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बेहतर दुनिया के लिए दावोस में जुटे दिग्गज

विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की 50वीं वार्षिक बैठक दावोस में आयोजित की गयी। यहाँ पर कारोबारी, राष्ट्राध्यक्ष और दुनिया भर के समाज सेवा से जुड़े लोग बेहतर दुनिया बनाने के लिए वैश्विक मुद्दों पर चर्चा के लिए एकत्र हुए। 2020 की बैठक की थीम थी- बेहतर और स्थिर दुनिया के लिए हितधारकों के साथ सामंजस्य स्थापित करना।

इस आयोजन में दुनिया भर के 3,000 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। ‘हितधारक पूँजीवाद’ को सही मायने में पेरिस समझौते और सतत विकास लक्ष्यों की दिशा में प्रगति करने के लिए सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का सहयोग और मदद के साथ प्रौद्योगिकी और कारोबार पर चर्चा का मौका प्रदान करना रहा।

केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने 20 से 24 जनवरी तक दावोस में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। पीयूष गोयल के साथ शिपिंग और उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख मंडाविया, कर्नाटक और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, पंजाब के वित्त मंत्री और तेलंगाना के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री भी गये।

अभिनेत्री दीपिका पादुकोण और आध्यात्मिक गुरु सद्गुरु ने भी मंच पर शिरकत की। इस दौरान दीपिका पादुकोण को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए क्रिस्टल पुरस्कार से नवाज़ा गया। वहीं, सद्गुरु ने शिखर सम्मेलन में सुबह ध्यान (मेडिटेशन) सत्र आयोजित किया। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) स्विट्जरलैंड के कोलोन-जिनेवा स्थित एक एनजीओ है, जिसकी स्थापना 1971 में की गयी थी। डब्ल्यूईएफ के मिशन को कारोबार, राजनीतिक, शैक्षणिक और अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों के ज़रिये बेहतर दुनिया बनाने के लिए उठाये जाने वाले कदमों के लिए प्रतिबद्धता के तौर पर जाना जाता है। बेहतर समाज के लिए वैश्विक, क्षेत्रीय और उद्योग के लिए एजेंडा बनाना भी इसका मकसद है।

यह एक सदस्यता-आधारित संगठन है और दुनिया की सबसे ज़्यादा संस्थाएँ इसकी सदस्य हैं।

जॉर्ज सोरोस की दो टूक… दुनिया में बढ़ रहा तानाशाहों का राज

दावोस में जनवरी के आिखरी सप्ताह में 50वीं इकोनॉमिक फोरम में दुनिया के तमाम नेताओं ने अलग-अलग मुद्दों पर अपनी-अपनी राय रखी। सबसे ज़्यादा चर्चा बटोरी अमेरिकी अरबपति समाजसेवी जॉर्ज सोरोस ने। जॉर्ज सोरोस स्टॉक निवेशक, व्यापारी, समाजसेवी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। बकौल सोरोस, अब दुनिया में राष्ट्रीयता के मायने बदल गये हैं। सिविल सोसायटी में लगातार गिरावट आ रही है। इंसानियत कम होती जा रही है। दुनिया की सबसे मज़बूत शक्तियाँ- अमेरिका, चीन और रूस तानाशाहों के हाथों में हैं और सत्ता पर पकड़ रखने वाले शासकों में लगातार इज़ाफा होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भाग्य ही दुनिया की दिशा तय करेगा। वर्तमान में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, ट्रम्प और जिनपिंग जैसे तानाशाह सत्ता पर काबिज़ हैं। इतना ही नहीं, सत्ता पर पकड़ रखने वाले शासकों में दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इनका कब्ज़ा बढ़ता जा रहा है।

89 वर्षीय सोरोस ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कश्मीर और सीएए-एनआसी को लेकर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने जा रहे हैं। उन्होंने मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाये जाने को इसी से जोडक़र देखा। इससे लाखों लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं नागरिकता संशोधन कानून-2019 से भारत में रहने वाले लाखों मुसलमानों पर नागरिकता जाने का संकट भी पैदा होने की आशंका जतायी। 130 करोड़ की आबादी वाले भारत में शरणार्थियों का पता लगाना और फिर उस प्रक्रिया पर लम्बा वक्त लग सकता है, साथ ही लाखों लोगों के अपने ही देश ही में राष्ट्रविहीन होने का खतरा भी मंडरा रहा है। अरबपति फाइनेंसर का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब मोदी सरकार पहले से ही विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश के कई हिस्सों में विरोध-प्रदर्शनों का सामना कर रही है।

8 अरब डॉलर से अधिक की सम्पत्ति के मालिक अमेरिकी समाजसेवी ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में कहा कि वे आत्ममुग्धता के शिकार हैं। वह इसी साल अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव तक अर्थ-व्यवस्था में गिरावट को मैनेज करेंगे; लेकिन इसे लम्बे समय तक ऐसी स्थिति में कायम रखना मुमकिन नहीं हो सकता। वे चुनाव चुनाव जीतने के लिए चीन के साथ व्यापार समझौता करने को राज़ी हैं। वे सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। शी जिनपिंग भी कम्युनिस्ट पार्टी की परम्परा तोड़ रहे हैं। सत्ता के केंद्र में खुद को बरकरार रखे हुए हैं। चीन की अर्थ-व्यवस्था भी अपना लचीलापन खो रही है। वे सत्तावादी व्यवस्था चाहते हैं, जिससे व्यक्तिगत स्वायत्तता को खत्म कर देना चाहते हैं। ऐसी परिस्थति में खुले समाज के लिए कोई जगह नहीं होती है। हंगरी के पीएम विक्टर ऑर्बन को तानाशाह बताया। सोरोस मूल रूप से हंगरी के ही हैं। बता दें कि हंगरी के पीएम ऑर्बन के दबाव के चलते सोरोस की सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी (सीईयू) को देश छोडऩा पड़ा था।

7100 करोड़ रुपये दान देने का ऐलान

यह सच है कि हम इतिहास के बदलाव के दौर से गुज़र रहे हैं। खुले समाज की अवधारणा खतरे में नज़र आ रही है। इन सबके बीच बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन को दरकिनार किया जा रहा है। अब उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का सबसे अहम प्रोजेक्ट ओपन सोसायटी यूनिवर्सिटी नेटवर्क (ओएसयूएन) बनाना चाहते हैं। यह ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसमें दुनिया की सभी यूनिवर्सिटी के लोग शिक्षा हासिल करने के साथ शोध कार्य कर सकेंगे। इसके लिए उन्होंने एक अरब डॉलर (करीब 7,100 करोड़ रुपये) का दान देने का भी ऐलान किया। अमेरिकी समाजसेवी ने यह भी कहा कि ओएसयूएन को लाने में अभी समय लग सकता है, पर यह स्थापित ज़रूर होगा।

बड़े राजनेता और उद्योगपति करेंगे दुनिया को बेहतर बनाने की पहल!

हम जब भी क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वाॄमग की बात करते हैं तो ज़्यादातर लोग यह संकेत देते हैं कि उन्हें यानी खतरे का आभास है; लेकिन और यह शब्द खासा भारी-भरकस तब जान पड़ता है, जब हम एकदम अलग नज़रिये से पर्यावरण बचाने के लिए हुए काम का जायज़ा लेते हैं। हमें दिखता है कि तमाम खतरों को जानने समझने के बाद भी कहीं कुछ हुआ ही नहीं। अपने ज़ोरदार शब्दों में पर्यावरण बचाने के लिए सारी दुनिया मे बच्चों और युवाओं को सक्रिय करने वाली युवा कार्यकर्ता ग्रेटा रनबर्ग मे दावोस में जुटे राजनेताओं, अफसरशाहों और उद्योगपतियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि पहली नज़र में यह तो लगता है कि पिछले साल से क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वाॄमग से पर्यावरण और पारिस्थितिकी को बचाने के लिए काफी कुछ हुआ है। दुनिया भर में बच्चों और युवाओं ने इस दिशा मे खासा आन्दोलन छेड़ा है। लोगों को प्रेरित किया है। लेकिन कहीं कुछ न्यारा नहीं हो सका। जो हुआ वह शुरुआत ज़रूर कही जा सकती है।

अभी पिछले ही साल बर्लिन (जर्मनी) में बच्चों और युवाओं के साथ क्लाइमेट चेंज पर बड़ा प्रदर्शन किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने उन्हें क्लाइमेट चेंज पर बोलने के लिए आमंत्रित किया। ग्रेटा ने तमाम बच्चों को क्लाइमेट चेंज पर धरना-प्रदर्शन करने के लिए कहा।

किशोरी ग्रेटा टनबर्ग के अलावा पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने के काम में जुटे दूसरे युवाओं में सल्वाडोर गोमेज-कोलोन में अपनी बात रखी। सल्वाडोर ने तब खासी मेहनत करके लोगों से धन इकट्ठा किया और तूफान में बर्बाद हो गये प्यूरिटो रिको को और प्रभावित लोगों को 2017 में फिर एक नयी ज़िन्दगी दी। जांबिया की नताशा म्वांसा ने लड़कियों और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। उन्होंने अपने विषय पर सबका ध्यान खींचा। इस मौके पर कनाडा के आदिवासी समुदायों के प्रतिनिधि के तौर पर ऑटम पेल्टियर भी मौज़ूद थे। दुनिया भर के नामी गिरामी अर्थशास्त्री, नौकरशाह बड़े उद्योगपति और बड़े देशों के राज्यध्यक्ष और मौसम परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के चलते होने वाली मुसीबतों के प्रति आग्राह करने वाले गैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रमुख स्विटजरलैंड के दावोस शहर में जनवरी महीने में 20 से 24 तारीखों में मिले, बैठे। कई मुद्दों खासकर पर्यावरण पर खासी नाराज़गी भी दिखी। भारत में नागरिकता और कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन के मुद्दों पर खासी जिज्ञासा रही। चीन मे ओगुर मुसलमानों पर अहमविचार की चर्चा भी हुई। तकरीबन 75 साल पहले नाज़ियों के अत्याचारों की गूँज भी वहाँ थी।

लेकिन इस सबमें खासा महत्त्वपूर्ण रहा जलवायु परिवर्तन के चलते ब्राजील के अमेजन जंगलों में लगी आग आस्ट्रेलिया के जंगलों और झाडिय़ों में तकरीबन ढाई महीने से सुलगती आग पर चिन्ता। इस आग की चपेट में हज़ारों पशु-पक्षी और इंसान भी आये। जान-माल का खासा नुकसान हुआ। दुनिया में कई देशों में अचानक बाढ़ समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी, ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण भी बदलते मौसम की परवाह करने की चिन्ता जगी। क्योंकि इसका असर इंसानों के कामकाज, उद्योग धन्धों पर पड़ा। एक आकलन के अनुसार ग्लोबल वाॄमग के चलते सारी दुनिया में इसके कारण होने वाले नुकसान को लेकर खासी हलचल है। लेकिन इससे बचाव सम्बन्धित सामूहिक प्रयास करने के लिए वे लोग एकजुट नहीं होते दिखे, जिनके फैसलों का असर होता है।

हालाँकि वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (विश्व आर्थिक संघ) दावोस में बातचीत की शुरुआत करते हुए स्विटजरलैंड महासंघ की राष्ट्रपति साइमोनेटा सोमरूगी ने 20 जनवरी को अपने बीज मंत्र में कहा कि आज असहिष्णुता है, घृणा है, बदले की भावना है। हमें वह संतुलन बनाना चाहिए, जिससे एक सांझा भविष्य बने। आज सारी दुनिया में आग लगी हुई है। हम सबको मिलकर पर्यावरण बचाने में जुटना चाहिए, जिससे पारिस्थितिकी बचे। आस्ट्रेलिया में आज भी झाडिय़ों में आग की चिंगारियों फैल रहीं हैं और ब्राजील के अमेजन जंगलों में आग दहकी ही थी। न जाने कितने पशु-पक्षी भी मारे गये। राष्ट्रपति ने कहा कि यदि पेरिस की मशहूर कृति एफेल टॉवर से हर रोज़ एक पेंच निकाल लिया जाए, तो एक दिन वह टॉवर ही नहीं बचेगा। आज ज़रूरत है कि राजनेता अपने अपने देशों में अफसरशाही का पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संतुलन पर ध्यान देने को कहें। जब तमाम देश ग्लोबल वाॄमग और मौसम परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के लिहाज़ से काम करेंगे, तो पर्यावरण मानव मात्र के लिए बेहतर बन सकेगा। उन्होंने मानव मात्र के जीवन में कीड़े-मकौड़ों और जैविक विविधता के बचाव पर एक छोटी िफल्म भी प्रदर्शित की। उन्होंने चाहा कि तमाम राजनीतिक और अफसरशाह मिलकर बेहतर संसार बनाने में जुटे। इस मौके पर दावोस मैनिफेस्टो 2020 भी जारी हुआ। इस दस्तावेज़ में समाज निर्माण के सभी भागीदारों से अपील की गयी है कि उद्योग संसार का मकसद समाज की ज़रूरतों को पूरा करना होना चाहिए। उसे सिर्फ मुनाफे के तौर पर नहीं देखना चाहिए। इस दस्तावेज़ में बड़ी खूबसूरती ले गये भी बताया गया है। आज हमारे समय में क्या क्या महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, मसलन- टैक्स जंगली, बढ़ती असहिष्णुता, भ्रष्टाचार रोकने की ज़रूरत और बड़े प्रबंधकों के वेतन भत्ते और मानवाधिकार।

विश्व आर्थिक फोरम के संस्थापक और अध्यक्ष क्लाज श्वैब के तैयार किये गये इस दस्तावेज़ में यह भी बताया गया है कि किस तरह व्यापार मे मुनाफे पर नज़र रखते हुए आज किस तरह सरकार में और अफसरों में सहयोग पाने के लिए अपनी सारी क्षमताएँ लगा दी जाती हैं। इस तरीके में आज बदलाव ज़रूरी है, जिससे मानवमात्र भी प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हुए अपना जीवनयापन कर सके। इस साल वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम के मंच पर खासतौर पर जनता-निजी सहयोग को बढ़ाते हुए पारिस्थितिकी, अर्थ, समाज, उद्योग, तकनीक और भू-राजनीति (जियो पॉलिटिक्स) के विभिन्न रूपों पर विचार विनियम हुआ। यह भी तय पाया कि इस धरा पर अगले दशक में एक लाख करोड़ से भी ज़्यादा पौधा रोपण और उनका संरक्षण किया। इससे एक खरब लोगों को चौथी औद्यौगिक क्रान्ति के दौरान ज़रूरी हुनर का प्रशिक्षण मिल सकेगा।

भारत से इस फोरम में मध्य प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार से उद्योग मंत्री पीयूष गोयल बड़ी संख्या में अफसरशाहों और तमाम बड़े उद्योगपति और तकरीबन सौ प्रमुख कार्यकारी अधिकारी भी तो पहुँचे। इनके अलावा कई गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों की प्रमुख हस्तियों भी वहाँ मौज़ूद थीं। सभी का इरादा है कि विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष और उद्योगपति क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वाॄमग से पूरी दुनिया में हो रहे जान-मान के नुकसान से बचाने के लिए ऐसे फैसले में जो दूरगामी हों। इससे जनजीवन की सेहत भी ठीक रहेगी और वे अधिक बेहतर तरीके से इस दुनिया को आकर्षक बनाने में जुट सकेंगे।

इसके साथ इस मुद्दे पर भी विचार हुआ कि पूरी दुनिया के विभिन्न देशों में लोगों की आमदनी में जो ध्रुवीकरण हुआ है उसे कैसे कम किया जाए।

