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हेमंत सोरेन ने झारखंड के नये मुख्यमंत्री के रूप में ली शपथ

झारखंड: झारखंड के नये मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गुरुवार को राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन के हाथों राजभवन में शपथ ली।
शपथ ग्रहण समारोह में जेएमएम के अध्यक्ष और हेमंत के पिता शिबू सोरेन, उनकी पत्नी रूपी सोरेन, हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता मौजूद थे।
हेमंत सोरेन का राजनीतिक पृष्ठभूम
हेमंत सोरेन जेएमएम पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं और पिछले कार्यकाल में भी झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वह अपने पिता शिबू सोरेन के राजनीतिक वारिस हैं और पार्टी में उनका प्रभाव काफी मजबूत है।

परीक्षा माफ़िया का जाल

– पेपर लीक से लेकर परीक्षा पास कराने तक का खुलेआम दावा करते हैं दलाल !

इंट्रो-भारत में छोटी से बड़ी परीक्षाओं में नक़ल और उनके पेपर लीक के मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगातार बड़ी-बड़ी परीक्षाओं के पेपर लीक होने के रिकॉर्ड टूटने से विद्यार्थी परेशान होकर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। नीट परीक्षा में अनियमितताओं पर चल रहे विवाद के बीच एफएमजीई परीक्षा में कथित गड़बड़ी सामने आ गयी। पेपर लीक की पड़ताल में ‘तहलका’ एसआईटी को पेपर लीक कराने वाले कुछ ऐसे दलालों का पता चला है, जो भारत में मेडिकल लाइसेंसिंग की अखण्डता से पैसे के लिए समझौता करते हैं। तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-

राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (स्नातक) यानी नीट-यूजी, जो भारत में एक महत्त्वपूर्ण मेडिकल परीक्षा है; की इस वर्ष की परीक्षा में दज़र्नों परीक्षार्थियों के असामान्य रूप से उच्च अंक प्राप्त करने के बाद धोखाधड़ी के आरोपों के बीच हज़ारों परीक्षार्थियों का ग़ुस्सा फूट पड़ा है और उन्होंने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। भारत की कुछ सबसे बड़ी परीक्षाओं के लिए ज़िम्मेदार सरकारी विभाग राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित नीट-यूजी में लाखों छात्र हर साल परीक्षा देते हैं। हालाँकि इस परीक्षा के ज़रिये केवल एक छोटा प्रतिशत ही मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए पर्याप्त अंक प्राप्त कर पाता है।

प्रश्न-पत्र में त्रुटियों और अनुचित तरीक़े से दिये गये अनुग्रह अंक (ग्रेस मार्क्स) से लेकर पेपर लीक और धोखाधड़ी के आरोपों तक कई मुद्दों के कारण इस वर्ष की नीट परीक्षा जाँच के दायरे में आ गयी है। हालाँकि एनटीए अधिकारियों ने किसी भी पेपर लीक से इनकार किया है; लेकिन बिहार पुलिस ने दावा किया है कि परीक्षार्थिर्यों में से एक ने जाँच के दौरान पुष्टि की है कि उसने एक रिश्तेदार के द्वारा आश्वासन दिये जाने के बाद कोटा से पटना की यात्रा की थी कि वह पहले से नीट का पेपर प्राप्त कर सकता है। पुलिस के अनुसार, चार अभ्यर्थी लीक हुए पेपर के उत्तर याद करने के लिए परीक्षा से एक रात पहले एक पूर्व निर्धारित स्थान पर एकत्र हुए थे।

नीट विवाद के मद्देनज़र ‘तहलका’ ने एक अन्य महत्त्वपूर्ण परीक्षा- फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन (एफएमजीई) से जुड़े पेपर लीक के आरोपों की भी पड़ताल की। निष्कर्ष बिहार के ही अनुरूप है, जो दर्शाता है कि एफएमजीई पेपर परीक्षा से एक दिन पहले लीक हो जाना था, और परीक्षार्थियों को उत्तर याद करने के लिए पूर्व निर्धारित स्थानों पर इकट्ठा होना था। हमारी पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ के रिपोर्टर की मुलाक़ात दिल्ली के राकेश भंडारी नाम के एक बिचौलिया से हुई, जो हमारे काल्पनिक प्रतियोगी (रिपोर्टर के द्वारा बताये गये काल्पनिक छात्र) को एफएमजीई की परीक्षा पास कराने में उसकी सहायता करने के लिए तैयार था। दिलचस्प बात यह है कि उसने वही तरीक़ा अपनाने की कोशिश की, जिसका उल्लेख पहले किया गया था- परीक्षा से एक दिन पहले पेपर लीक करना। भंडारी ने समझाया- ‘हम परीक्षा से एक दिन पहले प्रश्न-पत्र (क्वेश्चन पेपर) प्राप्त कर लेंगे। अभ्यर्थी को एक अज्ञात स्थान पर ले जाया जाएगा और एक रात पहले दोनों प्रश्न-पत्र उपलब्ध कराये जाएँगे। इसके अतिरिक्त हम परीक्षार्थी के लिए प्रश्न-पत्र हल करेंगे, यह सुनिश्चित करते हुए कि वह कम-से-कम 150 प्रश्नों का उत्तर दे; जो परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए आवश्यक न्यूनतम अंक हैं। परीक्षा के दिन परीक्षार्थी को सावधानीपूर्वक परीक्षा केंद्र पर छोड़ दिया जाएगा। यदि परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक हुए प्रश्न-पत्र से मेल खाते हैं, तो परीक्षार्थी को उसी शाम 15 लाख रुपये का भुगतान करना होगा। याद रखें, अभ्यथी लीक हुए प्रश्न-पत्रों की तस्वीर खींचकर उन्हें दोस्तों को न भेज दे, इसके लिए उसे अपना मोबाइल फोन पहले ही हमें सौंपना होगा; क्योंकि प्रश्न-पत्र सोशल मीडिया पर वायरल हो सकता है और हम मुसीबत में पड़ सकते हैं।’

यह उल्लेखनीय है कि मौज़ूदा नियम ये कहते हैं कि विदेश में चिकित्सा की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को स्वायत्त रूप से काम करने वाले राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड (एनबीए) द्वारा वर्ष में दो बार आयोजित विदेशी मेडिकल ग्रेजुएट परीक्षा (एफएमजीई) उत्तीर्ण करनी होगी। सफल अभ्यर्थी राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) या राज्य चिकित्सा परिषदों (एसएमसीज) के साथ अनंतिम या स्थायी पंजीकरण प्राप्त करते हैं, जिससे उन्हें भारत में चिकित्सा का अभ्यास करने की अनुमति मिलती है। उत्तीर्ण न होने पर उनका अभ्यास अवैध हो जाता है।

‘सिक्किम भारत का एकमात्र राज्य है, जहाँ कोई अन्य व्यक्ति वास्तविक अभ्यर्थी की जगह परीक्षा दे सकता है। लेकिन यह जोखिम भरी बात है। मैं इस विकल्प को नहीं अपनाना चाहता। अगर पकड़े गये, तो हमारी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी।’ यह बात भंडारी ने कही, जिससे ‘तहलका’ रिपोर्टर ने दिल्ली के एक पाँच सितारा होटल में मुलाक़ात की थी। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने ख़ुद को एक काल्पनिक प्रतियोगी का प्रतिनिधि बताकर एक ऐसे बिचौलिये की तलाश की, जो एफएमजीई परीक्षा पास कराने में हमारे काल्पनिक प्रतियोगी की मदद करने की अपनी योजना ख़ुलासा हमारे ख़ुफ़िया कैमरे के सामने कर सके।

‘तहलका’ रिपोर्टर ने राकेश भंडारी को बताया कि हमारा अभ्यर्थी ढाका (बांग्लादेश) से एमबीबीएस स्नातक है, जो अपने पहले प्रयास में भारत में अभ्यास करने के लिए एनएमसी से लाइसेंस प्राप्त करने के लिए आवश्यक एफएमजीई परीक्षा में असफल रहा। जवाब में भंडारी ने हमें हमारे काल्पनिक अभ्यर्थी को एफएमजीई परीक्षा पास करने में मदद करने के लिए तीन विकल्प दिये। पहला विकल्प परीक्षा से एक दिन पहले प्रश्न-पत्र लीक होना है; दूसरा कम्प्यूटर रिकॉर्ड में हेरा-फेरी करके; और तीसरा यह सुनिश्चित करना कि अभ्यर्थी असफल होने के बाद भी पास हो जाएगा। सभी विकल्प निश्चित रूप से वित्तीय लेन-देन से जुड़े हैं। पहले विकल्प के लिए भुगतान परीक्षा के दिन यह सत्यापित करने के बाद किया जाएगा कि लीक हुआ प्रश्न-पत्र वास्तविक परीक्षा के प्रश्न-पत्र से मेल खाता है। जबकि दूसरे और तीसरे विकल्प के लिए भुगतान परिणाम के बाद करने की बात हुई। भंडारी ने वास्तविक परीक्षार्थी के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा परीक्षा देने को सबसे जोखिम भरा विकल्प बताया, जिसके लिए वह तैयार नहीं था। उसके मुताबिक, प्रश्न-पत्र लीक होना ही सबसे अच्छा विकल्प है।

हर साल विदेशी विश्वविद्यालयों से मेडिकल डिग्री प्राप्त करने वाले हज़ारों भारतीय एफएमजीई परीक्षा देने आते हैं। अपने देश में अभ्यास के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन (एनबीई) द्वारा आयोजित एक स्क्रीनिंग टेस्ट और नेशनल मेडिकल कमीशन (पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) द्वारा एक निश्चित अर्हता अनिवार्य की गयी है। एनबीई के आँकड़ों के मुताबिक, औसतन 20 प्रतिशत से भी कम लोग इसे पास कर पाते हैं। रूस, यूक्रेन, चीन, फिलीपींस, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों के विदेशी चिकित्सा स्नातकों को एफएमजीई उत्तीर्ण करने के बाद ही भारत में अभ्यास करने की अनुमति है। हालाँकि यूएस, यूके, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड के एमबीबीएस स्नातकों को परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। सन् एफएमजीई की परीक्षा सन् 2019 में 25.79 प्रतिशत विदेशी स्नातकों ने पास की, जबकि सन् 2020 में यह प्रतिशत 14.68 और सन् 2021 में 23.83 ही था। सन् 2019 से पहले के वर्षों में आँकड़े और भी कम थे। तो इस परीक्षा में असफल होने के बाद लगभग 80 प्रतिशत स्नातक क्या करते हैं? जबकि कुछ लोग चिकित्सा को आगे बढ़ाने और एक अलग करियर-पथ अपनाने के अपने सपने को छोड़ देते हैं। कुछ लोग एफएमजीई उत्तीर्ण किये बिना ही भारत में अवैध रूप से अभ्यास करते हैं। अन्य लोग उत्तीर्ण होने के अपने प्रयासों में लगे रहते हैं। विशेषकर इसलिए, क्योंकि द्विवार्षिक एफएमजीई के लिए परीक्षा पास करने के प्रयासों की कोई सीमा नहीं है।

एफएमजीई परीक्षा के आसपास कथित धोखाधड़ी की ‘तहलका’ की पड़ताल के हिस्से के रूप में हमारे रिपोर्टर की मुलाक़ात बिचौलिये राकेश भंडारी से हुई, जिसने कई असफल प्रयासों के बाद अवैध तरीक़ों से एक कश्मीरी विदेशी एमबीबीएस स्नातक को एफएमजीई पास कराने में मदद करने की बात क़ुबूल की। भंडारी ने ख़ुलासा किया कि उसने परीक्षा पास करने में मदद करने के लिए प्रतियोगी से 20 लाख रुपये लिये थे।

भंडारी : एक तो ख़ास आदमी है, …4-5 चान्स में पास ही नहीं हो रहा।

रिपोर्टर : एफएमजी में?

भंडारी : हाँ, ..उसको फिर एक झटके में करवाया मैंने पिछले साल।

रिपोर्टर : आपने करवाया एफएमजी में पास?

भंडारी : हाँ; अभी शादी की उसने। मुझे शादी में दावत भी न दी। मुझे खुंदक आ गयी इतनी, …परसों पता चला उसकी शादी भी हो गयी।

रिपोर्टर : कितना पैसा लिया आपने उससे?

