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महामारी के बीच पत्रकारों की हत्याएँ चिन्ताजनक

भारत में पत्रकार असहाय से होते जा रहे हैं, क्योंकि अच्छे पत्रकारों की अपराधियों द्वारा हत्या करना और उनके लिए ज़रूरी मेडिकल इमरजेंसी की व्यवस्था जैसे अहम मसले मुद्दा नहीं बनते हैं। पत्रकार बिरादरी के बीच यह कैसे सम्भव है, जिसे पत्रकारिता के अपने फर्ज़ निभाने वाले काम के लिए निशाना बनाकर मार दिया जाए। वह भी ऐसे दौर में जब इस साल के करीब 200 दिनों में देश कोविड-19 जैसी महामारी से जूझ रहा है और बड़ी आबादी इससे प्रभावित है। साथ ही संक्रमितों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। महामारी के बीच पत्रकारों को निशाना बनाकर हत्या किया जाना बेहद चिन्ताजनक है।

गाज़ियाबाद के विजय नगर इलाके में 22 जुलाई की हत्या की घटना पत्रकारों के हालात को बयाँ करने के लिए काफी है, जिसने अपराधियों के खिलाफ उनके कृत्य का विरोध करने का साहस किया। गाज़ियाबाद के स्थानीय पत्रकार विक्रम जोशी को अपराधियों ने न केवल बुरी तरह से मारा-पीटा, बल्कि घटनास्थल से भागने से पहले उन्हें गोली मार दी। स्थानीय लोगों ने गम्भीर रूप से घायल जोशी को पास के अस्पताल ले गये, जहाँ दो दिन बाद उन्होंने दम तोड़ दिया।

विक्रम जोशी एक स्थानीय समाचार पत्र के लिए काम करते थे। उन्होंने 16 जुलाई को गाज़ियाबाद के विजय नगर पुलिस चौकी में अपनी भाँजी को परेशान करने वाले कुछ बदमाशों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की थी; लेकिन पुलिस की लापरवाही इस कदर रही कि बदमाशों ने जोशी को उनकी दो बेटियों के सामने ही मौत के घाट उतार दिया। मौत के बाद जब मामले ने तूल पकड़ा, तब उत्तर प्रदेश पुलिस सक्रिय हुई और हत्या में उनकी भूमिका पर संदेह करने वाले नौ लोगों को गिरफ्तार किया।

इस वारदात के हफ्ते भर पहले उत्तर प्रदेश के उन्नाव में 25 वर्षीय युवा पत्रकार शुभममणि त्रिपाठी की हत्या कर दी गयी थी। कानपुर स्थित एक हिन्दी दैनिक के लिए काम करते थे। उन्नाव ज़िले के ब्रह्मनगर के निवासी त्रिपाठी एक ईमानदार पत्रकार थे और अपने इलाके में अवैध रेत खनन की लगातार रिपोर्ट कर रहे थे। हाल ही में शुभममणि की शादी राशि दीक्षित से हुई थी। त्रिपाठी को भी अज्ञात व्यक्तियों से धमकी मिल चुकी थी। अवैध खनन की रिपोर्टिंग करने पर इससे जुड़े बदमाशों ने उनको पहले से ही हमले की धमकी दी थी। लेकिन साहसी पत्रकार अपने काम से पीछे नहीं हटे और लगातार मामले की रिपोर्टिंग करते रहे। यूपी पुलिस ने पत्रकार की जान जाने के बाद हत्या में शामिल होने के संदेह में तीन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था।

आंध्र प्रदेश के नंदीगाम इलाके में 29 जून को गंटा नवीन (27) नाम के एक डिजिटल चैनल के संवाददाता की हत्या कर दी गयी थी। संवाददाता ने अपने इलाके के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों के साथ दुश्मनी मोल ले ली थी और उन्होंने नवीन की हत्या के लिए अपराधियों का सहारा लिया। पुलिस ने उसकी हत्या के मामले में आठ आरोपियों को गिरफ्तार किया। ओडिशा के पत्रकार आदित्य कुमार रणसिंह (40) व कांग्रेस नेता की हत्या  16 फरवरी को कटक ज़िले में बाँकी इलाके में कर दी गयी थी। एक न्यूज पोर्टल से जुड़े रणसिंह को दो अपराधियों ने काट डाला था, जिन्हें बाद में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मामले में पाया गया कि पत्रकार से दोनों आरोपियों के बीच लम्बे समय से खुन्नस चल रही थी।