दावोस में भारतीय उद्योगपतियों ने एकजुट होकर क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर काम करने की योजना बनायी है। इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स के साथ मिलकर पिछले साल बनी। आज इसमें 45 सदस्य है। भारतीय उद्योगपतियों की इस पहल पर खासा आश्चर्य भी रहा। भारतीय उद्योगों में चर्चित उद्योगपति टाटा ट्रस्ट के चेयरमैन रतन टाटा, वाहन निर्माताओं में प्रमुख महिंद्रा एंड महिंद्रा के चेयरमैन आनंद महिंद्रा, विप्रो कम्प्यूटर्स के रिशाद प्रेमजी, नादिर गोदरेज, विद्याशाह और हेमेंद्र कोठारी ने मिलकर इंडियन क्लाइमेट कम्युनिटी गठित की। इस सबसे यह फैसला लिया कि वे सभी मिलकर मौसम को बढिय़ा बनाने के लिए मिलकर काम करेंगे। तमाम तरह की समस्याओं के निदान की कोशिश भी होगी। इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एक ऐसा मंच बनाने की कोशिश में रहा है, जहाँ तरह-तरह के विचारों का आदान-प्रदान हो। क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वाॄमग के बुरे प्रभावों से बचने की कोशिश की जाए और हरीतिमा के साथ उद्योग के पहिये तेज़ी से घूमें। िफलहाल जिन मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा, उनमें हवा को साँस लेने लायक बनाना और पेयजल की सप्लाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। उद्योगों के विकास के साथ-साथ पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संतुलन को बिगडऩे से बचाने का यह बेहद दिलचस्प प्रयोग होगा। सरकारी एजंसियों से मिलकर सारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने के लिए शैक्षमिक संस्थान, निजी क्षेत्र और अन्य के साथ नए तरीके से काम किया जाएगा। महिंद्रा समूह के अध्यक्ष आनंद महिंद्रा ने बताया कि अब उद्योग व्यापार उस स्थिति में नहीं है कि जैसा भी है, चलने दो। कोई भी पर्यावरण और पारिस्थितिकी को पनपाने का काम अपने बूते नहीं कर सकता। आज ज़रूरत है कि सरकार के साथ मिल कर व्यापार और पर्यावरण में सहयोग की बात हो। यह प्रयोग सफल होगा। विभिन्न देशों में आज भी अच्छी तादाद है आदिवासियों की। उनके पास इनकी अपनी जीवनशैली है। इनकी अपनी भाषा है। खानपान, गीत-संगीत है। रीति-रिवाज़ हैं। मौसम परिवर्तन का आभास इन्हें समुद्र की लहरों से किनारे आयी मछलियों, सीपियों-शंखों से होता है। अब कई पढ़ लिख गये हैं। इन्हें जानने समझने का काम अमेरिका में खासा हो रहा है। उनकी पारम्परिक जानकारी का लाभ विभिन्न शोध पन्नों को तैयार करने में और इनके साथ वैज्ञानिक प्रयोगों में सफलता के रिकॉर्ड भी बने। दावोस में एक मौसम विज्ञानी ने बताया कि वाशिंगटन राज्य में क्विनॉल्ट इंडियन स्टेट है। यहाँ जो आदिवासी हैं, वो खुद को 12 हज़ार साल से यहाँ का निवासी बताते हैं। वे समुद्र पर क्लाइमेट चेंज का असर उसकी लहरों के किनारे पर पछाडऩा जानते हैं। वे किनारे पर आयी मछलियों, शंखों, सीपियों से उसकी गति और समय का अनुमान लगाते हैं। बचपन से जंगल, पेड़ पौधों, पहाड़, समुद्र और अपनी संस्कृति को जानने-समझने के कारण वे मौसम परिवर्तन को भूमि और वायु में हो रहे बदलाव से भी माँपते हैं।

अपने पारम्परिक ज्ञान को अब 2005 से इन्होंने तकनीकी तौर से भी जानना समझना और संग्रह करने की अच्छी शुरुआत की है। अब इनके पास समुद्र से हो रहे बदलाव, उसमें बढ़ते अम्लीकरण ग्लोबल वाॄमग के कारण आ रहे बदलाव का ज़मीन और वायु में क्या और कैसा प्रभाव प्रदान भी एक तरीका है, जिससे प्रकृति के बदलाव का काफी पहले जान सकते हैं।

पीओके पर बढ़ेगी रार?

हाल में देश के नये सेना अध्यक्ष और सत्तारूड़ दल के कुछ बड़े नेताओं के पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को लेकर दिए बयान गौर करने लायक हैं। सेना अध्यक्ष मुकंद नरवणे ने पद सँभालने के बाद कहा कि यदि संसद चाहती है, तो उस क्षेत्र (पीओके) को भी भारत में होना चाहिए। जब हमें इस बारे में कोर्ई आदेश मिलेंगे, तो हम उचित कार्रवाई करेंगे। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि अब अगर पाकिस्तान के साथ किसी मुद्दे पर बात हुई, तो वह पीओके होगा।

यहाँ जानना ज़रूरी है कि अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने भारत-पाक के वर्तमान तनाव पर क्या कहा है? इस मुद्दे पर रटगर्स यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स का कहना है कि आने वाले समय में इन दो पड़ोसी मुल्कों के रिश्ते और खराब होंगे और 2025 तक दोनों देशों के बीच युद्ध हो सकता है। तो क्या सच में दक्षिण एशिया के यह दो देश भविष्य में किसी बड़े घटनाक्रम की तरफ बढ़ रहे हैं? आपको एक दिलचस्प तथ्य यह भी बता दें कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में ऐसी 24 सीटें हैं, जिन पर कभी चुनाव नहीं हुआ। लेकिन वे विधानसभा का हिस्सा हैं। यह सीटें पीओके की हैं, जिन्हें खाली रखा जाता है; क्योंकि पीओके भी पूरे जम्मू-कश्मीर का हिस्सा माना जाता है। यही नहीं देश की संसद एक प्रस्ताव पास कर चुकी है, जिसमें कहा गया है कि पूरा जम्मू-कश्मीर हमारा है।

राजनाथ सिंह और सेना अध्यक्ष नरवणे के साथ-साथ गृह मंत्री अमित शाह का पाँच महीने पहले का बयान भी याद कीजिए। गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक लाते हुए उन्होंने कहा था- ‘जब भी मैं जम्मू-कश्मीर कहता हूँ, तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और अक्साई चीन भी इसके अंदर आता है। हम इसके लिए जान भी दे देंगे।’

हाल के वर्षों में, खासकर जबसे मोदी सरकार सत्ता में आयी है, तबसे पाकिस्तान के साथ टकराव की स्थिति कुछ ज़्यादा गम्भीर हुई है। पिछले साल लोकसभा चुनाव से ऐन पहले पुलवामा में 40 से ज़्यादा सैनिकों की आतंकवादियों के हाथों शहादत हुई और मोदी सरकार ने पाक के बालाकोट में एयर स्ट्राइक कर आतंकी ठिकानों पर हमला किया। लिहाज़ा यह मानना बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भविष्य में भी ऐसा हो सकता है, भले इस बार पीओके के लिए।

भारत यह आरोप अरसे से लगाता रहा है कि पाकिस्तान पीओके का इस्तेमाल आतंकियों को ट्रेनिंग देने और उनके लॉन्चिंग पैड बनाने के लिए कर रहा है। मोदी सरकार की सर्जिकल स्ट्राइक और उससे पहले कांग्रेस राज में हुई सीमित सैनिक कार्रवाइयाँ इस बात का पुख्ता सुबूत हैं कि भारत इसे सहन करने के लिए कतई तैयार नहीं है। चूँकि, मोदी सरकार इस मामले में ज़्यादा अग्रेसिव अप्रोच दिखाते रही हैं, यह सम्भावना बहुत ज़्यादा है कि आने वाले समय में पीओके को लेकर कोई बड़ी कार्रवाई हो। दक्षिण एशिया में पीओके का रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। चीन को लेकर कहा जाता है कि निर्माण परियोजनाओं के बहाने उसका पीओके में दखल बड़ा है। कहा तो यह भी जाता है कि पीओके में चीन सेना की पिछले महीनों में उपस्थिति हुई है। पाकिस्तान चीन से अलग हो नहीं सकता लिहाज़ा यह घटनाएँ भारत को चिन्ता में डालती हैं। लिहाज़ा भारत पीओके को लेकर बहुत संवेदनशील ही नहीं, आक्रमक भी बना रहना चाहता है।दरअसल भारत के लिए चिंता में डालने वाली यह अपुष्ट रिपोट्र्स भी हैं कि गम्भीर आर्थिक संकट से गुज़र रहा पाकिस्तान पीओके का एक हिस्सा चीन को बेच सकता है। चीन पीओके को लेकर बहुत ज़्यादा दिलचस्पी दिखाता रहा है। भले भारत-चीन के 1962 युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच कुछ घटनाओं को छोडक़र बहुत तनाव पूर्व सम्बन्ध न रहे हों, बहुत से रक्षा जानकार यह राय रखते हैं कि चीन पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं किया जा सकता।

हालाँकि, यह स्थितियाँ हाल िफलहाल में नहीं, पिछले कुछ वर्षों से ही बननी शुरू हो गयी थीं। मोदी सरकार के सत्ता सँभालने के बाद पीओके का नहीं, गिलगिट बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान की भी चर्चा हुई है। लाल किले की प्राचीर से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका ज़िक्र किया था और वहाँ के हालात पर चिन्ता जतायी थी। यह उनके पिछले कार्यकाल (15 अगस्त, 2016) की बात है। तब मोदी ने पीओके, गिलगिट बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान में लोगों पर हो रहे अत्याचारों का ज़िक्र किया था।

यह माना जाता है कि पीओके मोदी-शाह के एजेंडे में शामिल है। भाजपा में कुछ बड़े नेता यह मानते हैं कि पाकिस्तान पर उसके ही हिस्सों को लेकर दबाव बनाये रखना ज़्यादा बेहतर रणनीति है। पिछले शासन के दौरान भाजपा ने मोदी के लाल िकले वाले भाषण के बाद इस पर ज़्यादा चर्चा नहीं की, लेकिन अब पिछले पाँच-छ: महीनों से इस पर जैसी तेज़ी से चर्चा चल रही है, उससे ज़ाहिर होता है कि इसके बहाने एक माहौल बनाया जा रहा है। ऐसे में पीओके यदि भारत की राजनीति के केंद्र में दिखने लगा है, तो यह अचानक हुई घटना नहीं है। रणनीति के अलावा देश की राजनीति में भी पीओके की खास अहमियत है। सत्तारूड़ भाजपा की जैसी राजनीतिक विचारधारा है, उसे वैसे भी इस तरह के तनाव और मुद्दे रास आते हैं। बहुत से जानकार यह अनुमान व्यक्त करते हैं कि यदि अगले लोकसभा चुनाव तक भारत में आर्थिक संकट गहराता है और देश की जनता मोदी सरकार से बिमुख होने लगती है तो भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बडऩे की ज़्यादा संभावनाएँ होंगी।

किसी सेनाध्यक्ष का यह कह देना छोटी बात नहीं है कि यदि उन्हें (पीओके को लेकर सरकार से) ऐसे आदेश मिलते हैं, तो उचित कार्रवाई की जाएगी। कार्रवाई के क्या मायने हैं? ज़ाहिर है युद्ध। भले ही सीमित। सभी जानते हैं कि पीओके में पाकिस्तान की सेना है। चीन की सेना के कुछ संख्या में होने के अनुमान भी लगाये जाते रहे हैं। ऐसे में ज़ाहिर है यह कोई सर्जिकल स्ट्राइक जैसा ऑपरेशन तो होगा नहीं। एक तरह का पूरा युद्ध होगा या फिर वाजपेयी सरकार के समय हुए कारगिल के ऑपरेशन विजय जैसा भी हो सकता है। पीओके को लेकर चर्चा को बल जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने से भी मिला है। वहाँ अब केंद्र का सीधा हस्तक्षेप है और धारा 370 खत्म कर दी गयी है। कुछ रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर एक्शन लेने की आज सबसे ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। पीओके को लेकर जब नये सेनाध्यक्ष का बयान आया था, तो उसके बाद केंद्रीय रक्षा राज्यमंत्री श्रीपद नाईक ने उनके बयान का समर्थन किया था। और उन्होंने कहा था कि इनका तो ज•बा यही है और इनका ये बोलना गलत नहीं है; पर सरकार इस बात पर निश्चित तौर से विचार करेगी।

राजनीतिक हलकों में बहुत-से लोग यह मानते हैं कि वर्तमान सरकार, खासकर पीएम मोदी, खुद को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, जिन्हें इंदिरा गाँधी की तरह याद किया जाए, जिन्होंने बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग कर स्वतंत्र देश बनवा दिया था। हो सकता है मोदी चाहते हों कि उन्हें पीओके को भारत में मिलाने के लिए याद रखा जाए। उनकी यह सोच इंदिरा गाँधी के बांग्लादेश बनाने के कारनामे से प्रभावित हो सकती है। कांग्रेस आज तक आज़ादी के आन्दोलन में अपने नेताओं के रोल और इंदिरा गाँधी के बांग्लादेश बनाने जैसे बड़े राजनीतिक और रणनीतिक कदम को एक उपलब्धि के रूप में देश के सामने रखती रही है। इंदिरा गाँधी के ऑपरेशन बांग्लादेश में तो 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों को भारतीय फौज के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था, जो बहुत बड़ी सैन्य घटना थी।

इसके विपरीत मोदी के समय में सर्जिकल स्ट्राइक या बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसे ऑपरेशन किये गये हैं, जो वस्तुता आतंकियों के िखलाफ की गयी सीमित सैन्य कार्रवाई थी। हालाँकि, सच यह भी है कि इनसे ज़्यादा चर्चा वाजपेयी के समय में कारगिल ऑपरेशन की रही है, भले इसे सुरक्षा की चूक का नतीजा भी माना जाता रहा हो।

हो सकता है भाजपा पीओके को पार्टी की एक सैन्य उपलब्धि के रूप में हासिल करना चाहती हो। उसके पास ऑपरेशन के बहुत कारण भी हैं, जिनमें सबसे बड़ा तो यही है कि भारत के िखलाफ आतंकी गतिविधियों का पीओके सबसे बड़ा गढ़ है। ट्रेनिंग से लेकर तमाम आतंकी कैंप पीओके के ही बड़े हिस्से में हैं। भारत पाकिस्तान को अपनी जिस धरती से आतंकी गतिविधियाँ नहीं चलाने की चेतावनी देता रहा है, उसका बड़ा हिस्सा पीओके में ही है। सबसे अहम यह कि भारतीय संसद का प्रस्ताव है कि पीओके भारतीय जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है।

कहानी पीओके की

विभाजन के बाद पाकिस्तान के अलग देश बनने से पहले जम्मू-कश्मीर वास्तव में डोगरा रियासत थी और इसके महाराजा हरि सिंह थे। अगस्त 1947 में पाकिस्तान बना और कोई दो महीने बाद करीब 2.06 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली जम्मू और कश्मीर रियासत भी बँट गयी। यह क्षेत्र जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के रूप में भारत का हिस्सा बना और एक पूर्ण रियासत भी। हालाँकि, 6 अगस्त, 2019 को इस राज्य का पुनर्गठन कर दिया गया, जिससे लद्दाख का हिस्सा जम्मू-कश्मीर के नये बने केंद्र शासित प्रदेश से अलग केंद्र शासित प्रदेश हो गया। विभाजन से पहले जब यह सारा हिस्सा महाराजा हरिसिंह की रियासत थी, तब इसमें गिलगित-बाल्टिस्तान का  बड़ा हिस्सा भी था। इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने 1935 में इस हिस्से को गिलगित एजेंसी को 60 साल की लीज पर दे दिया था।

हालाँकि पहली अगस्त, 1947 को यह लीज खत्म कर दी गयी और यह दोबारा महाराजा हरिसिंह की रियासत का हिस्सा बन गया। हालाँकि एक स्थानीय कमांडर कर्नल मिर्जा हसन खान ने इसके विरोध में विद्रोह भी किया। उसने एकतरफा रूप से 2 नवंबर, 1947 को गिलगित-बाल्टिस्तान को आज़ाद घोषित कर दिया; लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा; क्योंकि 48 घंटे पहले ही 31 अक्टूबर को महाराजा हरिसिंह रियासत के भारत में विलय को मंज़ूर कर चुके थे। लेकिन 21 दिन के बाद कबाइलियों की मदद से पाकिस्तान की सेना ने हमला कर इस हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, जिसमें गिलगित-बाल्टिस्तान के अलावा जम्मू का हिस्सा शामिल था।

इस क्षेत्र को पाकिस्तान ने आज़ाद कश्मीर का नाम दे दिया। भारत इसे पीओके यानी पाक अधिकृत कश्मीर कहता है। इसके बाद जब 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ, तो चीन ने लद्दाख के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, जिसे आज अक्साई चिन कहते हैं। संसद में गृह मंत्री इस हिस्से को ही वृहद जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बताते हुए अपना (भारत का) बताया था।

