। आज आपको रास्ता और विजन दिखाई नहीं दे रहे। रोजगार नहीं मिल रहा। लेकिन, आपमें वो ऊर्जा है जो देश को बदल सकती है। पूरी दुनिया आपकी तरफ देख रही है। आप अपनी शक्ति को पहचानो।”

जयपुर के अल्बर्ट हॉल में आयोजित इस कार्यक्रम में कांग्रेस नेता ने कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार जब सत्ता में थी तो देश की विकास दर नौ फीसदी थी जो मोदी सरकार घट कर अब सिर्फ ५ फीसदी रह गई है। उन्होंने कहा – ”हम गरीबों को पैसा देते थे, जिससे बाजार की खपत बढ़ती थी और ग्रोथ होती थी, लेकिन मोदी ने इकोनॉमिक्स नहीं पढ़ा, इसलिए उन्हें यह बात समझ नहीं आती।”

कांग्रेस नेता ने कहा कि दुनिया के हर देश के पास अपनी कोइ न कोइ पूंजी है। अमेरिका के पास हथियार, सबसे बड़ी नेवी, एयरफोर्स और आर्मी है। सऊदी के पास तेल है जबकि हिंदुस्तान के पास करोड़ों युवा हैं। ”आज में दुख से कहता हूं कि २१वीं सदी का हिंदुस्तान अपनी पूंजी को बर्बाद कर रहा है। जो आप इस देश के लिए कर सकते हैं, उसे सरकार और हमारे पीएम होने नहीं दे रहे हैं।”

राहुल गांधी ने कहा कि आज हिंदुस्तान का युवा कॉलेज स्कूल में जाकर पढ़ता है, लेकिन पढ़ाई के बाद उसे रोजगार नहीं मिलता। हमारे पीएम जहां भी जाते हैं, एनआरसी सीएए और एनपीआर की बात करते हैं। इस समस्या पर पीएम एक शब्द नहीं बोलते।

कांग्रेस नेता ने कहा कि मनमोहन सरकार के समय जब ग्रोथ रेट ९ फीसदी था, पूरी दिनया भारत की तरफ देख रही थी। ”अब जीडीपी नई तरीके से नापी जाती है, तो वह घटकर ५ फीसदी रह गई है। यदि यूपीए के तरीके से नापें, तो यह सिर्फ २.५ फीसदी ही है। यूपीए के समय हम पैसा गरीबों को देते थे। हिंदुस्तान के गरीब लोग माल खरीदते थे, तो फैक्ट्रियां चालू हो जाती थीं। उन्ही फैक्ट्रियों में रोजगार मिलता था और इन्वेस्टमेंट आता था।”

नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी जैसे मुद्दों के खिलाफ लगातार जारी  प्रदर्शनों पर राहुल ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने दुनिया में हिंदुस्तान की छवि खराब की। पूरी दुनिया कहती थी एक तरफ पाकिस्तान है, जो हमेशा लड़ता है। दूसरी तरफ हिंदुस्तान है, जो प्यार और भाईचारा सिखाता है। ”इस छवि को नरेंद्र मोदी ने बर्बाद कर दिया। आज युवा जब पीएम से सवाल करते हैं कि देश की इमेज क्यों खराब की, तो उन पर गोली चलाई जाती है। मैं चेलेंज देता हूं पीएम किसी भी यूनिवर्सिटी में चले जाएं और युवाओं से सवाल पुछवाकर देख लें। नरेंद्र मोदी उनका जवाब नहीं दे सकते।”

कहाँ गया वो असली दूध?

भाग-1

भारत में दूध सिर्फ एक पेय पदार्थ नहीं है। यह सेहत के लिए अमृत के समान भी माना जाता है। लाखों माँएँ बच्चों को महज़ दूध पिलाने के लिए कसमें खिलाती हैं और चाहती हैं कि उनका बच्चा रोज़ाना दूध पीकर ही सोये। लेकिन आपको कितना बड़ा सदमा लगेगा, जब आपको यह पता चले कि आप और आपके बच्चे जो दूध रहे हैं, उसमें हाइड्रो पेरॉक्साइड मिला हुआ है, जो कि आमतौर पर ब्लीच, यूरिया में डिटर्जेंट, एफ्लेटॉक्सिन आदि में उपयोग किया जाता है। इस तरह का मिलावटी दूध स्वास्थ्य को गम्भीर नुकसान पहुँचा सकता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और अन्य राज्यों में मिलावटी दूध और डेयरियों का खेल बहुत बड़ा है।

कुछ समय पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत सरकार को चेताया है कि अगर मिलावटी दूध पर काबू नहीं पाया गया, तो 2025 तक 87 फीसदी लोग घातक बीमारियों का शिकार हो सकते हैं, इन बीमारियों में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी भी शामिल हैं। जाँच रिपोर्टों में खुलासा हुआ कि देश में दुग्ध उत्पादन की विषम

परिस्थतियों के कारण डेयरी उद्योग मिलावटी तरीकों को अपनाकर लोगों की सेहत खिलवाड़ कर रहे हैं। भारत में ‘श्वेत क्रान्ति’ को 1975 में ऑपरेशन फ्लड के तहत शुरू किया गया था, जिससे देश में दूध का उत्पादन 1970 में 220 लाख टन से बढक़र वर्तमान में 1163 लाख टन हो गया। वर्तमान में भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है, जहाँ दुनिया के दुग्ध उत्पादन का करीब 18.5 फीसदी है। कमाई के लालच में दूध में मिलावट का परिणाम सेहत से खेलने वाला साबित हो रहा है।

मिलावटी दूध और इसे पीने से होने वाली घातक बीमारियों के बारे में तहलका संवाददाता ने दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल से बातचीत की। डॉ. अनिल बंसल ने कहा- ‘दूध एक ऐसा खाद्य पदार्थ है, जिसमें ज़रूरी खनिज और विटामिन होते हैं। लेकिन मिलावटी दूध, जिसमें यूरिया, डिटर्जेंट, हाइड्रो पेरॉक्साइड मिलाने से कैंसर समेत कई घातक बीमारियों का खतरा पैदा हो सकता है।’ डॉ. बंसल ने कहा कि उपभोक्ताओं को चाहिए कि अनधिकृत स्रोतों से मिलने वाले दूध के उपयोग से परहेज़ करें।

एफएसएसएआई : 41 फीसदी नमूने विफल

भाारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने हाल ही में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को लेकर सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की, जिससे पता चला है कि लगभग 41 फीसदी नमूने एक या इससे अधिक गुणवत्ता मानक पर खरे नहीं उतरे हैं। इस सर्वे में 50 हज़ार से अधिक आबादी वाले 1,103 कस्बों और शहरों से दूध के कुल 6,432 सैंपल लिये गये। ये सैंपल दोनों संगठित (खुदरा विक्रेताओं और प्रोसेसर) के साथ-साथ गैर-संगठित (स्थानीय डेयरी फार्म, दूध विक्रेताओं और दूध मंडियों) से एकत्र किये गये थे। एकत्र किये गये नमूनों की संख्या नमूना स्थानों पर आबादी से जुड़ी हुई थी और कच्चे दूध के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के प्रसंस्कृत दूध (प्रोसेस्ड मिल्क) को शामिल किया गया। यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वेक्षण रहा, जिसमें सेहत को ध्यान में रखकर दूध की गुणवत्ता को लेकर पड़ताल की गयी। इससे पहले एफएसएसएआई ने 2011 और 2016 में भी क्रमश: दूध के 1791 और 1663 सैंपल लेकर सर्वे किया था। भले ही ये सर्वेक्षण जानकारीपूर्ण थे; लेकिन ये अपर्याप्त थे, क्योंकि इन सर्वेक्षणों से कोई स्पष्ट तस्वीर निकलकर नहीं आयी थी। इनको अलग-अलग प्रयोगशालाओं के ज़रिये सैंपल के साइज और परीक्षणों के लिए ज़रूरी प्रक्रिया का अनुपालन नहीं किया गया। इसके अलावा केवल गुणात्मक विश्लेषण किया गया था और ज़रूरी सुरक्षा मापदंडों को सर्वेक्षण में शामिल नहीं किया गया।

एफ्लेटॉक्सिन एम-1 का उपयोग

सर्वे में यह भी सामने आया है कि एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मात्रा सीमा से अधिक पायी गयी। यह पहली बार है जब दूध में एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मौज़ूदगी का आकलन किया गया है। एफ्लेटॉक्सिन एम-1 दूध में चारा और खाने के जरिये से आता है, जिसका देश में अब तक कोई नियंत्रण नहीं है। दूध में एफ्लेटॉक्सिन एम-1  मिलने के उच्चतम स्तर वाले शीर्ष तीन राज्यों में तमिलनाडु (551 नमूनों में से 88), दिल्ली (262 नमूनों में से 38) और केरल (187 नमूनों में से 37) रहे।

यह समस्या कच्चे दूध के बजाय प्रसंस्कृत दूध में अधिक पायी गयी। सर्वे में यह भी सामने आया कि दूध में एंटीबायोटिक की मात्रा भी सीमा से अधिक पायी गयी। एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मात्रा के उच्चतम स्तर वाले शीर्ष तीन राज्यों में मध्य प्रदेश (335 नमूनों में से 23), महाराष्ट्र (678 नमूनों में से 9) और यूपी (729 नमूनों में से 8) रहे।

सर्वे से पता चला है कि लगभग 41 फीसदी नमूनेसुरक्षित हैं, हालाँकि ये मानक से एक या दूसरे गुणवत्ता पैरामीटर से कम हैं। कच्चे और प्रसंस्करण दूध में कम वसा या कम एसएनएफ (ठोस वसा नहीं) का अनुपालन नहीं होता है। कच्चे दूध में वसा और एसएनएफ का अनुपात प्रजातियों द्वारा व्यापक रूप से भिन्न होता है और यह चारे की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। दूध में वसा और एसएनएफ की मात्रा में सुधार के लिए मवेशियों को अच्छा भोजन देना चाहिए यानी अच्छी कृषि पद्धतियों को अपनाया जाना चाहिए। इस प्रकार कम वसा और एसएनएफ को पानी के साथ दूध के पतले होने को समझा जा सकता है। मानकीकृत और प्रसंस्कृत दूध में वसा और एसएनएफ का अनुपाल न होना आश्चर्यजनक है। हितधारकों से चर्चा के बाद इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया गया। 9 सितंबर, 2019 को हितधारकों की बैठक में इस पर चर्चा की गयी और इस रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। सर्वेक्षण में पाया गया है कि विशेष रूप से प्रसंस्कृत दूध में गुणवत्ता मानकों पर गैर-अनुपालन चिन्ता का विषय है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. एम.के. तनेजा ने बताया कि नवजात शिशुओं में फेफड़ों से सम्बन्धित बीमारियों की मुख्य वजह मिलावटी दूध है।

मवेशियों की भयावह स्थिति 

एफएसएसएआई की रिपोर्ट से अधिक फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गेनाइजेशन (एफआईएपीओ) द्वारा जारी किये गये आँकड़े चिन्ताजनक हैं। यह दर्शाता है कि लोग जो दूध पीते हैं, उससे उनमें हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर समेत अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। एफआईएपीओ की यह रिपोर्ट कैटलॉग : अनवीलिंग द ट्रुथ ऑफ द इंडियन डेयरी इंडस्ट्री’ शीर्षक से जारी की गयी है।

इसकी वजह यह है कि भारत के 10 प्रमुख दुग्ध उत्पादक राज्यों के 451 दुग्ध उत्पादक केंद्रों में मवेशियों की स्थिति भयावह है और दुग्ध उत्पादक डेयरियों को विनियमित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तत्काल ध्यान देने ज़रूरत बतायी गयी। एफआईएपीओ की जाँच रिपोर्ट से पता चलता है कि इन डेयरियों में सबसे अधिक गायों को कैसे रखा जाता है, उनकी उचित देखभाल नहीं की जाती है। साथ ही उनके बछड़़ों को भी यूँ ही छोड़ दिया जाता है। अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे एंटीबायोटिक्स और हार्मोन देकर दूध देने की मशीन बन जाएँ।