2019 में देश में पत्रकारों की हत्या की नौ घटनाएँ दर्ज की गयी थीं। लेकिन इनमें से महज़ एक वारदात ऐसी थी, जिसमें पत्रकार को निशाना बनाकर मारा गया था। आंध्र के एक तेलुगु दैनिक अखबार के पत्रकार के सत्यनारायण (45) को पेशागत गतिविधियों के कारण मौत के घाट उतार दिया गया। 15 अक्टूबर को उनकी हत्या कर दी गई थी। स्थानीय लेखकों ने बताया कि सत्यनारायण पर उससे पहले भी हमला हो चुका था। पिछले साल भारत में मारे गये लोगों में जोबनप्रीत सिंह (पंजाब का ऑनलाइन पत्रकार पुलिस की गोलीबारी में मारे गये), विजय गुप्ता (कानपुर में पत्रकार की करीबी रिश्तेदारों गोली मारकर हत्या कर दी थी), राधेश्याम शर्मा (कुशीनगर आधारित पत्रकार की उनके पड़ोसियों द्वारा हत्या), आशीष धीमान (सहारनपुर में फोटो पत्रकार की पड़ोसियों ने गोलीमारकर हत्या कर दी थी), चक्रेश जैन (शाहगढ़ में स्वतंत्र पत्रकार की पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी थी), आनंद नारायण (मुम्बई के एक न्यूज चैनल से जुड़े पत्रकार की बदमाशों ने हत्या कर दी थी) और नित्यानंद पांडे (ठाणे में एक पत्रिका के सम्पादक को एक कर्मचारी मार दिया) शामिल थे।

केरल के पत्रकार के मोहम्मद बशीर पर सरकारी अधिकारी ने अपने वाहन से कुचलकर मार दिया था। गुवाहाटी शहर में संदिग्ध हालात में हुई दुर्घटना में पत्रकार नरेश मित्रा के सिर में चोट लगने के बाद मौत हो गयी। बिहार में बदमाशों ने पत्रकार प्रदीप मंडल को निशाना बनाया; लेकिन वह सौभाग्य से बच गये। एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र के मंडल ने स्थानीय शराब माफिया के खिलाफ रिपोर्टिंग की थी, जिससे माफिया उनसे शत्रुता मानने लगे थे।

भारत में पत्रकारों के लिए कोरोना वायरस से ज़्यादा खतरनाक उन पर जानलेवा हमले हो गये हैं, जिससे उनकी संक्रमण से कहीं ज़्यादा मौत हुई है। पिछले चार महीनों के अन्दर 10 मीडियाकर्मियों की हत्या हो चुकी है। देश के अलग-अलग राज्यों में सैकड़ों पत्रकार कोरोना वायरस संक्रमण के शिकार हुए हैं; क्योंकि वे भी बाहर निकलकर काम करते हैं और समाज को आईना दिखाने की कोशिश करते हैं। पत्रकार भी डॉक्टरों, नर्सों, स्वच्छता कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों की तरह ही कोरोना योद्धा की भूमिका अदा कर रहे हैं।

आंध्र प्रदेश के तिरुपति के एक वरिष्ठ टेलीविजन रिपोर्टर (मधुसूदन रेड्डी) ने 17 जुलाई को कोरोना संक्रमित हो गये, जिनको तेज़ बुखार के साथ साँस लेने में तकलीफ के चलते अस्पताल में भर्ती कराया गया था। मधुसूदन आंध्र में दूसरे ऐसे पत्रकार थे, जो कोविड-19 की वजह से मौत के शिकार हुए। इससे पहले 12 जुलाई को वीडियो पत्रकार एम. पार्थ सारथी की इलाज के दौरान मौत हो गयी थी।

इससे पूर्व तमिलनाडु के टेलीविजन रिपोर्टर रामनाथन, ओडिशा के पत्रकारों सीमांचल पांडा, के.सी. रत्नम और प्रियदर्शी पटनायक भी वायरस संक्रमण के कारण दम तोड़ चुके थे। नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एक प्रतिष्ठित अखबार के रिपोर्टर तरुण सिसोदिया की कोरोना का इलाज कराने के दौरान संदिग्ध हालात में ट्रॉमा सेंटर की चौथी मंज़िल से गिरकर मौत हो गयी थी। चेन्नई में करने वाले वीडियोग्राफर ई. वेलमुरुगन, चंडीगढ़ में न्यूज एंकर दविंदर पाल सिंह, हैदराबाद में टी.वी. पत्रकार मनोज कुमार और आगरा में अखबार के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ कोरोना संक्रमण से अपनी जान गँवा चुके हैं। इनके अलावा कोलकाता के फोटो पत्रकार रॉनी रॉय भी वायरस की चपेट में आयीं और नहीं बच सकीं।