मार्च 1963 में पाकिस्तान ने बदमाशी करते हुए पीओके के गिलगित-बाल्टिस्तान वाले हिस्से में से एक इलाका चीन को उपहार में दे दिया; को करीब 1910 वर्ग मील के आसपास है। भारत इसका सख्त विरोध करता रहा है। पाकिस्तान ने जो हिस्सा चीन को उपहार में दिया है, जहाँ चीन बड़े पैमाने पर सडक़ें और रेल लाइनें बना चुका है। साल 2009 में पाकिस्तान ने बाकी बचे हिस्से को दो हिस्सों में बाँट दिया, जिसमें से एक हिस्सा पीओके और दूसरा गिलगित-बाल्टिस्तान है। अक्साई चिन, गिलगित-बाल्टिस्तान और भारत के कश्मीर के बीच है और अपने अधिकार वाले इस हिस्से को भारत सियाचिन ग्लेशियर कहता है।

आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके)  क्षेत्रफल करीब 5134 स्कवेयर माइल अर्थात् लगभग 13,296 स्क्वॉयर कि.मी. है। पीओके की राजधानी मुजफ्फराबाद है, जहाँ के लिए यूपीए सरकार के समय श्रीनगर से 2005 में बस सेवा भी शुरू हुई थी। तब मुफ्ती मोहम्मद सईद तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। पीओके में कुल 10 ज़िले हैं। यदि गिलगित बाल्टिस्तान की बात की जाए, तो उसका कुल क्षेत्रफल 28,174 स्क्वॉयर माइल अर्थात् 72,970 स्क्वॉयर कि.मी. इलाका है। वहाँ भी पीओके की तरह 10 ही ज़िले हैं और राजधानी गिलगित है।

पीओके में 2005 में आये भयंकर भूकंप में करीब पौने दो लाख लोगों की जान चली गयी थी। यदि दोनों की कुल आबादी की बात करें, तो यह करीब 61 लाख है। पाकिस्तान ने इसे अपना हिस्सा बताने के लिए वहाँ विधानसभाएँ बना दी हैं और उनके चुनाव होते हैं। तकनीकी रूप से दोनों पाकिस्तान संघ का हिस्सा नहीं, लेकिन वहाँ पाक सरकार और सेना का शासन चलता है। इसके विरोध में आवा•ों भी उठती रही हैं और भारत वहाँ दमन करने के आरोप लगाता रहा है।

साल 2018 में जब पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान आदेश-2018 लेकर आया, तो भारत ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया। दरअसल, पाकिस्तानी पीएम शाहिद खान अब्बासी ने 21 मई को एक आदेश जारी कर इलाके की स्थानीय परिषद् के अहम अधिकार खत्म कर दिये, जिसे इस इलाके को पाकिस्तान का सूबा बनाने की साज़िश के रूप में देखा जाता है। वहाँ शिया आबादी ज़्यादा है और पाकिस्तान का विरोध भी वहाँ बहुत ज़्यादा है।

हालाँकि यह भी माना जाता है कि पाकिस्तान के षड्यंत्र के चलते वहाँ शिया अब बहुमत की आबादी नहीं है।

पीओके मिलाकर बढ़ेंगी सीटें

तत्कालीन जम्मू कश्मीर 5 अगस्त के संसद में इसके पुनर्गठन विधेयक पास होने के बाद भले दो हिस्सों में बँट गया है और लद्दाख उससे अलग हो गया है, केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा रखी गयी है। तत्कालीन जम्मू कश्मीर की विधानसभा में 87 सीटें थीं, जो लद्दाख (चार सीटें) के अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने से 83 रह गयी हैं। हालाँकि वहाँ विधानसभा की असल संख्या अब 107 है। दरअसल इसमें पीओके की 24 सीटें शामिल हैं, जिन्हें खाली रखा जाता है। उन पर चुनाव नहीं होते। यह सीटें खाली रखने का उद्देश्य यह बताना है कि पीओके भारत का ही हिस्सा है। दिलचस्प बात है कि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक पूर्व अधिकारी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी, जिसमें माँग की गयी थी कि पीओके और गिलगिट की संसदीय सीटों को भी घोषित किया जाए। अर्थात् उसका भी चुनाव भारत में हो। हालाँकि, रॉ के इस पूर्व अधिकारी रामकुमार यादव की याचिका को सर्वोच्च अदालत ने तुरन्त खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता पर 50 हज़ार रुपये का ज़ुर्माना भी ठोक दिया। उस मामले की सुनवाई उस समय प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता, जस्टिस अनिरुद्ध बोस ने की थी। याचिकाकर्ता यादव का याचिका में तर्क था कि पीओके और गिलगिट-बालटिस्तान में अभी भी 24 से अधिक विधानसभा सीटें हैं, लिहाज़ा यहाँ पर दो लोकसभा सीटें भी घोषित की जानी चाहिए। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पीओके के लिए आरक्षित 24 सीटों को भरना इसलिए भी सम्भव नहीं, क्योंकि पीओके पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में है। जानकार मानते हैं कि हाँ, यदि कभी पीओके भारत का हिस्सा हो जाता है, तो इन सीटों को भरा जा सकता है; क्योंकि उस स्थिति में इन सीटों के लिए चुनाव करवाया जा सकता है, जो आज सम्भव नहीं है। वैसे जम्मू-कश्मीर कांस्टीट्यूएंट असेम्बली में सम्पूर्ण कश्मीर के लिए 100 सीटें निश्चित की गयी थीं। इनमें 75 सीटें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लिए और 25 सीटें पीओके के लिए आरक्षित की गयी थीं। उस समय के जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 48 के तहत यह व्यवस्था की गयी थी, हालाँकि बाद में जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन कर जम्मू-कश्मीर के लिए सीटें 76 कर दी गयीं और पीओके के लिए 24 सीटें शेष रह गयीं। इसके बाद जम्मू-कश्मीर में 1988 में परिसीमन हुआ, जिससे सूबे की विधानसभा सीटें 76 से बढक़र 87 हो गयीं; हालाँकि पीओके की सीटों की संख्या 24 बनी रही। कारण यह था कि पीओके के पाकिस्तान का हिस्सा होने के कारण वहाँ परिसीमन किया नहीं जा सकता था। वैसे वहाँ दो सीटें अलग से मनोनीत सदस्यों के लिए भी हैं जिन्हें महिलाएँ भर्ती हैं और उनका मनोनयन गवर्नर करते हैं। जम्मू कश्मीर में अब फिर परिसीमन (डीलिमिटेशन) की चर्चा है, जिसके लिए कमीशन का गठन हो चुका है। परिसीमन के हिसाब से 7 सीटों की बढ़ोतरी हो सकती है, जिससे (पीओके की खाली सीटें मिलकर) कुल सीटें 114 तक पहुँच सकती हैं। सम्भावना है कि परिसीमन के बाद जम्मू की विधानसभा सीटें कश्मीर से ज़्यादा हो सकती हैं। अभी तक पीओके के भारत आने वाले नागरिकों को पाकिस्तान का परमिट लेना होता है। वैसे भी उनके पास पाकिस्तान का ही पासपोर्ट होता है। यहाँ यह दिलचस्प है कि भारतीय संसद ने 1994 में प्रस्ताव पारित कर पीओके को वापस लेने की बात कही थी। हालाँकि िफलहाल ठंडे बस्ते में ही रखा गया है।

अमेरिकी यूनिवर्सिटी का दावा

हाल ही में अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी ने चौंकाने वाला दावा किया है। भारत-पाक कन्फ्लिक्ट पर रिसर्च करने वाली रटगर्स यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने अध्ययन के बाद दावा किया है कि भारत और पाकिस्तान के बीच 2025 के आसपास युद्ध हो सकता है। ऐसा ही दावा कुछ महीने पहले अमेरिका के एक थिंक टैंक ने भी किया था। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले रिसर्चर्स में ज़्यादातर वो लोग हैं, जो अमेरिका की बड़ी एजेंसियों से जुड़े रहे हैं।

यह दावा इसलिए भी चिन्ताजनक है कि दोनों ही देश परमाणु शक्तियाँ हैं। ऐसी में सम्भावित युद्ध की विभीषिका का अनुमान लगाया जा सकता है। रटगर्स यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स की इस रिपोर्ट को इसलिए गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है कि इसमें भारत-पाकिस्तान के वर्तमान तनाव को पूरे तथ्यों के साथ साबित करके की कोशिश की गयी है। वैसे यह यूनिवर्सिटी दूसरे देशों में तनाव पर भी अध्ययन करती रही है और उसके अनुमान पूर्व में सटीक साबित हुए हैं। तो क्या यह माना जाए कि भारत-पाकिस्तान के बीच अगला युद्ध पीओके को लेकर होगा? अभी इसकी कल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि युद्ध का समर्थन करने वाले बहुत कम लोग ही मिलेंगे।

बिक सकता है पीओके?

द यूरेशियन टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट पर भरोसा किया, तो पाकिस्तान अपनी कंगाली से बाहर आने के लिए पीओके के एक हिस्से को चीन को बेच सकता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पाकिस्तान अपने कर्•ो उतारने के लिए पीओके के एक हिस्से को चीन को बेच (सौंप) सकता है। चीन की दशकों से पीओके पर नज़र रही है। ज़ाहिर है अगर पाकिस्तान सच में ऐसा करता है, तो इस पर भारत का रुख बहुत सख्त होगा, जो इसे भारत का हिस्सा बताता है। द यूरेशियन टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान का चीन पर करीब 21.7 अरब डॉलर का कर्ज़ है। पाकिस्तान की इस कर्ज़ ने हालत खराब कर दी है। इसमें से 15 अरब डॉलर का कर्ज़ पाकिस्तान ने चीन सरकार और करीब 6.7 अरब डॉलर चीन के विभिन्न वित्तीय संस्थानों का चुकाना है। ऐसे में वह पीओके के एक हिस्से को चीन को देकर यह कर्ज़ चुकाना चाहता है, ऐसा इस पोर्टल की रिपोर्ट में दावा किया गया है। द यूरेशियन टाइम्स एक डिजिटल न्यूज पोर्टल है, जिसे साउथ एशिया एशिया पैसेफिक, यूरेशिया रीजन और मिडल ईस्ट के मामलों का विशेषज्ञ माना जाता है।

एक संसदीय संकल्प है कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है। यदि संसद यह चाहती है, तो उस क्षेत्र (पीओके) को भी भारत में होना चाहिए। जब हमें इस बारे में कोई आदेश मिलेंगे, तो हम उचित कार्रवाई करेंगे। चीन के सीमावर्ती क्षेत्र में सैन्य बुनियादी ढाँचे के विस्तार की रिपोट्र्स पर हम यही कहेंगे कि हम उत्तरी सीमा पर उभरी चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार हैं।

जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, सेना प्रमुख

कश्‍मीर भारत का अभिन्‍न अंग है और इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।  जब मैं जम्‍मू और कश्‍मीर की बात करता हूँ, तो इसमें पाकिस्‍तान के कब्•ो वाला कश्‍मीर और अक्‍साई चिन भी शामिल होता है। ये दोनों जम्‍मू-कश्‍मीर के भू-भाग के भीतर हैं। पीओके और अक्‍साई चिन जम्‍मू-कश्‍मीर का हिस्‍सा हैं। हम इसे गम्भीरता से लेते हैं और इसके लिए जान भी दे देंगे।

अमित शाह, गृहमंत्री

बस, दो ही बच्चे! जनसंख्या पर नियंत्रण की तैयारी?

यह बहुत दिलचस्प संयोग है कि इमरजेंसी के दौरान संजय गाँधी की जिस नसबंदी योजना ने इंदिरा गाँधी की सत्ता छीन ली, आज वही नसबंदी योजना जनसंख्या नियंत्रण के रूप में उस भाजपा के एजेंडे का एक बड़ा हिस्सा बनने की तैयारी में दिखती है, जिसके नेताओं ने तब जनता पार्टी के नेताओं के रूप में इमरजेंसी की नसबंदी का मुखर विरोध कर सत्ता हासिल की थी। यह भी संयोग ही है कि इमरजेंसी के ही दौरान 1976 में देश की संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में व्यापक चर्चा के बाद 42वाँ संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ और संविधान की सातवीं अनुसूची की तीसरी समवर्ती सूची में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन वाक्य जोड़ा गया। इस संविधान संशोधन में केंद्र और राज्य सरकारों को जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया।

िफलहाल अब तक इस तरह के किसी प्रभावी जनसँख्या नियंत्रण कानून का इंतज़ार है। संजय गाँधी का एक अच्छा अभियान इसलिए बड़ी आलोचना का कारण बना, क्योंकि इसे मनमाने और दमनकारी तरीके से लागू किया गया। आपातकाल के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नसबंदी की आलोचना में एक कविता भी लिखी थी जो इस तरह है- ‘आओ मर्दो, नामर्द बनो।’ अब बहुत चर्चा है कि मोदी शासित एनडीए सरकार जल्द ही जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून ला सकती है।

हाँ, यह भी अवश्य एक बड़ा सत्य है कि देश में छोटे परिवार का चिन्तन वास्तव में संजय गाँधी की योजना के बाद ही पैदा हुआ और जनता ने इसका महत्त्व समझ छोटा परिवार अपनाना शुरू किया। अब करीब 45 साल बाद राजनीतिक िफज़ा में फिर जनसंख्या नियंत्रण की चिन्ता उभरी है। दो ही बच्चे का नारा फिर सुनाई देने लगा है। सच है कि देश में अब जनसंख्या पर नियंत्रण की ज़रूरत बहुत तेज़ी से महसूस की  जाने लगी है।

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघ चालक मोहन भागवत बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि राम मंदिर के बाद देश में दो बच्चों का कानून लाना अगला कदम होगा, ताकि जनसंख्या वृद्धि पर रोक लग सके। संघ प्रमुख ने ये भी कहा कि संघ अब देश में दो बच्चों वाले कानून के लिए जागरूकता अभियान चलायेगा और संघ इसके लिए कानून बनाये जाने के लिए प्रयास करेगा। मोहन भागवत ने जनसंख्या नियंत्रण कानून को लेकर टू चाइल्ड पॉलिसी को अपना समर्थन दे दिया है।

संघ प्रमुख के ब्यान के बाद अब सुगबुगाहट है कि मोदी सरकार आने वाले समय में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोर्ई विधेयक ला सकती है। भाजपा नेता इस विषय पर लगातार बयानबाज़ी करते रहे हैं। खासकर, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह इस मसले पर बहुत मुखर दिखते हैं। खुद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में जनसंख्या नियंत्रण पर ज़ोर देते रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस सहित विपक्ष के नेता भी छोटे परिवार के समर्थक न रहे हों। एक से ज़्यादा बार वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी चिदंबरम प्रधानमंत्री के जनसंख्या नियंत्रण वाले बयान का स्वागत कर कह चुके हैं कि इसे जन आंदोलन बनाया जाना चाहिए।

देश में बहुत से जानकार मानते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण का सम्भावित कानून भी सीएए, एनसीआर से जुड़ा भाजपा के एजंडे का हिस्सा है और इसे जल्दी ही लाया जा सकता है। देश के आमजन में भी कम आबादी को लेकर कोर्ई दुविधा नहीं दिखती, लेकिन भाजपा के इसे लागू करने के तरीके को लेकर आशंकाएँ हैं। बहुत से लोगों को लगता है कि मोदी सरकार का ऐसा कानून लाने का असल मकसद ईमानदारी से जनसंख्या नियंत्रण करने से ज़्यादा मुस्लिम आबादी को टारगेट करने वाला ज़्यादा होगा।

देश में दोनों, राजनीतिक और गैर-राजनीतिक, भाजपा विरोधियों में यह आम धारणा बनी है कि वर्तमान सरकार मुस्लिमों को टारगेट करने वाले कानून लेकर आ रही है। हालाँकि, भाजपा और सरकार समर्थक इस धारणा को बिल्कुल गलत मानते हैं। उनका कहना है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में जो परिवर्तन आ रहे हैं, लोग उसके आदि नहीं, लिहाज़ा उन्हें यह हिन्दू समर्थक या मुस्लिम विरोधी कदम लगते हैं, जो सच नहीं है।

दिल्ली में अपना कारोबार करने वाले देवेंद्र भाटिया कहते हैं कि देश एक ढर्रे पर चलने का आदी हो गया था। लिहाज़ा एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जो कर रहे हैं, वह उन्हें (विरोधियों को) पच नहीं रहा; क्योंकि वो हर परिवर्तन को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखना चाहते हैं। आप लिख लीजिए, जो आज हो रहा है उसके सकारात्मक नतीजे आने वाले वर्र्षों में देश देखेगा। आबादी नियंत्रण भी इनमें से एक होगा। हम चाहते हैं कि इस पर कानून लाया जाए, क्योंकि देश और जनता के भले के लिए इसकी सख्त ज़रूरत है।

