कोरोना के साथ-साथ भारत में तबाही मचाएगा तूफ़ान
स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन डब्लूएचओ के कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष नामित
कोविड-१९ महामारी फैलने के बाद दुनिया भर के देशों की आलोचना का केंद्र रहे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में भारत को प्रतिनिधित्व मिला है। भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन डब्लूएचओ के कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष नामित किये गए हैं। यह पद रोटेशन के आधार पर दिया जाता है।
हर्षवर्धन २२ मई की बैठक में यह जिम्मा संभाल सकते हैं। अभी तक जापान के डॉ. हिरोकी नकाटनी इस बोर्ड के अध्यक्ष हैं। भारत को डब्लूएचओ के कार्यकारी बोर्ड में शामिल करने के प्रस्ताव पर मंगलवार को सहमति बनी जब १९४ देशों ने इससे जुड़े प्रस्ताव पर दस्तखत किये।
डब्ल्यूएचओ के दक्षिण-पूर्व एशिया समूह ने पिछले साल सर्वसम्मति से निर्णय किया था कि भारत को तीन साल के कार्यकाल के लिए कार्यकारी बोर्ड के लिए चुना जाएगा। कार्यकारी बोर्ड में ३४ सदस्य हैं जो तकनीकी रूप से स्वास्थ्य के क्षेत्र से होते हैं। बोर्ड साल में कम से कम दो बार बैठक करता है और मुख्य बैठक जनवरी में आम तौर पर होती है।
गौरतलब है कि क्षेत्रीय समूहों के बीच अध्यक्ष का पद एक वर्ष के लिए रोटेशन के आधार पर दिया जाता है। पिछले साल तय किया गया था कि २२ आई से शुरू होने वाले पहले वर्ष के लिए भारत का उम्मीदवार कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष होगा। यह पूर्णकालिक जिम्मेदारी नहीं है और अध्यक्ष का जिम्मा केवल कार्यकारी बोर्ड की बैठकों की अध्यक्षता करने का होता है।
कश्मीर में आतंकवाद कोरोना से खतरनाक
3 मई को जब कर्नल आशुतोष शर्मा को उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा के चांगिमुल्ला में आतंकियों द्वारा नागरिकों को बन्धक बनाने की जानकारी मिली, तो वह मेजर अनुज सूद, दो जवानों और जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक उप निरीक्षक सगीर पठान के साथ घटनास्थल पर पहुँचे। कर्नल शर्मा की अगुवाई में मोर्चे पर सुरक्षा बलों की टीम ने स्थानीय नागरिकों को सुरक्षित निकालने के लिए आतंकियों के कब्ज़े वाले क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्होंने नागरिकों को तो सुरक्षित निकाल लिया, लेकिन वे उग्रवादियों की भयंकर गोलीबारी के चपेट में आ गये। इस गोलाबारी में दो आतंकवादी ढेर हुए, मगर कर्नल आशुतोष शर्मा सहित पाँच जवान शहीद हो गये।
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले कर्नल शर्मा पिछले कई साल से कश्मीर में कई सफल आतंकरोधी अभियानों का हिस्सा रहे हैं। उन्हें दो बार वीरता के लिए सेना पदक से सम्मानित किया गया, जिसमें एक कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) के रूप में बहादुरी के लिए उन्हें तब मिला, जब उन्होंने एक आतंकवादी को गोली मारी; जो अपने कपड़ों में छिपे एक ग्रेनेड के साथ सडक़ पर अपने लोगों की तरफ भाग रहा था।
आतंकियों के साथ मुठभेड़ में जान गँवाने वाले कर्नल शर्मा पिछले पाँच साल में पहले कर्नल रैंक के अधिकारी हैं। इससे पहले 2015 में सेना ने अलग-अलग आतंकी घटनाओं में दो कर्नल रैंक के अधिकारियों को खो दिया था। कर्नल शर्मा के परिवार में 12 साल की उनकी बेटी और पत्नी हैं।
इसी तरह मुठभेड़ में सर्वोच्च बलिदान देने वाले मेजर सूद का कुछ महीने पहले ही विवाह हुआ था। उनके परिवार को उनकी मृत्यु की खबर उसी दिन मिली, जिस दिन वह घर लौटने वाले थे। उन्होंने मार्च में जम्मू-कश्मीर में अपने दो साल के कार्यकाल को पूरा कर लिया था, लेकिन लॉकडाउन के कारण उन्हें रुकने के लिए कहा गया था। उनके पिता ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) सीके सूद ने मीडिया को बताया कि सूद महीने भर की छुट्टी पर घर आने वाले थे और फिर पंजाब के गुरदासपुर में उन्हें ज्वाइन करना था। सेना में मेजर सूद परिवार की लगातार तीसरी पीढ़ी थे।
शर्मा और सूद की शहादत के एक दिन बाद उसी ज़िले में घात लगाकर आतंकियों ने तीन और सुरक्षाकॢमयों की हत्या कर दी। पिछले एक महीने में घाटी में आतंकी घटनाओं में तेज़ी का यह एक उदहारण है। इस महीने में कश्मीर में कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन की अवधि में सुरक्षा बलों ने इस केंद्र शासित प्रदेश में करीब 30 आतंकवादियों को भी मार गिराया है। इसके अलावा कर्नल शर्मा, मेजर सूद और पाँच पैरा कमांडो सहित 16 जवानों को खोया भी है। जबकि इसके विपरीत यूटी में कोविड-19 के कारण कुल नौ लोगों की जान गयी है।
हिंसा का नया दौर अप्रैल के पहले सप्ताह में शुरू हुआ, जब नियंत्रण रेखा के पास केरन सेक्टर में ऑपरेशन रेंडोरी बेहाक के तहत चली कार्रवाई में एक साथ पाँच सैनिक शहीद हुए और पाँच आतंकवादियों की मौत हुई। घुसपैठियों के समूह के बारे में जानकारी मिलने पर सेना ने उन्हें घेरने के लिए सैनिकों को मौके पर भेजा था। यह एक कठिन पहाड़ी इलाका था, जहाँ भारी बर्फबारी भी हुई थी। इससे आतंकवादियों को ट्रैक करना मुश्किल हो गया। फिर भी हमारी जाँबाज़ सेना ने अंतत: घुसपैठियों को खत्म कर दिया। हालाँकि इसमें पाँच सैनिक शहीद हो गये।
इन उलटफेरों के बाद 5 मई को सुरक्षा बलों ने दक्षिण कश्मीर में अपने पैतृक गाँव बेगपोरा में छिपे हिजबुल मुजाहिदीन के ऑपरेशनल चीफ रियाज़ नाइकू को मार गिराया। नाइकू पिछले आठ साल से यहाँ सक्रिय था। पिछले साल अलकायदा की कश्मीर यूनिट ‘अंसार गजवत-उल-हिंद’ के कमांडर ज़ाकिर मूसा को ढेर करने के बाद सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह सबसे बड़ी सफलता थी।
हालाँकि, कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान चले जाने से कश्मीर में चल रही हिंसा से ध्यान हट गया है। लेकिन घाटी और नियंत्रण रेखा दोनों पर आतंकी गतिविधियों में नाटकीय वृद्धि को देखते हुए, जिसमें छ: साल के बच्चे सहित चार नागरिकों की हत्या भी हुई; गॢमयों के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं। स्तम्भकार नसीर अहमद कहते हैं कि ऐसे समय में जब भारत और पाकिस्तान को कोविड-19 महामारी के मरीज़ों को देखने और उनकी जान बचाने की ज़रूरत है, तब हिंसा की आशंका बढ़ रही है। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि यह गॢमयों तक न चले।
एलओसी पर झड़पों में अचानक हुई वृद्धि को सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवादियों को भारत की तरफ भेजने की पाकिस्तान की कोशिश का नतीजा बताया है। सुरक्षाकॢमयों की हत्या इस दावे को सत्यापित भी करती है। लगभग सभी उग्रवादी जो मुठभेड़ों में मारे गये या घात लगाये बैठे थे; कश्मीरी थे। इन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में प्रशिक्षण लिया था। दक्षिण कश्मीर में उनके परिवारों ने सम्बन्धित थानों में उनके शव लेने के दावे किये। हालाँकि पुलिस ने उन्हें देने से मना कर दिया। क्योंकि इससे उनके अंतिम संस्कार की एक बड़ी कड़ी बन जाती। उनके शव उत्तरी कश्मीर में कहीं दफनाये गये थे।
घाटी में जैसे सुरक्षा स्थिति बन रही है, उसमें हालिया हिंसक घटनाओं से परे देखने की भी ज़रूरत है। एक, इस पैमाने पर हिंसा पिछले साल अगस्त में अनुच्छेद-370 के निरस्त होने के बाद पहली बार हुई है। इसने एक बार फिर आतंकवाद को केंद्र में ला दिया है, जो आगे गॢमयों के लिए अच्छी खबर नहीं है।
दूसरा, हमलों का दावा एक नये आतंकवादी संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने किया है। इसके अलावा एक और उग्रवादी संगठन तहरीक-ए-मिल्लत-ए-इस्लामी (टीएमआई) ने अपने जन्म की घोषणा की है। और दोनों का दावा है कि उनकी उत्पत्ति स्वदेशी है। अब लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद का कोई उल्लेख नहीं है। यह एक दूरगामी रणनीति है, जिसमें यह ज़ाहिर करने की कोशिश हो रही है कि कश्मीर का आतंकवाद स्थानीय रूप से पैदा हुआ है।
यदि ऐसा है, तो यह पिछले 30 साल में पहली बार होगा कि कश्मीर-आतंकवाद को स्वदेशी बनाने के लिए जानबूझकर एक प्रयास किया गया है। यह लश्कर और जैश जैसे पाकिस्तान स्थित उग्रवादी संगठनों के कश्मीर में कार्रवाई के कमज़ोर होने का नतीजा हो सकता है। पिछले साल के पुलवामा हमले, जिसका दावा जैश ने किया था और जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गये थे; ने भारत और पाकिस्तान को लगभग युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था।
एक पुलिस अधिकारी ने कहा- ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) लश्कर का ही एक छद्म रूप है। इसका धर्मनिरपेक्ष ध्वनित होने वाला नाम कश्मीर में आतंकवाद को एक धाॢमक नहीं, राजनीतिक मुहिम के रूप में दिखाने का जानबूझकर किया गया प्रयास है। इसे एक नयी छवि गढऩे की एक कोशिश कहा जा सकता है।
घुसपैठ और प्रशिक्षण का खेल
आतंकी हिंसा में ऐसे समय में फिर से तेज़ी आयी है, जब आतंकवाद कमज़ोर होने के संकेत दे रहा था। पुलिस के अनुमान के अनुसार, कश्मीर में लगभग 250 सक्रिय आतंकवादी हैं, जिनमें से लगभग 50 इस साल जनवरी के बाद मारे गये हैं। इसके अलावा धारा-370 के निरस्त होने के कुछ महीनों बाद कश्मीरी युवाओं के हथियार उठाने के मामलों में गिरावट दिखायी दी थी। इससे आतंकवादियों की संख्या में कमी आने की सम्भावना थी। लेकिन सुरक्षा बलों की हाल की हत्याओं ने इन गणनाओं को गलत साबित किया है। इसने स्पष्ट कर दिया है कि आतंकवाद खत्म नहीं हो रहा है।
घुसपैठ एक निरंतर प्रक्रिया बनी हुई है, वह भी तब जब हाईटेक सीमा बाड़ लगाने की बातें की गयी हैं। जो आतंकी सीमा पार कर रहे हैं, वे अत्यधिक प्रशिक्षित और युद्ध में निपुण हैं। यह इस तथ्य से ज़ाहिर हो जाता है कि उन्होंने पाँच पैराट्रूपर्स को भी मार दिया, जिन्होंने सितंबर, 2016 में पाकिस्तान के खिलाफ सॢजकल स्ट्राइक में हिस्सा लिया था।
यह चीज़ें यह दर्शाती हैं कि कश्मीरी युवा एक बार फिर पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में हथियारों के प्रशिक्षण के लिए सीमा पार कर रहे हैं। कुछ मामलों में युवाओं को वाघा सीमा से वैध वीज़ा पर पाकिस्तान का दौरा करने के लिए कहा जाता है। पिछले डेढ़ दशक में ऐसा नहीं था। युवा आतंकवाद से जुड़ेंगे और स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण देंगे। लेकिन इन सशस्त्र युवाओं के पास यह ट्रेनिंग प्रतीकात्मक ही ज़ाहिर होती है, क्योंकि अल्पकालिक प्रशिक्षण अक्सर एक के बाद एक होने वाली मुठभेड़ में उन्हें जान बचाना मुश्किल हो जाता है। पिछले एक साल में दक्षिणी कश्मीर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शायद ही किसी सुरक्षाकर्मी की मौत हुई हो। अधिकांश आतंकवादी ट्रैक किये जाने के कुछ घंटों के भीतर ही मार दिये जाते हैं। कई मामलों में सुरक्षा बलों ने उन घरों को ही उड़ा दिया, जहाँ आतंकवादी शरण लिये हुए थे।
लेकिन कश्मीरी एक बार फिर से सीमा पार एक बेहतर हथियार प्रशिक्षण की माँग कर रहे हैं, जो सुरक्षा एजेंसियों के लिए गम्भीर चिन्ता का कारण होना चाहिए। पुलिस सूत्रों के अनुसार, जो आतंकवादी घुसपैठ कर पाने में सफल रहते हैं, उन्हें हथियारों को सँभालने के लिए छ: महीने का प्रशिक्षण मिलता है। यह सच्चाई पिछले महीनों में उनकी तरफ से सुरक्षाकॢमयों को पहुँचाये गये नुकसान को दर्शाती हैं।
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि आतंकवाद में बढ़ोतरी ने हमें आश्चर्यचकित नहीं किया है। अधिकारी ने कहा कि हमें उम्मीद थी कि इस बार आतंकी अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करेंगे। लेकिन हम इससे निपटेंगे और जल्द ही हालत हमारे हक में होंगे।
आतंकी रुझान
मार्च में आतंकवाद का फिर से उभरना इसके तीन दशक लम्बे इतिहास में एक नया चरण है। इन वर्षों में आतंकवाद घटता-बढ़ता रहा है। भले बड़ी संख्या में आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों की पकड़ को कम नहीं आँका है, लेकिन आतंकवादियों की संख्या में भारी कमी ने भी आतंकवाद की चुनौती को कम नहीं किया है। इसके विपरीत एक निरंतर पुर्नपूर्ति ने आतंकवाद को जीवित रखा है। और वह भी तब-जब घाटी में 2012-13 के आँकड़ों के मुताबिक, 100 से अधिक आतंकवादी नहीं थे और दक्षिण कश्मीर जहाँ अब करीब 200 आतंकवादियों के होने का दावा किया जाता है; में महज़ 15 आतंकी थे।
