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ज़िन्दगी देने वालों को ही लावारिस छोड़ते लोग

कोरोना वायरस से बचाव बहुत ज़रूरी है। लेकिन इससे रिश्तों में फीकापन न आ जाए, इस बात का ध्यान सभी को रखना चाहिए। कुछ लोग इस बात का ध्यान इसलिए नहीं रख रहे हैं, क्योंकि उन्हें केवल अपने जीवन का मोह है, अपनी सुरक्षा की चिन्ता है। ऐसे लोगों में बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो मृत्यु के भय से अपनों को भी छोडक़र भाग खड़े होते हैं। इस दौरान ऐसी कई तस्वीरें देखने को मिल रही हैं। कोरोना वायरस का लोगों में इतना भय फैल चुका है कि वे अपनों की मृत्यु के बाद उनका अन्तिम संस्कार तक नहीं कर रहे हैं।

नोएडा के सेक्टर-9 में रेस्टोरेंट चलाने वाले पंजाब के हरजीत सिंह उर्फ गोल्डी (बदला हुआ नाम) की हाल ही में अचानक हार्ट अटैक से मौत हो गयी। उनकी डॉक्टरी जाँच हुई, उन्हें कोरोना नहीं था। अस्पताल प्रशासन और उनके परिचितों और पुलिस की मदद से उनका पाॢथव शरीर उनके पंजाब स्थित घर पहुँचाया गया। मगर बेहद अफसोसजनक बात यह रही कि उनकी माँ, पत्नी और बच्चों ने उन्हें हाथ लगाना तो दूर, अन्तिम विदा देने का भी साहस नहीं किया। उनकी अन्तिम यात्रा में भी कोई नहीं गया, यहाँ तक कि उन्हें मुखाग्नि भी उनके चचेरे भाई ने पीपीई किट पहनकर दूर से ही दी। सोचिए, अगर पुलिस प्रशासन और एम्बुलेंस में तैनात स्वास्थ्यकर्मी उनके मृत शरीर को श्मशान घाट तक ले जाकर उसका अन्तिम संस्कार करने का आवश्यक काम नहीं करते, तो भला उनका क्या होता? आिखर कितना भी बुरा समय चल रहा हो; कितनी ही भयंकर महामारी का दौर क्यों न हो; कितना भी बचाव करने की हम सबको ज़रूरत क्यों न हो; मगर किसी मरे हुए इंसान के शव को यूँ ही सडऩे के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता। सवाल यह है कि वही घर वाले, जिन्हें इंसान कमाकर खिलाता है, उसके मरने के बाद लावारिस क्यों छोड़ रहे हैं। वही बच्चे, जिन्हें मरने वाले ने न केवल ज़िन्दगी दी, बल्कि उन्हें पालपोसकर बड़ा भी किया; कैसे अपने ही माता-पिता को मृत्यु के बाद लावारिस छोड़ सकते हैं? या कहें कि किस कठोर दिल से वे ऐसा कर पाते हैं? वह पत्नी या पति, जिसमें किसी की ज़िन्दगी एक-दूसरे के बिना चलती नहीं है; वह उस जीवनसाथी को मरने के बाद कैसे लावारिस छोड़ देता है? वह भी इस हद तक कि हाथ लगाना तो छोड़ो, उसका अन्तिम संस्कार करने तक को आगे नहीं बढ़ता।

जबसे कोरोना वायरस जैसी महामारी फैली है, भारत में ऐसे अनगिनत मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें अपने ही लोगों ने मरने वालों का अन्तिम संस्कार तक करने से मना कर दिया है। ऐसे में मानवता और प्यार के पैरोकार कुछ लोग सामने आ रहे हैं। इनमें अधिकतर वे लोग हैं, जिनका मरने वाले से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं निकलता है। पर मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानने वाले कुछ लोग ऐसे में सामने आये और लावारिस की तरह अपनों के शवों को छोडऩे वालों के लिए एक मिसाल कायम करते हुए शवों का अन्तिम संस्कार किया। देश भर में ऐसे मामलों को अगर गिनकर उन पर लिखने बैठ जाएँ, तो एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इसलिए केवल मानवता और इंसानों में प्यार की भावना को ज़िन्दा रखने के लिए कुछेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले के एक गाँव में एक हिन्दू की मौत के बाद उसके शव को काँधा देने के लिए हिन्दू पड़ोसी ही आगे नहीं आये। ऐसे में गाँव के कुछ मुस्लिम लोग शव को काँधा देने आगे आये। इस घटना में सुखद और हृदय को तसल्ली देने वाली बात यह है कि शव को काँधा देने आगे आये मुस्लिमों ने न केवल हिन्दू रीति में बोले जाने वाले ‘राम नाम सत्य है’, ‘बोल हरि, हरि बोल’ बोलते रहे, बल्कि 15 किलोमीटर दूर श्मशान तक जाकर अन्तिम संस्कार में पूरे दिल से शामिल हुए। इसी तरह मुम्बई के बांद्रा में एक हिन्दू बुजुर्ग प्रेमचंद बुद्धलाल की मृत्यु पर उसके शव को काँधा देने के लिए जब पड़ोसी आगे नहीं आये और रिश्तेदार लॉकडाउन के चलते नहीं पहुँच सके, तो बुजुर्ग के मुस्लिम पड़ोसी अन्तिम संस्कार में शामिल हुए। यहाँ भी मुस्लिम युवकों ने ‘राम नाम सत्य है’ का लगातार उद्घोष किया।

कानपुर की घटना में भी मुस्लिम युवकों ने ऐसी ही मिसाल पेश की। यहाँ के नरोना रोड पर कौशल प्रसाद अकेले रहते थे। उनकी पत्नी की बहुत पहले ही मौत हो चुकी थी। कौशल प्रसाद की एक बेटी है, जो अपनी ससुराल सीतापुर में रहती है। लॉकडाउन के दौरान कौशल प्रसाद की मौत हो गयी। बेटी को खबर की गयी, पर वह मजबूरी में नहीं पहुँच सकी। कई हिन्दू पड़ोसी कौशल प्रसाद के शव को हाथ लगाना नहीं चाहते थे। ऐसे में कुछ हिन्दू और कुछ मुस्लिम पड़ोसियों ने मिलकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इस घटना में भी मुस्लिमों ने न केवल शव को काँधा दिया, बल्कि ‘राम नाम सत्य है’ का लगातार उद्घोष किया। ऐसा ही नज़ारा मध्य प्रदेश स्थित भोपाल के टीलाजमालपुरा इलाके में देखने को मिला। यहाँ अप्रैल में किसी अन्य बीमारी की वजह से एक हिन्दू महिला की मौत हो गयी थी। मौत के बाद महिला के परिजन तक उसके अन्तिम संस्कार को आगे नहीं आये, तब इलाके के मुस्लिम युवाओं ने शव के अन्तिम संस्कार का इंतज़ाम किया और छोला विश्राघाट के श्मशान घाट ले जाकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इस घटना की एक फोटो मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के ट्वीटर पर अपलोड हुई थी, जिसके बाद यह घटना काफी चॢचत हुई।

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले के लालगंज इलाके में भी इसी तरह की एक घटना सामने आयी। यहाँ स्थित दाँदूपुर पड़ान गाँव में एक अकेले व्यक्ति, जो परिवार न होने के चलते साधु हो गये थे; की मौत हो गयी। कोरोना के डर से बहुत से हिन्दू साधु के शव को हाथ लगाने से डरते रहे। यहाँ तक कि साधु के रिश्तेदार भी उनके शव को हाथ लगाने को तैयार नहीं हुए। ऐसे में गाँव के मुस्लिम युवकों ने साधु की अन्तिम यात्रा निकाली। साधु की मौत के बाद मुस्लिम युवकों द्वारा उनके अन्तिम संस्कार कीदूर-दूर तक चर्चा हो रही है। मध्य प्रदेश के भोपाल में ही एक ऐसा मामला भी सामने आया, जिसमें बुजुर्ग की मौत के बाद उसके परिजनों ने शव लेने तक से मना कर दिया। यह घटना भी पंजाब वाली घटना की तरह ही हृदय विदारक है। इस घटना में तो बुजुर्ग को कोरोना था; लेकिन दूर से ही सही, परिजनों को अन्तिम संस्कार तो करना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बुजुर्ग को सरकारी अस्पताल से ही सीधे श्मशान घाट ले जाया गया और वहाँ के तहसीलदार ने मुखाग्नि दी। परिवार के सभी लोग गैरों की तरह काफी दूर खड़े होकर शव को जलते देखते रहे, पर हाथ लगाने नहीं आये। मगर तहसीलदार ने बिना कुछ कहे, अपनी जान जोखिम में डालकर शव का अन्तिम संस्कार किया। इतना ही नहीं, हिन्दू धर्म में शव दाह के तीसरे दिन मृतक की अस्थियाँ बीनी जाती हैं, जिन्हें एक कलश में बन्द करके गंगा में प्रवाहित करने का रिवाज़ है। बुजुर्ग के परिवार वालों ने वह भी नहीं किया।

मौत का इतना डर? कि अपने ही लोग कोरोना के चलते, दूसरी बीमारियों से या सामान्य मौत के बाद भी शव को हाथ लगाने से भी कतरा रहे हैं! वह भी तब, जब मरने वाले अपने थे! सोचिए, कि जिन्होंने पैदा किया। पालन-पोषण किया। जिन्होंने हर सुख-दु:ख में साथ दिया। कमाकर खिलाया। उन्हीं लोगों को मरने के बाद अपने ही लोग अन्तिम विदा तक नहीं कर रहे हैं। क्या यह ठीक है? क्या इससे इंसानियत, अपनापन, प्यार, एक-दूसरे के लिए मेहनत करने का ज•बा, मोह, परिवार बढ़ाने की परम्परा, संस्कार, संस्कृति, पारिवारिक एकता और विश्वास आदि खत्म नहीं हो रहे? जब अपने ही लोग मरने के समय इस तरह छोडऩे लगेंगे, तो कौन किसके लिए अपने जीवन के सुख त्यागकर मेहनत करेगा? कभी सोचा है कि अगर कोई भी किसी के मरने पर हाथ तक नहीं लगायेगा, तो मरने वालों के शव सडऩे लगेंगे और जो बीमारी आज महामारी बनी हुई है, वह और भी भयंकर रूप धारण करके और तेज़ी से फैलती चली जाएगी। यही नहीं अन्य कई बीमारियाँ भी बुरी तरह बढ़ती चली जाएँगी, जिन्हें रोकना मुश्किल हो जाएगा।

इन घटनाओं का दूसरा पहलू यह है कि एक तरफ तो कुछ लोग हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को, जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब कहते हैं; खत्म करने पर तुले हैं। वहीं दूसरी ओर उसे अभी भी बहुत लोग हैं, जो बचा रहे हैं। इस देश का न तो कोई एक धर्म है, न कोई एक संस्कार है और न इस देश में कोई एक जाति है। ऐसे में इस देश की एकता को सँभाले रखना आसान काम नहीं है। इसलिए यहाँ कहा जाता है कि मानवता सबसे बड़ा धर्म है। कुछ लोग इसी मानवता के धर्म को बचाते रहे हैं और सदा बचाते रहेंगे।

राहत पर राजनीति और एफआईआर

आज जब कोरोना जैसी भयावह महामारी हर रोज़ लोगों को निगलती जा रही है। लोग भयभीत हैं। श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में बीमारी से मरने वालों की लाशें ज़्यादा आ रही हैं। समूचा विश्व घरों में कैद होकर रह गया है। लोग रोटी के लिए हाथ-पाँव मार रहे हैं। देश में सरकारें लोगों को राहत पहुँचाने की कोशिश में जुटी हैं। ऐसे में भी हम सरकार के आपदा प्रबन्धन को राजनीतिक चश्मे से देखने में जुट जाएँ। असंगतियों में सुधार की सलाह की बजाय सुरक्षा सेनानियों का सिर फोडऩे में लग जाएँ। होम क्वारंटाइन किये गये लोगों को दिये जाने वाले भोजन में साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलने लगें। …यह तो ठीक नहीं।

