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कोविड-19 ने दी ऑनलाइन क्लास को गति

यह ऑनलाइन पढ़ाई का समय है, जो हर समय व परिस्थितियों में हिट रहने वाला है। ऑनलाइन शिक्षण और शैक्षिक प्रौद्योगिकी सबसे बड़ी परीक्षा का सामना कर रही है साथ ही इसके अस्तित्त्व के लिए यह सबसे बड़ा अवसर है। लॉकडाउन में जब घर पर रहना है, तो ऐसी चुनौती युवा और अनुभवियों के लिए एक नया अवसर खोलती है। प्री-स्कूल से लेकर पीएचडी करने वालों के लिए भी कोरोना वायरस महामारी ने अचानक सभी को घरों पर रहने को मजबूर कर दिया है। महामारी ने किंडर गार्डन से लेकर 12वीं कक्षा के स्कूलों और विश्वविद्यालयों तक को बन्द कर दिया गया है और छात्रों को घर में रहकर पढऩे का निर्देश दिया है।

16 मार्च, 2020 को केंद्र सरकार ने स्कूलों और कॉलेजों के लिए देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान किया था। 18 मार्च को सीबीएसई ने परीक्षा केंद्रों के लिए संशोधित दिशा-निर्देश जारी किये। 19 मार्च को सीबीएसई और जेईई की मुख्य परीक्षाएँ 31 मार्च, 2020 तक के लिए स्थगित कर दी गयीं। 20 मार्च को महाराष्ट्र सरकार ने परीक्षाएँ रद्द कर दीं। जबकि मध्य प्रदेश बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन ने बोर्ड परीक्षाओं को स्थगित कर दिया। केरल सरकार ने 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं को स्थगित कर दिया। असम सरकार ने 31 मार्च तक सभी परीक्षाएँ रद्द कर दीं। संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा, 2019 के लिए साक्षात्कार को भी स्थगित कर दिया। तमिलनाडु और पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) में एसएससी परीक्षा भी स्थगित कर दी गयी। इसका शिक्षा पर बहुत ज़्यादा प्रभावित किया है।

वैश्विक स्तर पर 1.2 अरब से अधिक बच्चे कक्षाओं से महरूम हैं। जबकि दुनिया भर में अलग-अलग देशों में कोविड-19 संक्रमण दर के बिन्दु भिन्न हैं। महामारी के कारण वर्तमान में स्कूल बन्द होने की वजह से 186 देशों में 1.2 अरब से अधिक बच्चे प्रभावित हैं। डेनमार्क में, 11 वर्ष तक के बच्चे 12 मार्च से बन्द किये जाने के बाद अब नर्सरी और स्कूलों में लौट रहे हैं; लेकिन दक्षिण कोरिया में छात्र अपने शिक्षकों से ऑनलाइन कक्षाएँ ले रहे हैं। भारत में जल्दबाज़ी में तौर-तरीकों और सम्भावित समस्याओं पर चर्चा किये बिना विश्वविद्यालयों में शिक्षकों को इस लॉकडाउन के दौरान एमएचआरडी व यूजीसी द्वारा ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू करने के लिए कहा गया था। यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) ने कहा कि छात्रों और शिक्षकों को ऑनलाइन लॄनग के ज़रिये समय का सदुपयोग करना चाहिए।

कोविड-19 महामारी के चलते लॉकडाउन ने एक नये जीवन की शुरुआत की और कक्षाओं के लिए हज़ारों छात्र कम्प्यूटर, लैपटॉप और स्मार्ट फोन स्क्रीन के ज़रिये सीख रहे हैं। महामारी ने छात्रों और शिक्षकों के लिए घर से काम करने के लिए ऑनलाइन क्लास की योजना और प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिए मजबूर किया है। तकनीक ने क्लासरूम में सीखने की परम्परा का खात्मा कर दिया है, जहाँ पर छात्र बेहतर तरीके से जवाब देते थे; साथ ही अभिभावक भी संतुष्ट होते थे।

मान लेते हैं कि अभी मिड-सेमेस्टर (वर्षाद्र्ध) चल रहा था और पाठ्यक्रम का एक हिस्सा पूरा किया जाना बाकी था। ऑनलाइन कक्षाओं के ज़रिये संकाय पाठ्यक्रम को पूरा कराने का प्रयास कर रहे हैं। इससे छात्रों को भी मदद मिलेगी। एक बार शिक्षण संस्थान फिर से खुलने पर छात्रों के लिए पढ़ाई के प्रवाह के लिए बनाये रखते हुए परीक्षाएँ आयोजित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा छात्र अध्ययन, असाइनमेंट व अन्य परियोजनाओं में भी लगे हुए हैं। अधिकांश संकाय सदस्यों को लगता है कि ज्ञान में कोई कमी नहीं आ सकती।

जूम, गूगल मीट और वेबएक्स जैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग प्लेटफॉर्म का उपयोग ऑनलाइन पढ़ाई के रूप में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। दरअसल, कोविड-19 ने शिक्षकों और छात्रों के लिए जो चुनौती दी है, उसे तकनीक और प्रौद्योगिकी के ज़रिये मात दी जा रही है। लेक्चर और वेबिनार के माध्यम से लाइव ऑनलाइन कक्षाओं के स्क्रीनशॉट को इंटरनेट की तकनीक के माध्यम से जोड़ा गया है, जिसके परिणामस्वरूप ऑफलाइन से ऑनलाइन कक्षाओं में सहज पहुँच बन जाती है, जो कि समय की ज़रूरत बन गया है। यूट्यूब और फेसबुक लाइव के माध्यम से लेक्चर को अपलोड किया जाना अब फैशन हो गया है। आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने भी परिस्थितियों को देखते हुए टीवी चैनलों के ज़रिये छात्रों तक पहुँच बनायी है। इसके अलावा प्रोक्टोरियो एक गूगल क्रोम एक्सटेंशन एक सॉफ्टवेयर है, जो छात्रों की ऑनलाइन परीक्षा लेने में सक्षम है। छात्र और संकाय दोनों आपने काम में व्यस्त रहते हैं। छात्रों को ऑनलाइन कक्षाओं के समय और विषय के बारे में ईमेल या व्हाट्सएप के माध्यम से पहले ही सूचित किया जाता है।

यह एक तथ्य है कि अधिकांश शिक्षण संस्थान छात्रों से जुडऩे और ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन करने की सुविधा की स्थिति में नहीं हैं। फिर भी वर्तमान स्थिति को देखते हुए कई शैक्षणिक संस्थानों ने ऑनलाइन कक्षाओं को चलाने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं वाले मीटिंग प्लेटफॉर्म और एप्लिकेशन का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे ऑनलाइन शिक्षण के विचार को बढ़ावा मिला है और पहले से ही देश भर के शैक्षणिक संस्थानों में सफलतापूर्वक लागू किया गया है। हालाँकि यह तंत्र बड़े पैमाने पर शहरी क्षेत्रों में अपनाया जा रहा है और समाज के समृद्ध वर्गों के लिए सीमित संस्थानों तक पहुँच है।

लेकिन क्या ग्रामीण भारत के छात्रों तक इस तकनीक की पहुँच है? डिजिटल प्लेटफॉर्म के रूप में एमएचआरडी, यूजीसी और इसके अंतॢवश्वविद्यालय केंद्र (आईयूसी), सूचना और पुस्तकालय नेटवर्क (इंफलाइबनेट) और कंसोॢटयम फॉर एजुकेशनल कम्युनिकेशन (सीईसी) ने कई आईसीटी पहल की हैं। इन डिजिटल प्लेटफॉर्म के ज़रिये शिक्षक, छात्र और शोधार्थी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से ज्ञान हासिल कर सकते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हाल ही में तीन पहलें- स्वयंवर, स्वयं प्रभा, और नेशनल अकेडमिक डिपॉजिटरी शुरू की हैं; जिनका मकसद भारत में ई-लॄनग क्षेत्र का विस्तार करना है। स्वयं और स्वयं प्रभा डिजिटल कक्षाओं की एक प्रस्तुति है, जो ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों को इंटरनेट या डायरेक्ट-टू-होम सेवा के माध्यम से कनेक्ट करने और शैक्षिक सामग्री तक पहुँचने में सक्षम बनाते हैं। स्वयं प्रभा का उद्देश्य डायरेक्ट-टू-होम (डीटीएच) सेवा के सम्भावित उपयोग पर टैप करना है और पहले से ही एक डिश एंटीना स्थापित करने की योजना है, जो छात्रों को मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा संचालित शैक्षिक चैनलों तक पहुँच प्रदान करेगा। इसके बावजूद  ग्रामीण भारत में अधिक बढ़ावा और निवेश की आवश्यकता है।

अड़चनें और संघर्ष

ऑनलाइन कक्षाएँ आयोजित करने के लिए शिक्षक के साथ-साथ भाग लेने वाले छात्रों को अपने घरों में इंटरनेट कनेक्टिविटी की आवश्यकता होती है। जूम, गूगल मीट, व्हाट्स एप और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं के मामले में ब्रॉडबैंड, वाई-फाई के संदर्भ में इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए बेहतर नटवर्क महत्त्वपूर्ण है। छात्रों के अपने गाँवों में लौटने के साथ उनमें से कई के पास हाई बैंडविड््थ या बेहतर नेटवर्क का इंटरनेट कनेक्शन नहीं है, जो ऑनलाइन पाठ्यक्रमों की आवश्यकता होती है। इसके अलावा ऑनलाइन शिक्षण में समस्या पैदा करने वाले शिक्षकों और छात्रों के स्थानों में सर्वर प्रणाली और ट्रांसमिशन टॉवरों में गम्भीर क्षति के कारण इंटरनेट की गति लम्बे समय से रुकावट है। जो लोग शहर या शहर के बाहर फँसे हुए हैं, वे कक्षा में सभी छात्र शामिल नहीं हो पा रहे हैं और सभी शिक्षक अपने स्थानों के कारण ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन करने में भी सक्षम नहीं हैं। जबकि कुछ शिक्षक इस तरह होने वाली पढ़ाई के बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं।

ऑनलाइन कक्षाओं तक पहुँच के लिए शिक्षकों और छात्रों दोनों के पास लैपटॉप/डेस्कटॉप, स्मार्ट फोन या टैबलेट जैसे उपकरण होने चाहिए। ऐसे उपकरण विशेष रूप से उन बच्चों के पास होते हैं, जिनके परिवार की आॢथक स्थिति अच्छी होती है और इसलिए ऑनलाइन कक्षाओं में बाधा सामने आती है।

ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन करने वाले शिक्षकों को भी प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है, क्योंकि यह क्लासरूम में पढ़ाने से बिल्कुल अलग होता है। कक्षा में शिक्षक के पास सभी छात्रों के दिखने के साथ पहुँच होती है और उनकी शारीरिक भाषा के माध्यम से उनकी एकाग्रता और समझ के स्तर का आकलन किया जा सकता है, जो पढ़ाने के दौरान पाठ्यक्रम सुधार को सक्षम बनाता है। ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन करते समय ऐसी दृश्यता नहीं होती है। हालाँकि इस अवधारणा को अपनाना मुश्किल लगता है। यह पारस्परिक कौशल से जुदा होता है, जिसमें छात्रों को अपनी शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी ज्ञान हासिल करने की आवश्यकता होती है। विज्ञान के छात्रों के लिए यह वहाँ मददगार नहीं हो सकता, जहाँ प्रयोगशाला परीक्षण की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष

हालाँकि तमाम बाधाओं के बीच कोविड-19 ने हमारे लिए ऑनलाइन पढ़ाई के लिए एक रोमांचक यात्रा की शुरुआत कर दी है। कोई भी इस तथ्य को नकार नहीं सकता है कि इसे भविष्य के बड़े अवसरों के लिए दरवाज़े खोल दिये हैं। जबकि कुछ का मानना है कि ऑनलाइन पढ़ाई के लिए बिना किसी पूर्व योजना के जल्दबाज़ी में उठाये गये कदम से गरीब बच्चा प्रभावित होगा। दूसरों का मानना है कि शिक्षा का एक नया हाइब्रिड मॉडल महत्त्वपूर्ण लाभ के साथ उभरेगा। मेरा मानना है कि शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में अकस्मात तेज़ी आयेगी और आने वाले दिनों में ऑनलाइन शिक्षा अंतत: भारत में पढ़ाई का एक अभिन्न अंग बन जाएगी।

(लेखिका नेशनल यूनिवॢसटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ की एसोसिएट प्रोफेसर और डीन ऑफ फैकल्टी हैं।)

आ अब लौट चलें…

मौत का पर्याय बन चुकी वैश्विक महामारी (कोविड-19) से पलायन के ऐसे दौर की किसी ने कल्पना नहीं की होगी। अगर स्थिति का अन्तर भुला दें, तो यह कमोबेश देश विभाजन के बाद हुए पलायन जैसा ही है। तब अपना घर छोडऩा पड़ा था, अब अपने घर पहुँचने की लालसा है। पलायन रोकने के लिए जिस दूरदर्शिता की दरकार थी वह न केंद्र के पास रही न राज्य सरकारों के पास। नतीजतन देश के ज़्यादातर हिस्सों में पलायन का वह भयावह दौर शुरू हुआ जो कल्पना से परे था। गोद में बच्चा और सिर पर गठरी लादे कोई महिला भीड़ के बीच सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गाँव और घर पहुँचना चाहती है। मास्क लगाए छोटे-छोटे बच्चे कदम से कदम मिलाकर अपने घर पहुँचने की ललक में चले जा रहे हैं। न रुकने का ठोर, न खाने का ठिकाना। मिल गया तो खा लिया, वरना मंज़िल की तरफ आगे कदम बढऩे ही हैं।