साल 2015 से पहले के दशक में हर साल सुरक्षा बलों ने औसतन 100 आतंकवादियों को मार गिराया, जो घाटी में सक्रिय आतंकवादियों की कुल संख्या भी हुआ करती थी। लेकिन आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ, जिसकी भरपाई ज़्यादातर विदेशी आतंकियों ने की। साल 2015 के बाद बुरहान वानी के उभार ने उग्रवाद के स्तर को बदल दिया, जो अब काफी हद तक स्थानीय युवाओं पर आधारित है। विदेशी बनाम स्थानीय आतंकवादी अनुपात एक बार फिर स्थानीय आतंकवादियों के पक्ष में बदल गया है। जबसे आतंकियों के मरने की संख्या बढ़ी है, स्थानीय भॢतयों में इज़ाफा हुआ है। हालाँकि यह भर्ती मुख्य रूप से अक्षुण्य कश्मीर में हुई है, क्योंकि मध्य और उत्तरी कश्मीर संख्या घटने के मामले में ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। साल 2016 में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद के महीनों में घाटी में आतंकवादियों की संख्या लगभग 300 हो गयी, उनमें से अधिकांश दक्षिण कश्मीर से थे और वहीं केंद्रित हो गये।
इसका एक कारण स्थानीय समर्थन था, जो इस क्षेत्र में आतंकवादियों ने हासिल किया। आतंकवादी अंत्येष्टि में भाग लेने वाले लोगों की संख्या में नाटकीय वृद्धि से यह बात साबित भी हुई है। प्रत्येक आतंकवादी की मौत लोगों ने बड़े पैमाने पर शोक का मुज़ायरा किया। आतंकवादियों के शवों को उस क्षेत्र में सबसे बड़े उपलब्ध मैदान में दफनाने के लिए रखा गया, ताकि बड़ी भीड़ वहाँ जुटायी जा सके। यह जगह जल्दी ही बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के शोर के साथ भर जाती है। वहाँ शस्त्र लहराये जाते हैं और आज़ादी समर्थक नारे लगते हैं। महिलाएँ रोयीं, उनमें से कई आतंकवादियों के शव देखकर बेहोश हो गयीं। शोक और क्रोध शव दफनाने के साथ ही कम नहीं हुआ। इन दृश्यों ने अंतिम संस्कार के बाद पूरे इलाके में व्यापक विरोध का रास्ता बनाया।
इसी तरह वहाँ भी विरोध किया गया, जब आतंकवादियों को ट्रैक किया गया और सुरक्षा बलों ने घेरा। युवाओं के झुण्डों ने मुठभेड़ स्थलों को बाधित किया। यहाँ तक की खुद का जीवन भी दाँव पर लगा दिया। आतंकवादियों को बचाने के प्रयासों में अनुमानित 50 नागरिकों की जान चली गयी है। आतंकवादियों की इस तरह एक नायक जैसी छवि ने अधिक स्थानीय युवाओं को आतंकवाद में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। फलस्वरूप, बंदूकधारी आतंकियों की बढ़ती मौतों के बावजूद आतंकवाद जारी रहा। वास्तव में आतंकियों की मौतों ने आतंकवाद को रोकने के बजाय और इसे बढ़ाने में मदद की। लेकिन सरकार ने अपना तरीका नहीं बदला। उसने उग्रवाद को खत्म करने के लिए सख्त कार्रवाई पर ज़ोर दिया।
साल 2016 और 2017 में सुरक्षा एजेंसियों ने ‘ऑपरेशन ऑल आउट’ नाम आतंकवाद के खिलाफ अभियान को दिया। इसका उद्देश्य एक निश्चित समय सीमा के भीतर सभी आतंकवादियों को मारने का प्रयास करके आतंकवाद को खत्म करना था। सुरक्षा बल बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मारने में सफल रहे और कुछ ही महीनों में उनकी गिनती को लगभग 100 तक कम कर दिया। इससे सक्रिय 300 आतंकवादियों की संख्या फिर से 200 के आसपास पहुँच गयी। इसी बीच घाटी में राजनीतिक गतिशीलता को प्रभावित किया गया, जिसने बिना स्थिति की गहराई को समझे हिंसा और अशान्ति के एक और चरण का रास्ता खोल दिया।
विपत्तियों का ग्राफ
दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल के अनुसार, कश्मीर में 2003 में 2542 हत्याओं के बाद से उग्रवाद से सम्बन्धित मृत्यु दर कम होने लगी थी। 2007 तक यह संख्या घटकर 777 हो गयी थी। 2012 में यह घटकर सबसे कम 117 हो गयी थी। लेकिन 2012 के बाद से हत्याएँ फिर से बढ़ रही हैं। 2013 में यह संख्या बढक़र 181 हुई। फिर 2014 और 2015 में क्रमश: 193 और 174 रही, लेकिन 2016 में यह 267 हो गयी। हालाँकि, 2018 एक दशक में सबसे घातक वर्ष रहा।
हिंसा की विभिन्न घटनाओं में कम-से-कम 586 लोग मारे गये। मारे गये लोगों में 160 नागरिक, 267 आतंकवादी और भारतीय सशस्त्र बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस के 159 सदस्य थे। सशस्त्र बलों और पुलिस के साथ मुठभेड़ों के दौरान 267 आतंकवादियों की मौत भी पूर्ववर्ती दशक में सबसे अधिक थी। संयोग से घाटी में जब हिंसा का दौर बढ़ा तब नई दिल्ली ने पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादी समूहों के साथ वार्ता को स्थगित कर दिया। भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की अपनायी गयी सख्त सुरक्षा लाइन कश्मीर में भी एक कठिन प्रत्युत्तर से मिली है। आतंकी भॢतयाँ बढ़ गयी हैं और वैचारिक चर्चा कट्टरपंथी हो रही है, जो दोनों और के कश्मीर के लिए घातक हैं।
इस स्थिति के प्रति एक सख्त सुरक्षा रुख और हालत ने आम लोगों के लिए पीड़ा का नया दौर पैदा किया है। और धारा-370 के हटने के बाद यह पीड़ा कई गुना बढ़ गयी है। अभूतपूर्व संचार कटौती से जुड़े छ: महीने के लम्बे लॉकडाउन, सैकड़ों नेताओं, सिविल सोसायटी कार्यकर्ताओं व प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी ने लोगों, व्यवसायों, शिक्षा आदि को बहुत बड़ा झटका दिया है। अब जब जम्मू-कश्मीर इस मुसीबत और बार-बार के बन्द से उभर ही रहा था, उसे कोविद-19 नाम की इस महामारी के प्रकोप ने एक नयी मुसीबत में धकेल दिया।
नयी चुनौती का सामना
सुरक्षा एजेंसियाँ फिर से उभरे आतंकवाद की चुनौती से कैसे निपटेंगी? उत्तरी कश्मीर में पिछले एक महीने में सुरक्षाकॢमयों की हत्याओं से दक्षिण कश्मीर में अपनायी गयी प्रतिक्रिया से अलग प्रतिक्रिया अपनानी होगी।
एक पुलिस अधिकारी कहते हैं कि हम उत्तर और दक्षिण कश्मीर में उग्रवाद के दो अलग-अलग रूपों का सामना कर रहे हैं। उत्तर में प्रशिक्षित आतंकवादी हैं, जिन्होंने सीमा पार से घुसपैठ की है; जबकि दक्षिण में मुख्य रूप से स्थानीय आतंकवादी हैं, जो स्थानीय और कमज़ोर तरीके से प्रशिक्षित हैं। इसलिए उत्तर की और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
इसी समय में सुरक्षा एजेंसियाँ स्थानीय स्तर पर आतंकी भर्ती में आयी तेज़ी को लेकर चिन्तित हैं। अधिकारी कहते हैं कि पाकिस्तानी आतंकवाद-समॢथत स्थानीय भर्ती ने कश्मीर में आतंकवाद में उतार-चढ़ाव रखा है। लेकिन आतंकवाद को कम करने या इसे खत्म करने की कुंजी स्थानीय भर्ती पर लगाम पर निर्भर है। ऐसा करना मुश्किल और कहना आसान है।
हालाँकि सेना और पैरामिलिट्री समॢथत जम्मू-कश्मीर पुलिस को तीन दशक का अनुभव है। पिछले दो दशक में यह उग्रवाद से जूझ रहे केंद्र शासित प्रदेश में मुख्य बल के रूप में उभरा है। लेकिन इसके लिए चुनौती कई गुना बढ़ सकती है, अगर कश्मीर में आतंकवादियों की संख्या बढ़ जाती है। एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि पिछले दो दशक में आतंकवाद में 200 से 250 आतंकवादी शामिल हैं। अब पाकिस्तान इस संख्या को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है, ताकि अधिक-से-अधिक आतंकवादियों को भेजकर हिंसा के स्तर को बढ़ाया जा सके। लेकिन हम चुनौती के लिए तैयार हैं।
नये तर्क
हालाँकि नयी हिंसा का आयात, प्रशिक्षण के लिए पार करने वाले कश्मीरी युवाओं या उनके बड़ी संख्या में मारे जाने से परे है। इसका महत्त्व इस बात में निहित है कि घाटी में आतंकवाद खत्म हो चुकी कोई चीज़ नहीं है। खासकर जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता खत्म होने के बाद भी। इसके विपरीत, कश्मीर को स्वायत्तता के नतीजे के रूप में सशस्त्र संघर्ष की भावना को बल मिल सकता है। यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पिछले नौ महीनों में इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक राजनीतिक गतिविधि शून्य हो गयी है। धारा-370 के निरस्त होने के बाद नयी दिल्ली ने कश्मीर में सामान्य मुख्यधारा की राजनीति पर भी रोक लगा दी है, जो अलगाववादी राजनीति के लिए रास्ता खोल सकती है। यहाँ तक कि फेसबुक पोस्ट भी, जो अक्सर सहज नहीं होते हैं; कानूनी कार्रवाई को आमंत्रित करते हैं। इस तरह असंतोष ज़ाहिर करने के सभी प्लेटफार्म पर अंकुश लगा दिया गया है।
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि पिछले साल 5 अगस्त से पहले, आतंकवाद और सार्वजनिक विरोध की मानसिकता के पीछे ज़्यादातर अलगाववादी थे और इसमें मुख्यधारा के दलों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी। कश्मीर में अब शिकायत का दायरा बड़े क्षेत्र में फैल गया है। और इस अभिव्यक्ति के कम या मध्यम रूप में नयी दिल्ली के प्रति और अधिक विरोधी होने की आशंका है।
यह इस पृष्ठभूमि के खिलाफ है कि ताज़ा घुसपैठ हो रही है। जो आतंकवादी आ रहे हैं, उनमें सिर्फ पाकिस्तानी आतंकवादी नहीं हैं, बल्कि उनके अलावा कश्मीरी भी शामिल हैं। ज़ाहिर है कि कोविद-19 महामारी ने इस प्रवाह को नहीं रोका है। वास्तव में एलओसी के किनारे पिघलने वाली बर्फ ने इसे आसान बना दिया है। अगर आतंकियों की आमद जम्मू-कश्मीर में जारी रहती है, जैसा कि सम्भावना है; तो यह आने वाले महीनों में एक नयी चुनौती को खड़ा कर सकती है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कश्मीर में अधिक पाकिस्तानी आतंकवादी लड़ाई में शामिल होते हैं? बुरहान वानी के 2015 में उदय के बाद स्थानीय उग्रवाद की नयी लहर शुरू हुई। कश्मीरी आतंकवादियों ने अपने विदेशी समकक्षों को सामान्य रूप से पीछे छोड़ दिया। विदेशियों के पक्ष में जन-अनुपात का कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नाटकीय रूप से कश्मीर में आतंकवाद के परिदृश्य को बदल सकता है। हालाँकि, इस परिदृश्य का अधिकांश भाग अटकलों के दायरे में है। लेकिन ताज़ा हिंसा ने इस सम्भावना को अधिक बल दिया है।
अफगानी प्रभाव और आतंकवाद का हल
अमेरिका के साथ अफगानिस्तान के हालिया समझौते के बाद तालिबान के निकट भविष्य में अफगानिस्तान के सम्भावित अधिग्रहण के बाद क्षेत्रीय भू-राजनीति में अपेक्षित बदलाव का कश्मीर पर निश्चित ही असर पड़ेगा। एक आशंका और सम्भावना यह भी है कि अफगान मुजाहिदीन कश्मीर वापस लौट सकते हैं। अगर पूर्व भारतीय जासूस प्रमुख एएस दुल्लत की बात मानें, तो अफगानी आतंकवादी पहले से ही कश्मीर में हो सकते हैं। दुल्लत ने हाल में एक ऑनलाइन पोर्टल को बताया कि करीब 50 विदेशी यानी पाकिस्तानी, अफगानी, अरबी और तुर्की आतंकवादी हाल के हफ्तों में सीमा पार करके कश्मीर में आये थे।
अफगान आतंकवादियों की मौज़ूदगी घाटी में ज़मीनी हालात को कैसे बदल सकती है? इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नब्बे के दशक के मध्य से, जब तालिबान ने अफगानिस्तान में 9/11 तक शासन किया; इस क्षेत्र में आतंकी हिंसा में भारी वृद्धि के अलावा यह अवधि आईसी-814 प्लेन को अपहृत कर काबुल ले जाने से लेकर कारगिल युद्ध तक के लिए चिह्तित है। कश्मीर में इस तरह के परिदृश्य फिर उभरने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा भारत की कश्मीर की स्वायत्तता को वापस लेने के मद्देनज़र रणनीतिक रूप से पाकिस्तान और तालिबान को लाभ देने वाली सोच ने इसका विरोध करने की कसम खायी है और कश्मीरी इसे पहले जैसा चाहते हैं।
यह भी सच है कि अब भू-राजनीतिक सन्दर्भ नब्बे के दशक से बहुत अलग है और तालिबान खुद भी इसमें शामिल होने के लिए उत्सुक नहीं है। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की शासन में वापसी बहुत बड़ा भू-राजनीतिक परिवर्तन होगा, जिसमें वह कश्मीर सहित क्षेत्रीय परिस्थितियों से जुड़ा रहना चाहेगा। इस तरह के सभी कारक कश्मीर और भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों की स्थिति को लेकर बहुत बेहतर नहीं दिखते। दोनों देश कुछ ही समय पहले की बालाकोट जैसी स्थिति के कगार पर पहुँच सकते हैं।