राजस्थान के एक नामचीन साहित्यकार ने यह नैतिक बात दलीय सियासत में गले तक डूबे उन नेताओं के रुदाली-प्रलाप से आजिज़ होने के बाद कही है, जो राज्य सरकार के आपदा प्रबन्धन को मज़हबी पलड़ों में बाँट रहे हैं। भाजपा विधायक मदन दिलावर का वायरल हुआ वीडियो इस तल्ख माहौल में जलते अंगारों के जैसा है। मिसाल के तौर पर उन्होंने कहा कि जयपुर के रामगंज इलाके में होम क्वारंटीन किये गये मुस्लिमों को महँगा और स्वादिष्ट भोजन दिया जा रहा है, जबकि हिन्दू लोग सामान्य भोजन को भी तरस रहे हैं। भाजपा नेता के ये व्यंग्यबाण सीधे-सीधे राज्य सरकार के आपदा प्रबन्धन को चुनौती हैं। बहरहाल इन आरोपों ने सरकार की निष्पक्षता पर निशाना साधते हुए लोगों में संशय पैदा किया है। लेकिन इस विषैली राजनीति ने जो उन्माद की विषबेल रोपी है? उसकी कीमत कौन चुकाएगा? कुछ ऐसे ही विषबुझे बयान विधायक अशोक लाहोटी ने भी दिये हैं। उनका कहना है कि कोरोना संकट की इस घड़ी में सरकार तब्लीगी समाज की आवभगत में लगी हुई है। जबकि अन्य समुदाय के लोगों को सुबह की चाय भी नसीब नहीं हो रही है। उन्हें भोजन भी मिल रहा है, तो दोपहर 3:00 बजे बाद; वो भी सूखी रोटियाँ और बासी दाल? लाहोटी का आरोप है कि इलाज, जाँच और दवाइयों में भी भेदभाव बरता जा रहा है। यह सरकार की तुष्टिकरण की राजनीति नहीं तो और क्या है? इतना ही नहीं, भाजपा विधायक राजेन्द्र सिंह राठौड़ आरोप की दौड़ में एक कदम आगे रहे। उन्होंने स्क्रीनिंग के आँकड़ों को झूठा बताते हुए स्वास्थ्यकॢमयों को ही बेचैन कर दिया है।

भाजपा नेताओं द्वारा माहौल खराब करने पर चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा ने कहा है कि इससे सुरक्षा सेनानियों का मनोबल नहीं टूटेगा, तो क्या होगा? बहरहाल कांग्रेस ने मिथ्या आरोपों को लेकर विधायक मदन दिलावर के खिलाफ कोटा के महावीर नगर थाने में धारा-505(1) 505(2) 505 (3) आपदा प्रबन्धन की धारा-54 और महामारी आधारित धारा-3 के तहत शिकायत दर्ज करा दी है। इसी प्रकार विधायक अशोक लाहोटी के विरुद्ध भी थाना मानसरोवर में इन्हीं धाराओं के तहत कांग्रेस के रामचंद्र देवेन्द्र ने शिकायत दर्ज करायी है।

दुस्साहस की भी अपनी एक कूटनीति होती है। इतिहास की सबसे बड़ी आपदा के दौरान प्रबन्धन में साम्प्रदायिक सूराख खोजने की आदत वाले भाजपा नेताओं को सोचना चाहिए कि अगर ऐसा था, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गहलोत की सराहना क्यों की? उन्होंने कहा कि मैं गहलोत जी को बधाई दूँगा कि उन्होंने इस संकट से उबरने केेे लिए कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये। उन्होंने यह भी कहा कि राजस्थान ने एक दिशा दिखायी है। सभी राज्यों को इसका अनुसरण करना होगा। ज़ाहिर है कि गहलोत के प्रयास आपदा नियंत्रण पर 100 टंच सुधार साबित हुए। लेकिन सियासी विपक्षियों की नामुराद सियासत को क्या कहा जाए, जो कि प्रादेशिक आपदा प्रबन्धन को साम्प्रदायिक बतोलबाज़ी में फँसाकर उसे मुँह के बल गिराने पर तुले हुए है? रिश्तों के रसायन को बिगाडऩे की कोशिशों पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान से शायद ही कोई उपद्रवी ही असहमत होगा। उन्होंने कुछ समय पहले ही सख्त लहज़े में कहा था कि ज़रूरत इस समय अफवाहों से सावधान रहने की और समाज विरोधी लोगों से सख्ती से निपटने की है। कुछ सिरफिरे लोग जानबूझकर माहौल खराब कर रहे हैं। ऐसे लोगों को कानून का पाठ पढ़ाने की सख्त ज़रूरत है। विश्लेषकों की मानें, तो राजनीतिक दलों की सामान्य धारणा यही रही है कि वे हर हाल में अपना फायदा तलाश करते हैं। अगल मौज़ूदा वैश्विक महामारी के समय में भी उनके विचारों में सुधार नहीं आता है, लोगों से उनकी सम्वेदनाएँ नहीं जुड़ती हैं, तो यह तय है कि ऐसे नेता जनता का भला नहीं कर सकते। बहरहाल आज जब सरकारों के कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा हो रही है, तो राज्यों को चाहिए भरपूर मदद। आज जब राज्यों की वित्तीय सेहत डाँवाँडोल है, तो वीसी के दौरान गहलोत प्रधानमंत्री से यह अंदेशा साझा करने से नहीं चूके कि कोरोना से ज़्यादा तो कहीं भूख ही लोगों की जान न ले ले! उन्होंने आॢथक सुधार के लिए 20 लाख करोड़ की ज़रूरत बताते हुए कहा कि प्रदेश का आॢथक नक्शा बिगड़ चुका है।

इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरत उद्योगों, व्यापारिक संस्थानों, मीडिया संस्थानों, रियल एस्टेट आदि क्षेत्र के साथ-साथ दैनिक मज़दूरों, छोटे श्रमिकों-कर्मचारियों और कर्ज़दारों राहत देने की है। विभिन्न चरणों में धीरे-धीरे लॉकडाउन में ढील देकर आॢथक गतिविधियाँ चलाने की ज़रूरत है। अन्यथा कोरोना से ज़्यादा लोग भूख से मर जाएँगे। हालाँकि राज्य सरकार का अपने स्तर पर किया गया नवोदय भी सराहा जाना चाहिए, जिसके तहत दो साल के लिए विधायक कोष के तहत आवंटित राशि को स्वास्थ्य क्षेत्र के विकास के लिए समर्पित कर दिया गया है।

अगर राहत कार्यों में फिज़ूल की मीन-मेख को सच मान लिया जाए, तो इन तथ्यों को से कैसे मुँह मोड़ा जा सकता है कि महाराष्ट्र और तमिलनाडू के बाद राजस्थान देश में सबसे अधिक कोरोना की जाँचें करने वाला तीसरे नम्बर का राज्य बन गया है। रिपोर्ट लिखे जाने तक राजस्थान ने एक लाख से ज़्यादा सेंपल लेने का आँकड़ा छू लिया। हालाँकि कोरोना वायरस के नये मामले लगातार सामने आते जा रहे हैं। बढ़ते संक्रमण को देखते हुए सरकार और सक्रियता दिखा रही है। सूर्य नगरी जोधपुर में ‘एम्स’ और ‘एस.एन. मेडिकल कॉलेज में लगातार संदिग्धों की जाँच हो रही है और संक्रमितों का इलाज चल रहा है। बहरहाल लोकडाउन को कोरोना वायरस का तोड़ समझा जाए, तो यह भी एक अच्छी खबर हो सकती है कि राजस्थान में मिलावटखोरों पर ज़बरदस्त गाज गिरी है। कोरोना से पहले इस सूबे में रोज़ 6 लाख लीटर नकली दूध बिक रहा था। अब सप्लाई रुक-सी गयी है, जिससे धन्धा बन्द है।

कोरोना से भयंकर ज़ुबान

भाजपा नेताओं ने क्या हर मौके पर ज़हरीली ज़ुबान बोलने का मन बना लिया है। कोरोना की विभीषिका के दौरान इन नेताओं ने ऐसी घृणित मिसाल कायम की है, जिसकी गूँज बरसों तक सुनायी देगी। कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता रामसिंह कस्वां का कहना है कि कोरोना से कहीं ज़्यादा खतरनाक तो भाजपा नेताओं की ज़हरीली ज़ुबान है; जो हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को जलाकर राख कर देगी। कोरोना पर तो हम निश्चित रूप से काबू पा लेंगे। लेकिन इन टूटे हुए रिश्तों का क्या होगा?, जो बिगाड़े जा रहे हैं। इनको ठीक करना आसान नहीं हो पाएगा। कोरोना की मार से बुरी तरह जख्मी लोगों का दर्द समझने के बजाय भाजपा नेता उनका धर्म और जाति टटोल रहे हैं; ताकि वे साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का दाँव खेल सकें। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर नेताओं का गुस्सा फूट रहा है, तो इसलिए कि गहलोत ने संक्रमितों के आँकड़े जारी करने में धर्म-जाति और समुदाय का उल्लेख नहीं होने दिया। गहलोत देश के पहले मुख्यमंत्री कहे जाएँगे, जिन्होंने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की कोशिशों पर करारा प्रहार करते हुए कह दिया कि महामारी का कोई धर्म और कोई जाति नहीं होती। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी गहलोत की बात की तस्दीक करते हुए साफ कर दिया कि संक्रमितों के जारी किये जाने वाले आँकड़ों में धर्म-जाति का उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए। बाद में केंद्र सरकार ने भी गहलोत की बात को उचित ठहराया। लगता है भाजपा नेता कुर्सी के सम्मोहन में बँधे हुए हैं, जो हर समय साम्प्रदायिक धु्रवीकरण से चिपके रहना चाहते हैं। जिस बेशर्मी के साथ जो सियासी लोग साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का पत्ता खेल रहे हैं, वे आिखर राहत कार्यों में नज़र क्यों नहीं आते? अलबत्ता साम्प्रदायिकता के कंगूरों पर बैठकर ऐसा नज़ारा देखने को बेताब रहते हैं कि किसने किसको मारा? कौन हिन्दू था? कौन मुसलमान? लेकिन सवाल है कि धाॢमक तनाव के ऑक्टोपस ने देश-प्रदेश को जिस तरह डस लिया है, अब उसकी दवा तलाशना भी बहुत मुश्किल काम है। सबसे बड़ी दिक्कत तो इन नेताओं की मानसिकता की है, जो झूठे वीडियो वायरल करने की दौड़ में सबसे आगे हैं। सवाल है कि कोरोना जेहाद के अँगारे मज़हबी भाईचारे की झोली में कौन फेंक रहा है? ट्वीटर के तयशुदा कायदों में तोड़-फोड़ कौन कर रहा है? नफरत की कीचड़ में सनी हेट स्पीच कौन दे रहा है? थाईलैंड के फेंक ट्वीट को भारत का बताकर किसने जारी किया? बड़ा सवाल तो यह है कि महामारी से डरे और पीडि़त लोग वायरस से लड़ें? कोरोना वायरस से या साम्प्रदायिक धु्रवीकरण वाले नफरस के वायरस से? जो कोरोना से कहीं ज़्यादा पैना और खतरनाक है। हमारा खयाल है कि उन्हें दोनों से ही लडऩा चाहिए। एक से सफाई और सोशल डिस्टेंसिंग रखकर और दूसरे से आपसी सद्भाव और भाईचारा बढ़ाकर।

कोविड-19 के बाद भारत में कैसे होगा आॢथक पुनरुद्धार

कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया है। इसने मानव जीवन के लिए खतरा पैदा कर दिया है, क्योंकि इसे नियंत्रित करने के लिए अभी तक कोई वैक्सीन या दवा नहीं बन सकी है। वायरस के प्रसार को रोकने के लिए, सरकारों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशा-निर्देशों को ही सामाजिक रूप से लागू करने के लिए स्वीकार किया है। संक्रमित व्यक्तियों को बाकी आबादी से अलग करके और रोगियों को दो सप्ताह की निॢदष्ट अवधि के लिए अलग रखकर।

लॉकडाउन को आपसी दूरी के एक मॉडल के रूप में अपनाया गया है। लॉकडाउन अवधि के दौरान नागरिकों को अपने घरों में रहने के लिए कहा गया है। स्वास्थ्य, दूध, सब्ज़ियों, फलों, दैनिक उपयोग की वस्तुओं, दवाओं जैसी आवश्यक सेवाओं को छोडक़र, हर दूसरी आॢथक और सामाजिक गतिविधि बन्द है। आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति कफ्र्यू वाले क्षेत्रों में अधिकृत व्यक्तियों या पास-धारकों के माध्यम से और गैर-कफ्र्यू वाले क्षेत्रों में दुकानदारों और आपूर्तिकर्ताओं के ज़रिये अनुमति दी जाती है।

सभी संस्थान, जैसे- स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, दुकानें, बाज़ार स्थान, ढाबे, रेस्तरां, कारखाने, निर्माण गतिविधियाँ, परिवहन, सिनेमा हॉल आदि बन्द हो गये हैं। विवाह और मृत्यु से सम्बन्धित सामाजिक समारोहों में भी आपसी दूरी की सलाह दी गयी है। राष्ट्रों की सीमाएँ दूसरे देशों के नागरिकों के लिए बन्द हैं। भारत के भीतर, बाहरी राज्यों के संक्रमित व्यक्तियों के मेल को रोकने के लिए राज्य की सीमाओं को सील कर दिया गया है। चिह्नित संक्रमित व्यक्तियों को दो सप्ताह के लिए अलग रखा जाता है, जबकि गम्भीर रोगियों को अस्पतालों में भर्ती कराया जाता है। इन सभी उपायों ने बड़ी संख्या में आॢथक गतिविधियों को बन्द कर दिया है, जिसने अर्थ-व्यवस्था को बहुत प्रभावित किया है। अभी तक भारत सहित किसी भी देश में लॉकडाउन और कफ्र्यू की अवधि के दौरान हुए कुल आॢथक नुकसान के बारे में कोई व्यवस्थित अनुमान उपलब्ध नहीं है। विश्व बैंक, आईएमएफ और अन्य रेटिंग एजेंसियों जैसे विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठन विभिन्न देशों को लेकर नकारात्मक या शून्य विकास का अनुमान लगा रहे हैं। यद्यपि विभिन्न एजेंसियों के अनुमान भिन्न हैं, लेकिन वे सभी विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं पर पर्याप्त नकारात्मक प्रभाव की ओर इशारा कर रहे हैं। प्रत्येक अर्थ-व्यवस्था पर सटीक प्रभाव लॉकडाउन की अवधि और उसके बाद सरकार के जारी आॢथक पुनरुद्धार पैकेज की मात्रा पर निर्भर करेगा।