हालाँकि गायों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है; लेकिन जो लोग इन गायों का दूध पीते हैं, उनमें दिल की बीमारी, मधुमेह, कैंसर और कई अन्य बीमारियाँ होने का खतरा पैदा हो जाता है। दुधारू पशुओं के संगठित और असंगठित प्रशासन ने निस्संदेह दूध की सुरक्षा पर एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है, जो इन डेयरी उत्पादन के साथ-साथ भारत के दूध उत्पादन के वैश्विक नेतृत्व के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। मवेशियों को बछड़ों से (नर बछड़े 25 फीसदी डेयरियों में पहले सप्ताह के भीतर मर जाते हैं) या अलग कर दिया जाता है। पशु चिकित्सक देखभाल के लिए न के बराबर हैं और करीब 50 फीसदी डेयरियों में अचानक दूध का उत्पादन बढ़ाये जाने के लिए अवैध तरीके से खरीदी जाने वाली दवाओं के साथ इंजेक्ट किया जाता है। दूध न देने वाले मवेशियों को आर्थिक रूप से कमज़ोर किसानों को उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए या 62.9 फीसदी डेयरियाँ इनको बूचड़खानों के लिए बेच देती हैं। ऐसा उस जानवर की कीमत को देखते हुए तय करते हैं कि उनका मुनाफा कहाँ पर ज्यादा है।

जर्सी, क्रॉस ब्रीड और होल्सटीन फ्रेजि़यन प्रजाति के मवेशियों से अप्राकृतिक तरीके से 20 लीटर प्रति पशु रोज़ाना दुग्ध उत्पादन के लिए चुना गया है। ज्यादा दूध उत्पादन के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इन जानवरों के साथ ज्यादती की जाती है। इससे डेयरी जानवरों पर कई क्रूर प्रयोग करते हैं। इन क्रूर प्रयोगों की वजह से डेयरी में मवेशियों के औसत जीवनकाल भी कम हो जाता है, साथ ही प्रजनन सम्बन्धी बीमारियों और संक्रमणों का जोखिम भी बढ़ जाता है। गाय का जीवन स्वाभाविक रूप से 25 वर्ष की तुलना में एक डेयरी प्रतिष्ठान में औसतन 10 साल रह जाता है। हरे चारागाहों पर खिलने वाली खुश गायों की छवियाँ वास्तव में डेयरी उद्योग के लिए सही विकल्प के तौर पर होनी चाहिए।

भारत के 10 राज्यों में एफआईएपीओ की डेयरी जाँच से भारत की ‘श्वेत क्रान्ति’ के पीछे के कड़ुवे सच का पता चलता है। शहरी और कस्बाई इलाकों में तंगहाल डेयरियों में मवेशियों को काले बाड़े बनाकर रखा जाता है, जहाँ हवा की निकासी तक का बंदोबस्त नहीं होता है। इससे यहाँ के कमज़ोर और बीमार पड़े रहते हैं। दूध की कमी को बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन जैसी दवाओं और हार्मोन्स का भी प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर पशु चिकित्सा जैसी सुविधाएँ न के बराबर होती हैं; क्योंकि ज्यादातर अवैध तरीके से चलायी जाती हैं। इन डेयरी में कई ज़ख्मी पशु भी मिले। इस प्रकार दूध और दूध उत्पादों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए जानवरों के साथ अमानवीयता बरती जा रही है, जो अच्छे संकेत नहीं हैं।

ऐसी स्थिति इसलिए बनी हुई है, क्योंकि डेयरी उद्योग द्वारा इन सभी तरीकों को आर्थिक लाभ और मुनाफे के लिए लागत में कटौती के सन्दर्भ में अपनाता है। रिपोर्ट में पशु कल्याण के मौज़ूदा कानूनों के साथ-साथ शहरी शासन के तत्काल और सख्त कार्यान्वयन का आह्वान किया गया है। इसमें उन चुनिंदा क्षेत्रों में अतिरिक्त नियमन की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया गया है कि जहाँ डेयरी में पशुओं की कमी या उनके साथ अप्राकृतिक तरीके अपनाकर ज्यादा दुग्ध उत्पादन किया जााता है, क्योंकि इससे वहाँ के लागों में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ रही हैं।

खस्ताहाल बुनियादी ढाँचा

खस्ताहाल बुनियादी ढाँचा की बात करें, तो  25.1 फीसदी डेयरियों में आश्रय की कोई व्यवस्था नहीं थी और कई में तो छत तक नहीं थी। कुछ सडक़ के किनारे ही बनाये गये हैं। पक्के फर्श मवेशियों को चोट पहुँचाते हैं और उनके मलबे सही पशुओं फिसलने से चोटिल हो जाते हैं। लगभग 78.8 फीसदी डेयरियों में पशुओं के लिए कच्ची यानी नरम ज़मीन तक मिल पा रही है। करीब 32.9 फीसदी डेयरियों में रात के दौरान उचित रोशनी की व्यवस्था नहीं थी, जिसके कारण अधिकांश डेयरी में शाम को अँधेरे बाड़ों में ही दूध पिलाते हैं।

78.8 फीसदी डेयरियों में हर समय मवेशियों का घूमना आम है। एक छोटे से क्षेत्र में अधिकतम संख्या में मवेशियों को समायोजित करने के लिए जगह बहुत कम होती है। इतना ही नहीं, कई जगह पर पशु इधर-उधर कहीं जा न पाएँ, इसलिए उन्हें रस्सी या चेन से बाँध दिया जाता है। इससे मवेशियों को अत्यधिक शारीरिक कष्ट होता है, साथ ही उनको उन्हें प्राकृतिक आरामदायक जीवन बिताने में बाधक होता है। चारे की गुणवत्ता और मात्रा डेयरी मालिक की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। 57.8 फीसदी फार्म प्रतिदिन अपने मवेशियों के लिए ज़रूरी न्यूनतम मात्रा (20 किग्रा) से आधे से भी कम खिलाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से बार-बार प्रजनन करने से पशुओं को गम्भीर प्रजनन समस्याएँ होती हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि कुल मवेशियों की 30-40 फीसदी इससे प्रभावित पायी गयी।

मादा पशु से उसके बच्चों को कर देते हैं अलग

24 फीसदी डेयरियों में जन्म के तुरन्त बाद मादा पशुओं से उनके बच्चों को अलग कर दिया गया। ये बछड़े अपनी माँ से कभी सम्पर्क नहीं कर पाते हैं। 25.1 फीसदी डेयरियों में पशुओं के नर बछड़ों की मृत्यु पहले महीने के भीतर हो जाती है। यदि वे जीवित रहते हैं, तो उन्हें या तो बेच दिया जाता है या काटने के लिए भेज दिया जाता है। बूढ़े, गैर दूध देने वाले मवेशियों को भी 62.9 फीसदी डेयरियों के मालिक छोटे किसानों या बूचडख़ानों को बेच रहे हैं। डेयरी किसानों के लिए सबसे सुविधाजनक विकल्पों में से एक सडक़ों पर इन गैर-ज़रूरी गायों को छोडऩा भी हो गया है। लगभग 57.85 फीसदी डेयरियों में जानवरों में तनाव की स्थिति या चोटें पायी गयीं। लगभग 55.9 फीसदी डेयरी मालिक दूध देने के लिए बीमार जानवरों के उपयोग की अनुमति देते हैं। 64.1 फीसदी डेयरियों में छोटी चोटों से लेकर ट्यूमर और फ्रैक्चर तक की चोटें पायी गयीं।

ऑक्सीटोसिन का उपयोग

दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन का अवैध उपयोग 46.9 फीसदी डेयरी में एक सामान्य घटना है। डेयरी मालिक अत्यधिक मात्रा (3 से 4 मिली) तक का प्रयोग करते हैं। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स, 1945 के तहत, ऑक्सीटोसिन एक शेड्यूल-एच ड्रग है और इसे केवल एक पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर के प्रिस्क्रिप्शन पर ही सप्लाई करना होता है। ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन के निर्माण को इसके दुरुपयोग से बचने के लिए केवल सिंगल यूनिट ब्लिस्टर पैक में देना ज़रूरी है। पशु चिकित्सा देखभाल के 84.3 फीसदी मामलों में नियमित टीकाकरण प्रदान नहीं किया गया। इससे पशुओं में घातक रोग, जैसे- पैर और मुँह के रोग (एफएमडी), रक्तस्रावी सेप्टिसीमिया (एचएस) और ब्लैक क्वार्टर रोग का प्रकोप होता है। इंजेक्शन के टीके से बुखार आने की स्थिति से प्रेरित होकर और दूध की मात्रा में गिरावट को रोकने के लिए मुख्य रूप से टीकाकरण से बचा जाता है। मवेशी परिसर के लिए पंजीकरण नियम 1978 के तहत, शहरों या कस्बों में जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा है, वहाँ पर डेयरियों का पंजीकरण करना कराना ज़रूरी है। इस नियम का पालन लगभग कहीं नहीं किया जाता है। केवल 14.3 फीसदी डेयरियाँ सम्बन्धित नगर निगमों या भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के तहत पंजीकृत थीं। पूर्वी दिल्ली क्षेत्र में कई वर्षों से दूध बेचने वाले से सम्पर्क किया, जो राष्ट्रीय राजधानी में दूध की आपूर्ति करता है। इस दूध विक्रेता गोविंद ने कहा कि मैं 10 लीटर दूध में एक लीटर पानी मिलाता हूँ; लेकिन कभी भी कोई अवशेष नहीं मिलाता।’ उसने कहा कि मुझे नहीं पता कि दूध उत्पादक डिटर्जेंट का इस्तेमाल करते हैं या नहीं।

राज्यवार मुद्दे

उत्तर प्रदेश में जो 233.30 लाख टन के वार्षिक उत्पादन के साथ देश का सबसे बड़ा दूध उत्पादक राज्य है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 56 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे। 76 फीसदी डेयरियों में मवेशियों के लिए किसी भी प्रकार से बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था नहीं मिली। 74 फीसदी डेयरियों में तो जंज़ीरों या रस्सियों के बिना भी जानवर इधर-उधर नहीं टहल सकते थे। लगभग 22 फीसदी डेयरियाँ दूध देने के दौरान ऑक्सीटोसिन का उपयोग करती हैं। 50 फीसदी डेयरियाँ पशु नर बछड़ों को स्वाभाविक रूप से तब तक बाहर निकालने की अनुमति नहीं देती हैं, जब तक कि मादा पशु करीब छ: से सात माह दूध देने की स्थिति में होती हैं। लगभग 92 फीसदी डेयरियों में नियमित रूप से पशु चिकित्सक नहीं आते हैं। करीब 18 फीसदी डेयरियों में कोई भी जीवित नर बछड़ा नहीं था; जबकि 24 फीसदी डेयरियों ने बछड़ों को काटने के लिए बेच दिया। लगभग 70 फीसदी डेयरियों को पुराने, अनुत्पादक मवेशियों को हटा दिया गया; जबकि 28 फीसदी डेयरियों ने पशुओं को काटने लिए बूचडख़ानों को बेच दिया। लगभग 48 फीसदी डेयरियों ने लगातार दूध देने के लिए बीमार जानवरों का भी इस्तेमाल किया।