एक स्थानीय राजनेता कहते हैं कि यह महत्त्वपूर्ण है कि नई दिल्ली कश्मीर में तेज़ी से बदलती स्थिति को दूर करने के लिए क्या उपाय करती है? अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करने की शर्त पर उन्होंने कहा कि एक राजनीतिक कदम की तत्काल आवश्यकता है, जो अनुच्छेद-370 को मनमाने तरीके से खत्म करने पर पैदा हुई आशंकाओं और चिन्ताओं का समाधान कर सकता हो। इस राजनेता ने कहा कि हिंसा तब तक शायद ही रुके, जब तक भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत हो और कश्मीर सहित सभी मुद्दों के समाधान की दिशा में एक प्रक्रिया शुरू हो। उन्होंने कहा कि इसके लिए एक मिसाल है- ‘साल 2003 से 2007 तक भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति प्रक्रिया की पाँच साल की अवधि के दौरान कश्मीर में हिंसा में भारी गिरावट आयी थी। दोनों देशों को वैसी ही प्रक्रिया शुरू करने की सख्त ज़रूरत है।’
उस समय के दौरान भारत और पाकिस्तान कश्मीर के निपटारे की दिशा में काम कर रहे थे, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ का चार सूत्रीय फार्मूला भी शामिल था। इसमें कश्मीर हल के लिए एक चार सूत्री फार्मूला निर्धारित किया गया था। यह सूत्र थे- 1- समझौते के लिए कश्मीर में क्षेत्रों की पहचान, 2- सेना को हटाना, 3- स्वशासन और 4- भारत-पाकिस्तान के बीच एक संयुक्त प्रबन्धन या परामर्श तंत्र बनाना।
प्रस्तावों में राज्य के किसी भी क्षेत्रीय पुन: समायोजन के बिना कश्मीर समाधान की एक परिकल्पना की गयी थी,जिसमें इस्लामाबाद के पारम्परिक कठोर रुख में ज़बरदस्त कमी दिखती थी। यह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, जिन्होंने मुशर्रफ के साथ यह आशा भरी वार्ता शुरू की थी, जिसका बाद में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पालन किया। सन् 2007 के अन्त तक समझौता कमोवेश सिरे चढऩे की तैयारी में था कि मुशर्रफ की सत्ता अचानक चली गयी और बाद में मुम्बई हमलों के बाद इस प्रक्रिया और कश्मीर समाधान का अन्त हो गया।
हालाँकि ऐसा बहुत कुछ है, जो उसके बाद घटा है। जिस गतिशीलता ने बातचीत को सम्भव बना दिया था, उसे हासिल करना आज कठिन है। जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता वापस लेने के बाद तो यह और कठिन हो गया है। क्षेत्रीय भू-राजनीति में और दो देशों के बीच सम्बन्धों में कई नये कारकों के अलावा शान्ति प्रक्रिया को फिर से शुरू करना मुश्किल हो गया है।
इसलिए किसी भी बातचीत के जल्द ही होने की सम्भावना नहीं है। कश्मीर एक जटिल समस्या है, जिसे एक निश्चित समय-सीमा में हल किया जाना है। कश्मीर की स्थिति पिछले तीन दशक के हालत जैसे होने के लिए तैयार दिखती है और यह राज्य के लिए बेहद निराशाजनक सम्भावना है। इसका मतलब है कि दुर्भाग्य से दुश्वारियाँ और बढ़ेंगी तथा युद्ध की इस प्रवृत्ति का कोई अन्त नहीं होगा।
राजनेता कहते हैं कि हाँ, इसमें दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या को हल करना एक दीर्घकालिक परियोजना है। लेकिन यह एक ऐसा कार्य है, जिसके लिए सभी प्रयास किये जाने चाहिए। इन प्रयासों को मुख्य रूप से राजनीति के इर्द-गिर्द केंद्रित होना चाहिए, न कि एक सैन्य-दृष्टिकोण के; जिसका हल शायद ही कोई निकाल सकता है।
‘राहुल मॉडल’ के साथ गाँधी की वापसी की तैयारी
क्या राहुल गाँधी कोविड-19 में अपनी सक्रियता, सुझावों और विपक्षी नेता होने के बावजूद सहयोगी भूमिका दिखाकर देश के सामने एक ‘राहुल मॉडल’ पेश करने की कोशिश कर रहे हैं? कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गाँधी लॉकडाउन काल में लगातार सक्रिय हैं और मज़दूरों के पलायन, किसानों की मुसीबतों, गरीबों के दर्द और नीतियों को लेकर जो कह रहे हैं, वह एक नये ‘राहुल मॉडल’ के साथ देश के सामने आने की उनकी तैयारी का हिस्सा है। राहुल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में तेवर के साथ सामने आना चाहते हैं और कोरोना और लॉकडाउन को उन्होंने एक अवसर के रूप में लिया है।
माना जा रहा है कि राहुल गाँधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वापसी अब कुछ ही दिनों की बात है और राहुल अपनी एक विशेष छवि के साथ वापसी करना चाहते हैं। राहुल गाँधी जिस तरह लॉकडाउन से उपजी कठिन स्थितियों को लेकर मुद्दों को उठा रहे हैं, उसे वह एक रोल मॉडल की तरह पेश करने की तैयारी में हैं। वे गरीबों, मज़दूरों, किसानों, छात्रों, कर्मचारियों की सहानुभूति को इस मॉडल में समाहित करने की कोशिश कर रहे हैं और अगर इसमें उन्हें सफलता मिलती है, तो यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है।
यह कहा जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल के साथ देश के सामने आये थे। राहुल उसी तरह कोविड-19 के हालत पर राहुल मॉडल सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं; जिसमें गरीब, किसान, मज़दूर, कर्मचारी और तमाम ज़रूरतमंद वर्ग ही नहीं, बल्कि वे बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री भी हैं, जो कोविड-19 के दौरान मोदी मॉडल को फेल होता महसूस कर रहे हैं।
राहुल पहले भी देश के मुद्दों को लेकर बोलते रहे हैं, लेकिन इस बार वे एक नये मॉडल के रूप में सामने हैं। इसे राहुल मॉडल का नाम दिया जा सकता है जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान देश के मज़दूरों, किसानों, गरीबों और अन्य लोगों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर राहुल गाँधी की वीडियो प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर देश के आॢथक विशेषज्ञों और अन्य जानकारों से उनकी ऑनलाइन वीडियो बातचीत इस बात का संकेत है कि वे एक मज़बूत और देश के मुद्दों से जुड़े नेता के रूप में अपनी छवि सामने करना चाहते हैं।
पिछले साल जनवरी तक राहुल गाँधी लोक्रप्रियता के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले भले पीछे थे, लेकिन इतने भी पीछे नहीं कि वे बिल्कुल मुकाबले में न हों। हालाँकि पुलवामा की घटना के बाद राजनीति की तस्वीर बदल गयी और मोदी एक मज़बूत नेता वाली अपनी छवि गढऩे में सफल रहे। इसी का नतीजा था कि मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने 30 साल के इतिहास में पहली बार 300 सीटों के पार निकल गयी। बहुत से जानकार मानते हैं कि भाजपा का यह स्वर्ण काल था और आने वाले समय में उसके लिए बड़ी चुनौतियाँ सामने होंगी।
यहाँ एक बड़ा सवाल यह भी है कि मई, 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस या राहुल गाँधी में ऐसा क्या बदला है कि जनता उन्हें भाजपा या मोदी के विकल्प के रूप में देखने लगे? इसका जवाब यह है कि देश में आॢथक हालात बदतर हैं और कोविड-19 की महामारी की चुनौती से मोदी सरकार सुनियोजित तरीके से नहीं निपट पायी है। यह कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा नोटबन्दी के वक्त हुआ था। लाखों लोगों को बेरोज़गार होना पड़ा है और लोग निश्चित ही मोदी सरकार से बहुत नाराज़ हैं।
राहुल गाँधी और कांग्रेस के लिए ये मुद्दे ही खुराक हैं। क्योंकि यह उसे सरकार के खिलाफ मज़बूत हमले के लिए एक प्लेटफार्म तैयार कराते हैं। यही कारण है कि राहुल गाँधी लगातार मज़दूरों, गरीबों, कर्मचारियों, किसानों पर फोकस कर रहे हैं। वे बार-बार उनके मसलों पर सरकार के सामने असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं।
इनमें सबसे नया प्रवासी मज़दूरों और अन्य फँसे गरीब लोगों के अपने घरों को लौटने के लिए कांग्रेस की तरफ से किराया देने की घोषणा थी, जिसने निश्चित ही मोदी सरकार को बैकफुट पर कर दिया। सरकार के लोग घोषणा कर चुके थे कि किराया इन मज़दूरों को ही देना होगा, सरकार नहीं देगी। कांग्रेस की इन मज़दूरों को किराया देने की घोषणा होते ही सरकार ने नुकसान की भरपाई की कोशिश की; लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कांग्रेस ने अपनी राज्य इकाइयों को तब तक सक्रिय कर दिया था। ऐसे कई मुद्दे हैं।
दुनिया भर में लॉकडाउन ने जब पेट्रोलियम (तेल) का तेल निकाल दिया और कच्चे तेल की कीमतें हटने के बाद पेट्रलियम रेट पाकिस्तान तक में कम हो गये, भारत में मोदी सरकार ने इनमें बढ़ोतरी कर दी। इस फैसले ने लोगों को चौंकाया है। क्योंकि उनका सवाल है कि क्या जनता से पैसा जुटाना ही इस सरकार का काम है? कांग्रेस, खासकर राहुल गाँधी इन मुद्दों को पूरी ताकत से उठा रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि जनता की मोदी सरकार से नाराज़गी ही पार्टी के लिए सत्ता में वापसी का रास्ता बन सकती है।
इससे पहले राहुल गाँधी ने कार्यकर्ता साकेत गोखले के आरटीआई से बैंक कर्ज़ों के बड़े देनदारों (डिफॉल्टर्स) के नामों को लेकर माँगे जवाब पर सरकार को खूब घेरा था। इसका इतना असर था कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक के बाद एक लगातार 13 ट्वीट राहुल गाँधी की बात को काटने के लिए किये। प्रकाश जावड़ेकर भी राहुल गाँधी को कोसते दिखे। इससे ज़ाहिर होता है कि सरकार को लेकर कही राहुल गाँधी की बातों का भाजपा और सरकार पर कितना गहरा असर होता है और उसकी प्रतिक्रिया प्रहार स्वरूप होती है।
हाल में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कोविड-19 के दृष्टिगत पार्टी के राजनीतिक और नीतिगत विचार तय करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में को समिति बनायी, उसमें राहुल गाँधी को तो शामिल किया ही गया; उसमें ज़्यादातर सदस्य राहुल गाँधी के समर्थक नेता हैं। इनसे संकेत मिलता है कि राहुल पार्टी में दोबारा मज़बूत हुए हैं और उनकी बात और समर्थकों को अहमियत दी जा रही है।
तहलका को मिली जानकारी के अनुसार, राहुल अध्यक्ष के तौर पर वापसी के बाद सबसे पहला फोकस संगठन पर करने वाले हैं। सम्भावना है कि उसमें बड़े पैमाने पर फेरबदल होगा और पार्टी के मज़बूत ज़मीन वाले राज्यों में राज्य इकाइयों को पुनर्गठित कर सक्रिय करने की योजना उनके एजेंडे में शामिल है। पार्टी उत्तर प्रदेश में भी ताकत झोंकने की योजना बना रही है, जहाँ प्रियंका गाँधी को पूरे प्रदेश की कमान सौंपी जा सकती है। इसके अलावा मज़बूत छवि वाले युवा नेताओं को आगे किया जाएगा, जो जनता में मोदी सरकार के खिलाफ जनमत बना सकें।
एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राज्य सभा के सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर तहलका से बातचीत में कहा कि राहुल गाँधी राज्यों में पार्टी संगठन को खड़ा करना चाहते हैं। राहुल वहाँ बेहतर छवि वाले युवा और अनुभवी नेताओं को कमान सौंपकर कांग्रेस को अन्य दलों के मुकाबले तैयार करना चाहते हैं। उनके मुताबिक, ऐसे बहुत से राज्य हैं, जहाँ पार्टी ने पिछले काफी समय से बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है। लेकिन पार्टी के लिए बड़ी सम्भावनाएँ वहाँ आज भी हैं।
इसके अलावा राहुल गाँधी की राज्यों में उन मित्र दलों से तालमेल बेहतर करने की योजना है, जहाँ कांग्रेस के लिए मज़बूत सम्भावनाएँ नहीं हैं। लेकिन पार्टी का वहाँ अस्तित्त्व है। पार्टी इस आधार को धीरे-धीरे मज़बूत करना चाहती है। लिहाज़ा वहाँ पार्टी का फोकस गठबन्धन में अपनी हिस्सेदारी को ज़्यादा-से-ज़्यादा मज़बूत करना है, ताकि उन राज्यों में पार्टी का अपना भी अस्तित्त्व दिखे। सच यह है कि कोरोना के फैलने और लॉकडाउन से उपजी विपरीत परिस्थितयों को लेकर जैसी मुखर कांग्रेस और राहुल गाँधी रहे हैं, वैसा टीएमसी को छोडक़र विपक्ष का कोई भी दल नहीं रहा है। राहुल गाँधी ने इस दौरान सरकार की कमियों को उजागर करने में कोई हिचक नहीं दिखायी और सुझाव भी दिये।
कुछ महीने हो चुके हैं, जब देश का विपक्ष बिना किसी बड़े चेहरे के भाजपा की सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के सामने है। लेकिन यह दौर जल्दी खत्म हो सकता है। क्योंकि कांग्रेस राहुल गाँधी को दोबारा कमान सौंपने की तैयारी कर चुकी है। कांग्रेस लॉकडाउन का दौर खत्म होने के इंतज़ार में है और राहुल गाँधी अपने स्तर पर नयी पारी की तैयारी में जुट गये हैं। बड़ा सवाल यही है कि राहुल गाँधी इस ज़िम्मेदारी को सँभालने के लिए कितना तैयार हैं?