सरकारों की भूमिका

भारत में कोविड-19 संकट के प्रबन्धन के अनुभव से पता चलता है कि यह बड़े पैमाने पर संघ और राज्य सरकारों का मामला रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र में सामाजिक दूरियों को सुनिश्चित करना; अन्य देशों, अन्य राज्यों और ज़िलों के साथ-साथ सीमाओं को सील करना; पास जारी करना; संक्रमित व्यक्तियों या रोगियों की पहचान; संदिग्ध व्यक्तियों को एकान्त में रखना; अस्पतालों में रोगियों का प्रवेश कराना पुलिस और नागरिक प्रशासन और चिकित्सा सेवाओं का ज़िम्मा रहा है।

कोविड-19 के डर से निजी क्लीनिक, अस्पताल और पाँच सितारा निजी अस्पतालों ने अपने प्रतिष्ठान बन्द कर दिये हैं। गरीबों या जिनकी आजीविका खो गयी, उन्हें खिलाने का काम शुरू में नागरिक समाज और धाॢमक संगठनों ने किया था, लेकिन बाद में इसे सरकारी एजेंसियों को रेड क्रॉस के माध्यम से किया जाने लगा। यह आवश्यक बन गया। क्योंकि नागरिक समाज या धार्मिक संगठनों के स्वयंसेवक सामाजिक भेद के मानदण्डों का पालन करने में सक्षम नहीं थे। कई स्थानों पर, ग्राम पंचायतों / स्थानीय शहरी निकायों के पुलिस और स्थानीय प्रशासन गरीब और ज़रूरतमंद परिवारों को मुफ्त राशन वितरण में जुटे हुए थे।

अधिकांश नियोक्ताओं ने लॉकडाउन अवधि के दौरान अपने श्रमिकों को भुगतान करने से इन्कार कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील कि किसी को भी रोज़गार से हटाया नहीं जाए के बावजूद कई कम्पनियों और नियोक्ताओं ने अपने कुछ कर्मचारियों की सेवाओं को बन्द करने या समाप्त करने का फैसला किया। उदाहरण के लिए इसमें कुछ एयरलाइंस, मीडिया ( इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों) शामिल हैं। यह सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी कर्मचारी हैं, जिन्होंने अपनी सुनिश्चित आय प्राप्त की है। कॉरपोरेट क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र में कर्मचारियों और श्रमिकों को बेरोज़गारी और आय की हानि का सामना करना पड़ा। अनुभव से पता चलता है कि कोविड-19 जैसी आपात स्थितियों में सार्वजनिक क्षेत्र और सरकार एक रक्षक की भूमिका में रहते हैं।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि राष्ट्र व राज्यों का ज़िम्मा अपने नागरिकों की रक्षा करना है। राष्ट्रीय सीमाओं को सील करने के बाद वैश्विक सहयोग कमोवेश गायब प्रतीत होता है। इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों को रद्द करना पड़ा, और कोविड-19 संक्रमण के खतरे के कारण कम्पनियों के निर्यात आदेशों का अनुपालन नहीं किया गया। अनुभव हमें एक महत्त्वपूर्ण सबक देता है। कोविड-19 जैसी महामारी के मामले में, यह राष्ट्र है, जिसे खामियाजा भुगतना पड़ता है। चूँकि वर्तमान स्थिति की अनिश्चितता कुछ समय तक जारी रहने की सम्भावना है और साथ ही दुनिया को भविष्य में ऐसी नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए राष्ट्र-राज्य सम्बन्ध को पर्याप्त रूप से मज़बूत किया जाना चाहिए और इसे केंद्र में रखा जाना चाहिए। साल 1991 के बाद जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति को अपनाया गया, राष्ट्र राज्य की भूमिका कमज़ोर हो गयी। पहले सार्वजनिक क्षेत्रों और सरकारों के लिए आरक्षित क्षेत्रों में बाज़ाार की शक्तियों को एक बड़ी भूमिका प्रदान की गयी थी।

राज्यों का पर्दाफाश

निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर पनपा, जिसने राज्य की क्षमता को कम किया है। वर्तमान संकट में अपने नागरिकों के स्वास्थ्य, रोज़गार और आजीविका की रक्षा के लिए राज्य की कमज़ोरी उजागर हुई है। वर्तमान अनुभव के आलोक में सरकारी प्रशासन के पक्ष में शर्तों को बदलने की आवश्यकता है। इसे राज्य को केंद्र में लाकर किया जा सकता है। कोविड-19 खतरे के तहत कार्य करने से इन्कार करने के मद्देनज़र, स्पेन की सरकार ने निजी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया। उन्नत देशों का सीमाओं को बन्द करना नागरिकों के जीवन, स्वास्थ्य और नौकरियों के लिए राष्ट्रीय सरकारों की अधिक ज़िम्मेदारियों को इंगित करता है। वर्तमान परिस्थितियों में निजी क्षेत्र को मज़दूरी दर और वेतन, विशेष रूप से काम के दौरान सामाजिक दूरी बनाये रखने, श्रमिकों या कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति लाभ और अन्य सामाजिक सुरक्षा उपायों के संदर्भ में विनियमित किया जाना है। साथ ही निजी क्षेत्र में बड़े और छोटे खिलाडिय़ों के लालच से प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को बचाना होगा।

इस तथ्य को कार्ल पोलेनी ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन’ में सामने लाया, जिसे पहली बार 1944 में प्रकाशित किया गया था और 2001 में पुनर्मुद्रित किया गया था। यह कहा गया है कि मुक्त बाज़ार में हावी स्व-बाज़ार या अर्थ-व्यवस्था यूरोप के लोगों के लिए दु:ख लेकर आयी है। साल 1870 और 1880 के दौरान बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, आय और धन के वितरण में भारी असमानता, गरीबी और सामुदायिक जीवन का विनाश दिखा। इसने राज्य के प्रभुत्व और निजी क्षेत्र के उद्यमों के संचालन के नियमन सेमें फेरबदल की तत्काल ज़रूरत पर ज़ोर दिया।

राज्य को श्रम बाज़ार, विशेष रूप से मज़दूरी दर और वेतन, काम करने की स्थिति और श्रमिकों या कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा को विनियमित करना है। इसी तरह भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर, बाज़ार तंत्र को स्वतंत्र भूमिका की अनुमति नहीं दी जा सकती।

अनियंत्रित बाजार शक्तियाँ प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण को नष्ट कर देती हैं और परिणामस्वरूप जीवन की स्थिरता को खतरा पैदा हो जाता है। इसी समय, मुद्रा और वित्तीय बाज़ारों को लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। निजी क्षेत्र का विनियमन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, और सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व निजी उद्यमों के प्रभावी विनियमन को बनाने की अनुमति देता है। यह राज्य को लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करने, उनके रोज़गार को बचाने और उनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में सक्षम बनाता है। इन तीन चीज़ों का अस्तित्त्व देश के लोगों को आत्मविश्वास और रचनात्मक बनाता है। देश में कोविड-19 की स्थिति से स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक बुनियादी ढाँचे में एक मज़बूत सार्वजनिक क्षेत्र की आवश्यकता सामने आयी है।

सकारात्मकता

विस्तारित लॉकडाउन की अवधि ने नदियों में हवा, पानी की गुणवत्ता में सुधार किया है और जल स्वच्छ दिखने लगा है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि नदियों में शहरी सीवरेज के प्रवाह की जाँच के लिए कुछ भी नहीं किया गया है।

यह स्पष्ट है कि कारखानों के बन्द होने और मोटर चालित वाहनों को रोकने के कारण वायु प्रदूषण लगभग गायब हो गया है। पानी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, क्योंकि कोई भी औद्योगिक कचरा नदियों में नहीं फेंका गया।

इन दोनों स्रोतों को देश में वायु और जल प्रदूषण के प्रमुख कारकों के रूप में पहचाना जा सकता है। कमज़ोर राष्ट्र राज्य और सरकार देश में जीवन को बनाये रखने के स्रोतों को बचाने के लिए इन दोनों कारकों को नियंत्रित नहीं कर पाये हैं। कोविड-19 रिकवरी अवधि के बाद मोटर चालित वाहन मालिकों और कारखानों के मालिकों को पर्यावरण कर के रूप में वायु और जल प्रदूषण के लिए भुगतान करना होगा।

पर्यावरण कर के माध्यम से एकत्र की गयी राशि को पर्यावरण, जैव विविधता, स्वच्छ हवा के लिए उपकरणों की खरीद और स्वच्छ जल के निकायों, कारखानों में पानी को साफ करने के लिए उपयोग किये जाने वाले समर्पित खाते में डाल दिया जाना चाहिए।

पैकेज की मात्रा

इस समय पुनरुद्धार पैकेज की मात्रा और संरचना का मुद्दा देश में आॢथक स्थिति की पुनरावृत्ति के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पुनरुद्धार पैकेज का आकार नागरिकों को उनकी आय के नुकसान के कारण निजी खपत के नुकसान पर निर्भर करता है। देश में तालाबन्दी ने कई आॢथक गतिविधियों को निलम्बित कर दिया है। कारखानों और प्रसंस्करण इकाइयों, विशेष रूप से ढाबों, रेस्तरां और होटलों को बन्द करना

पड़ा है। दूध, सब्ज़ी और फल विक्रेताओं और उत्पादकों को नुकसान उठाना पड़ा है। कुछ मीडिया उद्यमों और कुछ कम्पनियों ने कुछ कर्मचारियों को निकालने और उनकी छँटनी का सहारा लिया है। परिणामस्वरूप नागरिकों की निजी आय में गिरावट आयी है। डर और अनिश्चितता में लोगों ने टिकाऊ उत्पादों जैसे वाहन, फर्नीचर, टीवी, वाशिंग मशीन, फ्रिज आदि की खरीद बन्द कर दी है। इन उत्पादों के उत्पादकों को व्यवसाय का नुकसान हुआ है। देश में सामान्य आॢथक गतिविधियों को निलंबित कर दिया गया है। इसमें एयरलाइंस, रेलवे, रोडवेज़ कार, टैक्सी, तीन और दो पहिया वाहन, रिक्शा आदि शामिल हैं।

जैसे-जैसे लोग अपने घरों में बन्द हो जाते हैं, चाय-स्टॉल, ढाबों, रेस्तरां और मिठाई की दुकानों को बन्द करना पड़ता है। जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के उत्पादकों को अपने व्यवसाय और आय का नुकसान उठाना पड़ रहा है। लोग निवेश ऋण  के लिए बैंकों से सम्पर्क नहीं कर रहे हैं।

ज़ाहिर है कि अर्थ-व्यवस्था पर प्रभाव लोगों की आय में कमी की ओर व्यापक संकेत हैं। इस आशय के दो घटक दिखाई देते हैं। एक नागरिकों की आय का नुकसान और कुल माँग का कम होना है। दो, कोविड-19 के लॉकडाउन और डर ने व्यापार की उम्मीदों को कम किया है, जिससे निवेश के स्तर में गिरावट आयी है। दोनों कारकों ने समग्र माँग और आॢथक गतिविधियों के संकोचन को कम कर दिया है।

आॢथक गतिविधियों के स्तर में गिरावट ने दिहाड़ी मज़दूरों को बहुत प्रभावित किया है। उनमें से कुछ को कुछ दिनों या लम्बे समय के लिए के लिए भूख का सामना करना पड़ सकता है। इनमें से बहुतों का पेट नागरिक समाज संगठन और सरकारी एजेंसियों  के ज़रिये भर पा रहा है। लेकिन कई इस पहुँच से भी दूर रहे हैं। इसी तरह, निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी, जिन्हें लॉकडाउन के दौरान या तो वेतन नहीं मिला या उन्हें बाहर कर दिया गया; को गम्भीर कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। कुछ कम्पनियां ऐसी भी हैं, जो व्यापार के नुकसान के कारण दिवालिया होने के खौफ से घिरी हैं। शेयर बाज़ार को बड़ी उठापटक का सामना करना पड़ा। बिगड़ती आॢथक स्थिति ने कर संग्रह में गिरावट के कारण संघ और राज्य सरकार के वित्त को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोविड-19 आपातकाल ने उनकी देनदारियों में भारी वृद्धि की है। देश के लिए पुनरुद्धार पैकेज तैयार करके देश को संकट से बाहर निकालना भी सरकार का कर्तव्य है।