रेलवे लाइनों पर सैकड़ों हज़ारों का रैला, राष्ट्रीय राजमार्गों पर वाहन से ज़्यादा मजबूर लोगों की पलटन दिखती है। घर की तरफ जाते देख अन्य लोगों में भी हूक उठती है और देर सबेर वे भी काफिले में निकल पड़ते हैं। क्या राष्ट्र के नाम संदेश में इन्हें रोकने का जतन नहीं किया जाना चाहिए था। क्या उन्हें काफिला जुडऩे से पहले उन्हें जल्द सब कुछ ठीक होने का भरोसा नहीं दिलाया जाना चाहिए था। यह सब होता, तो इतने बड़े स्तर पर पलायन नहीं होता। जो लोग शहरों को छोडक़र सुरक्षित अपने घर पहुँचना चाहते हैं वे वहीं रहकर काम-काज करेंगे। नहीं तो, वे फिर उन्हीं नगरों और महानगरों का रुख करेंगे, जहाँ उन्हें काम मिलता है और वे मेहनत करके परिवार का भरण पोषण करते हैं। अगर गाँवों में आजीविका के भरपूर साधन हों तो करोड़ों लोग अपने घर छोड़ते ही क्यों? उन्हें ज़बरदस्ती कब तक रोका जा सकता है, जब धैर्य का बाँध टूटता है, तो कोई कुछ भी कदम उठाने के लिए तत्पर हो उठता है।

यह अंतहीन खोज जैसा ही है लेकिन जब काम वाला शहर छोड़ दिया, तो अपने देश, अपने गाँव और अपने घर पहुँचना लाजिमी ही है। भूखे-प्यास लोग बेतहाशा आगे बढ़ते जा रहे हैं। कहीं पुलिस की पिटाई भी खाते हैं, तो कहीं-कहीं शेल्टर होम में भेज दिये जाते हैं। यह मंज़र आज़ादी के बाद पहली बार देश ने देखा। अकाल, प्राकृतिक आपदा या फिर दंगों आदि के बाद छिटपुट तौर पर ऐसे पलायन होते रहे हैं, लेकिन मौज़ूदा प्रवृत्ति कुछ अलग ही दिखी।

महामारी से बचाव के लिए लॉकडाउन कारगर रहा है। इसे लेकर कोई तर्क-वितर्क नहीं है, पर कुल आबादी के एक बड़े हिस्से को क्या आॢथक पैकेज से संतुष्ट और लम्बे समय तक बिना काम रोके रखा जा सकता है? कदापि नहीं, तो फिर जान है, तो जहान के सूत्र पर लॉकडाउन को कितने समय तक खींचा जा सकता है। जान है और जहान भी को पहले लॉकडाउन के बाद अमल में लाया जाता तो आज पलायन का यह मंज़र नहीं देखने को मिलता। बिना किसी सरकारी सहायता के हज़ारों किलोमीटर दूर अपने राज्यों की तरफ निकल पड़े। गंतव्य तक पहुँचने की उन्हें कुछ उम्मीद रही होगी, लेकिन क्या उनके लिए यह डगर इतनी आसान थी। किसी को भी अपने घर जाने से कैसे रोका जा सकता है। जो स्वेच्छा से अपने घर जाना चाहते हैं, वे जा सकते हैं। राज्य सरकारें अपने लोगों को सुरक्षित अपने घरों तक पहुँचाने यह उनका फर्ज़ भी है। ये लोग किस मजबूरी में अपने घर पहुँचना चाहते हैं, इसके बारे में गम्भीरता से विचार नहीं किया गया। शुरू में सख्ती के कारण जो जहाँ है, वह वहीं रहे सम्बन्धित राज्यों की उन्हें सँभालने की ज़िम्मेदारी है। पर यह ज़्यादा समय तक नहीं चला। राज्य सरकारें इस वर्ग को उम्मीदों पर ज़रा भी खरी नहीं उतरी। हज़ारों लोगों के भूखे मरने की नौबत आने लगी। लॉकडाउन में जब काम ही नहीं, तो पैसा कहाँ से आएगा। जब पैसा नहीं तो क्या वह खुद खायेगा और क्या परिवार के लोगों को खिला सकेगा?

अब उम्मीद की कुछ किरण जगी है। अर्थ-व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की कवायद पर गम्भीरता से अमल होने लगा है। रोज़ कमाने-खाने वाले लोगों को भी अब काम मिलने की उम्मीद होने लगी है। निजी क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को फिर के काम बहाल होने और हाथ में पैसा आने की उम्मीद पैदा हुई है। लुधियाना से लेकर मुम्बई तक के अप्रवासी श्रमिकों को ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आने का भरोसा होने लगा है।

कई राज्यों में केंद्र के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, औद्योगिक इकाइयों में काम शुरू होने लगा है, सीमित संख्या में श्रमिकों को काम मिलने लगा है। राज्य सरकारें मज़दूरों की बदली सोच से आशान्वित होने लगी हैं। उदाहरण के दौर पर पंजाब में 11 लाख से ज़्यादा अप्रवासी लोग हैं। ये अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ के तौर पर हैं। हर राज्य में कमोबेश ऐसा ही होगा। ज़्यादा-से-ज़्यादा औद्योगिक इकाइयाँ चलने लगें, इसके लिए सरकार काफी गम्भीर दिखती है।

पंजाब में कृषि का काम भी बाहरी राज्यों से आने वालों पर निर्भर है। गेहूँ की कटाई के बाद अब राज्य में (जीरी) चावल की पौध लगाने का काम शुरू होने वाला है। यह काम एक पखवाड़े पहले शुरू हो जाएगा। इसमें हज़ारों लोगों की ज़रूरत होगी. वे कहाँ से आएँगे? अगर पलायन नहीं रुकेगा, तो चावल की खेती प्रभावित होने का खतरा है। राज्य सरकार का मानना है कि अगर मज़दूरों को काम मिले, तो वे यहाँ रुक सकते हैं। वे यहाँ काम के लिए ही तो आये हैं और वही नहीं मिल रहा था। इसी के चलते वे पलायन को मजबूर हो रहे थे। अपने घरों में पहुँच सके लोगों ने फिर से काम के लिए इच्छा जतायी है, लेकिन उनका इतनी जल्दी आना मुश्किल होगा। मगर जो यहाँ हैं, उनके रुकने और काम करने में कोई परेशानी नहीं आने वाली। उम्मीद की जानी चाहिए कि अर्थ-व्यवस्था को धीरे-धीरे पटरी पर लाने के लिए ठोस कदम उठेंगे। सरकारों की मंशा भी इस दिशा में सकारात्मक ही लगती है। हरियाणा की स्थिति भी कमोबेश पंजाब जैसी ही है। यहाँ उद्योगों के अलावा कृषि में बाहरी राज्यों के लोगों पर निर्भरता है।

फिर से ज़िन्दगी को पटरी पर लाने की सोच और दूरंदेशी एक सीमित वर्ग में पनपी है। ऐसे लोग अब रुकना चाहते हैं। यह प्रतिशत अभी काफी कम है, लेकिन चौतरफा पलायन में इससे कुछ संदेश जाएगा। पलायन क्यों हो रहा था इसकी तह में जाना होगा। जहाँ-तहाँ फँसे कामगारों के पास काम नहीं था। मालिकों ने आधा अधूरा पैसा देकर उन्हें स्थिति के ठीक होने तक जाने को कह दिया। किराया न होने की सूरत में मकान खाली कर देने पड़े।

पहले चरण के 21 दिन में ही लगभग सारा पैसा खर्च हो गया। राज्य सरकारों का श्रमिकों के भोजन और रहने आदि की व्यवस्था के वादे चुनावी से ज़्यादा नहीं रहे। एक बड़ा वर्ग भूख से निढाल हो चुका था। उन्हें महामारी से मौत से पहले भूख के ज़िन्दगी निगलने का खतरा सता रहा था। उनकी सोच हो गयी कि जब मरना ही है, तो क्यों न अपने घरों की तरफ रुख किया जाए। मौत दो दोनों तरफ ही है। ऐसे में सरकारों को आगे आकर उन्हें काम मिलने का ठोस भरोसा दिलाना था, पर ऐसा नहीं हुआ। कोई अपना घर ऐसे ही तो नहीं छोड़ता। आजीविका के लिए हज़ारों किलोमीटर दूर रह परिवार के भरण-पोषण वाले ये लोग बड़े जीवट वाले होते हैं। घर जाने से पहले अगर काम मिले तो वे रुकने पर विचार कर सकते हैं। उन्हें काम देगा कौन? कौन इसकी व्यवस्था करेगा। यह सब सरकार पर निर्भर करता है।

पलायन कर रहे लोगों को यूरोपीय देशों में महामारी में बड़े पैमाने पर होने वाली मौतों की भी कुछ-कुछ जानकारी कहीं से मिलती ही है। यहाँ कमोबेश अभी तो वैसी स्थिति नहीं है और शायद वैसी हो भी न, लेकिन यह भविष्य के गर्भ में है। पलायन रुके, कामगारों को काम मिले। ज़िन्दगी पहले जैसी होने में समय लगेगा, लेकिन उन्हें इस बात का भरोसा तो हो जाए कि वे कोरोना से पहले भूख से न मर जाएँ। खाने के अलावा उन पर परिवार की भी ज़िम्मेदारी है। लिहाज़ा उन्हें काम मिलना चाहिए और यह सब सरकार के भरोसे है। ऐसा नहीं कि श्रमिकों को व्यवस्थित तरीके से घर पहुँचाने के लिए जतन नहीं हुए। कोई तीन लाख लोग विशेष श्रमिक गाडिय़ों से अपने-अपने घरों को पहुँच चुके हैं। यह संख्या करोड़ों में है। सोशल डिस्टेंस आदि के चलते संख्या सीमित रखनी होती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सिलसिला अब कम होगा, क्योंकि एक वर्ग को लगने लगा है कि शायद ज़िन्दगी ढर्रे पर आने वाली है। जो अपने घर पहुँच गये वे काम पर लौटना चाहते हैं और जो जाना चाहते हैं, उन्हें काम मिलने की उम्मीद होने लगी है।

कोविड-19 और दिव्यांगों की मुश्किलें

दुनिया भर में 1.3 अरब से भी ज़्यादा लोग दिव्यांग (अपंग) होते हुए भी जीवन जी रहे हैं। हर कहीं आज कोविड-19 (कोरोना वायरस) महामारी की तरह फैल रहा है। लेकिन दिव्यांग लोग शेष दुनिया से एकदम कटे हुए दिखते हैं। दुनिया के विभिन्न देशों में इनकी ज़िन्दगी अलग-सी और एकाकी दिखती है। मानो बड़े और भयावह बात में अपनी समस्याओं का निदान इन्हें ही करना हो। जबकि समाज इनकी मदद करता ही है। इसी कारण इनके कामकाज के तौर-तरीकों में बदलाव भी नज़र आता है। दिव्यांग समुदाय में आज कई घर से ही दफ्तर का काम, घरों के बाहर तक सामान वगैरह पहुँचाना, काम के घंटों में बदलाव और न्यायिक सेवाओं में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि के काम करते दिखते हैं। ऐसे कामों को सीखने-करने में समाज का योगदान रहा है। दिव्यांग समुदाय ऐसे काम करने के लिए उत्सुक भी रहा है, जिससे जीवनयापन हो।

इधर, अपने देश में भी महामारी के फैलाव के चलते हुए लॉकडाउन के कारण इस समाज के सामने खासी कठिनाइयाँ बढ़ीं हैं और इसके मुद्दों में भी बदलाव आया है। पिछले दो महीने से कोविड-19 और उसके चलते हुए लॉकडाउन के कारण ऐसा लगने लगा है कि दुनिया में सबसे बड़े इस अल्पसंख्यव्यक समुदाय की लगभग अनसुनी होती रही है। हालाँकि विपदा प्रबन्धन की व्यवस्थाओं को अमल में लाते हुए इस समुदाय के प्रति खासी चिन्ता जतायी जाती रही है।

दिव्यांगता आज जोखिम नहीं, बल्कि सहयोग बढ़ाने और हिम्मत करके हौसला बढ़ाने की एक प्रक्रिया है। दिव्यांगता के आज रूप अनेक हैं, जिन्हें संवेदनशीलता के साथ जानना-समझना और उसमें सहयोग आज ज़्यादा ज़रूरी है। कई तरह की बीमारियों के चलते आज कुछ लोगों में खास तरह की अपंगता दिखती है। इनकी तबीयत खासी नाज़ुक हो जाती है। कोविड-19 के चलते जो हिदायतें जारी हुई हैं, उनमें साँस लेने में परेशानी, शरीर के इम्यून सिस्टम में कमज़ोरी, हृदय सम्बन्धी बीमारियाँ या डायबिटीज के रोगी इस रोग की चपेट में जल्दी आ सकते हैं।

साथ ही जो सावधानी बरतने की हिदायत है, उसके तहत दूसरे से कम-से-कम एक मीटर की दूरी रखने की बात है। हाथों की स्वच्छता रखने पर ज़ोर है और मुँह पर मास्क लगाये रखने की बात है। लेकिन इनका पालन करने में दिव्यांग लोगों की खासी परेशानियाँ हैं। इन पर भी विचार ज़रूरी है।

