श्रम कानून हटाने से बढ़ेगा मज़दूरों का शोषण

गरीबी, बेरोज़गारी और अधिक जनसंख्या से शोषण और दमनकारी स्थितियाँ पैदा होती हैं। क्योंकि लाचार लोग पेट भरने की शर्त तक पर जी-तोड़ काम करने को तैयार हो जाते हैं, जब जीवनयापन के संसाधन बहुत ही कम हैं। उस पर अगर हुकूमत मनमानी करने लगे, तो और भी दमन के साथ शोषण होता है। सभी जानते हैं कि कोरोना वायरस से फैला महामारी के बाद बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं और आॢथक तंगी के चलते अपने-अपने घरों को लौटने लगे, जो अब तक लौट रहे हैं। इनमें सबसे ज़्यादा मज़दूर हैं। पैदल चल रहे श्रमिकों-मज़दूरों की कथा रोज़ाना टी.वी. चैनलों पर सुनायी जा रही है। अखबारों में छप रही है। श्रमिक रेलगाडिय़ों के लिए टिकट पाने और लम्बी यात्रा करने के संघर्ष के िकस्सों ने भी अब सोशल मीडिया पर अपनी जगह तलाश ली है। मज़दूर चाहे वह खेत में काम कर रहा हो या किसी कारखाने में। प्रवासी मज़दूर मुल्क में कहीं भी काम करता हो, उसके प्रति मालिकों का नज़रिया क्या होता है? इसका जवाब सम्भवत: सब जानते हैं। सदियों से शोषण का शिकार रहा सबसे निचले पायदान पर खड़ा यह तबका राजनीति का भी खूब शिकार रहा। और इसी राजनीति के बीच महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच ट्वीटर पर कहा-सुनी भी हुई; जिसके चलते योगी आदित्यनाथ ने यहाँ तक कह दिया कि वह उत्तर प्रदेश के लोगों को अपने ही राज्य में रोज़गार मुहैया कराएँगे। इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रोज़गार देने के आँकड़े भी सामने आये। और उन्होंने श्रम कानून में बदलाव करके मज़दूरों के शोषण का रास्ता भी निकाल लिया। जैसे ही उत्तर प्रदेश में यह होने का डंका बजा, मध्य प्रदेश समेत कई अन्य राज्य सरकारों ने श्रम कानून में संशोधन करने का फैसला कर डाला। लेकिन श्रम कानून में बदलाव श्रमिकों के हितों के संरक्षण को और अधिक मज़बूती प्रदान करने की बजाय हितों को कमज़ोर करने वाले बताये जा रहे हैं। और एक सवाल बदलाव की टाइमिंग पर भी उठ रहा है। ऐसे समय में जब मज़दूर आॢथक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और भावात्मक रूप से निराश हो, टूटकर अपने मूल गाँव, स्थान को जाने के लिए बेचैन हैं और जान को जोखिम में डालकर भीषण गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल चलते नज़र आ रहे हैं। उसका अपने यूनियन से सम्पर्क नहीं है। दूसरा कोविड-19 के कारण प्रतिरोध करना भी इतना आसान नहीं है। लेकिन राज्य सरकारें इन बदलाव को कोराना तालाबंदी के कारण मंद पड़ी मुल्क की अर्थ-व्यवस्था में जान फूँकने वाले अहम कदम के रूप में आम जनता के सामने रख रही हैं। दरअसल लॉकडाउन के बीच मुल्क के कई सूबों ने श्रम कानूनों में बदलाव कर दिये। ऐसे सूबों की सूची में राजस्थान, ओडिसा, गोवा, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र हैं। इन राज्यों ने कारखाना अधिनियम-1948 में संशोधन करते हुए विभिन्न अधिसूचनाएँ जारी की हैं। इनमें से अधिकांश अधिसूचनाएँ कारखाना अधिनियम की धारा-5 के तहत प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए जारी की गयी हैं। धारा-5 के तहत प्रदत्त शक्तियों का उपयोग केवल सार्वजनिक आपातकाल की स्थिति में ही किया जा सकता है। इसे ऐसे परिभाषित किया गया है-एक गम्भीर आपातकाल की स्थिति जहाँ भारत या उसके किसी भी भौगोलिक हिस्से की सुरक्षा को, चाहे युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण या आंतरिक अशान्ति के कारण खतरा हो। लेकिन इस समय तो मुल्क पर ऐसा कोई भी खतरा नहीं मँडरा रहा। मुल्क के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश पर सबकी निगाहें अधिक रहती हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में उत्तर प्रदेश चुंनिदा श्रम कानूनों से अस्थायी छूट का अध्यादेश-2020 को मंज़ूरी दी गयी, ताकि कारखानों और उद्योगों को तीन श्रम कानूनों तथा एक अन्य कानून के प्रावधान को छोड़ बाकी सभी श्रम कानूनों से छूट दी जा सके। वर्तमान में लागू श्रम अधिनियम में अस्थायी छूट प्रदान करने का फैसला किया है; लेकिन यह छूट कुछ शर्तों के साथ है। जैसे बँधुआ श्रम प्रथा (उत्सादन) अधिनियम-1976, कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम-1923, भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार (नियोजन व सेवा शर्त विनियमन) अधिनियम-1996 के प्रावधान लागू रहेंगे। बच्चों और महिलाओं के नियोजन से जुड़े श्रम अधिनियम के प्रावधान भी लागू रहेंगे। मज़दूरी संदाय अधिनियम-1936 की धारा-5 के तहत निर्धारित समय सीमा के अंतर्गत वेतन भुगतान का प्रावधान भी लागू रहेगा। अन्य महत्त्वपूर्ण बदलाव श्रमिक के रोज़ाना काम के अधिकतम घंटे 12 कर दिये गये और ओवरटाइम का भुगतान भी दिहाड़ी के सामान्य दर से ही किया जाएगा। जबकि मौज़ूदा श्रम कानून के तहत एक मज़दूर दिन में अधिकतम 8 घंटे ही काम कर सकता है और ओवरटाइम का भुगतान सामान्य दर से दोगुना अधिक होता है।