रिवाइवल पैकेज

रिवाइवल पैकेज में निजी खपत के साथ-साथ निजी निवेश के नुकसान को भी कवर करना होता है। इसमें उन लोगों को वित्तीय सहायता भी शामिल है, जिन्होंने अपनी आजीविका में नुकसान झेला और कम्पनियों को आसन्न दिवालियापन से बचाने के लिए प्रावधान किया। अमेरिका, ब्रिटेन और जापान जैसे कुछ देशों ने अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं के लिए पुनरुद्धार पैकेजों का अनुमान तैयार किया है। यह अनुमान है कि इनमें से प्रत्येक देश की जीडीपी का 8 फीसदी अतिरिक्त सार्वजनिक व्यय का उपयोग निजी उपभोग में गिरावट का मुकाबला करने के लिए किया जाएगा। यूरो क्षेत्र इस मामले में धीमा रहा है। इस संदर्भ में भारत को निजी खपत, निजी निवेश में गिरावट और निजी कम्पनियों के अपेक्षित दिवालियापन को ध्यान में रखते हुए एक पुनरुद्धार पैकेज का अनुमान लगाना होगा।

चूँकि हमारे कार्यबल का उच्चतम अनुपात (44 फीसदी से अधिक) कृषि में लगा हुआ है, जहाँ वर्तमान संकट का प्रभाव शहरी क्षेत्रों की तुलना में कम होने की सम्भावना है, जीडीपी का 6-7 फीसदी पैकेज ही अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने में काफी होगा। इस पैकेज को केंद्र सरकार की तरफ से व्यवस्थित किया जाना है। क्योंकि राज्यों के पास राजकोषीय संसाधन जुटाने की क्षमता बहुत कम है।

अर्थ-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के उपाय

महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि यह सार्वजनिक व्यय कहाँ किया जाना है। ज़ाहिर है कोविड-19 ने पहले ही हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की कमज़ोरी को उजागर कर दिया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली महामारी का सामना करने में बहुत मज़बूत नहीं दिख रही। वर्तमान में स्वास्थ्य क्षेत्र पर सार्वजनिक व्यय हमारे जीडीपी के 1.5 फीसदी से भी कम है और इसे जीडीपी के 3 फीसदी तक बढ़ाया जाना चाहिए। कोविड-19 की निरंतर चुनौती का सामना करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करने के लिए कम-से-कम अतिरिक्त 1.5 फीसदी व्यय किया जाना चाहिए, क्योंकि भविष्य में भी अभी इस तरह की चुनौती उत्पन्न हो सकती है।

अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, विशेष रूप से डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल कर्मचारियों की कमी को उचित वेतन देकर पूरा किया जाना चाहिए। अद्यतन उपकरण और सुरक्षा गियर न्यूनतम दवाओं के प्रावधान के साथ प्रदान किये जाने चाहिए। पैकेज के लिए सबसे योग्य दूसरा क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा है।

कोठारी आयोग द्वारा सुझाये गये 6 फीसदी के लक्ष्य की ओर बढऩे के लिए देश के सकल घरेलू उत्पाद का न्यूनतम 2 फीसदी इस क्षेत्र में किये गये मौज़ूदा खर्च में जोड़ा जाना चाहिए। एक अन्य प्राथमिक क्षेत्र देश में नौकरियों का पुनरुद्धार है। आँकड़ों से संकेत मिलता है कि देश में कार्यबल में बेरोज़गारी का स्तर 6.1 फीसदी से बढक़र 23 फीसदी से अधिक हो गया है। ज़्यादातर नौकरी का नुकसान अर्थ-व्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में हुआ है। इस क्षेत्र में नौकरी के नुकसान के शिकार लोगों को तुरन्त भोजन और आश्रय की आवश्यकता होती है और हालत सामान्य होते ही नौकरी की ज़रूरत रहती है।

मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को दोगुना किया जाना ज़रूरी है, और इसे ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ गरीबों की शहरी कॉलोनियों में भी शुरू किया जाना चाहिए। लघु, छोटे और माध्यम उद्योगों को वित्तीय मदद के साथ पुनर्जीवित करना होगा। राज्य सरकार दोनों क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

कुछ बड़ी कम्पनियों को दिवालिया होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को तेज़ी से काम करना चाहिए। एमएसएमई के पुनरुद्धार के लिए उनका संचालन महत्त्वपूर्ण है। कम्पनियों को मुफ्त पैकेज नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन उन्हें रियायती ऋण प्रदान किया जा सकता है। इसे कृषि क्षेत्र में भी बढ़ाया जा सकता है। ये उपाय कोविड-19 चरण में अर्थ-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हैं।

(लेखक सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट,चंडीगढ़ में प्रोफेसर हैं।)

रोज़गार के मोर्चे पर बहुआयामी राहत की दरकार

फिलहाल कोरोना वायरस का कहर कम होता नहीं दिख रहा है। इससे बचने का फिलवक्त एक ही तरीका है कि घर में रहा जाए। पूर्णबन्दी से हमें कुछ वक्त मिल सकता है, जिसमें कोरोना वायरस का टीका और दवा विकसित किया जा सकता है। वैज्ञानिक लगातार इसके लिए कोशिश कर रहे हैं। भारत समेत कई देशों में इसके लिए परीक्षण का काम चल रहा है। उम्मीद है कि जून महीने तक इस मोर्चे पर सकारात्मक परिणाम दिखने लगेंगे।

उम्मीद है कि पूर्णबन्दी के बाद सभी क्षेत्रों में सुचारू रूप से काम शुरू होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा। क्योंकि अभी कच्चे या तैयार माल की सिर्फ आपूर्ति शृंखला बाधित हुई है। इसलिए एक या दो सप्ताह के अन्दर दोबारा उत्पादन एवं वितरण का काम शुरू हो सकता है। हाँ, हालात सामान्य होने में छ: महीने लग सकते हैं; क्योंकि पूर्णबन्दी से आॢथक गतिविधियाँ पूरी तरह से बन्द हो गयी हैं।

कोरोना महामारी की वजह से चीन को छोडक़र लगभग दुनिया के सभी देशों की अर्थ-व्यवस्था खस्ताहाल हो गयी है। भारत में मज़दूर, पेशेवर, स्व-रोज़गार करने वाले, किसान आदि को पूर्णबन्दी की वजह से या तो अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा है या भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है।

रोज़ कमाने-खाने वालों के लिए तो भूखे मरने की नौबत आ गयी है। लिहाज़ा ऐसे वर्गों और अन्य कामगारों को सरकार और कम्पनियों द्वारा राहत देने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि यही वह वर्ग है, जो अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है।

असंगठित क्षेत्र सबसे ज़्यादा प्रभावित

पूर्णबन्दी के कारण असंगठित क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग अपने रोज़गार से महरूम हुए हैं। सबसे अधिक दिहाड़ी मज़दूर प्रभावित हुए हैं। अधिकांश लोग कई दिनों से भूखे हैं। कई भूख से मौत के मुँह में समा चुके हैं। कई भूख और तंगी से तंग आकर आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार प्रभावित लोगों को राहत देने की कोशिश कर रही है; लेकिन प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं।

कार्यस्थल पर काम करना आसान नहीं

ज़रूरी सेवाएँ मुहैया कराने वाले सरकारी और खुदरा क्षेत्र इस महामारी के दौरान भी अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इन क्षेत्रों में काम करने वालों की चिन्ता और तनाव का स्तर उन कर्मचारियों से ज़्यादा है, जो घर से काम कर रहे हैं। कार्यस्थल पर जाकर काम करने वाले कर्मचारियों को अपने सहकॢमयों या ग्राहकों से संक्रमित होने का डर है। उन्हें इस बात का भी डर है कि मुश्किल में उन्हें और उनके परिवार को किसी भी प्रकार की सुरक्षा नहीं मिलेगी।

मनोबल बनाये रखने की ज़रूरत

कर्मचारियों में अपने भविष्य को लेकर चिन्ता बढ़ गयी है। बहुत सारे कर्मचारियों को नौकरी जाने का डर सता रहा है। कई कर्मचारियों के वेतन में कटौती भी की गयी है। ऐसे में कर्मचारियों को अवसाद से बचाने के लिए कम्पनी द्वारा उनका उत्साहवर्धन करने की ज़रूरत है। कर्मचारियों को आॢथक सुरक्षा देने से भी मामले में लाभ मिल सकता है।

खर्च पर नियंत्रण

मौज़ूदा स्थिति में किसकी नौकरी जाएगी और किसकी बचेगी? यह कहना मुश्किल है। इसलिए खर्च पर नियंत्रण रखना ज़रूरी है। हालाँकि, पूर्णबन्दी में घर पर रहने से खर्च में काफी कमी आयी है; फिर भी मामले में एहतिहात बरतने की ज़रूरत है। फिजूलखर्ची से बचने से खर्च के मोर्चे पर स्थिति नियंत्रण में रह सकती है। पैसे से हर खुशी नहीं खरीदी जा सकती। दुनिया में खुश रहने के बहुत से तरीके हैं। बिना खर्च के भी खुश रहा जा सकता है।

समय का सदुपयोग

बहुत सारे कर्मचारी जो अवकाश पर हैं या जो नौकरी या स्व-रोज़गार के जाने या बन्द होने से घर में खाली बैठने वाले इस समय का उपयोग अपनी रुचियों को विकसित करने में कर सकते हैं। क्योंकि हर इंसान में कुछ-न-कुछ खूबी होती है। व्यस्त रहने से वे अवसादग्रस्त होने से भी बच सकेंगे। कुछ कम्पनियाँ कर्मचारियों के व्यक्तित्त्व विकास के लिए पेशेवरों की मदद ले रही हैं। कम्पनियाँ कर्मचारियों को योग करने की सलाह भी दे रही हैं। योग करने से कर्मचारियों का मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर हो सकता है।

छोटे कर्मचारियों को सुरक्षा देने की ज़रूरत

इंडिया बुल्स हाउसिंग फाइनेंस के शीर्ष प्रबन्धन ने अपने वेतन में 35 फीसदी कटौती का फैसला किया है। खर्चों पर नियंत्रण के लिए दूसरी कॉर्पोरेट कम्पनियाँ भी कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर रही हैं। लेकिन इस कठिन समय में आॢथक रूप से समर्थ कम्पनियों को छोटे कर्मचारियों के वेतन में कटौती नहीं करनी चाहिए। छोटे कर्मचारियों को अभी मदद की ज़रूरत है। पूर्णबन्दी की अवधि बढऩे से आगामी महीनों में कर्मचारियों के वेतन, सुविधाएँ एवं अन्य लाभ में कटौती की जा सकती है। कर्मचारियों को नौकरी से निकालने से कम्पनियों को बचना होगा। क्योंकि अनुभवी कर्मचारी ही कम्पनी के पुनर्वास में मददगार होंगे। कम्पनियों को इसका दूसरा फायदा यह मिलेगा कि कर्मचारी हमेशा के लिए कम्पनी के प्रति वफादार हो जाएँगे।

घर से काम करने की परम्परा को बल

कोरोना वायरस के कारण वर्क फ्रॉम होम की परम्परा को सूचना एवं प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी अपनाया जा रहा है।

हालाँकि, सभी क्षेत्रों में घर से ऑफिस का काम करना मुमकिन नहीं है। जिनके बच्चे छोटे हैं, उनके लिए भी घर से काम करना आसान नहीं है। आईटी क्षेत्र में पहले से ही घर से काम किया जा रहा था। इसलिए आईटी क्षेत्र वाले को घर से काम करने में किसी प्रकार की समस्या नहीं आ रही है। इस परम्परा से लम्बी अवधि में फायदा होने की सम्भावना है। क्योंकि इससे कर्मचारियों की उत्पादकता, लॉजिस्टिक लागत में कमी और ऑफिस के खर्च में कमी आ सकती है।

पूर्णबन्दी से बढ़ेगी मुश्किलें

फॉच्र्यून ब्रांड के खाद्य तेल के उत्पादन में लॉकडाऊन के कारण लगभग 40 फीसदी की गिरावट आयी है। यह ब्रांड प्रतिदिन लगभग 8,000 टन खाद्य तेल का प्रसंस्करण और उत्पादन करती है। इस वजह से इसकी आपूर्ति में गिरावट दर्ज की गयी है। होटल, रेस्तरां और कैफेटेरिया बन्द होने से खाद्य तेलों की बिक्री में भी 25 फीसदी की कमी आयी है। हालाँकि, माँग के मुकाबले उत्पादन में ज़्यादा कमी आयी है। इसलिए माँग की तुलना में आपूर्ति कम हो गयी है। फॉच्र्यून ब्रांड के अन्य खाद्य पदार्थों, जैसे- आटा, चावल, दाल, बेसन और सोयाबीन की बिक्री में तेज़ी आने से इनके स्टॉक में निरंतर कमी आ रही है। दूसरे खाद्य उत्पादन करने वाली कम्पनियों एवं दूसरे क्षेत्रों का भी कमोबेश यही हाल है। आज हर क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूर एवं कामगार या तो घर में हैं या सडक़ों पर भूखे-प्यासे दर-बदर की ठोकर खाने के लिए मजबूर हैं।