भंडारी : रेट तो देखो डिपैंड करता है, …अगर डायरेक्ट आ गया, तो 20 लाख भी लेते हैं।

रिपोर्टर : ऑप्शन कौन-सा था, उसका पास होने का?

भंडारी : सारी चीज़ें नहीं बताते, पता है क्या होता है ये सीक्रेसी वाला काम है? आप कितने दिनों से फोन कर रहे हो मिलने के लिए, मैंने आपसे क्या कहा? …टाइम नहीं है। क्यूँकि एक्चुअली क्या होता है, हमारे पास एक की जगह 10 आदमी खड़े होते हैं।

अब ‘तहलका’ रिपोर्टर ने भंडारी के सामने एक काल्पनिक सौदा पेश किया, जिसमें कहा गया कि हमारे पास एक प्रतियोगी है, जिसने ढाका (बांग्लादेश) में एमबीबीएस पूरा किया है; लेकिन पहले प्रयास में वह एफएमजीई में असफल रहा। भंडारी ने तुरंत हमारे रिपोर्टर को आश्वासन दिया कि वह परीक्षा से एक रात पहले प्रश्न-पत्र दे (पेपर लीक कर) सकता है। अपनी टीम से इसे हल करवा सकता है और अगले दिन परीक्षार्थी को परीक्षा केंद्र पर छोड़ सकता है। यदि लीक हुआ प्रश्न-पत्र परीक्षा के प्रश्न-पत्र से मेल खाता है, तो अभ्यर्थी को उसी शाम 15 लाख रुपये का भुगतान करना होगा। उन्होंने लीक हुए प्रश्न-पत्र को साझा करने से रोकने के लिए परीक्षार्थी के मोबाइल फोन को अपने पास रखने या साथ न लाने पर ज़ोर दिया, ताकि उसका यह अवैध काम और परीक्षा पास कराने की मुहिम ख़तरे में न पड़ जाए। भंडारी ने अपने धोखाधड़ी वाले नेटवर्क की शर्तों और उसके काम के तरीक़े पर प्रकाश डालते हुए इसमें सावधानीपूर्वक बनायी गयी अपनी प्रक्रिया और सुरक्षा उपायों के बारे में विस्तार से बताया।

भंडारी : आप समझे नहीं मेरी बात; …क्वेश्चन पेपर का ऐसा स्कैम होता है, उसमें मेरे को भी नहीं पता होगा, …कब, किस लोकेशन पर भेज रहा होगा वो। सीक्रेट होता है। इसकी तलाशी दो जगह करेगा। कोई मोबाइल तो नहीं, कोई पेपर तो नहीं है इसके पास।

रिपोर्टर : जब ये एग्जाम देने जाएगा?

भंडारी : हाँ; उससे पहले। क्यूँकि एक दिन पहले मिलके जाएगा, जानते तो हैं नहीं इसको। मतलब, अगर इसके पास मोबाइल हो, ये फोटो खींचकर 10 लोगों को भेज देगा; …ये वायरल हो गया, तो फँस गये न वो। वो क्या काम करते हैं, दिन में नहीं बुलाएँगे इसको; …11 बजे बुलाएँगे। एक जगह बुलाएँगे। …सपोज करो यहाँ बुला लिया। यहाँ से अपनी गाड़ी में ले जाएँगे। वो हमारी रिस्पॉन्सबिलिटी रहेगी। यहाँ से लेकर दूसरी जगह ले जाएँगे। दूसरी जगह से तीसरी जगह ले जाएँगे। शाम को पेपर कहीं और होगा।

रिपोर्टर : शाम को पेपर?

भंडारी : शाम को पेपर दिखा देंगे उसको। रात में स्टडी करवा देंगे उसको। एक घंटे में थोड़ी हो पाएगा। फिर 4-5 बजे तक इसको (विद्यार्थी को) करवाके सुबह सीधे सेंटर पर इसको 8:00 बजे पौन 8:00 बजे से 12:00 बजे तक।

रिपोर्टर : और दूसरा?

भंडारी : दूसरा एक घंटे के गैप के बाद होगा।

रिपोर्टर : तो ये दोनों पेपर उसे दे देंगे एक रात पहले ही?

भंडारी : करवा देंगे सोल्व। …कोई 150 क्वेश्चन करवा देंगे। पेपर मैच हो गया, जैसे बच्चे ने कर लिया; पेपर तो वही आ गया ना! तो बच्चे को आराम-आराम से करना है, कोई हड़बड़ी नहीं करनी है।

रिपोर्टर : एग्जामिनेशन सेंटर में?

भंडारी : एग्जामिनेशन सेंटर से पहले, पेपर तो 10-15 मिनट पहले मिल जाएगा ना! ताकि भूल न जाए। …एग्जाम दे दिया आराम से; …शाम को तो मैच (मिलान) हो ही जाएगा। शाम को पेमेंट कर दिया।

रिपोर्टर : शाम को?

भंडारी : पेमेंट करनी है।

रिपोर्टर : आप जो एक घंटे का गैप बता रहे हो दोनों एग्जाम के बीच में, उस एक घंटे में इसको किसी से बात नहीं करनी?

भंडारी : ना। क्यूँकि दूसरे को बता दिया इसने; ..ये आएगा, वो आएगा। फँसने वाला काम क्यों करें?

रिपोर्टर : शाम को पेमेंट कर देनी है? लेकिन आप तो कह रहे थे पेमेंट होगा पास होने के बाद?

भंडारी : पास तो हो ही गया ना वो, हमने तो पेपर दिखाया। दूसरे दिन दे दी पेमेंट।

रिपोर्टर : और रिजल्ट कब तक आता है इसका?

भंडारी : 10-15 दिन में।

भंडारी ने ख़ुलासा किया कि वह परीक्षार्थियों को वित्तीय भुगतान करके एफएमजीई पास करने के तीन रास्ते प्रदान करता है। पहला पेपर लीक है; दूसरे में सर्वर के साथ छेड़छाड़ शामिल है; और तीसरा असफल अभ्यर्थियों को उत्तीर्ण होने की गारंटी देता है। उसने ‘तहलका’ रिपोर्टर को पहले पेपर लीक के तरीक़े के बारे में समझाया और फिर अन्य दो विकल्पों के बारे में विस्तार से बताया, जिसमें परिणामों में हेर-फेर और इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए भरपूर मात्रा में धन को लेकर बताया।

रिपोर्टर : दूसरे ऑप्शन में आप क्या बता रहे थे? सर्वर में कुछ करते हैं?

भंडारी : सर्वर का भी खेल होता है। तीसरा ऑप्शन है, …फेल भी हो गया, तो पास हो जाएगा।

रिपोर्टर : वो कैसे?

भंडारी : आपको पता है कितने बच्चे पास होते हैं कुल? 2,500…।

रिपोर्टर : एफएमजी में? और बैठते कितने हैं?

भंडारी : 20,000, 17,000; …और 2,000-2,500 पास होते हैं मैक्सिमम।

रिपोर्टर : बैठते कितने हैं?

भंडारी : 17-18 के (हज़ार) और 2,500-3,000 मैक्सिमम पास होते हैं। 10 प्रतिशत, आठ प्रतिशत रह जाते हैं। बाक़ी 200-400 बच्चे तो ऐसे ही निकाल देते हैं। क्यूँकि इसमें अवैल्युएशन (मूल्यांकन) कुछ नहीं है ना! मोटा पैसा खाते हैं वो। पासिंग सर्टिफिकेट दे दिया काट-काट के।

रिपोर्टर : लेकिन उसमें भी लड़का एग्जाम में बैठता है?

भंडारी : एग्जाम में कहीं भी हो; …मेन क्या है? पासिंग सब्जेक्ट; …वो लास्ट का खेल होता है।

रिपोर्टर : उसमें कितना पैसा लगता है?

भंडारी : एंड का खेल होता है। उसमें 15 लाख भी लगते हैं, 10 लाख भी।

रिपोर्टर : लेकिन एग्जाम में बच्चा बैठता है उसमें?

भंडारी : एग्जाम तो वो देगा।

रिपोर्टर : तीनों ऑप्शंस में एग्जाम देना है?

भंडारी : एग्जाम तो देना-ही-देना है, एग्जाम के बिना कैसे होगा?

यह पूछे जाने पर कि क्या हमारे (काल्पनिक) प्रतियोगी की जगह कोई और एफएमजीई की परीक्षा देगा या प्रतियोगी को ख़ुद परीक्षा देनी होगी? भंडारी ने बताया कि केवल सिक्किम में ही कोई दूसरा व्यक्ति परीक्षार्थी की जगह परीक्षा दे सकता है। हालाँकि उसने इसमें बड़े जोखिम की बात कहते हुए ऐसा न करने को प्राथमिकता दी। भंडारी के अनुसार, उसके लिए सबसे सुरक्षित और अच्छा विकल्प पेपर लीक ही रहा।

रिपोर्टर : अब आप मुझे ये बताओ, …लड़का ये पूछ रहा था, उसको एग्जाम देने जाना पड़ेगा; या उसकी जगह कोई और देगा एग्जाम एफएमजी का?

भंडारी : देखो साब! एग्जाम देना पड़ेगा। सिर्फ़ एक ही सेंटर है, …ऐसा है, जहाँ दूसरा आदमी बैठ सकता है।

रिपोर्टर : वो कहाँ है?

भंडारी : वो है सिक्किम में। उसमें प्रॉब्लम क्या है, उसमें हमें ड्राबैक्स भी देखने होंगे। वैसे ड्राबैक्स में मैं काम करता ही नहीं हूँ। क़िस्मत ख़राब हो; फँस गया, तो ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी।

रिपोर्टर : हम्म।

भंडारी : रिस्की काम है। इसका काम शाम को ही पता चलेगा इसको, …एक दिन पहले या तो।

रिपोर्टर : जैसे कल एग्जाम है एफएमजी का?

भंडारी : रात में ही लेंगे। …दिन में मोबाइल ले लेंगे। …मोबाइल नहीं होगा।

रिपोर्टर : उससे एक दिन पहले लड़के को क्वेश्चन पेपर मिल जाएगा?

भंडारी : उसको दे जाएँगे, वो रख लेगा अपने पास।

भंडारी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को आश्वासन दिया कि वह एफएमजीई परीक्षा से एक दिन पहले लीक हुए पेपर की व्यवस्था कर देगा, जिससे परीक्षार्थी इसकी समीक्षा कर सकेंगे और उसी के अनुरूप तैयारी कर सकेंगे। इसके अलावा अगर लीक हुआ प्रश्न-पत्र वास्तविक परीक्षा के प्रश्न-पत्र से मेल खाता भी हो; फिर भी परीक्षार्थी असफल हो जाता है, तो उसे (परीक्षार्थी को) तय रक़म का केवल आधा हिस्सा यानी 15 लाख रुपये में से 7.5 लाख रुपये ही देने होंगे।

रिपोर्टर : एक ऑप्शन तो आपने बता दिया एफएमजी एग्जाम का, और दूसरा क्या है?

भंडारी : दूसरा ऑप्शन भी होता है। पर देखो, ये सबसे सटीक होता है; सटीक। पता है कैसे? आपको पेपर दिखा दिया, आंसर दे दिये, 200 दे दिये; …उसके बाद भी नहीं आएगा, तो ऐसे डॉक्टर बनने का क्या फ़ायदा? और उसके बाद भी फेल उसके बाद भी फेल हो जाए, तो आधा पैसा तो देना ही पड़ेगा। …अपनी तो कोई ग़लती है ही नहीं।

रिपोर्टर : आपने तो क्वेश्चन पेपर दिखा दिया।

भंडारी : दिखा दिया, अब तुम याद ही न करो। …समझ लो, तू डॉक्टर बनने के लायक है ही नहीं। ..हा…हा….हा (हँसते हुए), …तेरे को तो कुछ भी नहीं आता। जब तेरे को आंसर दे दिया और आठ घंटे में पढ़ा भी दिया उसको, तब भी नहीं आएगा, तो फिर…।

रिपोर्टर : फेल हो गया, तब भी 50 प्रतिशत देना पड़ेगा?

भंडारी : देना पड़ेगा। वो छोड़ेगा थोड़ी। जब सब मैच हो गया है।

रिपोर्टर : मतलब, 15 लाख का 7.50?