विपक्ष का विरोध

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से श्रम कानून में बदलाव के लिए लाया गया यह अध्यादेश विवाद का विषय बन गया। विपक्ष चाहे, वह समाजवादी पार्टी (सपा) हो या कांग्रेस; ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट किया- ‘उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक अध्यादेश से मज़दूरों को शोषण से बचाने वाले श्रम कानून के अधिकांश प्रावधानों को तीन साल के लिए स्थगित कर दिया है। यह बेहद आपत्तिजनक और अमानवीय है। श्रमिकों को संरक्षण न दे पाने वाली गरीब विरोधी भाजपा सरकार को तुरन्त त्याग-पत्र दे देना चाहिए।’

कांग्रेस महासचिव प्रिंयका गाँधी वाड्रा ने ट्वीट किया- ‘यूपी सरकार की ओर से श्रम कानूनों में किये गये बदलावों को तुरन्त रद्द किया जाना चाहिए। आप मज़दूरों की मदद करने के लिए तैयार नहीं हैं और उनके परिवार को कोई सुरक्षा कवच नहीं दे रहे हैं। अब आप उनके अधिकारों को कुचलने के लिए कानून बना रहे हो। मज़दूर देश निर्माता हैं; आपके बन्धक नहीं।’ विपक्ष के हमलों का जवाब देने के लिए खुद यूपी सरकार के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य आगे आये और उन्होंने सपा और कांग्रेस, दोनों को श्रमिक विरोधी पार्टी कह डाला। श्रम मंत्री मौर्य ने कहा कि इन दोनों पार्टिर्यों के बयान यह बताते हैं कि वो श्रमिकों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। क्योंकि जो श्रम अधिनियमों में संशोधन अध्यादेश आया है, वह इसलिए आया है कि आज मुख्यमंत्री योगी ने अन्य राज्यों में रह रहे सभी कामगारों, उन प्रवासी मज़दूरों को यूपी में लाने का फैसला किया है। यह संकल्प लिया गया कि अपने राज्य में ही इन सबकी सेवा ली जाएगी।

बदलाव पर मुहर का इंतज़ार

इस अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलना बाकी है। इस बिन्दु पर हो रही सियासत को एक तरफ रख दें, तो यह जानना भी ज़रूरी है कि अदालत में जब उत्तर प्रदेश सरकार को श्रम कानून में बदलाव वाले मामले पर स्थिति साफ करने को कहा गया, तब योगी सरकार ने क्या किया? 8 मई को श्रम कानूनों को लेकर अधिसूचना जारी की गयी थी। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी। 15 मई को सुनवाई हुई और अदालत ने यूपी सरकार को 18 मई को स्थिति साफ करने के लिए कहा। मगर सरकार ने 15 मई की शाम को ही एक नया आदेश जारी किया और पुराने आदेश को निरस्त कर दिया। यानी इस नये आदेश के अनुसार, उत्तर प्रदेश में फिर से एक मज़दूर में एक दिन में अधिकतम आठ घंटे और सप्ताह में 48 घंटे काम करने का पुराना नियम फिर से अमल में आ गया।