राजस्थान देश का दूसरा सबसे बड़ा डेयरी उत्पादक राज्य है, जिसका लक्ष्य उत्तर प्रदेश से आगे निकलना है। यहाँ भी 51.06 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे। किसी भी डेयरियों ने मवेशियों के बैठने की खास व्यवस्था नहीं थी। लगभग 14.3 फीसदी डेयरियों ने दूध पिलाते समय ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया। लगभग 87.2 फीसदी डेयरियों ने अपने मवेशियों को एक छोटे से तार पर बाँध दिया। पशुओं के नर बच्चों के साथ ज्यादती हुई; क्योंकि 42.9 फीसदी डेयरियों में एक भी जीवित नर पशु नहीं मिला।  50 फीसदी से अधिक डेयरियों ने नर बछड़ों को काटने के लिए बेच दिया था। लगभग 40.8 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार और घायल जानवरों का इस्तेमाल किया। 98 फीसदी डेयरियों में प्रकाश की उचित सुविधाओं का अभाव था, साथ ही मवेशियों के लिए आराम करने को पर्याप्त जगह भी नहीं थी।

तेलंगाना, दक्षिण भारत का एक प्रमुख दूध उत्पादक  राज्य है। यह 127.6 लाख टन के उत्पादन के साथ देश के कुल दूध उत्पादन में 9.6 फीसदी का योगदान देता है। यहाँ की डेयरी की हालत भी अच्छी नहीं पायी गयी। 88.9 फीसदी डेयरियों में फर्श के रूप में सीमेंट और ईंटों का मिश्रण था। लगभग 82.2 फीसदी डेयरियों में हर समय जानवरों को रखा जाता था। 53.3 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया गया और 93.3 फीसदी डेयरियों में नियमित रूप से जाने वाले पशु चिकित्सक नहीं थे। लगभग 73.3 फीसदी डेयरियों ने या तो नर बछड़ों को छोटे किसानों को या फिर काटने के लिए बेच दिया। 64.5 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार और घायल जानवरों का उपयोग किया।  82.2 फीसदी डेयरियों में रोशनी की कोई खास व्यवस्था नहीं थी और 86.6 फीसदी डेयरियों में आराम करने को भी पर्याप्त जगह नहीं थी। इसके अलावा 70 फीसदी डेयरियाँ गैर दूध देने वाले मवेशियों को किसानों या बूचडख़ानों को

बेचती हैं। गुजरात कुल राष्ट्रीय दुग्ध उत्पादन में 103 लाख टन दूध का योगदान देता है और प्रतिष्ठित दूध ब्रांड ‘अमूल’ यहीं का है। विभिन्न डेयरी और सहकारी संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), गहन मवेशी विकास कार्यक्रम (आईसीडीपी), भारतीय कृषि उद्योग फाउंडेशन (बीएआईएएफ) जैसी कई स्थानीय डेयरी योजनाएँ चलायी जा रही हैं, ताकि लोगों को डेयरी लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले सभी मुद्दों को लाभदायक व्यवसाय के रूप में विकसित किया गया है। यहाँ भी, 68.1 फीसदी डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 85.1 फीसदी डेयरियों ने जानवरों को छोटी रस्सियों पर बाँधकर रखा, जिसमें आराम करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी। लगभग 34.1 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। गुजरात में भी 72.34 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया।

पंजाब को देश का कृषि का कटोरा कहा जाता है और यहाँ पर कुल दुग्ध उत्पादन का 7.3 फीसदी होता है। अपनी खुद की ‘दूध क्रान्ति’ अपनाने पर भी कई समस्याएँ सामने आती हैं। यहाँ  90 फीसदी से अधिक डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 76 फीसदी डेयरियों ने मवेशियों को किसी भी प्रकार बैठने की उचित व्यवस्था नहीं थी। 72 फीसदी से अधिक डेयरियों में बूढ़े जानवर मिले। 52 फीसदी डेयरियों में अंधाधुन्ध ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया गया था। करीब 92 फीसदी डेयरियों में मवेशियों के इलाज के लिए स्थानीय सरकारी पशु चिकित्सकों पर निर्भरता है। 58 फीसदी डेयरियों में नर बछड़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है।

मध्य प्रदेश में जहाँ तक दुग्ध उत्पादन का सवाल है, यहाँ पर 60 लाख टन दूध का उत्पादन राष्ट्रीय स्तर पर करता है। अपनी निमरी और देवनी गाय की नस्लों के लिए जानी जाने वाली स्थानीय सहकारी समितियाँ और पशुपालन विभाग व्यवसाय करने के लिए बेहतर और कुशल सुविधाओं के साथ अधिक लोगों तक पहुँचने के एजेंडे पर काम कर रहा है। हालाँकि, 59.5 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे और 59.5 फीसदी डेयरियों में पशु हमेशा बँधे रहते हैं। अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए लगभग 50 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। लगभग 38.1 फीसदी डेयरियों ने अपने मवेशियों को किसानों को या वध के लिए बेच दिया और 35.7 फीसदी डेयरियों ने अपने पुराने जानवरों को लावारिस छोड़ दिया। लगभग 50 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया।

इसी तरह की स्थिति महाराष्ट्र की भी है। यहाँ पर देश के कुल दूध के हिस्से में 6.5 फीसदी योगदान करता है। राज्य की मौज़ूदा 13 डेयरी मशीनरी में सुधार के साथ दुधारू मवेशियों की उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से नवीनपूर्न योजना शुरू की गयी थी। लगभग 51.4 फीसदी डेयरियों में फर्श केवल एक से बने थे, जिनमें ईंटें या केवल सीमेंट या दोनों का मिश्रण इस्तेमाल किया गया। 100 फीसदी डेयररियों में पशु हर समय बँधे हुए मिले। ऑक्सीटोसिन का उपयोग प्रचलित था; क्योंकि 48.6 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का उपयोग किया गया। नर बछड़ों को या तो लावारिस छोड़ दिया गया या 74.3 फीसदी डेयरियों में काटने के लिए बेच दिया गया। बूढ़े मवेशियों को या तो छोटे किसानों को बेच दिया गया या 60 फीसदी डेयरियों में काटने के लिए और 51.4 फीसदी डेयरियों में दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया गया।

हरियाणा राज्य दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में एक विशेष स्थान रखता है और इसे 2014-15 में 70.4 लाख टन दूध का उत्पादन किया। इस छोटे से राज्य को देश की ‘दूध की बाल्टी’ के रूप में जाना जाता है। राज्य का 80 फीसदी से अधिक दूध अकेले भैंसों से आता है। यह सूबा भैंस की अपनी ‘मुर्रा’ नस्ल के लिए मशहूर है। राज्य सरकार 2014-15 में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से अपने स्वदेशी मवेशियों का संरक्षण और विकास करना है। इस राज्य में, 64.6 फीसदी डेयरियों में केवल ईंट और सीमेंट के फर्श थे और 58.3 फीसदी डेयरियों में मवेशियों को खुला में नहीं छोड़ा जाता था। ऑक्सीटोसिन का उपयोग काफी प्रचलन में था, क्योंकि 43.8 फीसदी डेयरियों में मवेशियों पर ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता था। लगभग 91.66 फीसदी डेयरियों में बीमारियों की जाँच के लिए कोई नियमित पशुचिकित्सा की व्यवस्था नहीं थी। 60.42 फीसदी डेयरियों ने अपने बूढ़े, अनुत्पादक मवेशियों को गरीब किसानों को बेच दिया या उन्हें काटने के लिए भेजा। 58.3 फीसदी डेयरियों में बीमार, घायल पशुओं का इस्तेमाल दूध निकालने में किया।

रोज़ाना 145.88 लाख लीटर के उत्पादन के साथ तमिलनाडु दूध उत्पादन में अग्रणी राज्य है। तमिलनाडु को-ऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स फेडरेशन लिमिटेड को गुजरात 15 मॉडल की तर्ज पर 1981 में शुरू किया गया था और इसे ‘आविन’ के नाम से जाना जाता है। सीमांत किसानों को 16 डेयरियों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न योजनाएँ 2011 से राज्य सरकार द्वारा शुरू की गयी हैं। यहाँ तक कि 65.6 फीसदी डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 74.3 फीसदी डेयरियों ने हमेशा अपने मवेशियों को बाँध के रखा। 60 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का उपयोग पाया गया।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का देश के कुल डेयरी उत्पादन में 2 फीसदी का योगदान है। इसके सीमांत इलाकों में डेयरियों के विशाल विस्तार है। वसंत कुंज और गाज़ियाबाद, जैसे- क्षेत्रों में एक क्षेत्र में 15,000 मवेशी रखने वाली लगभग 100 डेयरियाँ हैं। अफसोस की बात है कि डेयरी मालिकों के लिए प्रशासन की ओर से बेहतर समर्थन नहीं मिलता है या जिसकी वे उम्मीद करते हैं। यहाँ की डेयरियाँ अक्सर कचरा डंपिंग साइटों, सीवेज लाइनों और अवैध बूचडख़ानों से घिरी होती हैं। 90 फीसदी डेयरियों में ईंटों और सीमेंट के बने फर्श थे। मवेशी ज्यादातर हर समय बँधे रहते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 100 फीसदी डेयरियों में मवेशियों पर ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। लगभग 100 फीसदी डेयरियों में कोई भी नर बछड़ा दो महीने से अधिक पुराना नहीं था। उन्हें या तो मरने के लिए छोड़ दिया गया या काटने के लिए बेच दिया गया।

माँग के साथ बढ़ीं चुनौतियाँ

1997 से भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है; लेकिन वर्ष 2014 में इसने पहली बार पूरे यूरोपीय संघ को हरा दिया। भारत के बाद देश के आधार पर अमेरिका सबसे अधिक दूध का उत्पादन करने वाला देश बन गया। चीन तीसरे स्थान पर आता है। हमारी प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता प्रतिदिन 300 ग्राम से अधिक है, जो कि दुनिया के औसत 294 ग्राम प्रतिदिन से कुछ ज्यादा है। हालाँकि, बढ़ती आय व आबादी और बदलती खाद्य प्राथमिकताओं के कारण, दूध और दूध उत्पादों की माँग 2021-22 तक कम-से-कम 2100 लाख टन हो जाएगी, जो कि पाँच वर्षों में 36 फीसदी की वृद्धि होगी। सरकारी आँकड़ों के एक इंडियास्पेंड के विश्लेषण के अनुसार, दूध की पैदावार बढ़ाने के लिए भारत को 2020 तक 1,764 मिलियन टन चारा पैदा करना होगा। लेकिन मौज़ूदा स्रोत केवल 900 मिलियन टन चारे का प्रबंधन कर सकते हैं; इसका मतलब यह है कि 49 फीसदी चारे की कमी। आँकड़ों से साबित है कि चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता का दूध की उत्पादकता की मात्रा और गुणवत्ता पर सीधा असर पड़ता है। 2015 के एसओआईएल रिपोर्ट के अनुसार, तीनों प्रमुख दुग्ध उत्पाद राज्यों ने प्रतिदिन ग्राम उत्पादकता के मामले में राजस्थान (704), हरियाणा (877) और पंजाब (1,032) में चारागाहों के लिए अपनी खेती योग्य भूमि का 10 फीसदी हिस्सा इस्तेमाल किया, जबकि राष्ट्रीय औसत 337 है।

सख्त कानून प्रस्तावित

इस बीच, खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों को आजीवन कारावास और 10 लाख तक के ज़ुर्माने का सामना करने जैसा सख्त कानून का प्रस्ताव रखा गया है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) द्वारा प्रस्तावित संशोधनों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खाद्य पदार्थों में मिलावट पर अंकुश लगाने के लिए कड़ी सज़ा की सिफारिश की गयी है। नियामक ने अपने सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रवर्तन प्रभागों से कहा है कि वे दूध उत्पादकों की कड़ाई से जाँच करें, ताकि वे खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम का अनुपालन किया जा सके।

(यदि पाठकों के पास दूध में मिलावट या इससे सम्बन्धित कोई तथ्य या सबूत हो, तो तहलका को बताएँ।)