गुवाहाटी के असोमिया खबर के प्रिंटर और पब्लिशर रंटू दास का दिल का दौरान पडऩे से निधन हो गया; जिनकी बाद में कोरोना जाँच करायी, तो वह संक्रमित पाये गये।  अखबार, न्यूज चैनल और न्यूज पोर्टल के लिए काम करने वाले सौ से अधिक गुवाहाटी के ही मीडिया कर्मचारी वायरस के संक्रमण की गिरफ्त में आ चुके हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि ज़्यादातर स्थानीय मीडिया आउटलेट्स ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया है और न ही इसके लिए ज़रूरी कदम उठाये हैं; जो चिन्ता का सबब है। भले ही उनके कर्मचारी संक्रमित हो गये हों। महामारी के चपेट में आकर देश भर के सैकड़ों मुख्यधारा के मीडिया संस्थान भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं; क्योंकि इस दौरान कई अखबार या संस्करण बन्द कर दिये गये हैं। कई मुख्य अखबारों ने अपने संस्करण घटा दिये, ज़्यादातर ने पेज कम कर दिये हैं; साथ ही कर्मचारियों व पत्रकारों के वेतन में कटौती कर दी है। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि विज्ञापन से आने वाले राजस्व में बेहद कमी आयी है। हमेशा की तरह किसी भी मीडिया संस्थान के पत्रकारों ने प्रबन्धन के ऐसे फैसलों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं की; भले ही वे खुद में कुंठित हों।

क्या बाज़ार में बिक रहा नकली सैनिटाइजर?

आजकल परचून की दुकानों, यहाँ तक कि फुटपाथ पर भी मास्क और सैनिटाइजर की बिक्री हो रही है। क्या यह नकली सैनिटाइजर है? एक हौवा लोगों के दिमाग में कोरोना वायरस है बैठ चुका है, जो उन्हें सैनिटाइजर खरीदकर रखने और दिन में कई बार हाथों और इस्तेमाल की चीज़ों, जैसे मोबाइल, कुर्सी-मेज, यहाँ तक कि रूम आदि तक को सैनिटाइज करने को मजबूर कर रहा है। हाथों को धोने की िकल्लत से बचने का यह एक अच्छा तरीका है, जिसका प्रचार कोरोना वायरस के संक्रमण काल में सरकारों द्वारा भी खूब किया गया है। बाज़ारवाद का नियम है कि जब किसी चीज़ की माँग ज़्यादा होती है, तो वह महँगी हो जाती है। मुनाफाखोर इसमें सप्लाई कम करके मुनाफा कमाने की जुगत भिड़ाते हैं; लेकिन माल की आपूर्ति करने के लिए नक्काद सक्रिय हो जाते हैं और नकली माल बाज़ार में धड़ल्ले से उतरने लगता है। इस तरह जनता दो तरीके से ठगी जाती है, एक तो महँगी चीज़ें उसे खरीदनी पड़ती हैं और दूसरी तरफ जानकारी के अभाव में अधिकतर लोगों के हाथ नकली माल लगता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में पूरी दुनिया में सैनिटाइजर का बाज़ार तकरीबन एक अरब डॉलर था, जो 2020 में बढक़र लगभग छ: अरब डॉलर तक पहुँच गया है।

जून के अंतिम सप्ताह में गुरुग्राम के सेक्टर-49 में ज़िला औषधि नियंत्रक विभाग की टीम और पुलिस टीम ने छापा मारकर एक मेडिकल स्टोर से अमेरिकी कम्पनी का नकली सैनिटाइजर बरामद किया था, जो कि महँगे दामों पर बेचा जा रहा था। पुलिस और औषधि नियंत्रक विभाग ने दो लोगों को गिरफ्तार भी किया था। सूत्रों के मुताबिक, नकली सैनिटाइजर का खेल गुरुग्राम में खूब चल रहा है। पूछताछ के बाद आरोपियों की निशानदेही पर छापेमारी कर रही टीमों ने लक्ष्मण विहार में बने ठिकाने पर छापा मारकर भारी मात्रा में नकली सैनिटाइजर बरामद किया था।

क्या कहते हैं डॉक्टर

इस मामले में लोकनायक हॉस्पिटल में फोन करने पर नाम न बताने की शर्त पर एक डॉक्टर ने बमुश्किल बताया कि बाज़ार में नकली सैनिटाइजर की उन्हें जानकारी नहीं है; लेकिन अगर नकली सैनिटाइजर है, तो वह नुकसान ही करेगा; क्योंकि उसमें मेडिकल फार्मूले से अधिक कैमिकल हो सकता है।

वैंक्टेश्वर हॉस्पिटल के डॉक्टर तरुण भटनागर ने बताया कि नकली सैनिटाइजर ही क्या बहुत-सी नकली चीज़ें बाज़ार में हैं। इस पर सरकार या सम्बन्धित विभाग ही रोक लगा सकते हैं। हमारे पास जो भी मरीज़ आते हैं, उन्हें हम कम्पनी का सैनिटाइजर खरीदने का सुझाव ही देते हैं। वैसे भी कोई भी व्यक्ति जब भी सैनिटाइजर खरीदे, तो मेडिकल स्टोर पर ही जाए और लिए गये पैकेड को अच्छी तरह जाँच ले कि वह किस कम्पनी का है?

