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विषम-काल में पत्रकारिता

समाचार पत्र और पत्रिकाएँ इस कठिन दौर में भी जनता को नवीनतम घटनाओं और सूचनाओं से रू-ब-रू रखे हुए हैं। ‘तहलका’ राजनीतिक प्रचार और निहित स्वार्थ से इतर लोगों को स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता उपलब्ध करवा रही है। वह भी ऐसे समय में, जब कई मामलों में मीडिया ने कायरता दिखायी है और खुद को सच्चाई दबाने के एक माध्यम के रूप में बदल जाने दिया है। ऐसी खबरें थीं कि चीन ने महामारी के प्रकोप की जानकारी को दबाने की कोशिश की और एक वीडियो पत्रकार चेन िकऊशी, जो वुहान में चीन सरकार के प्रकोप से निपटने के बारे में रिपोर्ट करने वाले पहले पत्रकार थे; फरवरी के बाद से लापता हैं। यह एक तथ्य है कि कोविड-19 जैसे संकट के दौरान जब अधिकारी तथ्यों को छिपाने की कोशिश करते हैं, तो समाचार पत्र-पत्रिकाएँ ही सबसे प्रामाणिक और गहराई से जानकारी देने वाला वास्तविक स्रोत होते हैं।

कोरोना वायरस के संक्रमणकाल में जान के जोखिम के बावजूद पत्रकारों ने फील्ड में उतरकर हज़ारों ईमानदार और गरीब श्रमिकों, जो भारतीय अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ हैं; की असंख्य दु:ख झेलते हुए अपने काम के स्थानों से हज़ारों किलोमीटर दूर पैदल या साइकलों पर अपने छोटे बच्चों और महिलाओं के साथ घर जाने की कहानियों को उजागर किया है। इनमें से कइयों ने भूख, थकावट, हादसों या भीषण गर्मी के कारण अपनी ज़िन्दगी रास्ते में ही गँवा दी। नि:संदेह पत्रकार उस महीन रेखा को लाँघने का जोखिम उठाते हैं, जो पत्रकारिता को एक्टिविज्म से अलग करती है। न्यूज रूम ने महामारी की कवरेज को प्राथमिकता दी है। लेकिन मीडिया घरानों को परोसा जा रहा असत्यापित डाटा पत्रकारों के काम को और कठिन बना देता है। दरअसल, कोविड-19 महामारी ने प्रिंट मीडिया के लिए एक नयी चुनौती पेश की है, जो खुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

लॉकडाउन और कफ्र्यू से समाचार पत्र-पत्रिकाओं के वितरण में बाधा आयी है, जिससे ये पाठकों तक नहीं पहुँच रहे। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के जीडीपी के 10 फीसदी के बराबर के 20 लाख करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की, तो मीडिया के लिए भी राहत पैकेज में उनका हस्तक्षेप अपेक्षित था। इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी ने सरकार से अखबार उद्योग की मदद के लिए अन्य राहत उपायों के साथ एक मज़बूत प्रोत्साहन पैकेज जारी करने का आग्रह किया भी है। क्योंकि धन के अभाव में मीडिया संस्थान पत्रकारों को छुट्टी पर भेज रहे हैं। उनके वेतन में कटौती कर रहे हैं और कई संस्थान  तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। वास्तव में यह पत्रकारों के लिए दोहरी मार है। क्योंकि महामारी के दौरान असुविधाजनक रिपोर्टों को दबाने के लिए फर्ज़ी रिपोर्ट के नाम पर राजद्रोह कानून के तहत पत्रकारों की गिरफ्तारी के मामले बढ़े हैं। इसकी शुरुआत पंजाब के होशियारपुर के मॉडल टाउन में घर से पत्रकार भूपिंदर सिंह सज्जन की गिरफ्तारी से हुई; जो 12 अप्रैल को पटियाला में निहंगों की हिंसा को कथित तौर पर सही ठहराने की कोशिश कर रहे थे। इसके एक महीने बाद 12 मई को गुजरात में एक समाचार पोर्टल के संपादक धवल पटेल को आपदा प्रबन्धन अधिनियम की धारा-54 के तहत गिरफ्तार किया गया। पटेल ने एक लेख में लिखा था कि मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को महामारी से निपटने में नाकामी के चलते उनके पद से हटा देना चाहिए। अंडमान में एक रिपोर्टर की गिरफ्तारी के बाद कोयंबटूर में भी एक पत्रकार को गिरफ्तार किया गया। जबकि दिल्ली में एक रिपोर्टर को अधिकारियों ने तलब किया, जिसने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि तबलीगी जमात के मुखिया के भाषण की ऑडियो क्लिप में छेड़छाड़ की गयी थी। निश्चित ही पत्रकारों के लिए यह एक मुश्किल काल है।

‘अज़ान के लिए लाउडस्पीकर ज़रूरी नहीं’

तहलका ने मई, 2020 के पहले पखवाड़े में एक विश्लेषण प्रकाशित किया, जिसमें इस बात का ज़िक्र था कि क्या किसी भी धर्म के प्रचार के लिए ध्वनि यंत्र (लाउडस्पीकर आदि) की आवश्यकता है? और यदि कोई धाॢमक सम्प्रदाय इसका दावा करता है, तो क्या ऐसा कोई अधिकार संविधान के अनुच्छेद-25 में उसे हासिल है? विश्लेषण के तहत सभी कानूनी पहलुओं- ‘किसी भी धर्म को इसके प्रचार के लिए ध्वनि यंत्र की आवश्यकता है?’ में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय (इलाहाबाद हाई कोर्ट) की एक खण्डपीठ ने एक जनहित याचिका संख्या-570 पर फैसला दिया है।

दो अन्य लोगों के साथ गाज़ीपुर के सांसद अफज़ाल अंसारी ने यूपी सरकार के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें गाज़ीपुर में लोगों के धर्म के मौलिक अधिकार की रक्षा करने के लिए केवल सम्बन्धित ज़िले की मस्जिदों के मुअ•िज़न से पवित्र अज़ान का पाठ करने की माँग की गयी थी। क्योंकि इससे कोविड-19 के तहत जारी किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं होता। याचिका में न्यायालय से गुहार लगायी थी कि वह महामारी के दौरान ऐसा करने की इजाज़त देने के प्रशासन को निर्देश दे।

इसमें ज़ोरदार ढंग से यह निवेदन किया गया कि अज़ान का पाठ इस्लाम का अभिन्न अंग है  और यह किसी भी तरह से समाज की महामारी के प्रति सामूहिक प्रतिक्रिया को कम करके नहीं आँकता। रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान विश्व भर में पूरा मुस्लिम समुदाय सूर्योदय से सूर्यास्त तक रोज़ा (उपवास) रखता है। रोज़े की शुरुआत और समापन का समय अज़ान से ही चिह्नित होता है। यह भी निवेदन किया गया कि अज़ान की आवाज़ से व्रत खोलने की प्रथा पैगम्बर के समय से एक इस्लामिक परम्परा है और पिछले 1400 वर्षों से ऐसा ही किया जा रहा है। कोविड-19 प्रतिबन्धों के कारण अज़ान का उच्चारण एक सामूहिक प्रथा नहीं रही, बल्कि एक व्यक्ति (मुअ•िज़न) का सस्वर पाठ हो गया। लिहाज़ा यह लॉकडाउन के कारण लगे किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं करता।

यह निवेदन किया गया था कि गाज़ीपुर का ज़िला प्रशासन ध्वनि उपकरणों के माध्यम से अज़ान सुनाने से ज़िले की सभी मस्जिदों पर प्रतिबन्ध लगा रहा है, जो संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत प्रदान किये गये मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। अज़ान का पाठ करना एक धाॢमक समुदाय के कल्याण के लिए है। यह किसी भी तरह से सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य का विरोधाभासी नहीं है, जिसे प्रशासन  निषिद्ध या प्रतिबन्धित करे। जनहित याचिका में न्यायालय से सभी नागरिकों की पूजा के लिए आध्यात्मिक सुविधा और संवैधानिक अधिकार की पूर्ण भावना को संरक्षित करने का आह्वान किया गया था।

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जनसंख्या में वृद्धि के कारण अज़ान के लिए इस्लाम के सभी मानने वालों तक पहुँचना सम्भव नहीं था। इसलिए दिन में पाँच बार लाउडस्पीकर के माध्यम से अज़ान अनुच्छेद-25 के तहत मिले धाॢमक अधिकारों का हिस्सा है। लाउडस्पीकर के माध्यम से अज़ान को लेकर किसी भी तरह की रोक या पाबन्दी को असंवैधानिक घोषित करना होगा। शीर्ष अदालत और कलकत्ता हाई कोर्ट के मौलाना मुफ्ती सैयद मोहम्मद नूर-उर-रहमान बरकती और अन्य बनाम पश्चिम बंगाल सरकार और अन्य के मामले में विभिन्न निर्णयों के आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि अज़ान इस्लाम का ज़रूरी हिस्सा है; फिर भी माइक्रोफोन और लाउडस्पीकर का उपयोग अज़ान का एक अनिवार्य और अभिन्न हिस्सा नहीं है।

किसी भी व्यक्ति को दूसरों का अधिकार छीनने का अधिकार नहीं है। इस देश में अनुच्छेद-25 के प्रावधानों को छोडक़र कोई धाॢमक स्वतंत्रता नहीं है, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य और संविधान के अन्य प्रावधानों के अधीन है। संविधान के अनुच्छेद-19(1)(क) के तहत मिली धर्म की स्वतंत्रता दूसरों के अधिकारों के साथ जुड़ी है। अर्थात् धाॢमक स्वतंत्रता अनुच्छेद-19(1)(क) के तहत अन्य के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों को कम, हटा या निलम्बित नहीं कर सकती है।

अर्थ-व्यवस्था को संजीवनी

कोरोना वायरस जैसी महामारी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा के अगले ही दिन से सिलसिलेवार तरीके पाँच बार प्रेस कॉन्फ्रेस करके केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्पष्ट किया कि राहत पैकेज किस-किसके लिए है? उन्होंने जिस तरह से राहत पैकेज का ब्यौरा देशवासियों के साथ साझा करके देश की अर्थ-व्यवस्था को संजीवनी देने का प्रयास किया है, उसमें कोई शक नहीं कि मौज़ूदा दौर में लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था को बल मिलेगा। लेकिन आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर हम कितने आत्मनिर्भर बनकर उभरेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। इस 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग, प्रवासी मज़दूरों, रेहड़ी वालों छोटे किसानों के साथ जिस प्रकार से शहरी और ग्रामीण क्षेत्र को साधा गया है, उससे ये तो साफ हो गया है कि सरकार ग्रामीणों की उपेक्षा नहीं कर सकती है। कृषि क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसका किसानों को लाभ मिलेगा। हालाँकि सरकार ज़रूर ये दावा कर रही कि इतना भारी भरकम राहत पैकेज देश की अर्थ-व्यवस्था को ही नहीं, बल्कि जनमानस के बीच खुशहाली लाएगी। तहलका संवाददाता ने देश के व्यापारी, किसानों, आम लोगों के साथ-साथ राजनीतिक और आॢथक जानकारों से बात की तो उन्होंने बताया कि राहत पैकेज आँकड़ेबाज़ी में उलझा हुआ है, जिसकी हकीकत से दूर-दूर तक नाता नहीं है। क्योंकि यह दौर संकट से भरा है, जिसमें लोगों को तुरन्त राहत की ज़रूरत है। मगर यह राहत पैकेज शर्तों वाला है। कर्ज़ वाला है।

बताते चलें कि जीडीपी के करीब 10 फीसदी का यह पैकेज सही मायने में लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था को साधने में सफल होगा। हालाँकि 1.7 लाख करोड़ का पहले का राहत पैकेज और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा दी गयी राहत भी इस पैकेज में शामिल है।

इस राहत पैकेज में सबसे ज़्यादा राहत एमएसएमई या सूक्ष्म, लघु और मध्यम उधोग क्षेत्र को दी गयी है, जो सही मायने में आॢथक संकट से जूझ रहे हैं। सरकार ने एमएसएमई को आत्मनिर्भर बनाने पर बल दिया है, जो देश के करीब 11-12 करोड़ लोगों को रोज़गार मुहैया कराती है। सरकार ने इनको चार साल तक तीन लाख करोड़ का बिना गारंटी का कर्ज़, जिसमें साल भर तक मूलधन नहीं लौटाना है। सरकार ने उन पर भी विशेष गौर किया है, जो अपने कारोबार का विस्तार करना चाहते हैं, लेकिन धन के अभाव में गति नहीं दे पा रहे हैं। उनके लिए 50 हज़ार करोड़ रुपये की इक्विटी का ऐलान किया है। इसी तरह बिजली कम्पनी को भी 90 हज़ार करोड़ रुपये की नकदी का ऐलान किया है; जो इस समय आॢथक संकट से जूझ रही है।

देश में जब भी अर्थ-व्यवस्था डगमगायी है, तब देश के किसानों ने अपनी मेहनत से पैदा की फसल से अर्थ-व्यवस्था को बल दिया है। सरकार ने इसे समझा है और सीमांत और छोटे किसानों को नाबार्ड के तहत 30 हज़ार करोड़ का कर्ज़ देने का ऐलान किया है।

आॢथक मामलों के जानकार राजकुमार का कहना है कि आत्मनिर्भरता का नारा देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनौतियों के बीच उम्मीद को नयी रफ्तार देने का प्रयास किया है। उनका कहना है कि यह तो जगज़ाहिर है कि कोरोना वायरस नामक महामारी लम्बे समय तक मानव जीवन को भय के साथ सर्तक रहने को मजबूर करेगी। ऐसे हालात में सरकार पर निर्भर न होकर स्वरोज़गार पर निर्भर होना होगा। कृषि क्षेत्र में सरकार अगर सही मायने में किसानों की मदद करे, तो किसानों के बलबूते पर देश की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत बनाया जा सकता है। उनका कहना है कि महात्मा गाँधी कहा करते थे कि जब तक खेत हरे-भरे न होंगे, तब तक देश का बाज़ार हरा-भरा नहीं हो सकता है। इसलिए सरकार को शहरी के साथ-साथ ग्रामीणों की ज़रूरतों को समझना होगा और उनको पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने होंगे, तब जाकर देश का किसान और मज़दूर आत्मनिर्भर बन पायेगा। जैसे दैनिक पारिश्रमिक को 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये किया है। इससे देश के करोड़ों मज़दूरों को लाभ होगा।

किसान चंद्रपाल सिंह का कहना है कि कोरोना कहर के दौरान जो भी संकट आया है, उससे सरकार की समझ में किसानों की उपयोगिता तो समझ में आ गयी है। क्योंकि वित्तमंत्री ने कृषि के मूलभूत ढाँचे के लिए एक लाख करोड़ रुपये के आवंटन की घोषणा की है, जिसका इस्तेमाल भण्डारण क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाएगा। किसानों और तमाम फसलों के उत्पादन के लिए एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज का विभिन्न मदों में आवंटित किया जाना है। इससे तो यह बात किसानों को समझ में आ रही है कि सरकार दिखावा कुछ ज़्यादा कर रही है, पर सही मायने में किसानों की समस्याओं का समाधान इस पैकेज में कम ही दिख रहा है। क्योंकि किसानों को समझ में आ रहा है कि राहत पैकेज के नाम पर सरकार एक प्रकार से कर्ज़ दे रही है, जिससे किसान सदैव कर्ज़ तले दबा रहेगा।