तहलका की पहल से गरमाया हनी ट्रेप का मामला

बहुचर्चित इंदोर हनी ट्रेप कांड की पहेली अभी तक सुलझती नज़र नहीं आ रही है। अब तक इस कांड के िकरदारों को लेकर जनमानस में न जाने कितने मिथक और िकस्से प्रचलित हो चुके हैं। पिछली सितंबर का एक पखवाड़ा तो पूरी तरह ‘हनी ट्रेप’ की बुरी खबरों से भरा रहा। सर्वाधिक चर्चा में जयपुर सोलर प्लांट व्यवसायी से 6 कोड निचोडऩे वाली अनुराधा रही। पुलिस जब इस गिरह को खोलने में जुटी, तो बैनाड रोड  ठेकेदार को ब्लेकमेल की कहानी भी पर्दे उठाकर बाहर आ गयी। इन कहानियों के पेंच कहीं-न-कहीं बीते बरस फन्देबाज़ कथित वकीलों और पत्रकारों से जुड़े पाये गये, तो रहस्य की नयी परतें खुलने लगीं। एसओजी द्वारा की जा रही जाँच के दौरान ‘तहलका’ के अंक में ‘जिस्म जलवा…।’ शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट ने मामले को और गरमा दिया। नतीजतन एसओजी की जाँच का दायरा बढ़ा, तो इसके सूत्र इंदोर के ‘हनी ट्रेप’ कांड से जुड़ते नज़र आये। राष्ट्रीय स्तर के एक अखबार के क्षेत्रीय संस्करण ने अपनी खबरों में इस बात की तस्दीक करते हुए ज्यादा खुलासा करने से परहेज़ बरता। लेकिन संलिप्तता के मामले में उँगलिया अनुराधा, उसकी माँ, मौसी तथा सहयोगी की तरफ उठती नज़र आती हैं। घटनाओं के इन नये-नये खुलासों ने अनेक नयी उलझनें और कई नये सवाल पैदा कर दिये हैं। किन्तु सूत्रों का कहना है कि एसओजी इस मामले में कुछ भी कहने से बच रही है। सूत्रों का कहना है कि इंदोर हनी ट्रेप कांड में राजस्थान का जुड़ाव किन युवतियों को लेकर है? िफलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता। पुलिस कहकर कन्नी काट रही है कि ‘जो भी होगा, सब सामने आ जाएगा।’ इंदोर हनी ट्रेप मामले में मध्य प्रदेश पुलिस ने  श्वेता स्वप्निल जैन, श्वेता, बरखा, आरती और मोनिका के गिर्द शिकंजा कसा था। इस पूरे मामले में आरती ने ही मीडिया के सामने अपने आपको बेगुनाह बताते हुए कहा कि मेरे से खाली कागज़ों पर दस्तखत कराये जा रहे हैं; जबकि पुलिस सूत्रों का कहना था कि आरती दलाल ने अपनी गिरफ्तारी के 10वें दिन ही अपना गुनाह कुबूल कर लिया था।

बताते चले कि इंदोर हनी ट्रेप कंाड की परतें खुलने की शुरुआत बड़ी ठगी के शिकार हो चुके इंजीनियर हरभजन सिंह की शिकायत और कानूनी मदद के लिए लम्बी भागदौड़ के साथ हुई। सूत्रों का कहना है कि आरती उसका आपत्तिजनक वीडियो बनाकर तीन करोड़ वसूल चुकी थी। सूत्रों का कहना है कि आरती ने न सिर्फ अपने राज़ खोले, बल्कि श्वेता और बरखा से जुड़ी बातें भी उजागर कर दीं। सूत्रों का कहना है कि इस पूरे खेल में परदे की आड़ में कई सत्ताधारी चेहरे, सफेदपोश हैं, तो दूसरी ओर पुलिस और प्रशासन के आला अफसर भी हैं, बाकी कई मोहरे भी हैं, जो इस काम को दुबे-छिपे अंजाम देते हैं। माना जा रहा है कि अगर इस मामले पर से परदे हटाये जाएँ तो हनी ट्रेप में संलिप्त बालाओं के साथ-साथ कई कद्दावर चेहरे कानून के शिकंजे में फँस जाएँगे। लेकिन पुलिस के साथ-साथ सरकार भी इस मामले पर ठीक से जाँच करने से कतराती नज़र आ रही है। ऐसा क्यों किया जा रहा है? यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है, क्योंकि सरकार खुद इसमें दिलचस्पी नहीं ले रही है। देखना यह है कि इस मामले को तहलका के उठाने के बाद सरकार की सक्रियता में क्या इज़ाफा होता है? अगर सरकार इस मामले की ठीक से जाँच कराती है, तो इस बात का खुलासा हो जाएगा कि राजस्थान में इस कालिख में कौन-कौन सी बालाएँ और कौन-कौन रसूखदार शामिल हैं। अफसोस इस बात का है कि हर ज़ुबान पर ताले लगे हुए हैं। फिर भेद कैसे खुलेगा?

श्वेत क्रान्ति का स्याह पक्ष!

इस बार तहलका की आवरण कथा मिलावटी दूध पर है। इसमें हम खुलासा कर रहे हैं कि जो दूध हम पी रहे हैं, वह कैसे हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक है। कुछ समय पहले, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत को एक सलाह जारी की कि अगर दूध में मिलावट पर रोक नहीं लगायी गयी, तो 2025 के अंत तक भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कैंसर जैसी गम्भीर और घातक बीमारियों की चपेट में होगा। उस समय यह उम्मीद की गयी थी कि देश में व्यापक पैमाने पर मिलावटी दूध की जाँच करके मिलावट रोकने हेतु कड़े कदम उठाये जाएँगे। लेकिन नतीजा- कुछ भी नहीं बदला, सब कुछ वैसे ही चल रहा है। आप चौंक जाएँगे कि जो दूध हम लोग पीते हैं, उसमें डिटर्जेंट, कास्टिक सोडा, हाइड्रो पेरॉक्साइड जैसे खतरनाक पदार्थ मिले होते हैं, जो ब्लीचिंग के अलावा यूरिया आदि में इस्तेमाल होते हैं। बताना चाहेंगे कि यह पदार्थ आमतौर पर उर्वरक, एलाटॉक्सिन और पेंट में उपयोग किये जाते हैं।

भारत के खाद्य नियामक, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने हाल में अभी भारतीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को कवर करते हुए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया है। यह सर्वेक्षण बताता है कि लगभग 41 फीसदी नमूने, एक या ज्यादा गुणवत्ता पैमाने पर विफल रहे हैं। फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गेनाइजेशन (एफआईएपीओ) की तरफ से जारी किया गया डाटा बहुत चिन्ताजनक है। जाँच रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत भर में डेयरियों में पायी जाने वाली गाय-भैंसों को दुग्ध उत्पादन करने के लिए एंटीबायोटिक्स और हार्मोन के टीके लगाये जाते हैं। नतीजतन लोग जो दूध पीते हैं, उनमें हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर और कई अन्य बीमारियों के होने की सम्भावना अधिक हो जाती है। सन् 1975 में शुरू की गयी श्वेत क्रान्ति ने भारत में श्वेत क्रान्ति की शुरुआत की। इसने भारत को दूध का सबसे बड़ा उत्पादक बना दिया और इससे भारत का दूध उत्पादन 22 मिलियन टन से बढ़ाकर वर्तमान में 176.3 मिलियन टन हो गया। यह अच्छा लगता है कि भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 300 ग्राम है, जो विश्व औसत के मुकाबले 294 ग्राम दैनिक से अधिक है। हालाँकि, दुर्भाग्य से लालच के चलते कुछ दुग्ध व्यापारी मिलावट का खेल करके जनता के स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं। वैसे अच्छी खबर यह है कि लम्बे समय बाद एफएसएसएआई ने खतरे को समझते हुए खाद्य मिलावट पर अंकुश लगाने के लिए मिलावटखोरों के िखलाफ कड़े दंड की सिफारिश की है। इसमें आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का ज़ुर्माना शामिल है। खाद्य नियामक ने खाद्य सुरक्षा और मानक (एफएसएस) अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव भी किया है।

एफएसएसएआई ने प्रस्ताव किया है कि कोई भी व्यक्ति, जो खाद्य पदार्थों में मिलावट का दोषी पाया जाता है और उसके कारण पदार्थ मानव उपभोग के लिए हानिकारक बन गया है, तो उसे ऐसा दंड दिया जाए, जो 7 साल से कम नहीं हो या आजीवन कारावास तक हो;  साथ ही उस पर ज़ुर्माना भी किया जाए, जो 10 लाख रुपये से कम नहीं हो। वर्तमान में इस ज़ुर्म के लिए कारावास सिर्फ तीन महीने का है और ज़ुर्माना भी एक लाख रुपये तक है। हालाँकि, इस मामले में आम नागरिकों को भी जागरूक होना होगा और दूध और खाद्य तेलों के लिए तुरन्त नतीजे वाले, लेकिन सस्ते स्वदेशी निर्मित खाद्य परीक्षण उपकरणों से मिलावट को जाँचने की कला सीखनी होगी। इस तरह के उपकरणों को हाल में एफएसएसएआई ने पेश किया है। निश्चित ही अब स्वास्थ्य के बारे में हमें अपनी सोच बदलने का समय आ गया है।

नयी चुनौतियाँ, नये भाजपा अध्यक्ष

पार्टी के शीर्ष तक पहुँचने के बाद जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गये हैं। उनकी राजनीतिक गाथा अद्भुत रही है। हिमाचल से ताल्लुक रखने वाले नड्डा केंद्र और राज्य में मंत्री रहने के अलावा भाजपा की छात्र और युवा दोनों इकाइयों के अध्यक्ष रहे हैं। पिछले कुछ महीने से कार्यकारी अध्यक्ष रहे नड्डा के लिए अध्यक्ष पद के कार्यभार की नयी चुनौतियाँ रहेंगी। इसी को लेकर राकेश रॉकी का यह विश्लेषण

जगत प्रकाश नड्डा यानी जे.पी. नड्डा भाजपा के नये अध्यक्ष बन गये। अपनी मेहनत के बूते पार्टी के सबसे बड़े पद पर पहुँचे नड्डा के सामने कई चुनौतियाँ हैं। पिछले महीनों में जिस तरह भाजपा ने कुछ अहम राज्य खोये हैं, उससे नड्डा के सामने चुनौती और भी बड़ी हो जाती है। पहले फरवरी में दिल्ली और साल के आिखर में बिहार विधानसभा के चुनाव में पार्टी के नैया पार लगाने के लिए इस दिग्गज रणनीतिकार से पार्टी को बहुत उम्मीद रहेगी।

नड्डा जिन अमित शाह से भाजपा की बागडोर सँभाल रहे हैं, उन्हें एक मौके पर भाजपा के बीच जीत की गारन्टी देने वाला भाजपा अध्यक्ष माना जाता रहा है। हालाँकि, यह भी सच है कि पिछले महीनों में भाजपा को राज्यों के मोर्चे पर मात खानी पड़ी है, जिसे शाह की ख्याति के विपरीत कहा जा सकता है। करीब पाँच साल तक भाजपा की कमान पूरी ताकत से थामने वाले शाह एक मौके पर भाजपा में अपरिहार्य अध्यक्ष रहे। अब उनका ज़िम्मा नड्डा के कन्धों पर आ गया है।

भाजपा की राजनीति में नड्डा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों के करीब रहे हैं। दोनों नड्डा की रणनीतिक क्षमताओं के कायल रहे हैं, जिन्हें नड्डा ने समय-समय पर साबित भी किया है। इसी का नतीजा है कि आज नड्डा पार्टी के शीर्ष पद तक पहुँच गये हैं।

पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले जब उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे बहुत ही अहम राज्य की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी तब काफी बड़ी चुनौती उनके सामने थी। सपा-बसपा जैसे दो मज़बूत दलों ने हाथ मिला लिया था और भाजपा को उन्हें परास्त करके ही लोकसभा की ज्यादा सीटें मिल सकती थीं। नड्डा ने ज़मीनी हकीकत के आधार पर भाजपा की रणनीति बुनी और भाजपा संगठन को सपा-बसपा गठबन्धन के सामने मज़बूती से खड़ा रखते हुए 80 में से 64 सीटें जीत लीं। भाजपा में बहुत नेता इसे नड्डा की संगठन क्षमता के बूते ही सम्भव मानते हैं।