लेकिन दिल्ली में ही काम करने वाले बंगाल के मोहम्मद कसूरी इसके विपरीत विचार रखते हैं। वे कहते हैं कि इसमें कोर्ई शक ही नहीं बचा है कि भाजपा ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिमों को टारगेट कर रही है। हाल के तमाम कानून मुस्लिमों को परेशान करने के लिए लाये गये हैं। आज की तारीख में वे अपने ही मुल्क में पराया सा महसूस करने लगे हैं। कोर्ई भी कानून जब थोपा जाएगा तो उससे कोई-न-कोई प्रताडि़त होगा ही। यही यह सरकार कर रही है। जनसंख्या का कानून भी इसका अवपाद नहीं होगा।

इन सब आशंकाओं को देखते हुए बहुत से बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि कोई सख्त कानून लाने से ज़्यादा बेहतर तरीका बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना हो सकता है। इससे किसी खास समुदाय के मन में आशंका की धारणा भी नहीं बनेगी और असल मकसद भी हल होगा, भले इसमें समय कुछ ज़्यादा लगे।

हाल के दशकों में लोगों ने जिस तरह छोटे परिवार का रास्ता अपनाया है, उससे बहुत उत्साह वाले संकेत मिलते हैं और एक सफल जागरूकता अभियान पूरी तस्वीर बिना कानून के बदल सकता है। वैसे तो स्कूली कोर्स में भी छोटे परिवार या जनसंख्या वृद्धि पर अध्याय हैं, लेकिन समाज को बदलने वाला जागरूकता अभियान ज़्यादा बेहतर विकल्प होगा।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद का कहना है कि देश के युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आबादी नियंत्रित करने की सख्त ज़रूरत है। प्रसाद के मुताबिक समय आ गया है कि देश में दो बच्चों के मानक पर व्यापक बहस होनी चाहिए। प्रसाद ने कहा कि 1998 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के पंचमढ़ी शिविर के मंथन सत्र में जनसंख्या नियंत्रण की ज़रूरत पर बाकायदा एक प्रस्ताव पारित किया गया था और इस दिशा में दो बच्चों का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काम करने का संकल्प किया गया था। उनके मुताबिक, इस प्रस्ताव में कहा गया था कि ये वक्त भारत को संवेदनशील और जनसंख्या नियंत्रण और स्थिरीकरण को लेकर जागरूक बनाने का है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून की माँग करने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में बाकायदा एक याचिका भी दायर की गयी है। इस याचिका पर सर्वोच्च अदालत केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर चुकी है। इस याचिका में कहा गया है कि बढ़ती आबादी के चलते लोगों को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पा रही हैं। संविधान में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने का अधिकार सरकार को दिया गया है, इसके बावजूद अब तक सरकारें इससे बचती रही हैं।

अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने उनसे कहा था कि उन्हें याचिका हाईकोर्ट में रखनी चाहिए। लेकिन उनका जवाब था कि उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका डाली थी और हाई कोर्ट ने यह कहकर उसे खारिज कर दिया कि कानून बनाने पर विचार करना सरकार का काम है। कोर्ट इसका आदेश नहीं देगा। उनके इस तर्क के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर याचिका पर जवाब देने को कह दिया। जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून के समर्थक कहते हैं कि ज़्यादा जनसंख्या संसाधनों पर भारी पड़ रही है। देश का मानव विकास सूचकांक, प्रति व्यक्ति आय और हैप्पीनेस सूचकांक इसके गवाह हैं। उनको यह भी भय है कि आबादी की रफ्तार आने वाले दशकों में देश में अनाज की बड़ी िकल्लत पैदा कर सकती है और भारत को अनाज के लिए दूसरे देशों पर निर्भर होने जैसी गम्भीर स्थिति झेलनी पड़ सकती है। भारतीय भूभाग और भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिहाज़ भारत पहले ही जनसंख्या विस्फोट का शिकार होने की स्थिति में पहुँच चुका है। देश की एक बड़ी आबादी में बच्चों को पालने का ज़िम्मा एक तरह से सरकारों पर आ चुका है। कुपोषण ने भी हज़ारों बच्चों की जान ली है।

वैसे हाल में मोदी सरकार की तरफ से लाये गये नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को जनसंख्या निंयत्रण कानून उठाये गये पहले कदम के रूप में देखा जा रहा है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसे 2019 के आिखरी महीने में मंज़ूरी दे दी है। वैसे यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दूसरे साल में ही 2010 में भी एनपीआर लाया गया था। एक साल बाद 2011 में हुई जनगणना के लिए एनपीआर का फॉर्म भारतीय नागरिकों से भरवाया गया था। हालाँकि, मोदी सरकार ने एनपीए को लेकर लोगों, खासकर मुस्लिम समुदाय, में बहुत-सी आशंकाएँ हैं। मंत्रिमंडल के एनपीआर को मंज़ूर करने के बाद जनगणना आयोग ने कहा था कि इस एनपीआर का उद्देश्य देश के प्रत्येक सामान्य निवासी का एक व्यापक पहचान डाटाबेस तैयार करना है। इस साल अप्रैल से सितंबर के बीच होने वाली इस जनगणना पर करीब 8,500 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है।

समस्यायों की जड़ आबादी

इसमें कोई दो राय नहीं कि बड़ी आबादी किसी भी देश के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं। यह एक स्थापित सत्य है कि कम आबादी वाले देशों ने ज़्यादा गति से विकास किया है और वहाँ जन समस्याएँ भी बहुत कम हैं। बड़ी आबादी से न केवल बेरोज़गारी नियंत्रण में मुश्किल आयी है, बल्कि स्वास्थ्य योजनाओं से लेकर शिक्षा पर इसका विपरीत असर पड़ा है।

यह देखा गया है कि पिछले चार दशक से, जब से परिवार नियोजन शुरू हुआ है; छोटे  परिवारों का चलन धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा। आज वो परिवार ज़्यादा बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं, जहाँ परिवार छोटा है। वे न केवल बेहतर शिक्षा हासिल कर पाये हैं, बल्कि स्वास्थ्य इंडेक्स में भी बेहतर पायदान पर हैं। देश में बहुत से ऐसे मुस्लिम परिवार हैं, जहाँ छोटे परिवार हैं। परिवार में एक बेटा ज़रूर होने की धारणा भी अब घटी है और बहुत से ऐसे परिवार हैं, जहाँ दो बेटियों के बाद और बच्चे पैदा नहीं किये गये या परिवार नियोजन अपना लिया गया। हमारे देश में साल 1950 में महिलाओं की औसत प्रजनन दर छ: के आसपास थी, जो हाल के वर्षों में 2.2 हो गयी है, जिससे ज़ाहिर होता है कि देश में लोग इस ज्वंलत समस्या के प्रति काफी जागरूक हुए हैं। हालाँकि, देश में प्रजनन दर अब भी 2.1 के औसत प्रतिस्थापन दर (एआरआर) तक नहीं पहुँच सकी है। एआरआर प्रजनन क्षमता का वो स्तर माना जाता है, जिस पर एक आबादी खुद को पूरी तरह से एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में बदल देती है। लेकिन ज़्यादा जागरूकता भारत को इस लक्ष्य तक पहुँचा सकती है।

बड़ी आबादी का सबसे नकारात्मक पहलू भुखमरी है। ज़्यादा जनसंख्या में सबसे बड़ा संकट लोगों का पेट भरना है। भारत भी इसे बड़े पैमाने पर झेल रहा है। देश में ऐसे बहुत से इलाके हैं, जो दशकों से भुखमरी से पीडि़त हैं। जानकार मानते हैं कि आबादी नियंत्रण से इस समस्या पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।

एक दिन में 67,000 जन्म

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि 2020 के पहले दिन भारत में 67,385 बच्चों का जन्म हुआ। इसके बाद पड़ोसी चीन का नम्बर है, जो खुद भारत की तरह जनसंख्या विस्फोट की चुनौतियाँ झेल रहा है। चीन में पहली जनवरी को भारत से करीब 20,000 काम यानी 46,299 बच्चे पैदा हुए। उसके बाद नाइजीरिया में 26,039, पाकिस्तान में 16,787, इंडोनेशिया में 13,020, अमेरिका में 10,247, कॉन्गो में 10,247 और इथोपिया में 8,493 बच्चे पैदा हुए। इन आँकड़ों से दुनिया, खासकर भारत में आबादी की गति का अनुमान लगाया जा सकता है। भारत में जन्म लेने वाले बच्चों का यह आँकड़ा अस्पतालों में दर्ज डाटा का है और हो सकता है असल में कुल संख्या ज़्यादा हो।(साभार : यूनिसेफ)

देश को दो बच्चों के कानून की ज़रूरत है। संघ का अगला कदम देश में दो बच्चों का कानून लाने के लिए होगा, जिस से जनसंख्या वृद्धि पर रोक लग सके। संघ देश भर में दो बच्चों वाले कानून के लिए जागरूकता अभियान चलायेगा और इसके लिए कानून बनाये जाने का प्रयास करेगा।

मोहन भागवत, आरएसएस प्रमुख

देश की बढ़ती हुई जनसंख्या एक विस्फोटक समस्या बन गयी है। अब तो सभी लोग इसे स्वीकारने भी लगे हैं। जनसंख्या नियंत्रण विकास और सामाजिक समरसता के लिए जरूरी है। इसे किसी धार्मिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।

गिरिराज सिंह, केंद्रीय मंत्री

मुस्लिम महिलाओं में घट रही प्रजनन दर

देश की बड़ी आबादी के लिए मुस्लिम परिवारों में ज़्यादा बच्चों का होना भी माना जाता रहा है। हालाँकि, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के नये सर्वेक्षण के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं की 1992-93 की 4.4 की प्रजनन दर 1998-99 में कम होकर 3.6 रह गयी और 2015-16 में यह और घटकर 2.6 रह गयी, जिसे बहुत अच्छा संकेत माना जाएगा। हिन्दुओं के मुकाबले मुस्लिम महिलाओं में जो प्रजनन दर हमेशा से ज़्यादा रही थी; वह अंतर अब घट रहा है। साल 1992-93 में हिन्दू और मुस्लिमों में प्रजनन दर में 1.1 बच्चे का अंतर था, अर्थात् एक मुसलमान महिला एक हिन्दू के मुकाबले 33 फीसदी ज़्यादा बच्चे पैदा करती थी। ये अन्तर 2015-16 में घटकर .5 रह गया, अर्थात्  आज एक हिन्दू महिला के मुकाबले एक मुसलमान महिला 23.8 फीसदी ज़्यादा बच्चे पैदा करती है। सर्वेक्षण के अनुसार माँ बनने की उम्र बढ़ाकर और दो बच्चों के बीच अन्तर को बढ़ाकर भारत में प्रजनन दर को कम करने में मदद मिली है। साल 1992-93 में हिन्दुओं में माँ बनने की औसत आयु 19.4 साल, जबकि मुस्लिम महिला 18.7 साल की उम्र में माँ बन जाती थी। साल 2015-16 में हिन्दुओं की औसत उम्र 21 साल तक पहुँच गयी, तो मुस्लिम महिलाओं ने भी माँ बनने का 20.6 साल का स्तर हासिल किया। दो बच्चों के बीच अंतराल तो मुस्लिमों में थोड़ा बेहतर दिखा है। साल 2005-06 में में हिन्दू महिलाएँ दो बच्चों में औसतन 31.1 महीने का अन्तर रखती थीं, जबकि मुस्लिम महिलाओं में यह अन्तर 30.8 महीने का था; लेकिन साल 2015-16 में हिन्दू महिलाएँ 31.9 महीने का अन्तर रखने लगीं तो मुस्लिम महिलाओं में ये अंतराल 32 महीने हो गया। इस तरह यह अंतराल हिन्दू महिलाओं में 2.5 फीसदी तो मुस्लिम महिलाओं में 3.75 फीसदी बढ़ा है।

जनसंख्या कानून को लेकर याचिका

जनसंख्या नियंत्रण पर कानून की माँग करके सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि भारत में दुनिया की कुल कृषि भूमि का दो फीसदी और पेयजल का चार फीसदी है, जबकि आबादी पूरी दुनिया की लगभग 20 फीसदी है। ज़्यादा आबादी के चलते लोगों को आहार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ रहा है। यह सीधे-सीधे सम्मान के साथ जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। आबादी पर नियंत्रण पाने से लोगों के कल्याण के लिए बनी तमाम सरकारी योजनाओं को लागू करना आसान हो जाएगा। इसके बावजूद सरकारें जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून नहीं बनाती हैं।

याचिका में कहा गया है कि 1976 में किये गये संविधान के 42वें संशोधन में जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने का अधिकार सरकार को दिया गया था। इस अधिकार को सातवीं अनुसूची में जगह दी गयी थी। यह समवर्ती सूची में है यानी केंद्र या राज्य सरकार, दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। लेकिन किसी ने भी ऐसा नहीं किया है। कोर्ट में दलील रखते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि जनसंख्या वृद्धि विस्फोटक स्तर पर जा चुकी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, अब तक 125 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बन चुका है। करीब 25 करोड़ लोग अभी भी आधार से वंचित हैं। इस तरह से भारत की आबादी करीब 150 करोड़ हो गयी है। इनमें से 5 करोड़ लोग बांग्लादेश या म्यांमार से आये हुए अवैध घुसपैठिये हैं। लेकिन जनसंख्या नियंत्रण देश की नीति बनाने वालों की प्राथमिकता में कहीं नज़र नहीं आता। याचिकाकर्ता भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने कोर्ट को यह भी बताया कि 2002 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एमएम वेंकटचलैया के नेतृत्व में बने संविधान समीक्षा आयोग ने भी संविधान के नीति निदेशक सिद्धांतों में अनुच्छेद-47 (ए) को जोडऩे की सिफारिश की थी। इसमें आबादी पर नियंत्रण की कोशिश को सरकार का दायित्व बताया जाना था। उसके बाद से कई संविधान संशोधन हुए, लेकिन इस सुझाव को कहीं जगह नहीं मिली।

किसान कर्ज़ माफी पर उठते सवाल

हाल ही में नवगठित महाराष्ट्र सरकार ने 2 लाख रुपये तक के किसानों के कर्ज़ यानी कृषि ऋण को माफ करने की घोषणा की है, जिसकी पात्रता के गणना की तारीख 30 सितंबर, 2019 रखी गयी है। महाराष्ट्र में किसानों की संख्या 137 लाख के करीब है। वित्त वर्ष 2017-18 में 89 लाख किसानों में से 44 लाख किसानों के कृषि ऋण को माफ किया गया था। इस बार लगभग 50 लाख से अधिक किसानों को ऋण माफी का लाभ मिल सकता है, जिसका कारण ऋण माफी के पात्रता की सीमा को 1.5 लाख रुपये से बढ़ाकर 2.0 लाख रुपये किया जाना है। ऋण माफी के पात्र किसानों की संख्या के आधार पर कृषि ऋण माफी की लागत लगभग 50,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। सरकार द्वारा किसानों को ऋण माफी देने के पीछे सबसे बड़ा तर्क है कि जब कॉरपोरेट्स के फँसे कर्ज़ (एनपीए) को बट्टे-खाते में डाला या राइट ऑफ किया जा सकता है, तो किसानों के ऋण को क्यों नहीं माफ किया जा सकता है। िफलहाल कृषि एनपीए 1.1 लाख करोड़ रुपये है, जो कुल एनपीए का 12.4 प्रतिशत है। पिछले दशक में 3.14 लाख करोड़ रुपये के कृषि कर्ज़ को माफ किया गया है। इस प्रकार, कृषि एनपीए और माफ किये गये कर्ज़ को जोडऩे से कुल राशि 4.24 लाख करोड़ रुपये हो जाती है, जो उद्योगों के राइट ऑफ या बट्टे खाते में डाली गयी 5.7 लाख करोड़ रुपये से बहुत ज़्यादा कम नहीं है। यदि महाराष्ट्र सरकार द्वारा घोषित हालिया कृषि कर्ज़ माफी की राशि को कृषि एनपीए और माफ किये गये कर्ज़ राशि के साथ जोड़ दिया जाए, तो कुल कृषि एनपीए और माफ की गयी कर्ज़ की राशि 4.7 लाख करोड़ रुपये हो जाती है। इधर, दिवाला और शोधन अक्षमता कोड के आने के बाद से बड़े चूककर्ता कारोबारियों का कुछ हद तक पुनर्वास हो रहा है। इस कोड से वसूली में भी तेज़ी आयी है। हालाँकि किसानों का कृषि कर्ज़ माफ करने के बाद भी उनकी वित्तीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है और वे ऋणग्रस्तता के संजाल में फँसते जा रहे हैं।