निष्कर्ष

सरकार ने समाज के कमज़ोर तबकों की बेहतरी के लिए पहल की है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। इस क्रम में कम्पनियों को अपने कर्मचारियों एवं मज़दूरों को आॢथक एवं सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने की ज़रूरत है। क्योंकि इस महामारी में कामगारों को ज़िन्दगी और आजीविका के बीच में से एक का चुनाव करना है। यदि कम्पनी प्रबन्धन कर्मचारियों की सुरक्षा, भोजन और रहने आदि की सुविधा उपलब्ध कराता है, तो उनका भरोसा कम्पनी पर बढ़ेगा और वे कम्पनी की बेहतरी के लिए ताउम्र कोशिश करेंगे। अन्यथा स्थिति सामान्य होने के बाद भी कम्पनी और सरकार के लिए मज़दूरों और कामगारों को तुरत-फुरत वापस काम पर बुलाना आसान नहीं होगा।

लॉकडाउन से याद आया वो ज़माना…

वह महज़ 12 साल की थी। थकान, तेज़ धूप, साँस लेने में उसे परेशानी हो रही थी। लेकिन वह 114 किलोमीटर दूर उसने अपने घर को लौटने की ठानी थी। वह घर तो नहीं पहुँच पायी, लेकिन अखबारों की सुॢखयों में ज़रूर आ गयी। सोशल मीडिया ने हर बार की तरह जमलो की मौत के इस वाकये का ज़िम्मेदार सरकार को ही ठहराया। सरकार ने बिना सलाह-मशविरे के लॉकडाउन जो घोषित कर दिया। फिर ऐसे भी लोग इकट्ठे हो गये, जिन्होंने माँ-बाप को ही कोसना शुरू किया कि उन्होंने क्यों उसे काम पर भेजा? जबकि उसकी उम्र इतनी कम थी।

जमलो से मैं छ: साल ही बड़ा था। काम की तलाश में एर्णाकुलम के मराडू से अहमदाबाद को चला था। घर की व्यवस्थित ज़िन्दगी छोडक़र। अहमदाबाद में मैं कल्याणग्राम सोसायटी में स्थान पा सका। यहीं एक अनुसूचित जाति के इंसान के घर में मुझे पनाह मिली। यहीं मैंने पहली बार समाज में वर्ग चेतना भी जानी-समझी। उस ज़माने में अहमदाबाद को भारत का मांचेस्टर कहा जाता था। आॢथक हालात रंग दिख रहे थे। महात्मा गाँधी ने इस कॉलोनी की स्थापना की थी। यहाँ ज़्यादातर मज़दूर ही रहते थे। पास की दूसरी कॉलोनियों की तुलना में यहाँ किराया भी खासा कम था। यहाँ रहने वाले कई मलयाली अपना उपनाम अपनी जाति बताने के लिए रख लेते थे। लेकिन किराये पर यहाँ जगह देने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी।

दूसरी तकलीफदेह बात थी कि कॉलोनी की लड़कियाँ अक्सर मुझे छेड़तीं। युवा महिलाएँ और लड़कियाँ देर रात की फिल्में देखने जातीं। उनके साथ कोई पुरुष नहीं होता था। इस संस्कृति की तो कल्पना एर्णाकुलम में सम्भव नहीं थी।

बात 1980 के शुरू की है। अहमदाबाद में कफ्र्यू लगा था। कफ्र्यू का मेरा यह पहला अनुभव था। उन दिनों मैं प्रार्थना समाज में आ चुका था। पहली मंज़िल पर सीपीआई (एम) की गुजरात राज्य कमेटी का कार्यालय था। प्रार्थना समाज हिन्दू पुनर्जागरण समिति का संगठन था। यह 19वीं सदी के अन्त में बना था। रायखण्ड चार रास्ता पर यह था। इस मंदिर के परिसर में कई संस्थान थे। वहाँ लड़कियों का एक सरकारी हाई स्कूल था। लडक़ों का भी एक स्कूल था; जिसे ईसाई मिशनरी चलाते थे। एक गिरजाघर था। एक कॉलेज था; वह भी आयुर्वेद का। प्राइमरी अध्यापकों का एक प्रशिक्षण केंद्र वहीं था। इतना ही नहीं, अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की ओर से संचालित जयशंकर सुंदरी हॉल वहीं था। मैंने यहीं मुझे ए.बी. वर्धन को ‘वार एंड पीस’ पर बोलते हुए सुना था। यह दौर था, जब सारी दुनिया में सोवियत संघ की तूती बोलती थी। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि कुछ ही साल में यह इतिहास बन जाएगा।

प्रार्थना समाज के एक किनारे पर है मुसलमानों की बस्ती और दूसरी ओर है हिन्दू बहुल समुदाय, इसमें ओबीसी समुदाय के लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है।

छिटपुट हिंसा होती ही रहती। ऐसी ही एक पहली घटना थी, एक ड्राई-क्लीयर की दुकान की। यह दुकान एडवर्ड नाम की ज़रूर थी, लेकिन इसके मालिक ईसाई नहीं थे। तब तक ईसाई लोग उनकी हिटलिस्ट पर आये भी नहीं थे। यह तब शुरू हुआ, जब डांग समुदाय के साथ प्रयोग की शुरुआत हुई। हालाँकि तब तक ईसाइयों के खिलाफ नफरत का भाव हल्का तो था ही। क्योंकि दलित ईसाई बने थे। बहरहाल एडवर्ड के मालिक मुसलमान थे। वह दुकान बार-बार निशाने पर रही। हालाँकि हाल ही में, जब मैं अमदाबाद गया, तो देखा कि एडवर्ड अब नहीं है। उस जगह पर अब जो नयी दुकान खुली है, उस पर महिलाओं के परिधान वगैरह बिकते हैं।

यदि पुलिस और प्रशासन यह महसूस करता है कि हिंसा वाकई खतरनाक हो गयी है, तो पहले कुछ क्षेत्रों में और बाद में शहर के ज़्यादातर उन हिस्सों मे कफ्र्यू लगा दिया जाता है, जहाँ दोनों ही समुदायों के लोग रहते हैं। अफवाहबाज़ी खूब होती है। यह दौर तब का है, जब लैंडलाइन फोन पाना भी बहुत कठिन था। ज़ाहिर है, उस ज़माने में अफवाहें एक मुँह से दूसरे के कान तक पहुँचाने का काम अद्भुत था। ऐसी साम्प्रदायिक प्रयोगशाला में गुजरात अब विशेषज्ञता हासिल कर रहा था।

जब हिंसा कुछ और बढ़ी और लोगों की धरपकड़ शुरू हुई, तो इस हिस्से में स्टेट रिजर्व पुलिस के जवानों को जयशंकर सुंदरी हाल में टिका दिया जाता। चूँकि प्रार्थना समाज की दीवारें ऊँची हैं और गेट भी, इसलिए दोनों समुदायों ने कभी इसे अपना लक्ष्य नहीं माना। हमारे लिए भी डरने की कोई बात नहीं थी। हालाँकि इस परिसर के कर्ताधर्ता महेंद्र भाई ऐसे मौकों पर खिडक़ी से झाँकने से भी मना करते। जब भी मैं बाहर निकलता, तो बगल के जयशंकर सुंदरी हाल के परिसर में झाँकता; खासकर शाम के धुँधलके में। घिरती हुई शाम में युवाओं और बूढ़ों की चीखें और उनका आर्तनाद में सुनता, जब एसआरपी (यूपी की पीएसी की तरह) के जवानों की लाठियाँ उन पर बरसतीं। मैं भीतर तक दहल उठता। वे चीखें और वह आर्तनाद मेरे कानों में बरसों गूँजती रहीं।

विशेषाधिकार होने के नाते मुझे कई किलोमीटर दूर पुलिस से कमिश्नर के दफ्तर से कफ्र्यू पास मिल गया था। उसके सहारे आप बेरोकटोक शहर के उन इलाकों में भी जा सकते, जहाँ कफ्र्यू लगा है। हाँ, यह ज़रूर है कि संदेह होने पर आपको पेंट, नीचे करके अपनी धाॢमक पहचान बतानी पड़ सकती है। खासतौर पर तब, जब पुलिस की मौज़ूदगी कम हो और इलाके में हुड़दंग करने वाले अपना अगला शिकार ढूँढ रहे हों। लेकिन थर्ड डिग्री के ऐसे वाकये कम ही होते। तब हमारे पास आईडी कार्ड के तौर पर न तो मतदाता पहचान पत्र, न आधार और न पैन कार्ड या कोई भी और कार्ड होता था। कफ्र्यू पास बड़े काम आता। खासकर जब मधुबन में जहाँ महेंद्र भाई की बीमार पत्नी मुझसे कुछ घरेलू सामान और सब्ज़ी मँगवाती थीं। मैं उन इलाकों में जाता और सामान ले आता। लौटने के बाद घर पर ताज़ा स्वादिष्ट गर्म मराठी भोजन मिल जाता। जिसे हम 12 ङ्ग 10 के कमरे में बैठकर उनके पति के साथ खाते। उनके तीन बच्चे भी वहीं हमारे पास ही बैठे रहते और सुनते रहते।

लेकिन यदि हालात बिगड़े और सेना बुला ली गयी, तो कफ्र्यू बेमतलब भी पास हो जाता। सेना यूँ भी स्थानीय पुलिस को टके के भाव नहीं गिनती। पुलिस इसलिए सेना को बुलाने का पक्ष नहीं लेती। एक बार मैं किसी काम से सुबह का निकला हुआ था। पास लगे बैरिकेट पर मुझे रोक लिया गया। एक सैनिक ने मेरा कफ्र्यू पास फाड़ डाला। मेरी साइकिल का पहिया पंक्चर कर दिया। मातृभाषा मलयाली का प्रभाव मेरी हिन्दी में था। तब उस सैनिक ने मुझे जाने दिया। बड़ी कठिनाई से साइकिल सँभाले हुए दो किलोमीटर मैं अपने घर पहुँचा। कई दिन  कफ्र्यू लगा रहा। बाहर निकलने की कोई वजह भी नहीं थी। हालाँकि बीच-बीच में कुछ समय के लिए कफ्र्यू में ढील दी जाती। हम उसमें ही बाहर का काम करते।

दिल्ली में लॉकडाउन के पहले दिन घर पर बैठे हुए मुझे अपने साथ घटा एक पुराना वाकया याद आया। दिल्ली में विट्ठल भाई पटेल हाउस के बाहर आकर मैंने देखा यह हमेशा व्यस्त रहने वाला रफी मार्ग कितना सुनसान है। यहाँ है वह मशहूर आईएनएस बिल्डिंग, जहाँ ढेरों समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के प्रबन्धक और पत्रकार बैठते हैं। पास ही है यूएनआई, समाचार एजेंसी का सूना पड़ा परिसर। कहीं कोई आता-जाता नहीं दिख रहा है। डीटीसी की एक खाली बस पूरे शान्त माहौल को अचानक शोर में बदलती है। यूएनआई परिसर के बाहर एक चाय वाला एक अस्थाई छाँव में अपने दो सहायकों के साथ बेवश बैठा दिखता है।

यह चाय वाला मूलत: सुपौल, बिहार का निवासी है। बरसों से चाय और बिस्किट आदि बेचकर अपनी इस दुकान से सहयोगियों का, अपना और घर का खर्च चलाता रहा है। सुपौल (बिहार) हमेशा बाढ़ के कारण बरसों अखबारों में सुॢखयों में बनता रहा है। दिल्ली में उसका यह छोटा-सा ठीया आज उसकी मदद नहीं कर पा रहा है। लॉकडाउन में न घर लौट सकते हैं और न कहीं कुछ कर सकते हैं। अब तो कमायी भी नहीं के बराबर है। उसे उस साथी की अच्छी याद है, जो बरसों यूएनआई परिसर की कैंटीन चलाता था। उसमें बाहर के लोग भी आते थे। भूख को अजीब-सा नाम दिया है दिल्ली सरकार ने। इन केंद्रों पर पका-पकाया भोजन वितरित होता है। यह सभी केंद्रों में बाँटा जाता है, ऐसा दावा है सरकार का। लेकिन यह भोजन कैसा होगा? जब दिल्ली की कड़ी ठण्ड, भीषण गर्मी और अचानक बारिश याद आती है, तब सुपौल से आकर दिल्ली में 20 साल से भी अधिक समय तक लोगों को चाय-नाश्ता देने वाला यह अतिथि मज़दूर और उसके साथी भी दिल्ली सरकार का वह आहार कभी नहीं खा पाते। जो उप मुख्यमंत्री 10 लाख लोगों को रोज़ खिलाने का दावा करते थे।