भंडारी से बात करने के बाद ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाक़ात ढाका (बांग्लादेश) के एक विदेशी मेडिकल स्नातक से हुई। शुरू में एफएमजीई परीक्षा उत्तीर्ण करने का दावा करते हुए उसने बाद में भारत में अभ्यास करने के लिए आवश्यक स्क्रीनिंग टेस्ट में असफल होने की बात स्वीकार की। उसने मरीज़ों के जीवन को ख़तरे में डालते हुए एनएमसी से आवश्यक लाइसेंस लिये बिना ही कुछ महीनों तक एक अस्पताल में भी काम किया था। फ़िलहाल (बातचीत के समय तक) वह दिल्ली में एक नयी नौकरी की तलाश में था। इसके साथ ही उसे भंडारी जैसे एक बिचौलिये की भी तलाश में भी है, जो उसे एफएमजीई पास कराने में मदद कर सके।

इसके अलावा ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाक़ात कश्मीर के एक प्रतियोगी सिराज (बदला हुआ नाम) से दिल्ली के एक पाँच सितारा होटल में हुई। सिराज लीक हुए परीक्षा पेपर के लिए बिचौलिये को 15 लाख रुपये देने पर सहमत हुआ।

रिपोर्टर : अगर एक दिन पहले क्वेश्चन पेपर दे देता है आपको एफएमजी एग्जाम का पास करने का, तो वो आप कर लोगे?

सिराज : उसमें एक चीज़ आपको मिल जाएगी। पढ़ लूँगा मैं; उसमें ज़्यादा कॉन्फिडेंस हैं ना!

रिपोर्टर : सॉल्व आप थोड़ी न करोगे? …सॉल्व तो कोई और करेगा ना!

सिराज : वही मैं बोल रहा हूँ। सॉल्व करके मुझे ये पता होगा ना कि मैंने ये पेपर रटा है। वहाँ बस छपना है। कॉन्फिडेंस होता है ना! …अब ये लोग कह रहे हैं कि नहीं करेंगे। क्या मतलब? नहीं हो पाया फिर? पछताओगे फिर, इससे अच्छा तो मैंने पढ़ा होता।

रिपोर्टर : पैसे के लिए आप कम्फर्टेबल हैं,…15 लाख?

सिराज : 15 लाख का मसला नहीं है। मसला ये है कि अगर पेपर मुझे एक दिन पहले देगा ना! 200 सवाल ही दे-दे बस, मैं चंडीगढ़ रात को ही निकलूँगा। मैं रास्ते में पढूँगा।

रिपोर्टर : वो भी आप सॉल्व नहीं करोगे क्वेश्चन पेपर? …कोई और करेगा?

सिराज : हाँ-हाँ।

नीट परीक्षा में अनियमितताओं पर चल रही जाँच के कारण राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) एक और विवाद में फँस गयी है। यह मामला वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इसके अलावा हाल ही में गृह मंत्रालय द्वारा समझौता की गयी परीक्षाओं की अखंडता के बारे में उठायी गयी चिन्ताओं के बाद शिक्षा मंत्रालय ने यूजीसी-नेट परीक्षा रद्द कर दी। इन सामने आ रहे मुद्दों के बीच ‘तहलका’ एसआईटी की यह पड़ताल और परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र लीक कराने वाले माफ़िया का ख़ुलासा राष्ट्रीय परीक्षाओं की विश्वसनीयता को कम करने वाली व्यापक चुनौतियों पर प्रकाश डालते हैं। राकेश भंडारी जैसे बिचौलियों द्वारा फैलाये गये भ्रष्टाचार के जटिल जाल को उजागर करके ‘तहलका’ की इस रिपोर्ट का उद्देश्य व्यवस्था में ख़ामियों का फ़ायदा उठाने वालों को उजागर करने के साथ-साथ भविष्य की परीक्षाओं की गोपनीयता और अखंडता की रक्षा के लिए प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता पर बहस शुरू करना है।

एआई से ज़्यादा ख़तरनाक साबित होगा एजीआई

आजकल साइबर अपराधी और ग़लत सोच वाले लोग एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दुरुपयोग से हर रोज़ हज़ारों लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं। एआई का दुरुपयोग करके न सिर्फ़ आपराधिक प्रवृत्ति के लोग ठगी कर रहे हैं, बल्कि लड़कियों और महिलाओं को फँसाकर उनका शोषण भी कर रहे हैं। एआई के दुरुपयोग को लेकर ज़्यादातर समाजसेवी और बुद्धिजीवी चिन्तित रहते हैं कि एआई का दुरुपयोग बढ़ने से अपराध बढ़ रहा है, जिसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन इस बीच एक नयी चिन्ता पैदा हो गयी है। यह चिन्ता एआई के और संवेदनशील होने को लेकर है।

जानकारों का कहना है कि अगर एआई संवेदनशील हो गया, तो उसमें सिंगुलैरिटी जैसा कुछ घटित होगा और एआई अपने आप ही अन्य एआई बनाना शुरू कर देगा। इंटरनेट के ज़रिये लिखने-पढ़ने, जानकारी हासिल करने और ग्राफिक्स को आसान बनाने के लिए एआई का आविष्कार किया गया; लेकिन इसके दुरुपयोग ने सबको चिन्ता में डाल दिया। अब एआई से आगे बढ़कर नये लक्ष्य पोस्ट में एजीआई यानी आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस का आविष्कार किया जा रहा है। ये एआई एक ऐसा और आधुनिक वर्जन है, जो एआई से ज़्यादा स्मार्ट होगा और दुरुपयोग करने पर उससे भी कई गुना ज़्यादा ख़तरनाक। वैज्ञानिकों और कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का मानना है कि एजीआई के चलन से ऑनलाइन किये जाने वाले अपराध की गति कई गुना बढ़ जाएगी। हालाँकि एजीआई का सदुपयोग करने पर इसके परिणाम एआई से कहीं बेहतर होंगे और ये ऐप एआई से ज़्यादा उपयोगी साबित हो सकता है। एजीआई के सदुपयोग से बौद्धिक कार्य को पूरा करना सीखा जा सकता है।

एजीआई एक व्यापक बुद्धिमान और जागरूकता में एआई से कहीं ज़्यादा बेहतर है। यह ऐप चैटबॉट या मानव-रोबोट इंटरैक्शन के लिए ज़रूरी माना जा रहा है। लेकिन इस ऐप को बनाने वालों को भी पता है कि इसका दुरुपयोग काफ़ी ख़तरनाक साबित होगा, जो अपने कार्यों और डोमेन की एक विस्तृत शृंखला में ज्ञान देने, अत्याधुनिक नया बहुत कुछ सीखने और क्लोन आदि को बेहतर तरीक़े से लागू करने की क्षमता वाला होगा। हालाँकि एजीआई पर अभी काम चल रहा है और इसे जन सामान्य के लिए अभी उपलब्ध कराने में लंबा समय लगेगा। लेकिन इसे लेकर व्यापक स्तर पर काम चल रहा है। हालाँकि अभी एजीआई बनाने में लगे लोग इसमें संज्ञानात्मक लचीलापन, अनुकूलनशीलता और सामान्य समस्या-समाधान कौशल जैसे वर्जन शामिल करने के साथ-साथ इसे सुरक्षित बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे इसका दुरुपयोग कम हो सके। लेकिन फिर भी एजीआई भविष्य की सुपर इंटेलिजेंट प्रणालियों में जितना स्मार्ट, उपयोगी और काम का साबित होगा, दुरुपयोग करने पर उससे ज़्यादा ख़तरनाक और असुरक्षित भी हो सकता है।

दरअसल इंसानी ऑपरेटर की जानकारी के बाहर काम करने में स्मार्ट एजीआई एक अभूतपूर्व नवाचार है, जिसे ओपेन एआई और उसके प्रतिद्वंद्वी नये और आधुनिक रूप में हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। एजीआई इंसानों का बनाया हुआ अब तक का सबसे आधुनिक ऑनलाइन सॉफ्टवेयर होगा, जिसका मक़सद इंसानी दिमाग़ की तरह या उससे भी आगे की सोच रखकर काम करना होगा। एजीआई एआई से ज़्यादा संवेदनशील और भविष्य की सुपर इंटेलिजेंट प्रणालियों को बढ़ावा देगा। एजीआई उन प्रणालियों को संदर्भित करेगा, जो इंसानों की बौद्धिक क्षमता के बराबर या उससे भी आगे जाकर काम करने में सक्षम हो सकता है। कहा जा रहा है कि एजीआई जब बनकर तैयार होगा, तो इसका उपयोग न सिर्फ़ इंसान की बौद्धिक उलझनों को सुलझाने में मदद करेगा, बल्कि कैंसर जैसी बीमारियों की दवा के यौगिकों के नये संयोजन खोजने में मदद करेगा।

अगर एजीआई का सदुपयोग हुआ, तो इससे कई फ़ायदे हो सकते हैं। क्योंकि इसका उपयोग मशीनों के स्वत: संचालन में भी किया जा सकेगा। ड्राइवर रहित ड्राइविंग में भी इसका उपयोग करने की उम्मीदें जगी हैं, जिसके लिए कई साल से वैज्ञानिक कर रहे हैं। इस तरह से एजीआई के आने से कई फ़ायदे हो सकते हैं; लेकिन दूसरी तरफ़ कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर्स और ऐप्स का दुरुपयोग करके अपराध करने वाले इसका दुरुपयोग करके आपराधिक आतंक मचा सकते हैं। हालाँकि अभी तक एजीआई का निर्माण करने वाले इसके उस स्तर तक नहीं पहुँच सके हैं, जिसकी उन्हें तलाश है। लेकिन एआई के जानकारों और बनाने वाले ज़्यादातर लोगों का मानना है कि एजीआई जैसी इंटेलिजेंसी के ईजाद होने और जीपीटी-4 जैसे बड़े भाषा मॉडल के बनने से कम्प्यूटर के एक सबसे आधुनिक लक्ष्य तक पहुँचने की समय-सीमा को काफ़ी छोटा कर दिया है और वह दिन दूर नहीं, जब इंसान कम्प्यूटर इंटेलिजेंसी की सोच वाली आज तक की सबसे ऊँची चोटी पर खड़ा होगा, जो पूरी दुनिया को हैरान कर देगी।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि एजीआई स्वाभाविक रूप से अत्यधिक ख़तरनाक है, क्योंकि इसका सामान्यीकृत ज्ञान और संज्ञानात्मक कौशल इसे चलाने के किसी भी जानकार को उस व्यक्ति की ख़तरनाक योजनाओं और उद्देश्यों का आविष्कार करने में मदद करेगा और उसका दुरुपयोग करने की अनुमति देगा। लेकिन कई शोधकर्ताओं का मानना है कि एजीआई तक पहुँचना एक क्रमिक, पुनरावृत्तीय प्रक्रिया होगी, जिसमें हर क़दम पर विचारशील सुरक्षा रेलिंग होगी, जिससे इसका दुरुपयोग आसान भी नहीं होगा। हालाँकि अभी तक एजीआई के समर्थकों और विरोधियों में इस बात पर भी काफ़ी बहस जारी है कि इस अत्याधुनिक कृत्रिम सामान्य बुद्धिमत्ता को लेकर क्या अच्छा है और क्या ख़राब? दोनों तरफ़ से सवालो-जवाबों और समस्याओं-सुगमताओं को लेकर वाद-विवाद जारी है।