कृषि ऋण माफी बनाम किसानों को किया गया वास्तविक भुगतान

पिछले एक दशक में कृषि ऋण माफी की अनेक घोषणाएँ की गयी हैं। राज्य सरकारों ने भी कृषि कर्ज़ को माफ करने की अनेक घोषणाएँ की हैं। बावजूद इसके, किसानों को माफ की गयी ऋण की पूरी राशि नहीं मिल पा रही है। राज्यों के बजट विश्लेषण से पता चलता है कि जिस साल कृषि ऋण को माफ किया गया, उसके बाद के कई वर्षों तक ऋण माफी की राशि बैंकों को नहीं दी गयी, जिसका कारण राज्यों के खजाने में पैसा का नहीं होना रहा है। चूँकि, एफआरबीएम अधिनियम के प्रावधानों के कारण 14वें वित्त आयोग ने राज्यों को निर्धारित सीमा से अधिक बाज़ार से उधार लेने के लिए प्रतिबन्धित किया है। इसलिए, राज्य सरकार बाज़ार से पैसे नहीं उठा पा रहे हैं। तेलंगाना ही केवल एक ऐसा राज्य है, जिसने घोषित ऋण माफी के 90 प्रतिशत राशि का भुगतान वित्तीय संस्थानों को कर दिया है। मामले में राज्यवार कृषि ऋण माफी का पैमाना भी अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, राजस्थान और तमिलनाडु में, केवल वैसे किसान कृषि ऋण माफी के पात्र थे, जिन्होंने केवल सहकारी वित्तीय संस्थानों से कर्ज़ लिया था।

ऋण चुकाने का चलन हो रहा है खत्म

आमतौर पर कृषि ऋण माफी की राशि सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा बैंकों को कई िकस्तों में दी जाती है और किसानों के किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) कृषि ऋण माफी की पूरी राशि मिलने तक एनपीए बनी रहती है। एक बार कर्ज़ माफी का लाभ मिलने के बाद किसानों को दोबारा ऋण मिलने में परेशानी होती है। वित्तीय संस्थान चूककर्ता किसानों को ऋण देने से परहेज़ करते हैं। समय पर वित्तीय सहायता न मिलने की वजह से चूककर्ता किसानों का कर्ज़ बढ़ता चला जाता है, जिससे कृषि उत्पादकता में गिरावट आती है। कृषि ऋण माफी की वजह से नये कृषि कर्ज़ के वितरण में भी कमी आ रही है। उदाहरण के लिए, वित्त वर्ष 2018 में महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब की सरकार ने कृषि कर्ज़ को माफ किया था, जिसकी वजह से वित्त वर्ष 2018 में केसीसी का वर्ष दर वर्ष ऋण वितरण महाराष्ट्र में 40 फीसदी, कर्नाटक में 1 फीसदी और पंजाब में 3 फीसदी हुआ। इस तरह कृषि ऋण माफी योजना किसानों का ऋण कम करने के बजाय बढ़ा रही है। साथ ही अब वैसे किसान, जो नियमित रूप से ऋण का भुगतान कर रहे हैं; भी ऋण नहीं चुकाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। वर्तमान में एक बार ऋण माफी का लाभ मिलने के बाद किसान दोबारा कर्ज़ की राशि बैंक को नहीं लौटा रहे हैं। आमतौर पर ऐसे किसान अगली ऋण माफी की घोषणा का इंतज़ार करते हैं।

कृषि ऋण माफी पर कैग की रिपोर्ट

कैग ने वर्ष 2008 में की गयी कृषि ऋण माफी पर 5 मार्च, 2013 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। रिपोर्ट के अनुसार, ऋण माफी योजना को लागू करने के दौरान अपात्र किसानों को ऋण माफी का लाभ देने, लाभार्थी किसानों को ऋण माफी का प्रमाण-पत्र नहीं देने, स्वतंत्र एजेंसियों से ऋण माफी का अंकेक्षण नहीं कराने जैसी गलतियाँ की गयी थी।

प्रति किसान केसीसी अधिशेष में वृद्धि

केसीसी आँकड़ों के राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि पंजाब को छोडक़र सभी राज्यों में केसीसी के अधिशेष में वृद्धि का रुझान देखा जा रहा है, जबकि पंजाब में वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में कृषि ऋण माफी की घोषणा की गयी थी, पर वहाँ कम राशि के ऋण में कमी आ रही है; जो यह दर्शाता है कि किसान कम राशि के ऋण लेने से परहेज़ कर रहे हैं। बदले परिवेश में किसान ज़्यादा ऋण लेना चाहते हैं, ताकि ऋण माफ होने पर उन्हें ज़्यादा लाभ मिल सके।

कृषि ऋण माफी से बचने की ज़रूरत

कृषि क्षेत्र में मौज़ूद समस्याओं को दूर करने के लिए कृषि ऋण माफी को समाधान नहीं माना जा सकता है। किसानों की समस्याओं को दूर करने से ही स्थिति में सकारात्मक बदलाव आ सकता है। इसके लिए एक दुग्ध ब्रांड के मॉडल के अनुरूप खाद्य उत्पादों के लिए प्रतिस्पर्धी और समावेशी मूल्य शृंखलाओं का निर्माण करना चाहिए। को-ऑपरेटिव मॉडल की मदद से उत्पादन से विपणन तक की सम्पूर्ण मूल्य शृंखला में सुधार आ सकता है। इसके अलावा कृषि उपज और लाइवस्टॉक विपणन (एपीएलएम) अधिनियम 2017 के मॉडल को भी अमलीजामा पहनाने की ज़रूरत है। इससे कृषि विपणन प्रणाली में मौज़ूद बाधाओं को दूर करने में आसानी होगी। बैंक द्वारा ऋण पर हाइपोथिकेशन चार्ज आरोपित करने की प्रक्रिया को भी समाप्त करने की जरूरत है। मौज़ूदा समय में इस नियम की वजह से बैंकिंग परिचालन में अनेक मुश्किलेंं आ रही हैं साथ ही साथ बैंक के खर्च में अनावश्यक रूप से वृद्धि हो रही है।

दूसरे उपाय

केसीसी योजना का आगाज भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 1998 में किया था। केंद्र सरकार तीन लाख रुपये तक के केसीसी लेने वाले किसानों को प्रॉम्प्ट रिपेमेंट इंसेंटिव दे रही है। समय पर ऋण की अदायगी करने वाले किसानों को 5 प्रतिशत ब्याज देना होता है। मार्च, 2019 के अंत में सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एएससीबी) ने केसीसी श्रेणी में 6,680 अरब रुपये का ऋण दिया था, जो कुल कृषि ऋण का 60 फीसदी था। आज किसानों के बीच यह सबसे लोकप्रिय ऋण है। फिर भी, कई कारणों जैसे, प्राकृतिक आपदा, उपज की वास्तविक कीमत नहीं मिलने, कृषि ऋण माफी की घोषणा आदि के कारण किसान केसीसी का पुनर्भुगतान नहीं कर रहे हैं।

बटाईदार किसानों को मिले राहत

किसानों की ऋणग्रस्तता में वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण लगभग 70 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर बटाईदार या काश्तकार किसानों द्वारा खेती-किसानी करना है। मौज़ूदा नियमों के अनुसार काश्तकार किसान न तो ऋण पाने के हकदार हैं और न ही सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के। सरकार द्वारा दिये जाने वाले सारे फायदे भूमि मालिकों को मिलते हैं। केरल एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसने काश्तकार किसानों को आर्थिक शोषण से बचाने के लिए मनी लेंडिंग एक्ट को अमलीजामा पहनाया है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों में भी काश्तकार किसानों की बेहतरी के लिए काम किया जा रहा है। वित्त वर्ष 2018 के बजट में काश्तकार किसानों को काश्तकारी का प्रमाण-पत्र देने की बात कही गयी थी। किसानों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए इस संकल्पना को जल्द-से-जल्द लागू किया जाना चाहिए। काश्तकार किसानों को स्व-घोषित किरायेदारी के शर्तों को मानने और घोषित उत्पादित फसलों के हलफनामे के आधार पर बीमा और दूसरे फायदे दिया जाना चाहिए। काश्तकार किसानों की मदद के लिए बैंक, नाबार्ड और सरकार को आगे आना चाहिए। काश्तकार किसानों को समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए एक कोष बनाना इस दिशा में लाभकारी हो सकता है।

निष्कर्ष

पड़ताल से साफ है कृषि ऋण माफी से किसानों का कोई भला नहीं हो रहा है। सच कहा जाए, तो इससे उनकी समस्याओं में बढ़ोतरी हो रही है। आज किसानों की समस्याओं का समाधान करने की ज़रूरत है, न कि उन्हें कृषि ऋण माफी जैसा लॉलीपॉप देने की।

अंतरिक्ष में दबदबे की तैयारी

2020 के शुरुआत ही में मुल्क के लोग बेसब्री से इस साल के आिखरी महीने का इंतज़ार करने लगे हैं। वजह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रमुख द्वारा दी गयी एक अहम जानकारी है। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने हाल ही में बेंगलूरु में मानव अंतरिक्षयान और खोज वर्तमान चुनौतियाँ व भविष्य घटनाक्रम पर आयोजित विचार-गोष्ठी में जानकारी दी कि इसरो इस साल दिसंबर में पहली रोबोट ‘ व्योममित्र ’ को अंतरिक्ष में भेजेगा। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने देश की अंतरिक्ष योजना के बारे में बताया कि दिसंबर 2021में भारत के पहले मानवयुक्त अंतरिक्षयान गगनयान का प्रक्षेपण किया जाएगा। इससे पहले इसरो दिसंबर, 2020 और जून, 2021 में दो मानवरहित मिशन का भी प्रेक्षपण करेगा। वैज्ञानिक सैम दयाल ने बताया कि व्योममित्र इंसान की तरह व्यवहार करेगी और हमें रिपोर्ट भेजेगी। गौरतलब है कि महिला रोबोट व्योममित्र अंतरिक्ष यात्रियों की साथी होगी और उनसे बात भी करेगी। अंतरिक्ष यात्रियों की पहचान करने सहित उनके सवालों का जवाब देगी। वह अंतरिक्ष में जीवन प्रणाली के संचालन पर नज़र रखेगी। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने अंतरिक्ष में महिला रोबेट भेजे जाने बावत कहा कि महिलााएँ सशक्तीकरण का प्रतीक होती हैं।

महिला रोबोट ‘व्योममित्र’ की खबर देश में एक बार फिर से शैक्षाणिक संस्थानों में विज्ञान, शोध में महिलाओं की रुचि व संख्या को और उनके लिए विशेष प्रयासों को बढ़ाने वाले माहौल को बनाने का काम कर सकती है। दरअसल भारत में विज्ञान, गणित से जुड़े विषयों में लड़कियाँ बहुत कम दािखला लेती हैं। बेशक एक रिपोर्ट में यह सम्भावना जतायी गयी थी कि प्राइमरी स्तर पर दािखला लेने वाली लड़कियों की संख्या जल्द ही लडक़ों की संख्या से अधिक हो जाएगी, मगर एक ज़मीनी हकीकत यह भी है कि जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे लड़कियों का अनुपात कम होता जाता है। शिक्षा तक पहुँच की कमी भी महिलाओं की शिक्षा पर असर डालती है। मुल्क में कई ऐसे गाँव हैं, जहाँ उच्च शिक्षा के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। ऐसे में सबसे पहले युवतियाँ और उसके बाद गरीब युवा शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। 8.3 प्रतिशत भारतीय महिलाएँ स्नातक की पढ़ाई पूरी कर पाती हैं। मुल्क इंजीनियरिंग में महिलाओं की कम संख्या से जूझ रहा है। शीर्ष के संस्थानों में तो महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है। हाल ही में मुल्क के विज्ञान एवं प्रौ़द्यौगिकी मंत्रालय ने मुल्क के शीर्ष के श्ैक्षिणिक संस्थानों व शोध संस्थानों को, जिन्हें यह मंत्रालय फंड देता है, उनके बारे में बताया है कि मंत्रालय उन संस्थानों को इस साल के अकादिमक सत्र से ही लैंगिक समानता के मानक पर ग्रेड देगा। ऐसे 90 से अधिक संस्थान हैं, जो पूरी तरह से या आंशिक रूप से इस मंत्रालय से फंड ले रहे हैं। इस प्रोजेक्ट के तहत बारी-बारी से सभी संस्थान कवर होंगे। गोल्ड, सिल्वर और ब्रांज वाली रेटिंग विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग, गणित और मेडिसिन की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों में साइंस फैकल्टी में पढऩे वाली लड़कियों की संख्या के आधार पर दी जाएगी। इसके साथ ही यह भी देखा जाएगा कि संस्थान महिला वैज्ञानिकों के योगदान को कितना महत्त्व देते हैं और इंडियन एकाडमी ऑफ साइंसस और इंडियन नेशनल साइंस एकाडमी में वहाँ से कितनी महिला फैलो इन एकाडमी में जाती है। इसके अलावा अन्य मानकों में पीएचडी की डिग्री लेने वाली महिला वैज्ञनिकों की संख्या और विश्रामकालीन या अध्ययन अवकाश के बाद कितनी महिला वैज्ञानिक लौटती हैं, वाले मानक भी शमिल हैं।

गोल्ड ग्रेड ऐसे संस्थानों के लिए है, जहाँ पहले से ही लैंगिक समानता के प्रकाशस्तम्भ व प्रेरणा स्रोत मौज़ूद हैं, सिल्वर ग्रेड उनके लिए हैं, जिन्होंने अपनी चुनौतियाँ पहचान ली हैं। ब्रांज ग्रेड उनके लिए हैं, जो लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं। 20 संस्थान, जिसमें कुछ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ  टेक्नोलॉजी (एनआईटी) भी शमिल हैं; ने इस परियोजना का हिस्सा बनने के लिए हस्ताक्षर कर दिये हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि वर्ष 2017 में एनआईटी संस्थानों में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की संख्या में कमी के मद्देनज़र 2018 से उनके लिए स्पेशल सीट की व्यवस्था करने की घोषणा की गयी थी। 2020 तक उनका अनुपात 20 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया गया है। इस स्पेशल सीट का मतलब लडक़ों की सीटेंकम करने से नहीं, बल्कि लड़कियों के लिए अतिरिक्त सीट की व्यवस्था करने से है। आईआईटी संस्थानों में भी लड़कियों के लिए 4 प्रतिशत अतिरिक्त सीटें व्यवस्थित करने का फैसला लिया गया था। भारत में विज्ञान में पीएचडी करने वालों में केवल 37 प्रतिशत महिलाएँ हैं, साइंस फैकल्टी पोजीशन में महिलाओं की संख्या महज़ 15 फीसदी ही है, इंडियन नेशनल संाइस ऑफ अकादमी में महिला फैलो केवल 5 फीसदी ही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में दिया जाने वाला प्रतिष्ठित पुरस्कार शान्ति स्वरूप भटनागर अभी तक 461 वैज्ञानिकों को दिया जा चुका है, जिसमें महिलाओं की संख्या औसतन 15 है। आँकड़ें बताते हैं कि महिला वैज्ञानिकों की देश में कमी है। इस अहम विषय पर राष्ट्रीय महिला वैज्ञानिक कांग्रेस में भी चिंता व्यक्त की जाती है और समाधान पर भी चर्चा होती है। भारत में करीब पौने तीन लाख टेक्नोलॉजिस्ट और इंजीनियर रिसर्च और डवलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं, इनमें महिलाओं की संख्या करीब 40,000 है। नासा में 50 प्रतिशत फ्लाइट डायरेक्टर्स महिलाएँ हैं। यहाँ तक कि इसरो में भी लैंगिक बराबरी नहीं है। इसरो की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में इसरो में 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं, जिनमें से 12 प्रतिशत वैज्ञानिक या तकनीकी भूमिका में हैं। भारत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी यानी एआई में भी महिलाओं की कमी है।

एआई और नयी तकनीक यानी नये स्किल को जल्दी हासिल कर लेगा, जल्दी सीखकर इस्तेमाल करेगा उसकी उपयोगिता उतनी ही ज़्यादा होगी। अधिक-से-अधिक महिलाओं को नयी तकनीक की पढ़ाई के बाबत प्रोत्साहित करना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों पर कार्यस्थलों में कर्मचारियों के स्तर पर लैंगिक बराबरी को लेकर दबाव बना हुआ है और यह दबाव पूरा करने के लिए ज़रूरी है कि साक्षात्कार में योग्य महिला उम्मीदवार आयें। और यह तभी कुछ हद तक सम्भव है, जब उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विज्ञान सम्बन्धित विषय पढऩे वाली लड़कियों की संख्या में इज़ाफा हो। 8 मार्च, 2008 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने महिला वैज्ञानिकों को उनके अनुसंधान के लिए पुरस्कृत करते हुए कहा था कि क्या देश में मैडम क्यूरी जैसी महिला वैज्ञानिक पैदा की जा सकती हैं। देश की पहली प्रथम महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय अनुसंधान व विज्ञान संकायों में दािखला लेने वाली लड़कियों की बहुत कम संख्या पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए लड़कियों/महिलाओं को इस क्षेत्र में प्रोत्साहित करने सम्बन्धी अनेक कदम उठाने का सुझाव दिया था।

सरकारी स्तर पर किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ परिवार व समाज को भी महिला वैज्ञानिकों को सपोर्ट सिस्टम मुहैया कराना होगा। इस बात की तस्दीक इसरों में कार्यरत महिला वैज्ञानिक भी करती हैं। यह भी देखा गया है कि कई बार महिला वैज्ञानिक के शादी के रिश्ते के वक्त वर पक्ष वाले उसे वैज्ञानिक वाली टाइम कंजूमिंग जॉब छोडक़र टीचिंग ज्वाइन करने की सलाह देते हैं। लिहाज़ा कई कारणों से महिला वैज्ञानिक अपनी शोध/करिअर बीच में ही छोड़ देती हैं और फिर नहीं लौटती। यह बिन्दु भी विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी मंत्रालय के लिए चिन्ता का विषय है, इसीलिए मंत्रालय ने ग्रेड देने वाले मानकों में एक मानक यह भी जोड़ा है कि कितनी महिला वैज्ञानिक अवकाश के बाद लौटती हैं। विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी मंत्रालय की लैंगिक समानता वाली यह परियोजना कितनी कारगर होगी, आने वाले साल इसका जबाव देंगे।

अनशन पर अत्याचार!