एक दिन कोलकाता से मेरे एक सहयोगी ने फोन किया। वह चाहते थे कि उनकी बेटी को नोएडा के पी.जी. एकोमोडेशन से हवाई अड्डे भिजवाने की व्यवस्था की जाए। एमिटी यूनिवॢसटी की इस छात्रा की तडक़े ही कोलकाता की उड़ान थी। लॉकडाउन से पहले लोगों को समय ही नहीं मिला कि वे अपनी कुछ व्यवस्था कर लें। किसी तरह मयूर बिहार में दो पत्रकारों से बातचीत हुई। उसके पास पीआईपी कार्ड थे। जवानी के दिनों के मेरे मित्र जयन ने मेरी मदद की। मुहिम जयन के कार्ड के सहारे नोएडा से उस लडक़ी को साथ लिया। उसे हवाई अड्डे पर छोड़ा। उसकी माँ के पास जयन का आभार व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे। लॉकडाउन के कुछ ही दिनों बाद खबरें आने लगीं कि बड़ी तादाद में भारतीय मज़दूर अब अपने अपने देश को पैदल चल चुके हैं। झुण्ड-के-झुण्ड अपना सामान सिर पर लिए छोटे बच्चों को गोद में लिए अपने अस्थायी घरों से बस अड्डों पह पहुँच रहे हैं। बसें न मिलने पर भी उनका इरादा पैदल ही जाने का रहा। प्रशासन को इस भीड़ की कोई सुगुगाहट नहीं थी। भीड़ बढ़ती गयी, तो पुलिस भी पहुँची। उसने उन परेशान गरीबों-मज़दूरों पर लाठियाँ चलायीं, जो घर लौटने का मन बना चुके थे। इनकी तकलीफों की यह शुरुआत थी। इन्हें बसों में बैठाकर शिविरों में रख दिया गया। पानी की बौछार से उन्हें ‘डिस इन्फेक्ट’ किया गया। यह सिलसिला चलता रहा। देश में सडक़ भवन निर्माण कार्य को गति देने वाले मज़दूरों की यह व्यथा गाथा का पहला अध्याय था। मई की पहली तारीख के केंद्र सरकार ने पाँच ट्रेनें हैदराबाद, तिरुअनंतपुरम, भुवेनश्वर, दिल्ली और तमिलनाडु से चलायीं। हर ट्रेन में 1,200 यात्री बैठे होते। उनसे किराया लेकर उन्हें उनकी मंज़िल के एक छोर तक पहुँचाने की शुरुआत हुई।

देश के सफेद कॉलर वाले मध्य वर्ग के लिए घर से दफ्तर का काम नीति शुरू की गयी। लॉकडाउन के तय दैनिक समय में कुछ ढील दी गयी। सत्ता चलाने वाले प्रशासक वीडियो कॉन्फ्रेंस, स्काइप वगैरह से अपनी बैठकें करके हालात का जायज़ा ले रहे हैं। पूरा देश लगभग ठहर गया है। जबकि ज़रूरत है कि प्रशासन और पुलिस ज़्यादा-से-ज़्यादा संवेदनशील हो। अनपढ़, गरीब और परेशान लोगों को सम्मान करते हुए ये समझाएँ। लेकिन विकसित हो रहे देश की अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं। पूरा देश ठहरते ही विकलांग-सा हो गया है।

सरकारी नुमाइंदे गैर-सरकारी संगठनों से व्हाट्स एप, स्काइप से बातचीत कर रहे हैं कि कैसे सूखे राशन के वितरण हो? मुझे लगा शायद सरकारी नुमाइंदे वितरण के काम में सभ्य समाज के लोगों की मदद चाह रहे हों। लेकिन नहीं, यह बैठक तो यह जानने के लिए बुलायी गयी थी कि वे कौन लोग हैं, जो उत्तर-पूर्व दिल्ली के शिव बिहार, करावल नगर में राशन बाँट रहे थे, जहाँ साम्प्रदायिका हिंसा हुई थी। अब लॉकडाउन को पौने दो महीने से अधिक समय हो चला है। लोगों की परेशानियाँ, भूख, बीमारियों के प्रति सरकारी अनदेखी की कहानियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। कोई नहीं जानता, सच क्या है?

बॉलीवुड का लॉकडाउन

कोरोना वायरस का संक्रमण अब भी बढ़ता जा रहा है, जिसने पूरे देश को राहू की तरह ग्रस लिया है। महाराष्ट्र इस मामले में काफी संवेदनशील है और फिल्म नगरी मुम्बई के लिए यह बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। मुम्बई की चकाचौंध वाली फिल्म इंडस्ट्री इन दिनों बिल्कुल ठप पड़ी हुई है। एक अनुमान का मुताबिक, लॉकडाउन के चलते फिल्म इंडस्ट्री को करोड़ों का घाटा हो चुका है, जिससे इस इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को विकट नुकसान हो रहा है। हालाँकि, ऐसे समय में बॉलीवुड के बड़े स्टार, जिनमें सलमान काफी आगे हैं; जनसामान्य के साथ-साथ फिल्म जगत से जुड़े लोगों की मदद को आगे आ रहे हैं। लेकिन इस लम्बे लॉकडाउन से फिल्म इंडस्ट्री को केवल नुकसान ही नहीं हो रहा, बल्कि फिल्मों, धारावाहिकों और अन्य शोज का शेड्यूल गड़बड़ हो गया है।

इसके चलते न केवल अनेक फिल्मों की शूटिंग अधूरी रह गयी है, बल्कि कई नयी फिल्मों की तैयारी भी रुक गयी है। साध ही जो फिल्में लॉकडाउन से ठीक पहले रिलीज हुई थीं, उनके न चल पाने के कारण विकट घाटा हो रहा है। फिलहाल तो 17 मई तक लॉकडाउन है, लेकिन इसके आगे बढऩे की सम्भावनाएँ हैं। ऐसे में अगर फिल्म जगत की गतिविधियाँ जितना अधिक दिन ठप रहेंगी, फिल्म इंडस्ट्री के साथ-साथ सरकार को भी बड़ा नुकसान होता रहेगा।

कई फिल्म प्रोजेक्ट अधर में

लॉकडाउन के चलते कई फिल्म प्रोजेक्ट अधर में लटके हुए हैं। इससे कई फिल्मों के शूटिंग सेट, जो बने हुए हैं; बेकार पड़े हैं, जिससे फिल्म निर्माताओं को बड़ा नुकसान हो रहा है। बिना काम के खाली पड़े शूटिंग सेट पर नुकसान की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। इतना ही नहीं, बड़े सितारों की शूटिंग की तारीखें बहुत पहले से एडवांस में बुक रहती हैं। उन्हें एडवांस में काफी भुगतान तक कर दिया जाता है। ऐसे में मुश्किलों के साथ-साथ निर्माताओं की चिन्ता काफी बढ़ी हुई है। एक खतरा यह भी है कि जब लॉकडाउन खुलेगा, तो हर किसी पर काम का प्रेशर काफी अधिक होगा। ऐसे में यदि किसी सितारे ने निर्माता को काम करने से मना कर दिया, तो उसे नये सितारे की तलाश करनी होगी।

हालाँकि, यह भी नहीं कहा जा सकता कि जब लॉकडाउन खुलेगा, तब दर्शकों की फिल्म और धारावाहिकों में कितनी रुचि होगी? क्योंकि दर्शक देश के लोग ही हैं, जो इस समय काफी संकट से गुज़र रहे हैं।

रिलीज और शूटिंग के चलते अटकीं फिल्में

19 मार्च से बॉलीवुड में हर तरह की शूटिंग, प्रोडक्शन और रिलीज पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। इसके चलते कई फिल्में अधर में लटक गयी हैं। इनमें वे फिल्में शामिल हैं, जो या तो अधूरी पड़ी हैं, या रिलीज होने वाली थीं या जिनकी रिलीज डेट किसी कारण टल गयी। ‘गुलाबो सिताबो’, ‘सूर्यवंशी’, ‘83’, ‘राधे : योर मोस्ट वांटेड भाई’ और ‘कुली नं.-1’ प्रमुख हैं।

‘गुलाबो सिताबो’ महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म है, जो 17 अप्रैल को रिलीज होने वाली थी, लेकिन अब लॉकडाउन के बाद ही पता चलेगा कि यह फिल्म कब रिलीज हो सकेगी? फिलहाल अमिताभ बच्चन भी खामोशी से लॉकडाउन खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं।

इसी तरह अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘चेहरे’ भी तैयार है। हालाँकि 17 मई को अगर लॉकडाउन खुल गया, तो चेहरे रिलीज हो सकती है, क्योंकि इसकी रिलीज तारीख 17 जुलाई है। इससे पहले इसकी दो बार रिलीज तारीख टल चुकी है।

‘सूर्यवंशी’ के प्रड्यूसर्स रोहित शेट्टी, अक्षय कुमार और शिबाशीष सरकार ने कोरोना वायरस को देखते हुए फिल्म की रिलीज तारीख बढ़ा दी थी।

शिबाशीष की एक और फिल्म ‘83’ बीती 10 अप्रैल को रिलीज होनी थी, लेकिन इस फिल्म पर कुछ काम बाकी था, जो लॉकडाउन के चलते नहीं हो सका। वैसे अगर यह फिल्म रिलीज को तैयार होती भी, तो दूसरी फिल्मों की तरह रिलीज नहीं हो पाती।

सलमान खान की फिल्म ‘राधे : योर मोस्ट वांटेड भाई’ इस साल ईद पर 22 मई को रिलीज होने वाली थी। लेकिन इसकी भी शूटिंग लॉकडाउन के चलते अटकी हुई है। 17 मई के बाद अगर लॉकडाउन खुला, तो भी 22 मई को इस फिल्म के रिलीज होने की कम ही सम्भावनाएँ हैं।

‘कुली नं.-1’ वरुण धवन की फिल्म है। यह फिल्म तैयार है और 01 मई को रिलीज होने वाली थी। लॉकडाउन-2 के बाद इसे रिलीज करने की सुगबुगाहट थी, लेकिन अब लॉकडाउन-3 ने इसे फिर रोक दिया है।

कार्तिक आर्यन की फिल्म ‘भूल-भुलैया 2’ थी, जो 31 जुलाई को रिलीज होने वाली है। इसकी कुछ शूटिंग भी बाकी है। अगर समय पर लॉकडाउन खत्म हुआ, तो यह फिल्म थिएटर के परदे पर दिख सकती है।

आमिर खान और करीना कपूर की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ की शूटिंग लटकी हुई है। अद्वैत चन्दन द्वारा निर्देशित यह फिल्म ऑपरेशन ब्लू स्टार और बाबरी मस्जिद विध्वंस पर आधारित है।

आलिया भट्ट की फिल्म ‘सडक़-2’ भी तैयार है। इसकी रिलीज तारीख 10 जुलाई है। अगर 17 मई के बाद लॉकडाउन हटा, तो ‘सडक़-2’ रिलीज हो सकती है। लेकिन इसकी कम ही उम्मीद है। उनकी दूसरी फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ की शूटिंग अधूरी है, जिसकी रिलीज डेट 11 सितंबर है।

इधर, कंगना रनौत की ‘थलाइवी’ की शूटिंग भी रुकी हुई है। यह फिल्म काफी दिलचस्प होगी। क्योंकि राजनीति पर आधारित यह फिल्म जयललिता के जीवन पर बनायी जा रही है। लेकिन इस फिल्म की शूङ्क्षटग रुकने से मेकर्स को बड़ा नुकसान हो रहा है।

स्मृति शेष

जन्म- 4 सित. 1952, मृत्यु- 30 अप्रैल 2020)

ऋषि कपूर की अधूरी फिल्म

फिल्म जगत के मशहूर अभिनेता ऋषि कपूर ने 30 अप्रैल को अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। इससे उनकी फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ अधूरी रह गयी है। इस फिल्म में अपोजिट कास्ट जूही चावला को किया गया है। ‘शर्माजी नमकीन’ की शूटिंग दिल्ली और मुम्बई में करनी थी। दिल्ली में शूटिंग पूरी हो चुकी थी, लेकिन उनकी तबीयत खराब होने से मुम्बई में होने वाली शूटिंग अधूरी थी। माना जा रहा है कि यह फिल्म रिलीज ज़रूर की जाएगी, क्योंकि यह उनकी आिखरी फिल्म है। यह बात उनकी इस आिखरी फिल्म के निर्माता हनी त्रेहान ने यह बात कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि ऋषि कपूर के अचानक बीमार पडऩे से फिल्म की शूङ्क्षटग रोकनी पड़ी थी। उसके बाद लॉकडाउन के चलते भी आगे का काम रुका। हनी की बात मानें, तो इसका मतलब यह भी निकलता है कि अगर ऋषि कपूर बीमार नहीं पड़ते, तो शायद इस फिल्म की शूङ्क्षटग पूरी हो जाती। इस मामले में खुद ऋषि कपूर ने उनसे लॉकडाउन के बाद मिलने का वादा किया था। खैर, होनी को कौन टाल सकता है। अब देखना यह है कि फिल्म की बाकी की शूङ्क्षटग के लिए निर्माता हनी त्रेहान ऋषि कपूर की जगह किसको लेने वाले हैं? एक सवाल यह भी है कि ऐसा तो नहीं कि हनी का मन बदले और वे इस कहानी में कोई ऐसा मोड़ दे दें, जिसमें इस फिल्म के मुख्य िकरदार यानी ऋषि कपूर की मृत्यु दिखा दी जाए और कहानी को एक नया मोड़ दे दिया जाए। वैसे ऐसा करना भी महान् अभिनेता ऋषि कपूर के लिए एक प्रकार की श्रद्धांजलि ही होगी।