सदर बाज़ार दिल्ली के व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि मौज़ूदा समय में देश में लगभग 9 करोड़ छोटे व्यापारी हैं, जो देश की अर्थ-व्यवस्था में सदैव योगदान देते रहे हैं। पर इस राहत पैकेज में सरकार ने इन छोटे व्यापारियों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया है। उनका कहना है कि लॉकडाउन के कारण 52 दिनों से कपड़ा, जूता-चप्पल, किराना, फल और हलवाई सहित तमाम व्यापारियों का कारोबार पूरी तरह से ठप है। इसके कारण व्यापारियों की खुद की अर्थ-व्यवस्था बिगड़ गयी है। सरकार को इन व्यापारियों के लिए विशेष राहत पैकेज देना चाहिए, ताकि ये व्यापारी अपना कारोबार सुचारू रूप से चला सकें। कई व्यापारी तो ऐसे भी हैं, जो अपना कारोबार बन्द करने की स्थिति में आ गये हैं। उनका कारोबार बन्द न हो इसके लिए सरकार को तुरन्त राहत पैकेज से व्यापारी के कारोबार के मुताबिक बिना ब्याज वाला कर्ज़ देना चाहिए।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल ने कहा कि 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज में स्वास्थ्य के लिए जो भी राहत देने की बात की जा रही है, वह घुमा-फिराकर की जा रही है। जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, विकासशील देश का स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 10 फीसदी होता है। पर भारत देश में जीडीपी का 1 फीसदी ही रहा है। लेकिन अब ऐसे में जब भारत में कोरोना वायरस का कहर दिन-ब-दिन विकराल रूप धारण करता जा रहा है, तो ऐसे में सरकार को अच्छा-खासा राहत पैकेज देना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हो सका। हालाँकि सरकार ने 15 हज़ार करोड़ रुपये से हर ब्लॉक में लैब और अस्पताल बनाने की बात कही है। डॉ. बंसल का मानना है कि हम ज़िला और ब्लॉक स्तर पर अस्पताल और लैब होने से ज़रूर कोरोना जैसी महामारी से लडऩे में सफल होंगे। लेकिन मौज़ूदा समय में कोरोना के कहर में राहत का यह पैकेज कितना कारगर होगा, यह तो आने वाला समय बताएगा। देश में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार देश की अर्थ-व्यव्स्था की मज़बूती की निशानी है। ऐसे में सरकार को निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य बढ़ावा देना चाहिए, ताकि बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया होने के साथ-साथ अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा मिल सके।

बताते चलें कि एक समान न्यूनतम वेतन, मुद्रा शिशु लोन, रेहड़ी-पटरी वालों को 10 हज़ार का शुरुआती ऋण, एक राहत कार्ड जिससे 67 करोड़ लोगों को लाभ होगा, प्रवासी कामगारों को मनरेगा में रोज़गार आदि पर सरकार ने अगर सही मायने में लोगों तक राहत पहुचाने में सफलता पा ली, तो निश्चित तौर पर किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। क्योंकि जिस अंदाज़ से वित्त मंत्री ने ये बातें कही हैं,प र उन पर सही मायने में अमल होना काफी मुश्किल है। क्योंकि लोन लेने की प्रक्रिया में बैंकों में जो दलाली-प्रथा हावी है, उसमें 10 हज़ार का लोन लेने वाला क्या लोन प्राप्त कर सकेगा? इस बारे में रेहड़ी-पटरी चलाने वाले ओमी गुप्ता ने बताया कि सरकार कह देती है कि लोन लेकर काम-काज शुरू करो, पर हमारे देश में लोन लेना, वो भी सरकारी बैंको से, इतना सरल नहीं है। बैंकों में लोन लेने के दौरान जो फार्म भरवाये जाते हैं और जमानती माँगे जाते हैं, वो काफी कठिन होता है। ऐसे में सरकार सीधे तौर पर कर्ज़ के तौर पर ही सही, पर अगर बैंक अकाउंट में ही पैसा देती, तो काफी राहत मिलती; अन्यथा यह राहत पैकेज सब यूँ ही है।

इंडियन फार्मा से जुड़े हरीश पाल वर्मा का कहना है कि सरकार का यह राहत पैकेज भारत को दुनिया की फार्मेसी बनाने की सपना पूरा करेगा और देशी उत्पाद अपनाने की माँग घरेलू दवा कम्पनियों के लिए काफी अहम व निर्णायक होगा। लोहा कारोबारी अनूप विमल ने बताया कि इस पैकेज से आॢथक गतिविधियों में तेज़ी आयेगी, जो लॉकडाउन के कारण बाज़ार में सुस्ती आयी है, अब फिर से बाज़ार में रौनक आयेगी और निर्माण कार्य को सहारा मिलेगा।

कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी का कहना है कि राहत पैकेज लोन मेले के अलावा कुछ भी नहीं है। आपदा के इस समय में गरीब-मज़दूरों को नकदी की ज़रूरत है। उन्हें लोन बाँटने का प्रपंच किया जा रहा है। मनीष तिवारी का कहना है कि आज का पैकेज देखने से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि मोदी सरकार ने आपदा-विपदा के समय प्रवासी मज़दूरों को दूध से मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया है। उन्होंने कहा कि वित्तमंत्री ने कहा कि भारत देश में 8 करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं। जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार सही आँकडा 11 करोड़ है। अगर ऐसे में सरकार ने 10 लाख प्रवासी मज़दूरों को घर पहुँचाया है, तो आँकड़ों के हिसाब से 7.90 करोड़ के बारे में क्या है? मनीष तिवारी का कहना है कि सरकार सत्ता के नशे में प्रवासी मज़दूरों की अनदेखी कर रही है। शर्म की बात है कि सरकार के पास उनकी मदद के लिए सिर्फ 3,500 करोड़ रुपये ही हैं।

विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और जवाबदेही से ही बच सकता है समाचार उद्योग

दुनिया भर में कोरोना वायरस से हुए जानी नुकसान के बीच समाचार उद्योग कोविड-19 बाद के परिदृश्य में फिर से हासिल की विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और बहुत ज़रूरी जवाबदेही के साथ ही जीवित रहना सीख सकता है।

पहले अगर ये सिद्धांत मुख्यधारा के मीडिया के लिए आवश्यक थे, अब यह इसके अस्तित्व के लिए एक प्राथमिकता बन गये हैं। जैसा कि लाखों लोग दुनिया भर में घातक वायरस से संक्रमित हैं और हज़ारों हताहत हो चुके हैं। किसी समय खुद को बहुत जीवंत समझने वाला मीडिया जगत आज खुद को एक अजीब स्थिति में पा रहा है। क्योंकि उसने विज्ञापन राजस्व के साथ-साथ अपने पाठकों, दर्शकों, सराहना करने वालों को खोना शुरू कर  दिया है।

लम्बे समय तक लॉकडाउन के कारण अधिकांश भारतीय अखबारों ने अपने प्रसार की लगभग दो-तिहाई संख्या को खो दिया है। कई अखबारों ने अपने डिजिटल संस्करणों को बनाये रखते हुए प्रिंट एडिशन को बन्द कर दिया है।

भारतीय समाचार चैनल, जिनमें से ज़्यादातर फ्री-टू-एयर (एफटीए) हैं; वर्तमान में अपने दर्शकों की रेटिंग में वृद्धि कर रहे हैं। लेकिन उनके विज्ञापन का बड़ा हिस्सा काफी कम हो गया है। चैनल मालिकों को उत्पादन से लेकर वितरण तक के सभी खर्चों का प्रबन्धन करना होता है; लेकिन वे दर्शकों से पैसे नहीं वसूल सकते। क्योंकि उनके आउटलेट एफटीए समाचार चैनलों के रूप में पंजीकृत हैं। लगभग 500 भारतीय टी.वी. चैनल अपने अस्तित्व के लिए विज्ञापन राजस्व पर ही निर्भर करते हैं। वास्तव में एफटीए चैनल के लिए दर्शकों की संख्या में वृद्धि स्वचालित रूप से अच्छा राजस्व नहीं लाएगी, जब तक कि विज्ञापन प्रवाह में वृद्धि नहीं होती है। दूसरी ओर वाणिज्यिक विज्ञापन सीधे व्यावसायिक गतिविधियों से सम्बन्धित होते हैं, जहाँ लोग प्रचारित उत्पादों के लिए पैसा खर्च कर सकते हैं। अन्यथा कोई भी विज्ञापनों को नहीं देखेगा और यह अन्त में विज्ञापनदाताओं को निराश कर देगा।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज की तारीख में 82 हज़ार से अधिक पंजीकृत अखबार हैं। जिनका रोज़ाना प्रसार एक अनुमान के अनुसार 110 मिलियन है; जो मीडिया को दैनिक  3,20 हज़ार करोड़ रुपये का उद्योग बना देता है। विभिन्न अवधियों (दैनिक, पाक्षिक, मासिक आदि) में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र सदस्यता और विज्ञापन राजस्व के सहारे की अपना व्यवसाय चलाते हैं।

जैसा कि भारत में समाचार पत्र प्रबन्धन आमतौर पर वास्तविक खर्च की तुलना में कम कवर कीमतों के साथ अपने उत्पादों को बेचते हैं; वो ताॢकक रूप से घाटे की राशि पूरी करने के लिए विज्ञापनों पर ही निर्भर रहते हैं। हाल ही में एक हज़ार से अधिक अखबार मालिकों के संगठन इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएनएस) ने  नई दिल्ली में केंद्र सरकार से मीडिया उद्योग को एक मज़बूत प्रोत्साहन पैकेज देने की अपील की।

आईएनएस ने यह तर्क दिया कि विज्ञापन कई हफ्तों से लगभग रुका हुआ है और अखबारी कागज़ की कीमतें बढ़ रही हैं; लिहाज़ा अखबार का अर्थशास्त्र अब काम नहीं करेगा। हालाँकि आईएनएस का दावा है कि समाचार पत्रों को एक सार्वजनिक सेवा के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। जीवंत अखबार उद्योग को देश में सबसे बुरी तरह प्रभावित इंडस्ट्री बताते हुए आईएनएस ने कहा कि मार्च और अप्रैल, 2020 में इंडस्ट्री पहले ही 40-45 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान झेल चुकी है, जबकि मई में हुआ नुकसान अलग से है। चूँकि आॢथक गतिविधियाँ लगभग ध्वस्त हो गयी हैं, निजी क्षेत्र से अगले महीनों में विज्ञापन मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। उसने कहा कि सरकार को अखबारी कागज़ (न्यूजप्रिंट) से पाँच फीसदी का सीमा शुल्क वापस ले लेना चाहिए।

आईएनएस का तर्क है कि न्यूज प्रिंट की लागत प्रकाशकों को कुल खर्च के 40 से 60 फीसदी तक बैठती है। दूसरी ओर भारत को 2.5 मिलियन (250 लाख) टन की वाॢषक अखबारी कागज़ की माँग का 50 फीसदी से अधिक आयात करना पड़ता है। अखबारी कागज़ पर पाँच फीसदी सीमा शुल्क की वापसी का भी घरेलू निर्माताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आईएनएस ने कहा कि केंद्र सरकार को समाचार पत्र प्रतिष्ठानों के लिए दो साल का कर अवकाश प्रदान करना चाहिए, सम्बन्धित विज्ञापन दरों में 50 फीसदी, जबकि प्रिंट मीडिया के लिए बजट खर्च में 100 फीसदी की वृद्धि करनी चाहिए।

इस वित्तीय संकट का लाभ उठाते हुए कई बड़े मीडिया समूहों ने मीडिया कर्मचारियों की छँटनी करने, वेतन कटौती या प्रतिबद्ध पैकेजों में देरी करने जैसे उपायों का सहारा लिया है। उन्होंने अपने कुछ कर्मचारियों को विज्ञापन राजस्व में कमी के कारण भुगतान किये बिना छुट्टी पर जाने के लिए कहा। कई पत्रकार संगठनों ने पहले ही संघीय सरकार के साथ इस मुद्दे को उठाया है, ताकि वह इन कर्मचारी विरोधी गतिविधियों को तत्काल रोकने के लिए हस्तक्षेप कर सके।

इस बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी के एक सुझाव, जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार को कोविड-19 से सम्बन्धित विज्ञापनों को छोडक़र अन्य मीडिया विज्ञापनों को दो साल के लिए रोकने को कहा; ने मीडिया उद्योग को नाराज़ कर दिया। सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, टेलीविजन, प्रिंट और ऑनलाइन विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबन्ध के देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के प्रस्ताव पर आईएनएस और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) दोनों ने तत्काल प्रतिक्रिया दी। दोनों संगठनों ने कांग्रेस प्रमुख से आग्रह किया कि वह स्वस्थ और स्वतंत्र मीडिया के हित में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तुरन्त अपना सुझाव वापस लें। दोनों संघों के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों ने तर्क दिया कि मीडिया को लाखों पाठकों-दर्शकों को महामारी के बारे में प्रासंगिक जानकारी के साथ अपनी भूमिका जारी रखनी चाहिए, क्योंकि वे अपने जीवनकाल में एक असामान्य शट-डाउन का सामना कर रहे हैं।

केंद्र सरकार अखबारों, समाचार चैनलों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन मीडिया आउटलेट में विज्ञापनों के लिए सालाना लगभग 12,500 करोड़ रुपये खर्च करती है। लेकिन भारत स्थित कम्पनियाँ विज्ञापन पर कुछ अरब रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से ज़्यादा लगाती हैं। टेलीविजन चैनल और प्रिंट आउटलेट अब तक विज्ञापन का लाभ लेते रहे हैं। लेकिन यह सम्भावना है कि डिजिटल माध्यम बहुत जल्द दोनों से आगे निकल जाएगा।

जैसे-जैसे एक अरब से अधिक आबादी वाले राष्ट्र की साक्षरता दर सुधार के साथ 75 फीसदी पहुँच रही है, अधिक नागरिक अब डिजिटल मंचों में समाचार तक पहुँचने की क्षमता विकसित कर चुके हैं। धीरे-धीरे मुख्यधारा की मीडिया ने सौदेबाज़ी की अपनी शक्ति खो दी है। न केवल समाचार इनपुट, बल्कि अधिक-से-अधिक मध्यम वर्ग के भारतीय, ज़्यादातर युवा आज विभिन्न अन्य गतिविधियों के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। क्योंकि यह तेज़ ही नहीं, सस्ता भी है। फिर भी पारम्परिक मीडिया जीवित रहेगा; यदि यह विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और ज़िम्मेदारी के साथ ग्राहकों को आश्वस्त करता रहेगा। वह पुराने पाठकों/दर्शकों को फिर हासिल कर सकता है; या इनका एक नया समूह भी बना सकता है। भले डिजिटल मीडिया अरबों उपयोगकर्ताओं के लिए बहुत तेज़ और सस्ता माध्यम हो सकता है। लेकिन इसे निरंतरता अॢजत करने के लिए वर्षों लगेंगे। लिहाज़ा किसी भी मीडिया आउटलेट के लिए भरोसा ही एक ट्रेड मार्क के रूप में उभरने की सम्भावना है; चाहे वो प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या डिजिटल मीडिया।

सीमा पर तीन तरफा तनाव

मई के दूसरे हफ्ते में जब नेपाल ने एक नक्शा जारी कर भारत के हिस्से- लिपुलेख और दो अन्य इलाकों को अपना बताने का दावा किया, कमोवेश उसी समय चीन लद्दाख सीमा पर भारत के लिए तनाव पैदा कर रहा था। पाकिस्तान पहले से ही सीमा पर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। इस तीन तरफा तनाव के बीच भारत ने सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण गिलगित-बाल्टिस्तान पर खुला दावा करके अपना दाँव चला है। आज जब कोविड-19 वायरस से उपजी महामारी से निपटने में अनेक देश उलझे हैं, भारतीय सीमाओं पर अचानक बढ़ रही इस हलचल के खास मायने हैं।

गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर भारत का दावा बहुत पहले से है। पाकिस्तान दशकों से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों पर यह आरोप लगाता रहा है कि भारत अपनी सुरक्षा एजेंसी ‘रॉ’ के ज़रिये गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में, जिसे वो आज़ाद कश्मीर कहता है; पाक-विरोधी लोगों को बढ़ावा देता रहा है। याद रहे रॉ का गठन 21 सितंबर, 1968 को इंदिरा गाँधी ने आर.एन. काव के सहयोग से किया था।

चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद भारत एक ऐसी मज़बूत सुरक्षा एजेंसी की ज़रूरत महसूस कर रहा था, जो उसे बहुत सक्षम तरीके से बाहर की जानकारियाँ दे सके। इस ज़रूरत को पूरा करते हुए इंदिरा गाँधी ने लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद सत्ता में आते ही रॉ का गठन किया। हालाँकि, पाकिस्तान आरोपों के अलावा कभी भी साबित नहीं कर पाया कि रॉ गिलगित-बाल्टिस्तान में होने वाली गतिविधियों में किसी भी तरह से शामिल रहा है। लेकिन यह ज़रूर सच है कि वहाँ पाकिस्तानी सेना की ज़्यादतियों के खिलाफ एक बड़ा वर्ग खड़ा हो चुका है। जबकि रॉ से करीब 20 साल पहले 1948 में बनी पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई की भारत में तोडफ़ोड़ और आतंकवाद को बढ़ावा देने की गतिविधियाँ दर्ज़नों मौकों पर ज़ाहिर हो चुकी हैं।

गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान ही नहीं, चीन के लिए भी बहुत अहम है और उसकी कमज़ोर नस भी; क्योंकि वहाँ उसका आॢथक कॉरिडोर बन रहा है। पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान में वह चुनाव कराने की तैयारी कर रहा है, जिसका भारत ज़बरदस्त विरोध कर रहा है। इस साल के शुरू में भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को लेकर भी अपना दावा जताया था। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा था कि पीओके को वापस लेने का समय आ गया है। ऐसे में पाकिस्तान का बौखलाना स्वाभाविक ही है।

पाक की चाल 

गिलगित-बाल्टिस्तान में पिछले 73 साल से स्वायत्तशासी सरकार रही है। वहाँ वह खुद अपना चुनाव कराती है। लेकिन अब पाकिस्तान वहाँ चुनाव करवाने की चाल चल रहा है। यहाँ यह बताना भी बहुत ज़रूरी है कि गिलगित के लोगों ने पाकिस्तान के नियंत्रण में रहना कभी स्वीकार नहीं किया है और वहाँ की जनता हमेशा पाकिस्तान के खिलाफ रही है। गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर पाकिस्तान के भीतर असुरक्षा की भावना रही है। इस भावना से बाहर निकलने के लिए एक रणनीति के तहत पाकिस्तान ने 2018 में गवर्नमेंट ऑफ गिलगित-बाल्टिस्तान के संविधान में संशोधन कराकर वहाँ चुनाव की अनुमति अपने सुप्रीम कोर्ट से माँगी थी। तब भी भारत ने इसका कड़ा विरोध किया था। इसी साल 30 अप्रैल को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस गुलज़ार अहमद की अगुआई वाली सात सदस्यीय खण्डपीठ ने पाकिस्तान को गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव करवाने को मंज़ूरी दे दी।

इसके तहत वहाँ चुनाव से पहले पाकिस्तान की मंज़ूरशुदा अंतरिम सरकार कामकाज देखेगी और वही चुनाव भी करायेगी। वर्तमान असेंबली का कार्यकाल जून में खत्म होने वाला है। पहले जब भी वहाँ चुनाव हुए हैं, पाकिस्तान का कोई बड़ा रोल उसमें नहीं रहा है। लेकिन अब सीधे पाकिस्तान का दखल इसमें रहेगा।

पाकिस्तान की इस चाल के पीछे उसका यह डर है कि गिलगित-बाल्टिस्तान में उसके खिलाफ उभर रहा असंतोष भविष्य में गम्भीर रूप ले सकता है। पाकिस्तान इसके पीछे भारत का हाथ देखता रहा है और ऐसे आरोप भी लगाता रहा है।

गिलगित-बाल्टिस्तान में पहले से ही पाकिस्तान से अलग होने यानी आज़ादी के समर्थन में आन्दोलन चल रहा है। वहाँ के लोग पाकिस्तान से खासे नाराज़ हैं और अपने मामलों में उसका हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं चाहते। वहाँ के एक संगठन डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता शब्बीर मेहर इस आन्दोलन का नेतृत्व करते हैं। आशंका यह भी है कि पहले से ही गिलगित-बाल्टिस्तान में ज़ुल्म करने का आरोप झेल रहा पाकिस्तान वहाँ अपनी कठपुतली सरकार लाकर आन्दोलन को कुचलने के लिए पूरी ताकत झोंक देगा। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 खत्म करने के बाद मोदी सरकार 2020 के शुरू से ही पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान पर फोकस करती दिख रही है। भारत का गिलगित-बाल्टिस्तान को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना पाकिस्तान और चीन दोनों को बेचैन कर रहा है।

भारत का जवाब

जब पकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका का निपटारा करते हुए इमरान खान सरकार को वहाँ कानून में बदलाव के साथ चुनाव का निर्देश दिया, तो भारत ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी।

इसके जवाब में भारत ने चुनाव की इस कोशिश को न केवल अवैध बताया, बल्कि भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने जम्‍मू-कश्‍मीर उपमण्डल को अब जम्‍मू-कश्‍मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्‍तान और मुज़फ्फराबाद कहना शुरू कर दिया। गिलगित-बाल्टिस्‍तान और मुज़फ्फराबाद दोनों पर पाकिस्‍तान का लम्बे समय से अवैध कब्ज़ा है। मौसम विभाग के महा निदेशक मृत्‍युंजय महापात्रा ने बाकायदा इसे लेकर बयान दिया-‘मौसम विभाग पूरे जम्‍मू-कश्‍मीर और लद्दाख के लिए वेदर बुलेटिन (मौसम समाचार) जारी करता है। हम बुलेटिन में गिलगित-बाल्टिस्‍तान, मुज़फ्फराबाद का ज़िक्र इसलिए कर रहे हैं, क्‍योंकि वह भारत का हिस्‍सा है।’ हालाँकि, यह भी सच है कि इससे पहले विभाग गिलगित-बाल्टिस्तान-पीओके को अपनी मौसम भविष्यवाणी में शामिल नहीं करता था। जैसे ही आईएमडी ने इन इलाकों को अपने मौसम प्रसारण में जोड़ा, पाकिस्तान इससे तिलमिला उठा। भारत ने गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव करवाने को लेकर ही पाकिस्तान को नहीं चेताया, बल्कि इस पूरे इलाके को खाली करने की भी चेतावनी दे दी। ज़ाहिर है कि यह छोटा मामला नहीं है और दोनों देशों के बीच इसे लेकर आने वाले महीने बहुत तनाव भरे हो सकते हैं। भारत कह चुका है कि केंद्र शासित प्रदेश पूरा जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, जिसमें गिलगित-बाल्टिस्तान भी शामिल हैं; पूरी तरह कानूनी और अपरिवर्तनीय विलय के तहत भारत का अभिन्न अंग हैं और पाकिस्तान सरकार या उसकी न्यायपालिका को इन इलाकों पर हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हैं; क्योंकि उसने इन्हें अवैध तरीके और ज़बरन कब्ज़ाया है।

गिलगित-बाल्टिस्तान में हाल के वर्षों में बहुत-से स्थानीय संगठन सामने आये हैं, जो पाकिस्तान पर वहाँ के लोगों के मानवाधिकार का उल्लंघन करने और शोषण करने के अलावा उन्हें स्वतंत्रता से वंचित रखने के गम्भीर आरोप लगाते रहे हैं। यही नहीं, उनका यह भी आरोप रहा है कि पाकिस्तान वहाँ की कीमती सम्पदा की लूट कर रहा है। वहाँ पाकिस्तान के खिलाफ सोच रखने वाला एक बड़ा वर्ग है, जो भारत के प्रति समर्थन की उम्मीद रखता है। कांग्रेस-यूपीए की नरसिम्हा राव सरकार ने भारतीय संसद में 1994 में एक प्रस्ताव पास करके जम्मू-कश्मीर पर स्थिति साफ की थी। उस प्रस्ताव में साफतौर पर पीओके सहित इन इलाकों को भारतीय जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बताया गया था। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर के दो हिस्से करने के बाद भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद देश का जो नया मानचित्र जारी किया, उसमें पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के हिस्सों को कश्मीर क्षेत्र में दर्शाया गया था। इनमें पीओके के तीन ज़िले मुज़फ्फराबाद, पंच और मीरपुर शामिल हैं।

चीन की बढ़ती हरकतें

इन सबके बीच चीन की हरकतों से लद्दाख और सीमा के दूसरे इलाकों में तनाव बढ़ रहा है। लद्दाख में भारत और चीन के सैनिकों के बीच टकराव कहने को तो स्थानीय स्तर पर सुलझा लिया गया, परन्तु असलियत यह नहीं है। चीन इस सीमा पर बड़े पैमाने पर अपने सैनिकों की तैनाती कर रहा है। वैसे यह भी बहुत दिलचस्प तथ्य है कि भारत और चीन में बार-बार के तनाव के बावजूद पिछले चार दशक में एक बार भी गोलीबारी की घटना नहीं हुई है; लेकिन तनाव कई बार गम्भीर रूप लेता भी दिखा है। दोनों देशों के बीच उभर रहे विवादों को उच्च स्तर पर बातचीत से हल करने की कोशिशें होती रही हैं। लेकिन रिपोट्र्स यह ज़ाहिर करती हैं कि चीन सीमा इलाके में अपनी पकड़ मज़बूत करने की कोशिशों में जुटा है।

रिपोट्र्स से संकेत मिलता है कि लाल सेना पैंगोंग लेक के किनारे पोजिशन सँभाल रही है। चीनी सैनिक मोटरबोट के ज़रिये गश्ती करते देखे गये हैं और उनके रुख में आक्रामकता दिखती है। हाल के हफ्तों में चीन सेना ने भारत की सेना के बनाये अस्थायी ढाँचों को नुकसान पहुँचाने जैसे उकसाने वाले काम भी किये हैं।

जिस गलवान क्षेत्र में चीन और भारत के सैनिकों के बीच टकराव हुआ था, वहीं चीन की सेना को अभ्यास करते भी देखा गया है। उत्तरी सिक्किम और लद्दाख क्षेत्र में गैर-चिह्नित सीमा (एएलओसी) क्षेत्र में भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ता दिख रहा है। दोनों देशों ने वहाँ अपने सैनिकों की संख्या बढ़ायी है। डेमचक, दौलत बेग ओल्डी, गलवान नदी और लद्दाख में पैंगोंग सो झील के पास के संवेदनशील इलाकों में भारत और चीन, दोनों ने अपने-अपने अतिरिक्त सैनिकों को तैनात

किया है। ऐसा नहीं कि चीन का केवल भारत के साथ ही सीमा को लेकर तनाव है, बल्कि उसकी कमोवेश हर पड़ोसी देश से तनातनी है। इन देशों में इंडोनेशिया, वियतनाम, ताइवान और मलेशिया प्रमुख हैं। भारत के साथ चीन का 60 साल से गलवान इलाके को लेकर विवाद चल रहा है। चीन ने गलवान घाटी इलाके में बड़ी संख्या में तम्बू गाड़े हैं। इससे उपजे तनाव के बाद वहाँ दोनों ओर सैनिकों की संख्या बढ़ी है।

पैंगोंग सो लेक के इस इलाके में ही 5 मई को भारत-चीन के सैनिकों के बीच तीखी झड़प भी हुई थी; जिसमें 200 से ज़्यादा सैनिक लोहे की छड़ों, डंडों के साथ आपस में भिड़ गये थे। इस घटना में दोनों पक्षों के काफी सैनिक घायल हुए थे। सिक्किम के नाकू ला दर्रा वाले इलाके में भी 9 मई को भारत और चीन के सैनिक आमने-सामने आ गये। ऐसा नहीं है कि भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) में भारत ने हाल के महीनों में सडक़ और पुल का निर्माण किया है। कुछ जानकार चीन की इस उत्तेजनापूर्ण कार्रवाइयों के पीछे दूसरे कारण भी देखते हैं। उनका कहना है कि चीन कोविड-19 के बाद अपने देश में उभरी आॢथक परिस्थितियों को लेकर चिन्ता में है। कुछ बड़े देशों की चीन से अपनी कम्पनियों के पलायन की तैयारी से चीन में ज़बरदस्त बेचैनी है। चीन किसी भी सूरत में नहीं चाहता कि यह कम्पनियाँ भारत जाएँ। इसलिए वह भारत के साथ सीमा पर तनाव बढ़ा रहा है। उसके हेलीकॉप्टर भारतीय सीमा के पास उड़ते देखे गये हैं; जिसके बाद भारत ने कुछ इलाकों में एहतियातन अपने लड़ाकू विमानों को भेजा है।

उलझने लगा नेपाल

नेपाल और भारत के बीच सीमा विवाद अब तनाव बनने लगा है। भले चीन ने इसे भारत-नेपाल के बीच का मामला बताकर खुद को अलग दिखाने की कोशिश की है, लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि पिलुलेख विवाद के पीछे वास्तव में चीन ही है। नेपाल भारत के उत्तराखण्ड में पडऩे वाले लिपुलेख और कालापानी को अपना क्षेत्र बता रहा है। यही नहीं उसने बाकायदा नया नक्शा जारी करके इसे नेपाल का हिस्सा बता दिया है। इसके बाद भारत और नेपाल के बीच इस इलाके को लेकर तनाव पैदा हो गया है।

नेपाल सरकार लिपुलेख और कालापानी को भारत का अतिक्रमण बता रही है और इसका विरोध कर रही है। नेपाल ने लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को अपने नक्शे में दिखाने के लिए बाकायदा प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की अघ्यक्षता में मंत्रिपरिषद् की बैठक की थी। काफी समय चुप रहने के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया में नेपाल को भारत की संप्रभुता का सम्मान करने की नसीहद दी है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा है कि हम नेपाल सरकार से अपील करते हैं कि वह ऐसे बनावटी कार्टोग्राफिक प्रकाशित करने से बचे और अपने फैसले पर फिर विचार करे। वैसे लिपुलेख पूरी तरह भारतीय क्षेत्र है और विदेश मंत्रालय यह कहता भी रहा है।

नेपाल इस मामले में भारत से उलझ रहा है। यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि नेपाल के संस्कृति और पर्यटन मंत्री योगेश भट्टराई ने एक ट्वीट कर नेपाल के प्रधानमंत्री ओली का इस फैसले के लिए धन्यवाद करते हुए इसे इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों से लिखाई बताया।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को लिपुलेख के पास से होकर गुज़रने वाले उत्तराखंड-मानसरोवर मार्ग का उद्घाटन किया था। यह इलाका चीन, नेपाल और भारत की सीमाओं से जुड़ा है। करीब 22 किलोमीटर की यह सडक़ लिपुलेख दर्रे पर जाकर खत्म होती है। कैलाश-मानसरोवर जाने वाले श्रद्धालुओं को अब इस सडक़ के बन जाने से सिक्किम और नेपाल के खतरनाक ऊँचाई वाले रास्ते से नहीं जाना पड़ेगा। हालाँकि, वहाँ नेपाल के लोग यह सडक़ बनने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। भारत के सेनाध्यक्ष मनोज मुुकुंद नरवणे ने जब इस प्रदर्शन को किसी और के इशारे पर हुआ बताया था, तो नेपाल इससे भडक़ उठा था। नेपाल ने कहा कि भारत ने जिस सडक़ का निर्माण किया है, वह उसकी (नेपाल की) ज़मीन है, जिसे भारत को लीज़ पर दिया जा सकता है; लेकिन उसका इस पर दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता। नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली इस मामले पर आक्रामक रुख अपनाते दिख रहे हैं। नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शन भी हो रहे हैं। सवाल यह है कि क्या चीन भारत के पड़ोसी देशों को भडक़ाकर भारत को डराना चाहता है?