गुरुग्राम (गुडग़ाँव) में रहने वाले एक व्यक्ति को आर्थोग्रिपोसिस है। वह कहते हैं कि हम चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि हमें अपनी बेहद निजी ज़रूरतों, मसलन हाथ भी धोने में किसी के सहयोग की ज़रूरत पड़ती है। ऐसे भी दिव्यांग हैं, जैसे जमीर ढाले; जो बहरे और गूँगे हैं। स्पर्श से ही वे अपनी परेशानी और ज़रूरत बता पाते हैं। ऐसे कई मामले हैं, जहाँ दिव्यांग लोगों के लिए एक-दूसरे से एक या डेढ़ मीटर की दूरी बनाये रखना सम्भव नहीं होता।

इस महामारी से निपटने के लिए सूचना की उपलब्धता सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। लेकिन पर्सन विद डिसैबिलिटी (पीडब्ल्यूडी) को शरीरिक सुरक्षा के लिहाज़ से ज़रूरी सूचनाएँ नहीं मिल पातीं, जो अमूमन उन माध्यमों में नहीं होतीं। जैसे साइन लैंग्वेज, सी भाषा में ब्यौरा, ब्रेल, सुनाई देने वाली व्यवस्था, बड़े-बड़े अक्षरों में सीधी-सरल भाषा में सामग्री की उपलब्धता, जिसे पढ़-सुनकर या देखकर जाना-समझा जा सके।

महामारी और लॉकडाउन के चलते दिव्यांग लोगों की परेशानियाँ खासी बढ़ी हैं। ढेरों दिव्यांग लोग तो एकदम पराधीन हो गये हैं। तापस भारद्वाज को दिखता नहीं। वह एमिटी लॉ स्कूल, नोएडा में पढ़ते हैं। वह अपनी परेशानी समझाते हुए बताते हैं कि पहले अपने घर की दोनों मंज़िलों में वह आसानी से आ-जा सकते थे। लेकिन अब उन्हें किसी का सहारा लेना पड़ता है, जिससे बढ़ते हुए कहीं-कहीं कुछ पकडऩा न पड़े।

लॉकडाउन से और भी लोग परेशान हुए हैं। अभिषेक एनिका को भी अब दूसरों पर अश्रित होना पड़ रहा है। उन्हें कन्जेनिटल स्कोलियोसिस है, साथ ही उनका इम्यून सिस्टम भी पूरा नहीं है। घर पर सामान मँगा लेने पर रोक होने से वह घर-गृहस्थी का सामान और दवाएँ खुद भी ला नहीं पा रहे हैं। इसके लिए उन्हें पड़ोसियों और दोस्तों से मदद लेनी पड़ रही हैै। प्रोफेसर अनीता घई को कैंसर है और स्वास्थ्य सम्बन्धी दूसरी कई परेशानियाँ भी, मसलन ब्लड प्रेशर भी है। वह व्हील चेयर का इस्तेमाल करती हैं। दवा और घर का सामान सहज उपलब्ध न होने से उनकी परेशानी खासी बढ़ गयी है। उनका कहना है कि जो दिव्यांग/अपंग हैं उनके लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ बहुत ही तकलीफदेह हैं। ऊपर से कोविड-19 के चलते दूसरी चिकित्सा सेवाएँ भी बन्द हैं।

दिव्यांगता (विकलांगता) से बढ़ रही असमानता और परेशानी मेें फँसी महिलाएँ ज़्यादा परेशानी भुगत रही हैं। लॉकडाउन और एकाकीपन के कारण दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मिली खबरों के अनुसार घरेलू हिंसा के मामले में बहुत बढ़ोतरी हुई है। शंपा सेन गुप्त ‘लिंग (जेंंडर) और अपाहिजपन’ विषय पर काम कर रही हैं। उनका मानना है कि ज़्यादातर दिव्यांग महिलाएँ लॉकडाउन के चलते घर में ही बन्द हो गयी हैं। सरकार की ओर से लॉकडाउन से परेशानी इसलिए बढ़ती है, क्योंकि परेशानी के दौरान वे हिसेबिलिटी राइट्स आर्गेनाइजेशन्स के दफ्तरों तक भी नहीं पहुँच पातीं। भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑन डिसेबिलिटी अफेयर्स ने कोविड-19 को दौरान जो गाइडलाइन दी है, वह लैंगिक मुद्दों के लिहाज़ से उपयोगी बनी ही नहीं है।

जो लोग रक्त सम्बन्धी परेशानी से जूझते रहे हैं, उन्हें खासी परेशानी हो रही है। थैलीसीमिया के मरीज़ को नियमित आधार पर रक्त चढ़वाना पड़ता है। इसी तरह जो हीमोफीलिया और सिकल-सेल रोग के शिकार हैं, वे उन्हें तय समय के बाद रक्त लेना नहीं चाहिए। अस्पताल बन्द होने और रक्तदाताओं के बैंक में न आने से रोगियों को खासी परेशानी हो रही है। नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल की रिपोर्ट के अनुसार, रक्त संग्रह में इधर 50 फीसदी से ज़्यादा की कमी आयी है।

सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की नव-उदार नीतियों के चलते ज़्यादातर काम बाहर से कराने और ठेकेदार प्रणाली को हर प्रात्साहन के चलते दिव्यांग लोगों को नौकरी मिलने की सम्भावनाएँ भी धूमिल होती जा रही हैं। निजी क्षेत्र में दिव्यांग लोगों को नौकरी देने में अमूमन अरुचि दिखायी जाती है। सारी दुनिया में खासकर निजी क्षेत्रों में प्रबन्धन जिसकी बहाली हुई, आिखर में उस निकाले अभी की नीति के तहत नौकरियों से लोगों को निकाल रहा है। उन्हें घर बैठा दिया जाता है, फिर पदमुक्ति दे दी जाती है। उन्हें दिव्यांग / शारीरिक अक्षमता होने के बहाने नौकरी दी तो जाती है, लेकिन इस-उस वजह से उन्हें निकाल भी दिया जाता है।

नीति आयोग की 2016 की रिपोर्ट में साफ लिखा है- ‘शारीनिक अक्षमताओं के चलते मात्र 34 फीसदी लोगों को रोज़गार मिला। इनमें से ज़्यादातर को वेंडर का। श्वेत कुष्ठ से निरोग हो गये लोगों को भी रोज़गार नहीं मिलता, जिसके कारण उन्हें भीख माँगकर गुज़ारा करना होता है।’

अभी हाल, जो राहत केंद्रीय वित्तमंत्री ने दी है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि बिना किसी आकलन या सही अनुमान के बिना घोषणा कर दी गयी। इस घोषणा में अनजानेपन में यह तक नहीं देखा-समझा गया कि एक दिव्यांग को किन सहूलियतों की ज़रूरत है, जिससे वह गुज़ारा कर सके। शान्ति से आम ज़िन्दगी जी सके। घोषणा करने से पहले यह जायज़ा लिया जाता, तो बेहतर था कि एक दिव्यांग को व्हील चेयर, सहायक उपकरणों, सहयोगियों पर किये गये खर्च करने और सार्वजनिक यातायात का उपयोग न कर पाने की स्थिति में बढ़े खर्च को भी देखा-परखा जाना था। वितमंत्री ने दिव्यांगों, अक्षम लोगों के लिए मात्र 1,000 रुपये की राशि घोषित की, वह भी तीन महीनों के लिए। यह औसतन प्रतिमाह रुपये 333.33 मात्र।

भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 2.68 करोड़ लोग शारीरिक अक्षम, दिव्यांग हैं। इनमें मात्र 10,20,065 को इंदिरा गाँधी नेशनल डिसेबिलिटी पेंशन स्कीम उपलब्ध है। सरकार ने 2016 में 21 तरह की शर्तों के तहत किसी व्यक्ति को दिव्यांग मानने का कानून पास किया था। इन शर्तों के तहत हर दिव्यांग / अपंग व्यक्ति होने की पात्रता सम्भव है। इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहैवियर एंड एलाइन साइंसेज के निदेशक डॉ. नीमेश देसाई का कहना है कि किसी विपदा, संघर्ष और महामारी का तगड़ा असर व्यक्ति के दिमाग पर पड़ता है। जम्मू-कश्मीर में अगस्त, 2019 के बाद दिमागी हालत के खराब होने की शिकायतें सबसे ज़्यादा बढ़ीं। अपने देश में इसके इलाज पर ज़्यादा ध्यान नहीं है। जबकि इस पर सबसे ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, जिससे लोग खुद पर काबू रख सकें। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज, बंगलूरु ने 2018 में किये सर्वे में पाया गया कि भारत में लगभग 83 फीसदी लोगों की दिमागी हालत इलाज लायक है। इलाज मगर होता ही नहीं।

(लेखक नेशनल प्लेटफार्म फार द राइट्स ऑफ द डिसैब्लड के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

शराब की बिक्री से खतरे को बढ़ावा

4 मई को मुल्क में कोरोना वायरस सम्बन्धी 40 दिन की तालाबन्दी के बाद सरकार के द्वारा मंज़ूरी मिलने पर मुल्क के कई इलाकों में मदिरा बिक्री की दुकानों के ताले खोल दिये गये। सोमवार को ताले खुलने से पहले ही दिल्ली, मुम्बई, लखनऊ, वाराणसी, चेन्नई व अन्य कई शहरों में लोगों की लम्बी-लम्बी कतारे लग गयीं और सोशल डिस्टेंसिंग की बुरी तरह से धज्जियाँ उड़ गयीं। सरकारी कायदे नियम बनाने वालों व उस पर अम्ल कराने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि शराब की दो घूँट तो दूरियाँ मिटाने के लिए, यारों के गले लगाने के लिए पी जाती है, तो ऐसे में दो गज़ दूरी बनाने की बात कौन सुनेगा। ये कतारें टीवी चैनलों की सारे दिन की खुराक साबित हुईं और उधर इन कतारों ने बता दिया कि वहाँ शराब के ठेकों के सामने गर्मी में सीधे तौर पर खड़े और घरों में बैठी जनता का गला दारू के बिना कितना सूख गया है। उनके बदन की नस भले ही चल रही हो, मगर दारू के बिना वह ज़िन्दा नहीं रह सकते। सोमवार यानी भगवान शिव के दिन सरकार ने उनके अन्दर जान फूँकने के लिए मदिरा के द्वार खोल दिये। वैसे देखा जाए तो लोगों का मदिरा के प्रति यह लगाव एक तरफा नहीं है, बल्कि सरकार को भी इसे बेचने का नशा है। यानी लॉकडाउन के समय में भी इस नशे के कारोबार की वजह राज्य सरकारों को मिलने वाला राजस्व है।

शराब की खपत के आँकड़े

तभी तो लॉकडाउन के तीसरे चरण के शुरू होते ही 4 मई को कई स्थलों पर मिलने वाली रियायतों में शराब बिक्री को भी प्रमुखता से शमिल किया गया। भारत में शराब बिक्री के लिए सरकार लाइसेंस देती है, देश भर में करीब ऐसे 70,000 आउटलेट हैं। शराब की 70 फीसदी बिक्री इन्हीं आउटलेट से होती है। बाकी 30 फीसदी बार, पब, होटल, रेस्त्रां आदि से होती है। लैंसेट स्टडी के अनुसार, भारत में 2010 से 2017 के दरमियान शराब की खपत में 38 फीसदी की वृद्धि पायी गयी। यह प्रति वर्ष प्रति वयस्क 4.3 से बढक़र 5.9 लीटर तक पहुँच गयी। ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज (एम्स) का 2019 का एक अध्ययन बताता है कि करीब 5.7 करोड़ भारतीयों को शराब का नशा है।

भारत में 21 साल की उम्र से पहले शराब पीना कानूनन जुर्म है लेकिन देश के कई शहरों में युवाओं के बीच इस बिन्दु पर कराया गया एक सर्वे दूसरी ही तस्वीर से रू-ब-रू कराता है। सर्वे में हिस्सा लेने वाले युवाओं में से 75 फीसदी ने माना कि उन्होंने शराब का सेवन 21 साल से पहले ही शुरू कर दिया था। फरवरी, 2019 में कराये गये एक सरकारी सर्वे के अनुसार भारत में 10 से 75 आयुवर्ग के करीब 16 करोड़ लोग शराब का सेवन करते हैं। इस सर्वे से यह भी सामने आया कि त्रिपुरा, पंजाब, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश तथा गोवा आदि राज्यों में शराब की खपत में आगे हैं। अब बहुत हद तक साफ हो गया होगा कि सरकार को भी दारू का नशा क्यों है? दरअसल शराब, जिसमें एल्कोहॉल होता है; लोगों का ही गला तर नहीं करती, बल्कि सरकार को भी तर करती है। सरकारी खजाने भरने में शराब की चाल, उसका नशा देखना हो तो आँकड़े इसे बखूबी बयाँ करते हैं। शराब की बिक्री राज्य सरकारों के राजस्व स्रोत का एक प्रमुख हिस्सा है। कई राज्य तो रोज़ाना शराब बिक्री से करीब 700 करोड़ रुपये रोज़ कमाते हैं। पंजाब, छत्तीसगढ़, तेलगांना, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश का 15-20 फीसदी राजस्व शराब की बिक्री से आता है। उत्तराखंड, कर्नाटक का 20 फीसदी राजस्व शराब की बिक्री से ही आता है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल को शराब की बिक्री से 10 फीसदी के आस-पास ही राजस्व मिलता है। गुजरात व बिहार में पूर्ण शराबबन्दी लागू है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2018-19के दौरान दिल्ली और पुदुचेरी सहित देश के 29 राज्यों ने शराब पर उत्पाद शुल्क से संयुक्त रूप से एक लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा की कमायी की। 2019-20 के दरमियान इस कमाई में 16 फीसदी का इज़ाफा हुआ और यह आँकड़ा एक लाख 75 हज़ार करोड़ रुपये को पार कर गया। शराब राज्य सरकारों के लिए मुद्रा छापने वाली टकसाल की मानिंद है।