डॉक्टर मनीष कुमार का कहना है कि मास्क तो एक बार को कोई बेच भी सकता है; लेकिन सैनिटाइजर केवल वैध लाइसेंस प्राप्त मेडिकल स्टोर वालों को ही बेचने का अधिकार है। मगर इस संक्रमण-काल का फायदा उठाकर जगह-जगह सैनिटाइजर और मास्क बेचे जा रहे हैं। यहाँ तक कि नकली सैनिटाइजर पर ब्रांडेड कम्पनियों के नकली लेबल लगाकर भी सैनिटाइजर बेचा जा रहा है। इस मामले में ड्रग कंट्रोल विभाग हमेशा बेहतर काम करता है। मुझे लगता है कि नकली सैनिटाइजर की जानकारी ड्रग्स विभाग को अभी शायद नहीं होगी, अन्यथा अब तक छापेमारी शुरू हो गयी होती।

कोरोना-काल में बढ़ी विकट माँग

कोरोना वायरस फैलने के साथ-साथ जैसे-जैसे इसके घातक परिणामों के बारे में लोगों को पता चलता गया, सैनिटाइजर और मास्क की माँग बढ़ती गयी। आज अधिकतर लोग सैनिटाइजर इस्तेमाल करते दिखते हैं। जबकि पहले अस्पतालों में डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्यकर्मी सैनिटाइजर का इस्तेमाल करते थे या बहुत हुआ तो कुछ खास जगहों पर इसका इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन जबसे इसके उपयोग पर ज़ोर दिया गया है, इसकी माँग तेज़ी से बढ़ गयी है। शुरू में सोशल मीडिया पर कई जगह सैनिटाइजर के अनाप-शनाप दाम वसूलने और कम्पनी का लेबल लगाकर नकली सैनिटाइजर बेचने की खबरें आयीं। इनमें कुछ वीडियो तो मेडिकल स्टोर्स की ही थीं। सवाल यह उठता है कि जब मेडिकल स्टोरों पर नकली दवाओं का धन्धा ज़ोरों से चलता है, तो सैनिटाइजर भी नकली बेचे जाने की बात से कौन इन्कार कर सकता है?

त्वचा के लिए नुकसानदायक

डॉ. मनीष कुमार ने बताया कि उनके पास सभी रोगों से पीडि़त मरीज़ आते हैं। पिछले महीने एक बुजुर्ग महिला उनके पास इलाज के लिए आयी, उसके हाथ जख्मी थे। पूछने महिला ने बताया कि उसके हाथ अपने आप जख्मी होने शुरू हो गये। जब यह पूछा गया कि आप हाथ किस चीज़ से धोती हैं, तो बुज़ुर्ग महिला ने बताया कि हाथ तो वह नहाने वाले साबुन से ही धोती है। उससे पूछा गया कि और किस चीज़ का इस्तेमाल करती हैं, हाथों का साफ रखने के लिए? तब उसने बताया कि बाज़ार से सैनिटाइजर खरीदकर लायी थी और उसी को दो-तीन बार बाहर आने-जाने के दौरान हाथों पर लगाती है। ऐसे में यह बात सामने आती है कि अधिक कैमिकल वाला सैनिटाइजर उन्हें नुकसान कर गया, जो कि नकली हो सकता है। क्योंकि हर किसी की त्वचा हर कैमिकल को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखती। इसलिए किसी को भी किसी अच्छी कम्पनी का सैनिटाइजर ही इस्तेमाल करना चाहिए। चर्म रोग विशेषज्ञ डॉक्टर वी. कुमार कहते हैं कि हर प्रकार का कैमिकल सेहत के लिए नुकसानदायक ही होता है। त्वचा पर कोई भी कैमिकल अधिक समय के लिए रहेगा, तो वह नुकसान करेगा। इसलिए सैनिटाइजर को अल्कोहल की अधिक मात्रा के सहारे बनाया जाता है। घटिया क्वालिटी का सैनिटाइजर त्वचा के लिए ज़्यादा घातक हो सकता है। ऐसे लोगों को सैनिटाइजर और भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, जिन्हें चर्म रोग हो या जिनको सैनिटाइजर लगाने या कैमिकल का इस्तेमाल करने से खुजली या अन्य कोई समस्या होती है। ऐसे लोगों को डॉक्टर की सलाह से ही सैनिटाइजर खरीदना चाहिए।