गिलगित-बाल्टिस्तान का इतिहास

गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच पिछले करीब 73 साल से तनातनी रही है। ब्रिटिश शासन से मुक्ति से पहले गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा था। हालाँकि, सन् 1947 के बाद वहाँ पाकिस्तान का कब्ज़ा हो गया; जिसे भारत अवैध बताता रहा है। गिलगित बाल्टिस्तान का बहुत सामरिक महत्त्व भी है। दरअसल सन् 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ, यह क्षेत्र जम्मू-कश्मीर की तरह न तो भारत का हिस्सा था और न ही पाकिस्तान का। साल 1935 में ब्रिटेन ने इस हिस्से को गिलगित एजेंसी को 60 साल के लिए लीज पर दे दिया। लेकिन इस लीज को पहली अगस्त, 1947 को रद्द कर दिया गया। इस फैसले के बाद ब्रिटिश शासन ने इसे जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को लौटा दिया। इससे तिलमिलाये एक स्थानीय कमांडर कर्नल मिर्ज़ा हसन खान ने महाराजा हरि सिंह से विद्रोह कर दिया। कर्नल खान ने 2 नवंबर, 1947 को गिलगित-बाल्टिस्तान को स्वतंत्र घोषित कर दिया। लेकिन इसकी खबर महाराजा हरि सिंह को पहले से ही जानकारी हो गयी थी, लिहाज़ा उन्होंने इससे दो दिन पहले ही 31 अक्टूबर को अपनी रियासत का भारत में विलय करने को मंज़ूरी दे दी थी। इसके बाद यह भारत का हिस्सा बन गया। लेकिन करीब 21 दिन बाद पाकिस्तान के सैनिक गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके में घुस गये और इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। तबसे वहाँ पाकिस्तान का ही कब्ज़ा है। हालाँकि इसके बावजूद अभी तक वहाँ के स्थानीय लोगों की चुनी सरकार है; जिसमें पाकिस्तान का हस्तक्षेप नहीं होता। अब वहाँ चुनाव का ऐलान कर पाकिस्तान ने इसे अपना एक सूबा बनाने की चाल चली है। यहाँ यह कहना भी उचित है कि ब्रिटिश संसद भी बाकायदा एक प्रस्ताव पास करके गिलगित-बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान के कब्ज़े को अवैध बता चुकी है। ब्रिटिश सरकार की संसद के मुताबिक, गिलगित-बाल्टिस्तान भारत के जम्मू और कश्मीर का हिस्सा है। गिलगित का इलाका दुनिया के सबसे खूबसूरत इलाकों में माना जाता है। गिलगित-बाल्टिस्तान की सीमाएँ चार देशों- भारत, पाकिस्तान, चीन और तज़ाकिस्तान से मिलती हैं।

क्यों अहम है गिलगित-बाल्टिस्तान?

गिलगित-बाल्टिस्तान पूरे दक्षिण एशिया में सामरिक दृष्टि के लिहाज़ से बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। करीब 20 लाख की आबादी वाला यह इलाका लगभग 73,000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। सिर्फ बेपनाह खूबसूरती ही गिलगित-बाल्टिस्तान की पहचान नहीं है। चीन की चॢचत इकोनॉमिक कॉरिडोर योजना गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर ही गुजऱती है। यही नहीं, पाकिस्तान को चीन से जोडऩे वाला काराकोरम हाईवे भी इसी क्षेत्र में है। चीन के इकोनॉमिक कॉरिडोर पर भारत ही नहीं, अमेरिका भी विरोध दर्ज करा चुका है। भारत का कहना है कि यह गलियारा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक अवैध है। इसे चीन-पाक इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) कहा जाता है। यह आॢथक गलियारा दोनों देशों के सम्बन्धों के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है और यह ग्वादर से काशगर तक करीब 2442 किलोमीटर लम्बा है। इसके निर्माण से पीछे का उद्देश्य दक्षिण-पश्चिमी पाकिस्तान से चीन के उत्तर-पश्चिमी स्वायत्त क्षेत्र शिंजियांग तक ग्वादर बंदरगाह, रेलवे और हाईवे के माध्यम से तेल और गैस का कम समय में वितरण करना है।

यहाँ यह उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि चीन ने सन् 1998 में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर निर्माण कार्य शुरू किया, जो साल 2002 में पूरा हुआ। इस परियोजना (सीपीईसी) की आरम्भिक लागत 62 बिलियन डॉलर (2017 में) बतायी गयी है। दरअसल यह गलियारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) है, जो  गिलगित-बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान होते हुए निकलेगा। इस क्षेत्र पर भी भारत का दावा रहा है। लिहाज़ा भारत इस परियोजना का विरोध कर रहा है। रिपोट्र्स के मुताबिक, यह माना जाता है कि ग्वादर बंदरगाह को कुछ इस तरह विकसित करने की योजना है कि यह 19 मिलियन टन कच्चा तेल सीधे चीन भेजने में सक्षम होगा। हालाँकि, इस परियोजना के पूरा होने में अभी समय लगेगा। चीन की शी जिनपिंग सरकार ने साल 2014 में इस इकोनॉमिक गलियारे की घोषणा की और पाकिस्तान में विभिन्न विकास कार्यों के लिए करीब 46 बिलियन डॉलर देने का ऐलान किया। चीन और पाकिस्तान ने साझा रूप से 18 दिसंबर, 2017 को सीपीईसी की दीर्घकालीन अवधि योजना को मंज़ूरी दी। इसके तहत चीन और पाकिस्तान साल 2030 तक आॢथक साझेदार रहेंगे। विशेषज्ञों के मुताबिक, यह गलियारा दक्षिण एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव लाने की क्षमता रखता है। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि पाकिस्तान-चीन इसे भविष्य में एक बड़े नौसैनिक अड्डे के तौर पर विकसित कर सकते हैं, जिससे चीन को दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में रणनीतिक लाभ मिलेगा। इसका महत्त्व इससे भी समझा जा सकता है कि ईरान, रूस और सऊदी अरब भी भविष्य में सीपीइसी का हिस्सा बनने को लेकर दिलचस्पी दिखाते रहे हैं। इस गलियारे का लक्ष्य चीन के उत्तरी-पश्चिमी झिनजियांग सूबे के काशगर से पाकिस्तान की बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह के बीच सडक़ों का 3,000 किलोमीटर का व्यापक नेटवर्क और अन्य कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट्स के ज़रिये सम्पर्क बनाना है। चीन ऊर्जा आयात करने के लिए इस समय करीब 12,000 किलोमीटर लम्बे रास्ते का इस्तेमाल करता है। लेकिन यह गलियारा उसके इस रास्ते को बहुत छोटा कर देगा। इससे चीन सिर्फ अपना पैसा ही नहीं बचायेगा, बल्कि हिन्द महासागर तक उसकी पहुँच भी हो जाएगी। पाकिस्तान को इस गलियारे से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर, नौसैनिक शक्ति और ऊर्जा क्षेत्र के विकसित होने की भी बहुत उम्मीद है।

श्रम कानून हटाने से बढ़ेगा मज़दूरों का शोषण

गरीबी, बेरोज़गारी और अधिक जनसंख्या से शोषण और दमनकारी स्थितियाँ पैदा होती हैं। क्योंकि लाचार लोग पेट भरने की शर्त तक पर जी-तोड़ काम करने को तैयार हो जाते हैं, जब जीवनयापन के संसाधन बहुत ही कम हैं। उस पर अगर हुकूमत मनमानी करने लगे, तो और भी दमन के साथ शोषण होता है। सभी जानते हैं कि कोरोना वायरस से फैला महामारी के बाद बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं और आॢथक तंगी के चलते अपने-अपने घरों को लौटने लगे, जो अब तक लौट रहे हैं। इनमें सबसे ज़्यादा मज़दूर हैं। पैदल चल रहे श्रमिकों-मज़दूरों की कथा रोज़ाना टी.वी. चैनलों पर सुनायी जा रही है। अखबारों में छप रही है। श्रमिक रेलगाडिय़ों के लिए टिकट पाने और लम्बी यात्रा करने के संघर्ष के िकस्सों ने भी अब सोशल मीडिया पर अपनी जगह तलाश ली है। मज़दूर चाहे वह खेत में काम कर रहा हो या किसी कारखाने में। प्रवासी मज़दूर मुल्क में कहीं भी काम करता हो, उसके प्रति मालिकों का नज़रिया क्या होता है? इसका जवाब सम्भवत: सब जानते हैं। सदियों से शोषण का शिकार रहा सबसे निचले पायदान पर खड़ा यह तबका राजनीति का भी खूब शिकार रहा। और इसी राजनीति के बीच महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच ट्वीटर पर कहा-सुनी भी हुई; जिसके चलते योगी आदित्यनाथ ने यहाँ तक कह दिया कि वह उत्तर प्रदेश के लोगों को अपने ही राज्य में रोज़गार मुहैया कराएँगे। इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रोज़गार देने के आँकड़े भी सामने आये। और उन्होंने श्रम कानून में बदलाव करके मज़दूरों के शोषण का रास्ता भी निकाल लिया। जैसे ही उत्तर प्रदेश में यह होने का डंका बजा, मध्य प्रदेश समेत कई अन्य राज्य सरकारों ने श्रम कानून में संशोधन करने का फैसला कर डाला। लेकिन श्रम कानून में बदलाव श्रमिकों के हितों के संरक्षण को और अधिक मज़बूती प्रदान करने की बजाय हितों को कमज़ोर करने वाले बताये जा रहे हैं। और एक सवाल बदलाव की टाइमिंग पर भी उठ रहा है। ऐसे समय में जब मज़दूर आॢथक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भावात्मक रूप से निराश हो, टूटकर अपने मूल गाँव, स्थान को जाने के लिए बेचैन हैं और जान को जोखिम में डालकर भीषण गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल चलते नज़र आ रहे हैं। उसका अपने यूनियन से सम्पर्क नहीं है। दूसरा कोविड-19 के कारण प्रतिरोध करना भी इतना आसान नहीं है। लेकिन राज्य सरकारें इन बदलाव को कोराना तालाबंदी के कारण मंद पड़ी मुल्क की अर्थ-व्यवस्था में जान फूँकने वाले अहम कदम के रूप में आम जनता के सामने रख रही हैं। दरअसल लॉकडाउन के बीच मुल्क के कई सूबों ने श्रम कानूनों में बदलाव कर दिये। ऐसे सूबों की सूची में राजस्थान, ओडिसा, गोवा, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र हैं। इन राज्यों ने कारखाना अधिनियम-1948 में संशोधन करते हुए विभिन्न अधिसूचनाएँ जारी की हैं। इनमें से अधिकांश अधिसूचनाएँ कारखाना अधिनियम की धारा-5 के तहत प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए जारी की गयी हैं। धारा-5 के तहत प्रदत्त शक्तियों का उपयोग केवल सार्वजनिक आपातकाल की स्थिति में ही किया जा सकता है। इसे ऐसे परिभाषित किया गया है-एक गम्भीर आपातकाल की स्थिति जहाँ भारत या उसके किसी भी भौगोलिक हिस्से की सुरक्षा को, चाहे युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण या आंतरिक अशान्ति के कारण खतरा हो। लेकिन इस समय तो मुल्क पर ऐसा कोई भी खतरा नहीं मँडरा रहा। मुल्क के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश पर सबकी निगाहें अधिक रहती हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में उत्तर प्रदेश चुंनिदा श्रम कानूनों से अस्थायी छूट का अध्यादेश-2020 को मंज़ूरी दी गयी, ताकि कारखानों और उद्योगों को तीन श्रम कानूनों तथा एक अन्य कानून के प्रावधान को छोड़ बाकी सभी श्रम कानूनों से छूट दी जा सके। वर्तमान में लागू श्रम अधिनियम में अस्थायी छूट प्रदान करने का फैसला किया है; लेकिन यह छूट कुछ शर्तों के साथ है। जैसे बँधुआ श्रम प्रथा (उत्सादन) अधिनियम-1976, कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम-1923, भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार (नियोजन व सेवा शर्त विनियमन) अधिनियम-1996 के प्रावधान लागू रहेंगे। बच्चों और महिलाओं के नियोजन से जुड़े श्रम अधिनियम के प्रावधान भी लागू रहेंगे। मज़दूरी संदाय अधिनियम-1936 की धारा-5 के तहत निर्धारित समय सीमा के अंतर्गत वेतन भुगतान का प्रावधान भी लागू रहेगा। अन्य महत्त्वपूर्ण बदलाव श्रमिक के रोज़ाना काम के अधिकतम घंटे 12 कर दिये गये और ओवरटाइम का भुगतान भी दिहाड़ी के सामान्य दर से ही किया जाएगा। जबकि मौज़ूदा श्रम कानून के तहत एक मज़दूर दिन में अधिकतम 8 घंटे ही काम कर सकता है और ओवरटाइम का भुगतान सामान्य दर से दोगुना अधिक होता है।

विपक्ष का विरोध

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से श्रम कानून में बदलाव के लिए लाया गया यह अध्यादेश विवाद का विषय बन गया। विपक्ष चाहे, वह समाजवादी पार्टी (सपा) हो या कांग्रेस; ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट किया- ‘उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक अध्यादेश से मज़दूरों को शोषण से बचाने वाले श्रम कानून के अधिकांश प्रावधानों को तीन साल के लिए स्थगित कर दिया है। यह बेहद आपत्तिजनक और अमानवीय है। श्रमिकों को संरक्षण न दे पाने वाली गरीब विरोधी भाजपा सरकार को तुरन्त त्याग-पत्र दे देना चाहिए।’

कांग्रेस महासचिव प्रिंयका गाँधी वाड्रा ने ट्वीट किया- ‘यूपी सरकार की ओर से श्रम कानूनों में किये गये बदलावों को तुरन्त रद्द किया जाना चाहिए। आप मज़दूरों की मदद करने के लिए तैयार नहीं हैं और उनके परिवार को कोई सुरक्षा कवच नहीं दे रहे हैं। अब आप उनके अधिकारों को कुचलने के लिए कानून बना रहे हो। मज़दूर देश निर्माता हैं; आपके बन्धक नहीं।’ विपक्ष के हमलों का जवाब देने के लिए खुद यूपी सरकार के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य आगे आये और उन्होंने सपा और कांग्रेस, दोनों को श्रमिक विरोधी पार्टी कह डाला। श्रम मंत्री मौर्य ने कहा कि इन दोनों पार्टिर्यों के बयान यह बताते हैं कि वो श्रमिकों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। क्योंकि जो श्रम अधिनियमों में संशोधन अध्यादेश आया है, वह इसलिए आया है कि आज मुख्यमंत्री योगी ने अन्य राज्यों में रह रहे सभी कामगारों, उन प्रवासी मज़दूरों को यूपी में लाने का फैसला किया है। यह संकल्प लिया गया कि अपने राज्य में ही इन सबकी सेवा ली जाएगी।