यहाँ इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है कि जब जीएसटी में शमिल होने वाली वस्तुओं की फेहरिस्त में शराब को भी शमिल किया गया, तो अधिकतर राज्य सरकारों ने इसका विरोध किया और केंद्र सरकार को साफ कर दिया कि शराब को जीएसटी के दायरे से बाहर रखने पर ही बात आगे बढ़ सकती है। यानी हमारा समर्थन चाहते हो, तो हमारी यह माँग स्वीकार करनी होगी। राज्य सरकारों का यह दबाव रंग लाया और केंद्र सरकार ने शराब को जीएसटी से बाहर रखने का फैसला लिया। वित्त वर्ष 2018-19 में सभी राज्यों ने संयुक्त रूप से हर महीने औसतन करीब 13 हज़ार करोड़ रुपये शराब से कमाये। जबकि 2019-20 में यह आँकड़ा 15 हज़ार करोड़ रुपये प्रति माह पहुँच गया। लॉकडाउन के कारण 40 दिन शराब की बिक्री नहीं हुई और ऐसा अनुमान है कि इस कारण इस दौरान करीब 30,000 करोड़ रुपये का नुकसान राज्य सरकारों को हुआ है। कोविड-19 महामारी को फैलने से रोकने के लिए देश में 25 मार्च से लागू तालाबन्दी अब अपने तीसरे चरण से गुज़र रही है। तीसरा चरण 17 मई को पूरा होगा, उसके बाद सरकार क्या ऐलान करती है, पूरे देश को इसका इंतज़ार है। प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरा है। बहरहाल राज्य सरकारों के समक्ष इस समय एक तरफ चुनौती अपने-अपने यहाँ कोविड-19 के संक्रमित मामलों और मृत्यु दर में कमी लाना है, तो उसके समानांतर ही राज्य मशीनरी को चलाने के लिए राजस्व को इकट्ठा करना भी है। राज्य सरकारों के टैक्स कलेक्शन में 90 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गयी है।

ऐसे हालात में तेज़ी से राजस्व इकट्ठा करने के लिए शराब की बिक्री पर सरकारों की पैनी नज़र थी और 4 मई को ही कलेक्शन ने अपनी औकात फिर से दिखा दी। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 4 मई यानी पहले ही दिन 100 करोड़ की शराब बेची। अभी तक तो किसी फिल्म के रिलीज होने के अगले दिन उसकी आमदनी का आँकड़ा चर्चा का विषय बनता रहा है, लेकिन कोरोना लॉकडाउन ने शराब की बिक्री के आँकड़ों को चर्चा के केंद्र में ला खड़ा कर दिया। कर्नाटक राज्य के एक्साइज डिपार्टमेंट ने बकायदा 4 मई की शाम एक बयान जारी किया, जिसमें बताया गया कि 4 मई को राज्य में 3.9 लाख लीटर बियर व 8.5 लीटर इंडिया मेड लिक्र की बिक्री हुई, जिसकी कीमत 45 करोड़ है। महाराष्ट्र, जहाँ देश में सबसे अधिक कोरोना संक्रमित हैं और मरने वालों की संख्या भी सबसे अधिक है; में 4 मई को पहले दिन 11 करोड़ की, तो दूसरे दिन 62.55 करोड़ की शराब बिकी। शराब से होने वाली आमदनी के आगे राज्य सरकारें भी नतमस्तक दिख रही हैं। शराब से मिलने वाले रुपये के सामने कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए की गयी कोशिशें मसलन देह से दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग का दम फूलता दिखायी दिया।

विपक्षी नेताओं की नसीहत

सरकारो को इस मुद्दे पर घेरा भी गया। दिलचस्प यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना नीत गठबन्धन वाली सरकार है, जिसके मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हैं और उसी शिवसेना के मराठी दैनिक समाचार-पत्र सामना में 7 मई को छपे सम्पादकीय में कहा गया कि लोगों ने शराब की दुकानों पर सोशल डिस्टेंसिंग नियम का पालन नहीं किया। लोगों को समझना चाहिए कि शराब कोविड-19 का टीका नहीं है। और सरकार को नसीहत भी दे डाली कि शराब बिक्री से 65 करोड़ रुपये राजस्व के रूप में कमाने के लिए 65,000 कोविड-19 के नये संक्रमित मामलों को बुलावा देना समझदारी नहीं है। जब राज्य सरकारों को लगा कि शराब बेचना भी ज़रूरी है और शराब की दुकानों के बाहर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन होता भी नज़र आये तो उन्होंने होम डिलीवरी, ई-टोकन सरीखे उपाय अपनाने शुरू कर दिये हैं। छत्तीसगढ़ ने तो सम्भवत: सबसे पहले ही एप के ज़रिये शराब की होम डिलीवरी वाला कदम उठाने का ऐलान कर दिया था। पंजाब और पश्चिम बंगाल सरकारों ने भी शराब के लिए होम डिलीवरी शुरू कर दी है।

दिल्ली सरकार ने शराब लेने वालों के लिए ई-टोकन की सुविधा शुरू कर दी है। मगर यहाँ भी ई-टोकन लेने वालों को करीब दो-तीन दिन के बाद की तारीख मिल रही है। दरअसल, जिन्हें शराब पीने की लत है और उनकी जेब में पैसा है, तो उन्होंने लॉकडाउन के पहले व दूसरे चरण में भी शराब खरीदी। शराब की दुकानों से शराब की चोरी हुई और उसने अपनी जगह कालाबाज़ारी में बना ली। कालाबाज़ारी के बारे में दिल्ली के दल्लूपुरा गाँव में रहने वाले मंगल (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि जिनके पास नोट हैं, उनके लिए लॉकडाउन कोई मतलब नहीं रखता। 500 रुपये वाली बोतल 3,500 रुपये में खूब बिकी और लोगों ने यह मत चुकाकर सरकार की इस अपील को कि जो जहाँ है, वहीं रहे; को ठेंगा दिखा दिया। क्योंकि शराब की बोतलें शराब की दुकानों से चलकर उनके गले, उनकी तबीयत को तरोताज़ा कर रही थीं और अब बिक्री में छूट मिलने के बाद भी उनके दलाल लाइन में लगकर या दूसरी तरह से बन्दोबस्त करने में जुटे हुए हैं। मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते नशा नहीं मिलने से शराब पीने के अभ्यस्त लोगों के व्यवहार में बदलाव देखा गया है। लॉकडाउन लागू होने के बाद 30 मार्च को इंडियन एसोसिएशन ऑफ क्लीनिकल साइकॅालजिस्ट ने अपनी अधिकृत वेबसाइट पर पंजीकृत साइकॉलजिस्ट की एक सूची जारी की थी। कई का मानना है कि नशा नहीं मिलने से कई लोगों के व्यवहार में आक्रोश अधिक पाया गया। यह चिन्ता की बात है। क्योंकि इससे केवल वही व्यक्ति ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि पत्नी, बच्चों और घर परिवार के अन्य सदस्यों पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है, जिसके कई तात्कालिक व दूरगामी प्रभाव होते हैं। कोरोना वायरस ने यूँ तो लोगों की ज़िन्दगी के सामाजिक-आॢथक पक्षों को कई तरह से प्रभावित किया है, लेकिन एक सम्भावना शराब की बिक्री के तरीके में बदलाव को लेकर भी जतायी जा रही है। वैसे इस संकट में सोशल डिस्टेंसिंग वाले अहम नियम के पालन के मद्देनज़र कई राज्य सरकारों ने शराब की होम डिलीवरी जैसे कदम उठाये हैं। हालाँकि अभी साफ नहीं हुआ है कि मौज़ूदा संकट के खत्म होने के बाद भी यह व्यवस्था चालू रहेगी या नहीं। एक सवाल और कि क्या रिटेल दुकानदार इस व्यवस्था को हमेशा के लिए लागू करने में सरकार के साथ होंगे या विरोध में। ऐसी व्यवस्था शराब पीने वालों को कितनी सूट करती है और सरकारी खजाने में अधिक-से-अधिक राजस्व भरने वाली उम्मीदों पर कितना खरा उतरती है, इस बाबद इंतज़ार करना होगा। वैसे अंतर्राष्ट्रीय समाचार एंजेसी रायटर ने खबर दी थी कि भारत में ऑनलाइन फूड डिलीवर करने वाली कम्पनी जोमाटो ने अप्रैल के मध्य में ही इंडस्ट्री बॉडी इंटरनेशनल स्पिरटस एंड वाइन एसोसिएशन ऑफ इंडिया को एक बिजनेस प्रस्ताव भेजकर ऑनलाइन शराब होम डिलीवरी की अपनी मंशा ज़ाहिर की थी। दरअसल जोमाटो भारत में मौज़ूदा लॉकडाउन के हालात का और उन हालात से आने वाले वक्त में होने वाले बदलावों को अपने पक्ष में बिजनेस की दृष्टि से भुनाना चाहती है। इस कम्पनी का कहना है कि हमारा मानना है कि तकनीक आधारित होम डिलीवरी वाला समाधान मदिरा के ज़िम्मेदाराना व्यवहार को बढ़ावा देगा। रायटर ने साफ कर दिया है कि इस बाबद दस्तावेज़ उसके पास हैं, लेकिन जोमाटो ने अभी तक कोई बयान जारी नहीं किया है।

महँगी हुई शराब

लॉकडाउन में 4 मई को जैसे ही शराब के ठेके खोले गये, शराब पर राज्य सरकारों ने अलग से टैक्स लगाना शुरू कर दिया। दिल्ली सरकार ने शराब पर 70 फीसदी कोरोना स्पेशल टैक्स लगा दिया है। वहीं, आंध्र प्रदेश ने सीधे से 50 फीसदी दाम बढ़ाकर ऊपर से 25 फीसदी टैक्स भी लगा दिया। इसी तरह पंश्चिम बंगाल सरकार ने 30 फीसदी, राजस्थान सरकार ने 35 फीसदी, कर्नाटक सरकार ने 17 फीसदी एक्साइज ड्यूटी शराब पर लगा दी है। वहीं, तमिलनाडु सरकार ने 15 फीसदी, असम और मेघालय ने 25 फीसदी एक्साइज ड्यूटी विदेशी शराब पर लगा दी है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकारों ने 2 रुपये से 50 रुपये तक ब्रांड के हिसाब से प्रति बोतल पर दाम बढ़ाये हैं।

कानून की दरकार

भारत में अभी तक शराब की होम डिलीवरी बाबत कोई कानून नहीं है, मगर इसकी मंज़ूरी के लिए माहौल बनाने की दिशा में लामबन्दी शुरू हो गयी है। सर्वोच्च अदालत ने 9 मई को एक याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि सरकार लॉकडाउन को देखते हुए शराब की ऑनलाइन बिक्री के उपायों पर विचार करे। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा कि जब तक भारत कोरोना मुक्त न हो जाए, दुकानों से शराब की बिक्री रोकी जाए। यचिकाकर्ता ने 4 मई से खुली दुकानों पर लगी भीड़ और सोशल डिस्टेंसिंग नियम का पालन नहीं होने का ज़िक्र अपनी याचिका में किया था। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कहा कि हम याचिका पर कोई आदेश पारित नहीं करेंगे। इसके साथ ही टिप्पणी कि राज्य सरकारें सामाजिक दूरी को बनाये रखते हुए शराब की होम डिलीवरी या अप्रत्यक्ष बिक्री करने पर विचार करे। अदालत ने यह मौखिक टिप्पणी करते हुए याचिका का निपटारा कर दिया।

राजस्व की ज़रूरत और शराब

देश में 16 करोड़ से ज़्यादा लोग शराब का सेवन करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, यह संख्या कुल आबादी की 12 से 15 फीसदी तक के आसपास है और आबादी के हिसाब से यह संख्या बढ़ रही है। शराब की खपत और इससे मिलने वाला राजस्व की बढ़ रहा है। नशा एक बुराई के तौर पर है। लिहाज़ा इसका प्रचार-प्रसार सामाजिक तौर पर ठीक नहीं है। चाहे ऐसा न भी हो, बावजूद इसके शराब सेवन का चलन बढ़ रहा है और आॢथक युग में इसके सिमटने की गुंजाइश नहीं है। शराब की बिक्री का राजस्व सरकारों के लिए सबसे बड़ा कारक है। राज्यों के कुल बजट का एक बड़ा भाग इसी के माध्यम से मिलता है। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ शराबबन्दी है; वहाँ भी तो सरकारें चल रही हैं।

हर चीज़ के दो पहलू होते ही हैं। लॉकडाउन में शराब की बिक्री पर रोक को शुरुआत में ठीक माना गया, लेकिन बाद में इसे चालू करने की आवाज़ उठने लगी। अंदाज़ा नहीं था कि इससे सोशल डिस्टेंस बिगड़ेगा और कोरोना कहर बनकर टूटेगा। मगर शराब की बिक्री नहीं की, तो बिना राजस्व सरकार का चलना मुश्किल होगा। लॉकडाउन में सब कुछ मुश्किल ही तो है। लाखों लोगों के लिए दो जून की रोटी और एक बड़े वर्ग को गला तर करने की दरकार थी। आिखरकार विरोधाभास के बीच शराब के ठेके खुले, तो सोशल डिस्टेंसिंग का सुरक्षा कवच और कोरोना से होने वाली भयावह मौतों का मंज़र गायब हो गया। कोई डेढ़ माह के बाद शराब मिलने पर मची यह अफरा-तफरी बिल्कुल नयी तो नहीं थी। दिल्ली, मुम्बई, सूरत और अहमदाबाद जैसे कई स्थानों पर श्रमिक अपने गाँव जाने के लिए हज़ारों की संख्या में जुटे। दोनों स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं। पहली में जहाँ अपने घर पहुँचने की गहरी ललक है, वहीं दूसरी में लत पूरी करने की लालसा है।