साल 2010 में वे भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री बनाये गये। वे इस दौरान जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, केरल, राजस्थान और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के प्रभारी रहे। साल 2012 में उन्हें राज्यसभा सदस्य चुना गया, जबकि 2014 में नड्डा भाजपा केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सचिव नियुक्त हुए। इस तरह एक लम्बा सफर नड्डा ने संगठन में तय किया है।

नयी चुनौतियाँ हैं सामने

इन सब उपलब्धियों के बाद अब नड्डा के सामने संगठन को देश भर में चलने की बड़ी चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारी है। भाजपा भले अभी भी देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल हो, पिछले कुछ विधानसभा चुनाव भाजपा ने हारे हैं। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा को जीत का जैसा चस्का लगा था, उसे इन हारों से झटका लगा है। भाजपा को दो साल पहले तक अपराजय पार्टी माना जा रहा था लेकिन इन दो वर्षों में भाजपा ने कई राज्य गँवा दिये हैं।

हरियाणा में तीन महीने पहले जब उसने सरकार बनायी, तो उसे जेजेपी का सहारा लेना पड़ा; क्योंकि उसका अपना बहुमत नहीं आया था। महाराष्ट्र में तो उसकी भरोसेमंद साथी और उसकी ही विचारधारा से मेल खाने वाली शिव सेना ने कांग्रेस जैसी उसकी मुखर विरोधी के साथ हाथ मिला लिया। इसके बाद झारखंड में भाजपा को शर्मनाक हार झेलनी पड़ी, जहाँ उसके केंद्र के सहयोगी भी उससे अलग होकर चुनाव में उतरे।

इन घटनाओं पर नज़र दौड़ाएँ तो पता चलता है कि भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती अपने सहयोगियों को सँभालने की भी है। पिछले कुछ महीनों में भाजपा ने तीन बड़े सहयोगियों को खो दिया है, जिनमें टीडीपी और शिवसेना भी शामिल हैं। एनआरसी जैसे मुद्दों पर भाजपा के अपने कई सहयोगियों के विचार भिन्न हैं और वे इस पर नाराज़गी जता रहे हैं।

बिहार, जहाँ इस साल के आिखर में ही विधानसभा चुनाव होने हैं, वहाँ पार्टी की  सरकार में सहयोगी जेडीयू हाल के उसके फैसलों को लेकर सवाल उठा रही है। खुद  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एनआरसी को लेकर साफ कह चुके हैं कि बिहार में इसे किसी भी रूप में लागू नहीं किया जाएगा। नीतीश के करीबी सहयोगी प्रशांत किशोर खुले रूप से भाजपा की नीतियों के िखलाफ खड़े दिख रहे हैं। उनके विरोध की भाषा में वहीं तल्खी दिख रही है, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एनआरसी, सीएए , एनपीआर और एनआरसी के िखलाफ है।

कुछ मुद्दों पर लोकसभा और राज्यसभा में मोदी सरकार का समर्थन करते रहे ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तक एनआरसी आदि के िखलाफ हैं। कांग्रेस और दूसरे दलों के मुख्यमंत्री तो इन का सख्त विरोध कर ही रहे हैं। ऐसे में भाजपा के सामने दिक्कत आने वाले दिनों में राज्यसभा में बिल पास करवाने की भी आएगी। नये अध्यक्ष नड्डा खुद राज्य सभा के सदस्य हैं, लिहाज़ा उन पर यह बड़ी ज़िम्मेदारी होगी कि वे पार्टी के सहयोगियों को साथ रखने के लिए कोई मज़बूत रणनीति बनायें।

कांग्रेस अभी भी भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी है। भले भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था, समय के साथ यह गलत साबित होता जा रहा है। पिछले लगभग एक साल में कांग्रेस तीन राज्यों में अपनी सरकार बना चुकी है, जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में वह सहयोगियों के साथ सरकार का हिस्सा बन चुकी है। भाजपा ने यह सभी राज्य खो दिये हैं। दिल्ली में भी बहुत बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है, ऐसे में नड्डा की चुनौतियों सचमुच बहुत बड़ी हैं।

एक समय कांग्रेस भी संगठन के रूप में राज्यों में कमज़ोर होकर सिर्फ केंद्र एक ही सीमित रह गयी, जिसका नुकसान यह हुआ कि लोकसभा के चुनाव में भी उसे सीटों के लाले पडऩे लगे। भाजपा भी उसी तरफ न बढ़ जाये, नड्डा को इस पर तीखी नज़र रखनी होगी। अन्यथा उसका हश्र कांग्रेस जैसा होने का खतरा बन जाएगा।

पार्टी के भीतर शाह के समय में ज़बरदस्त अनुशासन तो रहा है; लेकिन एक तरह की निरंकुशता भी पार्टी में बनी है। ऐसे में नड्डा को उससे बाहर भी पार्टी को निकलना होगा और कार्यकर्ता की निचले स्तर पर बात सुननी होगी। नहीं तो पार्टी कार्यकर्ता धीरे-धीरे संगठन में रुचि खो देगा।

एक और अहम चीज़ राज्यों में मुख्यमंत्री तय करने की भी है। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा का मुख्यमंत्री चयन पार्टी के लिए कोई ज्यादा लाभकारी नहीं रहा है। महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री घोषित करने के बावजूद पार्टी की सीटें विधानसभा चुनाव में घट गयीं। पार्टी ने अपनी सरकार भी खो दी। सबसे बड़ी फज़ीहत बिना बहुमत जुटाये फडणवीस का एनसीपी नेता अजित पवार के साथ शपथ लेना रहा। इससे पार्टी को छवि को बहुत बड़ा धक्का लगा है।

हरियाणा में भी भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पार्टी को विधानसभा चुनाव में मज़बूत सफलता नहीं दिलवा पाये। भाजपा की सीटें इतनी घट गयीं कि उसे जेजेपी का समर्थन लेकर सरकार बनानी पड़ी।

झारखंड में भाजपा को बहुत बड़ा झटका लगा जब उसने सत्ता खो दी। जिन रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद का दोबारा उम्मीदवार बनाया गया, वे भाजपा को जीत तक ले जाना तो दूर, उलटे 13 सीटें खोने के ज़िम्मेदार बने। इस तरह भाजपा के नए अध्यक्ष नड्डा के सामने भविष्य में यह बड़ी चुनौती रहेगी कि उन चेहरों को मुख्यमंत्री बनाया जाए, जो पार्टी को चुनावों में सफलता दिला सकें। महाराष्ट्र में तो फडणवीस पर यह आरोप अब ज़ोर-शोर से लग रहा है कि उन्होंने राज्य में मराठा नेताओं को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

दिल्ली में रिमोट

भाजपा में भी अब यह महसूस किया जाने लगा है पार्टी की राजनीति पूरी तरह दिल्ली से चलने लगी है। अर्थात् संगठन को चलाने का रिमोट दिल्ली में बन गया है। इससे राज्यों के नेता कमज़ोर होने लगे हैं। भले भाजपा आंतरिक लोकतंत्र की जितनी बड़ी बातें करे, सच यह है कि भाजपा की राजनीति धीरे-धीरे केंद्रीकृत होती जा रही है। नड्डा को निश्चित ही भाजपा को इस सोच से बाहर लाना होगा। नहीं तो इसके नतीजे भाजपा के समय में बहुत खराब भी साबित हो सकते हैं। शाह की तरह चूँकि नड्डा मंत्री नहीं हैं, वे संगठन को पूरा वक्त दे पाएँगे। शाह पिछले महीनों में गृह मंत्रालय की बहुत व्यस्त ज़िम्मेदारियों में उलझे रहे हैं, लिहाज़ा यह माना जा सकता है कि वे संगठन को उतना वक्त नहीं दे पाए। नड्डा के सामने यह समस्या नहीं है और एक पूर्णकालिक अध्यक्ष के नाते वे पूरा समय संगठन को दे पाएँगे।  कांग्रेस भी दिल्ली से रिमोट के कारण ही राज्यों में कमज़ोर हुई थी। भाजपा को निश्चित ही इससे बचना होगा। वे अपनी टीम बनाएँगे तो उम्मीद की जा रही है कि इसमें वे राज्यों में पार्टी को और मज़बूत कर पाएँगे। पिछले महीनों में विरोधी ही नहीं खुद भाजपा के नेता भी यह महसूस करने लगे हैं कि भाजपा दो नेताओं मोदी और शाह पर ही पूरी तरह निर्भर होकर रह गयी है। विधानसभाओं के चुनाव में भी भाजपा का प्रचार मोदी के आये बगैर गति नहीं पकड़ता है जो पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

जेपी आंदोलन से शुरुआत

बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि नड्डा वास्तव में जेपी आंदोलन की उपज हैं।

उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1975 में ही हो गयी थी, जब जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को हिलाकर रख दिया था। नड्डा ने इस आंदोलन में एक छात्र के रूप में हिस्सा लिया था। इसके तुरन्त बाद वे बिहार भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से जुड़ गये। आपातकाल के तुरन्त बाद सन् 1977 में नड्डा ने अपने कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था और जीतकर वे पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के सचिव बने। नड्डा 1977 से 1979 तक रांची में रहे, जहाँ  उनके पिता एनएल नड्डा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति और पटना विवि के प्रोफेसर थे।

पटना विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद नड्डा ने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एलएलबी की पढ़ाई की। साल 1983 में पहली बार हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव (एससीए) में वह विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष चुने गये। वे हिमाचल के पहले ऐसे नेता हैं, जो किसी बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अध्यक्ष बने हैं। भाजपा का दावा रहा है कि वह विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। ऐसे में हिमाचल के लिए यह गौरव की बात कही जाएगी। इससे राष्ट्रीय राजनीति में इस अपेक्षाकृत छोटे पहाड़ी राज्य की बड़ी पहचान बन जाएगी। 1991 में भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये। हिमाचल के बिलासपुर ज़िले के रहने वाले  नड्डा 1993 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधायक दल के नेता चुने गये थे। यह उस दौर की बात है जब हिमाचल में शांता कुमार के बाद सबसे बड़े नेता जगदेव चंद की पार्टी में तूती बोलती थी। लेकिन चुनाव जीतने के तुरन्त बाद जगदेव चंद का अचानक निधन हो गया और नड्डा नेता चुने गये। साल 1998 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल का नाम नड्डा ने ही प्रस्तावित किया था। साल 2007 में धूमल जब दोबारा सीएम बने, तो नड्डा वन मंत्री बनाये गये।

दो साल बाद ही नड्डा मंत्री पद छोडक़र संगठन के लिए समर्पित हो गये। हिमाचल के प्रभारी रह चुके नरेंद्र मोदी नड्डा की संगठनात्मक और प्रशासनिक क्षमताओं से परिचित थे, लिहाज़ा जब वे 2014 में पीएम बने तो नड्डा को उन्होंने अपनी सरकार में स्वास्थ्य जैसा अहम मंत्रालय दिया। साथ ही पार्टी के महासचिव का ज़िम्मा भी उनके पास था। साल 2019 के चुनाव में जीत के बाद नड्डा को मंत्री पद न देकर जब भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया, तभी यह तय हो गया था कि वे भाजपा के अगले अध्यक्ष होंगे। भाजपा संसदीय बोर्ड के सचिव भी नड्डा रहे। नड्डा फरवरी, 2010 से नवंबर, 2014 तक नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और अमित शाह के साथ पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर चुके हैं। अब नड्डा भाजपा के अध्यक्ष हो गये हैं और एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी उनके ऊपर आ गयी है। पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि नड्डा पार्टी को नयी दिशा में ले जाएँगे।