सफाई और मतभेद

इधर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कारखानों और कार्यालयों में काम करने की अवधि 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे करने को कहा। इसके मुताबिक, एक हफ्ते में अधिकतम 72 घंटे काम करने की इजाज़त होगी। लेकिन इसके लिए श्रमिकों को ओवरटाइम देना होगा। तालाबन्दी में श्रम कानूनों में बदलाव वाले मुद्दे पर राज्य सरकारें घिर गयी हैं। सम्भवत: इसीलिए हाल ही में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार को कहना पड़ा कि श्रम कानून में बदलाव का मतलब इसे पूरी तरह खत्म कर देना नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि सरकार श्रमिकों के हितों का संरक्षण करने को प्रतिबद्व है। राजीव कुमार ने कहा- ‘मेरे संज्ञान में अभी आया है कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने अपने रुख को कड़ा करते हुए राज्यों को स्पष्ट किया है कि वे श्रम कानूनों को खत्म नहीं कर सकते हैं। क्योंकि भारत आईएलओ में हस्ताक्षर करने वाले मुल्कों में है। यह सरकारी पक्ष है। लेकिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी ने ऐसे बदलाव की निन्दा की है। उनका मानना है कि ऐसे कदमों से अर्थ-व्यवस्था का भला नहीं होने वाला। श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर आरएसएस में भी अंदरूनी मतभेद सामने आ गये हैं। आरएसएस से जुड़ा भारतीय मज़दूर संघ भी ऐसे बदलाव के खिलाफ है।

सवालों के घेरे में सरकारें

भारतीय मज़दूर संघ का सवाल राज्य सरकारों से यह है कि राज्य सरकारें इस बात का जवाब दें कि अर्थ-व्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में मौज़ूदा श्रम कानून कैसे बाधा बन रहा है? केंद्रीय स्तर की 10 ट्रेड यूनियन ने साझा बयान में कहा कि वे कुछ राज्यों में प्रमुख श्रम कानूनों को निलंबित करने के खिलाफ आईएलओ में सम्पर्क करने पर विचार कर रहे हैं। इस साझा बयान में कहा गया है कि केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का मानना है कि यह कदम साथ जुडऩे की स्वतंत्रता के अधिकार (आईएलओ कन्वेंशन-87), सामूहिक सौदेबाज़ी के अधिकार (आईएलओ कन्वेंशन-98) और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत आठ घंटे के कार्यदिवस के मानदण्ड का उल्लघंन है। बयान में यह भी कहा गया कि लॉकडाउन की करीब दो माह की अवधि के कारण मज़दूर वर्ग पहले ही कई तरह की दिक्कतों से जूझ रहा है। इसके बाद राज्य सरकारों के द्वारा श्रम कानूनों से कम्पनियों को छूट देने का प्रतिगामी कदम अमानवीय है। 22 मई को देश के कई जगहों पर 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की तरफ से विरोध में प्रदर्शन, धरना आयोजित किये गये। सर्वोच्च अदालत में भी श्रम कानूनों के बदलावों को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ दायर की गयी हैं। इन याचिकाओं में श्रम कानूनों के कतिपय प्रावधानों को खत्म किये जाने के राज्यों के कदमों को चुनौती दी गयी है। जिन कानूनों को समाप्त किया गया है, वे श्रमिकों के काम करने के घंटे, वेतन, स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्बन्धी स्थितियों के बारे में है।

क्या है  श्रम कानून

भारत के संविधान में श्रम कानून के मुताबिक, किसी के श्रम के अधिकतम निर्धारित घंटे 8 हैं। इससे ज़्यादा समय काम लेने पर ओवर टाइम यानी अतिरिक्त काम का कम्पनियों अथवा संस्थानों को अतिरिक्त पैसा देना पड़ेगा, वह भी सामान्य भुगतान से दोगुना। इतना ही नहीं, इसके अंतर्गत साप्ताहिक और त्योहारों की छुट्टियाँ भी देनी पड़ेंगी और अगर छुट्टी में काम कराया गया, तो उसका भी दोगुना भुगतान वेतन के अतिरिक्त करना पड़ेगा। कोई कम्पनी या संस्थान अतिरिक्त काम भी श्रमिक की इच्छा होने पर ही ले सकता है।

वैसे श्रम कानून किसी राज्य द्वारा निॢमत उस कानून को कहते हैं, जो श्रमिकों, रोज़गार प्रदाताओं, ट्रेड यूनियनों तथा सरकार के बीच सम्बन्धों को पारिभाषित करता है। इसीलिए हर राज्य के श्रम कानून में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है, जैसा कि करों में होता है। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि श्रमिकों का शोषण करने की किसी राज्य अथवा राज्य में स्थापित कम्पनी/संथान को है। इसी तरह श्रम कानून के और भी नियम हैं, जिसमें हर वर्ष वेतन वृद्धि के साथ-साथ श्रमिकों को समय-सीमा और कार्य-कौशल के आधार पर स्थायी किये जाने का प्रावधान है।