बदलाव पर मुहर का इंतज़ार

इस अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलना बाकी है। इस बिन्दु पर हो रही सियासत को एक तरफ रख दें, तो यह जानना भी ज़रूरी है कि अदालत में जब उत्तर प्रदेश सरकार को श्रम कानून में बदलाव वाले मामले पर स्थिति साफ करने को कहा गया, तब योगी सरकार ने क्या किया? 8 मई को श्रम कानूनों को लेकर अधिसूचना जारी की गयी थी। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी। 15 मई को सुनवाई हुई और अदालत ने यूपी सरकार को 18 मई को स्थिति साफ करने के लिए कहा। मगर सरकार ने 15 मई की शाम को ही एक नया आदेश जारी किया और पुराने आदेश को निरस्त कर दिया। यानी इस नये आदेश के अनुसार, उत्तर प्रदेश में फिर से एक मज़दूर में एक दिन में अधिकतम आठ घंटे और सप्ताह में 48 घंटे काम करने का पुराना नियम फिर से अमल में आ गया।

सफाई और मतभेद

इधर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कारखानों और कार्यालयों में काम करने की अवधि 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे करने को कहा। इसके मुताबिक, एक हफ्ते में अधिकतम 72 घंटे काम करने की इजाज़त होगी। लेकिन इसके लिए श्रमिकों को ओवरटाइम देना होगा। तालाबन्दी में श्रम कानूनों में बदलाव वाले मुद्दे पर राज्य सरकारें घिर गयी हैं। सम्भवत: इसीलिए हाल ही में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार को कहना पड़ा कि श्रम कानून में बदलाव का मतलब इसे पूरी तरह खत्म कर देना नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि सरकार श्रमिकों के हितों का संरक्षण करने को प्रतिबद्व है। राजीव कुमार ने कहा- ‘मेरे संज्ञान में अभी आया है कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने अपने रुख को कड़ा करते हुए राज्यों को स्पष्ट किया है कि वे श्रम कानूनों को खत्म नहीं कर सकते हैं। क्योंकि भारत आईएलओ में हस्ताक्षर करने वाले मुल्कों में है। यह सरकारी पक्ष है। लेकिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी ने ऐसे बदलाव की निन्दा की है। उनका मानना है कि ऐसे कदमों से अर्थ-व्यवस्था का भला नहीं होने वाला। श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर आरएसएस में भी अंदरूनी मतभेद सामने आ गये हैं। आरएसएस से जुड़ा भारतीय मज़दूर संघ भी ऐसे बदलाव के खिलाफ है।

सवालों के घेरे में सरकारें

भारतीय मज़दूर संघ का सवाल राज्य सरकारों से यह है कि राज्य सरकारें इस बात का जवाब दें कि अर्थ-व्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में मौज़ूदा श्रम कानून कैसे बाधा बन रहा है? केंद्रीय स्तर की 10 ट्रेड यूनियन ने साझा बयान में कहा कि वे कुछ राज्यों में प्रमुख श्रम कानूनों को निलंबित करने के खिलाफ आईएलओ में सम्पर्क करने पर विचार कर रहे हैं। इस साझा बयान में कहा गया है कि केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का मानना है कि यह कदम साथ जुडऩे की स्वतंत्रता के अधिकार (आईएलओ कन्वेंशन-87), सामूहिक सौदेबाज़ी के अधिकार (आईएलओ कन्वेंशन-98) और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत आठ घंटे के कार्यदिवस के मानदण्ड का उल्लघंन है। बयान में यह भी कहा गया कि लॉकडाउन की करीब दो माह की अवधि के कारण मज़दूर वर्ग पहले ही कई तरह की दिक्कतों से जूझ रहा है। इसके बाद राज्य सरकारों के द्वारा श्रम कानूनों से कम्पनियों को छूट देने का प्रतिगामी कदम अमानवीय है। 22 मई को देश के कई जगहों पर 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की तरफ से विरोध में प्रदर्शन, धरना आयोजित किये गये। सर्वोच्च अदालत में भी श्रम कानूनों के बदलावों को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ दायर की गयी हैं। इन याचिकाओं में श्रम कानूनों के कतिपय प्रावधानों को खत्म किये जाने के राज्यों के कदमों को चुनौती दी गयी है। जिन कानूनों को समाप्त किया गया है, वे श्रमिकों के काम करने के घंटे, वेतन, स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्बन्धी स्थितियों के बारे में है।

क्या है  श्रम कानून

भारत के संविधान में श्रम कानून के मुताबिक, किसी के श्रम के अधिकतम निर्धारित घंटे 8 हैं। इससे ज़्यादा समय काम लेने पर ओवर टाइम यानी अतिरिक्त काम का कम्पनियों अथवा संस्थानों को अतिरिक्त पैसा देना पड़ेगा, वह भी सामान्य भुगतान से दोगुना। इतना ही नहीं, इसके अंतर्गत साप्ताहिक और त्योहारों की छुट्टियाँ भी देनी पड़ेंगी और अगर छुट्टी में काम कराया गया, तो उसका भी दोगुना भुगतान वेतन के अतिरिक्त करना पड़ेगा। कोई कम्पनी या संस्थान अतिरिक्त काम भी श्रमिक की इच्छा होने पर ही ले सकता है।

वैसे श्रम कानून किसी राज्य द्वारा निॢमत उस कानून को कहते हैं, जो श्रमिकों, रोज़गार प्रदाताओं, ट्रेड यूनियनों तथा सरकार के बीच सम्बन्धों को पारिभाषित करता है। इसीलिए हर राज्य के श्रम कानून में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है, जैसा कि करों में होता है। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि श्रमिकों का शोषण करने की किसी राज्य अथवा राज्य में स्थापित कम्पनी/संथान को है। इसी तरह श्रम कानून के और भी नियम हैं, जिसमें हर वर्ष वेतन वृद्धि के साथ-साथ श्रमिकों को समय-सीमा और कार्य-कौशल के आधार पर स्थायी किये जाने का प्रावधान है।

कोविड-19 पर बेनकाब होता चीन और भारत का बढ़ता गौरव

कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के फैलने को लेकर चीन बेनकाब होता जा रहा है। अब तक उसकी अनेक हरकतों पर से पर्दे उठ रहे हैं; लेकिन वह अपने अडिय़ल स्वभाव के आगे कोई भी बात मानने को तैयार नहीं है। यह चौंकाने वाली खबर ज़रूर है। लेकिन चीन अब तक जिस सच को दुनिया छिपा रहा है, वह सच आने वाले समय में सार्वजनिक और साबित हो सकता है। बता दें कि हाल ही में चीन ने वुहान शहर, जहाँ से कोरोना वायरस फैला था; में स्थित लैब की वेबसाइट पर से वैज्ञानिकों के नाम हटा दिये थे। इससे पहले भी चीन ने कई ऐसे काम किये हैं, जिससे उसकी तरफ दुनिया भर की संदेह की नज़र उठनी लाज़िमी है। हाल ही में बीजिंग शहर, जहाँ चीनी सैनिकों का बड़ा अड्डा भी है; से आयी एक खबर में दावा किया गया है कि चीन में कोरोना वायरस की शुरुआत पिछले साल के अन्त यानी दिसंबर, 2019 में हुई थी। दावे में कहा गया है कि तबसे लेकर अब तक चीन में केवल 82 हज़ार 919 मामले ही सामने आये हैं, जिनमें से 4 हज़ार 633 लोगों की मौत हो चुकी है।

बता दें कि चीन सरकार ने अपने यहाँ कोरोना से होने वाली मौतों और संक्रमित लोगों के आँकड़े कभी भी सही से नहीं दिये। एक बार खबर आयी थी कि चीन में कोरोना वायरस फैलने के बाद से लगभग 82 लाख लोगों के मोबाइल फोन बन्द हो चुके हैं। बाद में इस खबर को फेक बताया गया। इसी प्रकार चीन ने आज तक कोरोना वायरस को लेकर कभी एक ठोस बात नहीं कही। आज पूरी दुनिया उसे संदेह की नज़रों से देख रही है। ऐसे में विश्लेषकों, डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को संदेह है कि चीन में कोरोना वायरस से मरने वालों और संक्रमितों की संख्या उसके द्वारा पेश किये जा रहे आधिकारिक आँकड़ों से बहुत ज़्यादा हो सकती है। अब आते हैं असली मुद्दे पर, दरअसल चीनी सेना की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ डिफेंस टेक्नोलॉजी ने कोरोना वायरस के मामलों पर एक डाटासेट तैयार किया है, जो मई के शुरुआत में लीक हो गया था। इस डाटा की डिटेल अमेरिकी अखबार फॉरेन पॉलिसी ने प्रकाशित किया था। इसमें कोरोना वायरस से चीन में हुई मौतों के साथ-साथ इस बात का भी ज़िक्र है कि बीजिंग द्वारा कैसे और कितनी चीनी आबादी पर कोरोना वायरस का डाटा एकत्र किया था। अब इस डाटा के आधार पर भी अमेरिका के साथ-साथ तमाम वैज्ञानिकों ने इस बात को भी अपनी खोज में शामिल कर लिया है। बताया जाता है कि यह डाटा नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ डिफेंस ऐंड टेक्नॉलजी से निकाला गया है, जो ऑनलाइन लीक जानकारी से मेल खाता है; जिसके कारण कोरोना वायरस को लेकर चीन पर संदेह गहराता जा रहा है। यह डाटासेट कोरोना वायरस पर रिसर्च कर रहे दुनिया भर के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के लिए एक बहुमूल्य जानकारी के रूप में काम कर सकता है।

डाटा में लाखों बार किया गया सुधार

चीन की तरफ संदेह की दृष्टि इसलिए भी उठती है, क्योंकि चीन द्वारा फरवरी की शुरुआत से लेकर अप्रैल के अन्त तक के इस डाटाबेस में दी गयी सूचनाओं में 6,40,000 बार सुधार किया गया है। इस डाटा में 230 शहरों से कोरोना वायरस के संक्रमण के आँकड़े लिये गये हैं। इतनी ही नहीं, 6,40,000 बार किये गये सुधार में चीन ने कुछ खास जगहों पर ही कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले यानी मरीज़ों की संख्या दिखाने का प्रयास किया है। इस डाटा में कोरोना से मरने वालों के अलावा स्वस्थ होने वाले लोगों की संख्या भी दी गयी है। हालाँकि यह साफ नहीं हो सका है कि यह डाटा कितना सही है और कितना गलत। वैज्ञानिक सूत्रों की मानें, तो इस बात का पता चीन के वुहान शहर की लैब, जहाँ से कोरोना वायरस लीक हुआ था; की जाँच और चीन के अस्पतालों के आँकड़े मिलने के बाद ही चल सकता है, जहाँ-जहाँ कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों का इलाज हुआ था।

इसके अलावा इन आँकड़ों की समीक्षा के लिए चीन के होटलों, रेस्तरां, रेस्टोरेंटों, बाज़ारों (खासकर सुपरमार्केटों और वुहान में स्थित जानवरों के बाज़ार), रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, कोरंटाइन सेंटरों, अपार्टमेंट, रेस्टोरेंट्स और स्कूलों की जाँच अति आवश्यक है।

डाटा एकत्र करने के सूत्र नहीं स्पष्ट

यहाँ मुश्किल गुत्थी यह है कि अभी तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि चीन की सेना की नेशनल यूनिवर्सिटी ने यह डाटा कहाँ-कहाँ से और कैसे एकत्र किया? क्योंकि इस बात को डाटा में गोपनीय रखा गया है। ऑनलाइन संस्करण के मुताबिक, ये आँकड़े चीन के राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग, स्वास्थ्य मंत्रालय, मीडिया रिपोट्र्स और अन्य स्रोतों से एकत्र किये गये हैं। चीन के चांगशा शहर में स्थित इस यूनिवर्सिटी का नेतृत्व केंद्रीय सैन्य आयोग करता है, जिस पर युद्ध नीतियाँ तैयार करने का संदेह पहले से ही रहा है। सवाल यह भी है कि जब मामला स्वास्थ्य से जुड़ा है, तो चीन की सेना इस मामले में इतनी रुचि क्यों ले रही है? और क्यों उसने सैन्य सम्बन्धी कार्यों को छोडक़र वह काम किया, जिसका उससे कहीं-से-कहीं तक लेना-देना है ही नहीं? क्योंकि यह काम पूरी तरह स्वास्थ्य मंत्रालय का है; रक्षा मंत्रालय का नहीं। इससे यह संदेह उठना स्वाभाविक है कि कोरोना वायरस कहीं चीन के जैविक युद्ध का हिस्सा तो नहीं? जैसा कि पूरी दुनिया कई बार इस सवाल को उठा चुकी है।

विश्वसनीय हो सकता है डाटा

क्योंकि चीन की सेना की कोरोना वायरस के संक्रमण से निपटने में बड़ी भूमिका रही है। इसलिए वहाँ की सेना पर सीधे-सीधे संदेह भी नहीं किया जा सकता। जब चीन में कोरोना वायरस फैला, तब वहाँ की सेना ने क्वारंटाइन सेंटर, ट्रांसपोर्ट सप्लाई, लोगों से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराने और मरीज़ों के लिए मदद में बड़ी भूमिका निभायी थी। इसलिए चीनी सेना की यूनिवर्सिटी द्वारा तैयार और इस्तेमाल किया गया डाटा विश्वसनीय माना जा सकता है। हालाँकि सुरक्षा कारणों की वजह से अमेरिकी अखबार ने इस डाटाबेस को पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया है। क्योंकि इस पर वैज्ञानिक और डॉक्टर गहन अध्ययन कर रहे हैं, ताकि डाटा उपलब्ध कराने के तरीकों का पता लगाने के साथ-साथ कोरोना वायरस के लीक होने का कोई सुराख मिल सके।

मौके को भुना सकता था भारत

जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस फैल रहा था, तब भारत के पास सुनहरा अवसर था कि वह इस समय को चीन की तरह अपनी आॢथक स्थिति सुधारने में कैश में भुना सकता था। इसका कारण यह भी है कि भारत में कोरोना वायरस काफी देरी से पैर पसार पाया था। यदि दिसंबर, 2019 में ही भारत ने सजगता बरतते हुए सभी हवाई अड्डों पर आने वाले विदेशियों और अपने नागरिकों को वहीं से सीधे अस्पताल पहुँचाया होता, तो यहाँ लॉकडाउन की ज़रूरत ही नहीं होती। और अगर ऐसा करना भी पड़ता, तो एकाध शहर में ही करना पड़ता; वह भी बहुत कम समय के लिए। इसके साथ-साथ भारत में सैनिटाइजर, पीपीई किट, मास्क, ग्लब्स और दवाओं का निर्माण करके पूरी दुनिया को इनका निर्यात किया जा सकता था। हालाँकि यह मौका अब भी भारत के पास है; लेकिन अब इसे करने में थोड़ी मुश्किल ज़रूर आयेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत दुनिया में चीन की अपेक्षा ज़्यादा निर्यात कर सकता था। इसके तीन कारण हैं- एक यह कि चीन से कोरोना वायरस फैला; दूसरा यह कि चीन से नकली किट आने की खबरों के चलते सभी देशों का उस पर से विश्वास और कम हुआ है और तीसरा यह कि सभी देश पहले से ही चीन के सामानों को प्रतिबन्धित कर रहे हैं। लेकिन भारत सरकार ने इस अनमोल मौके को गँवाकर अपनी आॢथक स्थिति ही कमज़ोर नहीं की है, बल्कि विश्व बाज़ार में अपना दबदबा बढ़ाने का एक सुनहरा मौका भी गँवा दिया है।