लॉकडाउन में देश की अर्थ-व्यवस्था जहाँ पटरी से उतरी, वहीं राज्यों की आॢथक हालत कमोबेश इससे ज़्यादा खराब होने लगी। बावजूद इसके सवाल उठने लगे कि क्या राजस्व के लिए ऐसे हालात में शराब की बिक्री खुलनी चाहिए? 40 दिन के बाद जब ठेके खुलेंगे, तो क्या भीड़ को काबू में रखा जा सकेगा? कहीं लॉकडाउन में अराजकता जैसी स्थिति और कानून व्यवस्था बिगडऩे का खतरा न हो जाए।  लॉकडाउन के दूसरे चरण के लिए जहाँ राज्य सरकारें इसे और आगे बढ़ाने पर उतावली थीं, वहीं अब कई राज्यों की सरकारें जल्द-से-जल्द शराब बिक्री की अनुमति के लिए उतावली हो उठी थीं। लॉकडाउन में शराब की बिक्री पर रोक के बावजूद यह चोरी-छिपे बिक रही थी। दो से तीन गुने दाम पर शराब उपलब्ध हो रही थी; लेकिन पैसा सरकार के पास नहीं, बल्कि शराब माफिया के पास जा रहा था। इसका खुलासा हरियाणा में हुआ, जहाँ लाखों शराब की बोतले गोदाम से गायब मिली हैं। करोड़़ों रुपए के इस घोटाले ने बता दिया है कि अन्य राज्य भी इससे अछूते नहीं है। दिल्ली मेें मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शराब पर 70 फीसदी कोरोना सेस लगाया। अन्य राज्यों ने इसका अनुसरण किया। कहीं कोई विरोध जैसी बात नहीं। शराब और दवा जैसी चीज़ों के दामों पर कभी कहीं विरोध होता नहीं है। एक बड़े वर्ग की राय में शौक और जान के लिए पैसे नहीं देखे जाते पर वो ज़रूरत के हिसाब से उपलब्ध हो जानी चाहिए।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने सबसे पहले शराब की बिक्री शुरू करने की माँग की पर उन्हें इसकी मंज़ूरी नहीं मिली। उनकी राय में जब केंद्र जीएसटी की बकाया राशि में लेट-लतीफी और अन्य आॢथक मदद करने में हीला-हवाली करगी, तो राज्य को अपने तौर पर राजस्व जुटाना ही होगा। केंद्र से मंज़ूरी मिली, तो पंजाब के मुकाबले अन्य राज्यों ने इसकी पहल कर दी। एक दर्जन से ज़्यादा राज्यों की शुरुआत के बाद पंजाब में इसकी बिक्री शुरू हो सकी।

देश में शराब से राजस्व पौने दो लाख करोड़ के आसपास है। केंद्र के पास राजस्व के और भी माध्यम है पर राज्य सरकारों के लिए यह प्रमुख है। उत्तर प्रदेश में पिछले वर्ष इससे 31 हज़ार करोड़ मिला। वहीं कर्नाटक को 21 हज़ार करोड़, महाराष्ट्र को 18 हज़ार करोड़, पश्चिम बंगाल को 12 हज़ार करोड़ और तेलगांना को 11 हज़ार करोड़ का राजस्व मिला। यह राशि आबादी और खपत के अनुसार कम या ज़्यादा रह सकती है।

केंद्र की अनुमति के बाद राज्यों में शराब के ठेके खुलने लगे, तो इससे अफरा-तफरी जैसा माहौल हो गया। दिल्ली समेत कई राज्यों में पहले दिन हज़ारों की संख्या में लोग जुटे, इसका अनुमान भी था। पर सम्बन्धित सरकारों ने इसे ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लिया; लिहाज़ा सोशल डिस्टेंस भी नहीं रहा। कई स्थानों पर पुलिस को बल प्रयोग कर भीड़ हटानी पड़ी, वहीं कानून व्यवस्था का तकाज़ा देकर ठेके बन्द करने की नौबत आयी। अगर ऐसी ही स्थिति रही, तो फिर 40 दिन के लॉकडाउन का क्या मतलब रह जाएगा? यह सब पुलिस प्रशासन की लापरवाही और सरकार की नाकामी ही मानी जाएगी। कोरोना से मामले और ज़्यादा बढऩे से कहीं सरकार फिर से शराब बिक्री पर रोक न लगा दे। इसके लिए लोग ज़रूरत से ज़्यादा खरीदने के लिए उतावले थे। एक साथ बिक्री से कहीं दुकान में स्टाक खत्म होने का खतरा भी पीने वालों को रहा होगा, वरना इतनी भीड़ नहीं जुटती। लोगों के जमावड़े से पहले पुलिस को सब व्यवस्थित करना चाहिए था; लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

 अब कुछ ढर्रे पर आने लगा है। अब उतनी भीड़ नहीं उमड़ रही। शायद लोगों ने पर्याप्त स्टाक जमा कर लिया हो। सम्भव है, उन्हें लगता है कि सरकारों के पास ठेके खोलने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। व्यंग्य में यह भी कहा जाने लगा कि सरकार के भरोसे न रहो, क्योंकि राजस्व के लिए सरकार खुद शराब का सेवन करने वालों के भरोसे है। कोरोना के मामले जिस तेज़ी से बढ़ रहे हैं, उससे यह वैश्विक महामारी जल्दी से जाने वाली नहीं है। ऐसे में लॉकडाउन कितना लम्बा खिंचेगा? कोई कुछ नहीं कह सकता।

कोरोना को ज़्यादा फैलने से रोकने में लॉकडाउन प्रमुख कवच के तौर पर है और इसके अच्छे नतीजे भी हमारे देश में मिले है; लेकिन पर यह स्थायी तो नहीं रह सकता। अर्थ-व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के प्रयास होने लगे हैं। बचाव के साथ अर्थ-व्यवस्था को भी बनाये रखना होगा। वरना इसके गम्भीर परिणाम भुखमरी और बेकारी के तौर पर सामने आएँगे। जब विकसित देशों की अर्थ-व्यवस्था कोरोना की वजह से चरमरा गयी है, तो भारत भला इससे कैसे बच सकता है? शराब की बिक्री के राजस्व से तो सरकारें फिर भी नहीं चल सकेंगी। हाँ, इससे कुछ सहारा मिल सकता है। शायद इसी के लिए शराब की दुकानें खोलने का फैसला किया गया।

लॉकडाउन में भी शराब घोटाला

हरियाणा में लॉकडाउन के दौरान करोड़ों रुपये का शराब घोटाला हो गया। खरखौदा (सोनीपत) के सीलबन्द गोदाम से शराब की लाखों बोतलें गायब हो गयीं। दीवार तोडक़र सुनियोजित तरीके से यह चोरी बिना मिलीभगत के नहीं हो सकती। लॉकडाउन के दौरान शराब के हज़ारों बाक्स यहाँ से पार कर दिये गये। अवैध तौर पर पकड़ी यह शराब आबकारी और कराधान विभाग के इस गोदाम में काफी समय से रखी हुई थी। इसे अदालती आदेश के बाद नष्ट किया जाना था। इसके लिए लम्बी प्रक्रिया होती है। लॉकडाउन की वजह से यह काम रुका हुआ था। शराब माफिया ने मौके का पूरा फायदा उठाया।

जब मामला प्रकाश में आया, तो सरकार को गम्भीरता दिखानी पड़ी। जबकि यह सब उसकी नाक के नीचे ही हो रहा था। हज़ारों बॉक्स यहाँ से वाहनों में गये, लेकिन कैसे? यह बड़ा सवाल है। राज्य की सीमाएँ सील थीं। एक ज़िले से दूसरे ज़िले में बिना विशेष अनुमति से आने-जाने पर रोक थी, तो यह सब कुछ कैसे हो गया? आबकारी और कराधान विभाग उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के पास है। लिहाज़ा उन्होंने इसकी जाँच के आदेश दिये हैं। गृहमंत्री अनिल विज ने इसे ज़्यादा गम्भीरता से लिया और विशेष जाँच समिति (एसआइटी) के अनुशंसा की।  वरिष्ठ आईएएस के नेतृत्व में तीन सदस्यीय टीम गठित होगी। इसमें एक-एक वरिष्ठ पुलिस तथा आबकारी एवं कराधान विभाग के अधिकारी रहेंगे। फिलहाल दो थानाधिकारियों को निलम्बित किया गया है। करोड़ों रुपये के इस घौटाले में शराब ठेकेदारों के अलावा सफेदपोश लोगों की भूमिका है। शराब से लदे वाहन कैसे बेरोक-टोक के गोदाम से अपने-अपने गंतव्य स्थलों तक सकुशल पहुँच गये। चोरी हुई शराब की बिक्री लॉकडाउन के दौरान खूब हुई। हर बोतल तीन से चार गुना दाम पर कालाबाज़ारी में बेची गयी। भ्रष्टाचार मुक्त होने का दावा करने वाली भाजपा सरकार के लिए इस घोटाले को उजागर करना उसे कसौटी पर कसने जैसा होगा। यह घोटाला कुछ शराब ठेकेदार या पुलिस की वजह से नहीं, इसमें कुछ सफेदपोश लोगों की संलिप्तता है। सवाल अब सरकार की मंशा पर रहेगा।

शराब के भरोसे अर्थ-व्यवस्था?

कोरोना वायरस की रफ्तार को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन करके सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए तामाम कड़े फैसले लिए। इसमें सरकार ने अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ कारोबार को भी नहीं देखा। लेकिन अचानक ऐसा कौन-सा संकट सरकार के पास आ गया कि लॉकडाउन -3 के पहले ही दिन 4 मई को सरकार ने जो अन्य रियायतें दीं, उनमें शराब की दुकानों को खोलने में प्राथमिकता दिखा डाली। यह बात हर किसी को इतना ज़रूर सोचने को मजबूर कर रही है कि क्या हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था शराब  के भरोसे है? तहलका संवाददाता ने शराब विक्रेताओं और शराब के शौकीनों से बात की, तो लोगों ने कहा कि शराब ही सब कुछ नहीं है; लेकिन सरकार ने ही शराब की दुकानें खोल दीं, तो पीने में कोई हर्ज भी नहीं है।

4 मई को 42 दिन के बाद शराब के की दुकानें खुलने बाद दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में शराब की दुकानों पर जिस तरह लम्बी-लम्बी लाइनें लगीं और लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग के नियम तोड़े, उससे कोरोना का खतरा बढ़ा ही है। ऐसे में सरकार के उन तमाम प्रयासों को धक्का लगा, जो सरकार ने अभी तक किये हैं। शराब के ठेकों पर इस कदर भीड़ हो गयी कि कई जगह तो पुलिस को लाठी चार्ज तक करके दुकानें बन्द कराने को मजबूर होना पड़ा। कुल मिलाकर कोरोना का खतरा बढ़ा ही, क्योंकि पुलिस को लोगों को दुकान तक न आने देने के निर्देश न होने के चलते, लोग दुकान तक तो पहुँचे ही, शराब की तलब में सोशल डिस्टेंसिंग के नियम को तोडऩे से भी पीछे नहीं रहे। इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि शराब राजस्व का बड़ा और सरल ज़रिया है। लेकिन हमेशा देखा जाता है कि फायदे के लिए कायदे को दरकिनार कर दिया जाता है और वही शराब की दुकानें खुलने पर भी हुआ। वित्तीय संकट से उभरने के लिए सरकार ने शराब के कारोबार को इस प्राथमिकता के आधार पर बढ़ावा दिया कि लॉकडाउन के कारण जो अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतरी है, उसे शराब के भरोसे पटरी पर लाया जा सकता है। हालाँकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं गया कि शराब की दुकानों भीड़ उमड़ेगी, उसका क्या? सरकारों को इतना तो समझना ही चाहिए कि भीड़ जहाँ होगी, वहाँ नुकसान की सम्भावनाएँ ज़्यादा होती हैं। यह कितना बड़ा जोखिम है। यह बात तो इसी से समझी जा सकती है कि इस समय देश भर में कोरोना वायरस के पॉजिटिव मामलों में लगातार इज़ाफा हो रहा है। सरकार खुद इस बात को भली-भाँति जानती है और प्रचार भी करती है कि कोरोना नामक महामारी से बचने का सबसे बड़ा औज़ार केवल सोशल डिस्टेंसिंग है। लेकिन राजस्व और उत्पाद शुल्क के कारण उसने भी इस सबको नज़रअंदाज़ कर दिया।

कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे प्रदेशों में उत्पाद शुल्क के रूप में कुल राजस्व का 15 से 21 फीसदी हिस्सा शराब से ही आता है। 4 मई को शराब की दुकानें खुलने से अकेले उत्तर प्रदेश में 100 करोड़ रुपये से अधिक की शराब की बिक्री हुई। इस रिकॉर्ड बिक्री से आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने 42 दिनों में कितना नुकसान उठाया है।