एजीआई में 49 प्रतिशत हिस्सा रखने वाली माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी के शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने जीपीटी-4 में एजीआई की चिंगारी पहले ही देख ली है। एजीआई को बनाने में लगी कम्पनी एंथ्रोपिक के सीईओ डारियो अमोदेई ने पिछले दिनों कहा था कि दो-तीन साल के अंदर एजीआई को लॉन्च कर दिया जाएगा। लेकिन डीपमाइंड के सह-संस्थापक शेन लेग का कहना है कि साल 2028 तक एजीआई के आने की संभावना 50 प्रतिशत है। वहीं गूगल ब्रेन के सह-संस्थापक और वर्तमान लैंडिंग एआई के सीईओ एंड्रयू एनजी ने कहा है कि एजीआई जैसी तकनीक लाने के लिए पहले पर्याप्त स्मार्ट सिस्टम होना चाहिए, जिसे प्राप्त करना बहुत दूर की बात है। एंड्रयू एनजी का कहना है कि एजीआई के दुरुपयोग के बारे में कई तर्कों से वह ख़ुद चिन्तित हैं। उनका कहना है कि एजीआई का दुरुपयोग और सदुपयोग तो दूसरी चिन्ता है। पहले तो एजीआई के क़रीब पहुँचने का सवाल परेशान कर रहा है, जिसका जवाब है हमारे पास नहीं है। क्योंकि एजीआई की परिभाषा नहीं बदली जा सकती। एजीआई को उपयोगी बनाने में ही अभी क़रीब तीन साल लगेंगे, भले ही हम 30 साल पहले ही वहाँ पहुँच सकते हैं। एनजी का कहना है कि कुछ लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए एजीआई की परिभाषा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं और ज़्यादा अच्छा या ज़्यादा ख़राब प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए एजीआई शब्द से जुड़ी उम्मीदें और डर दोनों सामने आ रहे हैं।

ओपेन एआई के सीईओ सैम ऑल्टमैन ने हाल ही में एजीआई को एआई सिस्टम के आधुनिक रूप में परिभाषित किया है, जिसका प्रचार निश्चित तौर पर इस नयी और हैरान करने वाली नयी तकनीक में लोगों की रुचि बढ़ाने के साथ-साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा निवेश को बढ़ावा दे सकता है। लेकिन यह उम्मीदों का एक बुलबुला भी बन सकता है, जो पूरा न होने पर अंतत: फट सकता है और कई लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है। इन बयानों से लगता है कि कई लोगों को बड़े घाटे में ले जा सकता है और कई लोगों का दिमाग़ी संतुलन बिगाड़ सकता है। क्योंकि जिस तन्मयता से एजीआई के आविष्कारक पैसा और समय ख़राब करके इसे ईजाद करने में लगे हैं, उनका इस ऐप के लिए बहुत कुछ दाँव पर लगा है।

इस दिशा में काम करने वाले मोटे तौर पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के तीन प्रकारों को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसे हम इसके संकीर्ण या कमज़ोर रूप कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई (एएनआई), सामान्य या कृत्रिम सामान्य बुद्धिमत्ता यानी एजीआई और असामान्य या कृत्रिम सुपर इंटेलिजेंस यानी एएसआई के रूप में जान सकते हैं। इससे पता चलता है कि एआई को ईजाद करने वाले आज जिस एजीआई के आविष्कार में लगे हैं, वे या उनके फॉलोअर्स एजीआई के बाद भी रुकेंगे नहीं और इससे आगे भी कुछ नया बनाएँगे, जिसे एएसआई या इससे अलग कुछ और कहा जाएगा। हालाँकि इस तरह के नये कम्प्यूटरीकृत ऐप इनके उपयोगकर्ताओं को ही फ़ायदा पहुँचाने वाले होते हैं। ये लोग कम्प्यूटर की भाषा नहीं समझने वालों या ऐप के उपयोग न करने वालों के लिए मुसीबत बन सकते हैं।

आज साइबर अपराध तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके ज़रिये सामान्य लोगों की बात तो दूर, बड़े-बड़े इंटेलिजेंस और यहाँ तक कि सरकारें भी ठगी का शिकार हो रही हैं। साइबर अपराधी के निशाने पर दुनिया के बड़े-बड़े लोग तक हैं। हैरानी की बात है कि जो लोग इन आधुनिक ऐप्स को ईजाद कर रहे हैं, साइबर अपराधी उन्हें भी नहीं छोड़ रहे हैं। इसी के चलते वैज्ञानिक और कुछ शोधकर्ता इस सवाल में उलझे हुए हैं कि ऐप स्मार्ट होना चाहिए या उनसे भी ज़्यादा सुपर स्मार्ट? और इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि आधुनिक ऐप्स की बढ़ती शृंखला कहीं उनके सामने बहुत बड़ी चुनौतियाँ खड़ी न कर दें।

क्या फिर बड़ा आन्दोलन करेंगे किसान?

योगेश

पंजाब और हरियाणा के किसानों के आन्दोलन के बीच न्यूनतम समर्थन मूल्य और दूसरी 20 माँगों को लेकर देश भर के किसान फिर से बड़ा आन्दोलन कर सकते हैं। इसकी घोषणा हरिद्वार से भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कर चुके हैं। राकेश टिकैत ने हरिद्वार किसान कुंभ-2024 के मंच से केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आन्दोलन की चेतावनी देते हुए किसानों और युवाओं की समस्याओं का समाधान करने को कहा है। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें किसानों की माँगें पूरी करें और बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार दें।

हरिद्वार में 14 जून से 18 जून तक चार दिवसीय हरिद्वार किसान कुंभ 2024 का आयोजन हुआ था, जिसमें 18 जून को किसान कुंभ के समापन के दौरान भाकियू की महापंचायत में किसानों और भाकियू के कार्यकर्ताओं से 100 दिन के एजेंडे पर संघर्ष करने की रणनीति अपनाने का आह्वान राकेश टिकैत ने किया। इस महापंचायत में किसानों और देश के युवाओं की 21+5 सूत्रीय माँगों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से एक बार फिर अपील की गयी। 21+5 में 21 माँगें किसानों हैं और पाँच माँगें युवाओं की हैं। ये सभी माँगें महापंचायत की रणनीति में प्रमुखता से शामिल की गयी हैं और सरकारों के इन माँगों को पूरा न करने पर किसान आन्दोलन में इन माँगों को पूरा करने की केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से माँग की जाएगी।

किसानों की 21 माँगों में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित 23 फ़सलों का एमएसपी गारंटी क़ानून बनाना प्रमुख माँग है। इसमें किसानों की माँग है कि केंद्र सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में नयी समिति बनाकर तत्काल एमएसपी क़ानून बनाये, जिसमें स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के सी2+50 प्रतिशत के फार्मूले के हिसाब से एमएसपी लागू करे। इसके अलावा देश में अलग से किसान आयोग का गठन हो। कई राज्यों की तरह सभी राज्य सरकारें किसानों को मुफ़्त बिजली दें। उत्तर प्रदेश में ट्यूबवेलों पर बिजली मीटर लगाने को लेकर स्पष्टीकरण देते हुए इस काम को वहाँ की सरकार रोके। सभी राज्यों में आवारा पशुओं से फ़सलों के नुक़सान को रोकने के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर सरकारी परती की ज़मीनों पर अस्थायी पशु शालाएँ बनें, जिससे किसानों को खेती और जान-माल का नुक़सान न हो। गन्ने का भाव कम-से-कम 400 रुपये प्रति कुंटल तय हो और गन्ना किसानों का बक़ाया पैसा डिजिटल भुगतान से तुरंत दिया जाए।

अलग से योजनाएँ बनाकर छोटे किसानों के परिवारों के स्वास्थ्य और उनके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो। छोटे किसानों को ब्याज मुक्त कृषि ऋण दिया जाए। किसान क्रेडिट कार्ड पर लिये गये पैसे को लौटाने की मीयाद कम-से-कम पाँच साल हो और उस ऋण पर सिर्फ़ एक प्रतिशत ब्याज दर ली जाए। सरकारी कर्मचारियों की तरह किसानों और उनके परिवारों का कम-से-कम पाँच लाख का बीमा एक रुपये की प्रीमियम पर किया जाए। किसानों की सामाजिक सुरक्षा का दायरा मज़बूत हो। हर गाँव में साफ़ पीने योग्य पानी की सप्लाई करते हुए इसे स्वच्छ जल योजना के दायरे में लाया जाए। खादों, बीजों और कीटनाशकों के नाम पर कम्पनियों को दी जाने वाली सब्सिडी किसानों को दी जाए।

इसके अलावा गिरते भू-जल स्तर को ऊपर उठाने के लिए सभी नदियों को आपस में जोड़ा जाए और वाटर रिचार्ज की योजना को धरातल पर उतारा जाए। नदियों पर चेकडेम बनाने के साथ उनकी सफ़ाई करायी जाए और छोटी नहरों में रिचार्ज कूप योजना लागू करते हुए उनमें भरपूर पानी छोड़ा जाए। अभी 24 घंटे बिजली सप्लाई नहीं हो रही है। इसके लिए केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें गाँवों में सोलर पैनल लगाने का काम करें, जिससे किसानों को 24 घंटे मुफ़्त बिजली मिल सके। जिन किसानों की छतों पर और खेतों में सोलर पैनल लगे हैं, उन्हें उसकी सब्सिडी दी जाए और किसानों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए, जिससे गाँवों की बिजली पर निर्भरता कम हो सके। मंडी व्यवस्था मज़बूत की जाए और सभी फ़सलों की ख़रीद को नक़दी में सुनिश्चित हो, जिससे किसानों को अपने ही पैसे के लिए इंतज़ार न करना पड़े और पैसे के अभाव में उनकी अगली फ़सल की बुवाई में देर न हो। गाँवों के उजाड़ने या उजड़ने पर सभी ग्रामीणों के उत्थान के लिए विशेष योजनाएँ बनें, जिसके तहत किसानों को बाज़ार भाव से उनकी ज़मीनों का मुआवज़ा दिया जाए।

पूरे देश में बनी मंडियों को मज़बूत बनाकर किसान और स्थानीय लोगों को खाने के लिए सस्ता अनाज उनमें देने की व्यवस्था की जाए। भारत में खेती यहाँ की जीवन पद्धति का हिस्सा है, इसलिए फ़सलों को व्यापार से बाहर रखते हुए लूटने वालों का मुनाफ़ा कम करने के लिए खेती को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से अलग किया जाए। किसानों के अलावा केंद्र सरकार मछुआरों को भी सब्सिडी दे और उनके परिवारों को मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य प्रदान करे। किसानों पर फ़सल अवशेषों को जलाने और दूसरे एनजीटी के नियमों के तहत ज़ुर्माने के प्रावधान वापस लिये जाएँ। इसके अलावा कृषि यंत्रों पर कृषि करने के संसाधनों के उपयोग पर किसानों को समय-सीमा में छूट दी जाए। प्राइवेट और कमर्शियल वाहनों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करके किलोमीटर के हिसाब से उनकी मीयाद की गारंटी निर्धारित की जाए। राजस्थान की ईस्टर्न कनाल परियोजना को केंद्रीय योजना के अंतर्गत लाया जाए, जिससे राजस्थान के 13 ज़िलों की जीवन-शैली प्रभावित न हो। पहाड़ी राज्यों में पहाड़ी कृषि नीति के तहत स्थानीय संसाधनों और बाज़ार व्यवस्था लागू की जाए। पहाड़ के निवासियों का पलायन रोकने के लिए वहीं पर रोज़गार की व्यवस्था हो। उन्हें पशुपालन, बाग़वानी और औषधीय खेती के लिए आर्थिक मदद, प्रशिक्षण आदि मिले। आदिवासी इलाक़ों में जल, जंगल और ज़मीन बचाने के लिए केंद्र सरकार और आदिवासी राज्यों की सरकारें आदिवासियों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाएँ और उन्हें ज़मीनों का मालिकाना हक़ दिलाते हुए भूमि अधिग्रहण और जंगलों के कटान को रोकें। भूमि अधिग्रहण क़ानून को उद्योगपतियों और पूँजीपतियों के हित में नहीं, किसानों के अनुकूल बनाया जाए। देश में फैली विद्युत लाइनों के जाल से किसानों को हो रहे नुक़सान की भरपाई किसानों को मुआवज़ा देकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारें करें।