समर्थकों को तरजीह
काफी समय बाद कांग्रेस में राहुल गाँधी समर्थकों को तरजीह मिलने लगी है, जो कई संकेत करती है। हाल में सोनिया गाँधी ने जो समिति बनायी थी, उसमें के.सी. वेणुगोपाल, पी. चिदंबरम, रणदीप सुरजेवाला, मनीष तिवारी, जयराम रमेश, प्रवीण चक्रवर्ती, गौरव वल्लभ, सुप्रिया श्रीनेत, रोहन गुप्ता जैसे नेताओं को लिया गया है। इनमें से ज़्यादातर राहुल गाँधी के करीबी माने जाते हैं। यह समिति पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनायी गयी है, जो यह दर्शाता है कि उनके अनुभव का पार्टी पूरा लाभ उठाना चाहती है। यह पिछले दो दशक में पहली बार हुआ है कि गुलाम नबी आज़ाद, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, शशि थरूर, आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता किसी अहम पार्टी टीम में न हों।
महासचिव प्रियंका गाँधी तक इस टीम में शामिल नहीं की गयीं, जबकि वो उत्तर प्रदेश को लेकर कोरोनाकाल में बहुत ज़्यादा सक्रिय रही हैं। प्रियंका ने योगी सरकार पर हमले करने में कभी कमी नहीं रखी है। दिलचस्प यह है कि कोरोना वायरस के संक्रमणकाल में यूपी के दो बड़े विपक्षी नेता बसपा की मायावती और एसपी के अखिलेश यादव तक सक्रिय नहीं दिखे हैं, जिससे योगी सरकार प्रियंका की आलोचना के कारण उन पर ही हमलावर दिखी है।
अभी कांग्रेस के संगठन चुनाव की प्रक्रिया पूरी होनी है। कोरोना ने इन विषयों को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। सोनिया गाँधी अंतरिम अध्यक्ष हैं और समर्थक चाहते हैं कि उन्हें ही दोबारा पूर्णकालिक अध्यक्ष बना दिया जाए। सोनिया के स्वास्थ्य को लेकर पार्टी में चिन्ता रही है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि संकट के हर काल में सोनिया गाँधी ने पार्टी को नेतृत्व दिया है और अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर भी स्वास्थ्य की परवाह किये बिना काम में जुटी रही हैं। पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल पाँच साल है। हालाँकि इसे तीन साल का करने का भी सुझाव दिया जाता रहा है। राहुल ने जब 12 फरवरी को ही ट्वीट करके मोदी सरकार को कोरोना के खतरेे से आगाह किया था, तो उनके बयान को मीडिया में तरजीह तो मिली थी; लेकिन मोदी सरकार ने इसे कोई महत्त्व नहीं दिया। तब कुछ भाजपा नेताओं ने तो इसे देश को डराने वाला और महामारी पर राजनीति करने वाला बयान तक बता दिया था।
लेकिन मार्च खत्म होते-होते राहुल गाँधी के इस बयान को लेकर बहुत से लोगों ने कहा कि सरकार को राहुल की बात गम्भीरता से लेनी चाहिए थी, क्योंकि सरकार ने कोरोना का मुकाबला करने के लिए कदम काफी देरी से उठाये। इसके बाद उन्होंने 12 अप्रैल को ट्वीट करके केंद्र सरकार को आगाह किया कि इस संकटकाल में चीन निवेश बढ़ाने की कोशिश कर सकता है। राहुल की बात सही निकली क्योंकि एक हफ्ते के भीतर ही 18 अप्रैल को मोदी सरकार ने इसे लेकर फैसला कर लिया।
राहुल गाँधी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस की खासी चर्चा में रही। खासतौर से 8 मई वाली उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस का जनता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसमें उन्होंने एक परिपक्व नेता की तरह पत्रकारों के सवालों के जवाब दिये और उन्होंने कहा कि इकोनॉमी को जल्दी दोबारा शुरू करने की ज़रूरत है। हम समय गँवा रहे हैं। उनका मतलब था कि सरकार समय गँवा रही है। सरकार के कुछ फैसलों पर सवाल ज़रूर उठाये, सहयोग और समर्थन की बात भी मज़बूती से कही, साथ ही सुझाव भी दिये। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल कोरोना पर बहुत बेहतर तैयारी करके आये थे, जिसके कारण लोगों में इसकी खासी चर्चा हुई। हालाँकि आदत के मुताबिक भाजपा नेताओं ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए भी राहुल गाँधी की खिल्ली उड़ायी, लेकिन इसके खिलाफ वे कोई तर्क नहीं दे सके।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के नेता अपनी तरफ से यह ज़ाहिर करने की कोशिश करते हैं कि वे राहुल गाँधी को गम्भीरता से नहीं लेते, लेकिन सच्चाई इसके उलट है। राहुल को लेकर सोशल मीडिया के दुनिया भर के दुष्प्रचार के पीछे भाजपा के होने का ही आरोप लगाया जाता रहा है। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उसने एक सुनियोजित तरीके से राहुल गाँधी की छवि को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की। बहुत-से जानकार यह मानते हैं कि भाजपा ऐसा करने में काफी हद तक सफल रही, लेकिन साथ ही उनका यह भी मानना है कि यह लम्बे समय तक नहीं चल सकता। खुद राहुल गाँधी भाजपा की इन कोशिशों को लेकर लोकसभा में बोल चुके हैं और उनका कहना था कि वह देश के मुद्दों को लेकर बोलते रहेंगे। भाजपा उनकी छवि खराब करने के लिए जो करना चाहे, करे। यदि मई, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देखें, तो जनवरी तक टीवी चैनल के सर्वे में राहुल गाँधी लोकप्रियता के मामले में मोदी को टक्कर देते दिख रहे थे। एक मौके पर इन सर्वे में मोदी के पीएम होने के हक में 47 फीसदी, जबकि राहुल गाँधी के पक्ष में 37 फीसदी जनता वोट कर रही थी। मई के चुनाव आते-आते यह स्थिति राहुल के लिए और बेहतर हो सकती थी। हालाँकि फरवरी में पुलवामा की घटना के बाद देश का सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया, साथ ही मुद्दे भी। बेरोज़गारी, किसान, गरीबी, अर्थ-व्यवस्था जैसे गम्भीर मुद्दे पीछे चले गये और भाजपा ने इस मौके को हाथों-हाथ लपकते हुए उग्र राष्ट्रवाद का हथियार सामने कर दिया। कांग्रेस और राहुल गाँधी सहित विपक्ष की कोई पार्टी इसका मुकाबला नहीं कर सकी। सच यह है कि इस स्थिति को पलटा ही नहीं जा सकता था। लेकिन नोटबन्दी से लेकर लॉकडाउन तक मोदी सरकार को यदि किसी नेता ने गम्भीरता और मज़बूती से घेरा है, तो वह राहुल गाँधी ही हैं। राहुल भले अच्छा और शब्दजाल से बुना भाषण नहीं दे पाते हों, लेकिन वह बोलते हमेशा मुद्दों पर ही हैं। अब लॉकडाउन से उपजी परिस्थिति में देश की राजनीति भी करवट ले सकती है। करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये हैं और मोदी सरकार पर ऐसे आरोप लगाने वालों की कमी नहीं कि कोरोना के संकट को ठीक से नहीं निपटा गया। चीज़ें सँभालने में बहुत देरी हुई और जब सँभालने की कोशिश भी हुई, तो उसमें कोई योजना नहीं थी। अस्पतालों में कोई तैयारी नहीं की गयी और मोदी सरकार ने लोगों को घरों में रखकर (लॉकडाउन) अपनी कमज़ोरियों पर परदा डालने की कोशिश ही की है। मज़दूर, गरीब का एक बहुत बड़ा तबका सरकार की चीज़ों को सही न कर पाने और इससे उनकी जीवन में आयी भयंकर मुश्किलों के कारण उनका मोदी सरकार से मोह भंग हुआ है। यही नहीं जिस तरह मोदी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों का डीए एक साल के लिए फ्रीज कर दिया, उससे उनमें भी नाराज़गी है। साथ ही कर्मचारियों का कोरोना संकट से लडऩे के लिए थोड़ी-थोड़ी वेतन कटौती भी कर दी। ऐसे में कर्मचारी सवाल कर रहे हैं कि सरकार आरबीआई का पैसा भी खर्च रही है। उनके पीएफ के पैसे पर भी उसकी नज़र है, तो क्या अर्थ-व्यवस्था का दिवाला पिट चुका है? कांग्रेस और राहुल गाँधी इन मुद्दों को लगातार उठा रहे हैं। उन्हें पता है कि मोदी सरकार के प्रति बड़े वर्ग में नाराज़गी उभरी है और ये मसले उठाकर प्रताडि़त वर्ग, जिसकी संख्या काफी अधिक है; को कांग्रेस के पक्ष में लाया जा सकता है। मोदी सरकार कोरोना के संकट को सँभालने में नाकाम साबित हुई है, कांग्रेस के इस दावे को लोग स्वीकार भी कर रहे हैं।
योग्यता का समर्थन
राहुल ने मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बुरी तरह हारने के बाद नैतिकता की आधार पर और इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोडऩे वाले कांग्रेस सहित देश की किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के पहले अध्यक्ष बने थे। इससे पहले कभी किसी राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार का ज़िम्मा लेते हुए इस्तीफा नहीं दिया था। ज़ाहिर है इससे राहुल गाँधी की छवि एक नैतिक राजनेता की बनी है। अब एक साल के बाद राहुल गाँधी फिर सक्रिय हुए हैं। फरवरी के बाद उन्होंने लगातार सरकार की नीतियों पर सवाल उठाये हैं। कांग्रेस में ऐसे बहुत-से नेता हैं, जो यह मानते हैं कि पार्टी में राहुल ही ऐसे नेता हैं, जो भाजपा या मोदी सरकार का मुद्दों पर आधारित विरोध करने का माद्दा रखते हैं। पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष सुष्मिता देव कहती हैं कि पीएम नरेंद्र मोदी की नीतियों पर सवाल उठा सकने वाले सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, पूरे विपक्ष के पास भी राहुल गाँधी ही सबसे मज़बूत चेहरा हैं। सुष्मिता कहती हैं कि गाँधी ने हमेशा जनता से जुड़े मुद्दे उठाये हैं और वे हमेशा जनता की बातें करने वाले इकलौते राजनेता हैं। हिमाचल विधानसभा में कांग्रेस दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री कहते हैं कि जब राहुल गाँधी मोदी सरकार की नोटबन्दी और जीएसटी के खिलाफ मज़बूती से आवाज़ उठा रहे थे, तो भाजपा के नेता इसे राजनीति बताते थे। लेकिन बाद में प्रमाणित हो गया कि राहुल सही कहते थे। अग्निहोत्री कहते हैं कि ऐसा ही कोरोना से निपटने और लॉकडाउन के मामले में भी हुआ है, जिसने करोड़ों लोगों को मुसीबत और भुखमरी में फँसा दिया गया है। सिर्फ राहुल गाँधी हैं, जिन्होंने इसके खिलाफ मज़बूत आवाज़ उठायी है।
आँकड़ों से ऊपर शहादत
हंदवाड़ा मुठभेड़, जिसमें हमने अपने पाँच बहादुर जाँबाज़ों- कर्नल आशुतोष शर्मा, मेजर अनुज सूद, नाइक राजेश, लांस नायक दिनेश और उप-निरीक्षक सगीर पठान को खो दिया; 2019 के पुलवामा हमले के बाद सबसे घातक आतंकी घटनाओं में से एक थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने आगे राष्ट्र के इन सच्चे सपूतों को श्रद्धांजलि दी। अपनों को खो देने की गहन पीड़ा के बावजूद शहीदों के परिवारों ने असाधारण साहस का परिचय दिया। दु:खी परिजनों की सोशल मीडिया पर हज़ारों बार हृदय विदारक तस्वीरें शेयर हुईं, जिन पर गहन भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ भी आयीं, जिन्हें शब्दों में बयान करना मुश्किल है। ये परिवार अपने प्रियजनों के सर्वोच्च बलिदान पर शान्त और गौरवान्वित दिखायी दिये। वास्तव में ये परिवार इस धैर्य और समर्पण के लिए एक कृतज्ञ राष्ट्र से सलाम के हकदार हैं। लेकिन अफसोस होता है कि अन्त में हम सैनिकों के इस सर्वोच्च बलिदान को महज़ आँकड़ों तक सीमित करके चुप हो जाते हैं। हंदवाड़ा के ठीक दो दिन बाद जम्मू-कश्मीर में एक और दु:खद घटना हुई, जब कुपवाड़ा ज़िले में आतंकवादी हमले में सीआरपीएफ के तीन जवान शहीद हो गये।
जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएँ बढ़ रही हैं। लगातार हो रही आतंकवादी गतिविधियाँ इस बात की भी पुष्टि करती हैं कि पूर्ण राज्य से जम्मू-कश्मीर को यूटी के दर्जे में बदलने से वहाँ अशान्ति कम नहीं हो सकी है, और न पाकिस्तान से संचालित आतंकी घटनाओं पर कोई लगाम ही कसी जा सकी है। पहले जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा छीनना वास्तव में भारत का आंतरिक मामला था। मुठभेड़ों और हताहतों की बढ़ती संख्या यह दर्शाती है कि कोरोना वायरस के इस संकटकाल में भी पाकिस्तान के आतंकी कारखाने अपने नापाक मंसूबों के साथ चल रहे हैं। क्या पाकिस्तान कोरोना वायरस प्रकोप का फायदा उठाने की फिराक में है? और भारतीय सैनिकों को मार रहा है। वह भी तब, जब पूरा देश तालाबन्दी के ज़रिये जान बचाने की जुगत में लगा है। भारत के लिए पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा प्रहार करने का समय आ गया है। हंदवाड़ा मुठभेड़ के कुछ दिन बाद ही सुरक्षा बलों ने बदला लेते हुए पुलवामा ज़िले में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर रियाज़ नाइकू को मार गिराया। नाइकू आठ साल से फरार चल रहा था और उसके सिर पर 12 लाख रुपये का इनाम था। इसलिए निश्चित रूप से कश्मीर में उग्रवाद के लिए उसकी मौत आतंकी मुहिम के लिए बड़ा झटका होगी।
हालाँकि एक बिन्दु पर हम सभी को विचार करने की ज़रूरत है। वह यह है कि जब पाकिस्तान में आतंकवादियों और उनके आकाओं ने भारत विरोधी अभियानों को तेज़ किया है; तब देश में व्हाट्सएप, फेसबुक, टाइमलाइन पोस्ट, ट्वीटर, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म वास्तविक नायकों (हीरो) को सलाम करने की जगह फिल्मी नायकों- इरफान खान और ऋषि कपूर से सम्बन्धित संदेशों से भरे पड़े थे। कुछ मीडिया हाउस भी इसी गलत सोच के शिकार हैं, जो हमारे देशवासियों की भटकी प्राथमिकताओं को उजागर करते हैं। फिल्मी नायकों की प्रशंसा करना बुरा नहीं, लेकिन असली नायक (सैनिक) हमारी सलामी के बड़े हकदार हैं। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें यह समझना होगा कि हम डेढ़ महीने से ज़्यादा के अभी तक के लॉकडाउनकाल में एक भी नयी फिल्म देखे बगैर जीये हैं। लेकिन यदि अग्रिम पंक्ति के ये योद्धा सरहदों पर न हों, तो हम एक दिन भी नहीं जी पाएँगे।
मौत की गैस
बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि 36 साल पहले भोपाल गैस लीक हादसे से मौतों का जो सिलसिला 2-3 दिसंबर, 1984 को शुरू हुआ था; उस ज़हरीली गैस के असर से प्रभावित लोग बरसों बाद तक मरते रहे। जो प्रभावित हुए उनकी एक समय के बाद कोई खोज-खबर नहीं ली गयी। हज़ारों को नाम मात्र का मुआवज़ा मिला और फिर इस बड़ी त्रासदी की फाइलें, सरकारी अलमारियों में हमेशा के लिए दफ्न कर दी गयीं।
और अब इतने साल बाद इसी 6 मई को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम की एक फैक्ट्री में गैस लीक की घटना हो गयी, जिसमें उक्त रिपोर्ट लिखे जाने तक कम-से-कम 13 लोगों की जान जा चुकी थी और दर्ज़नों गम्भीर रूप से बीमार होकर अस्पतालों में ज़िन्दगी की जंग लड़ रहे हैं। भोपाल हादसे के बाद इन 36 वर्षों में गैस लीक के छ: बड़े हादसों में 490 लोगों की जान जा चुकी है, जबकि भोपाल त्रासदी में जान गँवाने वाले करीब 16,000 से ज़्यादा लोग अलग से हैं।
भोपाल गैस त्रासदी से लेकर अब तक देश में कई घटनाएँ हो गयीं, लेकिन इनसे बचने का कोई ठोस रास्ता नहीं निकाला गया। नियमों की बराबर धज्जियाँ उड़ती हैं और घटना के कुछ दिन बाद सब कुछ भूलकर फिर एक नये हादसे की नींव तैयार होने लगती है। फैक्ट्री मालिकों और मुनाफाखोरों की नज़र में अगर आम इंसानों की ज़िन्दगी की कीमत होती, तो ऐसा नहीं होता। फैक्ट्रियों के मालिक पैसे के ज़ोर पर सब कुछ सँभाल लेते हैं और बेचारे अनेक पीडि़त न्याय का इंतज़ार करते-करते दुनिया से ही कूच कर जाते हैं।
लापरवाही और घटना
आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम के आरआर वेंकटपुरम गाँव के साथ लगते क्षेत्र में स्थित बहुराष्ट्रीय कम्पनी एलजी पॉलीमर प्रा. लि. की यूनिट में स्टाइरीन गैस के रिसाव की घटना भी लापरवाही और नियमों को ताक पर रखने का एक बड़ा उदहारण है। यह हैरानी की बात है कि घटना के बाद इसे एक अधिकारी ने इसे मामूली तकनीकी लीक बताया। हालाँकि सच यह है कि 9 मई तक एक दर्ज़न से ज़्यादा लोगों की जान जा चुकी थी और करीब 80 लोग वेंटिलेटर पर ज़िन्दगी की जंग लड़ रहे थे; जबकि करीब 1000 लोग इससे प्रभावित हुए थे।
घटना उसी दिन लडक़े हुई, जब लॉकडाउन के कारण करीब 40 दिन बन्द रहने के बाद इसे दोबारा शुरू किया गया। कुछ लोगों के मुताबिक, कम्पनी ने नियमों की धज्जियाँ उड़ायीं, जो पहले भी उड़ायी जाती रही हैं। यह यूनिट 14 साल के लम्बे अंतराल तक बिना केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की मंज़ूरी के चलती रही। किसी ने नहीं पूछा, कोई सवाल नहीं किया। जबकि नियमों के मुताबिक यह मंज़ूरी लेनी ज़रूरी थी।
इस दौरान एलजी पॉलिमर की यह यूनिट सिर्फ आंध्र प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मंज़ूरी के आधार पर ही काम करती रही। साल 2004 से 2018 तक काम नियमों को ताक पर रखने के बावजूद किसी सरकार ने इसे लेकर कोई जाँच नहीं की। और तो और पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) की अधिसूचना 1994 और 2006 को भी ताक पर रख दिया गया, जिसमें साफ निर्देश हैं कि वर्तमान परियोजनाओं के विस्तार या उनमें आधुनिक तकनीक जोडऩे के लिए पर्यावरणीय मंज़ूरी आवश्यक है।
इस तरह की स्थिति में मंत्रालय पहले परियोजना के इतिहास का मूल्यांकन करता है। नियमों के मुताबिक, यदि कोई औद्योगिक इकाई ईआईए अधिसूचना से पहले स्थापित किया गया हो, तो उसे आधुनिकीकरण के विस्तार की योजना के लिए नये सिरे से मंज़ूरी लेनी ज़रूरी होती है।
इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी की यूनिट में गैस लीक का मामला संयुक्त राष्ट्र तक पहुँच गया। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस के प्रवक्ता स्टीफन दुजारिक ने रोजाना मीडिया ब्रीफिंग में कहा कि भारत के आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में एक रसायन संयंत्र में गैस लीक होने की घटना की अच्छी तरह जाँच होनी चाहिए। हम हादसे में जान गँवाने वालों के प्रति शोक जताते हैं और प्रभावित लोगों के जल्द स्वस्थ होने की कामना करते हैं। इस तरह की घटनाओं की स्थानीय अधिकारियों को अच्छी तरह जाँच करनी चाहिए।
इस घटना पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने लोगों की मौत और उनके बीमार होने पर आंध्र प्रदेश सरकार और केंद्र को नोटिस जारी किया है। आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव से इलाज और बचाव कार्य की विस्तृत रिपोर्ट माँगी है। इसके साथ ही आंध्र के पुलिस महानिदेशक को भी एक नोटिस जारी किया है। इसमें उनसे चार सप्ताह के इस बात की जानकारी देने को कहा गया है कि इस मामले में कितनी एफआईआर दर्ज हुईं और जाँच की स्थिति क्या है?