राजनीति और महिलाएँ एक ऐसा विषय है, जिस पर कभी भी चर्चा हो सकती है। यह चर्चा कहीं भी हो सकती है और आजकल भारत देश की दिल्ली में शाहीन बाग और लखनऊ के घंटाघर में सीएए, एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन कर रही युवतियों-महिलाओं के हुजूम ने इस विषय को एक बार फिर से लोगों के सामने रख दिया है। यह विषय बतौर मतदाता भी हो सकता है और यहाँ आने वाली युवितयों-महिलाओं में से कितनी खुद को चुनावी राजनीति में आने वाले वक्त में उम्मीदवार के तौर पर तैयार करेंगी और कितनी लड़कियाँ-महिलाएँ इन्हें प्रेरणा-स्रोत के रूप में देखेंगी, इस बावत अभी कहना शायद जल्दबाज़ी होगा, लेकिन इतना तो साफ है कि इन पर भी आरोप लगने शुरू हो गये हैं। किसी ने कहा कि यह पेड आन्दोलन है, महिलाओं को घरने पर बैठने के एवज़ में रुपये दिये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया कि पुरुष घरों में रज़ाई में सो रहे हैं और महिलाओं व बच्चों को धरने पर भेज रहे हैं। दरअसल मुख्यमंत्री का यह बयान उनकी इस खीझ को दर्शाता है कि उनकी पार्टी भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से छुटकारे दिलाने के लिए कानून दिया और आज वही मुस्लिम महिलाएँ उनके िखलाफ प्रदर्शन कर रही हैं। मुख्यमंत्री ने महिलाओं की ताकत को कम आँकने वाला यह बयान देकर फिर उस मुद्दे को सामने रख दिया है कि राजनीति में उतरने वाली महिलाएँ चाहे वह चुनाव लड़े या सत्तारूढ़ पार्टी के विचारों, नीतियों, पारित कानूनों का विरोध करने के लिए सामने आये, तो उसका मनोबल तोडऩे, उसे घर की चहारदीवारी में लौटने के लिए विवश कर दिया जाए। इसके लिए आज के दौर में सोशल मीडिया का इस्तेमाल बहुत किया जा रहा है। पुरुष वर्चस्व वाली राजनीति में सक्रिय महिलाएँ नयी तकनीक के निशाने पर हैं यानी पुरुष नयी तकनीक के ज़रिये महिलाओं को राजनीति से दूर रहने का दबाव बनाने के लिए अपमानजनक, अश्लील भाषा का इस्तेमाल करने से भी गुरेज़ नहीं कर रहे हैं। यह एक वैश्विक विषय है; लेकिन पहले भारत की ही चर्चा करते हैं। हाल ही में एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था ने एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मार्च से लेकर मई यानी तीन महीनों में महिला उम्मीदवारों के लिए किये गये हर साँतवे ट्विट में एक ट्विट समस्यापरक या अपमानजनक था। इस स्टडी में 95 महिला उम्मीदवारों पर किये गये सात लाख ट्विट में से एक लाख ट्विट समस्यापरक या अपमानजनक पाये गये। इस अध्ययन से यह भी सामने आया कि मुस्लिम महिला उम्मीदवारों को अन्य धर्मों की महिला उम्मीदवारों की अपेक्षा प्राजातीय या धार्मिक टिप्पणियाँ 94.1 प्रतिशत अधिक मिली। हाशिये की जाति से सम्बन्ध रखने वाली महिला उम्मीदवारों को अन्य जाति की महिला उम्मीदवारों से 59 प्रतिशत अधिक जाति आधाािरत अपमानजनक ट्विट भेजे गये। गैर भाजपाई महिला उम्मीदवारों को अन्य महिला राजनीतिज्ञों की तुलना में ऑनलाइन अपमानजनक अधिक ट्वीट का सामना करना पड़ा, यह संख्या 56.7 प्रतिशत है। द इकोनॉमिस्ट अखबार ने नवंबर, 2019 में अपने एक अंक में विश्व में राजनीति और अन्य क्षेत्रों में सक्रिय महिलाओं के िखलाफ चलने वाले झूठे प्रचार पर विशेष रिपोर्ट छापी थी। इसमें कहा गया था कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में सक्रिय महिलाओं को अक्सर झूठे प्रचार का निशाना बनाया जाता है। डिजिटल तकनीक ने ऐसी सामग्री के प्रसार को और अधिक व्यापक बनाया है। कृत्रिम बुद्धिमता के माध्यम से तस्वीरों और वीडियों को अपने हितों के मद्देनज़र पेश करना सस्ता व सुलभ हो गया है। झूठा प्रचार अभियानों की संख्या में वृद्धि चिन्ता का विषय है। 2017 में 28 और 2018 में 48 देशों में यह अभियान चलाया गया और 2019 में ऐसे मुल्कों की संख्या बढक़र 70 हो गयी।

यह िफक्र की बात मानवाधिकार संगठनों, महिला कार्यकर्ताओं के लिए हो सकती है मगर सरकारें इसे लेकर िफक्रमंद नहीं नज़र आती। सरकारों और सत्ताधारी दलों को महिलाओं की नकारात्मक छवि गढऩे वाले नये औज़ार काफी भाते हैं। सोशल मीडिया का ऐसा इस्तेमाल यानी ऑनलाइन महिलाओं को धमकाना, उनके लिए अपमानजनक टिप्पणी करना, अश्लील भाषा का इस्तेमाल, लैंगिक टिप्पणियाँ, नस्ली, जातीय, यौनिक व अन्य भद्दी टिप्पणियाँ लिखना, चरित्र पर उँगली उठाने का मतलब उन्हें सार्वजनिक तौर पर इस कदर हतोत्साहित करना कि युवतियाँ-महिलाएँ राजनीति छोडक़र खामोशी ओढ़ लें और घरों में अपनी शेष साँसे लें। 2018 में इराक में चुनाव से पहले दो महिला उम्मीदवारों के अश्लील वीडियो जारी कर अपमानित किया गया। एक महिला चुनाव मैदान से हट गयी। 2019 में इंगलैंड में भी चुनाव हुए और महिला उम्मीदवारों ने महिला उम्मीदवारों को बदनाम करने वाला मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठाया था। एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था का भारत पर किया गया हालिया अध्ययन यह भी खुलासा करता है कि भारत में महिला उम्मीदवारों को यूके व यूएस की महिला उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक ऑनलाइन शोषण का सामना करना पड़ता है।

इस्लामी देश ईरान में चुनाव जीतने वाली एक महिला को अयोग्य घोषित कर दिया गया; क्योंकि उन्हें एक तस्वीर में हिजाब पहने बिना दिखाया गया था। रूस में सरकार समर्थक मीडिया महिला असंतुष्टों को यौन विकृति का शिकार बताता है। हालाँकि ट्विटर ने अपनी सफाई में एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था को कहा है कि उसकी प्रोएक्टिव टेक्नोलॉजी सोल्यूशन ने ऐसी सामग्री को रोकने में काफी प्रगति की है। ट्विटर जो भी दावा करे मगर कड़वी हकीकत यह है कि महिला उम्मीदवारों, महिला राजनीतिज्ञों को बदनाम हतोत्साहित करने के लिए सोशल मीडिया के मंच का इस्तेमाल भरपूर हो रहा है। यह महिलाओं के िखलाफ ऑनलाइन हिंसा का ही एक खतरनाक तरीका है। विश्व में राजनीति से महिलाओं को दूर रखने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करने वाला हथकंडा पुराना है। महिला उम्मीदवारों, राजनीति में रुचि ररवने वाली लड़कियों-महिलाओं का मनोबल तोडऩे में यह अहम भूमिका निभाता है। ऐसे माहौल में युवतियाँ-महिलाएँ अपनी राजनीतिक अकांक्षाओं व दावों को परिवारों व राजनीतिक दलों के सामने पुख्ता ढंग से पेश नहीं कर पातीं। अधिकांश की दलीलें राजनीति के मौज़ूदा तेवर और आक्रामक हमलों के आगे टिक नहीं पाते। महिला उम्मीदवार, जो आर्थिक रूप से भी कमज़ोर होती हैं, उन्हें जब ऑनलाइन हिंसा का निशाना बनाया जाता है; उन पर भद्दी टिप्पणिया की जाती हैं; तो वे जल्दी टूट जाती हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी पुरुष इस हालात को अपने पक्ष में भुनाते हैं। राजनीति में महिलाओं की संख्या को बढ़ाने वाली कोशिशों के सामने रोड़े रखने से बाज़ नहीं आते। राजनीति में सक्रिय महिलाओं के िखलाफ हिंसा दक्षिण एशिया का भी एक चिन्ताजनक मुद्दा है। यहाँ का सामाजिक माहौल भी राजनीति में महिलाओं के िखलाफ हिंसा वाले माहौल को बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाता है। डिजिटल तकनीक की पहुँच व्यापक है, किसी भी महिला उम्मीदवार पर चुनाव नहीं लडऩे का दबाव बनाने के लिए सोशल मीडिया पर उस महिला के िखलाफ अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग कर उस महिला परराजनीति से हटने का दबाव बनाया जा सकता है। इस तकनीक का इस्तेमाल आज के संचार युग में सस्ता व प्रभावशाली भी है। चिन्ता का एक पहलू यह भी है कि युवा पीढ़ी डिजिटल तकनीक से अधिक जुड़ी हुई है और उसके ज़ेहन में राजनीति में सक्क्रिय महिलाओं, महिला उम्मीदवारों पर, नस्ली, यौनिक, लैंगिक पूर्वाग्रह वाली भद्दी टिप्पणिओं वाली छवि को गढऩा बहुत ही खतरनाक है। इस आक्रामक हथियार का इस्तेमाल कौन-सी शक्तियाँ करा रही हैं? क्यों करा रही हैं? उन्हें बेनकाब करने की ज़रूरत है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढऩा परिवार, समाज, देश व दुनिया के हित में है। संभवत: इसीलिए अब सोशल मीडिया की व्यापक पहुँच के मद्देनजर इसका प्रयोग महिलाओं के िखलाफ दुष्प्रचार करने में किया जा रहा है।

भारत में हर 15वाँ व्यक्ति है तन्हा

आजकल परिवारों का टूटना आम बात हो चली है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें या तो परिवार के होते हुए भी तन्हा यानी अकेले रहना पड़ता है या फिर उनका कोई है ही नहीं। भारत की बात करें, तो यहाँ हर 15वाँ व्यक्ति तन्हाई का शिकार है। ज़रूरी नहीं कि ये तन्हाई इसलिए हो कि उसका कोई नहीं, बल्कि यह तन्हाई (अकेलापन) उसका भरा-पूरा परिवार होने पर भी मुमकिन है।

एक सर्वे के मुताबिक, हर 15वें व्यक्ति को नौकरी के चलते या बाहर कमाने के लिए या अपनों को न होने के चलते या परिजनों से मनमुटाव के चलते अकेले रहना पड़ता है। वहीं 15 फीसदी लोग तन्हा ही रहते हैं, जिनमें युवाओं का फीसद 10 है। बाक़ी पाँच फीसदी बुजुर्ग तन्हाई का शिकार हैं। इस तन्हाई से तनाव जैसी घातक बीमारी इंसान को घेर लेती है और फिर धीरे-धीरे उस इंसान को कैंसर की तरह अपनी गिरफ्त में ले लेती है, जिससे निकल पाना बाद में मुश्किल ही नहीं, कभी-कभी नामुमकिन हो जाता है। अमेरिका में हुए एक सर्वे के बाद तन्हा लोगों की बढ़ती संख्या और इससे बढ़ते तनाव जैसे कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। इस सर्वे के आधार पर विशेषज्ञों ने कहा है कि यह काफी घातक है और इसे रोके जाने के प्रयास करने चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि सबसे ज़्यादा युवा तन्हाई महसूस करते हैं और वह इसलिए क्योंकि 16 से 24 साल के युवा नये रिश्तों की तलाश कर रहे होते हैं, लेकिन जब उन्हें नये रिश्ते उनके मन मुताबिक नहीं मिलते या मिलते ही नहीं हैं, तो वे तन्हाई के चलते तनाव के शिकार हो जाते हैं। सर्वे में एक और बात सामने आयी हैं कि तन्हाई का शिकार लोगों में तकरीबन 83 फीसदी लोग अपनी तरह से ज़िन्दगी गुज़ारना पसंद करने लगते हैं।

18-26 साल की उम्र वाले तन्हाई के शिकार ज़्यादा

अक्सर माना जाता है कि अधिकतर वे लोग तन्हाई का शिकार होते हैं, जिनका जीवनसाथी गुज़र चुका होता है या जो अनाथ होते हैं। आम धारणा है कि ऐसा बहुत कम होता है। लेकिन इसके अलावा एक सच यह भी है कि 18 से 26 साल के युवा तन्हाई के सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं। इसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि करियर के चक्कर में 26 साल तक के 60 फीसदी युवक-युवतियाँ अविवाहित रहते हैं और यह उनकी तन्हाई का बड़ा कारण होता है। दूसरा कारण यह है कि उन्हें उनकी मनचाही मंज़िल या मनचाहा व्यक्ति नहीं मिल पाता, जिसके चलते वे तन्हाई में रहने के आदी होने लगते हैं या तनाव के शिकार होकर तन्हाई में रहना पसन्द करते हैं। हाल ही में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आयी है कि 18 से 22 साल के 30 फीसदी युवाओं ने खुद स्वीकारा है कि वे तन्हाई को बहुत अधिक महसूस करते हैं। वहीं 23 से 26 साल के 18 फीसदी युवाओं ने माना है कि उन्हें तन्हाई ने घेर रखा है। वहीं 16 फीसदी बुजुर्ग पुरुष तन्हाई का शिकार हैं। इतना ही नहीं 58 फीसदी महिलाएँ तन्हाई का शिकार हैं। इनमें 9 फीसदी बच्चियाँ, 33 फीसदी युवतियाँ, 35 फीसदी विवाहिताएँ और 23 फीसदी बुजुर्ग महिलाएँ शामिल हैं। इसी तरह 64 फीसदी पुरुष भी तमाम सुविधाओं के बावजूद तन्हाई का शिकार हैं। इनमें 12 फीसदी बच्चे, 41 फीसदी युवा, 23 फीसदी प्रौढ़ और 24 फीसदी बुजुर्ग हैं।

तन्हाई के चलते बढ़ रहा तनाव

हाल ही में अकेलेपन के शिकार लोगों पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एक रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार तन्हाई के चलते भारतीयों में तनाव बढ़ रहा है और तनाव के शिकार लोगों की बढ़ती संख्या के मामले में भारत अग्रणी देशों में शामिल हो चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में भी तनाव के शिकार लोग अब चीन और अमेरिका जैसे देशों की तरह काफी हो चुके हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत का हर छठा व्यक्ति तनाव का शिकार हो चुका है।