भाजपा के अब तक के अध्यक्ष

वाजपेयी भाजपा के ऐसे इकलौते अध्यक्ष रहे, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने। हालाँकि भाजपा के उत्थान में मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी का सबसे बड़ा योगदान रहा; लेकिन दोनों ही पीएम नहीं बन पाये। एलके आडवाणी उप प्रधानमंत्री ज़रूर बने।

आडवाणी के दूसरे कार्यकाल के बाद 1998 में कुशाभाऊ ठाकरे भाजपा के अध्यक्ष बने। साल 1942 में संघ का प्रचारक बनने के बाद उन्होंने मध्य प्रदेश के कोने-कोने में स्वयंसेवकों की सेना खड़ी की। वे कुशल संगठनकर्ता थे। आपातकाल के दौरान वे 19 महीने जेल में रहे। साल 1998 में वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और इस पद पर वे 2000 तक रहे। उनके बाद आये बंगारू लक्ष्मण काफी विवादित रहे। उनका राजनीतिक करियर एक स्टिंग ऑपरेशन में फँसने के बाद हशिये पर चला गया। यह स्टिंग तहलका ने किया था। लक्ष्मण को 2001 में एक लाख रुपये की रिश्वत लेने के मामले में दिल्ली की एक अदालत ने दोषी करार दिया था, जिसके बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा। तहलका का स्टिंग ऑपरेशन 2001 में हुआ था, जिसमें उन्हें भाजपा मुख्यालय स्थित उनके कमरे में एक लाख रुपये रिश्वत लेते हुए दिखाया गया। इससे देश की राजनीति में एक तरह का भूचाल आ गया। तब वे भाजपा के अध्यक्ष थे। उन्हें पद से हाथ धोना पड़ा।

साल 1940 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सक्रिय सदस्य रहे जना  कृष्णमूर्ति ने तमिलनाडु में भारतीय जनसंघ के महासचिव के रूप में पदभार सँभाला। सन् 1980 में वे वाजपेयी, आडवाणी, एसएस भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे और जगन्नाथ राव जोशी के साथ भाजपा के वे नेता रहे, जिन्होंने भाजपा का गठन किया  और संस्थापक राष्ट्रीय सचिव बने। सन् 1980 से 1990 तक उन्होंने चार दक्षिणी राज्यों केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भाजपा का विस्तार करने में मदद की। सन् 2001 में वे भाजपा के अध्यक्ष बने। वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में कानून मंत्री भी रहे।

उनके बाद अध्यक्ष बने वेंकैया नायडू। साल 2002 में वे वाजपेयी सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री बने। जुलाई, 2002 से 2004 तक वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। सन् 2014 में वे मोदी सरकार में शहरी विकास, गृहनिर्माण और गरीबी निवारण और संसदीय मामलों के केंद्रीय मंत्री रहे। 5 अगस्त, 2017 में वे भारत के 13वें उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इसके बाद राजनाथ सिंह दो बार पार्टी के अध्यक्ष रहे। उनसे पहले यह उप‍लब्धि केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्‍ण आडवाणी के पास ही थी। राजनाथ सिंह पहली बार 31 दिसंबर, 2005 को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। दूसरी बार 23 जनवरी, 2013 से 9 जुलाई, 2014 तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। वे वाजपयी और मोदी सरकार में मंत्री भी रहे और आज देश के रक्षा मंत्री हैं।

उनके बाद नितिन गडकरी भाजपा के अध्यक्ष बने। उनका कार्यकाल सन् 2010-2013 तक रहा। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले वे इस पार्टी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे जब वे 52 साल में अध्यक्ष बने। वे मोदी की दो बार की सरकारों से मंत्री हैं। आज वे सरकार में सडक़ परिवहन और राजमार्ग, जहाज़रानी, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री हैं। गडकरी सफल उद्यमी भी हैं।

अमित शाह को भाजपा का अब तक का सबसे ताकतवर अध्यक्ष माना जाता है। संगठन को ज़मीन तक ले जाने वाले शाह भले देश के गृह मंत्री बन गये और काफी समय यह पद सँभालने के बाद पार्टी अध्यक्ष पद उन्होंने अब नड्डा को सौंप दिया है, संगठन पर उनकी पकड़ का हर कोई कायल रहा है। उनके बारे में यह जुमला प्रसिद्ध रहा कि शाह के अध्यक्ष रहते भाजपा को कोई चुनाव में हरा नहीं सकता। हालाँकि पिछले कुछ महीनों में भाजपा को राज्यों में अपनी सरकारें गँवानी पड़ी हैं। आज उनके बारे में कहा जाता है कि गृह मंत्री के रूप में वे पार्टी की नीतियों को कानूनों के ज़रिये आगे बढ़ा रहे हैं।

कैसे उठी भाजपा

भाजपा के 1980 में गठन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले अध्यक्ष बने। शुरू में भाजपा कांग्रेस के मुकाबले कभी एक मज़बूत पार्टी नहीं दिखी। भाजपा के गठन से पहले वाजपेयी और राजस्थान के मुख्यमंत्री भी रहे भैरों सिंह शेखावत जैसे नेता जनसंघ के चेहरे थे। शुरू में भाजपा की संसद में उपस्थिति भी नाममात्र ही रही। भाजपा के अध्यक्ष कई हुए लेकिन मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी का नाम खासकर लिया जाता है।

मुरली मनोहर जोशी

जोशी वो चेहरा हैं जो भाजपा को एक राष्ट्रवादी पार्टी का स्वरूप देने का श्रेय रखते हैं।

आज से 28 साल पहले 1992 में श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा फहराने की घटना ने उन्हें एक लोकप्रिय नेता बना दिया। दिलचस्प यह है कि वर्तमान पीएम मोदी भी इस तिरंगा यात्रा में उनके सहभागी थे। यात्रा का उद्देश्य यह सन्देश देना था कि आतंकवाद से ग्रस्त श्रीनगर में भी तिरंगा फहराया जा सकता है। साल 1992 में लालचौक अलगाववादियों और आतंकियों की गतिविधियों का केंद्र बन चुका था और जोशी तिरंगा फहराकर यही बताना चाहते थे कि कश्मीर भारत का हिस्सा है और वहाँ तिरंगा फहराना देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। जोशी की यह यात्रा कन्याकुमारी से शुरू हुई जिसे वास्तव में एकता यात्रा का नाम दिया गया था। उन्होंने 26 जनवरी, 1992 को लालचौक में तिरंगा फहराने का एलान किया। यात्रा की घोषणा से देश भर में तनावपूर्ण स्थिति बन गयी। खासकर, कश्मीर में विस्फोटक स्थिति बन गयी। आतंकवादी संगठनों और अलगाववादियों ने भी एलान किया कि किसी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने नहीं देंगे। इस दौरान श्रीनगर में पुलिस मुख्यालय मे ग्रेनेड धमाका करके आतंकियों ने अपने मंसूबे ज़ाहिर कर दिये; लेकिन जोशी नहीं रुके। वे जहाज़ से श्रीनगर पहुँचे और सन् 1992 में मुरली मनोहर जोशी और नरेन्द्र मोदी श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराया। वहाँ आतंकियों की तरफ से राकेट भी चलाये गये। भले वहाँ तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी, लेकिन इसने जोशी को भाजपा में बहुत लोकप्रिय नेता बना दिया।

लालकृष्ण आडवाणी 

जब लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी का ज़िम्मा मिला, तो उन्होंने कांग्रेस के मुकाबले खड़े होने के लिए भाजपा को हिन्दुत्व के एजेंडे में ढालना शुरू किया। इसमें  अपना धर्म  और अपनी संस्कृति जैसा मनोवैज्ञानिक विचार अपनाया और पार्टी को इसी के बूते आगे ले जाने की ठानी। इसके लिए आडवाणी देश की राजनीति की दिशा बदलने वाली रथ यात्रा का आइडिया सामने लाये और 1989 में उनकी रथ यात्रा ने भाजपा की पूरी सूरत ही बदल डाली। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के एक राष्ट्रीय दल के रूप में उभार का यह बहुत बड़ा आधार बना। इस यात्रा ने आडवाणी ही नहीं भाजपा की इमेज भी एक हिन्दूवादी पार्टी की बना दी। इसके बाद ही भाजपा ने देश में अपना वोट बैंक बनाने की मुहिम शुरू की, जिसमें उसे काफी हद तक कामयाबी भी मिली। दो सीटों वाली भाजपा के लिए यह रथ यात्रा देश की राजनीति में बड़ा मंच प्रदान करने वाली साबित हुई। आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय वीपी सिंह की सरकार थी जिससे भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आस-पास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया। और बड़ी घटना हुई 6 दिसंबर, 1992 को जब हज़ारों हिन्दू कारसेवकों ने अयोध्या पहुँचकर बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिसमें कई लोग मारे गये। इस घटना की जाँच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन हुआ। अब अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है और राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो चुका है। रथ यात्रा का असली सेहरा आडवाणी के माथे पर सजने के बावजूद आडवाणी ने वरिष्ठ नेता वाजपेयी के नाम को ही प्रधानमंत्री के रूप में आगे किया। हालाँकि इसके साथ उन्होंने अपने लिए भी पीएम पद का सपना देखा जो उन्हें लगता था कि वाजपेयी के बाद अवश्य फलीभूत होगा। साल 2004 में सरकार बनाने वाली भाजपा 2009 में आडवाणी के पीएम उम्मीदवार रहते हार गयी, तो आडवाणी की राजनीति और सपने को इससे बड़ा झटका लगा। उनके इस सपने के पूरा होने से पहले ही नरेंद्र मोदी भाजपा की राजनीति के बड़े क्षत्रप बनकर उभर गये। बहुत लोग मानते थे कि पीएम नहीं बन पाए आडवाणी को भाजपा राष्ट्रपति तो बनाएगी ही; लेकिन यह भी नहीं हुआ और भाजपा को एक नयी दिशा देने वाला नेता भाजपा के हाशिये का हिस्सा बन गया।

बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थी तकलीफों का पूरा सच

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) को लेकर देश भर में विरोध-प्रदर्शन जारी है। भारत में अवैध रूप से रहने वाले बांग्लादेशियों और पाकिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीडऩ के शिकार हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को भारत में नागरिकता देने से अधिक यह मामला सियासी हो चुका है। भारत में जहाँ इसे लेकर सत्ता और विपक्ष के बीच तलवारें खिंची हैं, वहीं सडक़ों पर भी आम लोगों का प्रदर्शन सरकार के िखलाफ जारी है और वे एनआरसी और सीएए के फैसले को रद्द करने की माँग कर रहे हैं।

बीते साल अगस्त में इस रिपोर्ट का लेखक रोहिंग्याओं के हालात को जानने के लिए बांग्लादेश गया था; क्योंकि भारत में रोहिंग्या घुसपैठ को लेकर भी विरोध-प्रदर्शनों के साथ-साथ राजनीति होती रही है। चटगाँव और कॉक्स बाज़ार के बीच डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर मेरे लिए रोमांच भरा था। यहाँ से जुड़े कई सवाल मेरे ज़ेहन में थे। पूरे चार घंटे की यात्रा में कहीं कस्बाई हाट-बाज़ार दिखे, तो कहीं धान के पौधों से आच्छादित हरे-भरे खेत। कहीं दूर-दूर तक फैले घने जंगल, तो कहीं गाँवों की अलग-अलग बसावट। दक्षिणी बांग्लादेश के चटगाँव डिवीजन स्थित इस ज़िले की प्राकृतिक सुन्दरता मानो दोगुनी हो गयी थी। आपने दुनिया में कई समुद्री तटों की सैर होगी या फिर उनके बारे में सुना होगा। लेकिन कॉक्स बाज़ार के समुद्री तट को बगैर देखे आपका तज़ुर्बा मुकम्मल नहीं कहा जा सकता। कॉक्स बाज़ार दुनिया का सबसे लम्बा समुद्री तट है, जिसकी लम्बाई 120 किलोमीटर है। प्रदूषण की वजह से जहाँ दुनिया कई समुद्री तट अपना सौंदर्य खो रहे हैं, वहीं कॉक्स बाज़ार का तट इससे महफूज़ है।