मजे की बात यह है कि शराब की दुकानों के आगे लाइन में लगे लोगों पर शराब पीने का जुनून इस कदर तारी था कि उनके मन से कोरोना वायरस के संक्रमण का खौफ तक दिखायी नहीं दे रहा था। एक शराब की दुकान के बाहर लाइन में लगे विमल कुमार ने गाते-गाते कहा कि मुझे पीने का शौक नहीं पीता हूँ, कोरोना को हराने को। दुकानों के बाहर लम्बी लाइनों में लगे शराब के कई शौकीनों ने कहा कि वे मानते हैं कि शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, पर गम में और मस्ती में शराब का कोई सानी नहीं है। शराब के शौकीनों ने बताया कि 24 मार्च से कोरोना वायरस के कहर के कारण देशव्यापी लॉकडाउन होने की वजह से और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे थे। वहीं पुलिस ने कहा कि सरकार को देश चलाना है और पुलिस को नौकरी करनी है। ऐसे में शराब की दुकानों में कोई अप्रिय घटना न घटे इसलिए वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवा रहे हैं।

 शराब की दुकानों में मची हुड़दंगलीला और सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाये जाने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि अगर शराब की दुकानों में कोई हंगामा होता है, तो दुकानें बन्द कराने के साथ-साथ वे लॉकडाउन बढ़ाने को मजबूर हो सकते हैं।

गाँधीवादी व सामाजिक कार्यकर्ता राजकुमार का कहना है कि माना कि शराब से सरकार को अन्य विभागों की तुलना में राजस्व अधिक आता है; लेकिन सरकार यह भी भूल गयी कि गुजरात में विकास हो रहा है। जहाँ शराब पूर्ण बन्दी है। महात्मा गाँधी के गुजरात में शुरू से ही शराबबन्दी है और गुजरात के लोग शराबबन्दी के पक्ष में भी रहे हैं। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि जिस राज्य में शराब के व्यापार से राजस्व नहीं आता है, वहाँ पर विकास कम होता है।

बिहार निवासी शराब विरोधी अभियान से जुड़े प्रियरंजन का कहना है कि बिहार की महिलाओं ने शराब के विरोध में प्रदर्शन किये और 2015 में बिहार के चुनाव में नीतीश कुमार ने वादा किया था कि बिहार में शराबबन्दी की जाएगी, तबसे अब तक वहाँ पर शराबबन्दी है और विकास भी अपनी गति पर है।

शराब की दुकान में काम करने वाले जागेश्वर प्रसाद ने कहा कि भले ही सियायत जात-पात में फँसी हो, पर मधुशाला में जो भाईचारा देखने को मिलता है, वह अतुलनीय है। सभी धर्म के लोग बड़े ही स्नेह के साथ शराब का आनन्द लेते हैं। ऐसा और कहाँ देखने को मिलता है। इसलिए तो किसी कवि ने कहा है कि बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला!

किराये पर राजनीति मुश्किल में प्रवासी

कहते हैं कि सियायत अपने नफा-नुकसान का आकलन करके जनता के बीच अपनी धाक और छवि उभारने का प्रयास करती रहती है; भले ही देश में कोई आपदा या महामारी ही क्यों न हो। इस समय दुनिया भर में कोरोना वायरस के कहर से लोगों में भय व्याप्त है और इससे अनेक लोग मर भी रहे हैं। आज कोरोना वायरस के डर से  लॉकडाउन के चलते लगभग हर काम बन्द है। ऐसे में जो मज़दूर दूसरे राज्यों में रहकर अपना जीवनयापन कर रहे थे, वे भूखे रहने के चलते अपने घर-गाँव लौटने को मजबूर हैं। लेकिन इन दिनों मज़दूरों के आने-जाने पर जो अफरा-तफरी मची है, उससे एक तरफ कोरोना संक्रमण का खतरा बढ़ा है, तो दूसरी तरफ सियासत। क्योंकि मुसीबत में फँसे मज़दूरों से रेल किराया लिया जा रहा था।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने प्रवासी मज़दूरों से रेलवे द्वारा किराया वसूले जाने पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि कांग्रेस मज़दूरों का किराया वहन करेगी। उन्होंने इस मामले पर जन आन्दोलन का ऐलान भी किया। सोनिया गाँधी  के इस बयान के बाद देश की राजनीति शुरू हो गयी। स्थगित-सी पड़ी कांग्रेस के साथ उनके सहयोगी दलों ने भी सोनिया गाँधी के बयान पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि वो भी मज़दूरों का किराया देने को तैयार हैं।

लेकिन भाजपा को इस पर आपत्ति हुई। भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने सोनिया गाँधी के बयान पर कहा कि कांग्रेस की नीयत ही लोगों को गुमराह करने वाली रही है, जबकि रेलवे किसी मज़दूर से कोई पैसा नहीं वसूला जा रहा है। संबित पात्रा ने कांग्रेस के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि रेलवे श्रमिक स्पेशल ट्रेन के किराये पर  केंद्र 85 फीसदी सब्सिडी दे रहा है, शेष 15 फीसदी राशि का भुगतान राज्यों को करना है। ऐसे में मज़दूरों से पैसा वसूलने वाली बात सरासर गलत है। इस मामले में रेलवे भी कूद पड़ा और कहा कि रेलवे ने टिकट बिक्री के लिए कोई काउन्टर ही नहीं खोले, तो ऐसे में टिकट बेचे जाने वाली बात निराधार है। हालाँकि यह भी सच है कि यह सब सोनिया गाँधी के बयान के बाद आनन-फानन में किया गया।

इधर, राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि बिहार में डबल इंजन वाली सरकार है। वह प्रवासी मज़दूरों को लेकर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर रही। बिहार के लाखों मज़दूरों के पास पैसा भी नहीं है और उन्हें अपने घर लौटने में परेशानी हो रही है। ऐसे में राजद मज़दूरों के लिए 50 ट्रेनों का किराया वहन करने को तैयार है। राजद के इस बयान के बाद बिहार के साथ दिल्ली में भी सियासी हलचल तेज़ हो गयी और यहाँ दिल्ली सरकार ने मज़दूरों का किराया वहन करने का ज़िम्मा उठाने का हामी भरी। बताते चले कि इसी साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार में विधान सभा के चुनाव होने है। इस मामले में स्वाभाविक है कि मज़दूरों के हित में लिये गये फैसले चुनावी समीकरण बनाने -बिगाडऩे में काफी अहम हो सकते हैं। हालाँकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि बिहार के जो भी मज़दूर और छात्र हैं, उन्हें कोई परेशानी नहीं होने दी जाएगी, सरकार उनकी हर सम्भव मदद कर भी रही है। अखिल भारतीय मज़दूर संघ कांग्रेस से जुड़े नेता संदीप सिंह ने बताया कि कई राज्यों से मज़दूरों के द्वारा ऐसी शिकायतें आयी हैं कि उनसे किराये के तौर पर पैसा वसूला जा रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि मज़दूरों के साथ अन्याय को बर्दास्त नहीं किया जाएगा।

भाजपा के वरिष्ठ नेता शाहनवाज भी इस मामले पर बोले। उन्होंने कहा कि वे मज़दूरों के किराये के नाम पर सियासत करने वाले कांग्रेस के नेताओं की कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं। कांग्रेस दुष्प्रचार करने और समाज में फूट डालने का काम कर रही है। शाहनवाज हुसैन ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार कोरोनाकाल में हर ज़रूरतमंद व्यक्ति की मदद कर रही है। लेकिन कांग्रेस इस महामारी से न लडक़र देशवासियों को गुमराह कर रही है।

कांग्रेस पार्टी के नेता अशोक शर्मा का कहना है कि देश के मज़दूर जो गुजरात, महाराष्ट्र और हरियाणा सहित तामाम राज्यों में फँसे हैं, जिनके पास खाने को पैसा तक नहीं बचा है। वे सरकार की ओर ताक रहे हैं कि कब वह उन पर ध्यान देगी और उनकी समस्या का समाधान करेगी। सरकार की उदासीनता के कारण मज़दूरों और जनमानस को कई परेशानियों से जूझना पड़ रहा है, पर सरकार आँकड़ेबाज़ी के खेल में मस्त है।  यह भी है कि कोरोना से जंग में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर काम कर रही हैं। मगर ऐसे हालात में भी सत्ता पक्ष और विपक्ष किसी-न-किसी बहाने राजनीति कर रहे हैं, यह ठीक नहीं। कांग्रेस शासित राज्यों का कहना है कि केंद्र सरकार बजट मुहैया कराने में काफी भेदभाव कर रही है और मनमानी भी कर रही है। किराये को लेकर उपजे विवाद पर जो मज़दूर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जा रहे हैं, उनसे तहलका संवाददाता ने जानना चाहा कि वे किराया देकर आये हैं या नहीं? इस पर रौनक, गयादीन और बबलू ने बताया कि रेलवे ने कोई किराया नहीं लिया है। वहीं कई मज़दूरों के वीडियो वायरल हो रहे हैं, जो किराया वसूली का बाकयदा टिकट दिखा रहे हैं।

बड़े खतरों को निमंत्रण दे रहा मोबाइल का बढ़ता दुरुपयोग

मोबाइल के उपयोग पर विशेषज्ञों ने हमेशा कहा है कि इसका उपयोग नुकसान दायक है। लेकिन अगर मोबाइल का दुरुपयोग होने लग जाए, तो यह महामारी की तरह घातक सिद्ध हो सकता है। मगर किया भी क्या जा सकता है? आज मोबाइल के बगैर न कोई रहना चाहता है और न ही उसकी ज़िन्दगी आगे बढ़ती महसूस होती है। हालाँकि ऐसा नहीं कि मोबाइल को छोड़ा नहीं जा सकता है, लेकिन आज के आधुनिक दौर में मोबाइल छोडऩा ठीक वैसे ही है, जैसे रफ्तार वाला हवाई सफर छोडक़र पैदल चलना। वैसे मोबाइल के फायदे भी बहुत हैं और अगर मोबाइल का सावधानी से उपयोग किया जाए, तो इससे होने वाले नुकसानों से काफी हद तक बचा भी जा सकता है। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब मोबाइल का उपयोग सावधानी से केवल काम भर के लिए किया जाए। मोबाइल के अधिक उपयोग से जितना खतरा है, उतना ही लापरवाही से इसका उपयोग करने से भी। लेकिन अगर इसके दुरुपयोग के खतरे देखें, तो वे चिन्ता पैदा करने वाले हैं। क्योंकि इसका दुरुपयोग उस व्यक्ति को तो बर्बाद कर ही सकता है, जो दुरुपयोग कर रहा है, साथ ही समाज का भी बड़ा नुकसान कर सकता है। ऐसा आजकल हो भी रहा है। कुछ लोग मोबाइल के दुरुपयोग से किसी-न-किसी को नुकसान पहुँचा रहे हैं। ऐसे लोगों में कोई किसी राजनीतिक पार्टी के विरुद्ध काम कर रहा है, तो कोई किसी विशेष समुदाय के विरुद्ध और कोई किसी विशेष जाति के लोगों के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा है। कह सकते हैं कि कुछ अराजक लोग मोबाइल के दुरुपयोग से किसी-न-किसी को नुकसान पहुँचा रहे हैं। मगर यह लोग भूल रहे हैं कि वे खुद अपने आप को भी बड़ा नुकसान पहुँचा रहे हैं; या तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।

वैमनस्य पैदा करने का हथियार

आजकल मोबाइल अराजक तत्त्वों के लिए समाज में वैमनस्य, ईश्र्या और झगड़ा पैदा करने का हथियार बन चुका है। मोबाइल के माध्यम से सोशल मीडिया पर झूठी अफवाहें और खबरें फैलाकर कुछ लोग लगातार समाज में यह काम कर रहे हैं। इससे मानवता के साथ-साथ देश भी कमज़ोर हो रहा है। अक्सर देखा जाता है कि साम्प्रदायिक दंगे भडक़ाने या किसी पर हमला करने में मोबाइल का दुरुपयोग बहुत अधिक किया जाता है। आजकल सोशल मीडिया पर अत्याचारों को अनेक ऐसे वीडियो मिल जाते हैं, जो अंतर्मन तक दु:खी कर देते हैं। हालाँकि इसका फायदा यह हुआ है कि ऐसे वीडियो वायरल होने से अपराधी पुलिस की पकड़ में आसानी से आ जाते हैं। मगर अफसोस इस बात का होता है कि कई मामलों पर पुलिस संज्ञान ही नहीं लेती, जिससे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के हौसले बढ़े रहते हैं और वे लगातार अपराध करते चले जाते हैं।

समय नष्ट करने का ज़रिया

आजकल अनेक लोग मोबाइल पर लगातार लगे रहते हैं। इनमें अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर लगे रहते हैं। एक सर्वे के मुताबिक, दुनिया के 30 प्रतिशत लोग अपना अधिकतर समय मोबाइल पर बिताते हैं। वहीं 25 प्रतिशत लोग सामान्य से अधिक समय मोबाइल के उपयोग में लगाते हैं। लॉकडाउन में मोबाइल पर अधिक समय देने वालों की संख्या बढ़ी है। इससे लोगों का समय खराब हो रहा है। यह भी कह सकते हैं कि मोबाइल अनेक लोगों का समय नष्ट कर रहा है।

आलसी भी बना रहा मोबाइल

मोबाइल लोगों को आलसी भी बनाता है। एक सर्वे में पाया गया है कि जो लोग मोबाइल का ज़रूरत से अधिक इस्तेमाल करते हैं, उनमें आलस पैदा होने लगता है। इस आलस की कई वजहें हैं और आलस का शिकार वे लोग भी हो सकते हैं, जो काम के लिए मोबाइल का बहुत समय तक इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वे लोग अधिक आलसी होने लगते हैं, जो सोशल साइट्स पर सॄफग करने या वीडियो देखने के लिए मोबाइल का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं। दरअसल मोबाइल के अधिक इस्तेमाल से दिमाग की सक्रियता घटने लगती है और बहुत समय तक एक ही जगह या एक मुद्रा में रहने से शरीर भी निष्क्रिय होने लगता है। ऐसे में बहुत जल्द लोगों को आलस अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