तनाव कम करने के लिए ग़लत रास्ते अपना रहे युवा

मनोचिकित्सक डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा कहती हैं कि तनाव कम करने के लिए 25 फीसदी भारत के युवा गलत रास्तों पर चलने लगते हैं। इन रास्तों पर चलने की जब उन्हें लत पड़ जाती है, तो फिर उनकी ज़िन्दगी इतनी खोखली हो जाती है कि उन्हें गलत आदतों की दलदल में ही पड़े रहने की आदत हो जाती है। डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि हर तीसरा तन्हा व्यक्ति इन गलत आदतों में से किसी न किसी आदत का शिकार हो ही जाता है। डॉक्टर मीनाक्षी इस तरह की अनेक गलत आदतों के बारे में विस्तार से बताती हैं।

नशे में घुलने लगते हैं युवा

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा कहती हैं कि युवावस्था में तन्हाई से पैदा हुआ तनाव सबसे ज़्यादा घातक प्रभाव डालता है। युवावस्था में जिस पर तन्हाई के चलते तनाव हावी हो गया, फिर वह मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ता। डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि इस उम्र में व्यक्ति तनाव से बचने के लिए नशे का सहारा लेने लगता है और फिर उसकी गिरफ्त में हमेशा के लिए आ जाता है। इतना ही नहीं कभी-कभी युवा इस कदर नशा करने लगते हैं कि यह नशा उनकी जान लेकर ही छूटता है।

हस्तमैथुन या छेड़छाड़ में हो जाते हैं लिप्त

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि उनके पास 50 फीसदी मामले ऐसे आते हैं, जिनमें लोग खासतौर से युवक-युवतियाँ हस्तमैथुन या अपोजिट सेक्स से छेड़छाड़ करने की कोशिश करते हैं। ये लोग खुद इसका मुख्य कारण तन्हाई बताते हैं। उनके पास इस तरह के मामलों में संलिप्त न केवल युवा होते हैं, बल्कि कई तो बुजुर्ग भी होते हैं। डॉक्टर शर्मा कहती हैं कि ऐसे बुजुर्गों की संख्या काफी कम है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से बढ़ती दिख रही है और ये वही बुजुर्ग होते हैं, जो युवावस्था में किसी-न-किसी कारण तन्हाई का शिकार हो जाते हैं, जिसके चलते तनाव उन पर इस कदर हावी हो जाता है कि वे इस तरह के गंदे या आपराधिक काम करने लग जाते हैं।

सम्बन्धों के लिए रहते हैं उतावले

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि उन्होंने तन्हाई के कारण तनाव से घिरे अधिकतर लोगों में पाया है कि वे किसी के साथ भी शारीरिक सम्बन्ध बनाने को उतावले रहते हैं। क्योंकि उन्हें कोई जीवनसाथी नहीं मिलता या कई लोग अपने जीवनसाथी या पार्टनर से संतुष्ट नहीं रहते और किसी दूसरे व्यक्ति से शारीरिक सम्बन्धों के लिए उतावले रहते हैं। डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि तनाव का एकमात्र कारण तन्हाई ही नहीं है, बल्कि जीवनसाथी से असंतुष्टि भी तनाव का बड़ा कारण है। यही कारण है कि 40 फीसदी लोग बाहर ऐसे सम्बन्धों की तलाश करते हैं, जहाँ उन्हें शारीरिक सम्बन्धों में संतुष्टि मिल सके या उनकी सेक्सुअल भूख या कहें लिप्सा शान्त हो सके।

ऐसे लोग हो जाते हैं गुस्सैल

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि तन्हाई से पैदा तनाव के चलते अधिकतर लोग गुस्सैल हो जाते हैं। इसके चलते वे अकारण ही दूसरे या सामने वाले इंसान से चिढऩे या बात-बात पर लडऩे लग जाते हैं। कई बार ऐसे लोग गुस्से में आपराधिक कदम भी उठा लेते हैं। इन कदमों में या तो वे दूसरे को मारते हैं या उसकी जान ले लेते हैं या फिर खुद ही मौत को गले लगा लेते हैं। ऐसा सिर्फ तन्हा लोग ही नहीं करते, बल्कि पारिवारिक जीवन जी रहे तनाव के शिकार लोग भी कर बैठते हैं।

आकांक्षाहीन या ज़िद्दी हो जाते हैं

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा कहती हैं कि तन्हाई के शिकार लोग या तो जीवन में किसी चीज़ की चाहत छोड़ देते हैं यानी आकांक्षाओं से हीन हो जाते हैं या फिर ज़िद्दी हो जाते हैं। जिस प्रकार अति किसी भी चीज़ की खतरनाक होती है, उसी प्रकार ये दोनों ही स्थितियाँ घातक होती हैं।

बेरोज़गारी से भी होता है तनाव

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा कहती हैं कि उनके पास आने वाले तनाव के शिकार लोगों में 30 फीसदी ऐसे युवा होते हैं, जो बेरोज़गारी के चलते तनाव की गिरफ्त में आ जाते हैं। डॉक्टर मीनाक्षी के अनुसार, यह स्थिति भी कई बार इतनी घातक हो जाती है कि ऐसे लोग अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए या तो अपराध की दुनिया में कदम रख देते हैं या फिर झूठ बोलकर हेराफेरी करने लगते हैं या फिर कई बार ठगी करने लगते हैं या फिर कभी-कभी आत्महत्या भी कर लेते हैं।

भारत में हर उम्र के लोग हैं तनाव के शिकार

एक सर्वे में यह बात सामने आयी है कि भारत में हर उम्र के लोग तनाव के शिकार हैं और पिछले कुछ वर्षों से ऐसे लोगों की संख्या में तेज़ी से इज़ाफा हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट की मानें, तो भारत में सबसे ज़्यादा युवा ही तनाव के शिकार हो रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि 40 फीसदी ऐसे युवा तन्हाई की वजह से तनाव का शिकार हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह आँकड़ा केवल 16 से 24 वर्ष के युवाओं का है। रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि युवा ही नहीं 75 वर्ष से अधिक उम्र के भी 27 फीसदी लोग तनाव के शिकार हैं, जिनमें अधिकतर लोग तन्हाई का शिकार हैं।

लगभग 52 लाख युवा तनाव की गिरफ्त में

यह चिन्ताजनक है कि भारत में बहुत बड़ी संख्या में युवा तन्हाई के चलते तनाव के शिकार हो रहे हैं। अगर हम कुल तनाव से ग्रस्त युवाओं की बात करें, तो 2017 के आँकड़े चौंकाने वाले हैं। इन आँकड़ों के अनुसार, 12 फीसदी युवा यानी करीब 52 लाख युवा तनाव के शिकार हैं, जिनमें एक बड़ी संख्या में तन्हाई के शिकार युवाओं की ही है। वहीं 2004 में जारी आँकड़ों के अनुसार उस समय भारत में लगभग 10 फीसदी युवा तनाव का शिकार थे। बताया जाता है कि इस तन्हाई से बचने के लिए भारतीय युवा डेटिंग और पोर्न साइट्स की मदद ले रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि तन्हाई के चलते तनाव के शिकार लोगों में अच्छी-खासी संख्या महिलाओं की भी है। इसके अलावा यह भी तथ्य सामने आया है कि अवसाद ग्रस्त महिलाओं की संख्या तो पुरुषों से भी अधिक है। हालाँकि इस अवसाद के अलग-अलग कारण हैं, लेकिन तन्हाई या शारीरिक सम्बन्धों से असंतुष्टि भी इसका एक बड़ा कारण है।

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि तन्हाई से तनाव बढऩे लगता है, जिसके कारण अनेक बीमारियाँ भी इंसान को घेर लेती हैं। इसलिए तन्हाई में किसी-न-किसी का जीवन में साथ ज़रूर स्वीकार कर लेना चाहिए, चाहे वह किसी भी रूप में हो। वरना तन्हाई से पैदा हुए तनाव से निम्न बीमारियाँ होने का खतरा रहता है-

डिमेंशिया

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा ने बताया कि डिमेंशिया एक प्रकार का मनोरोग है, जो मन में भ्रांतियाँ पैदा करता है। इस बीमारी में इंसान भ्रम बहुत करने लगता है और अधिकतर मामलों में देखा गया है कि ऐसे लोगों की याददाश्त कमज़ोर हो जाती है। ऐसे लोग किसी चीज़ या बात को याद नहीं पाते। हालाँकि डिमेंशिया अधिक उम्र के लोगों में अधिक होती है।

मानसिक रोग

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि तन्हाई के चलते लोगों में सबसे ज़्यादा मानसिक रोग होने का खतरा रहता है। इन रोगों में पागलपन से लेकर ब्रेन हेमरेज जैसे खतरनाक रोग तक शामिल हैं। डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि कई बार तो लोग बहुत ज़्यादा अकेले रहने के चलते तनाव या अवसाद से इतने ग्रस्त हो जाते हैं कि वे सायकोसिस जैसी गम्भीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं, जिसके चलते अनेक तो गलत कदम तक उठा बैठते हैं।

अनिद्रा

डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि तन्हा रहने वाले अधिकतर लोग अनिद्रा के शिकार पाये जाते हैं। और जब इंसान की नींद पूरी नहीं होती है, तब उसे कई शारीरिक बीमारियाँ अपनी चपेट में ले लेती हैं।

तन्हाई और उससे पैदा तनाव से बचने के उपाय

डॉक्टर मीनाक्षी शर्मा बताती हैं कि पहले तो जो लोग तन्हाई का शिकार हैं, उनके करीबी उन्हें समझने की कोशिश करें और उनकी तन्हाई को दूर करने में उनकी मदद करें। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसका कोई अपना उसकी तन्हाई दूर करने वाला नहीं है, तो ऐसे तन्हा लोगों को किसी-न-किसी से कोई-न-कोई रिश्ता जोड़ लेना चाहिए। इसके अलावा तन्हा लोग घूमने-फिरने या मनोरंजन में अपना खाली समय ज़रूर गुज़ारें। अगर यह सम्भव न हो, तो उन्हें खाली समय का उपयोग अपने किसी शौक या करियर के लिए किये जा रहे प्रयासों में करना चाहिए। डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि कुछ लोग तन्हाई से बचने के लिए प्रकृति या पशु-पक्षियों से प्रेम करके उनके साथ अपना खाली समय साझा कर सकते हैं। यदि तन्हा लोग किसी का साथ पसन्द नहीं करते तो अपने मनपसन्द का खान-पान करके या अपनी पसन्द की फैन्सी ड्रेसेज पहनकर अपने मन को हल्का और तन्हाई से मुक्त कर सकते हैं। इसके अलावा वे जिस कला में रुचि रखते हैं, उसमें हाथ आजमा सकते हैं। डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि यदि कोई मनुष्य तन्हाई से तनाव की स्थिति में आ गया है और उससे उसे छुटकारा नहीं मिल पा रहा है, तो वह मनोचिकित्सक की सलाह ज़रूर ले या फिर अच्छे लोगों में बैठना-उठना शुरू कर दे।

अमेरिका में भी 61 फीसदी लोग तन्हाई के शिकार

तन्हाई के शिकार लोग अकेले भारत में नहीं हैं, बल्कि दुनिया भर में हैं। लेकिन अगर यह कहा जाए कि विकसित देशों में भी तन्हाई के शिकार लोग बहुतायत संख्या में हैं, तो यह बात और सोच में डाल देती है। क्योंकि विकसित देशों में अधिकतर लोग सम्पन्न होते हैं। अमेरिका भी इन्हीं देशों में से एक है। यहाँ की आबादी भारत के मुकाबले काफी कम होने के बावजूद 61 फीसदी लोग तन्हाई के शिकार हैं। यानी आँकड़ों की मानें तो 10 में से कम से कम छ: लोग तन्हा ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अमेरिका में भी तन्हा ज़िन्दगी गुज़ारने वाले लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आँकड़े यह भी बताते हैं कि 2019 में तन्हा लोगों की संख्या में 13 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। इस मामले में एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि तन्हाई से जूझ रहे लोगों में सबसे ज़्यादातर युवा ऐसे हैं, जो अधिकतर समय सोशल साइट्स पर सक्रिय रहते हैं। बताया जाता है कि अमेरिका में तन्हाई के शिकार इन युवाओं में सबसे ज़्यादा 30 साल से कम उम्र के हैं। इस मामले में ब्रिटेन में एक सर्वे भी किया गया था, जिसमें पाया गया कि 16 से 24 साल की उम्र के 40 फीसदी लोग तन्हाई का शिकार हैं, जबकि  65 से 74 साल की उम्र के 29 फीसदी लोग तन्हाई का शिकार हैं। पिछले दिनों ब्रूनेल यूनिवर्सिटी लंदन तथा यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर ने तन्हाई में डूबे लोगों का सही आँकड़ा जानने के लिए 16 से अधिक उम्र के 55 हज़ार से अधिक लोगों पर एक सर्वे किया था।

तन्हाई से होने वाली दिक्कतें

तन्हाई के शिकार लोगों में अनेक दिक्कतें पैदा होने लगती हैं, जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं-

ऐसे लोग दूसरे लोगों से जल्दी दिल से नहीं जुड़ पाते।

बहुत कम लोगों से बना पाते हैं अपना करीबी रिश्ता।

उन्हें अक्सर गलतफहमी रहती है कि लोग उन पर ध्यान नहीं देते या उन्हें समझते नहीं हैं।

अकेला रहना करने लगते हैं पसन्द।

नकारात्मक सोच से हो जाते हैं ग्रसित।

अपनी बात ही लगती है अच्छी।

बहुत जल्द महसूस करने लगते हैं बोरियत।

अपने मन की बातें और तकलीफें दूसरों से छिपाते हैं।

बाज़ार में बिकने के लिए तैयार एयर इंडिया

एयर इंडिया को बेचने के लिए सरकार फिर से अपनी कमर कस चुकी है। पूर्व में इसे बेचने के प्रयास विफल हो चुके थे। इसलिए इस बार सरकार ने पूर्व में की गयी गलतियों से सबक लेते हुए एयर इंडिया के बेचने की शर्तों को आसान बनाया है। सरकार ने निविदाकर्ताओं से बोली मँगायी है, जिसकी अंतिम तारीख 17 मार्च, 2020 है। इस बार बोलीकर्ताओं के लिए न्यूनतम नेट वर्थ की शर्त को कम करके 3500 करोड़ कर दिये गये हैं, जो वर्ष 2018 में 5000 करोड़ रुपये थे। भले ही एयर इंडिया बिक जाये, लेकिन इसके ब्रांड में बदलाव नहीं किया जाएगा।

बेची जाएगी 100 फीसदी हिस्सेदारी

इस बार सरकार एयर इंडिया की 100 फीसदी हिस्सेदारी बेचना चाहती है। िफलहाल एयर इंडिया के ऊपर लगभग 62000 करोड़ रुपये का कर्ज़ है, जिसमें से 39000 करोड़ रुपये का वहन सरकार करेगी और 23,286 करोड़ रुपये का कर्ज़ वह नये मालिक को हस्तांतरित करेगी। अप्रैल, 2012 में एयर इंडिया को सरकार द्वारा 26,000 करोड़ रुपये की पूँजी दी गयी थी। सरकार ने बाद में एक अलग कम्पनी बनाकर एयर इंडिया के 27,500 करोड़ रुपये के कर्ज़ को फिर से कम किया था।  खरीददार को कंसोर्टियम बनाने की भी छुट दी जाएगी। इसकी सहायक इकाई एयर इंडिया एक्सप्रेस और एयर इंडिया एसएटीएस एयरपोर्ट सर्विसेज का भी विनिवेश किया जाएगा।

कर्मचारियों की संख्या

एयर इंडिया में कुल 16077 कर्मचारी हैं। इसके लिए 3 फीसदी शेयर रिजर्व रखे जाएँगे, जो उन्हें रियायती कीमत पर दिए जाएँगे। एयर इंडिया में 12 कर्मचारी यूनियन हैं, जो एयर इंडिया को बेचने का विरोध कर सकते हैं। वैसे भाजपा नेता एवं राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भी एयर इंडिया को बेचने के िखलाफ हैं।

राहत का प्रस्ताव

एयर इंडिया की स्थिर परिसम्पत्तियाँ बढक़र 30,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गयी हैं, जो 2018 में 27,000 करोड़ रुपये थी। नये प्रस्ताव में नया मालिक कर्ज़ कम करने के लिए परिसम्पत्ति को बेचने, विमानों की बिक्री करने और पट्टा वापस करने के लिए स्वतंत्र होगा। नये शर्तों में कर्ज़ और ब्याज लागत में लगभग 61 फीसदी कम की गयी है, जिसे मार्च, 2018 में 35 फीसदी कम किया गया था। सरकार ने एयर इंडिया के कर्मचारियों को आश्वस्त किया है कि उनकी नौकरी बची रहेगी। एयर इंडिया के पास हर विमान पर 133 कर्मचारी हैं, जबकि सिंगापुर एयरलाइंस के पास प्रति विमान 136 कर्मचारी हैं। एयर इंडिया के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक अश्विनी लोहानी का कहना है कि कर्मचारियों की संख्या पर्याप्त है और एयरलाइन के सुचारू परिचालन के लिए यह संख्या ज़रूरी है।

क्या फायदा होगा खरीदार को? 