इसके अलावा देश में रोज़गार के लिए परेशान युवाओं के लिए भी रोज़गार की व्यवस्था सरकार करे। अन्य कामों के अलावा खेती को भी आकर्षक और लाभकारी बनाते हुए युवाओं को रोज़गार दिया जाए और स्वरोज़गार के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इसके अलावा अग्निपथ योजना की मीयाद चार साल ज़्यादा की जाए और चयनित युवाओं की चार साल में 75 फ़ीसदी छँटनी रोकी जाए। इन युवाओं को पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों में प्राथमिकता के आधार पर भर्ती किया जाए। चयन न होने तक उन्हें बेरोज़गारी भत्ता दिया जाए। देश केंद्र सरकार एक युवा आयोग का गठन करके उसे संवैधानिक दर्जा दे, जिसमें युवाओं की शिकायतों का तत्काल निपटारा किया जाए। रोज़गार पाने की आयु-सीमा पार कर चुके युवाओं को इसके तहत लाभ दिलाया जाए। इसके अलावा बार-बार भर्ती परीक्षाओं में घोटालों और पेपर लीक रोकने के लिए केंद्र सरकार कड़े क़दम उठाए। युवा किसानों को खेती से सम्बन्धित कुटीर व लघु उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और दलालों पर रोक लगाते हुए समय से उनके काम सीधे तौर पर किये जाएँ। 50 या 100 युवाओं के दल बनाकर उनके अपने-अपने इलाक़े में फ़सल चक्र, खेती करने और अनाज, फलों की प्रोसेसिंग के लिए उन्हें सब्सिडी दी जाए, जिससे वे खेती में रोज़गार तय कर सकें। कृषि विषय को निम्न स्तर से लेकर हर तरह के विद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाए, जिससे देश के युवाओं को खेती का ज्ञान हो और खाद्य पदार्थों की अहमियत मालूम हो सके। किसानों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए पंचायत स्तर पर खेल के मैदान बनाकर उनकी समितियों को ही रख-रखाव की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए। युवक मंगल दल जैसे मॉडलों के माध्यम से उनको प्रोत्साहन दिया जाए। इसके अलावा किसानों ने शिक्षित युवतियों के लिए महिला समूह का गठन करने और उनके हितों में अन्य योजनाएँ लागू करने की माँग रखी है।

हरिद्वार किसान कुंभ 2024 के समापन के दिन महापंचायत में भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने किसानों से कहा कि किसान संगठन को मज़बूत करने की ज़रूरत है, क्योंकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें किसानों की एक भी नहीं सुन रही हैं। किसानों को अपनी माँगें मनवाने के लिए एक और बड़ा आन्दोलन करना होगा और इसके लिए ज़्यादा समय नहीं है। कांवड़ यात्रा के बाद उत्तराखण्ड में आन्दोलन युवाओं को करना होगा। पूरे देश में बड़ा आन्दोलन करना होगा, जिससे किसानों और देश के युवाओं के साथ सरकारें धोखा न कर सकें और उनकी उचित माँगें पूरी हो सकें। राकेश टिकैत ने इस दौरान साल 2025 तक देश भर में 25 किसान भवन बनाने का भी लक्ष्य रखा। महापंचायत में तय किया गया कि इस बार हर राज्य में किसानों को आन्दोलन करना होगा।

आन्दोलन बड़े स्तर पर हो या न हो; लेकिन किसानों की माँगों और युवाओं की माँगों को केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को मान लेना चाहिए। आज भी पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और देश के ज़्यादातर राज्यों के किसान अपनी माँगों को लेकर आवाज़ उठा रहे हैं; लेकिन केंद्र सरकार उनकी बात नहीं सुन रही। उलटे किसानों पर हमले करवाये जा रहे हैं। डेढ़ महीने पहले ही किसानों पर ख़ूब हमले हुए, जिसमें कई किसानों की जान चली गयी। लेकिन केंद्र सरकार और हरियाणा सरकार ने हमलावरों पर कार्रवाई करने की जगह किसानों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई की। इससे किसान काफ़ी आहत हैं।

परीक्षा के संचालन में सुधार का समय

राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) ने 21 अगस्त से 04 सितंबर के बीच विश्वविद्यालय अनुदान आयोग-राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा 2024 जून सत्र की परीक्षा, संयुक्त सीएसआईआर यूजीसी नेट 25 से 27 जुलाई तक, एनसीईटी की परीक्षा 10 जुलाई को निर्धारित की है। परीक्षाओं की नयी तारीख़ें मिलना, एक समिति का गठन और नीट जैसी महत्त्वपूर्ण परीक्षाओं के संचालन में हुई अनियमितताओं की जाँच का ज़िम्मा सीबीआई को सौंपे जाने के बीच एनटीए के महानिदेशक पद से सुबोध कुमार सिंह को हटाना सरकार की मंशा को दर्शाता है। नीट मेडिकल प्रवेश परीक्षा, जिसमें रिकॉर्ड 24 लाख उम्मीदवार उपस्थित हुए; अब सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न एजेंसियों की जाँच के दायरे में है। यूजीसी-नेट परीक्षा आयोजित होने के एक दिन बाद उसे रद्द करना केंद्र के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी है, जिसने माना है कि परीक्षा की अखंडता से समझौता किया गया है। हालिया फ़ैसले विपक्ष द्वारा संसद में इस सर्वोपरि मुद्दे को बार-बार उठाने के बाद आये हैं।

हमारी एसआईटी द्वारा की गयी ‘तहलका’ की इस बार की आवरण कथा ‘परीक्षा माफ़िया का जाल’ से पता चलता है कि कैसे एक व्यापक नेटवर्क परीक्षा प्रणाली की अखण्डता से समझौता कर रहा है, जिससे चुनिंदा केंद्रों के कई उम्मीदवार असामान्य रूप से उच्च अंक प्राप्त कर रहे हैं। सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम-2024, जिसे पेपर लीक विरोधी क़ानून के रूप में भी जाना जाता है; लागू हो गया है। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? प्रश्न-पत्रों का बार-बार लीक होना जनता का विश्वास बहाल करने के लिए पूर्ण सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर देता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते उपयोग के बीच ख़तरा और भी बढ़ गया है। एनटीए की स्थापना 2017 में हुई थी। लेकिन इतने वर्षों के बाद भी एजेंसी यूपीएससी की तर्ज पर एक फुलप्रूफ प्रणाली विकसित करने में विफल रही है, जो सुरक्षा को शामिल किये बिना सिविल सेवा परीक्षा, एनडीए की परीक्षा और अन्य समान रूप से प्रतिष्ठित परीक्षाओं का संचालन करती है।

तो ग़लत क्या है? आवश्यकता है कि सज़ा को तीन साल से बढ़ाकर कम-से-कम 10 साल किया जाए, फास्ट ट्रैक अदालतों में समयबद्ध फ़ैसले दिये जाएँ, किसी भी पेपर लीक घोटाले में शामिल कोचिंग संस्थानों को काली सूची में डालना चाहिए, नक़ल में शामिल प्रतियोगियों को भविष्य की सभी परीक्षाओं से वंचित करना चाहिए और राजनीतिक संबद्धता के आधार पर परीक्षण निकायों के सदस्यों को नियुक्त करने की प्रथा को बंद करना चाहिए।

सभी प्रकार के राजनेताओं और सभी हितधारकों को एक साथ बैठकर समाधान खोजने के लिए विचार-मंथन करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह देश के भविष्य का सवाल है। एनटीए या इसी तरह के संस्थानों को ख़त्म करना समाधान नहीं है; बल्कि अपर्याप्तताओं को ठीक करना है। दरअसल एनटीए की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान है। परीक्षाओं को रद्द करने और स्थगित करने से प्रतियोगियों और उनके परिवारों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति पर भारी असर पड़ सकता है। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस की ज़रूरत है। क्योंकि शिक्षा और बेरोज़गारी के मुद्दे केंद्र में हैं और विश्वास की कमी को पूरा किया जाना चाहिए, ताकि विद्यार्थी और उनके परिवार ख़ुद को ठगा हुआ महसूस न करें।

पानी और मनमानी !

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दिल्ली देश की राजधानी है, जहाँ प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, जज, अधिकारी, अमीर और बड़ी संख्या में ग़रीब भी रहते हैं। इसके बावजूद अब दिल्ली में पानी का गंभीर संकट हो गया है। पानी सर्वोच्च मानवीय ज़रूरत है। संविधान में भारत को वेलफेयर स्टेट कहा गया है। मतलब सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है कि वह जनता को सड़क, बिजली, पानी मुहैया करवाए। लेकिन संविधान क्योंकि आजकल राजनीतिक अखाड़े में उलझा दिया गया है, पानी की किसी को फ़िक्र नहीं। जनता को पानी मिले, इससे ज़्यादा मेहनत इस बात पर की जा रही है कि पानी की क़िल्लत का राजनीतिक लाभ कैसे उठाया जाए? विरोधी दल को घेरने के लिए धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं; लेकिन जनता बिना पानी के बेचारगी में खड़ी यह तमाशा देखने को मजबूर है। संविधान की बड़ी-बड़ी क़समें खाने वाले हुक्मरान जनता को पानी नहीं दे पा रहे। टैंकर माफ़िया सिस्टम की इस नाकामी का पूरा फ़ायदा उठा रहा है। क्योंकि माफ़िया की पीठ पर धन्नासेठों का ही नहीं, राजनीति के मज़बूत खिलाड़ियों का भी हाथ है।

क़ुदरत ने भी इस बार गर्मी की कड़ी फटकार मारी। दिल्ली कहने को देश की राजधानी है। जन सुविधाओं का यहाँ जो हाल है, वह किसी भी सूरत में देश के पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी की देहरी पर खड़े होने की झलक नहीं देता। आप यदि देश की राजधानी में आधी आबादी को पानी ही नहीं दे पा रहे, तो पाँच ट्रिलियन की इकोनॉमी भला किस काम की? आज़ादी के 77 वर्षों में आप देश की राजनधानी तक में जनता को पानी उपलब्ध करवाने का पक्का इंतज़ाम नहीं करवा पाये और कहते हैं कि यह आज़ादी का अमृत-काल चल रहा है। जी नहीं; न तो यह अमृत-काल है और न ही राम-राज्य। क्योंकि आप जनसेवा की सौगंध खाकर भी जनसेवा नहीं कर रहे, सिर्फ़ ग़रीब जनता के टैक्स से उपलब्ध सरकारी सुविधाओं में अपनी सत्ता का सुख भोग रहे हैं।

कोई तीन करोड़ आबादी है देश की राजधानी दिल्ली की। इस आबादी को हर रोज़ क़रीब 130 करोड़ गैलन पानी की ज़रूरत होती है। और यह दिल्ली में पानी उपलब्ध करवाने के लिए ज़िम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड के आँकड़े हैं। हो सकता है हक़ीक़त में इससे कहीं ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती हो; क्योंकि कई बस्तियाँ सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं हैं। फिर रोज़ देश भर से यहाँ आने वाले हज़ारों लोग भी हैं, जो यहाँ होटलों आदि में ठहरते हैं। वहाँ भी पानी की खपत होती है। यह कोई पहली बार नहीं है, जब राजधानी में पानी का संकट खड़ा हुआ है। पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन सत्ताधीश इसका कोई ठोस हल नहीं निकाल पाये हैं।

राजधानी में पानी के इस संकट के पीछे कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा है ज़मीनी पानी का अंधाधुंध निकास। यह इसलिए है; क्योंकि माँग और आपूर्ति का अंतर बहुत ज़्यादा है और इसे पाटने के लिए दिल्ली जल बोर्ड के पास एक ही हथियार है- ज़मीनी जल का जमकर दोहन। आज की तारीख़ में यह 135 मिलियन गैलन प्रतिदिन (एमजीडी) पहुँच चुका है, जबकि चार साल पहले क़रीब 86 एमजीडी ही था। ऊपर से पानी प्रबंधन बेहद लचर है। जलस्रोतों में प्रदूषण और पानी के अंतरराज्यीय विवाद दिल्ली में संकट को और बढ़ाते हैं। अमूमन दिल्ली को क़रीब पाँच अरब लीटर पानी की हर रोज़ ज़रूरत होती है; लेकिन उपलब्धता (सप्लाई) औसतन महज़ 3.7 अरब लीटर प्रतिदिन है। लेकिन यह आँकड़ा स्थिर नहीं। ऊपर-नीचे होता रहता है; क्योंकि उपचार संयत्र (डब्ल्यूटीपी) भी कई बार जवाब दे देते हैं। ज़ाहिर है दिल्ली की बड़ी आबादी प्यासी रहने को मजबूर है।