घटना के दिन ही मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी किंग जॉर्ज अस्पताल पहुँचे और वहाँ भर्ती पीडि़तों से मुलाकात की। सीएम ने कहा कि हादसे के कारण जान गँवाने वालों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये का मुआवज़ा दिया जाएगा। इसके साथ ही पीडि़तों को 10-10 लाख रुपये और अस्पताल से छुट्टी मिलने वाले मरीज़ों को एक-एक लाख रुपये की सहायता राशि दी जाएगी। पाँच सदस्यीय कमेटी पूरे मामले की जाँच करेगी।
जब तडक़े यह घटना हुई लोग गहरी निद्रा में थे। कई लोग गैस लीक होने से दम घुटने के कारण नींद में ही मर गये। गैस लीक होने के बाद सुबह तक इलाके में हृदय-विदारक दृश्य था। गैस के असर से अद्र्ध-बेहोशी में लोग सडक़ों पर पड़े तड़प रहे थे। चारों तरफ एम्बुलेंस के सायरन का शोर सुनाई दे रहा था। तब तक दहशत का माहौल बन चुका था। लोगों को लगने लगा कि भोपाल जैसा कुछ हो गया और बड़ी औद्योगिक त्रासदी हो गयी है।
यह घटना इतनी व्यापक थी कि इस गैस रिसाव से आसपास के पाँच गाँव प्रभावित हो गये और उन्हें खाली करवाकर वहाँ के लोगों को सुरक्षित इलाकों को ले जाना पड़ा। करीब 7,500 लोगों को घरों से सुरक्षित जगह ले जाया गया। जिन 13 लोगों की इस हादसे में जान गयी, उनमें दो बच्चे भी शामिल हैं।
गैस रिसाब के वक्त लोग गहरी नींद में थे और गैस लीक होने का शोर मचते ही वहाँ भगदड़ मच गयी। लोग भागने लगे। उन्हें साँस लेने में तकलीफ हो रही थी। कई लोग बेहोश होकर गिर पड़े। एक व्यक्ति कुएँ में छलाँग लगते हुए जान गँवा बैठा, जबकि एक अन्य घर की बालकनी से गिर गया। गलियों और अस्पतालों में लोग बदहवास नज़र आये। सभी लोग साँस लेने में तकलीफ और आँखों में जलन की शिकायत कर रहे थे।
अधिकारियों के मुताबिक, लॉकडाउन के कारण बन्द हुई यह रासायनिक इकाई 7 मई की सुबह ही दोबारा शुरू की गयी थी और उसके तुरन्त बाद वहाँ टैंकों से गैस लीक होने लगी। कम-से-कम तीन किलोमीटर इलाके में यह गैस फैल गयी।
सक्रिय हुआ पीएमओ
घटना की भयावहता इससे समझी जा सकती है कि चंद घंटे के भीतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में आपात बैठक बुलायी। गैस रिसाव के बाद पैदा हुए हालात का जायज़ा लेने के लिए पीएम ने राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (एनडीएमए) की बैठक तलब की। इसमें विचार विमर्श किया गया साथ ही समुचित निर्देश जारी किये गये।
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट कर घटना पर अफसोस जताया और कहा कि दिल्ली (केंद्र सरकार) लगातार अपनी नज़र घटना पर बनाये हुए है। उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी से बात की और उन्हें हर तरह की मदद और समर्थन देने का भरोसा दिया। गृह मंत्री अमित शाह ने भी घटना को परेशान करने वाला बताया और कहा कि केंद्र सरकार स्थिति पर निगाह रखे हुए है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिव से बात कर राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) की टीमों को पीडि़तों को ज़रूरी मदद मुहैया कराने के निर्देश दिये।
ताक पर नियम
तहकीकात से ज़ाहिर होता है कि एलजी पॉलिमर की इस यूनिट ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पास नियमों के उल्लंघन कैटेगरी (विशेष कैटेगिरी) के तहत एन्वायरनमेंटल क्लीयरेंस (ईसी) के लिए आवेदन किया था। यह केटेगिरी पहली नहीं होती थी और इसे 2017 में ही ईसी नियमों में जोड़ा गया है। इसके तहत मंत्रालय उन इकाइयों को एक बार की माफी (वन टाइम एमनेस्टी) देता है, जो विभिन्न क्षेत्रों की परियोजनाओं को शुरू करते हुए पर्यावरण मंज़ूरी नहीं लेतीं। सूत्रों के मुताबिक, पर्यावरण मंत्रालय को एलजी पॉलिमर का यह आवेदन मार्च में मिला था।
देश में 1994 और 2006 में एनवायरेनमेंट इंपेक्ट एसेसमेंट (ईआईए) अधिसूचना जारी की गयी। इस अधिसूचना के मुताबिक, कोई कारखाना लगाने से पहले उसके आसपास के इलाकों की आबादी (लोगों) और पर्यावरण पर असर की समीक्षा होनी ज़रूरी थी। जनता से भी इसे लेकर राय ली जानी होती है। लेकिन कानून लागू करने में सरकारों ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। अब पर्यावरण मंत्रालय ईआईए अधिसूचना 2020 लाने की तैयारी कर रहा है। इसके तहत बगैर पूर्व एसेसमेंट के कारखाना खोला जा सकता है और बाद में ज़ुर्माना भरकर लाइसेंस हासिल किया जा सकता है।
जाने-माने पर्यावरणविद् नित्यानंद जयारमन के मुताबिक, विशाखापत्तनम घटना में बड़े पैमाने पर स्टायीरन की ज़हरीली गैस से फैक्ट्री के बाहर दुनिया में पहली बार इतना बड़ा हादसा हुआ है। जयारमन के मुताबिक, इंसान की जान तभी जा सकती है, जब बहुत अधिक मात्रा में यह गैस हवा में घुल जाए। स्टायरीन से फैक्ट्री से बाहर आज तक कभी किसी के मरने का एक भी उदाहरण नहीं है। ज़ाहिर है स्टायीरन नाम की गैस फैक्ट्री से बहुत बड़े पैमाने पर लीक हुई। फैक्ट्री के अन्दर नहीं, बाहर लोगों की मौत हुई। जयारमन कहते हैं कि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।
पर्यावरण कार्यकर्ता केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ईआईए अधिसूचना, 2020 के संशोधित मसौदे में परियोजनाओं के लिए पोस्ट-फैक्टो की मंज़ूरी पर ज़ोर देने का ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं। मंत्रालय के ऐसा करने के पीछे एक बड़ा कारण सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के फैसलों में इसे लेकर तस्वीर साफ नहीं की गयी है।
हादसे में 13 लोगों की मौत और 1000 से ज़्यादा के बीमार होने से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 50 करोड़ रुपये की अंतरिम राशि जमा करने का निर्देश कम्पनी को दिया है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) की न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली एकल बेंच ने इस हादसे की जाँच के लिए जस्टिस बी शेषासन रेड्डी की एक पाँच सदस्यीय समिति गठित की है। इस समिति को 18 मई तक एक रिपोर्ट एनजीटी के समक्ष पेश करनी है। इस रिपोर्ट के काफी कुछ सामने आने की उम्मीद है।
आंध्र प्रदेश सरकार ने भी एलजी पॉलीमर से गैस रिसाव की घटना को लेकर पाँच सदस्यीय दल के गठन किया है। कुछ क्षेत्रों में यह आरोप लगाये गये हैं की जगनमोहन रेड्डी सरकार कम्पनी के प्रति नरमी से पेश आ रही है।
आंध्र प्रदेश के उद्योग मंत्री गौतम रेड्डी ने घटना के बाद कहा कि राज्य सरकार सुरक्षा में कोई चूक नहीं चाहती, इसलिए फैक्ट्री से रिसने वाली स्टाइरीन गैस को निष्प्रभावी करने के लिए 500 किलो रसायन हवाई मार्ग से मँगवाया गया। हालाँकि मंत्री ने कहा कि रिसाव को एक घंटे के भीतर बन्द कर लिया गया था, लेकिन कम्पनी से स्पष्टीकरण माँगा जाएगा कि आिखर चूक कहाँ हुई? वैसे यहाँ यह भी दिलचस्प है कि रेड्डी ने पहले कहा था कि राज्य सरकार गैस के प्रभाव को बेअसर करने के लिए 500 टन रसायन मँगवा रही है। बाद में इसे 500 किलो कर दिया गया।
गैस का असर
भोपाल गैस लीक घटना का एक बड़ा सच यह है कि आज भी करीब 12 हज़ार मीट्रिक टन कचरा तत्कालीन यूनियन कार्बाइड के कारखाने के विशाल परिसर में दबा हुआ है। यही नहीं यूनियन कार्बाइड के ज़हरीले कचरे से इसके आस-पास का भूजल मानक सामान्य स्तर से 562 गुना प्रदूषित हो गया। इन वर्षों में बरसात के समय पानी के साथ यह खतरनाक कचरा एक दर्ज़न से ज़्यादा बस्तियों की 48 हज़ार से ज़्यादा की आबादी के भूजल को ज़हरीला बना चुका है। सीएसई के एक शोध के मुताबिक, कारखाने के परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक ज़हरीले रसायन पाये गये। रासायनिक गैस की चपेट में आने वाले लोगों ही नहीं उनकी पीढिय़ों में आज भी इसके प्रभाव के लक्ष्ण देखे जाते हैं। कई लोग हादसे के बाद कैंसर या अन्य बीमारियों के मौत के शिकार हुए। जो हादसे में बच गये, उनके बच्चे और आगे की पीढिय़ों में रसायनिक गैस के लक्ष्ण और प्रभाव यह हुए हैं कि वे आज भी विकलांगता, फेफड़े और त्वचा सम्बन्धी रोगों का सामना कर रहे हैं।
ऐसे में यह सवाल उभरते हैं कि जो लोग विशाखापत्तनम गैस रिसाव में प्रभावित हुए हैं, भले उनकी जान बच गयी हो, क्या नपर भोपाल जैसा ही असर होने का खतरा है? यह भी एक सवाल है कि क्या इन लोगों की अगली पीढ़ी पर भी इसका असर वैसा ही पडऩे का खतरा है, जैसा भोपाल वाले मामले में हुआ?