डब्ल्यूएचओ में बढ़ा भारत का कद

अमेरिका और अन्य कई देशों को भारत ने हाइड्रॉक्सी क्लोरीन दवा भेजकर अपना मान बढ़ाया है, वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में भी भारत का कद बढ़ा है। इसका कारण है डब्ल्यूएचओ के 34 सदस्यीय एग्जीक्यूटिव बोर्ड के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का चुना जाना। दुनिया भर में कोरोना वायरस जैसी महामारी फैलने के दौरान भारत के स्वास्थ्य मंत्री को सम्मानपूर्वक यह ज़िम्मेदारी मिलना बेहद महत्त्वपूर्ण और गौरव का विषय है। डॉ. हर्षवर्धन ने 22 मई को अपना पदभार सँभाल लिया है और आशा की जाती है कि वह भारत का मान और बढ़ाएँगे। डॉ. हर्षवर्धन को जापान के डॉ. हिरोकी नकतानी की जगह चुना गया है। क्षेत्रीय समूहों के बीच अध्यक्ष का पद एक वर्ष के लिए रोटेशन द्वारा आयोजित किया जाता है। विदित हो कि भारत के लिए विश्व स्वास्थ्य   संगठन के राष्ट्रीय कार्यालय का मुख्यालय दिल्ली में है। इस कार्यालय के कार्य क्षेत्र का वर्णन

इसकी कंट्री को-ऑपरेशन स्ट्रेटजी (सीसीएस) 2012-2017 में दर्ज है।

भारत की मुश्किलें

वैसे कहने के लिए भले ही भारत सरकार में स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी अध्यक्ष ज़रूर बनाया गया है; लेकिन दुनिया के सबसे बड़े इस स्वास्थ्य संगठन में उनकी कितनी चलेगी, यह कहना बहुत मुश्किल है। इसका कारण यह है कि डब्ल्यूएचओ को भले ही वैश्विक संगठन कहा और माना जाता है; लेकिन यह हमेशा से बड़े देशों के दबाव में काम करता रहा है। यह बात अब पूरी दुनिया को और अच्छी तरह से समझ में आ चुकी है कि कोरोना वायरस मामले में अमेरिका के चीन पर आरोपों और डब्ल्यूएचओ को धमकियों के बावजूद चीन इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन में किस तरह अपनी मर्ज़ी चलाता है। जैसा कि विदित है कि इस बात से ही नाराज़ अमेरिका ने डब्ल्यूएचओ से खुद को अलग कर लिया है, जिसका न तो डब्ल्यूएचओ पर कोई खास असर पड़ा है और न ही चीन पर। अब डब्ल्यूएचओ में चीन जैसे ताकतवर देश के साथ भारत किस तरह अपनी भूमिका निभाता है? यह देखना होगा। क्योंकि भारत इस डब्ल्यूएचओ को आगे बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका तभी निभा सकता है, जब चीन की घुड़कियों और दबावों में न आये। हालाँकि ऐसा करना भारत के लिए आसान नहीं होगा।

मौत का सीरप

दवा के नाम पर ज़हर देने वालों को इससे क्या सरोकार कि किसी का इकलौता बच्चा छिन जाए और ज़िन्दगी भर उसे अकेलेपन का दंश भोगना पड़े। घर का चिराग बुझ जाए और परिजनों को उसकी याद मौत के मुहाने तक ले जाए, इससे किसी लालची कारोबारी को क्या फर्क पड़ता है? उसका टर्नओवर हर साल बढ़ता जाए, यही उसकी सफलता है। तो फिर असफलता किसके हिस्से में आयी? उन 11 बच्चों के माता-पिता के हिस्से में, जिन्होंने अपने नौनिहाल खो दिये। अपने सामने तिल-तिलकर मरता देखने को विवश हो गये। मौत बच्चों को निगलती रही और प्रशासन उसे अज्ञात बीमारी मानता रहा।

लगभग एक माह के अंतराल में 11 बच्चों की मौत। यानी तीन दिन के अन्दर एक बच्चे की मौत। डेढ़ साल से चार साल के बच्चों की मौत की वजह किडनी फेल होना रहा। एक ही तरीके से हुई इन मौतों के बाद प्रशासन को लगा अज्ञात बीमारी नहीं, बल्कि उनकी सोच है। लगा, कहीं कुछ गड़बड़ है। जाँच हुई, तो सामने आया कि खाँसी-जुकाम की शिकायत होने पर शुरुआत में बच्चों को कोल्ड बेस्ट पीसी सीरप दी गयी थी।

 यह दवा हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर के कालाअंब की डिजिटल विजन नामक कम्पनी की बनी हुई थी। जिन बच्चों को यह दवा दी गयी, उनकी हालत ठीक होने की वजाय बिगड़ती चली गयी। नतीजतन बच्चों को लेकर चंडीगढ़, लुधियाना और अन्य स्थानों के अस्पतालों में जाना पड़ा; लेकिन वहाँ भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। ज़हरनुमा इस दवा के असर से कोई नहीं बच सका।

सीमा सुरक्षा बल के मदनलाल बताते हैं कि डेढ़ साल का बेटा श्रेयांस को खाँसी-जुकाम हुआ था। वह सीमा पर तैनात थे। लिहाज़ा उनकी पत्नी ही बच्चे की देखभाल कर रही थीं। स्थानीय डॉक्टर ने बच्चे को दिखाने पर दवा लिख दी। घर आने पर बच्चे को दवा दे दी और उम्मीद लगायी कि जल्द ठीक हो जाएगा। कुछ समय बाद बच्चे की तबीयत और बिगडऩे लगी। उसका मूत्र बन्द होने के साथ अन्य विकार होने लगे। पहले ऊधमपुर के अस्पताल में और फिर वहाँ से जम्मू भेज दिया गया। वहाँ भी हालत में सुधार न होने पर श्रेयांस को पीजीआई चंडीगढ़ रैफर कर दिया गया।

बड़ी मुश्किल से उन्हें (मदनलाल) बच्चे की खातिर छुट्टी मिली। पीजीआई पहुँचे, तो बेटे की हालत देखकर उनका दिल बैठ गया। आठ दिन उपचार के बाद श्रेयांस को बचाया नहीं जा सका। डॉक्टरों ने मौत की वजह किडनी फेल बताया। मदनलाल और उनके परिजनों ने इसे भाग्य की विडम्बना ही माना।

25 दिसंबर, 2019 को श्रेयांस ने दम तोड़ा था। मदनलाल अपने घर पहुँचे तो रामनगर क्षेत्र में दो दिन बाद 27 दिसंबर को तीन साल के बच्चे कनिष्क की मौत की खबर मिली। उसकी मौत की वजह भी श्रेयांस की ही तरह हुई थी। उसे भी खाँसी-जुकाम की शिकायत थी। दो दिन बाद 29 दिसंबर को लगभग एक साल की बच्ची जानवी और अगले दिन डेढ़ साल की बच्ची लक्ष्मी को मौत ने निगल लिया। छ: दिन में तीन बच्चों की मौतों, एक बीमारी, एक ही दवा के खाने के बाद और मौत की वजह भी एक! लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। स्वास्थ्य विभाग इसे अज्ञात बीमारी से होने वाली मौत मानता रहा। दु:ख की बात यह कि बच्चों की मौत का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। तीन दिन बाद नये साल में 2 जनवरी को चार साल के अमित को भी नहीं बचाया जा सका। अगले दिन तीन साल की सुरभि, दो साल के अनिरुद्ध, एक साल का पंकू, डेढ़ साल का अक्षु, एक वर्षीय नीजू और दो वर्षीय जानू खाँसी-जुकाम जैसी सामान्य बीमारी के आगे हार गये।

कुल मिलाकर करीब एक माह में 11 मौतों ने रामनगर के लोगों में दहशत जैसा माहौल पैदा हो गया। स्वास्थ्य विभाग के अलावा शासन-प्रशासन में भी हडक़म्प-सा मच गया। मौत की एक ही वजह सामने आने पर दवा का पता लगाया गया। सभी बच्चों को उसी डिजिटल विजन नामक कम्पनी की दवा दी गयी थी। उसे देने के बाद ही बच्चों की तबीयत बिगड़ी। फिर दवा को जाँच के लिए चंडीगढ़ की रीजनल ड्रग टेस्टिंग लेबोरेटरी भेजा गया। जाँच में खुलासा हुआ कि कोल्ड बेस्ट पीसी सीरप मानक पर खरी नहीं उतरी और सेंपल फेल हो गया। दवा में डाई एथिलीन ग्लायकोल की मात्रा 34.5 फीसदी पायी गयी, जो तय मात्रा से ज़्यादा थी। इससे यह दवा ज़हर का काम कर रही थी।

दवा कम्पनी ने इस बैच की न केवल जम्मू, बल्कि हरियाणा में भी आपूर्ति की थी। शिकायत के बाद हरियाणा, जम्मू और हिमाचल के ड्रग कंट्रोलरों ने इसका संज्ञान लिया। अंबाला में दो दवा विक्रेताओं के यहाँ छापे मारे और सारा स्टाक ज़ब्त कर लिया। यह कार्रवाई दवा के जानलेवा असर के बाद हुई, उससे पहले यह दवा न जाने कितने मेडिकल स्टोरों के ज़रिये वहाँ से खाँसी-जुकाम पीडि़तों के पास पहुँच गयी होगी।

जम्मू की ड्रग कंट्रोलर लोतिका खजूरिया कहती हैं कि मामला 11 बच्चों की मौत से जुड़ा था। जाँच रिपोर्ट आ चुकी थी। लिहाज़ा प्राथमिकी दर्ज करा दी गयी। बच्चों की मौत का मामला गम्भीर है, आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।

चँूकि डिजिटल विजन कम्पनी कालाअंब (हिमाचल) में है। ड्रग कंट्रोलर नवनीत मरवाह की शिकायत पर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कर कार्रवाई शुरू कर दी है। कम्पनी का लाइलेंस निलंबित और अगले आदेश तक वहाँ किसी तरह के प्रोडक्शन पर रोक लगा दी गयी है। यह मामला दो राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश जम्मू से जुड़ा है। हैरानी की बात यह कि अभी तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। दवा के नाम पर ज़हर बनाने वाले और उन्हें बेचने वाले कानून के सहारे बच निकलने के लिए प्रयासरत हैं। अपने नौनिहालों को खो चुके परिजन शासन-प्रशासन से व्यथित हैं। कोई उन्हें सांत्वना देने तक नहीं आया।

इन 11 बच्चों में ज़्यादातर परिजन आॢथक रूप से कमज़ोर हैं। बच्चों की जान बचाने के लिए जितना अपने बूते में था, खर्च किया। किसी ने इधर-उधर से पैसा जुटाया, तो किसी ने काफी कुछ बेच-बाचकर बच्चे को बचाने के लिए खर्च कर दिया। बावजूद इसके किसी भी मासूम की जान नहीं बचायी जा सकी। किसी राजनीतिक दल के नुमाइंदे या शासन-प्रशासन के किसी अधिकारी ने उनकी सुध नहीं ली। मामला भी साफ हो गया कि किसी भी बच्चों की मौत बीमारी से नहीं, बल्कि ज़हरनुमा दवाई से हुई।

रामनगर इलाके में बेस्ट कोल्ड सीरप नामक दवा बहुतायत में मिलती है। स्थानीय डॉक्टर ज़्यादातर मामलों में बच्चों में खाँसी-जुकाम होने पर यही दवा लिखते हैं। इसकी वजह कम्पनी का नेटवर्क हो सकता है। खाँसी और जुकाम जैसी बीमारी में अक्सर लोग बिना डॉक्टर के दवा विक्रेताओं से ही दवा की माँग करते हैं। रामनगर क्षेत्र में जमवाल मेडिकल हाल और जम्मू में जंडियाल फार्मा पर दवा का स्टाक बरामद हुआ है। शुरुआती जाँच में यहीं से कडिय़ाँ आगे तक जुड़ती गयीं और आिखरी कड़ी निर्माता डिजिटल विजन के तौर पर जुड़ी। इन दोनों पर भी प्राथमिकी दर्ज हुई है। जिन धाराओं के तहत इन पर मामला दर्ज हुआ है, उसमें 10 साल की सज़ा तक का प्रावधान है।

जम्मू की जंडियाला फार्मा का काम होलसेल का है, जहाँ से विभिन्न इलाकों में इस दवा की सप्लाई होती है। हरियाणा में दवा के बड़े विक्रेताओं में अंबाला छावनी की मैसर्स ओरिजन फार्मा औरशिवा मेडिकल एजेंसी है। दवा के नमूने फेल होने के बाद हरियाणा ड्रग कंट्रोलर के आदेश पर दोनों स्थानों पर छापे मारकर मौज़ूदा स्टाक ज़ब्त किया गया। कितना स्टाक मिला था और कितना आगे सप्लाई कर दिया, इसका खुलासा पूछताछ में होगा। गम्भीर बात यह कि इस दवा के प्रयोग खूब हुआ होगा। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। जो दवा रामनगर में ज़हर का काम कर रही थी, उसने इस्तेमाल करने पर वही किया होगा। ऐसा कोई मामला अब तक प्रकाश में नहीं आया है। विस्तृत जाँच में इसका खुलासा हो सकता है, इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता।

अपने बच्चे को खो चुके सीमा सुरक्षा बल के हवलदार मदनलाल इस मुद्दे पर बातचीत में गमगीन हो जाते हैं। उन्हें श्रेयांस की याद आने लगती है। ज़हरनुमा दवा ने सबसे पहले इनके बच्चे को ही अपना शिकार बनाया था। वह भरे गले से कहते हैं कि हम सीमा की सुरक्षा करते हैं कि ताकि देश के लोग सुरक्षित रह सकें। लेकिन हमारे बच्चों की सुरक्षा कौन करेगा? मानकों पर खरी न उतरने वाली दवा धड़ल्ले से बिक रही है। ज़्यादा कमीशन के लालच में स्थानीय छोटे-मोटे डॉक्टर इसे लिखकर दे रहे हैं। हम लोग डॉक्टर के पास इस उम्मीद से जाते हैं कि दवा से जल्द ठीक हो जाएँगे। लेकिन क्या पता होता है कि जो दवा हम ला रहे हैं, वही मौत की दवा है। बच्चों की मौत के ज़िम्मेदार लोगों को कड़ा दण्ड मिलना चाहिए, ताकि फिर कोई श्रेयांस, लक्ष्मी या सुरभि असमय मौत के शिकार हो जाएँ।

ऊमधपुर ज़िले के रामनगर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खस्ता है। दूरदराज के गाँवों में तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ न के बराबर हैं। यहाँ के कई गाँव तो सडक़ों से भी नहीं जुड़े हैं, जबकि कई गाँव आज के दौर में बिजली से भी वंचित है। रामनगर के अस्पताल में उनकी पहुँच इतनी आसान नहीं दिखती। हालत यह कि कई बार बीमार को परिजन चारपाई पर ही लाने पर विवश हैं। रामनगर के अस्पताल में कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है। ऐसे में मरीज़ों को ज़िला अस्पताल ऊधमपुर रैफर करना पड़ता है। यहाँ से आवागमन के भरपूर साधन भी नहीं हैं। बावजूद इसके अगर लोग किसी तरह वहाँ पहुँचते भी हैं, तो देर हो चुकी होती है। कहा जा सकता है कि जम्मू सम्भाग का यह इलाका स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज़ से बेहद पिछड़ा हुआ है।

स्वास्थ्य सुविधाओं की जो हालत जम्मू-कश्मीर के राज्य रहते थी, कमोबेश वैसी ही आज भी है। धारा-370 और अनुच्छेद 35-ए के हटने के बाद भी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की तरह केंद्र शासित प्रदेश हो गये। केंद्र ने तीनों क्षेत्र को हर लिहाज़ से पहले से ज़्यादा सुविधाएँ देने का भरोसा दिलाया। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हालात जस-के-तस हैं। रामनगर के अस्पताल में भी आबादी को देखते हुए समुचित व्यवस्था नहीं है। इसे देखते हुए लोग अपने गाँवों में स्थानीय स्तर पर डॉक्टरों के पास जाने के लिए मजबूर हैं।

रामनगर में 11 बच्चों की मौत का मामला अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय बाल सुरक्षा आयोग में पहुँच चुका है। परिजनों को न्याय और आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश चंद्र खजूरिया ने पहल की है। 3 अप्रैल को उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को विस्तृत ब्यौरा भेजकर कार्रवाई करने की माँग की थी। आयोग ने उनकी माँग को गम्भीरता से लिया है। 13 मई को उन्हें एक तरह से याचिका के मंज़ूर होने की सूचना दी है।

खजूरिया न केवल आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई चाहते हैं, बल्कि वे मृतक बच्चों के परिजनों को आॢथक राहत की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रभावित परिजनों में कई आॢथक तौर पर बेहद कमज़ोर हैं। वे कोई रहम का पात्र नहीं बनना चाहते, बल्कि न्याय चाहते हैं। बच्चे बीमारी से मरते तो बात अलग होती। लेकिन उनकी मौत की वजह मानकों पर खरी न उतरने वाली दवा थी। ऐसी दवा बाज़ार में कैसे बिक रही थी? इसे रोकने का दायित्व किस पर था? इस बात की तफतीश की जानी चाहिए और दोषियों को दण्ड मिलना चाहिए।

खजूरिया व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं। यह दुष्चक्र मिलीभगत के बगैर नहीं होता है। दवा निर्माता कम्पनी के मालिक रसूखदार हैं। उनका हर क्षेत्र में प्रभाव है। जबकि पीडि़त पक्ष की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। किसी-न-किसी को तो आगे आना ही होगा। वह कहते हैं कि एनआरसी मुद्दे पर दिल्ली में हुए दंगे में आईबी के अंकित शर्मा नामक एक कर्मचारी की मौत पर दिल्ली सरकार ने एक करोड़ रुपये देने की घोषणा की है। यह कदम स्वागत योग्य है। लेकिन रामनगर के प्रभावित परिजनों को ऐसी मदद के लिए केंद्र सरकार ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया?