देखें तो दिल्ली हरियाणा में यमुना नदी, उत्तर प्रदेश में गंगा नदी और पंजाब में भाखड़ा नांगल और हिमाचल में रवि-व्यास से मिलने पानी पर निर्भर रहा है। पिछले साल के आँकड़े देखें तो दिल्ली को हरियाणा (यमुना) से औसतन 38.8 करोड़ गैलन, उत्तर प्रदेश (गंगा) से क़रीब 25.3 करोड़ गैलन और पंजाब (भाखड़ा नांगल) से क़रीब 22 करोड़ गैलन पानी, जबकि बाक़ी का हिमाचल से मिलता है, जो कुल मिलाकर क़रीब 95.2 करोड़ गैलन हो जाता है। इस साल की बात करें, तो यह आँकड़ा क़रीब 97 करोड़ गैलन पहुँच गया। हिमाचल से आने वाले पानी में एक पेंच यह है कि यह दिल्ली को सीधे नहीं मिलता।

हिमाचल हरियाणा को अतिरिक्त पानी देता है। इस बार दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी है कि यह पूरा अतिरिक्त पानी दिल्ली को मिलना चाहिए। इस पर सर्वोच्च अदालत ने हिमाचल सरकार को आदेश दिया कि बिना देरी के यह अतिरिक्त पानी दिल्ली के लिए छोड़े। साथ ही हरियाणा सरकार को भी आदेश दिया गया कि हिमाचल के इस पानी को दिल्ली पहुँचाने की व्यवस्था करे।

हिमाचल सरकार ने पहले तो कहा कि पानी छोड़ दिया है; लेकिन इसके बाद अदालत में उसने कहा कि उसके पास अतिरिक्त पानी ही नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने हिमाचल को 137 क्यूसेक अतिरिक्त पानी दिल्ली के लिए छोड़ने का आदेश दिया था। जब पानी के विवाद को लेकर सर्वोच्च अदालत में सुनवाई हुई, तो अदालत ने दिल्ली सरकार को कहा कि जल आपूर्ति के लिए वह अपर यमुना रिवर बोर्ड (यूवाईआरबी) जाए। सर्वोच्च अदालत भी मानती है कि राज्यों के बीच यमुना जल बँटवारा जटिल विषय है और तमाम पक्षों के साथ बातचीत से ही कोई सर्वसम्मत नतीजा निकल सकता है। अदालत का मानना है कि पानी के बँटवारा का विवाद अपर यमुना रिवर फ्रंट पर छोड़ देना चाहिए, जो पहले ही दिल्ली सरकार से मानवीय आधार पर 152 क्यूसेक पानी देने की गुहार लगा चुका है। 

जल संकट में एक बड़ा कारक टैंकर माफ़िया भी हैं। ऐसी दज़र्नों रिपोर्ट्स हैं, जिनमें बताया गया है कि यह माफ़िया अवैध रूप से दिल्ली को जल सप्लाई के इकलौते स्रोत  मुनक नहर से पम्पों के ज़रिये पानी टैंकरों में भरकर उन्हें ज़्यादा पैसे में दिल्ली में बेचता है। यह टैंकर हज़ारों की संख्या में हैं और इनके मालिक धन्नासेठों से लेकर राजनीति के ताक़तवर लोग तक हैं। दिल्ली के एलजी वी.के. सक्सेना दिल्ली पुलिस आयुक्त से पानी की इस चोरी को रोकने के लिए कड़ी निगरानी रखने को कह चुके हैं। दिल्ली सरकार पहले ही अपने हलफ़नामे में इस माफ़िया की ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के मामले में अपने हाथ खड़े कर चुकी है। उसका कहना है कि टैंकर माफ़िया के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। होता, तो वह ज़रूर कार्रवाई करती।

दिल्ली जल बोर्ड ने राजधानी में पानी की आपूर्ति के लिए एक योजना तैयार की है, जिसके ज़मीन पर उतरने का इंतज़ार है। दावा है कि यह ब्लूप्रिंट हक़ीक़त में आने के बाद दिल्ली में पानी संकट को लगभग ख़त्म कर देगा। पानी के रिसाव की समस्या का हल होना बहुत ज़रूरी है। राजधानी के वीआईपी इलाक़ों में तो पानी सप्लाई की पाइपें चकाचक हैं। लेकिन अन्य कई इलाक़ों में वर्षों पुरानी पाइपों से काम चलाया जा रहा है, जो जगह-जगह फटी पड़ी हैं। उनसे न सिर्फ़ पानी की बर्बादी होती है, बल्कि बैक साइफनिंग के कारण गन्दा पानी इन पाइपों से लोगों के घर पहुँच जाता है।  दिल्ली जल बोर्ड ने पानी की माँग और सप्लाई में कमी की देखते हुए 587 ट्यूबवेल लगाने की एक योजना भी तैयार की थी। योजना के पहले चरण में कुछ इलाक़ों में ट्यूबवेल लगे भी, जिनसे 19 एमजीडी पानी उपलब्ध हुआ। लेकिन दूसरे चरण में 259 ट्यूबवेल लगाने के लिए जल बोर्ड ने सरकार से 1,800 करोड़ रुपये की माँग की। दिल्ली सरकार का वित्त विभाग यह पैसे नहीं दे पाया, जिससे योजना अटक गयी।

दिल्ली में पानी के संकट पर राजनीति भी ख़ूब हुई है। हरियाणा में भाजपा की सरकार है और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की। ज़ाहिर है आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी है। धरने हो रहे हैं। प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन मिल-बैठकर समस्या का स्थायी हल निकालने की कोई कोशिश नहीं हो रही। राजधानी को कच्ची जल आपूर्ति जिन चार स्रोतों से होती है, उनमें से 40 फ़ीसदी हरियाणा के ज़रिये यमुना से होती है। हाल के ह$फ्तों में दिल्ली सरकार की जल मंत्री आतिशी आरोप लगा चुकी हैं कि भाजपा की हरियाणा सरकार मुनक नहर से दिल्ली के हिस्से का पानी रोक रही है।

भाजपा इससे इनकार कर चुकी है। उसका आरोप है कि केजरीवाल सरकार अपनी नाकामी का ठीकरा हरियाणा सरकार पर फोड़ रही है। आतिशी आप कार्यकर्ताओं के साथ धरने पर भी बैठीं और सेहत बिगड़ने के कारण उन्हें अनशन ख़त्म करना पड़ा। दिल्ली सरकार 31 मई को राजधानी को ज़्यादा पानी आपूर्ति के हरियाणा को निर्देश देने की माँग के लिए ही सर्वोच्च अदालत का रुख़ किया था।

जल सबसे बड़ी मानवीय ज़रूरत है। लेकिन यही उपलब्ध नहीं हैं, तो सरकारों का होना, न होना कोई मायने नहीं रखता। सरकारों को जनता चुनती है। लिहाज़ा कोई दल या उसकी सरकार राजनीतिक विरोध की भावना से यदि पानी देने जैसे काम में अड़चन पैदा करती है, तो वह मानव के प्रति ही अपराध नहीं करती, बल्कि संविधान की मूल भावना का भी अनादर करती है। समय आ गया है कि पानी जैसे मुद्दों पर मिल-बैठकर रास्ता निकाला जाए। पानी प्रकृति की देन है, यह किसी राजनीतिक दल विशेष की जागीर नहीं है। जनता का उस पर बराबर का हक़ है।

उत्तर प्रदेश में बदल रही दलित राजनीति

उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश में इन दिनों दलित राजनीति फिर चर्चा में है। दरअसल पहली बार में ही आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद का नगीना की लोकसभा सीट से चुनाव जीतना और इसके विपरीत उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी दलित नेता मानी जाने वाली मायावती की पार्टी बसपा की इस बार एक भी लोकसभा सीट न आना इस चर्चा की सबसे बड़ी वजह है।

राजनीति के जानकार अब मानने लगे हैं कि बसपा मुखिया मायावती की राजनीति अब उतार पर है और चंद्रशेखर आज़ाद की राजनीति का उदय हो रहा है यानी एक दलित चेहरा कमज़ोर पड़ता दिखायी दे रहा है, तो दूसरा दलित चेहरा मज़बूत होता दिखायी पड़ रहा है। कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली बसपा आज शून्य पर सिमट चुकी है। हालाँकि इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मायावती राजनीतिक रूप से समाप्त हो गयीं। उत्तर प्रदेश में दलित नेता के रूप में हमेशा मायावती को एक क़द्दावर नेता माना जाएगा। लेकिन इसके इतर सवाल यह है कि क्या अब दलित राजनीति को फिर से उस ऊँचाई तक ले जाने का कारनामा चंद्रशेखर आज़ाद कर सकेंगे? क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार से कांशीराम और मायावती की बढ़ती ताक़त रोकने की कोशिश की थी, उन्हीं दलों ने चंद्रशेखर आज़ाद का रथ रोकने की कोशिशें कीं और शायद आगे भी करेंगे।

हालाँकि मायावती की राजनीति उत्तर प्रदेश में तब उफान पर आयी, जब उन्होंने सिर्फ़ दलितों की राजनीति छोड़कर बहुजन समाज की राजनीति की और सन् 2007 में वह इसी दम पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। इससे पहले जब तक वह ‘तिलक, तराजू और तलवार; इनके मारो जूते चार’ की राजनीति करती रहीं। तब उन्हें मुख्यमंत्री बनने के मौक़े तो मिले; लेकिन कभी भाजपा के साथ गठबंधन करके, तो कभी मुलायम सिंह के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर। लेकिन तब भी वह पूरे पाँच साल शासन नहीं कर सकीं। अब जब वह सियासी और शारीरिक रूप से कमज़ोर होती जा रही हैं, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने भतीजे को भी उनसे सभी अधिकार छीनकर एक प्रकार से चुनाव में प्रचार करने से रोक दिया था। यह अलग बात है कि अब उन्हें दोबारा उन्हें नेशनल को-ऑर्डिनेटर का पद और उत्ताधिकार उनकी बुआ मायावती ने वापस दे दिया है।

इसके साथ ही मायावती दोबारा सिर्फ़ दलित राजनीति पर सिमट गयी हैं। इसके अलावा उन पर दलितों में भी सिर्फ़ अपनी जाति के लोगों का ही भला करने के आरोप भी लगते रहे हैं। इसके इतर आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद न सिर्फ़ एक युवा दलित चेहरा हैं, बल्कि वह संघर्ष करके अपने दम पर राजनीति में आज एक सांसद का मुकाम हासिल कर सके हैं। लेकिन उनकी राजनीति का अंदाज़ सर्व-समाज को साथ लेकर चलने वाला है। चंद्रशेखर की ख़ासियत यह है कि वह किसी से भी बैर नहीं रखते, न ही किसी को कोसते हैं और न ही किसी जाति के ख़िलाफ़ बोलते हैं; बल्कि वह हर पीड़ित के साथ खड़े होते हैं, चाहे पीड़ित किसी भी जाति का हो। उनका कहना है कि वह हमेशा पीड़ितों के साथ खड़े रहेंगे। इसके कई नमूने भी उन्होंने अपने छोटे-से राजनीतिक करियर में पेश किये हैं। मसलन, जब किसान आन्दोलन कर रहे थे, तब न सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद ने उनकी आवाज़ उठायी, बल्कि उनके बीच में भी गये। इसी प्रकार से देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ियों के साथ भी वह खड़े हुए। कहीं पर किसी महिला पर अत्याचार हो, किसी पुरुष पर अत्याचार हो, तो चंद्रशेखर आज़ाद पीड़ित के साथ खड़े हो जाते हैं। यही वजह है कि पहली बार में ही नगीना से चंद्रशेखर एक बड़े अंतर से जीत हासिल करके सांसद चुने गये हैं। वो भी तब, जब उनके ख़िलाफ़ न केवल मायावती ने, बल्कि अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और कांग्रेस ने भी जमकर चुनाव प्रचार किया था।