मनमाने दाम और दामों में अन्तर

सबसे बड़ी बात यह है कि सैनिटाइजर के दाम पर कोई नियंत्रण नहीं है। जबकि सरकार द्वारा यह चेतावनी जारी की जा चुकी है कि मास्क और सैनिटाइजर के अनाप-शनाप दाम नहीं वसूले जाने चाहिए। इसके बावजूद मास्क और सैनिटाइजर की कालाबाज़ारी जमकर हो रही है और इन दोनों चीज़ों के मनमाने दाम वसूले जा रहे हैं। वहीं एक ही कम्पनी के नाम पर बिक रहे सैनिटाइजर के दामों में अन्तर देखने को भी बाज़ार में मिल रहा है। अहमदाबाद के विक्रम मेडिकल स्टोर चलाने वाले विक्रम भाई ने बताया कि बाज़ार में नकली सैनिटाइजर की उड़ती-उड़ती खबरें वह भी सुनते रहते हैं। यही वजह है कि वह अच्छी कम्पनियों का ही सैनिटाइजर बेचते हैं। क्योंकि वह किसी की सेहत से खिलवाड़ नहीं कर सकते। उनका कहना है कि ज़्यादा पैसा वसूलना और किसी की सेहत से खिलवाड़ करना उनके उसूलों के खिलाफ है। उनका कहना है कि पता नहीं आदमी कितनी मुश्किल से पैसा कमाकर दवा खरीदता है? हम उसे ठीक होने में मदद करने की जगह और बीमार कर दें, तो यह तो हम पर पाप ही होगा न! वैसे भी गलत तरीके से ज़्यादा पैसा कमाकर कहाँ ले जाएँगे, सब यहीं तो रह जाना है। दिल्ली स्थित शर्मा मेडिकल स्टोर के मालिक ने कहा कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानते। वह सिर्फ कम्पनी की दवाइयाँ और अन्य चिकित्सीय चीज़ें बेचते हैं।

अप्रूव्ड होना चाहिए सैनिटाइजर

डॉक्टरों की मानें और असली दवाओं के मानक देखें, तो उनका सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोलर ऑर्गेनाइजेशन (सीडीएससीओ) अप्रूव्ड (स्वीकृत) होना ज़रूरी है। लोगों को सैनिटाइजर खरीदते समय भी एफडीए की स्वीकृति को देख लेना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सैनिटाइजर में कम-से-कम 60 फीसदी अल्कोहल की मात्रा होनी चाहिए। इसके अलावा सैनिटाइजर लेते समय उसे बनाने के फार्मूले (सूत्र / नुस्खा) को ध्यान से पढ़ लेना चाहिए। यह भी देख लेना चाहिए कि सरकार द्वारा जारी सभी नियमों का पालन सैनिटाइजर बनाने वाली कम्पनी ने किया है या नहीं?

परेशानी होने पर जाएँ डॉक्टर के पास

चर्म रोग विशेषज्ञ डॉक्टर वी. कुमार कहते हैं कि यह समय ऐसा है कि अधिकतर लोग या तो सैनिटाइजर का इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर हाथ धोने में बार-बार साबुन का। इसलिए बहुत-से लोगों को त्वचा के रोग, जैसे खुजली, जलन, त्वचा का गिरना, जख्म आदि की समस्या हो सकती है। अगर किसी को ऐसी कोई परेशानी हो, तो उसे तुरन्त डॉक्टर के पास जाना चाहिए। क्योंकि त्वचा के रोगों में ज़रा-सी लापरवाही बड़ी बीमारी का कारण बन सकती है।

ताबूत की आखरी कील बठिंडा थर्मल प्लांट बन्द

हर गाँव, कस्बे या शहर की कोई-न-कोई पहचान होती है। कहीं-कहीं उन्हें इनका पर्याय भी माना जाता है। ऐसा ही पर्याय विगत चार दशक से पंजाब के बठिंडा शहर के लिए जहाँ स्थित गुरु नानक देव थर्मल पॉवर प्लांट बन चुका है। अपनी समय अवधि पूरी होने, ज़्यादा लागत और अन्य कई अहम कारणों के चलते जहाँ उत्पादन बन्द हो चुका है। सितंबर 2017 में इसे बन्द करने की शुरुआत हो गयी और कुछ माह बाद जहाँ उत्पादन रुक गया था। इसे बन्द करने की नौबत क्यों आयी इसके पीछे उक्त कारणों के अलावा कुछ राजनीतिक भी है; लेकिन सरकारें कभी उनको ज़्यादा महत्त्व नहीं देतीं। निजीकरण की प्रक्रिया सरकारी क्षेत्र के उपक्रम बन्द होने की प्रक्रिया चलती रहती है और इनका पुरज़ोर विरोध भी होता रहा है।

बहरहाल बात देश के प्रवेश द्वार माने-जाने वाले बठिंडा में बड़ी इकाइयों के तौर पर नेशनल फॢटलाइजर और रिफाइनरी भी हैं; लेकिन पहचान कोयले से चलने वाले थर्मल प्लांट ने दिलायी। जहाँ स्थित चार चिमनियाँ लोगों के लिए चार मीनार जैसी ही हैं। प्लांट बन्द होने के बाद सैकड़ों एकड़ भूमि का क्या इस्तेमाल किया जाएगा। रोज़गारपरक कोई बड़ा उद्योग जहाँ स्थापित होता है, तो बात अलग; लेकिन कारोबारी नज़रिये से भूमि का इस्तेमाल होगा, तो यह लोगों की भावनाएँ आहत करने वाला होगा।