उनका कहना है कि आॢथक इमदाद से बच्चे वापस नहीं आ सकते। लेकिन जिन परिवारों की ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल से गुज़र रही है, ऐसे में उन्हें कुछ तो राहत मिलेगी। रही न्याय की बात, तो उसके लिए वह हरसम्भव प्रयास करेंगे। खजूरिया अपने स्तर पर गाँव-गाँव जाकर परिजनों से मिल रहे हैं। वह पूछते हैं कि परिजनों को हिम्मत दिलाने के लिए कोई मंत्री, कोई नेता, कोई राजनीतिक दल का प्रतिनिधि या प्रशासन का अफसर नहीं पहुँचा। क्यों? आिखर यह भेदभाव क्यों? अब जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है। यहाँ की पूरी ज़िम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। गृहमंत्री अमित शाह को इस बाबत कदम उठाने की ज़रूरत है। देखना होगा कि केंद्र सरकार कब पहल करती है।

हिमाचल प्रदेश राज्य विधानसभा में भी यह मामला उठ चुका है। दवा कम्पनी राज्य में है। लिहाज़ा सरकार की कड़ी कार्रवाई की दरकार है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विधानसभा में् कह चुके हैं कि आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने बेस्ट कोल्ड सीरप दवा का उल्लेख करते हुए कहा कि यह दवा जाँच में मानकों पर खरी नहीं उतरी है। यह कम्पनी की बहुत बड़ी खामी है। इस प्रकरण में कड़ी कार्रवाई होगी। यह राज्य की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। लिहाज़ा किसी तरह की ढील नहीं बरती जाएगी। जाँच रिपोर्ट आते ही शीर्ष अफसरों को तुरन्त प्रभाव से कार्रवाई के निर्देश दिये गये।

निर्माता कम्पनी का कारोबार

हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर के कालाअंब में स्थित दवा कम्पनी डिजिटल विजन का कारोबार देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी है। वर्ष 2009 में स्थापित कम्पनी का टर्नओवर 45 करोड़ के आसपास है। यहाँ 250 से ज़्यादा कर्मचारी काम करते हैं। कम्पनी का स्वामित्व पुरषोत्तम गोयल और कोनिक गोयल का है। कम्पनी का कारोबार अफगानिस्तान, श्रीलंका, नाइजीरिया, सूडान, घाना, कांगो, म्यांमार, नेपाल, कंबोडिया, वियतनाम, आयरलैंड और स्पेन तक फैला है।

आयरलैंड में तो कम्पनी का पंजीकृत दफ्तर भी है। कुल 165 से ज़्यादा दवाइयों का उत्पादन यहाँ होता है। टैबलेट-कैप्सूल से लेकर इंजेक्शन तक यहाँ तैयार होते हैं। सवाल यह है कि दवाइयाँ जान बचाने के लिए बनायी जाती हैं। इसलिए उनका मानकों पर खरा उतरना ज़रूरी होता है। रामनगर में बच्चों की मौत के लिए डिजिटल विजन कम्पनी ही प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार है। हिमाचल के बद्दी, बरोटीवाल और कालाअंब क्षेत्र दवा उद्योग का गढ़ हैं। यहाँ साढ़े चार सौ से ज़्यादा इकाइयाँ हैं। दवा कम्पनियों को सरकार की ओर के विशेष छूट दी जाती है।

संवेदना जताने तो आते

सांसद डॉ. जितेंद्र सिंह भी रामनगर प्रकरण में प्रभावितों के पास नहीं पहुँचे। वे केंद्र में राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हैं। वे प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े हुए हैं। डवलपमेंट, नार्थ-ईस्टर्न रीजन के अलावा एटोमिक एनर्जी और स्पेस जैसे अहम विभाग उनके पास है। वे डॉक्टर होने के अलावा कई पुस्तकें भी लिख चुके हैं। मामला उनके संज्ञान में भी निश्चित तौर पर होगा। लेकिन उन्होंने प्रभावित परिजनों से मिलना ज़्यादा ज़रूरी नहीं समझा। यह मामला देश में लॉकडाउन से पहले का है। इसलिए किसी तरह के तर्क का सहारा नहीं लिया जा सकता। ये मौतें स्वाभाविक नहीं थीं और फिर पीडि़त परिवार आॢथक रूप से ज़्यादा मज़बूत भी नहीं हैं। इनमें देश की सीमा पर रक्षा करने वाले से लेकर शिक्षक आदि तक हैं। ऐसी संकट की घड़ी में क्षेत्र के सांसद की तरफ पीडि़तों का ध्यान लगा रहा होगा, पर वह नहीं जा सके। न केवल उन्हें जाकर पीडि़त परिवारों का दु:ख साझा करना चाहिए था, बल्कि उन्हें यह भरोसा भी दिलाना था कि सरकार उनके साथ खड़ी है। जनता के प्रतिनिधियों को इतना संदेवनशील तो होना ही चाहिए कि अपनी जनता के दु:ख-दर्द में शामिल हो।

इरादे बुलन्द

रामनगर प्रकरण में सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश चंद्र खजूरिया का विशेष योगदान है। खजूरिया राज्य सरकार की अधिकृत सिटीजन एडवाइजरी समिति के सदस्य भी रह चुके हैं। देशहित से जुड़े मुद्दों और आम लोगों के इंसाफ के लिए वह आवाज़ बुलन्द करते रहे हैं। वे हर पीडि़त परिवार को जानते हैं, उनके गाँवों तक पहुँच चुके हैं। हर पीडि़त सदस्य उन्हें जानता है, उन पर भरोसा जताता है। जाँच रिपोर्ट से लेकर अन्य दस्तावेज़ उनके पास हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार और राष्ट्रीय बाल सुरक्षा आयोग तक वह पहुँच गये हैं। उनकी पहल पर जल्द ही कार्रवाई होने की उम्मीद है। मामला बड़ा है। जम्मू के अलावा यह हरियाणा और हिमाचल से जुड़ा है। इसके लिए काफी भागदौड़ भी करनी पड़ती है। वह कहते हैं कि थककर बैठने वालों में वे नहीं है। जिनके बच्चे ज़हरीली दवा की वजह से मौत के शिकार हो गये, वह उनके साथ पहले दिन से खड़े हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी ही रहेगा।

शेखावाटी के सुर्खाब

सहज ही विश्वास करना मुश्किल है कि प्रख्यात उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला कलकत्ता में जूट की दलाली करते हुए शिखर पर पहुँचे थे। पीछे मुडक़र देखें, तो यह भारत में सबसे मुश्किल औद्योगिक रोमांस था। यह कोई मिथ्या वृतांत नहीं है, बल्कि एक ऐसी कहानी है, जो उम्मीदों के साथ खेलने की ज़िद से जुड़ी हुई है। उनकी प्रगति की दास्तान दुरूह परिस्थितियों में अपने लक्ष्य पर संधान की एकाग्रता को सामने लाती है। इन्हें बँधे-बँधाये रास्तों की बजाय नयी पगडंडियों ने ज़्यादा उत्साहित किया। उनका संघर्ष ज़िद की धुरी पर टिका था। शूरवीर शेखाजी की धरती शेखावाटी ने घनश्याम दास बिड़ला सरीखे अनेक नायाब नगीने दिये, जिनमें ऊर्जा थी; युक्तियाँ थीं और थी दूरदृष्टि। इन्होंने अपनी जड़ों को नहीं भुलाया। रेतीले टीबों (टीलों) को भी नहीं भुलाया, जिनकी छत्रछाया में उनका बचपन बीता। इन नगीनों ने अपने महिमा मण्डन की अपेक्षा अपनी धरती का महिमा मण्डन किया।

ये ठेठ कारोबारी नहीं थे, बल्कि सामाजिक सरोकारों के संवाहक भी थे। इन्होंने सामाजिक और औद्योगिक प्रगति का ऐसा पहिया चलाया, जो आज भी अपनी रफ्तार की धार पर टिका हुआ है। औद्योगिक हलकों में नामवर ये लोग सत्ता सम्बन्धों में भी शिरोमणी बने और आॢथक तथा संस्कृति के मोर्चो पर भी एक नयी धारा का सूत्रपात करने वाले भी। इन्होंने साबित कर दिखाया कि पूँजीवाद की धरती पर भी सामाजिक आदर्शों के दरख्त उगाये जा सकते हैं। पिलानी में श्रेष्ठतम शैक्षिक संस्थान की पौध रोपी, तो उद्देश्य स्पष्ट था कि भविष्य में उद्योगों को हुनरमंदों का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। इन्होंने गाँवों, कस्बों में पूरी तरह शैक्षिक संस्थानों की फसल लहलहा दी। जयपुरिया आई हॉस्पिटल सरीखे ढेरों अस्पताल इन उद्योगपतियों के स्वास्थ्य सेवा के प्रति समर्पण की तस्दीक करते हैं। उद्योगों की इबारत चाहे इन्होंने मुम्बई में गढ़ी अथवा कलकत्ता में, लेकिन इन्होंने क्षेत्र के लोगों के लिए रोज़गार सृजन का कोई मौका नहीं छोड़ा। इनके प्रबन्धन का सीधा सरोकार नैतिकता और माटी के कर्ज़ से जुड़ा रहा। यही वजह रही कि इन धन्नासेठों ने अपनी जन्म भूमि में अपने दायित्वों की  प्रतिध्वनि को यथावत बनाये रखा। शेखावाटी आज अगर शैक्षिक संस्थानों से सरसब्ज़ है, तो इसलिए कि दायित्वों को भूलने की तिजारत इन्होंने नहीं की और पूरी लय के साथ सक्रिय बने रहे। रचनात्मकता के आयुधों से लदे-फँदे इन शिखर पुरुषों ने हर जगह, हर मौके पर खास मकाम बनाया। इनके पास गर्व करने को बहुत कुछ था, किन्तु गर्वीली भाव-भंगिमा को इन्होंने अपने पास तक फटकने नहीं दिया। इनका संघर्ष प्रतिरोधों के इतिहास में अपने आप में अपवाद था। इन औद्योगिक महाशक्तियों ने जो इतिहास रचा, उसकी प्रेरणा और प्रतिध्वनि इन्हें विरासत में नहीं मिली, बल्कि इसे अपनी रचनात्मक क्षमता से अॢजत किया; सहेजा और सींचा। इन कहानियों को समझने के लिए हमें संचित ऊर्जा के स्रोत को टटोलना होगा। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आॢथक शक्ति बनने की आकांक्षा रखने वाले ये महाबली शायद ही किसी अग्नि परीक्षा गुज़रने में पीछे रहे होंगे। यह असाधारण पड़ताल इसका समीचीन लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है।

उद्योगों के सरताज राहुल बजाज 

शेखावाटी के कीॢत-कलशों का इतिहास बाँचने से पहले राहुल बजाज के वाणिज्य व्यवहार को समझ लेना युक्तिसंगत होगा। शेखावाटी के महाबली सुदूर प्रांतों में जाकर व्यावसायिक इतिहास गढऩे में ही नहीं लगे रहे। अपितु उन्होंने आधुनिक भारत की राजनीति को भी प्रभावित किया। स्वातंत्र्योत्तर भारत में उस दौर की आॢथक और व्यावसायिक स्थितियों से तालमेल बनाते हुए जिस तरह से राष्ट्रधर्म का निर्वाह किया, उनमें जमनालाल बजाज का नाम हमेशा सुॢखयों में रहेगा। आज उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे राहुल बजाज। राहुल आज बेशक अलग परिस्थितियों में नायक बने हैं। लेकिन केवल पूँजीवादी विकास की अन्धी दौड़ में शामिल रहने वाले रेसर वह कभी नहीं रहे। महात्मा गाँधी जमनालाल बजाज को पुत्रवत् मानते थे। राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति गहन अनुराग ने ही उन्हें राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के गठन के लिए प्रेरित किया। खादी और ग्रामोद्योग के प्रति उनकी गहन निष्ठा रही। गो-संवद्र्धन के प्रति उनकी आस्था इन्हीं शब्दों में समझी जा सकती है- ‘अगर हमें गाय को जीवित रखना हैं, तो उसकी सेवा में प्राण खोने का संकल्प ले लेना चाहिए।’

जमनालाल बजाज ने वर्ष 1931 में जयपुर राज्य प्रजामंडल की भी स्थापना की। पद लोलुपता से दूर बजाज ने अपनी पत्नी को लिखे गये पत्र में अपनी भावना प्रकट करते हुए कहा- ‘मेरी संतानें मेरे कारण कोई पद अथवा प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करें।’

राहुल बजाज जमनालाल बजाज के पोत्र हैं। हॉवर्ड यूनिवॢसटी से शिक्षित राहुल बजाज ने देश की सबसे बड़ी कम्पनी बजाज ग्रुप की स्थापना की। भारत के राष्ट्रपति ने वर्ष 2017 में उन्हें लाइफ टाइम अवॉर्ड से सम्मानित किया। अपनी व्यावसायिक ज़रूरतों और व्यस्तताओं में सिमटने की बजाय राहुल बजाज ने कल्याणकारी गतिविधियों को जीवन मंत्र बना लिया। संस्कार और सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता के मद्देनज़र उन्होंने 100 करोड़ रुपये की राशि का निवेश करते हुए विभिन्न ट्रस्ट बनाये, ताकि जनकल्याण की विभिन्न योजनाओं को आकार दिया जा सके। लक्ष्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को उनका जुनून ही कहा जाना चाहिए कि उनकी छवि सतत् प्रवाहमान उदार उद्योगपति की बन सकी।