िफलहाल दक्षिणी बांग्लादेश का यह तटीय नगर रोहिंग्या शरणार्थियों की वजह से वैश्विक चर्चाओं में है। म्यांमार से आये रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का दौरा करना मेरी बांग्लादेश यात्रा की प्राथमिकता थी। वैसे तो इन शिविरों में दािखल होना खासकर किसी विदेशी पत्रकार के लिए आसान नहीं था। लेकिन शरणार्थी शिविरों में इमदाद चला रहे मोहम्मद आमीन और सैफुल इस्लाम की वजह से कोई मुश्किल पेश नहीं आयी। उनके बांग्ला समेत उर्दू भाषी होने के कारण संवाद की बाकी समस्याएँ भी हल हो गयीं। शाम ढलने से पहले मैं कॉक्स बाज़ार पहुँच गया था। उनके साथ समंदर किनारे कुछ समय गुज़ारने के बाद एक इलेक्ट्रिक रिक्शा में सवार होकर मैं एक गेस्ट हाउस पहुँचा। उन्होंने हमारे ठहरने का प्रबन्ध पहले से किया हुआ था। रात में खाने की मेज पर रोहिंग्या शरणार्थियों के हालात पर थोड़ी-बहुत बातें हुईं। अलबत्ता तय हुआ कि नाश्ते के बाद हम लोग रोहिंग्या शिविरों का दौरा करेंगे। कॉक्स बाज़ार स्थित बालुखाली-कुटुपालोंग इलाके में रोहिंग्या शरणार्थियों का सबसे बड़ा शिविर है। म्यांमार से आये कुल रोहिंग्याओं की आधी संख्या यहीं मौज़ूद है। अगले दिन सुबह हम लोग कुटुपालोंग के रोहिंग्या शिविरों की ओर निकल पड़े। जगह-जगह सडक़ें जाम होने की वजह से सवा घंटे का सफर ढाई घंटे में पूरा हुआ। मोहम्मद आमीन इस समस्या के बारे में बताते हैं- ‘कॉक्स बाज़ार की सडक़ों पर पहले इतनी गाडिय़ाँ नहीं थीं। म्यांमार से रोहिंग्याओं के आने के बाद यातायात की हालत खराब हुई है। दुनिया भर के एनजीओ यहाँ रिलीफ में जुटे हैं। टूरिस्ट प्लेस होने के कारण पहले यहाँ सिर्फ छुट्टियों के समय भीड़ होती थी। लेकिन एनजीओ कर्मियों की वजह से कॉक्स बाज़ार के •यादातर होटल साल भर बुक रहते हैं। कई विदेशी एनजीओ के दफ्तर होटलों के कमरे से चलता है।’

पुराना है रोहिंग्याओं के पलायन का सिलसिला

कुटुपालोंग पहुँचने पर हमारी मुलाकात रजाउल करीम से हुई। वह रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के चीफ मजिस्ट्रेट हैं। करीम बताते हैं- ‘कॉक्स बाज़ार में कुल बारह लाख पंजीकृत रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। हालाँकि कुछ संख्या गैर-पंजीकृत रोहिंग्याओं की भी है। ओखिया और टेकनॉप थाना क्षेत्रों में रोहिंग्याओं शरणार्थियों के कुल तीस कैम्प हैं। हर कैम्प में एक मजिस्ट्रेट तैनात किया गया है। कॉक्स बाज़ार में 1992 से करीब 33 हज़ार रोहिंग्या रह रहे हैं। यूनिसेफ ने इन्हें पंजीकृत किया है। नब्बे के दशक में रोहिंग्याओं के िखलाफ म्यांमांर में बड़ी सैन्य कार्रवाई हुई थी। उस वक्त दो लाख रोहिंग्याओं ने कॉक्स बाज़ार में शरण ली। इनमें पौने दो लाख बाद में वापस चले गये, लेकिन 35 हज़ार रोहिंग्या यहीं रह गये।’ उनके अनुसार, 9 अक्टूबर 2016 को तीन लाख रोहिंग्या यहां आए। जबकि 25 अगस्त, 2017 को सबसे ज्यादा आठ लाख रोहिंग्याओं ने म्यांमांर से हिजरत कर यहाँ पनाह ली। द रिफ्यूजी रिलीफ एंड रिपैट्रीएशन कमिश्नर (आरआरआरसी) और बांग्लादेश सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों की सुरक्षित वापसी के तहत रिपैट्रीएशन काउंसिल गठित की है, लेकिन बीते ढाई-तीन वर्षों में एक भी रोहिंग्या की वापसी नहीं हुई है।

राहत कार्यों में जुटे एनजीओ

कॉक्स बाज़ार को ‘एनजीओ का शहर’ कहना गलत नहीं होगा। दुनिया भर के तमाम बड़े एनजीओ यहाँ राहत कार्यक्रम चला रहे हैं। इनकी कुल संख्या 110 है, जिनमें ऑक्सफेम, एक्शन-एड, सेव द चिल्ड्रेन, क्रिश्चियन एड आदि प्रमुख हैं। राहत सामग्रियों के वितरण के लिए 12 केंद्र बनाये गये हैं। अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ की मदद से बारह अस्पताल बनाये गये हैं। िफलहाल कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में 51 हज़ार महिलाएँ गर्भवती हैं। परिवार नियोजन को लेकर इनमें जागरूकता नहीं है। लेकिन हिन्दुओं में थोड़ी-बहुत जागरूकता देखी जा सकती है। एक एनजीओ से जुड़े मोहम्मद शौकत अज़ीज़ बताते हैं- ‘शरणार्थी शिविरों में हर परिवार को वल्र्ड फूड प्रोग्राम के तहत महीने में 50 किलो चावल समेत अन्य खाद्य सामग्रियाँ मिलती हैं। शुरू में रोहिंग्याओं को स्थानीय लोग नकदी भी देते थे। लेकिन बांग्लादेश सरकार ने इस पर रोक लगा दी है। शिविरों में रहने वाले रोहिंग्याओं के लिए कुछ पाबंदियाँ भी हैं। मसलन, उन्हें कैम्प से बाहर महज़ दो किलोमीटर के दायरे में ही घूमने-फिरने की इजाज़त है। उससे आगे जगह-जगह पर बांग्लादेश सेना के चेक पोस्ट हैं। जहाँ चौबीसों घंटे कड़ा पहरा होता है। हर आने-जाने वालों को यहाँ सुरक्षा जाँच और पहचान से गुज़रना होता है। मोहम्मद अज़ीज़ उर रहमान का ताल्लुक बारिसाल ज़िले से है। एक एनजीओ में कार्यरत रहमान डेढ़ वर्षों से कॉक्स बाज़ार में हैं। उनके मुताबिक, इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन ऑफ माइग्रेशन की तरफ से कुटुपालोंग समेत सभी 30 शरणार्थी शिविरों में अस्पताल और डॉक्टर मौज़ूद हैं। अमूमन होने वाली सभी बीमारियों का यहाँ इलाज होता है। लेकिन मरीज़ों की हालात गम्भीर होने पर रोहिंग्या शरणार्थियों को कॉक्स बाज़ार और चटगाँव के बड़े अस्पतालों में भी दािखल कराया जाता है।

म्यांमार जाएँगे, तो मारे जाएँगे

35 वर्षीय सनवार बेगम अपने छोटे बच्चों और बूढ़ी सास के साथ कुटुपालोंग कैम्प में रहती हैं। सनवार बेगम उन बदनसीबों में हैं, जिसके परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं है। 27 अगस्त 2016 की वह खौफनाक रात जब उसके शौहर अज़ीज़ुल्लाह, देवर नजीबुल्लाह और 10 साल के बेटे मुबीनउल्लाह को म्यांमार आर्मी ने ज़िन्दा जला दिया। वह रखाइन प्रान्त स्थित मोसलिन गाँव छोडक़र जाना नहीं चाहती थी। लेकिन अपने करीबी रिश्तेदारों के कहने पर वह बांग्लादेश आ गयी। सनवार बताती हैं कि रखाइन प्रान्त में अभी भी दो लाख रोहिंग्या मौज़ूद हैं। लेकिन वे कब तक सुरक्षित हैं, यह कोई नहीं जानता। म्यांमार में रोहिंग्याओं को मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं थी। उन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए टोकन लेना होता था। शेख इब्राहिम का अराकान प्रान्त में छोटा-सा व्यापार था। सैनिक कार्रवाई के दौरान उसके घर और दुकान में लूट और आगजनी की गयी। ‘अराकान रोहिंग्या सोसायटी ऑफ पीस एंड ह्यूमन राइट्स’ के महासचिव मोहम्मद सईदउल्लाह बताते हैं- ‘25 अगस्त, 2017 तक 10,566 रोहिंग्याओं का कत्ल किया गया। मरने वालों में दो हज़ार बच्चे भी शामिल थे। ढाई हज़ार महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। म्यांमार सैनिकों के हवस का शिकार बनी महिलाओं ने 613 बच्चों को जन्म दिया। लेकिन इन बच्चों का पिता कौन है? यह कोई नहीं जानता।’  रोहिंग्या की तरफ से 13 चार्टर ऑफ डिमांड म्यांमार सरकार को दिये हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार इसे मान लेती है, तो वे वापस लौट आएँगे।

हिन्दुओं पर धर्म परिवर्तन का दबाव

म्यांमार से बांग्लादेश आने वाले 12 लाख रोहिंग्याओं में 110 हिन्दू परिवार भी हैं। कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में असिस्टेंट कैम्प इंचार्ज मोहम्मद कमाल हुसैन बताते हैं- ‘हिन्दू रोहिंग्याओं की संख्या 630 है, जो अराकान और रखाइन प्रान्त के गाँवों से आये हैं। सभी हिन्दुओं को एक साथ कुटुपलांग कैम्प में रखा गया है। यहाँ उन्हें कोई तकलीफ नहीं है और न ही धर्म के नाम पर उनके साथ कोई भेदभाव किया जाता है। उन्हें पूरी तरह धार्मिक आज़ादी है। इस बार इन्होंने दुर्गा पूजा मंडप स्थापित करने की योजना बना रहे हैं। रखाइन से आये मनोहर बर्मन अपने परिवार के साथ शरणार्थी शिविर में रहते हैं। वह बताते हैं कि बांग्लादेश सरकार की तरफ से उन्हें पूरी राहत दी जा रही है। लेकिन कैम्प में रहने वाले कई मौलवी उन पर धर्म-परिवर्तन का दबाव बनाते हैं। इस बाबत कैम्प मजिस्ट्रेट से इसकी शिकायत की; लेकिन असुरक्षा की भावना बनी रहती है।

आपसी झगड़े में 250 हत्याएँ

मुसीबत के मारे लोगों को आपसी एकता कायम रखनी चाहिए, ऐसा कहा जाता है। लेकिन कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का िकस्सा इससे उलट है। म्यांमार में सैन्य कार्रवाई से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश आये रोहिंग्या आपस में एक-दूसरे का खून बहा रहे हैं। बालुखाली कैम्प की इंजार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं कि पिछले तीन वर्षों के दौरान कुटुपलांग और टेकनॉप कैम्प में 250 रोहिंग्या की हत्याएँ हुईं हैं और मरने वाले सभी मुसलमान थे। झगड़े की मुख्य वजह इनकी पुरानी दुश्मनी थी। लेकिन कई हत्याएँ बेहद मामूली बातों पर भी हुई है। मसलन चापाकल से पानी भरने को लेकर, तो कभी दो बच्चों के बीच हुई कहासुनी को लेकर। ऐसी घटनाओं को बांग्लादेश सरकार और स्थानीय प्रशासन चिन्तित है। गैर-मुल्की होने की वजह से दोषियों के िखलाफ कानूनी कार्रवाई करना सम्भव नहीं है। ऐसी वारदातों को रोकने के लिए संवेदनशील कैम्पों में खास एतहियात बरती जा रही है। इस बाबत पीस कमेटियों का गठन किया गया है, जिसमें मौलानाओं व मुअ•ज़नों को शामिल किया गया है। बीते दिनों कॉक्स बाज़ार के स्थानीय नागरिकों ने रोहिंग्या मुसलमानों के िखलाफ एक बड़ी रैली निकाली गयी और सरकार से माँग की गयी कि रोहिंग्याओं को कॉक्स बाज़ार से हटाया जाए, क्योंकि इनकी वजह से यहाँ के स्थानीय लोगों को जीना दुश्वार हो रहा है।