बहरहाल अगर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की बात करें, तो उत्तर प्रदेश के दलित युवा एक क्रांतिकारी चेहरे की तलाश में थे और उन्हें चंद्रशेखर में अपना वह क्रांतिकारी नेता दिखायी देता है। यही वजह है कि अभी तक दलित वोटर जहाँ बसपा के लिए संगठित माने जाते थे, आज वे चंद्रशेखर आज़ाद के लिए संगठित होते दिख रहे हैं। एक तरफ़ इस बार जहाँ बसपा अपना खाता तक नहीं खोल सकी, वहीं चंद्रशेखर आज़ाद ने बड़ी जीत दर्ज करके दलित राजनीति में न सिर्फ़ एक नये अध्याय की शुरुआत कर दी है, बल्कि ख़ुद को राष्ट्रीय चर्चा में ला दिया है। उनकी चर्चा इस बात को लेकर भी है कि सहारनपुर से इमरान मसूद और मुज़फ़्फ़रनगर में सपा के हरेंद्र मलिक की जीत का श्रेय भी कुछ जानकार उनको ही दे रहे हैं। मुझे याद आता है कि सन् 1989 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से पहली बार कोई दलित महिला चुनाव जीतकर संसद पहुँची थी और वह मायावती थीं। यह सीट भी सहारनपुर की थी और जब वह सन् 1996 में पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, तो भी उन्होंने सहारनपुर की हरौड़ा सीट से ही जीत दर्ज की थी। इसके बाद से ही उनका क़द बढ़ता गया और वह सन् 2007 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वो भी अपने दम पर बिना किसी पार्टी के समर्थन के। अगर हम लोकसभा सीट की बात करें, तो सन् 1989 में 2.1 फ़ीसदी वोट हासिल करते हुए बसपा ने तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। इसके बाद सन् 1991 में भी तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। हालाँकि इस साल बसपा का वोट फ़ीसद गिरकर महज़ 1.8 रह गया था। लेकिन इसके बाद उनका वोट फ़ीसद ज़्यादातर लोकसभा चुनावों में बढ़ा और सन् 2009 में बढ़कर 6.2 फ़ीसदी पर भी पहुँच गया था, जब बसपा के सबसे ज़्यादा 21 सांसद लोकसभा पहुँचे थे। सन् 2014 में फिर बसपा को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिल सकी; लेकिन सन् 2019 में फिर से बसपा ने सपा के साथ गठबंधन बनाकर 3.7 फ़ीसदी वोटों के साथ 10 सीटें हासिल कीं। लेकिन इस बार जब उत्तर प्रदेश में भाजपा ने महज़ 33 सीटों पर ही जीत हासिल की, तब भी मायावती की बसपा के हाथ ख़ाली रहे। राजनीतिक जानकार अब भी मान रहे हैं कि मायावती अपना वोट बैंक भाजपा को ट्रांसफर करना चाहती थीं; लेकिन ये उनसे नहीं हो सका और दलित वोटर आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम), सपा और कांग्रेस की झोली में ज़्यादातर वोट चले गये। हालाँकि फिर भी बसपा को 9.39 फ़ीसदी वोट मिले, जो कि अच्छा-ख़ासा वोट बैंक है। लेकिन उनके एक भी उम्मीदवार की जीत न होने के पीछे कहीं-न-कहीं उनकी रणनीतिक ग़लतियाँ ही रही हैं, जिनमें सबसे बड़ी ग़लती मायावती के द्वारा अपने भतीजे पर बीते लोकसभा चुनाव में शिकंजा कसने की थी।

दरअसल चंद्रशेखर ने कुछ साल पहले जब भीम आर्मी का गठन किया, तब वह भी मायावती को अपनी अग्रणी नेता मानते थे और उनको सम्मान से अपनी कई जनसभाओं, प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने उन्हें अपना अग्रणी नेता कहा भी था; लेकिन बड़ी नेता होने के नशे और चंद्रशेखर पर चले मुक़दमों ने मायावती को चंद्रशेखर की ओर देखने तक नहीं दिया। यहाँ तक हुआ कि मायावती ने चंद्रशेखर को लेकर कोई पॉजिटिव बयान तक नहीं दिया। उस समय अपने कुछ समर्थकों के साथ चंद्रशेखर आज़ाद संघर्ष करते रहे और चुपचाप पीड़ितों की आवाज़ उठाते रहे। मार्च, 2020 में चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी की घोषणा की और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के मिशन को आगे ले जाने, दलितों, वंचितों, शोषितों की आवाज़ बनने का बीड़ा उठाते हुए राजनीति की शुरुआत की। उन्होंने मायावती को बड़ी नेता बताकर ख़ुद को उनके बाद का दलित नेता तक सोशल मीडिया पर कहा, और यह बात साबित कर दी कि कोई इंसान जितना झुककर चलेगा, उसका क़द उतना ही बड़ा होगा। चंद्रशेखर आज़ाद का व्यवहार भी ऐसा है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ चार-पाँच साल में ही काफ़ी बढ़ गया है और वह आज न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि हरियाणा और राजस्थान में भी दलित ही नहीं, बल्कि दूसरी जातियों के युवाओं में भी चर्चित, लोकप्रिय और बिना किसी विवाद के युवाओं के लिए प्रेरणा बन रहे हैं।

बहरहाल इस बार के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में न सिर्फ़ सवर्ण सांसदों की संख्या घटी है, बल्कि दलित और पिछड़ा वर्ग के सांसदों की संख्या भी बढ़ी है। इस बार बसपा की एक भी संसदीय सीट न आने के बावजूद 18 दलित सांसद उत्तर प्रदेश से चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। वहीं ओबीसी वर्ग के तो सबसे ज़्यादा 34 सांसद चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। हालाँकि इसके अलावा 11 सांसद ब्राह्मण, सात क्षत्रिय, पाँच मुस्लिम, तीन वैश्य और दो भूमिहार भी हैं। चंद्रशेखर की किसी से दुश्मनी भी नहीं है और वह दलित सांसदों में सबसे लोकप्रिय सांसद भी हैं। ख़ुद की राजनीतिक पार्टी के मुखिया भी हैं। ऐसे में उनके लिए आगे संभावनाएँ काफ़ी नज़र आती हैं। लेकिन इसके लिए अभी उनकी परीक्षाएँ बहुत होनी हैं। क्योंकि अभी उनका असली उदय हुआ है और वो भी एक सांसद के रूप में। इसलिए अब उनको अपनी पार्टी को खड़ा और बड़ा करने में दिन-रात एक करने होंगे और पार्टी में ईमानदार, मेहनती और राजनीतिक समीकरणों को साधने वाले नेताओं को जोड़ना होगा। इसके साथ चंद्रशेखर के क़द का पता अभी 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में भी चलेगा। चंद्रशेखर पूरे दमख़म से इस उपचुनाव में अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारें, तो हो सकता है कि उनकी झोली में भी कुछ सीटें आ जाएँ। इस प्रकार प्रदेश की राजनीति में भी उनकी अच्छी शुरुआत हो सकती है।

बहरहाल एक ऐसे दलित नेता की देश ख़ासकर उत्तर प्रदेश के दलित समाज को तलाश है, जो उनकी आवाज़ बन सके, तो वहीं ओबीसी समाज को भी एक ऐसे नेता की तलाश है, जो बिना भेदभाव के उनकी आवाज़ बन सके। इस समय उत्तर प्रदेश में दोनों ही वर्गों में ऐसे नेताओं का अभाव है। हालाँकि सभी वर्ग यही चाहते हैं कि उनकी आवाज़ कोई बने और उनके समाज का भला करे; लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यह चाहते हैं कि सबको साथ लेकर चलने वाला कोई नेता हो। इसी सोच के चलते साल 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मायावती को उत्तर प्रदेश की जनता ने सत्ता सौंपी थी। क्योंकि किसी एक वर्ग या एक जाति का नेता पूरे प्रदेश का नेतृत्व नहीं कर सकता। उत्तर प्रदेश में सभी 36 जातियाँ रहती हैं। इसके लिए प्रदेश के ज़्यादातर लोगों की यही सोच है कि उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नेता हो। और ज़ाहिर है कि जो सबकी आवाज़ बनकर उभरेगा, वही सबसे बड़ा नेता बनेगा। चंद्रशेखर आज़ाद ने अभी तक किसी से कोई भेदभाव नहीं किया और वो पीड़ितों के साथ हमेशा खड़े भी दिखते हैं, फिर चाहे वो पीड़ित कोई सवर्ण हो या दलित, पिछड़ा हो या मुस्लिम। कुछ लोगों का दावा है कि चंद्रशेखर की इसी अच्छाई की वजह से उन्हें इस बार न सिर्फ़ दलितों ने, बल्कि पिछड़ों, राजपूतों और मुस्लिमों ने भी वोट दिये हैं। लेकिन राजनीति में चुनौतियाँ कम नहीं होतीं, इसलिए सवाल यही है कि क्या चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश में एक बड़े दलित नेता के रूप में मायावती की तरह या उनसे बड़ा चेहरा बन सकेंगे? हालाँकि चंद्रशेखर के जीतने से प्रदेश में दलित राजनीति के फिर से उभरने की उम्मीद जगी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

मंत्रिमंडल नहीं, अहंकार

शिवेन्द्र राणा

तीसरे दौर में एनडीए की अस्थिर चित्त के जदयू एवं तेदेपा जैसे सहयोगियों के सहारे सरकार बन चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके कई चहेते शपथ ग्रहण कर चुके हैं और अब नये संसद भवन में पहला सत्र भी चल रहा है। संभावना थी कि कम सीटें आने के झटके के बाद सरकार के नुमाइंदों की संरचना बदल जाएगी। कुछ चेहरे बाहर किये जाएँगे, कुछ नये चेहरे मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। यह भी कहा जा रहा था कि सहयोगियों को महत्त्वपूर्ण मंत्रालय मिलेंगे, नहीं तो सरकार गिर जाएगी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सारे कयासों को धता बताते हुए प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल में अपने अधिकांश पुराने साथियों को पदासीन करने सफल रहे। वही पार्टी के नाश-कर्ताओं की जमात फिर से दिख रही है।

भाजपा के कथित चाणक्य ने अपना दबदबा दिखाते हुए एकाधिकार से टिकट बाँटे, पूरे देश में कटु राजनीतिक वातावरण पैदा किया और करवाया। इस हार की ज़िम्मेदारी तय करने के बजाय उन्हें फिर गृह मंत्रालय में बैठा दिया गया। पार्टी को डुबोने में अपने नाकारापन और अपने स्तरहीन बयानों के साथ योगदान करने वाले नड्डा को फिर से अध्यक्ष की कुर्सी दे दी गयी। निरंतर हादसों से रेलवे और सरकार, दोनों की भद्द पिटवा रहे अश्विनी वैष्णव को फिर रेल मंत्रालय मिल गया। अग्निवीर और लॉजिस्टिक के ख़र्च घटाने के नाम पर सेना के ढाँचे को मटियामेट करने वाले राजनाथ सिंह पुन: रक्षामंत्री बन गये। पूरे देश में पेपर लीक और परीक्षा घोटाले हो रहे हैं। लेकिन नीट से लेकर तमाम पेपर लीक के घोटालों के लिए जवाबदेही तय करने के बजाय धर्मेन्द्र प्रधान को फिर से शिक्षा मंत्रालय मिल गया। जीएसटी, महँगाई और मुद्रास्फीति के सम्बन्ध में अजीब-ओ-ग़रीब तर्क देने वाली अपने ही पति से आलोचना सुनने वाली निर्मला सीतारमण फिर से वित्त मंत्री बन गयीं। ऐसे ही कई अन्य अयोग्य सांसद केंद्र में फिर से सत्ता जमते ही मनचाही कुर्सियों से बैठा दिये गये।

अब इसे अहंकार नहीं, तो और क्या कहा जाए कि सरकार की नाक के नीचे अव्यवस्थाएँ फैली हुई हैं; लेकिन इसकी वजह जानने और इससे निपटने में अक्षम ग़ैर-ज़िम्मेदार सांसदों की कमियों को अनदेखा किया जा रहा है। आख़िर इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? मंत्रिमंडल में इन चेहरों के होने का एक ही अर्थ है- नित नये-नये भ्रष्टाचार। भाजपा नेतृत्व का अहंकार इतना तीव्र है कि उसने आत्म-समीक्षा के मार्ग को ही बाधित कर दिया गया है। हालाँकि नितिन गडकरी जैसे व्यक्तित्वों को मंत्रिमंडल में देखना संतोषप्रद है। सत्ता के अहंकार से उपजी मानसिक कुंठा और आत्ममुग्धता स्व-मूल्यांकन का मार्ग अवरुद्ध करके पतनशीलता का मार्ग खोल देती है। यही भाजपा में हो रहा है। लेकिन भविष्य ही बताएगा कि साहेब का अहंकार उन्हें मनमर्ज़ी से कार्य करने के कितने अवसर उपलब्ध कराता है?