कौन है एलजी पॉलीमर कम्पनी
एलजी पॉलीमर कम्पनी की विशाखापत्तनम यूनिट का स्वामित्व दक्षिण कोरिया की बैटरी निर्माता कम्पनी एलजी केमिकल लिमिटेड के पास है। कम्पनी यहाँ पॉलीस्टाइरीन का उत्पादन करती है। कम्पनी इलेक्ट्रिक फैन ब्लेड, कप और कटलरी और मेकअप जैसे कॉस्मेटिक उत्पादों के लिए कंटेनर बनाने का काम करती है। प्लांट इन उत्पादों के लिए स्टाइरीन के कच्चे माल का उपयोग करता है। स्टाइरीन अत्यधिक ज्वलनशील होता है और जलने पर एक ज़हरीली गैस छोड़ता है।
कम्पनी की स्थापना 1961 में पॉलीस्टाइरीन और को-पॉलिमर्स का निर्माण करने के लिए हिंदुस्तान पॉलीमर्स के तौर पर हुई थी। साल 1978 में इसका यूबी समूह के मैक डॉवेल एंड कम्पनी लिमिटेड के साथ विलय हो गया था। 1997 में कम्पनी को एलजी केमिकल ने अपने कब्ज़े में ले लिया और इसका नाम बदलकर एलजी पॉलिमर इंडिया प्रा. लि. कर दिया गया। दरअसल एलजी केमिकल की दक्षिण कोरिया में स्टाइरेनिक्स के कारोबार में बहुत मज़बूत उपस्थिति है। कम्पनी वर्तमान में भारत में पॉलीस्टाइरीन और विस्तार योग्य पॉलीस्टाइरीन के अग्रणी निर्माताओं में से एक है।
जानवरों की भी मौत
विशाखापत्तनम गैस रिसाव में सिर्फ इंसानों की ही जान नहीं गयी। इसमें बड़ी संख्या में पशुओं की भी मौत हुई है। तहलका की जानकारी के मुताबिक, 100 से ज़्यादा पशु गैस के प्रभाव से मौत का शिकार हो गये।
गैस रिसाव से उनके मुँह से झाग निकलने लगी और वे तड़पने लगे। जल्दी ही इनमें से कई की जान चली गयी। जानवरों की मौत को लेकर फिलहाल कोई सरकारी आँकड़ा नहीं आया है और 100 से ज़्यादा पशुओं की मौत हुई हो सकती है।
रायगढ़ में भी गैस लीक कांड
विशाखापत्तनम में जिस दिन गैस रिसाव की घटना हुई, उसी दिन खबर आयी कि छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में भी ऐसी ही घटना हुई है। बहुत दिलचस्प बात है कि छत्तीसगढ़ में गैस रिसाव की घटना विशाखापत्तनम से एक दिन पहली ही हो गयी थी, लेकिन फैक्ट्री मालिकों ने घटना को छिपा लिया।
इस घटना में सात मज़दूूर बीमार हो गये, जिन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। मिल मालिक ने घटना छिपाने की कोशिश की लेकिन अगले दिन (6 मई) पुलिस को किसी ने इसकी जानकारी दे दी। घटना रायगढ़ के तेतला गाँव की है जहाँ एक पेपर मिल में ज़हरीली गैस लीक होने से सात मज़दूूरों की तबीयत बिगड़ गयी। इनमें तीन की हालत गम्भीर होने के कारण उन्हें रायपुर रैफर करना पड़ा, जहाँ यह रिपोर्ट फाइल होने तक वे इलाज करवा रहे थे।
मिल के मालिक ने इस हादसे को छिपाने की कोशिश की। जानकारी मिलने पर डीएम, एसएसपी और दूसरे अधिकारियों ने मिल में जाकर जायज़ा लिया और सूचना तो सही पाया। वे अस्पताल गये, जहाँ मज़दूूर भर्ती थे। इसके बाद मिल मालिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गयी। रायगढ़ के पुसौर ब्लॉक में शक्ति पेपर मिल में यह हादसा हुआ। मिल दो महीने से बन्द पड़ी थी, लेकिन लॉक डाउन में ढील के बाद इसका टैंक साफ करने के दौरान गैस का रिसाव हो गया। कई लोग ज़हरीली गैस की चपेट में आ गये। रायगढ़ के एसपी संतोष कुमार सिंह के मुताबिक, घटना की सूचना पेपर मिल संचालक ने दी ही नहीं। उन्होंने कहा था कि जाँच के बाद आवश्यक कार्रवाई की जाएगी, यह गम्भीर मामला है।
घटना की जाँच के आदेश दिये गये हैं। जाँच रिपोर्ट आने के बाद ज़िम्मेदारी तय कर आगे की कार्रवाई की जाएगी। लोगों की मौत पर सरकार चिन्तित है और उनके परिजनों को पूरा मुआवज़ा दिया जाएगा। जो घायल हुए हैं, उनका इलाज किया जा रहा है और आॢथक मदद के लिए राशि जारी की गयी है। जाँच में किसी प्रकार की कोई कोताही नहीं बरती जाएगी।
जगनमोहन रेड्डी
सीएम, आंध्र प्रदेश
विशेषज्ञ समिति करे जाँच : नायडू
एलजी पॉलीमर से गैस रिसाव की घटना को लेकर आंध्र प्रदेश सरकार के पाँच सदस्यीय जाँच दल के गठन के बाद तेलगू देशम् पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी से इस मामले में पड़ताल के लिए वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का आग्रह किया। नायडू के मुताबिक, इससे मुआवज़ा देने में भी मदद मिलेगी। तेदेपा अध्यक्ष नायडू ने मोदी को एक पत्र लिखा, जिसमें प्लास्टिक उत्पाद वाली इस फैक्ट्री से स्टाइरीन गैस के मामले की जाँच पर ज़ोर दिया। उन्होंने केंद्र सरकार के त्वरित कदमों की प्रशंसा भी की। नायडू ने अपने पात्र में सुझाव दिया कि विषैली गैस के रिसाव की परिस्थितियों की जाँच के लिए वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ समिति बनाएँ। उन्होंने कहा कि घटना के स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभाव को समझने के लिए विस्तृत जाँच ज़रूरी है। नायडू के कहा कि विशाखापत्तनम और उसके आसपास हवा की गुणवत्ता पर गहराई से नज़र रखनी होगी, ताकि मौजूदा और भविष्य में सम्भावित प्रभावों को समझा जा सके। उन्होंने स्वास्थ्य सम्बन्धी आकलन करने और इस दिशा में कदम उठाने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की मदद लेने का सुझाव दिया।
फैक्ट्रियों के बड़े हादसे
चासनाला खान दुर्घटना झारखंड के धनबाद में 27 दिसंबर, 1975 को घटी। गैस भरने से कोयले की खदान में एक भयंकर धमाका हो गया, जिसके बाद उसमें पानी भर गया। करीब 390 मज़दूूरों की इस घटना में जान चली गयी। कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन/शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत काला पत्थर फिल्म इसी घटना से प्रभावित थी।
भारत में भोपाल गैस त्रासदी को सबसे बड़ी घटना माना जाता है। मध्य प्रदेश के भोपाल में 2-3 दिसंबर, 1984 को यह हादसा हुआ। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड कम्पनी से मिथाइल आईसोसाइनेट गैस और साथ में कुछ अन्य केमिकल का रिसाव हुआ। हादसे से जुड़े मामले में आज तक करीब 16,000 लोगों की जान जा चुकी है। यही नहीं, कोई 38,000 लोग गैस के असर से स्थायी रूप से प्रभावित हुए।
छत्तीसगढ़ के कोरबा में 23 सितंबर, 2009 को चिमनी हादसा हुआ। निर्माण के समय चिमनी अचानक करीब 100 मज़दूूरों पर गिर गयी। इस घटना में 45 लोगों की मौत हो गयी, जबकि कई घायल हुए; जिनमें कुछ स्थायी रूप से अपाहिज हो गये।
राजस्थान के जयपुर ऑयल डिपो में आग हादसा 29 अक्टूबर, 2009 को हुआ। इंडियन ऑयल के डिपो में हुए इस हादसे में 12 लोगों की जान चली गयी और 300 से ज़्यादा लोग घायल हुए। इस घटना में करीब 8,000 किलोलीटर पेट्रोल वाला टैंक फट गया था।
उत्तर प्रदेश में ऊँचाहार एनटीपीसी प्लांट हादसा 01 नवंबर, 2017 को हुआ। इसमें एनटीपीसी के प्लांट में गैस लीक हुई और एनटीपीसी के प्लांट में बॉयलर में धमाका हो गया। इस हादसे में 40 लोगों की जान चली गयी। इसमें करीब 125 लोग घायल हुए।
अदालतों पर कोरोना का पहरा
कोरोना वायरस के कहर के चलते कानूनी प्रक्रिया इस कदर शिथिल हुई है कि कानून का पालन करने वाले और कानूनी दाँवपेच में फँसे लोगों का बुरा हाल है। कहने को ऑनलाइन सिस्टम से अदालतें पूरी तरह से सुसज्जित हैं, लेकिन अभी तामाम खामियों के कारण कुछ अदालतों में ऑनलाइन कार्यवाही पूरी तरह से अंजाम तक नहीं पहुँच रही है। अक्सर सिस्टम हैंग होने की वजह से और गवाही-हाज़िरी के अभाव के कारण ऑनलाइन दिखावे के तौर पर ही साबित हो रहा है। वहीं इस समय अदालतों में बहुत ज़रूरी मामलों पर ही सुनवाई हो रही है, वो भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये। देश भर में लॉकडाउन के चलते सोशल डिस्टेंसिग को लेकर काफी सख्ती बरती जा रही है। इससे वकीलों को अदालतों में आने में काफी दिक्कत हो रही है। इतना ही नहीं, कोरोना के डर के कारण जमानत देने वाले अब अदालतों में आने से कतरा रहे हैं, जिससे अनेक लोगों की जमानतें रुकी हुई हैं। अनेक वकील भी कई बार अदालत नहीं पहुँच पाते हैं। तहलका संवाददाता ने सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और कडक़डड़ूमा कोर्ट सहित अन्य ज़िला अदालतों के वकीलों से और उन लोगों से बात की, जिनको अदालत से जमानत मिलनी थी।
कडक़डड़ूमा कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता पीयूष जैन ने बताया कि कोरोना वायरस जैसी महामारी के चलते अदालतों का काम बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। ऐसे में लोगों को न्याय मिलने में देरी हो रही है। वकीलों को फीस न मिलने से उनकी आॢथक स्थिति भी बिगड़ती जा रही है। पीयूष जैन का कहना है कि वकीलों में एक तबका ऐसा भी है, जिसकी माली हालत काफी खराब है। ऐसे वकीलों को प्रैक्टिस न होने कारण और भी तंगी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे हालात में दिल्ली बार काउंसिल ने पाँच-पाँच हज़ार रुपये की सहायता भी उन वकीलों को दी है, जो आॢथक तंगी के शिकार है। इनमें कुछ वकीलों ने खुद को आॢथक कमज़ोर बताते हुए मदद के लिए आवेदन दिया था। उन्होंने बताया कि इस दिल्ली में करीब एक लाख वकील हैं। दिल्ली हाई कोर्ट व सीबीआई के वरिष्ठ अधिवक्ता मृदुल जैन ने बताया कि इस समय देश में कोरोना के कारण जो विशेष परिस्थिति बनी है, उसमें किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। अदालतें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रही हैं। अदालतों में हर तरह के लोग आते हैं। ऐसे में कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए विशेष सावधानी बरती जा रही है। हाई कोर्ट में जो भी बहुत ज़रूरी मामले हैं, उनकी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये सुनवाई की जा रही है। सुनवाई का वीडियो लिंक भी मुहैया करायी जा रही है। अधिवक्ता मृदुल का कहना है कि हाई कोर्ट ने एक हेल्पलाइन नम्बर जारी किया है और कोर्ट मास्टर एप पर फोन पर सुनवाई की सविधाएँ दी जा रही हैं। हाई कोर्ट में वैसे ही काफी मामले लम्बित थे, अब कोरोना वायरस के डर से अदालतें बन्द होने से मुकदमों का बोझ और बढ़ गया है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता सत्यमित्र गर्ग ने बताया कि कभी सोचा तक न था कि अदालतों को महीनों बन्द करना पड़ सकता है। पर क्या करें? यह महामारी का कहर ही ऐसा है। सुप्रीम कोर्ट में लगभग 5,000 वकील प्रैक्टिस करते हैं। इस समय कोर्ट में आपराधिक मामलों पर ही सुनवाई हो रही है। वह भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये। वकीलों के चैम्बर बन्द हैं। अधिवक्ता गर्ग का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने माँग की है कि जो वकील दिल्ली-एनसीआर में रहते हैं, उनको कोर्ट में आने-जाने की सुविधाएँ दी जाएँ। क्योंकि अधिकतर वकीलों की फाइलें कोर्ट में बने उनके चैम्बरों में ही रखी हैं, जिससे वकीलों को केस स्टडी करने में दिक्कत हो रही है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में पूरे देश के हाई प्रोफाइल कैसों की सुनवाई होती है। ऐसे में वकीलों को अपने मुवक्किलों को फोन पर जानकारी देने में काफी असुविधा हो रही है। अगर इस बार भी कोर्ट में हर साल की तरह गॢमयों में अवकाश रहा, तो जो मुकदमे चल रहे हैं, उन पर फैसला आने में काफी समय लग सकता है।
हाई कोर्ट और कडक़डड़ूमा कोर्ट में लूटपाट, धोखाधड़ी, हत्या, बलात्कार और दहेज प्रताडऩा के जिन लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं, उनका कहना है कि कई साल से वे अदालतों के चक्कर लगा-लगाकर परेशान हैं और अब फैसले का समय आने वाला था, तो कोरोना वायरस के कहर के कारण फैसला नहीं हो पा रहा है। दहेज प्रताडऩा का मुकदमा लड़ रहे सुनील शर्मा ने बताया कि 2009 में लडक़ी पक्ष की ओर से उन पर फर्ज़ी मुकदमा दर्ज कराया गया था, तबसे अब तक वह इस मुकदमे के फँसे हुए हैं। 4 अप्रैल को फैसला होना था, जो कि लॉकडाउन के चलते लटक गया है। विदित हो कि अदालतों में वैसे ही हज़ारों मुकदमे तारीख पर तारीख मिलने के कारण लम्बित रहते हैं। अब लम्बे समय सुनवाई न होने के कारण और एक नयी तारीख मिलेगी और फैसलों में देरी होगी।
चिकनकारी और ज़रदोजी के लाखों कारीगर बेरोज़गार
कोविड-19 महामारी के चलते देश भर में लॉकडाउन से परम्परागत चिकनकारी और ज़रदोजी के काम को गम्भीर तरीके से प्रभावित करते हुए ढाई लाख से अधिक कारीगरों को बेरोज़गार कर दिया है। आॢथक संकट के चलते उनकी ज़िन्दगी का गुज़ारा बेहद मुश्किल हो गया है।
व्यावसायिक गतिविधियों और बाज़ारों के बन्द होने के खिंचते जाने उनका संकट और दु:ख बढ़ते ही जा रहे हैं। दरअसल, लॉकडाउन अवधि का यह समय ऐसे कामगारों के लिए पीक सीजन माना जाता है, जिससे वे अच्छी-खासी आमदनी कर लिया करते थे। एक अनुमान के मुताबिक, इस गर्मी में करीब 2,500 करोड़ का इस उद्योग को नुकसान होगा। यूपी की राजधानी लखनऊ की चिकनकारी पारम्परिक कढ़ाई शैली है। यह लखनऊ के सबसे प्रसिद्ध प्राचीन शिल्प में से एक है, जबकि ज़रदोजी सुन्दर धातु की कढ़ाई है, जो कभी भारत में राजाओं और राजघरानों की पोशाकों को सुशोभित करती थी।