करीब चार दशक से इस शहर की पहचान बन चुके गुरु नानक देव थर्मल प्लांट के बन्द होने के बाद इसके वज़ूद को ही खतरा है। इस दौरान थर्मल प्लांट की धुआँ उगलने वाली चार चिमनियाँ शहर की पहचान बन चुकी थीं। सडक़ या रेल मार्ग से इन चिमनियों को देखकर कई किलोमीटर पहले ही पता चल जाता था कि बठिंडा आने वाला है। लगभग 122 मीटर ऊँची चार चिमनियाँ दूर से ही किसी कौतूहल जैसी लगती थी। रात के समय भी इनका पता चलता था। थर्मल प्लांट ने पंजाब के मालवा इलाके को बहुत कुछ दिया; इतना कि यह जहाँ के लोगों की ज़िन्दगी का एक हिस्सा हो गया था। इसके शुरू होने के बाद मालवा इलाके में बिजली की िकल्लत दूर हुई। भरपूर बिजली आपूर्ति हुई, तो नलकूप लगने लगे। पानी आया, तो खेती को जैसे नयी जान मिल गयी। चावल की खेती पहले से ज़्यादा होनी सम्भव हो गयी।

थर्मल प्लांट ने शहर को जहाँ पहचान दी, वहीं मालवा इलाके को सम्पन्नता दी। वैसे शहर की पहचान िकला मुबारक है। लेकिन ऊँची बिल्डिंगों के चलते यह बहुत दूर से नज़र नहीं आता। नयी पीढ़ी के लोग थर्मल प्लांट को शहर की आन, बान और शान समझते हैं। बन्द होने के बाद करीब 1800 एकड़ में पसरे इस थर्मल प्लांट का भविष्य क्या होगा। इस ज़मीन का क्या उपयोग किया जाएगा। लोगों के मन में सवाल घुमड़ रहे हैं कि क्या ऊँची अट्टालिकाओं जैसी चिमनियाँ गिरा दी जाएँगी? जो अक्सर देखने के बाद आँखों को सुकून देती हैं।

गुरु नानक देव थर्मल प्लांट की चिमनियों से उठने वाले धुएँ की वजह से यह लोगों की आँखों की किरकिरी भी बना। शहर और आसपास के इलाकों में वायू प्रदूषण भी बहुत होता था। इसकी ज़द में आने वाले इलाकों में साँस और अन्य कई तरह की बीमारियाँ होने की वजह भी इसका धुआँ और उससे निकलने वाली राख को माना गया। तब बड़ा आन्दोलन भी चला। बाकायदा तौर पर थर्मल हटाओ-बठिंडा बचाओ जैसा आन्दोलन चला। लोग प्लांट को बन्द करने के पक्ष में नहीं थे; लेकिन वे चाहते थे कि ज़हरीले धुएँ और निकलने वाली राख को वैज्ञानिक तरीके से रोका जाए। समय रहते इस पर काबू नहीं पाया जा सका, तो यह शहर के लोगों के बहुत खतरनाक साबित होगा। हज़ारों लोगों ने इस अभियान में हिस्सा लिया। नतीजा यह रहा कि समस्या का काफी हद तक समाधान हो गया।

अभियान से जुड़े रहे एमएम बहल के मुताबिक, नब्बे फीसदी समस्या का समाधान हो गया। उसके बाद बाकायदा तौर पर प्लांट को लेकर किसी तरह का कोई विरोध नहीं हुआ। अब तो यह हमारे शहर की पहचान है, इसके वज़ूद को बनाये रखा जाना चाहिए। चिमनियों के अलावा जहाँ की झीलें और अन्य खूबसूरत स्थलों को दर्शनीय स्थल के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए। सरकार इतने बड़े भू-भाग का क्या करेगी? अभी किसी को नहीं पता। वित्तमंत्री की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति ने इसके पूरी तरह से बन्द होने की सिफारिश के बाद इसके किसी भी तरह से शुरू होने की अटकलों पर अब विराम लग गया है।

 पीएसईबी इंजीनियर्स एसोसिएशन और गुरु नानक थर्मल प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन ने अपने तौर पर इसके बदस्तूर जारी रखने के लिए हरसम्भव प्रयास किये। धरने और प्रदर्शन तक किये। सरकार के लिए यह प्लांट अब घाटे का सौदा साबित हो रहा था। सरकार का पक्ष रहा कि प्लांट से हर वर्ष 1300 करोड़ का घाटा हो रहा है। आिखर कब तक घाटे में प्लांट को चलाया जा सकता है।

दोनों एसोसिएशनों ने सुझाव दिया कि इसकी दो यूनिटें चलायी जा सकती है। इसके लिए प्रस्ताव तैयार किया गया। विकल्प बायोमास और सोलर का दिया गया; लेकिन इसे मंज़ूरी नहीं मिल सकी। इंजीनियर्स एसोसिएशन के सचिव अजयपाल सिंह अटवाल की राय में इसे मंज़ूरी मिल जाती, तो यह चलता रहता। इससे चावल की फसल कटने के बाद बची पराली (भूसा) को जलाने की समस्या खत्म हो जाती, वहीं किसानों को अतिरिक्त आमदनी होती।

एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह संधू कहते हैं कि प्लांट तो काफी पहले बन्द हो चुका था; लेकिन दो यूनिटें शुरू करने के प्रस्ताव पर विचार चल रहा था। उम्मीद थी कि प्लांट फिर से शुरू हो जाएगा; लेकिन सरकार की मंशा इसे चलाने की नहीं थी और हम इस बात पर अडिग थे कि किसी-न-किसी सूरत में इसे शुरू कराया जाए। अब तो इसे बन्द करने का अंतिम फैसला हो गया है, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारे लिए यह किसी काले दिन जैसा ही है। हज़ारों लोगों को अपरोक्ष तौर पर रोज़गार मिला हुआ था। धीरे-धीरे यूनिटों के बन्द होने से वे लोग बेरोज़गार हो गये। अब ऐसे लोग दिहाड़ी या छोटा-मोटा काम करने को मजबूर हैं। प्लांट लगने के बाद मालवा इलाके की खूब तरक्की हुई। इसकी बदौलत नेशनल फॢटलाइजर जैसा बड़ा उद्योग यहाँ आया। हज़ारों लोगों को परोक्ष और अपरोक्ष तौर पर काम मिला। इसके बन्द होने के नतीजे सामने आने लगे हैं। कितने ही लोग प्लांट की वजह से अपनी आजीविका चला रहे थे। हमारी भावनाएँ इस प्लांट से जुड़ी हुई हैं। क्योंकि हम कर्मचारी हैं; लेकिन जो नहीं हैं, वे शहरवासी भी इसके बन्द होने से निराश हुए हैं। अब प्लांट का भविष्य क्या होगा? सरकार के अलावा कोई नहीं जानता। कभी सुनने में आता है कि सरकार इसे इंडस्ट्रियल पार्क या बड़े शांपिग कांप्लेक्स के तौर पर विकसित करेगी। होगा क्या? अभी कुछ ठोस रूप से नहीं कहा जा सकता है।

फिलहाल इसे पंजाब अर्बन डवलपमेंट अथॉरिटी (पूडा) को सौंपा गया है। प्लांट की ज़मीन को सरकार कारोबारी लिहाज़ से विकसित करती है, तो इसका विरोध होना स्वाभाविक है। गाँव कोठे कामे के जसकरण सिंह कहते हैं कि हमारे पुरखों ने प्लांट के लिए ज़मीन दी थी; लेकिन अब सरकार उस ज़मीन का क्या करेगी? अगर उसे बेचने का प्रयास किया गया, तो सभी लोग इसका विरोध करेंगे। इसमें ज़मीन वापस करने की माँग की जाएगी। बहुत-से छोटे किसान ज़मीन अधिग्रहण के बाद बेकार हो गये। सरकार ने प्लांट के लिए उनकी ज़मीन का अधिग्रहण तो कर लिया; लेकिन उनके भविष्य का पूरा बन्दोबस्त नहीं किया।

इसी गाँव के मंदर सिंह, तलविंदर सिंह और धर्मसिंह के पुरखों की ज़मीन सरकार ने प्लांट के लिए ली थी। बलदेव सिंह और जगदेव सिंह भी ऐसे ही लोगों में शामिल है। जसकरण याद करके बताते हैं कि उनकी नौ किल्ले (नौ एकड़) ज़मीन सरकार ने ली थी। ज़मीन का भाव छ: से सात हज़ार रुपये के करीब था। जहाँ ज़मीन कुछ अच्छी थी वहाँ भाव 10 हज़ार रुपये तक भी था। आज ज़मीन के भाव आसमान छू रहे हैं।

सरकार को हमारे बारे में भी कुछ सोचना होगा। हमारे बाप दादाओं ने ज़मीन क्या सरकार को ज़मीन कभी ऊँचे दामों पर बेचने के लिए दी थी। उन्होंने तो पंजाब के भले के लिए यह सब किया था। सरकार चाहती तो प्लांट को शुरू रख सकती थी, हमें कोई एतराज़ नहीं था; लेकिन हम ज़मीन को बिकते हुए नहीं देख सकते।

थर्मल प्लांट के लिए देसराज और किशन चंद की ज़मीन भी सरकार ने ली थी। उनके पास ज़्यादा ज़मीन नहीं थी; लेकिन देने के अलावा कोई चारा नहीं था। प्लांट शुरू हो गया; लेकिन दोनों के परिवारों के अच्छे दिन लद गये। अब उनकी तीसरी पीढ़ी के अशोक कुमार, करण सिंह, राजेंद्र सिंह और राम सिंह दूसरे काम कर रहे हैं। खेती तो ज़मीन देने के बाद ही धीरे-धीरे खत्म हो गयी थी। अब आजीविका के लिए कुछ तो करना ही था। कुछ तो रोज़ी-रोटी के लिए दिहाड़ी करने को मजबूर हैं। प्लांट के बन्द होने और ज़मीन के कारोबारी उपयोग में लाये जाने की खबरों के बाद वे भी सक्रिय होने का प्रयास करेंगे।