बिगडऩे लगता है दिमागी संतुलन

मोबाइल का बिना रुके लम्बे समय तक इस्तेमाल करने या ज़रूरत से अधिक समय तक उपयोग में लाने से दिमागी संतुलन बिगडऩे लगता है। इतना ही नहीं इससे आँखों के अलावा नरवस सिस्टम भी कमज़ोर होने लगता है। विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैं कि मोबाइल के अधिक उपयोग से मनुष्य की पाचन शक्ति बिगडऩे लगती है, जिसका खराब असर उसके पूरे शरीर पर पड़ता है। इतना ही नहीं दिमागी संतुलन इस कदर बिगड़ जाता है कि लोग गुस्सा करने लगते हैं।

बढ़ रहीं अश्लील हरकतें

पिछले कुछ साल से हमारे समाज में अश्लील अपराधों और हरकतों की बाढ़ सी आ गयी है। एक के बाद एक दिल दहला देने वाली घटना पढक़र, सुनकर या ऐसी घटनाओं के वीडियो देखकर दु:ख और आत्मग्लानि होने लगती है। कम-से-कम संवेदनशील लोग तो ऐसी घटनाओं से ज़रूर क्षुब्ध होते हैं।

अभी हाल ही में निर्भया के दोषियों को फाँसी हुई। इससे पहले हैदराबाद में डॉक्टर के साथ अमानीय घटना के दोषियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया। इसी बीच कुलदीप सिंह सेंगर, जो कि एक प्रभुत्व वाला नेता है; को गिरफ्तार किया गया। इस सबके बावजूद आपराधिक प्रवृत्ति के लोग दुष्कर्म और पीडि़ता पर भयंकर अत्याचार करने से नहीं चूक रहे। इस तरह के अपराधियों की मनोवृत्ति के एक अध्ययन में पाया गया है कि ये वे लोग होते हैं, जो मोबाइल का उपयोग गन्दी वीडियो देखने में करते हैं। इनमें 94 फीसदी लोग नशे के आदि भी पाये गये हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अश्लील वीडियोज इन लोगों को अपराध के लिए उकसाते हैं, जो आजकल मोबाइल पर बड़ी सुलभता से मिल जाते हैं। हालाँकि सरकार ने इस दिशा में कदम उठाने का प्रयास किया है। लेकिन अभी तक इस ओर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। और अगर सरकार ने जल्द ही इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो लोगों में आपराधिक प्रवृत्ति ऐसे ही बढ़ती जाएगी, जिस पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

शरीर से पानी सोख लेता है मोबाइल

यह बात आपको भले ही हैरान करे, लेकिन सच है। मोबाइल के अधिक उपयोग से वह शरीर के पानी को नष्ट करता है। एक सर्वे में पाया गया है कि मोबाइल से निकलने वाली तरंगे जब अधिक समय तक शरीर से टकराती रहती हैं, तो इससे शरीर में पानी की मात्रा कम होने लगती है। विशेषज्ञ कहते हैं कि इंसान के शारीर में लगभग 70 फीसदी पानी होता है, जो कि रेडिएशन के प्रभाव से सूखता है। अगर व्यक्ति रेडिएशन तरंगों से लगातार गुज़रता है, तो उसके शरीर में पानी की मात्रा तेज़ी से घटने लगती है। इसका एक कारण यह भी बताया गया है कि मोबाइल का अधिक इस्तेमाल करने वाले लोग पानी पीना कम कर देते हैं, जिससे शरीर का पानी और तेज़ी से कम होने लगता है।

मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों को कोई-न-कोई नुकसान तो होता ही है। इनमें सामान्य नुकसान इस प्रकार हैं :-

नपुंसकता : मोबाइल के अधिक इस्तेमाल से नपुंसकता बढ़ती है। विशेषज्ञों कहते हैं कि मोबाइल के अधिक इस्तेमाल से स्पर्म में 30 फीसदी तक की कमी आ सकती है। ऐसा नहीं है कि मोबाइल का अधिक इस्तेमाल पुरुषों में ही नपुंसकता पैदा करता है; महिलाओं में भी इसका प्रभाव उतना ही होता है।

आलस : मोबाइल पर अधिक समय बिताने से शरीर आलसी हो जाता है।

अन्य बीमारियाँ : मोबाइल का इस्तेमाल कैंसर, रंतौधी, नेत्र दोष, अल्जाइमर, डाइबिटीज, हृदय रोग पैदा करने के अलावा तनाव बढ़ा सकता है और यादाश्त को कमज़ोर कर सकता है।

गर्भवतियों को नुकसान : मोबाइल का अधिक इस्तेमाल उपरोक्त नुकसान पहुँचाने के अलावा गर्भवती महिलाओं को कई अन्य नुकसान पहुँचाता है। क्योंकि मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन गर्भ में पल रहे शि‍शु को बड़े नुकसान पहुँचा सकता है। यहाँ तक कि उसका सही से विकास होने से रुक सकता है या बच्चा किसी अंग से अपंग भी पैदा हो सकता है।

ब्रेन कैंसर : वल्र्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने एक शोध में बताया है कि मोबाइल का अत्यधि‍क इस्तेमाल से सबसे ज़्यादा खतरा मस्तिष्क के कैंसर का होता है।

विशेषज्ञों की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करना पड़ेगा महँगा

सोचिए, जब विशेषज्ञ मोबाइल के सामान्य इस्तेमाल पर चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं, तो मोबाइल के अधिक इस्तेमाल और दुरुपयोग पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? करीब तीन साल पहले भी विशेषज्ञों ने मोबाइल के खतरों के प्रति चेतावनी दी थी। विशेषज्ञों ने मोबाइल के उपयोग पर किये गये एक शोध निष्कर्ष के बाद कहा था कि मोबाइल से निकलने वाली रेडिएशन बहुत हानिकारक होती है। इससे शारीरिक और मानसिक दुर्बलता बढऩे के साथ-साथ शरीर में कई तरह के रोग लगने का डर रहता है। यूनिवॢसटी ऑफ केलिफोॢनया ने एक शोध में पाया कि मोबाइल को वाइब्रेशन मोड इस्तेमाल करते रहने से कैंसर हो सकता है। शोध में यह भी कहा गया था कि कम-से-कम सोते समय मोबाइल को कम-से-कम एक मीटर की दूरी पर रखना चाहिए और यदि सम्भव हो तो सोते समय स्विच ऑफ (फोन बन्द) करके रखना चाहिए। उसे सिर के पास तो रखकर बिल्कुल नहीं सोना चाहिए। क्योंकि मोबाइल से हर समय इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन निकलती हैं, जो दिमाग की कोशिकाओं की वृद्धि करने में मदद करती हैं, जिससे ट्यूमर बन सकता है। शोध में यह भी कहा गया है कि मोबाइल युवाओं के सिर को 25 फीसदी, किशोरों के सिर को 35 फीसदी, 10 से 5 साल तक के बच्चों के सिर को 50 फीसदी और 5 साल के कम उम्र के बच्चों को 75 फीसदी तक प्रभावित करता है। लेकिन मोटी कमाई के चलते मोबाइल फोन बनाने वाली कम्पनियों, इंटरनेट डाटा और कॉलिंग पैकेज बेचने वाली कम्पनियों और इस सबसे होने वाली भारी भरकम कमाई से मिलने वाले मोटे टैक्स के चलते सरकारों ने आज तक विशेषज्ञों की चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इससे लोगों को हर तरह से विकट नुकसान हो रहा है। खासकर मोबाइल के बढ़ते दुरुपयोग से, जिसका खामियाज़ा हर इंसान को भुगतना पड़ता है। अगर इसे इसी तरह अनदेखा किया जाता रहा, तो भविष्य में बड़े खतरे पैदा होंगे।

सुरक्षा के उपाय

जैसा कि बताया जा चुका है कि मोबाइल के फायदे भी बहुत हैं। मगर वे फायदे तभी किसी को दिखेंगे, जब वह मोबाइल का उपयोग लिमिट में और सुरक्षा बरतते हुए करे। इसलिए निम्न सावधानी बरतें –

  1. उपयोग करने के बाद मोबाइल को शरीर से दूर कर दें।
  2. सम्भव हो तो मोबाइल को जेब में न रखकर बैग आदि में रखें।
  3. रात को मोबाइल स्विच आफ करके सोएं। अगर यह सम्भव न हो, तो अपने से एक-डेढ़ मीटर दूर रखकर सोएं।
  4. बात करने के लिए लीड या हेडफोन का इस्तेमाल करें। अगर कोई सुविधा न हो, तो कान से सटाकर बात न करें।
  5. चार्जिंग के दौरान मोबाइल का इस्तेमाल बिल्कुल न करें।
  6. लंबे समय तक बात न करें, खासकर गर्मियों में।
  7. लंबे समय तक मोबाइल पर वीडियो न देखें और लीड लगाकर लंबे समय तक आडियो भी न सुनें।
  8. बच्चों से मोबाइल को दूर रखें।
  9. समय-समय पर मोबाइल से वायरस हटाते रहें और फालतू के एप डिलीट करते रहें।
  10. अगर मोबाइल बहुत पुराना हो जाए, तो उसे बदल दें।

महामारी में ऑनलाइन करार के मायने

कोविड-19 के संक्रमण के बीच फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने मुकेश अंबानी की कम्पनी रिलायंस जियो में 43,574 करोड़ रुपये निवेश किये हैं। इससे जियो में फेसबुक की हिस्सेदारी 9.99 फीसदी हो जाएगी। इस कारोबारी समझौते के बाद मुकेश अंबानी फिर से एशिया के सबसे अमीर आदमी बन गये हैं। पहले, इस पर अलीबाबा के संस्थापक जैक मा काबिज़ थे। अब मुकेश अंबानी की सम्पत्ति 4 अरब डॉलर बढक़र 49.2 अरब डॉलर हो गयी है, जो जैक मा से 3 अरब डॉलर ज़्यादा है।

एक अनुमान के मुताबिक, 2028 तक भारत में ऑनलाइन ई-कॉमर्स बाज़ार 200 बिलियन डॉलर का हो जाएगा; जो 2018 में 30 बिलियन डॉलर का था। फेसबुक के निवेश से जियोमार्ट का गठन किया जाएगा, जिसका उद्देश्य है, कारोबारियों के लिए लाभकारी ई-कॉमर्स क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित करना। हालाँकि, इस क्षेत्र में पहले से छोटे और बड़े दोनों खिलाड़ी मौज़ूद हैं, लेकिन जियोमार्ट के सामने इनका टिकना आसान नहीं होगा। जियोमार्ट और व्हाट्सएप मिलकर एक नयी व्यवस्था विकसित करना चाहते हैं, जिसके तहत लगभग 3 करोड़ छोटे किराना दुकानों को डिजिटल प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया जाएगा, जिससे लोग किराना दुकानों से भी ऑनलाइन सामानों की खरीददारी कर सकेंगे। इससे छोटे किराना दुकानों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और किराना सामान कम कीमत पर उपभोक्ताओं को मिल सकेगा।

2019 में रिलायंस जियो ने माइक्रोसॉफ्ट के साथ 10 वर्षों के लिए समझौता किया था। आज माइक्रोसॉफ्ट की भारत में व्यापक पैमाने पर उपस्थिति है। एंड्रॉयड स्मार्टफोन्स के ज़्यादा इस्तेमाल से गूगल का इस्तेमाल भी खूब बढ़ा है। रिलायंस जियो भारत भर में डेटा केंद्रों का नेटवर्क स्थापित करना चाहता है। वह स्टार्टअप्स को संयुक्त क्लाउड-माइक्रोसॉफ्ट एप आधारभूत संरचना फ्री उपलब्ध करायेगा। जबकि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उधमियों को यह सुविधा 1500 रुपये के मासिक शुल्क पर उपलब्ध करायेगा। फेसबुक के साथ ताज़ा करारनामे से भारत में समावेशी डिजिटल क्रान्ति को बढ़ावा मिलेगा। क्योंकि फेसबुक भारत के डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित करने और बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