इधर, इन दिनों ऋषि कपूर की पत्नी नीतू सिंह इन दिनों बेहद दु:खी हैं। हाल ही में उन्होंने सोशल मीडिया पर ऋषि कपूर के साथ अपनी तस्वीरें शेयर करके भावनात्मक यादों से भरे वाक्यों के साथ शेयर कीं, जिस पर ऋषि कपूर के चाहने वालों ने जमकर टिप्पणियाँ कीं और दिवंगत अभिनेता को श्रद्धांजलि अॢपत की।

(जन्म- 7 जन. 1967, मृत्यु- 29 अप्रैल 2020)

सपने तोड़ गये इरफान खान

29 अप्रैल को बॉलीवुड से हॉलिवुड तक धाक जमाने वाले महान् कलाकार इरफान खान भी दुनिया को अलविदा कह गये। असमय दुनिया को अलविदा कहकर वे कई निर्देशकों और अपने चाहने वालों के सपने तोड़ गये। अब उनको लेकर बनायी जाने वाली फिल्मों के लिए या तो नये कलाकार को तलाश करना होगा या फिर वे फिल्में ही नहीं आ सकेंगी। दरअसल फिल्ममेकर तिग्मांशु धूलिया इरफान खान के साथ दो फिल्में बनाने की योजना बना रहे थे। इनमें एक थी डकैत शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ डाकू पर आधारित ‘ददुआ’ नाम की फिल्म और दूसरी राजनीति पर आधारित थी। लेकिन उनके असयम स्वर्गवास से इन फिल्मों की योजना भी अधूरी रह गयी। यह बात शायद सबको न मालूम हो कि उनके फिल्मी करियर की एक फिल्म ऐसी भी है, जो आज तक रिलीज नहीं हो सकी। दरअसल समलैंगिता पर बनी उनकी यह फिल्म ‘अधूरा’ थी, जो विवादों के चलते रिलीज नहीं हो सकी थी।

90 के दशक में, जब समलैंगिकता पर फिल्में बनाना आसान नहीं था; इस विषय पर चुनौतीपूर्ण अभिनय को इरफान खान ने स्वीकार किया। उस समय इस तरह की फिल्में बनाना निजी करियर को फुटपाथ पर लाने जैसा था। लेकिन इरफान खान ने इस चैलेंज को स्वीकार करके अपनी हिम्मत और कला के प्रति समर्पण की भावना को दर्शाया। लेकिन यह फिल्म रिलीज नहीं हो पायी, जिसका इरफान खान को काफी अफसोस हुआ। हालाँकि इस फिल्म में सिवाय समलैंगिक सम्बन्धों के और कुछ भी विवादास्पद नहीं था। इरफान खान के वैवाहिक जीवन में भी दूसरे कई अभिनेता-अभिनेत्रियों की तरह विवाद नहीं था। उनकी पत्नी सुतापा सिकंदर आजकल बहुत ही दु:खी हैं। वह सोशल मीडिया पर अपने दिवंगत पति की तस्वीरें शेयर करके पुरानी यादें ताज़ा कर रही हैं। अभिनेता इरफान के चाहने वाले सुतापा को सांत्वना देने के साथ-साथ अपने चहेते अभिनेता इरफान को भावभीनी श्रद्धांजलि अॢपत कर रहे हैं।

लॉकडाउन में वापस आया गंजा अवतार

कोविड-19 ने हर चीज़ को प्रभावित किया है। ऐसे में फैशन कैसे अछूता रह सकता है। 1985 में युवा दिलों की धडक़न ब्रायनर ने अपनी फिल्म में एक बोल्ड अवतार गंजा दिखने वाले पहले बाल्ड हॉलीवुड सेलिब्रिटी बन गये थे। अब साढ़े तीन दशक बाद फिर उसी लुक ने धमाकेदार वापसी की है। लेकिन इस बार यह लोगों की मजबूरी की वजह से ज़रूरत बन गया। लॉकडाउन यानी तालाबन्दी के दौरान सैलून और नाई की दुकानें बन्द होने से पुरुष घर पर ही अपना सिर मुँडवा रहे हैं। सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बोल्ड, गंजा लुक तेज़ी से ट्रेंड कर रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसे घरों में पत्नियाँ, माताएँ और बहनें बाल काटने वाले के रूप में एक्सपर्ट हो रही हैं।

मिलिए लखनऊ के रहने वाले हैदर से, जिनकी तीन पीढिय़ों ने कुछ दिन पहले ही गंजा और खूबसूरत लुक अपनाया था। सैयद अमीर हैदर अस्सी के दशक के एक वरिष्ठ राजनेता और वकील हैं। उनके बेटे जीशान उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता हैं और तीसरी पीढ़ी के ट्रेंडी बाल्ड उनके दो बेटे- सात और 11 साल के हैं। ये सभी एक साथ बैठे और अपना सिर मुँडवा लिया।

जीशान ने सिर पर हाथ फेरते हुए बताया- ‘मैं इसे प्यार कर रहा हूँ। यह बहुत अच्छा है।’ उन्होंने कहा कि इस टकला पहल का नेतृत्व करने के बाद कई दोस्तों से कहा है कि उन्हें भी सूट करेगा, और वे भी इसे अपना रहे हैं।

गंजा होने का निर्णय इंजीनियरिंग के तीन छात्रों ने संयुक्त रूप से लिया गया था। एनआईटीएम, बीबीडी, लखनऊ से सिविल इंजीनियरिंग करने वाले सैयद जॉन अब्बास ने अपने दोस्तों- सिद्धार्थ और साहू के साथ, जो कि अलग-अलग इंजनियंरिग कॉलेज से पढ़ाई कर हैं; के साथ सिर मुँडवा लिया। यानी एक ही समय में तीनों गंजे हुए। उन्होंने अपने अनुभव को बाकायदा सोशल मीडिया पर लाइव साझा किया। गंजा होने के लिए उन्होंने ट्रिमर का इस्तेमाल किया।

इतना ही नहीं, जॉन ने तो अपने बाल मुँडवाने के आठ फायदे गिना दिये, जो इस प्रकार हैं :-

  1. सिर की त्वचा अब साफ है।
  2. डैन्ड्रफ अब कोई मुद्दा नहीं।
  3. तेज़ी से बढ़ती गर्मी से राहत।
  4. अब पहले से बेहतर बाल आएँगे।
  5. ट्रेंडिंग का हिस्सा बनने की खुशी।
  6. अब जब तक न चाहो नाई के पास जाने की ज़रूरत नहीं।
  7. संकट के समय में किसी भी तरह के संक्रमण से बचाव।
  8. लॉकडाउन के चलते कोई मज़ाक भी नहीं बना सकता।

दिल्ली में मोहतरमा महरुल ज़फर के किशोर के पुत्र सैयद अली ज़ाफर, तालाबन्दी के दौरान गंजे हो गये। महरुल ने बताया कि किशोर उम्र के बच्चे को गंजा करने के लिए राज़ी करना आसान काम नहीं था। मुझे इसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। जब तक कि अली को यह पता नहीं चल गया कि सभी सैलून बन्द हैं और आसपास के क्षेत्र में कोई भी बाल काटने वाला नहीं है, तब तक वह गंजा होने को राज़ी नहीं हुआ। तब जाकर उसकी माँ ने ही इस काम को अंजाम दिया।

मोहतरमा ने मज़ाक में कहा कि लॉकडाउन ने मुझे टकला बनाने की कला भी सिखा दी। उसने कहा कि वह खुश है कि इस दौरान कुछ नया सीखा।

बेशक अब जब अली ने यह कदम उठाया है और उसकी गंजे वाली फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी है। उसे काफी तारीफ मिल रही है और उसके कुछ दोस्तों ने भी गंजे बैंडवैगन में शामिल होने की इच्छा जतायी है।

लॉकडाउन ने हमको टकला कर दिया वरना हम भी आदमी थे गुलफाम से। मुम्बई के वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद आबिदी ने अपने मेकअप के बारे में यह बात कही। हमारा सैलून बन्द है, और अगर यह खुला भी, तो संक्रमण के खतरे के चलते मुझे बाल कटवाने से परहेज़ करना होगा। यहाँ तक कि अब बाल कुछ ज़्यादा ही बड़े हो गये थे। इसलिए उनको साफ करना ही इलाज था, पर यह तकलीफदेह था।

आबिदी बताते हैं- ‘मेरा बेटा अपनी पसन्द से पिछले एक साल से अधिक समय से गंजा है। मैंने उससे ट्रिमर लाने को कहा। फिर क्या था बेटे ने बिल्कुल घास काटने वाले की तरह मेरी खोपड़ी पर ट्रिमर चला दिया।

उन्होंने बताया कि इसके बाद जब पहली बार मैंने खुद को आईने में देखा, तो सोचने लगा कि खोपड़ी इतनी चमकदार और शानदार होगी, तो खुद को ही पहचान नहीं सकूँगा। इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद आईना नहीं देखूँगा। कम-से-कम तब तक, जब तक मैं इस वास्तविकता को स्वीकार करने की ताकत नहीं जुटा लेता।

उन्होंने कहा कि मैं फख्र से कह सकता हूँ कि मैं पैदाइशी गंजा नहीं हूँ, लेकिन पसन्द से हुआ हूँ। उन्होंने कहा कि अब वह अपने सिर धोने में कम पानी का इस्तेमाल करके पर्यावरण की मदद भी कर रहे हैं।

17 वर्षीय अमेरिका के कियान रेजा अत्रियन को अपने बालों से बेहद प्यार था, इनको काटना एक सपने की तरह था; लेकिन यह सच हो गया। लेकिन जब वे लम्बे हो ज़्यादा गये और बिखरने लग गये तो माँ के सामने लॉकडाउन में इनको साफ करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं था। उनकी माँ इफत कहती हैं कि शुरू में वह थोड़ा उदास लग रहा था और मैं उसे अक्सर गंजे सिर पर उँगलियाँ चलाते हुए देखती। लेकिन कुछ दिनों बाद वह फिर से चहकने लगा। उसने उनसे कहा कि अब वह खुशी से अपने दोस्तों के साथ अपनी तस्वीरें साझा कर रहा है। अब उसकी माँ कहती हैं कि वह उसकी तस्वीरें लेख के ज़रिये भी साझा करेंगी।

फिलहाल इस ट्रेंड के बने रहने की सम्भावना है। यह निहायत सभी के लिए ज़रूरी है और शायद इसीलिए कहा गया है कि परिस्थितियाँ आविष्कार की जननी हैं। यहाँ तक कि जब सैलून खुल जाएँगे, तो संक्रमण के डर से लोग नाइयों से दूर रहना चाहेंगे।

भारत में तापमान में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने लगा है। इसमें और वृद्धि भी होगी। ऐसे में गर्मी के मौसम में पुरुषों को अच्छा बहाना मिल गया है। यह निश्चित रूप से उन सभी पुरुषों के लिए अच्छी खबर है, जो खानदानी टकले हैं और गंजेपन को लेकर चिन्तित रहते हैं। अब वे आराम से बाकी लोगों की तरह सिर पर फख्र से हाथ फेर सकते हैं। इसके लिए उनको कम-से-कम इस ट्रेंड के लिए लॉकडाउन का शुक्रिया अदा करना तो बनता है।

मज़हबों के अपराधी

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। देश के अमर क्रान्तिकारी और अज़ीम शायर अल्लामा इकबाल की मशहूर गज़ल के एक शे’र का यह मिसरा महज़ अनुभवों पर गढ़ा हुआ नहीं है, बल्कि सभी मज़हबों में दी गयी वह सीख है, जो इंसान को इंसान बनाने का दूसरा सबक है। अब इसी सीख को बड़ी संख्या में लोग भूलते जा रहे हैं।