ज़रदोजी कढ़ाई के काम में सोने और चाँदी के धागों का इस्तेमाल करते हुए विस्तृत डिजाइन बनाना शामिल है। चिकनकारी एक सुई और कई प्रकार के धागों का उपयोग करके की जाने वाली पारम्परिक कढ़ाई है, जबकि ज़री-ज़रदोजी का काम सुनहरे और चमकदार सेक्विन और अन्य सजावटी सामग्री के साथ किया जाता है। चिकनकारी और ज़री-ज़रदोजी का काम जी.आई. लखनऊ की कढ़ाई पूरी दुनिया में मशहूर है। चिकनकारी एक बेहद नाज़ुक और जटिल तरीके की कढ़ाई है। शुरुआत में कढ़ाई को सफेद यार्न का उपयोग करके किया जाता था, जिसे रंगहीन मलमल पर तंज़ेब के रूप में जाना जाता है। लखनऊ के चिकनकारी काम में इस्तेमाल किये जाने वाले टाँके मूल रूप से तीन श्रेणियों के होते हैं, अर्थात् फ्लैट टाँके (कपड़े के करीब रहने वाले सूक्ष्म टाँके), उभरे हुए टाँके (ये एक दानेदार उपस्थिति देते हैं) और जाली वर्क (थ्रेड टेंशन द्वारा निॢमत, यह एक नाज़ुक जाल बना देता है)।
हालाँकि, फैशन डिजाइन और बढ़ते बाज़ार में नये प्रयोगों ने जॉर्जेट, शिफॉन, सूती और कई अन्य बेहतरीन कपड़ों पर इस अनूठी कलाकृति का निर्माण किया। मुख्य रूप से कपड़े सजाने के लिए उपयोग किए जाने वाले एक अलंकरण से भारत का चिकनकारी की कढ़ाई का काम अब कुशन कवर, तिकया कवर, टेबल कवर और लिनेन तक में विस्तार पा गया है। चिकनकारी के विश्व प्रसिद्ध कपड़े कढ़ाई हस्तशिल्प और लखनऊ ज़रदोजी हैं, जिनके ब्रांड को जीआई से मान्यता मिली है।
लखनऊ में काम करने वाले इन कारीगरों का कहना है कि वे विदेशी डिजाइनरों के लिए बॉलीवुड अभिनेत्रियों के लिए चिकनकारी और ज़रदोजी के कपड़े बनाते हैं। उन्होंने ग्लैमरस सरिस, दुपट्टे, लहँगा और सूट डिजाइन किये, जो कि दुनिया भर में मशहूर हस्तियों के लिए हैं। लेकिन जब से कोविड-19 महामारी ने दुनिया को जकड़ लिया है, तबसे विदेश से ऑर्डर आने बन्द हो गये हैं। कुछ भी पैसे का लेनदेन नहीं हो रहा है। ऐसे में उनकी जीविका और अन्य घरेलू खर्चों को चलाना असम्भव होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश कई हस्तशिल्प समूहों का घर रहा है, जिसने दशकों तक अपने हुनर को दर्शाया है। मुख्यत: लखनऊ और इससे सटे छ: ज़िलों-बाराबंकी, उन्नाव, सीतापुर, रायबरेली, हरदोई और अमेठी में प्रतिष्ठित कलाकृतियाँ बनायी जाती रही हैं, जिन्हें किसी ज़माने में नवाबों के शासित अवध क्षेत्र के रूप में जाना जाता था।चिकनकारी और ज़रदोजी हस्तशिल्प का ऐसा ही एक क्लस्टर लखनऊ और इसके आसपास के 7 ज़िले हैं। इन ज़िलों में करीब 2,50,000 कारीगर काम करते हैं और लगभग 10,00,000 लोग सीधे आपूर्ति व अन्य तरीके से इससे जुड़े हुए हैं। इसके अलावा 10,000 से अधिक सूक्ष्म और लघु उद्यम के इस क्षेत्र में ज़रदोजी उत्पादों जैसे परिधान, होम फर्निशिंग, जूते, बैग आदि के निर्माण में लगे हुए हैं। ये उत्पाद देशभर में बेचे जाने के साथ-साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में निर्यात भी किये जाते हैं। लखनऊ में चिकनकरी और ज़रदोजी का काम फिलहाल पूरी तरह से ठप है।
कलात्मक हस्तशिल्प के मालिक एम.एन. लारी ने तहलका को बताया कि हस्तशिल्प उद्योग को लगभग 2500 करोड़ रुपये का अब तक भारी भरकम नुकसान हुआ है। आगे कहना मुश्किल है कि हालात कब सामान्य होंगे और वापस बाज़ार खुल पाएँगे? पिछले साल इस उद्योग ने करीब 200 करोड़ रुपये के उत्पादों का निर्यात किया। हम इस साल बेहतर करने की उम्मीद कर रहे थे। माल की आवाजाही अचानक रुक जाने से ऑनलाइन कारोबार भी ध्वस्त हो गया। मार्च से अप्रैल के बीच इस उत्पाद का पीक सीजन होता है, जिसमें गर्मियों में पहनने वाले कपड़ों की खूब माँग होती है। लेकिन सब कुछ बन्द होने से इस उद्योग को 2,500 करोड़ या उससे अधिक नुकसान हुआ है। लारी ने बताया कि सबसे ज़्यादा पीडि़त गरीब कारीगर हैं, जिनकी तादाद करीब 2.5 लाख है और उद्योग से अप्रत्यक्ष रूप से 10 लाख लोगों को रोज़गार मिलता है। वे माल की आपूर्ति और अन्य कार्यों से जुड़े होते हैं और इस कार्य का अहम हिस्सा होते हैं। उद्योग से जुड़े लोगों में टेलर, वॉशर मैन, क्लॉथ कटर और डिलीवरी बॉय के अलावा शोरूम में काम करने वाले कर्मचारी शामिल हैं। हालाँकि इस कुटीर और ग्राम उद्योग को मुख्यमंत्री द्वारा ‘एक ज़िला-एक उत्पाद’ की महत्वाकांक्षी योजना में जगह मिली, लेकिन अभी तक इस पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र में विकास की विशेष पहल नहीं देखी गयी है। जो कारीगर बेरोज़गार हो गये हैं, वे महज़ एक दिन में 150-250 रुपये की अल्प दैनिक राशि पर जीवन का गुज़ारा कर रहे थे। अकुशल और असंगठित होने की वजह से इनके शोषण की कोई आवाज़ भी नहीं उठा पाता, जिससे ये लोग तय न्यूनतम मज़दूरी से भी कम में काम करते हैं। इन कारीगरों का कहना है कि उनकी कार्यशालाएँ, जो उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत हैं; लॉकडाउन के चलते बन्द हैं। वे व्यापारियों से कर्ज़ लेकर उनके जाल में बुरी तरह फँस गये हैं। क्योंकि उन्हें ब्याज की अत्यधिक दरें चुकानी पड़ती हैं। पैसा उधार लेने के चलते उनका पूरा जीवन एक तरह से बँधुआ मज़दूर की तरह हो जाता है, जिससे मालिक उनको शोषण करते हैं। वे उन्हें डिजाइन के साथ कपड़ा और सामग्री भी देते हैं और अपने हुनर को बखूबी अंजाम देते हैं। वर्तमान में व्यापारी गहरे आॢथक संकट की चपेट में हैं, क्योंकि वे अपने थोक ऑर्डर को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में खासकर लखनऊ के ज़रदोजी और चिकनकारी कपड़ों की भारी माँग देश भर के विभिन्न हिस्सों में होती है।
बहुराष्ट्रीय फैशन ब्रांड और विदेशों में भी इसकी खास डिजाइन व सादगी लोगों को आकर्षित करती है। लखनऊ आने वाले पर्यटक स्मारक स्थलों को देखने के अलावा यहाँ के बाज़ार में ज़रदोजी और चिकनकारी के पारम्परिक काम में गहरी दिलचस्पी के साथ स्थानीय बाज़ारों का दौरा करके खरीदारी करते हैं। चिकन और ज़रदोजी सहित लगभग 100 बड़े उद्यमी और 4-5000 छोटे और मध्यम उद्यमी 80-90 फीसदी तक विदेशी पर्यटकों या निर्यात के कारोबार से जुड़े हैं। अवध (लखनऊ) की मशहूर ज़रदोजी और चिकनकारी का काम लॉकडाउन में पूरी तरह से ठहर गया है। कारीगरों से लेकर व्यापारियों तक हर कोई आॢथक संकट से जूझ रहा है। दैनिक वेतन भोगी कारीगरों ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मुफ्त राशन के अलावा भवन निर्माण श्रमिकों और अन्य मज़दूरों की तरह वित्तीय सहायता देने की माँग की है।
व्यापारियों को उम्मीद है कि कोरोना वायरस के कारण चल रहे संकट से उबरने में एक या दो साल का समय लग सकता है। अधिकांश व्यापारियों की शिकायत है कि माल और सेवा कर (जीएसटी) और कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन ने अपना व्यवसाय लगभग समाप्त कर दिया है। निर्माता व्यवसाय के अनिश्चित भविष्य के बारे में चिंतित हैं। एयरपोर्ट से लेकर पुराने शहर की तंग गलियों तक लगभग सभी बड़े और छोटे शोरूम लखनऊ की चमक को फीका कर दिया है। चिकन कपड़ा व्यापारी अजय खन्ना कहते हैं कि हम देश के आॢथक विकास की गिरती प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए गहरे अवसाद की ओर बढ़ रहे हैं। खन्ना ने कहा कि यह संकट 5-6 महीने के लिए जारी रहेगा। खरीदारी के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों सहित न तो ग्राहक आएँगे और न ही हम निर्यात के ऑर्डर की उम्मीद करेंगे। यहाँ तक कि अन्य राज्यों के बड़े व्यापारियों ने बाज़ार की अस्थिर स्थिति के कारण निर्माताओं का पैसा रोक लिया है। खन्ना ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन और उतार-चढ़ाव के कारण हमें निर्यात में भी नुकसान हुआ।
लखनऊ चौक बाज़ार के एक अन्य व्यवसायी सुनील खन्ना ने कहा कि लगभग 90 फीसदी चिकनकारी का काम लखनऊ व आसपास के विभिन्न ज़िलों व गाँवों में रहने वाली महिलाओं द्वारा किया जाता है। नये श्रमिकों को 150 रुपये मिलते हैं और अनुभवी कारीगरों को पारिश्रमिक के रूप में अधिकतम 300 रुपये रोज़ाना मिलते हैं। बाज़ार में बेहद उतार-चढ़ाव के कारण कारीगरों को मज़दूरी के भुगतान में देरी हुई है, जो हमारे नियंत्रण से बाहर हो चुकी है।
चिकन कला आउटलेट के चिकन निर्माता मुकेश रस्तोगी बेहद निराश हैं। वह कहते हैं कि अब अपने व्यवसाय में गिरावट को रिकवर करने में एक या दो साल लग सकते हैं।
सन् 2000 से ज़रदोजी शिल्प पेशे में लगे कारीगर आसिफ अली मुज़फ्फर कहते हैं कि लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में ज़रदोजी कारीगरों की संख्या में हो सकती है, लेकिन उनमें से ज़्यादातर बाज़ार में तालाबन्दी और मंदी के कारण आॢथक संकट का सामना कर रहे हैं। हालाँकि वस्त्र मंत्रालय (हस्तशिल्प) ने प्रचार योजनाओं के लाभ के लिए 15000 से अधिक कारीगरों को पंजीकृत किया था, लेकिन उनमें से किसी को ऐसे संकट के दौरान भी वित्तीय सहायता नहीं मिली।
मुज़फ्फर कहते हैं कि राज्य सरकार लगभग 35 लाख दैनिक मज़दूरों और ई-रिक्शा चालकों को वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है और ज़रदोजी कारीगरों के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। संकट के समय में कामगारों में भेदभाव किया गया? सरकार कम-से-कम उन मान्यता प्राप्त कारीगरों की आॢथक रूप से मदद कर सकती है, जो केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय के साथ मिलकर काम करते हैं। मुज़फ्फर ने तहलका को बताया कि उन्होंने इस बाबत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कई पत्र भी लिखे।
कारीगरों के कठिन संघर्ष के बारे में एक और सहकर्मी परवेज़ ने अपनी सामान्य चिन्ताओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी हमें अपना काम फिर से शुरू करने के लिए बड़ी आॢथक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। अब पुराने तैयार माल के स्टॉक ने इस उत्पादन के लिए भारी मात्रा में अवैतनिक मज़दूरी के साथ क्लस्टर कार्यशालाओं में ढेर जमा कर दिया है। जब तक चिकन निर्माताओं से हमारे पहले के वेतन बकाया का भुगतान हो जाता, तब तक हमारे लिए कोई भी नया काम शुरू करना बेहद मुश्किल होगा। यह अचानक लॉकडाउन की घोषणा के चलते ऐसा हुआ, जिससे हज़ारों ज़रदोजी कारीगर अपना वेतन पाने से वंचित रह गये हैं।
अंजुमन ज़र्दोजन (ज़रदोजी कारीगरों का संगठन) ने ज़ोर देकर कहा कि सरकार ने अपने पेशे में बहुत कुशल होने के बावजूद संकटकालीन अन्य मज़दूरों की तुलना में कारीगरों की दुर्दशा की अनदेखी की है। संगठन के सचिव, जियो आगा उर्फ नूर ने तहलका को बताया कि ज़रदोजी व्यवसाय पहले ही जीएसटी का खामियाजा भुगत रहा था। अब अप्रत्याशित लॉकडाउन ने हमारी कमर ही तोड़ दी है। केंद्र और राज्य सरकारों ने हमारी मदद नहीं की, तो ज़रदोजी की कला जीवित नहीं रह पायेगी और हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती है। इस कुटीर उद्योग की प्रकृति के बारे में जियो आगा बताते हैं कि ज़रदोजी का काम छोटे कमरों में किया जाता है, न कि बड़े कारखानों या कार्यशालाओं में। इसलिए इसकी ग्लैमरस चमक शोरूम में देखी जाती है, लेकिन कोई भी वास्तव में कारीगरों की बुनी कलाकृति को नहीं देखता है। जबसे तालाबन्दी शुरू हुई, मास्टर कारीगरों ने प्रति सप्ताह 2,400 से 2,500 रुपये तमाम परेशानियों के बीच कमाये। उन्होंने कहा कि राजधानी लखनऊ में ऐसी हज़ारों कार्यशालाएँ बन्द हैं और लाखों कारीगर बेरोज़गार हो गये हैं।
कपड़ा मंत्रालय में पंजीकृत चिकन कारीगर, समर फातिमा ने कहा कि फिलहाल मैं अपने घर का खर्चा उधारी खाता से चला रही हूँ। क्योंकि लॉकडाउन के कारण निर्माता को तैयार माल नहीं भेज सकी और मेरे पारिश्रमिक का भुगतान भी नहीं हो सका। यह समय (मार्च से मई) हमारे लिए सबसे व्यस्त हुआ करता था, जब हमें पानी पीने की फुरसत तक नहीं होती थी। लेकिन अब लॉकडाउन के कारण आमदनी तकरीबन बन्द हो गयी है। रेशमा ने भी ऐसी ही कहानी बयाँ की। वह घर पर ही चिकनकारी का काम करती हैं। रेशमा ने बताया कि अब काम की कोई कमी नहीं थी और पैसे भी समय पर मिल रहे थे। लेकिन लॉकडाउन के बाद से काम और आमदनी बन्द हो गयी है। यहाँ तक कि बकाया राशि की वसूली भी नहीं हो सकी है। मैं 10-12 साल के तजुर्बे के साथ एक बेहतरीन कारीगर हूँ। तालाबन्दी के दौरान हमारी बचत में कमी आयी और आगे कोई काम नहीं हुआ, तो वह भी बन्द हो गयी। ऐसा आफत वाला समय मैंने पहले कभी नहीं देखा। मैं एक नहीं, बल्कि तीन निर्माताओं के साथ काम करती हूँ। इससे पहले अगर एक जगह पर कोई काम नहीं होता था, तो दूसरी जगह से मिल जाता था, जिससे गुज़ारा हो जाता था। लेकिन इस बार उम्मीद टूटती-सी नज़र आ रही है कि मैं कैसे अपने तीन बच्चों को पाल सकूँगी। चिकनकरी और ज़रदोजी के काम की चमचमाती दुनिया के पीछे इस अँधेरे पक्ष से बहुत-से लोग पूरी तरह अनजान हैं, जहाँ इन कारीगरों के सुगमता और सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए उचित न्यूनतम मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई विधायी खाका तक नहीं है। इन कारीगरों के दिल से सच्चाई का खौफ खत्म हो गया है, जिन्होंने व्यापार के बड़े खिलाडिय़ों के हाथों वस्तुत: अपने जीवन और आज़ादी को गिरवी रखा है, जो पर्याप्त मज़दूरी का भुगतान भी नहीं करते और उनके श्रम का शोषण करते हैं। कपड़ा मंत्रालय के पास पंजीकृत कारीगरों का एक डाटाबेस है, लेकिन उसने भी आॢथक और सामाजिक सुरक्षा के साथ उन्हें सम्मानजनक जीवन प्रदान करने वाले विधायी ढाँँचे को लागू करने के लिए कुछ नहीं किया।