फेसबुक से गठबन्धन से जियो को भुगतान क्षेत्र की कम्पनियों जैसे, फोन-पे, पेटीएम, गूगल-पे, अमेजन-पे आदि कम्पनियों पर बढ़त बनाने में मदद मिलेगी। अनुमान के अनुसार, 2023 तक भारत में डिजिटल भुगतान में 5 गुना तक बढ़ोतरी हो सकती है। राशि में यह एक लाख डॉलर तक पहुँच सकता है। फेसबुक के लिए भारत सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार है। यहाँ इसके करीब 32.8 करोड़ उपभोक्ता हैं। मैसेजिंग एप वाट्सएप के भी लगभग 40 करोड़ उपभोक्ता हैं। वाट्सएप, भारत में डिजिटल भुगतान सेवा शुरू करने के लिए तैयार है। सिर्फ उसे इसके लिए मंज़ूरी लेने की ज़रूरत है। जियोमार्ट ग्रॉसरी की दुकानों के लिए बड़ा खतरा बन सकता है। जियोमार्ट के पास पूँजी की िकल्लत नहीं होगी, इसलिए यह अपना विस्तार देश के दूर-दराज़ के इलाकों में कर सकता है। जब किराना सामान जियोमार्ट कम कीमत पर बेचा जाएगा, तो लोग स्वभाविक रूप से उससे खरीदारी करना चाहेंगे। जियोमार्ट का डिजिटल स्वरूप होने से युवा वर्ग इससे जुडऩा चाहेंगे। अभी बड़े शहरों में डी-मार्ट से खरीदारी करने के लिए लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं, क्योंकि यहाँ सभी सामान एमआरपी से कम कीमत पर उपलब्ध होता है। रिलायंस जियो से मुकाबले के लिए अमेजन, फ्लिपकार्ट को बिजनेस मॉडल व लॉजिस्टिक में बदलाव लाना होगा, क्योंकि पूर्णबन्दी में वे ग्राहकों की किराना सामान उपलब्ध कराने में नाकामयाब रहे हैं। जियोमार्ट को वाट्सएप और फेसबुक से देश की एक बड़ी जनसंख्या का डाटा मिल जाएगा, जिसका इस्तेमाल वह अपने कारोबार को बढ़ाने में करेगा। आज डेटा सबसे बड़ी ताकत है। इसकी मदद से ग्राहकों की पसन्द-नापसन्द को जाना जा सकता है। इससे विज्ञापन व अन्य माध्यमों से ग्राहकों की पसन्द को प्रभावित किया जा सकता है। कोरोना के चलते जियोमार्ट भले ही तुरन्त अमेजन व फ्लिपकार्ट को नहीं हरा पाएगा, लेकिन लम्बी अवधि में उसके लिए देश में मौज़ूद ई-कॉमर्स कम्पनियों को हराने में परेशानी नहीं होगी। रिलायंस जियो और फेसबुक के बीच हुए समझौते से उपभोक्ताओं की निजी जानकारियों के दुरुपयोग की सम्भावना बढ़ गयी है। भारत में फेसबुक और वाट्सएप के लगभग 73 करोड़ उपभोक्ता हैं। उन्होंने अपनी मर्ज़ी से अपनी निजी जानकारी को सोशल साइट्स पर साझा कर रखा है। हाल ही में रिलायंस ने आॢटफिशियल इंटेलिजेंस में भारी-भरकम निवेश किया है। चूँकि, रिलायंस जियो डिजिटल मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में है, उसकी दखल आॢटफिशियल इंटेलिजेंस में भी है। इसलिए जियोमार्ट लोगों की निजी जानकारियों का उपयोग कारोबारी फायदे के लिए कर सकता है।

आज वाट्सएप व फेसबुक के डाटा के उपयोग से देश की एक बड़ी आबादी की आदत, तौर-तरीके, अभिरुचि, लोगों के राजनीतिक रुझान को जाना जा सकता है। साथ ही इनका उपयोग कारोबारी फायदे और राजनीति रुख को प्रभावित करने में भी किया जा सकता है। हालाँकि, मौज़ूदा समय में भी कारोबारी लम्बे समय से चन्दा देकर राजनीतिक रुख को प्रभावित कर रहे हैं। पर तेज़ी से हो रहे डिजिटलीकरण से कारोबारियों का राजनीति में दखल देना आसान हो गया है। इसलिए रिलायंस जियो का फेसबुक के साथ हुए कारोबारी समझौते को विस्तृत फलक पर देखने की ज़रूरत है। आने वाले दिनों में इसका प्रभाव कारोबार के साथ-साथ राजनीतिक हलकों में भी देखा जा सकता है। फिलहाल भारत में जियोमार्ट के आने से खुदरा किराना कारोबारियों के साथ-साथ ई-कॉमर्स की दिग्गज कम्पनियों के अस्तित्व पर भी ग्रहण लगने के आसार बढ़ गये हैं।

एकल महिलाओं को मिला भूमि अधिकार

पुरुष प्रधान समाज में एकल, अविवाहित महिलाओं और विधवाओं के लिए भूमि पर अधिकार पाना मुश्किल है। लेकिन गैर-लाभकारी संगठन ‘प्रदान’ की ज़मीनी स्तर पर की गयी पहल से ओडिशा के रायगड़ा ज़िले के बोरीगुडा गाँव में 10 एकल महिलाओं (छ: अविवाहित महिलाओं और चार विधवाओं) को चार साल के लम्बे संघर्ष के बाद वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) प्रदान किये गये हैं। कुल मिलाकर 75 परिवारों ने आईएफआर के लिए आवेदन किया था।

भूमि अधिकारों पर रायगड़ा में कोलनारा और कल्याण सिंह पुर ब्लॉकों में 2013-14 में किये गये एक सर्वेक्षण के दौरान यह पाया गया कि 40 फीसदी परिवारों के पास सरकारी रिकॉर्ड में ज़मीन नहीं थी। इसके अलावा इन परिवारों ने सरकारी ज़मीनों पर अतिक्रमण किया, ताकि वे वहाँ खेती कर सकें।

सर्वेक्षण में महिलाओं के भूमि अधिकारों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। विशेष रूप से विवाहित और अविवाहित महिलाओं के लिए स्थिति का आकलन करने के बाद यह पाया गया कि महिलाओं की एक नगण्य आबादी के पास ही ससुराल की सम्पत्ति और सह-स्वामित्व का अधिकार था। प्रदान संस्था के कार्यकर्ता अमित दास के मुताबिक, क्योंकि महिलाओं की स्थिति वास्तव में कमज़ोर थी; इसलिए यह महसूस किया गया कि एफआरए उनके जुड़े भूमि अधिकारों का निपटारा करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार था। आिखरकार इस साल फरवरी में उनके अधिकारों के मामलों का निपटारा किया गया। हालाँकि, अब तक महिलाओं को अधिकार से जुड़े दस्तावेज़ नहीं मिले हैं। इन्हें पहले ही ज़िला-स्तरीय समिति (डीएलसी) से अनुमोदित किया जा चुका है। दास ने कहा कि हम किसी मंत्री का इंतज़ार कर रहे हैं, जो यह दस्तावेज़ लाभाॢथयों को प्रदान कर सकें।

महिला अधिकारों की सुरक्षा

लांडेसा (रायगड़ा की महिलाओं के भूमि अधिकार से जुड़ी एसएचजी सदस्य) की एक रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं की स्वामित्व की कमी एक प्रणालीगत प्रक्रिया है, जो सामान्य रूप से जटिल सामाजिक संरचना और विशेष रूप से कार्य करने की पितृसत्तात्मक पद्धति में अंतॢनहित है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि हालाँकि महिलाओं ने अपने कई लाभों को देखते हुए खुद की ज़मीन के लिए इच्छा जतायी है, वे भूमि दस्तावेज़ों में अपने नामों के बाहर होने के संदर्भ में उनसे भेदभाव में अपनी कमज़ोरी की पहचान भी करती हैं। इसलिए लिंग समानता सुनिश्चित करने की दिशा में बोरीगुडा का उदाहरण एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिक घंटों तक काम करने के बावजूद महिलाओं के पास भूमि के उत्पादन, बाज़ार और धन तक पहुँच और नियंत्रण नहीं है। इसके अलावा खरीद, बिक्री और बिक्री के पैसे के उपयोग सहित ज़मीन से सम्बन्धित निर्णय लेने में उनकी कोई भूमिका नहीं है।

प्रदान संगठन से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ताओं ने बताया कि अब तक ज़िला प्रशासन एफआरए के तहत भूमि अधिकार देने के लिए काफी अनिच्छुक रहा है। ज़िले के कोलनारा ब्लॉक में करीब 600 एफआरए मामले अभी भी लम्बित हैं, जिनमें से सबसे अधिक मामले महिलाओं के हैं। अमित दास के मुताबिक, वन विभाग उपयोगी नहीं है, भले ही एफआरए को मूल्यवान संसाधनों पर वनवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया था।

ओडिशा के एक और आदिवासी भूमि अधिकार कार्यकर्ता रंजन प्रहाराज ने बताया कि सामान्य रूप से महिलाओं के भूमि और सम्पत्ति के अधिकार पूरे देश में ही सीमित हैं। लेकिन एकल महिलाएँ विवाहित लोगों की तुलना में अधिक वंचित और कमज़ोर हैं। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर समय मेहनत करने और अधिकार होने के बावजूद एकल महिलाओं के पास उनके नाम पर भूमि पट्टिका जैसे कानूनी दस्तावेज़ों की अनुपस्थिति में भूमि पर उनका नियंत्रण नहीं है या नियंत्रण सीमित है।

ओडिशा और झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में प्रथा के अनुसार महिलाओं के लिए भूमि पर अधिकार प्रतिबन्धित है। लगभग सभी आदिवासी समुदायों में महिलाओं को परिवार के सदस्य के रूप में उपज का हिस्सा जैसे उपयोगकर्ता अधिकार आदि तो मिल सकते हैं, लेकिन उन्हें उनके नाम के मालिकाना हक के साथ कानूनी अधिकार या भू-सम्पत्ति का हिस्सा नहीं मिल सकता है।

यदि एक महिला एक लडक़े को जन्म देने में असमर्थ है, तो उसकी बेटी भी माता-पिता के भूमि अधिकारों से वंचित हो जाती है। एकल महिलाओं के बाद में शादी करने के मामलों में निर्णय अभी तक दस्तावेज़ में शामिल नहीं किये गये हैं। लेकिन अगर उसे ज़मीन का एक टुकड़ा आवंटित किया जाता है, तो सामान्य तौर पर यह शादी के बाद भी महिला के पास रहेगा। भूमि आवंटन के तहत सभी मालिकाना हक को लीजहोल्ड सम्पत्ति माना जाता है। जिसे बेचा, स्थानांतरित या विभाजित नहीं किया जा सकता है। महिला की मृत्यु के बाद उसके पति और बच्चे उस आवंटित भूमि के कानूनी उत्तराधिकारी होंगे।

एक नयी शुरुआत

प्रहाराज ने कहा कि काम करने के वर्षों के अनुभव के बाद उन्होंने महसूस किया कि सुरक्षित भूमि अधिकारों के बिना, भूमि आधारित ग्रामीण आजीविका सुनिश्चित करना मुश्किल है। प्रदान संगठन से जुड़े ब्रज किशोर दास ने कहा कि रायगड़ा ज़िले में गाँव के आकार के आधार पर 23 फीसदी से 40 फीसदी एकल महिला आबादी है। उनके मुताबिक, उनका फीसदी ज़िले में काफी अधिक है। बोरीगुडा गाँव में आईएफआर का दावा करने वाली एकल महिला किसान हैं और वे लम्बे समय से संघर्ष कर रही हैं। इन महिलाओं के दावों को वन अधिकार समिति (एफआरसी) ने मंज़ूरी दे दी, जिसकी अध्यक्ष सबित्री हिकाका हैं; जो खुद एकल महिला हैं। ब्रज किशोर दास के मुताबिक, इसके बाद डीएलसी ने ट्रांसफर को मंज़ूरी दे दी। इसके मुताबिक, एफआरसी में गाँव के वे सदस्य होते हैं, जिन्होंने सबसे पहले सर्वेक्षण किया और दावे किये। फिर उन्होंने इन्हें डीएलसी को भेज दिया।

हालाँकि बोरीगुडा के मामले में डीएलसी ने दावों को मंज़ूरी दे दी है, लेकिन मालिकाना हक के दस्तावेज़ अभी तक भौतिक रूप से उन्हें नहीं सौंपे गये हैं।

ब्रज किशोर दास बताते हैं कि एफआरसी का गठन जनवरी, 2017 में किया गया था। दावों की निगरानी के बाद उन्हें फरवरी में सत्यापन के लिए भेजा गया था। मालकाना हक हासिल करने वाली सभी महिलाएँ कपास, दाल और सब्ज़ियों की खेती करती हैं। अब उन्हें आकार में एक से तीन एकड़ के बीच पेट्रा जंगल (गैर-सिंचित) भूमि प्रदान की गयी है। उन्होंने बताया कि हमारे क्षेत्र क्षेत्र में 1,014 दावे किये हैं। लेकिन हम आरक्षित वनों के मामले में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। क्योंकि वन विभाग सहयोग नहीं कर रहा है।

आदिवासी भूमि अधिकार कार्यकर्ता प्रहाराज के अनुसार, कार्यान्वयन के 12 साल के बाद भी विभिन्न स्तरों पर जागरूकता का अभाव है। ग्राम वनों (ग्राम सभाओं) के सहयोग से सामुदायिक वनों की बेहतर सुरक्षा, पुनस्र्थापना और प्रबन्धन किया जा सकता है। ग्राम समुदाय को अपनी सामुदायिक वन अधिकार प्रबन्धन योजना को लागू करने के लिए उपलब्ध धन और तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता है; ताकि ग्राम सभाओं में स्वामित्व की भावना विकसित हो सके। वे कहते हैं कि यदि कोई भी एजेंसी पारदर्शी प्रणाली अपनाने की इच्छुक है, तो समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। वन प्रबन्धन और संरक्षण का अंतिम लक्ष्य इस तरह से सुनिश्चित किया जा सकता है।

प्रहाराज एकल महिलाओं को भूमि के हक सौंपने की पहल का स्वागत करते हैं। वह बताते हैं कि एकल महिलाओं को आवेदक मानने के लिए सरकार  पहले अनिच्छुक थी। वह स्वीकार करते हैं कि निश्चित रूप से एफआरए महिलाओं पर भूमि अधिकारों का निपटारा करने का एक शक्तिशाली ज़रिया है। क्योंकि आईएफआर के मामले में अनिवार्य रूप से संयुक्त अधिकार का प्रावधान है।