ये वे लोग हैं, जो अपने-अपने मज़हबों की खातिर खून-खराबा करते-कराते हैं। दूसरे मज़हब वालों पर अत्याचार करते हैं। मज़हबी नारे लगाते हैं। हमेशा दूसरे मज़हब को गलत ठहराते रहते हैं। दूसरे नाम से पुकारे जाने वाले उसी ईश्वर को गाली देने लगते हैं, जिसे वे अपनी भाषा में अपना मालिक, पिता और न जाने क्या-क्या मानकर सर्वोत्कृष्ट और पूजनीय मानते हैं और किसी-न-किसी रूप में, किसी-न-किसी तरीके से पूजते भी हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने कभी अपने मज़हब की किताबों को या तो पढ़ा ही नहीं या कभी ठीक से नहीं पढ़ा। ये वे लोग हैं, जिनके लिए मज़हब कोई आदर्श नहीं, बल्कि गले में लटकाकर घूमने वाली एक तख्ती है; जिसे वे एक लिबास यानी वेशभूषा और शरीर के साज-ओ-शृंगार से तय करते हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें मज़हब की अच्छी शिक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं, बल्कि उसके नाम पर पाखण्ड करने की आदत है। ये वे लोग हैं, जिन्हें मिथ्या शोरगुल में धर्म दिखायी देता है। ये वे लोग हैं, जो इंसान के रूप में पैदा होकर भी आज तक इंसान नहीं हो सके।

दरअसल ये लोग सही मायने में इंसानियत के दुश्मन हैं; जो मज़हबों में सिखाये प्यार से लोगों का दिल नहीं, बल्कि तलवार के बल पर संसार जीतना चाहते हैं। लोगों का विश्वास जीतकर उनके दिलों पर राज करना नहीं चाहते, बल्कि ज़बरन उनका हक छीनकर, उन पर अत्याचार करके पूरे संसार को अपने वश में करना चाहते हैं और उस पर शासन करना चाहते हैं। मेरी नज़र में ऐसे लोग अपने ही मज़हब के सबसे बड़े दुश्मन हैं; अपने ही मज़हब के अपराधी हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग केवल दूसरे मज़हब के लोगों पर ही अत्याचार करते हैं, बल्कि ये वे लोग हैं, जो मौका मिलने पर अपने ही मज़हब के निचले पायदान पर खड़े लोगों को भी रौंद डालते हैं। ऐसे लोग न सिर्फ मज़हब के, बल्कि इंसानियत के भी दुश्मन हैं और ईश्वर के वास्तविक अपराधी भी। क्योंकि ये लोग ईश्वर के द्वारा पैदा किये गये प्राणियों का हक छीनते हैं; उनकी हत्या करते हैं; उनका जीवन दुश्वार बनाते हैं। यानी ईश्वर की बनायी सृष्टि में खलल डालते हैं। ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध अपना कानून चलाते हैं; अपनी मर्ज़ी चलाते हैं। ऐसे लोग दुुनिया की हर चीज़ पर केवल खुद का हक मानते हैं और उम्र भर दूसरों के हक छीन लेने की कोशिश में लगे रहते हैं।

दु:ख इस बात का होता है कि मज़हब के नाम पर मरने-मारने पर आमादा लोग चन्द ऐसे लोगों के हाथ की कठपुतली मात्र होते हैं, जो धाॢमक और राजनीतिक सत्ताओं पर अपना एकाधिकार चाहते हैं। और चिन्ता की बात यह है कि संसार भर में, हर मज़हब में ऐसे उन्मादी लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे ही अन्ध-समर्थकों के बलबूते पर चन्द मज़हब के अपराधी मज़हब के लिए मरने-मारने वालों की फौज इकट्ठी करने में सफल भी हो जाते हैं। ये सत्ता के पिस्सू लोग किसी एक मज़हब में ही नहीं हैं, बल्कि सभी मज़हबों में हैं। यही वजह है कि आये दिन किसी-न-किसी मज़हब के लोगों का झगड़ा दूसरे मज़हब के लोगों से चलता रहता है।

मज़े की बात यह है कि इन मज़हब के ठेकेदारों को मज़हबों को लेकर झगडऩे वाले लोगों को समझाना चाहिए, लेकिन ये उन्हें और उकसाते हैं; लड़वाते हैं और मरवाते हैं। इस बात को लोग सभी लोग भले ही न समझें, लेकिन कुछ लोग तो ज़रूर समझते हैं। शायद यही वजह है कि संसार में अमन-चैन, भाईचारा, मोहब्बत और इंसानियत जैसी जीवन के बहुमूल्य रत्न बचे हुए हैं और शायद हम भी।

यह एक अफसोसनाक सच है कि एक बुरा आदमी पूरी बस्ती में झगड़ा करा सकता है। और ऐसा आदमी जितना ताकतवर होता जाता है, लोगों में उतना बड़ा झगड़ा करा सकता है, उनके दरमियान उतनी ही बड़ी खाई पैदा कर सकता है। ऐसा नहीं है कि इस खाई में केवल उस समुदाय या मज़हब के लोग गिरते-मरते हैं, जिनके खिलाफ दूसरे मज़हब या समुदाय के लोगों को भडक़ाया जाता है; बल्कि उतनी ही संख्या में उस समुदाय या मज़हब के लोग भी इसी खाई में गिरते-मरते हैं, जिन्हें उनकी और उनके मज़हब या समुदाय की सुरक्षा का भरोसा दिया जाता है। कहने का मतलब इतना है कि मज़हबी झगड़े में हर किसी को नुकसान ही होता है।

इसलिए दुनिया भर के लोगों को ऐसे किसी भी व्यक्ति, मज़हब के ठेकेदारों या सियासी लोगों के बहकावे में कतई और कभी भी नहीं आना चाहिए, जो उन्हें मज़हब और ईश्वर की रक्षा का जोश दिलाकर झगड़े-फसाद और धर्मांधता की खाई में धकेलना चाहते हैं। क्योंकि ऐसे सत्तालोलुप लोग न केवल आपके और संसार भर के दुश्मन हैं, बल्कि ईश्वर और मज़हब के अपराधी भी हैं।

सवाल यह है कि ऐसे लोगों से बचा कैसे जाए? इसका सीधा-सरल उपाय है कि हम ऐसे लोगों पर आँखें बन्द करके भरोसा न करें। ऐसे लोग जहाँ भी दूसरे मज़हबों या दूसरे मज़हबों के लोगों को जब भी गलत कहें, उनका तुरन्त विरोध करें। ऐसे लोगों की कोई फालतू बात, जिसमें कि इंसानियत न हो; झगड़े की बू आती हो; आपसी भाईचारा और मोहब्बत पर हमला होता हो; बिल्कुल न सुनें। और सबसे बड़ी बात, ऐसे लोगों को धन देकर सबल न बनाएँ। क्योंकि ये लोग किसी का भी भला नहीं कर सकते; अपने मज़हब और अपने मज़हब के लोगों का भी नहीं।

कोरोना संक्रमित मिलने पर दफ्तर सील होगा या नहीं?

देश में चौथी बार लॉकडाउन का विस्तार 31 मई तक किया जा चुका है, लेकिन कई तरह की छूट दी गई हैं। इसके साथ ही कोरोना संक्रमितों की संख्या एक लाख के पार हो चुकी है। लेकिन इस बीच, इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं है कि अगर किसी निजी या सरकारी संस्थान में कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति पाया जाता है तो क्या उस दफ्तर को सील कर दिया जाएगा। अब स्वास्थ्य मंत्रालय ने दफ्तरों और सभी तरह के कार्यस्थलों में कैसे काम होगा? किन-किन बातों का ध्यान रखना है? क्या करना है और क्या नहीं? इसके लिए नए सिरे से विस्तार से जानकारी दी है। इस गाइडलाइन के अहम बिंदुओं को ऐसे समझ सकते हैं।

दफ्तरों में लोगों के बीच एक मीटर की दूरी रखना जरूरी होगा। चेहरे पर मास्क लगाना अनिवार्य होगा।

अगर कोई संदिग्ध मरीज मिलता है तो अगर स्टाफ के किसी भी व्यक्ति को फ्लू जैसे लक्षण हैं तो उसे दफ्तर न बुलाएं और स्थानीय प्रशासन से सलाह लें।

अगर ऐसा कोई स्टाफ कोरोना संक्रमित पाया जाता है तो उसे तुरंत अपने दफ्तर को सूचित करना होगा।

सभी को अपने स्वास्थ्य की निगरानी स्वयं करनी होगी। सेहत में जरा भी गड़बड़ दिखने पर संस्थान को बताना होगा।

अगर एक ही दफ्तर में काम करने वाले किसी व्यक्ति में कोरोना जैसे लक्षण नजर आते हैं तो उसे वर्क प्लेस पर किसी एक कमरे में दूसरों से आइसोलेट कर दें और तुरंत डॉक्टर को जांच के लिए बुलाएं।

इसके बाद जिला स्तर की टीम हालात पर गौर करेगी। जोखिम के हिसाब से वह संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने वाले लोगों और संस्थान को डिसइन्फेक्ट करने की सलाह देगी।

अगर किसी मरीज के संपर्क में आ चुके लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है तो उस वर्क प्लेस के कोरोना का क्लस्टर बनने की आशंका रहेगी। वहां 15 से ज्यादा मामले सामने आ सकते हैं। ऐसे में संपर्क में आए लोगों का रिस्क असेसमेंट होगा। उन्हें आइसोलेट करना होगा या क्वारंटाइन करना होगा।

अगर एक या दो मामले सामने आए हैं तो मरीज 48 घंटे में जहां-जहां गया होगा, उन जगहों को डिसइन्फेक्ट किया जाएगा।

ऐसे मामले में पूरा दफ्तर बंद करना जरूरी नहीं होगा। दफ्तर डिसइन्फेक्ट होने के बाद वहां पर दोबारा काम शुरू किया जा सकेगा।

अगर किसी दफ्तर में ज्यादा मामले सामने आए हैं तो पूरी इमारत को दो दिन के ​लिए बंद करना होगा।

इमारत को बारीकी से डिसइन्फेक्ट किया जाएगा। जब बिल्डिंग को दोबारा काम करने वाली स्थिति के तौर पर  घोषित नहीं किया जाता, तब तक सभी स्टाफ को घर से काम करेगा।

काम करने वाले को एक निश्चित अंतराल के बाथ हाथ साफ करते रहना होगा। अगर गंदे हों तो 40 से 60 सेकंड तक धुलने के लिए प्रेरित किया जाएगा।

कम से कम 20 सेकंड तक अल्कोहल बेस्ड सैनिटाइजर का प्रयोग हर कार्यालय में करना होगा। खांसते-छींकने वक्त रूमाल या कपड़े का इस्तेमाल करें।

यूपी के संभल में दबंगों ने सपा नेता, बेटे की हत्या की

उत्तर प्रदेश में मंगलवार को लॉक डाउन के बीच दबंगों ने समाजवादी पार्टी के एक नेता और उनके बेटे की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्या के समय के एक वीडियो भी सामने आया है जिसमें हत्यारे हाथ में बंदूकें लेकर घटनास्थल पर हैं।

जानकारी के मुताबिक यह घटना संभल जिले की है। हत्या के पीछे बजह गांव में मनरेगा के तहत बन रही एक सड़क पर विवाद होने से जुड़ी है। हत्यारे दोनों की हत्या के बाद फरार बताये गए हैं। घटना के बाद गाँव में तनाव है।

संभल जिले के बहजोई थाना क्षेत्र के समसोई गाँव में मनरेगा के तहत सड़क को लेकर दो पक्षों में विवाद पैदा हो गया। सड़क बनाने का कुछ लोग विरोध कर रहे थे।  विवाद इतना बढ़ गया कि वहां गोलीबारी हो गयी। आरोपियों ने वहां मौजूद सपा नेता छोटे लाल दिवाकर और उसके बेटे को गोली मार कर हत्या कर दी। सपा नेता की पत्नी वहां की ग्राम प्रधान हैं।

फायरिंग के समय वहां लोग भी मौजूद थे लेकिन किसी ने घटना होने से बचाने की कोशिश नहीं की। एक व्यक्ति ने घटना का वीडियो बना लिया। वीडियो में आरोपी गोली मारते हुए साफ दिखाई दे रहे हैं। पुलिस ने कुछ लोगों को हिरासत में लिया है, लेकिन हत्या के मुख्य आरोपी अभी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं।

छोटे लाल विधानसभा चुनाव में एसपी के प्रत्याशी भी थे। घटना की जानकारी मिलते ही जिले के आला अधिकारी वहां पहुंचे, हालांकि सपा नेता के परिजनों ने पुलिस पर लापरवाही का आरोप लगाया है। उनका आरोप है कि पुलिस को सूचना देने के बावजूद वह बहुत देर से घटनास्थल पर पहुंची।

सपा ने ट्वीट करके अपने नेता और उनके बेटे की हत्या पर आरोप लगाया कि ”हत्यारी सरकार! बीजेपी के सत्ता संरक्षित गुंडे कर रहे जनता की आवाज उठाने वालों पर प्रहार! संभल के दलित नेता और चंदौसी से पूर्व सपा विधानसभा प्रत्याशी छोटे लाल दिवाकर समेत उनके पुत्र की हत्या दुखद! परिजनों के प्रति संवेदना! हत्यारों को गिरफ्तार कर हो न्याय!’ पार्टी ने वारदात के समय वाला वीडियो भी ट्वीट किया है।