रोहिंग्या और बांग्लादेशी के बीच शादियाँ नहीं

बांग्लादेश सरकार की तरफ से रोहिंग्या महिलाओं का बांग्लादेशी नागरिक से करने की सख्त पाबंदी है। इसके बावजूद यहाँ कई ऐसी शादियाँ हुई हैं। इन शादियों के बाद पैदा हुए बच्चों की नागरिकता क्या होगी? यह एक बड़ा सवाल है। कैम्प इंचार्ज फातिमा नसरीन बताती हैं- ‘शुरुआत में कुछ रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों के बीच शादियाँ हुईं। जानकारी मिलने पर सरकार की तरफ से उन रोहिंग्या परिवारों को चिह्नित किया गया, जिन्होंने अपनी बेटियों की शादी की।’ कुटुपलांग शिविर में रहने वाले शाह आलम यहाँ बने एक मस्जिद में इमाम हैं। उनका कहना है कि बेशक हम मुसलमान हैं; लेकिन हमारे तौर-तरीके बांग्लादेशियों से अलग हैं। हमारे कैम्प में चोरी-छिपे कुछ ऐसी शादियाँ हुई हैं। एक बाप जिसकी बेटियाँ शादी के लायक हो चुकी हैं, अगर उसने ऐसा किया तो इंसानी तकाज़ा कहता है, वह सही है। लेकिन किसी मुल्क का कानून और उसकी आईन इसकी इजाज़त नहीं देता है। लिहाज़ा अपनी जगह एक बाप भी सही है और सरकार भी खुद अपनी जगह दुरुस्त है। कैम्प इंचार्ज फातिमा नसरीन के मुताबिक, ऐसी शादियों को वैधता नहीं मिल सकती। रोहिंग्या एक शरणार्थी की हैसियत से यहाँ हैं। हालात सही होने पर उन्हें म्यांमार जाना होगा।

कॉक्स बाज़ार के वनों पर संकट

रोहिंग्या शरणार्थियों के आने से पहले कॉक्स बाज़ार की जनसंख्या 22,89,990 थी। लेकिन म्यांमार से आये 12 लाख रोहिंग्याओं के कारण इस ज़िले पर काफी दबाव बढ़ गया है। कॉक्स बाज़ार में जहाँ रोहिंग्याओं के लिए शिविर बनाये गये हैं। वे संरक्षित वन क्षेत्र हैं, जिसका कुल रकबा 10 हज़ार एकड़ है। कैम्प बनाने के लिए लाखों पेड़ काटे गये और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। स्थानीय प्रशासन भी इसे पर्यावरण के लिए गम्भीर खतरा मान रहे हैं। इससे भूक्षरण का खतरा भी बढ़ गया है। अगर एक-दो वर्षों तक यहाँ रोहिंग्याओं का निवास रहा, तो कॉक्स बाज़ार के जंगल समाप्त हो जाएँगे। गौरतलब है कि कॉक्स बाज़ार बंगाल की खाड़ी के तट पर बसा है। इस इलाके में समय-समय पर समुद्री चक्रवात आते रहते हैं। यहाँ वनों की बहुतायत होने से भू-स्खलन का खतरा कम रहता है। लेकिन पिछले दो वर्षों के दौरान कॉक्स बाज़ार में बड़े पैमाने पर जंगलों का सफाया हुआ। जो भविष्य में गम्भीर पर्यावरणीय संकट उत्पन्न करेगा।

रोहिंग्याओं को उर्दू बोलने से गुरेज़ नहीं

कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों में जाने से पहले मैं पसोपेश में था। उनसे संवाद कैसे कायम हो यह मुख्य वजह थी। लेकिन मुझे हैरानी हुई, जब कुटुपालोंग शिविर में रहने वाले रोहिंग्या बेहिचक अच्छी उर्दू बोल रहे थे। यहाँ मदरसे में पढ़ाने वाले मौलाना अबुल हसन बताते हैं कि रोहिंग्या मुसलमान इस्लाम की हनफी परम्परा पर अमल करते हैं। वैसे हमारा सिलसिला हिन्दुस्तान के दारुल-उलूम-देवबंद से भी रहा है। जब हिन्दुस्तान आने-जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। तब हमारे बाप-दादा तालीम हासिल करने सहारनपुर जाते थे। भारत के बँटवारे से पहले बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान आदि जगहों से लोग बर्मा में काम करते थे। वे सभी हिन्दी-उर्दू में बातें करते थे। धीरे-धीरे रंगून समेत कई सूबों में उर्दू समझी और बोले जाने लगी। लेकिन इसके बरक्स ज्यादातर रोहिंग्या महिलाएँ बर्मी ज़बान में बातें करती दिखीं। शरणार्थी शिविरों में रहने वाली लगभग सभी महिलाएँ बुर्कानशीं थीं। उनकी वे कितनी तालीमयाफ्ता हैं, इस बारे में अब्दुल शकूर बताते हैं, लड़कियों को सिर्फ मदरसे में दीनी तालीम दी जाती है। म्यांमार में इसे लेकर भी सरकार से हमारा विरोध रहा। रोहिंग्या मुसलमान शरीयत के मुताबिक तालीम हासिल करते हैं। लेकिन सरकार की शिक्षा नीति हमारे मज़हब के लिए मुफीद नहीं है। इसलिए हम लोग औरतों को मदरसे या घर में तालीम देते हैं।

कहानी एक रोहिंग्या ज़मींदार की

सत्तर साल के हुसैन अली और उनका परिवार कुटुपलांग शरणार्थी शिविर में टीन और तिरपाल से बने घर में रहते हैं। अराकान प्रान्त के नाज़िदम गाँव के रहने वाले हुसैन अली खुद को 300 बीघे का बड़ा काश्तकार बताते हैं। म्यांमार से उन्होंने अपने ज़मीनों के कुछ कागज़ात भी साथ लाये हैं। लेकिन ज्यादातर दस्तावेज़ म्यांमार सेना द्वारा लगायी गयी आग में जल गए। अपनी नागरिकता प्रमाण-पत्र दिखाते हुए वह कहते हैं- ‘रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक हैं, इससे सरकार इनकार नहीं कर सकती। हमें वर्ष 1963 में नागरिकता मिली, लेकिन साल 2010 में सभी रोहिंग्याओं की नागरिकता छीन ली गयी।’ उनके मुताबिक, कॉक्स बाज़ार में रहने वाले सभी रोहिंग्या गरीब नहीं हैं। ऐसे लोगों की तादाद करीब 30 फीसद है, जिनकी माली हालत ठीक है। रोहिंग्याओं को अराकान से भगाने की वजह अराकान में चीन के सहयोग से बनने वाली गैस पाइपलाइन परियोजना है। इन कैम्पों में हुसैन अली जैसे और कई बड़े किसान हैं, जिनकी ज़मीनों पर सरकार ने कब्ज़ा कर लिया। जिन किसानों ने इसका विरोध किया उसकी हत्या कर दी गयी। पूरे म्यांमार में कुल 30 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं। जिनमें ज्यादातर बेदखली और फर्ज़ी कानूनी मुकदमे झेल रहे हैं।

अवामी लीग सरकार पर विपक्षी हमला

रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार से आये ढाई साल हो गये। लेकिन उनके लिए सुरक्षित अपने मुल्क वापसी की राह आसान नहीं हुई है। बांग्लादेश और म्यांमार के बीच ढाका में कई दौर की बातें भी हुईं, लेकिन म्यांमार की तरफ से रोहिंग्याओं को वापस बुलाने के कोई ठोस संकेत नहीं मिले हैं। वैश्विक मंच पर ‘आंगसांग सू की’ और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के बीच राफ्ता भी हुआ। लेकिन रोहिंग्याओं के भविष्य पर कोई बात नहीं हुई। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंगसांग सू की भी मिले, लेकिन इस मुद्दे पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि बांग्लादेश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कई राजनीतिक दलों को कहना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत को भी शामिल करना चाहिए। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी समेत कई दीगर पार्टियों का कहना है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना रोहिंग्याओं की वापसी को लेकर म्यांमार सरकार से गम्भीर बातचीत की पहल नहीं कर रही है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस और विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने पिछले साल जुलाई में कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का संयुक्त दौरा किया था। विश्व बैंक की तरफ से बांग्लादेश को करोड़ों डॉलर देने की अनुशंसा की गयी। विपक्षी दलों का आरोप है कि अवामी लीग सरकार ने शरणार्थी संकट को एक व्यापार बना दिया है।

इंदिरा की राह पर हसीना

1971 के मुक्ति युद्ध के समय भारत न सिर्फ बांग्लादेश बनाने में ऐतिहासिक मदद की, बल्कि लाखों बांग्लादेशियों की जानमाल की हिफाज़त के लिए अपनी सरहदें भी खोल दीं। पाकिस्तानी सेना के जुल्म के मारे लाखों की तादाद में बांग्लादेशी असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा आदि राज्यों में शरण ली। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में भारत की सफल सैन्य कार्रवाई की वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की एक मज़बूत वैश्विक छवि बनी। इस तरह मज़हब की बुनियाद पर बना पाकिस्तान 24 वर्षों तक्सीम हो गया। इस तरह बांग्लादेशियों में मन में इंदिरा गाँधी की करुणामयी छवि बन गयी। खुद प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी छोटी बहन शेख रेहाना भी सात वर्षों तक यूरोप और भारत में शरणार्थी जैसी ज़िन्दगी गुज़ारी। जब उनके पिता बंगबन्धु शेख मुजीब उर रहमान समेत उनके कई परिजनों की हत्या एक सैन्य साज़िश के तहत कर दी गयी। शायद इसे अपनों के खोने का गम कहें या सियासत; प्रधानमंत्री शेख हसीना कॉक्स बाज़ार के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों के दौरे के बाद कहा- ‘हमारी सरकार जब 16 करोड़ बांग्लादेशियों का पेट भर सकती है, तो म्यांमार से आये रोहिंग्या शरणार्थियों को भी भूखा नहीं मरने देगी।’ प्रधानमंत्री हसीना का यह बयान न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुॢखयाँ बना, बल्कि बांग्लादेश में उनकी मुखालिफ (विरोधी) पार्टियाँ भी इस मुद्दे पर सरकार के साथ दिखीं। वैसे भी विपक्षी पार्टियों के लिए इस फैसले का विरोध करना सियासी खुदकुशी करने जैसा होता। इसकी मूल वजह है- रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति बांग्लादेशियों की हमदर्दी। रोहिंग्याओं को शरण देकर प्रधानमंत्री शेख हसीना को तीन फायदे हुए। पहला वैश्विक मंच और मानवाधिकारों के हिमायतियों के बीच उनके दखल में इज़ाफा। दूसरा बांग्लादेशियों की नज़रों में उनकी ममतामयी छवि मज़बूत हुई। तीसरा भारतीय उप महाद्वीप में इंदिरा गाँधी जैसी लोकप्रियता हासिल करने की महत्त्वाकांक्षा। हालाँकि अगर वह ऐसा चाहती हैं, तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है। एक गरीब देश होकर भी बांग्लादेश ने म्यांमार से आये 12 लाख रोहिंग्याओं के लिए अपनी सीमाएँ खोल दीं। ठीक उसी तरह, जब पाकिस्तान के िखलाफ मुक्ति युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बांग्लादेशियों के लिए सरहदें खोल दीं।