इस चुनाव में साहेब एक तरफ़ हिंदुत्व और पंथ-निरपेक्ष के मझदार में फँसे दिखे, तो दूसरी ओर पार्टी के प्रचार को स्व-केंद्रित रखने में उद्यत रहे। इससे भाजपा का मूल काडर रुष्ट दिखा। जैसे कश्मीरी ब्राह्मणों के हितैषी बनकर सहानुभूति बटोरने वाले साहेब को वहाँ के मुस्लिमों के साथ सेल्फी लेने का समय मिल गया; लेकिन शरणार्थी बने हिन्दुओं का हाल-चाल लेने की फ़ुर्सत नहीं मिली। बस उनके नाम पर लफ़्फ़ाजी ही करते रहे। असल में इनकी नोबेल पुरस्कार पाने की चाहत अभी पार्टी को और बुरे दिन दिखाएगी।

जिस धर्म केंद्रित राजनीति ने भाजपा को शीर्ष सत्ताधिकारी बनाया, उसी ने इस बार पार्टी को नकार दिया। यह नकारना इतना तीव्र था कि देश के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों चित्रकूट, अयोध्या, प्रयागराज, बक्सर, रामेश्वरम और रामटेक में भाजपा क्षेत्रीय दलों से पराजित हो गयी। ग़ाज़ीपुर सीट से पारसनाथ राय को चुनाव में उतारा, जिन्होंने कोई दावेदारी ही नहीं की थी। आम लोगों और पत्रकारों से अधिक तो ख़ुद पारसनाथ राय अपनी उम्मीदवारी से आश्चर्यचकित थे। आधे से अधिक प्रचार का समय तो पूरे ज़िले में उनका परिचय कराने में ही गुज़र गया। प्रतापगढ़ सीट से भी विरोध के बावजूद संगम लाल गुप्ता को दोबारा टिकट दे दिया गया। इसी तरह आजमगढ़, कन्नौज, चंदौली, अमेठी और अयोध्या जैसी कई महत्त्वपूर्ण सीटों पर भी उम्मीदवारों के विरुद्ध आम जनता की शिकायतों और नाराज़गी की चर्चा आम थी; लेकिन तब भी उन्हें मैदान में उतारा गया। आज भाजपा इवेंट ऑर्गेनाइजर का संगठन बनकर रह गयी है। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस के जिस व्यक्ति पूजन परंपरा के संघ-जनसंघ एवं भाजपा कटु आलोचक रहे हैं, आज वही संस्कृति भाजपा में ज़हर बनकर एक दशक से उसका चारित्रिक पतन कर रही है और संगठन अब भी आँखें मूँदे बैठा है।

स्वतंत्र भारत में छ: दशकों तक निर्द्वंद्व राज करने वाले कांग्रेसियों के घमंड से संक्रमित होने में भाजपा नेताओं को मात्र एक दशक ही लगा। आप साहेब और कथित चाणक्य ही नहीं, बल्कि उनके भरोसे कुर्सियाँ पाने वाले सभी महिला-पुरुष नेताओं का मीडिया के सामने आने से लेकर पर्दे के अंदर तक का आचरण देखिए, चरम अहंकार से भरा हुआ है। मानो ये लोग स्वयं ख़ुदा समझ बैठे हों। जैसे पिछले कार्यकाल में स्मृति ईरानी का अहंकार इस स्तर पर था कि वह अमेठी में विरोधियों को तो छोड़िए, भाजपा कार्यकर्ताओं को भी सार्वजनिक रूप से पमानित करने लगीं थीं।

पार्टी काडर की कौन कहे, साहेब और चाणक्य के चाटुकार दरबारियों ने पार्टी के प्रतिबद्ध नेताओं को निरंतर अपमानित किया। दूसरे दलों से आयातित नेताओं, वंशवादियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को पदासीन करके इन लोगों ने भाजपा-संघ की दूसरी पीढ़ी के उभरते नेतृत्व को मटियामेट कर दिया गया। काफ़ी भाजपाई सार्वजनिक रूप से भले इस बात को स्वीकार न करें; लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम से विपक्षी दलों से अधिक तो वही प्रसन्न हैं। कमाल है कि भाजपा सत्ता के बाहर जितना ज्ञान नैतिकता पर देती है और काडर के सम्मान का दम भरती है, सत्ता पाते ही वो सारा भाव तिरोहित हो जाता है। सन् 2004 में पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और हवाबाज़ी ने अगली विजय की प्रबल संभावनाओं को ध्वस्त किया था; लेकिन भाजपा ने अतीत से कुछ भी न सीखने की क़सम खा रखी है। आज भी भाजपा नेता 2024 में पुन: उसी रास्ते पर हैं। लेकिन तब भी सवाल मौज़ूँ है कि आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि साहेब पुन: अपनी महत्त्वाकांक्षा पार्टी-संगठन पर लादने में सफल हुए?

असल में पिछले एक दशक में संघ से लेकर भाजपा तक में एकाधिकार समर्थक समूह के ऐसे कील-काँटे सेट किये गये हैं कि विभिन्न पदों पर क़ाबिज़ यह रीढ़-विहीन सुविधाभोगी वर्ग मलाई चाटने का अभ्यस्त हो चुका है और जो प्रतिवाद करने और सवाल उठाने में सक्षम थे, उन्हें सुनियोजित तरीक़े से ठिकाने लगा दिया गया। एक वक़्त हुआ करता था, जब भाजपा में नीति-निर्णयन से लेकर चुनावी प्रबंधन एवं टिकट वितरण सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया द्वारा सुनिश्चित की जाती थी। लेकिन पिछले सात-आठ वर्षों में पार्टी में एकाधिकार की व्यवस्था बन गयी, जिस पर मोदी-शाह का पूर्ण अधिकार हो गया। आख़िर इस आम चुनाव में भाजपा की इस राजनीतिक दुर्गति के लिए इन दोनों गुजराती बंधुओं की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जानी चाहिए? समीक्षा सिर्फ़ भाजपा नेतृत्व की ही नहीं, बल्कि इनकी दरबारी फ़ौज की भी होनी चाहिए।

एक समय जिस भाजपा में वंशवाद-परिवारवाद की राजनीति को एक नैतिक अपराध माना जाता था, आज उसी में बीसीसीआई प्रमुख के पद से लेकर लोकसभा और विधानसभाओं तक के टिकट सगे-सम्बन्धियों को बाँटे जाते हैं। पार्टी के लिए सड़कों पर पसीना बहाने वाले लोग अपमानित किये जाते हैं। बाहर से आये सेटर और घुसपैठिये मखमली कारपेट के रास्ते बुलाकर सत्ता की कुर्सियों पर बैठाये गये। पार्टी के पूरे सांगठनिक चरित्र को पतित कर दिया गया और इस दुर्गति तक पहुँचाने वालों से सवाल करने के बजाय उन्हें फिर से उनके मनचाहे सिंहासन दिये जा रहे हैं। आज भाजपा नेतृत्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस की नीति की वकालत कर रहा है और इस मामले में बिलकुल ईमानदार भी दिखना चाहता है। कामचोर लोग इस नीति का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन प्रबुद्ध छोड़िए, किसी आम भारतीय से पूछकर देखिए, वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का प्रबल समर्थन करता मिलेगा। फिर भी भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाहियाँ चयनित तरीक़े से हो रही हैं। केंद्र द्वारा ईडी, सीबीआई के दुरुपयोग, दबाव की राजनीति और कई राज्यों में ऑपरेशन लोटस के नाम पर विरोधियों को जेल भेजने और सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल का जनता में कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया। वैसे भी पिछले पाँच वर्षों में भाजपा के राजनीतिक शुद्धिकरण मशीन की चर्चा ख़ूब हुई। लेकिन पार्टी ने ऐसी आलोचनाओं पर कान धरना भी गवारा नहीं समझा, जिसका नतीजा आज सामने है।

अब भाजपाई हार की खीझ में जनता को कोस रहे हैं, जो समझ के परे है। जब सन् 2014 और 2019 में इसी जनता ने सिर-माथे पर बैठाया था, तब सब अच्छा था; और आज जब उसने आईना दिखा दिया, तो आप गालियाँ देने पर उतर आये। सत्ता किसी की बपौती नहीं है। जो काम करेगा, उसे जनता चुनेगी, जो गड़बड़ी करेगा, उसे उतार फेंकेगी। उसे कोसने वाला कोई कौन होता है? प्रधानमंत्री और उनके अनुगामी स्वयंभू मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को पतन की ओर धकेलने वाला चाटुकार समूह ही नहीं, बल्कि भाजपा के सियासी रणनीतिकारों को आम जनमानस की समझ पर संदेह नहीं करना चाहिए। क्योंकि लोगों को पता है कि किसे सत्ता सौंपनी है और किसे ज़मीन दिखानी है।

भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि हारकर भी उसकी जीत में इस बार बहुत हद तक विपक्ष के नकारापन का भी योगदान है। यदि ज़मीनी संघर्ष से तपे-परखे नेता इस बार विपक्ष में होते, तो भाजपा इस चुनाव में बुरी तरह एक कमज़ोर विपक्ष बन जाती। पिछले 10 वर्षों में सिलसिलेवार कई जन-विरोधी कार्यों, भाजपा के परिवारवाद, भ्रष्टाचार, वैश्विक छवि के पीछे पड़ोसी देशों से रिश्ते बिगाड़ने और साहेब पर होने वाले बड़े ख़र्च जैसे तमाम मुद्दों पर भाजपा की ढंग से घेरेबंदी हो सकती थी। लेकिन वंशवादी सत्ता की उपज से निकम्मे बने विपक्षी दल एंटी-इनकम्बेंसी के भरोसे बैठे रहे। जनता की स्वत:स्फूर्त सोच ने ही उन्हें पहले से अधिक सीटें दी हैं। जनता पार्टी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में लिखते हैं- ‘वर्ष 1980 में हमने यह भी सीखा कि गहरा मोहभंग भी उन्हें (मतदाताओं को) उस पार्टी को सज़ा देने के लिए उकसा सकता है, जो उनकी आशाओं पर खरा नहीं उतरती।’ उम्मीद है भाजपा अपने पितृ-पुरुष के राजनीतिक अनुभव से कुछ सीखेगी।

उत्तर भारत में मानसून की एंट्री, भीषण गर्मी से लोगों राहत

नई दिल्ली: पंजाब के कई शहरों में आज बारिश की बूंदों ने लोगों को उमसभरी गर्मी से राहत दिलाई। वहीं आज उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दक्षिण-पश्चिमी मानसून ने पूरी तरह कवर कर लिया है। इसके साथ ही मानसून गुजरात, राजस्थान के कुछ हिस्सों, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बिहार में आगे बढ़ गया है। मानसून उत्तरी पंजाब में भी दाखिल हो गया है। यूपी और मध्य प्रदेश में 26 जून को मॉनसून प्रवेश कर चुका है। भीषण गर्मी से लोगों का हाल बेहाल था। IMD के मुताबिक, अगले 24 घंटों के दौरान, केरल, कर्नाटक, कोंकण, गोवा, गुजरात, लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ हिस्सों में मध्यम से भारी बारिश संभव है।पश्चिम उत्तर प्रदेश में 28 से 29 जून को भारी बारिश की संभावना जताई गई है। इसके साथ ही मानसून का असर हिमालयी राज्यों पर भी दिखाई देगा। यहां भी एक दो दिन में ये एक्टिव होगा।

दर्दनाक हादसाः तीर्थयात्रियों से भरी मिनी बस की ट्रक से जोरदार भिड़ंत,13 लोगों की मौत

कर्नाटक :  कर्नाटक के हावेरी जिले में बड़ा सड़क हादसा हुआ है। यहां ब्यादगी तालुक में शुक्रवार तड़के एक मिनी बस के खड़े ट्रक से टकरा जाने से 13 लोगों की मौत हो गई और दो अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए।

पुलिस ने बताया कि पीड़ित शिवमोगा के रहने वाले थे और देवी यल्लम्मा के दर्शन के लिए तीर्थयात्रा के बाद बेलगावी जिले के सवादट्टी से लौट रहे थे। घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है और उनकी हालत गंभीर बताई जा रही है।

पुलिस ने कहा कि ऐसा लगता है कि बस के चालक को नींद आ गई थी, जिसके कारण यह दुर्घटना हुई। पुलिस ने कहा कि आगे की जांच जारी है।