शिक्षा को दक्षता और प्रवीणता में पिरोये रखने के लिए अपने दादा द्वारा वर्धा में स्थापित शिक्षा मण्डल के संरक्षण में दो कॉमर्स कॉलेज और एक साइंस कॉलेज की स्थापना की। वर्धा में स्थापित कृषि विश्वविद्यालय आज उत्कृष्टता के पायदान पर माना जाता है। कौशल विकास की सार्थकता को प्रमाणित करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे तीन औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र अपनी कहानी खुद कह देते हैं। महिला शिक्षा के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने जानकी देवी बजाज की स्मृति में अनेक कॉलेज खुलवाये हैं।

शैक्षिक संस्थाओं के गठन को लेकर बजाज केवल उद्योगपति नहीं रह जाते अपितु एक सामाजिक सरोकारी व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। जानकी देवी बजाज ग्राम विकसित संस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला शिक्षा की अलख जगाने का काम बखूबी किया। बजाज शैक्षिक संवद्र्धन के साथ स्वास्थ्य के प्रति भी समान रूप से सजग रहे। बजाज समूह द्वारा औरंगाबाद में निर्मित कमलनयन बजाज अस्पताल चिकित्सीय सुविधाओं की दृष्टि से देश में अव्वल माना जाता है। इस संस्था के माध्यम से जल संरक्षण, कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी बखूबी काम किया जा रहा है।

स्टील किंग लक्ष्मी मित्तल  

दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में शुमार किये जाने वाले लक्ष्मी प्रकाश मित्तल चुरू ज़िले के राजगढ़ कस्बे के रहने वाले हैं। मित्तल विश्व की सबसे बड़ी स्टील उत्पादन कम्पनी आर्सेलर के सीईओ हैं। खेल और शैक्षिक क्षेत्र के बरअक्स उनकी उपलब्धियाँ अद्वितीय मानी जाएँगी। राजस्थान सरकार के साथ भागीदारी में जयपुर में एलएनएम इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉरमेशन एंड टेक्नोलॉजी की स्थापना एक दुर्लभ वृतांत की रचना की तरह माना जाएगा। उन्होंने शैक्षणिक क्षेत्र में मील का पत्थर गिने जाने वाले भारतीय विद्या भवन की भी नींव रखी। भारतीय एथलीटों के उत्साहवद्र्धन के लिए 9 अरब के चैम्पियनशिप ट्रस्ट की स्थापना उनके खेलों के प्रति आवेग की तस्दीक करती है। लक्ष्मी मित्तल ने कोविड-19 के लिए पीएम केयर्स फण्ड में 100 करोड़ रुपये का अनुदान भी दिया है।

लेक्टो वेजीटेरियन मित्तल की जीवन शैली उनकी शिख्सयत के नये पहलू से परिचित कराती है। लंदन स्थित केंङ्क्षसग्टन पैलेस गार्डन में उनके आवास ताज मित्तल में ताजमहल के निर्माण में उपयोग में लाये गये संगमरमर का उपयोग किया गया। दिल्ली में अब्दुल कलाम रोड पर भी उनका आवास है। इसकी कीमत 300 करोड़ बतायी जाती है। मित्तल विश्व के चौथे सबसे अमीर कारोबारी माने जाते हैं। उनकी पुत्री वनिशा मित्तल के विवाह को सबसे महँगा वैवाहिक समारोह माना जाता है।

लक्ष्मी मित्तल पहले शख्स हैं, जो 2005 के दौरान फोब्र्स की रेटिंग में विश्व में तीसरे सर्वाधिक अमीर व्यक्ति शुमार किये गये। वर्ष 2007 में मित्तल यूरोपीय देशों की गणना में सबसे प्रमुख भारतीय अमीर व्यक्ति माने गये। वर्ष 2015 में फोब्र्स की गणना में उन्हें सर्वाधिक शक्तिशाली शिख्सयत माना गया। विश्व स्टील एसोसिएशन में कार्यकारिणी सदस्य रहे मित्तल क्लेवरलेक क्लीनिक के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में भी शामिल रहे। वर्ष 2019 में फोब्र्स ने उन्हें भारत के सर्वाधिक अमीर व्यक्तियों की पंक्ति में रखा। पद्म विभूषण से सम्मानित लक्ष्मी मित्तल ने देश के स्टील उत्पादन बाज़ार में स्टील शीट्स उत्पादन क्षेत्र पर कब्ज़ा करके इस क्षेत्र में नयी क्रान्ति की शुरुआत कर दी। स्टील किंग माने जाने वाले लक्ष्मी मित्तल का आॢथक साम्राज्य लगभग 18.6 बिलियन यानी 1,860 करोड़ रुपये का है। ऊषा मित्तल से विवाहित लक्ष्मी मित्तल के दो संतानें हैं- बेटी वनिशा मित्तल और बेटा आदित्य मित्तल।

जिंक किंग अनिल अग्रवाल

जिंक कारोबार की बादशाहत से परे हटकर अनिल अग्रवाल की शिख्सयत के अन्य पहलुओं की पड़ताल करें, तो समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के साथ पारदर्शी विचारों ने उन्हें एक बेहतरीन कारोबारी के साथ-साथ एक सामाजिक पुरुष के साँचे में भी ढाल दिया। मूलरूप से शेखावाटी के रींगस कस्बे के रहने वाले अनिल अग्रवाल के भीतरी प्रवाह ने उन्हें सामाजिक सरोकारों से भी जोड़े रखा। अपनी कम्पनी वेदांता फाउण्डेशन के साथ केंद्र सरकार की साझेदारी में आँगनबाड़ी की तर्ज पर अत्याधुनिक ‘नंदघर’ को जन्म दिया। कारोबार की पूर्णत: को वह व्यापक कल्याण की दिशा में प्रेरित होने पर ही मानते हैं। कॉरपोरेट शिख्सयत के रूप में मित्तल कहते हैं- ‘दर्प की अपेक्षा सामाजिक पेरोकार बनना अधिक महत्त्वपूर्ण है।’

व्यावसायिक ऊँचाइयाँ छूने के साथ सामाजिक दायित्वों का आकर्षण उन्हें बराबर खींचता रहा। उन्होंने अस्पताल और शैक्षणिक संस्थानों को खोलने केे अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण  पर 49.0 मिलियन की भारी-भरकम राशि खर्च की। व्यावसायिक व्यक्ति की स्वाभावगत मर्यादाओं से अलग हटकर अग्रवाल ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, बाल कल्याण कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने तथा शैक्षणिक गतिविधियों को सम्बल देने में भी पर्याप्त रुचि दिखायी। उदारता के लिए बहुचॢचत रहे अग्रवाल अब तक 1796 करोड़ विभिन्न संस्थाओं को अनुदान दे चुके हैं।  कोविड-19 के पीएम केयर्स फण्ड में 101 करोड़ रुपये दान कर चुके अग्रवाल ने 100 करोड़ और देने की घोषणा की है।

अग्रवाल की रिसोर्सेज लिमिटेड खनिज के क्षेत्र में वैश्विक कम्पनी है। इसका मुख्यालय लंदन में है। वेदांता ने उड़ीसा और पंजाब में अपने पॉवर स्टेशन भी विकसित कर रखे हैं। खनिज के क्षेत्र में वेदांता को भारत की सबसे बड़ी कम्पनी होने का श्रेय प्राप्त है। वेदांता लंदन स्टॉक एक्सचेंज की अनुसूची में भी दर्ज है।

कारोबारी सिंघम कुमार मंगलम बिरला

शेखावाटी के पिलानी कस्बे के रहने वाले कुमार मंगलम बिरला देश के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में शुमार किये जाते हैं। कोविड-19 में पीएम केयर्स फण्ड में 500 करोड़ की आॢथक मदद दे चुके कुमार मंगलम महाराष्ट्र सरकार को कोरोना मरीज़ों को क्वारंटाइन रखने के लिए अपना एक अस्पताल भी दे चुके हैं।

कुमार मंगलम का प्रतिष्ठान आदित्य बिरला ग्रुप कॉर्बन, रसायन वस्त्र, बैंक बीमा तथा अलोह धातुओं सहित अनेक कारोबारों से जुड़ा हुआ है। 28 साल की नाकाफी उम्र में आदित्य बिरला ग्रुप के चेयनमैन बन जाने वाले कुमार मंगलम 1995 में कम्पनी का टर्न ओवर दो खरब तक पहुँचा चुके थे। जबकि आज इस कम्पनी का टर्न ओवर 48.3 खरब पर पहुँच चुका है। उनकी गिनती व्यावसायिक क्षेत्र के शिखर पुरुषों में होती है। कुमार मंगलम बिरला दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के चेयरमैन होने के अलावा बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस संस्थान के चांसलर भी हैं। नीरजा बिरला से विवाहित कुमार मंगलम को ‘बिजनेस ऑर्डर अवॉर्ड, ग्लोबल लीडिरशिप अवॉर्ड से भी नवाज़ा जा चुका है। न्यूज चैनल एनडीटीवी भी इन्हें प्रॉफिट बिजनेस लीडरशिप अवॉर्ड से अलंकृत कर चुका है। कुमार मंगलम प्रखर शिक्षा शास्त्री भी हैं। लंदन बिजनेस स्कूल द्वारा इन्हें मानद सदस्यता प्रदान की जा चुकी है।

जुनूनी शिख्सयत अजय पीरामल

ऊर्जावान शिख्सयत किसी भी क्षेत्र में असाधारण बुलंदियों पर पहुँच सकती है। शेखावाटी में बगड़ कस्बे के अजय पीरामल ऐसी ही जुनूनी शिख्सयत हैं। 22 साल की नाकाफी उम्र में ही उन्होंने अपना पैतृक व्यवसाय सँभाल लिया था और पीरामल औद्योगिक समूह के चेयरमैन बन गये। आज विश्व के 30 देशों में इस उद्योग की उपस्थिति अजय पीरामल की व्यावसायिक क्षमता को मोहरबंद करती है। हालाँकि इस आलेख में हम उनके जीवट के चुनिंदा पहलुओं को ही छूने को प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उनकी व्यावसायिक उपलब्धियाँ उनकी सक्रियता में तब सोने जैसी चमक भर देती हैं, जब कहा जाता है कि विश्व के 100 से ज़्यादा बाज़ारों में उनकी कम्पनी के उत्पाद देखने को मिल जाएँगे।

सामाजिक सरोकारों के प्रति उनके रुझान को देखें, तो अजय पीरामल ‘अन्नमित्रा’ सरीखी संस्था की सलाहकार समिति के सदस्य हैं, जो हर रोज़ सवा करोड़ लोगों को टिफिन के ज़रिये भोजन पहुँचाती है। उनके पुत्र आनन्द पीरामल उद्योगों के महाबली मुकेश अंबानी की पुत्री ईशा अंबानी से विवाहित हैं।

सेना में बढ़ायी जाएगी सेवानिवृत्ति की उम्र

अगर किसी को नौकरी में प्रोत्साहन और सेवा विस्तार का अवसर मिले तो, उसे कोई आपत्ति नहीं होती है। पर जो सही मायने में ज़रूरतमंद हैं और आस लगाये बैठे हैं, अगर उनके अधिकारों तथा हितों के बारे सरकार या सम्बन्धित विभाग कोई फैसला न ले, तो बड़े असमंजस की स्थिति पैदा होती है। सेना में भी यही स्थिति पैदा होती दिख रही है। हमारे देश के युवाओं में अपने करियर को लेकर काफी चिन्ता पनपने लगी है। अनेक सरकारी विभागों में भर्ती प्रक्रियाओं में तथाकथित धाँधली से आजिज़ युवा भारतीय सेनाओं में ईमानदारी से भर्ती प्रक्रिया होने और देश सेवा की भावना से सैनिक बनना पसन्द करते हैं। लेकिन अब सेना में करियर बनाने की उनकी इस चाहत पर कम मौके मिलने की सम्भावनाएँ बढ़ रही हैं।

बताते चलें कि रक्षा विभाग के प्रमुख (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत ने कहा है कि तीनों सेनाओं में जवानों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ायी जाएगी। इससे तीनों सेनाओं में लगभग डेढ़ लाख जवानों को लाभ हो सकता है। इसमें भारतीय वायु सेना के एयरमैन और नौसेना के नाविक शामिल हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश को तीनों सेनाओं के पराक्रमी और अनुभवी सैनिकों का लाभ मिलेगा। सेना के एक अधिकारी का कहना कि रक्षा प्रमुख की नीति में कोई खोट नहीं है। अगर सैनिकों का सेवाकाल बढ़ाया जाता है, तो पुराने साथियों के देश सेवा करने का ज•बा बरकरार रहेगा। फिलहाल जल्द ही पुरुषों की सेवा प्रोफाइल और सैनिकों की न्यूनतम सेवानिवृत्ति उम्र को बढ़ाने के लिए एक रूपरेखा तैयार की जा रही है।

सैनिकों की संख्या कटौती को लेकर समय-समय पर चर्चा होती रही है। इसकी वजह सैनिकों के वेतन खर्च के चलते हथियारों की खरीदारी में धन की कमी का होना हो सकता है। वैसे देश की सुरक्षा के लिए 12 लाख से अधिक थल सैनिक देश की सेवा में तैनात हैं। सेना से सेवानिवृत्त करन सिंह का कहना है कि रक्षा मंत्रालय के आदेश पर ही ऐसे फैसले होते हैं। पर मंत्रालय को इस बारे में फैसला लेने के बीच उन युवाओं के बारे में सोचना होगा, जो सेना में अपना करियर बनाने के साथ-साथ देश की सेवा करना चाहते हैं। क्योंकि अगर डेढ़ लाख सैनिकों की सेवा का विस्तार होता है, तो यह निश्चित है कि नयी भर्तियों को लेकर ज़रूर कोई आनाकानी वाली स्थिति बनेगी। क्योंकि मौज़ूदा दौर में रक्षा मंत्रालय द्वारा कई विभागों में पदों को खत्म किया जा रहा है। जैसे सैन्य इंजीनियरिंग सेवा से 9304 पदों को खत्म किया गया है। ये पद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने शेकतकर समिति की सिफारिश पर खत्म किये हैं।

सेना के एक अधिकारी का कहना है कि दुनिया के कई देशों में आपसी टकराव की स्थिति के साथ-साथ भारत और पड़ोसी मुल्कों के बीच गत वर्षों से काफी तनाव वाली स्थिति बनी हुई है। ऐसे में ऱक्षा मंत्रालय को व्यापक स्तर पर सेना में भर्ती करने करनी चाहिए, जिस प्रकार सेवानिवृत्ति को लेकर सीडीएस ने कहा है। क्योंकि सारी दुनिया में रक्षा सेवाओं का विस्तार किया जा रहा है। अगर सरकार यह सोचती है कि सेना में कई विभाग ऐसे हैं, जो सेवा भी कम करते हैं और वेतन के बाद पेंशन भी लेते हैं, तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि सरकार सैनिकों को सेवानिवृत्ति न देकर सही मायने में सेना में विस्तार के साथ नौकरी को बरकरार रखना चाहती हो? अगर ऐसा हुआ, तो यह नयी परम्परा होगी। और अगर सरकार ऐसा करना ही चाहती है, तो उसे स्पष्ट करना चाहिए कि अगर वह सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों की सेवाओं का विस्तार करती है, तो यह कितने साल का होगा और उनकी वजह से सेना में नयी नौकरियों में कोई बाधा तो नहीं आएगी? क्योंकि सेवानिवृत्ति होने के बाद ही हर विभाग में रिक्त पदों को भरने के लिए सरकार नयी भर्तियाँ करती है। ऐसे में देश सेवा की भावना से सेना में जाने के इच्छुक तमाम युवा इस असमंजस में हैं कि सरकार कब सभी पहलुओं को स्पष्ट करेगी?