एयरलाइंस बाज़ार में एयर इंडिया की 17 फीसदी की भागीदारी है। जेट एयरवेज़ के बन्द होने के बाद अमेरिका और उत्तरी अमेरिका के बाज़ार में एयर इंडिया का िफलहाल दबदबा है। ज़्यादातर अन्य भारतीय विमानन कम्पनियाँ सस्ती एयरलाइन हैं और इंडिगो को छोडक़र इन सभी का वैश्विक परिचालन सीमित है। घरेलू बाज़ार में भी एयर इंडिया ने हाल ही में अपनी हिस्सेदारी में इज़ाफा किया है। एयर इंडिया के नये खरीदार को दिल्ली, मुम्बई, लंदन, न्यूयार्क, शिकागो, पेरिस आदि विमान तलों पर स्लॉट और लैंडिंग के अधिकार मिलेंगे। इससे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों और वैश्विक स्तर पर परिचालन के विस्तार में मदद मिलेगी। एयर इंडिया अभी 56 भारतीय शहरों और 42 अंतर्राष्ट्रीय शहरों में उड़ान भरती है। एयर इंडिया के अनेक अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू रूट लाभप्रद हैं। एयर इंडिया के पास िफलवक्त 121 विमान हैं, लेकिन इनमें 18 का अभी परिचालन नहीं हो रहा है। नये खरीदार को ग्राउंड हैंडलिंग फार्म एआई-एसएटीएस की सेवाएँ भी मिलेगी, जो कार्गो व बैगेज हैंडलिंग, ट्रांस शिपमेंट जैसी सेवाएँ देती हैं।

पूर्व में भी किये गये बेचने के प्रयास  

वर्ष 2018 में सरकार एयर इंडिया में 76 फीसदी हिस्सेदारी बेचना चाह रही थी, लेकिन अल्पांश हिस्सेदारी बेचे जाने के कारण एयर इंडिया को खरीदने के लिए कोई कम्पनी तैयार नहीं हुई। मार्च, 2018 तक एयर इंडिया 48000 करोड़ रुपये कर्ज़ के बोझ से दबी थी। पूर्व में एअर इंडिया के नहीं बिकने के कुछ प्रमुख कारण जैसे, सरकार द्वारा 100 फीसदी हिस्सेदारी नहीं बेचना, एक साल तक कर्मचारियों को कम्पनी के साथ बनाये रखने का प्रावधान, 3 साल तक विमानन कम्पनी का परिचालन बिना किसी दखल के करने पर ज़ोर और कम्पनी के विस्तार के लिए इच्छुक नहीं होना आदि थे।

विमानन उद्योग की खस्ताहाल स्थिति 

एयर इंडिया की वित्तीय स्थिति एक लम्बे समय से खस्ताहाल है। जेट एयरवेज़ भी ज़मीन पर आ चुका है। पूर्व में एयर सहारा, किंग फिशर, ईस्ट-वेस्ट एयरलाइन, स्काइलाइन एनईपीसी, मोदीलुफ्त आदि एयरलाइंस बन्द हो चुके हैं। बन्द होने के समय एयर सहारा की बाज़ार में 17 फीसदी की हिस्सेदारी थी। ऐसे में सवाल का उठना लाज़िमी है कि क्या चमक-दमक वाले विमानन क्षेत्र की हालात उतनी अच्छी नहीं है, जितनी बाहर से दिखती है। हालाँकि, मामले में बाज़ार हिस्सेदारी के लिहाज़ से देश की सबसे बड़ी विमानन कम्पनी इंडिगो इंडिगो का प्रदर्शन अपवाद है। इसका दिसंबर, 2019 तिमाही में शुद्ध लाभ 496 करोड़ रुपये था।

क्यों आयी घाटे की स्थिति?

एयर इंडिया और इंडियन एयर लाइंस के विलय के वक्त एयर इंडिया 100 करोड़ रुपये के मुनाफे में थी; लेकिन अनियमितता, गलत प्रबंधन और अंदरूनी गड़बडिय़ों के कारण इसकी स्थिति खस्ताहाल हो गयी। अदालत में दायर एक जनहित याचिका के मुताबिक वर्ष 2004 से वर्ष 2008 के दौरान विदेशी विनिर्माताओं को फायदा पहुँचाने के लिए 67000 करोड़ रुपये में 111 विमान खरीदे गये, करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करके विमानों को पट्टे पर लिया गया एवं निजी विमानन कम्पनियों को फायदा पहुँचाने के लिए फायदे वाले हवाई मार्गों पर एयर इंडिया के उड़ानों को जानबूझकर बन्द किया गया, जिसकी पुष्टि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने भी अपनी रिपोर्ट में की है।

एयर इंडिया का आगाज़

एयर इंडिया की स्थापना टाटा संस लिमिटेड की एक इकाई के रूप में हुई थी। 1946 तक इसका संचालन टाटा एयरलाइंस कर रही थी, जो बाद में सार्वजनिक क्षेत्र की लिमिटेड कम्पनी में तब्दील हो गयी। 15 अक्टूबर, 1932 को देश के पहले लाइसेंसधारक जेआरडी टाटा ने पहली बार कराची से मुम्बई तक मेल लेकर विमान उड़ाया था। बाद में इसका नाम बदलकर एयर इंडिया किया गया। वर्ष 1953 में इसका राष्ट्रीयकरण किया गया। सरकार ने इसे दो कम्पनियों में बाँटा। घरेलू उड़ान के लिए इंडियन एयरलाइंस और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए एयर इंडिया बनायी गयी। एयर इंडिया का प्रतीक चिह्न महाराजा है। यह चिह्न 1946 में उमेश राव नामक चित्रकार ने बनाया था। वर्ष 2015 में महाराजा को नया स्वरूप दिया गया। परिचालन के पहले साल एयर इंडिया के विमानों से 4400 लोगों ने यात्रा की थी, जो आज बढक़र लाखों हो गयी है।

बेड़े में हर तरह के एयरक्राफ्ट

के-787 ड्रीमलाइनर को सितंबर, 2012 में एयर इंडिया के बेड़े में शामिल किया गया था। 256 सीटों वाला ड्रीमलाइनर 10 से 13 घंटे बिना किसी परेशानी के उड़ान भर सकता है। सीटों की डिजाइनिंग और ईंधन क्षमता के मामले में यह बोइंग 777-200 एलआर से बेहतर है। बड़े विमानों में एयर इंडिया के पास 777-200 एलआर के 8 विमान, 777-300 ईआर के 12 विमान और बी 747-400 के 3 विमान हैं। छोटे विमानों में एयर इंडिया के पास ए-320 के 12 विमान, ए-319 के 19 विमान और ए-321 के 20 विमान हैं।

कुप्रबंधन भी ज़िम्मेदार

विमानों के बुद्धिमतापूर्ण इस्तेमाल से राजस्व में इज़ाफा किया जा सकता है। जैसे, जिस मार्ग पर यात्रियों का आवागमन अधिक हैं, वहाँ विमानों के फेरे बढ़ाये जा सकते हैं। वैसे विमानों का ज़्यादा उपयोग किया जा सकता है, जिनमें कम ईंधन की खपत होती है। लेकिन एयर इंडिया के मामले में लम्बी दूरी वाले विमानों का उपयोग मध्यम तथा छोटी दूरी वाले मार्गों में उड़ान भरने के लिए किया जा रहा है। बोइंग 777-200 एलआर लम्बी दूरी तय करने वाला विमान है। ये लगातार 15 से 16 घंटों तक उड़ान भर सकते हैं; लेकिन इनका इस्तेमाल मध्यम दूरी वाले स्थानों, जहाँ पहुँचने में केवल 9 से 10 घंटे का समय लगता है; के लिए किया जा रहा है। विमानों के गलत इस्तेमाल से ईंधन की ज़्यादा खपत हो रही है। फ्रैंकफर्ट, पेरिस, हांगकांग, शंघाई जैसे शहरों, जहाँ पहुँचने में 10 घंटे का समय लगता है; की उड़ान में अगर ड्रीमलाइनर का प्रयोग किया जाता है, तो यात्रा की लागत प्रति किलोमीटर 25 फीसदी तक कम हो सकती है।

निष्कर्ष 

एयर इंडिया के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक अश्विनी लोहानी की अगुआई में एयर इंडिया को घाटे से उबारने की कोशिश की गयी; लेकिन वे अपने लक्ष्य को हासिल करने सफल नहीं रहे। बावजूद इसके, किसी भी संस्थान या एयरलाइंस को कुशल प्रबंधन के ज़रिये मुनाफे में लाया जा सकता है; लेकिन इसके लिए सफल रणनीति बनाने और उसे अमल में लाने की ज़रूरत है। भारतीय रेल, यूको बैंक, पंजाब नेशनल बैंक आदि पूर्व में ऐसा करिश्मा कर चुके हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक कम्पनियाँ आज मुनाफे में चल रही हैं। बीमा और सरकारी तेल कम्पनियाँ भी मुनाफे में हैं। लाभ कमाने वाली सरकारी कम्पनियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। ऐसे में एयर इंडिया को लाभ में लाना नामुमकिन नहीं है। हालाँकि, नये मालिक के लिए परिचालन राजस्व से 23 हज़ार करोड़ रुपये के ऋण के ब्याज का भुगतान करना आसान नहीं होगा। है। इसके लिए कम्पनी के प्रदर्शन में उल्लेखनीय सुधार करना होगा और उसे घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय एयरलाइंसों से मुकाबला करने के लिए भी तैयार रहना होगा।

शिक्षक! तुम चेतना का सृजन करो…

शिक्षा का सीधा-सीधा सम्बन्ध चेतना से है। चेतन होकर जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह ज़िन्दगी को समान से भर देता है और ताउम्र याद रहता है। अन्यथा शिक्षा केवल कोरा कागज़ बनकर रह जाती है। इस संदर्भ में ओशो ने शिक्षक को बड़े अच्छे अर्थों में सम्बोधित किया है। वे कहते हैं कि शिक्षक तुम गम्भीर मत बनो, यह मत सोचो कि तुम एक शिक्षक हो तो कोई गम्भीर कार्य कर रहे हो। जीवन को खेलपूर्ण दृष्टि से देखो, यह सचमुच आनन्दपूर्ण है। उन्होंने माना है कि एक बेहतर चेतना का सृजन करना ही शिक्षक का मूल कार्य है। शिक्षक को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि यही तुम्हारा प्रेम हो, यही तुम्हारी करुणा, और यही वह कसौटी हो जिस पर तुम कार्य को सही या गलत होना तौल सको। एक बार अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपने उद्गार इस तरह व्यक्त किये :-

‘‘अगर आप कर सकते हैं

तो उसे यह सीखने दें कि

गुण्डई करने वाले बहुत जल्दी

चरण स्पर्श करते हैं…,

लेकिन उसे इतना समय भी दें कि

वह आसमान में उड़ती चिडिय़ा के

धूप में उड़ती मधुमक्खियों के

और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के

शाश्वत् रहस्य के बारे में सोच सके…

उसे स्कूल मेें यह भी सिखाओ कि

नकल करने से कहीं ज़्यादा

सम्मानजनक फेल हो जाना है…

उसे अपने विचारों में विश्वास

करना सिखाओ तब भी जब

सब उसे गलत बताएँ…

उसे विनम्र लोगों से विनम्र रहना

और कठोर व्यक्ति से कठोर

व्यवहार करना सिखाओ…

मेरे बेटे को ऐसी ताकत दो

कि वह उस भीड़ का हिस्सा

न बने, जहाँ हर कोई

खेमे में शामिल होने में लगा हो…’’

हमारी शिक्षा का ढाँचा ऐसा है, जिसमें आधारभूत और आवश्यक बातों के हाशिये पर पहुँचा दिया गया है। साफ-सफाई, सद्व्यवहार, सद्विचार, जागरूकता, नवीनता और कद्दावर सोच के पाठ थ्योरी में ही धरे रह गये प्रतीत होते हैं। वहीं तो जिस नयी सदी में भारत जैसे देश को विकसित राष्ट्रों में अग्रणी पंक्ति में होना चाहिए था, वो अभी विकसित होने के रास्ते पर संघर्ष कर रहा है। नहीं तो आज स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत, कुशल भारत कौशल भारत, स्टैंड अप स्टार्ट अब इंडिया के नारे देने की ज़्यादा ज़रूरत न पड़ती।

बच्चों की दुनिया बड़ी खालिस होती है और प्राकृतिक भी। उनके खजाने में बहुत-सी ऐसी बातें शामिल होती हैं, जिनसे कई कुछ सीखा जा सकता है। महात्मा गाँधी ने कहा है कि जो शिक्षक अपने छात्रों से अन्तरंग हो जाता है। वह उन्हें जितना सिखाता है, उससे कहीं अधिक सीखता है। रवीन्द्रनाथ टैगौर ने शिक्षक को नदी की उपमा दी है। वे कहते हैं कि जब एक दिमाग दूसरे दिमाग में पूर्ण संगति में मिलता है, तो परिणाम स्वत: स्फूर्त आनन्द होता है। यह आनन्द सृजनात्मक ऊर्जा का सहजात है। अरविन्द घोष कहते हैं कि शिक्षक के जीवन में शिक्षा वह है, जो बच्चों के लिए भविष्य की राह खोल दे।

हमारे महान् पुरुष अपने समय में सूचना-तकनीक के दायरे में नहीं थे; लेकिन उन्होंने ऐसे कार्य किये, जो उन्हें महानता की श्रेणी में ले आये। हमें छोटे-छोटे कामों से ही अपने आसपास का कायाकल्प करना चाहिए। वास्तविक शिक्षा कैसी होनी चाहिए? वरिष्ठ पत्रकार एन. रघुरामन ने एक लेख में इसका सार्थक उदाहरण दिया। वे लिखते हैं कि भूटान के एक शहर त्राशिमांगत्से के स्कूल में भूटान नरेश स्वयं ध्यान देते हैं। स्कूल में ऐसी व्यवस्था है कि बच्चे हर रोज़ एक घंटा खेती-किसानी सीखते हैं। बच्चे जो सब्ज़ियाँ उगाते हैं, वह स्कूल कैंटीन में इस्तेमाल की जाती हैं। प्रत्येक बच्चा जानता है कि जो सब्ज़ी वह खा रहा है, कैसे उगायी जाती है? उसकी देखभाल कैसे की जाती है? वे मौसम के अनुसार सब्ज़ियों की माँग और आपूर्ति का रिकॉर्ड भी रखते हैं। यह उदाहरण इस बात की गवाही है कि बचपन में जो चीज़ें सीख ली जाती हैं, वे दृष्टिकोण और व्यक्तित्व की नींव बनती हैं। इससे बच्चों का अनुभव परिपक्व होता है।

शिक्षित होने का मतलब है- समझदारी, गम्भीरता, नैतिकता, सहनशीलता, दूरदर्शिता। जब शिक्षा के अर्थ समझ आने लगते हैं, जो ज़िन्दगी के पन्ने सुनहरे होते चले जाते हैं। संघर्ष और समस्याएँ पीछे छूटने लगते हैं। वे रास्ते में अवरोध पैदा नहीं करते। गुलाब ज़्यादा खिलते हैं और काँटे कम होते चले जाते हैं। शिक्षित होने का मतलब है- हम अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस, समाज और राष्ट्र की समस्याओं के हम खोजें। ऐसे में एक शिक्षक की ज़िम्मेदारी बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस संदर्भ में मुझे वरिष्ठ पत्रकार स्व. कल्पेश याग्निक की शिक्षक दिवस के मौके पर लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ बेहतरीन लगती हैं :-

अंधकार, अँधेरे, अंधेर से मुक्ति दे, ऐसा होता है शिक्षक।

अहंकार, अहं, असत्य से मुक्त कर दे, ऐसा होता है शिक्षक।।