बच्चों पर मँडराते संकट के बादल
कोविड-19 वैश्विक महामारी के प्रकोप के समय दुनिया के बच्चों की ओर ध्यान दिलाना मानवीय दायित्व है। लॉकडाउन के इस दौर में अधिकांश जानकारियाँ कोविड-19 वायरस के संक्रमण को रोकने, इससे संक्रमित लोगों के आँकड़े, मरने वालों की संख्या, स्वास्थ्यकॢमयों पर होने वाले हमलों, पीपीई किट की कमी, रेपिड टेस्ट किट की गुणवत्ता पर सवाल, ज़रूरी सामान की कमी, मज़दूरों की समस्याएँ, सभी गरीब व प्रवासी लोगों को भोजन के पैकेट नहीं मिलने वाली खबरें, कहीं पुलिस पर तो कहीं स्वास्थ्यकॢमयों पर फूल बरसाने वाली खबरें सामने आ रही हैं और चर्चा भी इन्हीं पर फोकस रहती हैं। लेकिन कोविड-19 के प्रभावों वाली चर्चा में बच्चे किस कदर प्रभावित हो रहे हैं और इस महामारी का बच्चों पर क्या दूरगामी असर होगा? यह बिन्दु नदारद है। महामारियों का इतिहास गवाह है कि बच्चों की ज़िन्दगी बुरी तरह से प्रभावित होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी मुल्कों के सभी आयुवर्ग के बच्चे प्रभावित होंगे, यह बात गौर करने लायक है कि सबसे गरीब मुल्कों और अन्य मुल्कों के सबसे गरीब घरों के बच्चों पर यह महामारी भयंकर असर छोड़ेगी।
यह वैश्विक संकट ज़रूर है, लेकिन चिन्ता की बात यह है कि इसके असर सब पर एक समान नहीं होने वाले; असमानता यहाँ भी अपना असर दिखायेगी। गरीब बच्चों की संख्या बढ़ जाएगी। स्ट्रीट चिल्ड्रन की हालत और खराब होगी। भारत में ही इस समय करीब 20 लाख स्ट्रीट चिल्ड्रन हैं। इस समय उनके हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। दुनिया भर के संवेदनशील तबकों के बच्चों की ज़िन्दगी अब पहले की तरह नहीं रहेगी। दुनिया के कई हिस्सों में उनकी ज़िन्दगी में जो थोड़ी प्रगति हुई थी, अब उसकी रफ्तार बहुत ही धीमी होने या रुक जाने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
गरीब बच्चों पर ज़्यादा संकट
कोविड-19 महामारी बच्चों को किस कदर प्रभावित कर सकती है, इसके मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र की पॉलिसी ‘ब्रीफ : द इम्पेक्ट ऑफ कोविड-19 ऑन चिल्ड्रन’ में अनुमान व्यक्त किया गया है कि इस महामारी के कारण इस साल अत्यधिक गरीबी की श्रेणी में 4 करोड़ 20 लाख से 6 करोड़ 60 लाख बच्चे आ सकते हैं। यह संख्या उन बच्चों से अतिरिक्त होगी, जो कि 2019 में पहले से ही इस श्रेणी में हैं।
कोविड-19 की रोकथाम के लिए उठाये गये लॉकडाउन व शारीरिक दूरी जैसे कदम दुनिया भर में उठाये गये हैं, लेकिन इससे देशों की अर्थ-व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। अकेले अमेरिका में ही अब तक दो करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये हैं। एक करोड़ लोगों ने बेरोज़गारी भत्ते के लिए आवेदन किया है। दुनिया भर में घरेलू स्तर पर रोज़गार प्रभावित हुआ है; भारत भी इससे बचा नहीं है। भारत के उद्योग जगत की लॉकडाउन के चलते आॢथक सेहत को समझने के लिए फिक्की के सेक्रेटरी जनरल दिलीप चिनॉय कहते हैं- ‘सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हम लॉकडाउन से रोज़ाना 40 हज़ार करोड़ का नुकसान उठा रहे हैं, बल्कि 4 करोड़ लोगों के रोज़गार को लेकर भी खतरा हैं।’
ऑनलाइन पढ़ाई कहाँ तक सफल
इस समय विश्व के करीब 188 मुल्कों ने अपने-अपने यहाँ स्कूल बन्द किये हुए हैं और इससे अंदाज़न एक अरब 50 करोड़ बच्चे व युवा प्रभावित हो रहे हैं। यद्यपि बहुत-से मुल्क शिक्षण संस्थानों के बन्द होने के प्रभाव को कम करने के मकसद से डिस्टेंस लॄनग यानी दूरस्थ शिक्षा का विकल्प अपना रहे हैं। बच्चों और किशोरों को ऑनलाइन पढ़ाये जाने की व्यवस्था की गयी है। भारत भी ऐसे मुल्कों की सूची में शमिल है, जहाँ सरकारी तथा गैर-सरकारी स्कूल अपने विद्याॢथयों को ऑनलाइन पढ़ा रहे हैं। ऐसे हालात में पहली से 12वीं तक के कोर्स को छोटा करने की तैयारियों पर काम शुरू हो गया है, ताकि चार-पाँच महीनों में वह कोर्स बच्चों को कराया जा सके। मौज़ूदा समय में ई-लॄनग के ज़रिये सरकार करीब 25 करोड़ बच्चों को अलग-अलग माध्यमों से घर बैठे पढ़ाये जाने की कोशिश में जुटी हुई है। पर इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। दुनिया में निम्न आय वाले मुल्कों में से केवल 30 फीसदी मुल्क ही यह सेवा अपने बच्चों को मुहैया करा पा रहे हैं। भारत में ऑनलाइन पढ़ाया जाने की सुविधा तक सभी बच्चों की पहुँच एक समान नहीं है। डिजिटल डिवाइड क्लास, लिंग, क्षेत्र, रहने की जगह आदि में साफ अन्तर झलकता है। सबसे गरीब घरों के 20 फीसदी घरों में से महज़ 2.7 फीसदी की ही कम्प्यूटर तक पहुँच है और 8.9 फीसदी है।
मुल्क के राज्यों में भी कम्प्यूटर तक पहुँच का प्रतिशत अलग-अलग है। बिहार में महज़ 4.6 फीसदी घरों की कम्प्यूटर तक पहुँच है; जबकि दिल्ली में यह आँकड़ा 35 फीसदी है। इसी तरह राज्यों में इंटरनेट तक पहुँच वाला मसला भी गम्भीर है। मिसाल के तौर पर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, केरल, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड में 40 फीसदी से अधिक घरों की इंटरनेट तक पहुँच है। जबकि आंध्र प्रदेश, ओडिशा, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में यह आँकड़ा 20 फीसदी से कम है। बीते दिनों एक गैर-सरकारी संगठन ने दिल्ली उच्च अदालत में दायर एक जनहित याचिका के ज़रिये ईडब्ल्यूएस और वंचित समूह के उन बच्चों का मुद्दा उठाया था, जो कि कोविड-19 संकट के चलते निजी स्कूलों द्वारा संचालित ऑनलाइन कक्षाओं से बाहर है। क्योंकि उन गरीब, साधनहीन बच्चों के पास लेपटॉप, स्मार्ट फोन, टैब और इंटरनेट की व्यवस्था नहीं है। बेशक दिल्ली सरकार ने अदालत में दावा किया कि निजी स्कूलों में पढऩे वाले ऐसे सभी बच्चों के पास वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है और ऐसे 80 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों की ऑनलाइन कक्षाओं में शमिल हो रहे हैं। सरकार का पक्ष सुनने के बाद उच्च अदालत पूरी तरह से संतुष्ट नडऱ नहीं आयी और टिप्पणी की कि सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि संसाधनों के अभाव में किसी भी बच्चे की पढ़ायी का नुकसान न हो। इस बात का ज़िक्र करना भी महत्त्वपूर्ण है कि लड़कियों की डिजिटल तकनीक पर लडक़ों की अपेक्षा कम पहुँच होती है। ऐसे में उनकी ऑनलाइन पढ़ाई तक पहुँच उसमें उसमें भागीदारी सीमित हो सकती है। इंटरनेट तक लड़कियों की पहुँच लडक़ों की तुलना में कम है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया रिपोर्ट के अनुसार; 2019 में 67 फीसदी पुरुषों की पहुँच इंटरनेट तक थी, जबकि 33 फीसदी महिलाओं की ही पहुँच इंटरनेट तक थी।
छात्राओं का भविष्य
स्कूल बन्द होने से छात्राओं के फिर से स्कूल जाने के अवसर भी प्रभावित होते हैं, उनका ड्रापआउट रेट बढ़ सकता है। उनकी किशोरावस्था में गर्भधारण करने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। बाल विवाह की चपेट में आने का खतरा भी पहले से अधिक गहराने लगता है। अफ्रीकी मुल्क सिएरा लियोन 2014 में इबोला वायरस प्रकोप की चपेट में आया। इस मुल्क के इबोला प्रभवित एक ज़िले में सर्वे से पता चला कि वहाँ इस प्रकोप से पहले अति कुपोषित बच्चों की संख्या 1.5 फीसदी थी, जो कि प्रकोप के बाद 3.5 फीसदी हो गयी। सिएरा लियोन के ही उन गाँवों में जहाँ इबोला प्रकोप अधिक था, वहाँ किशोरावस्था में गर्भधारण करने वाली घटनाएँ उन गाँवों की तुलना में 11 फीसदी अधिक पायी गयीं, जहाँ इबोला का प्रकोप कम था। ये सभी किशोरियाँ अविवाहित थीं। सिएरा लियोन के ही पड़ोसी मुल्क लाइबेरिया में भी इबोला वायरस का संक्रमण फैल गया और इस प्रकोप के चलते लाइबेरिया में करीब 70,000 शिशुओं का पंजीकरण नहीं हो पाया। जनवरी-मई 2015 यानी इन पाँच महीनों में सरकार के रिकॉर्ड में महज़ 700 बच्चों के पैदा होने का रिकॉर्ड ही दर्ज है।
दूसरी बीमारियाँ और आँगनबाड़ी
गौरतलब है कि अभी तक कोविड-19 के बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव बहुत ही कम हैं। मगर यह महामारी बच्चों के स्वास्थ्य व उनके जीवित रहने की सम्भावनाओं पर अपना असर दिखायेगी। कोविड-19 से पहले 2020 में जितने बच्चों के मरने का अनुमान व्यक्त किया गया था, अब उस संख्या में कोविड-19 के कारण कई हज़ार और बच्चों के मरने की अशंका व्यक्त की जा रही है। विश्वभर में बाल टीकाकरण अभियान की गति पर भी असर देखने को मिलेगा। पोलियो, जो कि भारत के पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान व अफगानिस्तान में अभी भी बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है, वहाँ इसके खात्मे वाला अभियान भी प्रभावित हो सकता है। 23 मुल्कों में खसरा टीकाकरण अभियान को स्थगित कर दिया गया है। भारत में इस महामारी के दौर में करीब 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्र भी बन्द कर दिये गये हैं। और हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश भर में खुले इन केंद्रों से लाभान्वित होने वाले 6 साल से कम आयु के बच्चों की संख्या करीब 8.2 करोड़ और 1.9 करोड़ गर्भवती व स्तनपान कराने वाली माँएँ भी लाभ उठाती हैं।
मौज़ूदा हालात मे महिला व बाल विकास मंत्रालय ने आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाभार्थियों के घर जाकर राशन वितरित करने के आदेश तो जारी कर दिये हैं, मगर इस टेक होम राशन वाली व्यवस्था के क्रियान्वयन में काफी दिक्कतें भी आ रही हैं। राजधानी दिल्ली के दल्लूपुरा में रहने वाली एक महिला से जब मैंने पूछा कि क्या आँगनबाड़ी कार्यकर्ता उसके घर आकर उसकी चार साल की बच्ची, जो कि वहाँ के आँगनबाड़ी केंद्र्र में पंजीकृत है; उसके हिस्से का राशन देने आती है? जवाब न में मिला। यही निराशाभरी आवाज़ उसके साथ खड़ी अन्य औरतों की भी सुनायी पड़ी। दरअसल सरकार व मनोवैज्ञानिक सभी जानते हैं कि कोविड-19 के चलते मानव जगत के समक्ष जो स्वास्थ्य, आॢथक, सामाजिक, पारिवारिक व मनोवैज्ञानिक दिक्कतें खड़ी हो गयी हैं, उनका बच्चों व गर्भवती और युवा माँओं पर अलग ही असर देखने को मिल सकता है। भारत के तेलगांना सूबे की आँगनबाड़ी कार्यकर्ता सरकार के निर्देशानुसार गर्भवती महिलाओं को होम विजिट के दौरान कोविड-19 सम्बन्धी खबरें नहीं सुनने की सलाह दे रही हैं।
श्रीनगर के स्थानीय प्रशासन ने हाल ही में आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर गर्भवती महिलाओं का खास ध्यान रखने की एक योजना बनायी और उस पर अमल भी शुरू हो गया है। इसका मकसद कोविड-19 के मुश्किल हालात में गर्भवती माँ और उसके होने वाले बच्चे की सेहत के साथ-साथ उनकी ज़रूरतों को पूरा करना है। ऐसे वक्त में जब वहाँ बाज़ार बन्द हैं। डॉक्टरों और क्लीनिक या अस्पताल तक पहुँच आसान नहीं हैं और वहाँ अन्य कई तरह के प्रतिबन्ध भी लगे हुए हैं। इस राष्ट्रीय लॉकडाउन के बीच समेकित बाल विकास सेवा से सम्बद्ध आँगनबाड़ी कार्यकर्ता श्रीनगर में गर्भवती महिलाओं तक पहुँच रही हैं। कई गर्भवती महिलाएँ खुद भी केंद्र में आ रही हैं। यह कार्यकर्ता उन्हें दो पैकेट उपहार के तौर पर दे रही हैं। एक पैकेट होने वाले शिशु के लिए है, जिसमें एक नर्म बेबी कम्बल, डायपर, कपड़े, साबुन व अन्य कुछ ज़रूरी सामान होता है। दूसरा पैकेट गर्भवती माँ के लिए है, जिसमें गर्म पानी वाली बोतल, रात के समय पहनने वाली आरामदायक ड्रेस और चप्पल आदि होते हैं। कश्मीर के डिवीजनल कमिश्नर पी.के. पॉल ने ज़िला अथॉरिटी को सभी गर्भवती महिलाओं के शिशु जन्मने वाली योजना बनाने को कहा है, ताकि ऐसी महिलाओं की पहले ही कोविड-19 स्क्रीनिंग की जा सके। कोविड-19 के संकट के मद्देनज़र क्या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तय समय सीमा 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल कर पायेगा? यह सवाल मौज़ूदा वक्त में इसलिए भी अधिक प्रासगिंक व महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने का मोटा मतलब बच्चों के सर्वांगीण विकास से है। कोविड-19 ने दुनिया के अंतिम छोर में रहने वाले, प्रगति की रफ्तार में पीछे छूट गये बच्चों को और अधिक पीछे धकेल दिया है।