कुछ आर्थिक राहत या मुआवज़े का उन्हें भी इंतज़ार रहेगा। इसके लिए ऐसे लोग एकजुट होने लगे हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी, जिसमें पैसा और समय दोनों खर्च होंगे; लेकिन बावज़ूद इसके उनकी तैयारी चलने लगी है।

गुरु नामक देव थर्मल प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह की राय में अगर वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल चाहते तो प्लांट की दो यूनिटें चल सकती थीं। प्रस्ताव अच्छा और सभी के हित में था; लेकिन वह नहीं चाहते थे कि प्लांट किसी भी तरह से शुरू हो। वह बताते हैं कि जब राज्य में कांग्रेस सत्ता में नहीं थी, तो इन्हीं मनप्रीत बादल ने भरोसा दिया था कि पार्टी की सरकार बनने पर प्लांट को शुरू किया जाएगा।

सैकड़ों लोगों के सामने उन्होंने कहा कि जब वह बठिंडा से गुज़रते हैं, तो थर्मल प्लांट को बन्द देखकर उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। इसे शुरू कराने की उनकी प्राथमिकता रहेगी। कांग्रेस सत्ता में आ गयी, मनप्रीत बादल वित्तमंत्री बन गये, अब तो बहुत आसान था। लेकिन उलटा हो गया; अब वे इस बात पर अडिग हो गये कि प्लांट को किसी भी हालत में शुरू नहीं होने देना है।

कर्मचारी बताते हैं कि प्लांट बन्द करने के फैसले पर हम लोग व्यापक स्तर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे। कांग्रेस तब विपक्ष में थी और सत्ता में आने की कोशिश कर रही थी।

इस दौरान मनप्रीत बादल धरना स्थल पर पहुँचे और बड़े भावुक अंदाज़ में हम लोगों का दिल जीत लिया। मनप्रीत ने सैकड़ों लोगों की मौज़ूदगी में कहा कि वह जब भी अपने पैृतक गाँव आते-जाते बठिंडा से गुज़रते हैं, तो प्लांट की बन्द चिमनियों को देखकर उनकी आँखें नम हो जाती हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सत्ता में आयी, तो प्लांट हर हालत में शुरू होगा और चिमनियाँ फिर से धुआँ उगलने लगेंगी। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने इसे पार्टी घोषणा-पत्र में भी शामिल किया। लेकिन सत्ता मिलने के बाद इसे शुरू करने के बन्द कर दिया गया। कर्मचारी इसे पंजाब के साथ धोखा बता रहे हैं।

प्लांट बन्द होने के ढाई साल के दौरान कर्मचारियों का धरना-प्रदर्शन रह रहकर जारी रहा, ताकि किसी तरह प्लांट शुरू हो सके। आिखरकार तीन सदस्यीय उप समिति की बन्द करने की सिफारिश प्लांट के कफन की आखरी कील साबित हुई। इसके बाद मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने दो टूक कह दिया कि सरकार बठिंडा थर्मल पॉवर प्लांट को किसी भी हालत में शुरू नहीं कर सकती। जुलाई के पहले सप्ताह में जहाँ भारतीय किसान यूनियन (उग्राहन) के नेतृत्व में प्लांट गेट के बाहर धरना चल रहा था। जहाँ जोगिंदर सिंह (55) नामक किसान ने दम तोड़ दिया। कांग्रेस को छोडक़र अन्य विपक्षी दलों ने सरकार के इस फैसले को राज्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। वह इसे सरकार के निजीकरण की और बढ़ते कदम बता रहे हैं।

प्लांट का इतिहास

थर्मल प्लांट की नींव पत्थर नवंबर 1969 में रखा गया। इसे गुरुनानक देव थर्मल प्लांट का नाम दिया गया। सितंबर 1974 में 110 मेगावाट की इसकी पहली इकाई तैयार हुई। अगले साल सितंबर में 110 मेगावाट की दूसरी इकाई का काम भी पूरा कर लिया गया। 120 मेगावाट क्षमता की तीसरी इकाई मार्च 1978 में तैयार हुई, जबकि चौथी 120 मेगावाट की इकाई मार्च 1979 में पूरी हो गयी। उस दौरान इसकी लागत 115 करोड़ रुपये आयी। धुएँ के लिए 120 मीटर की दो और 122 मीटर की दो यानी कुल चार चिमनियाँ वज़ूद में आयीं; जो बाद में शहर की पहचान के तौर पर सामने आयीं। प्लांट को लगाते समय इसके अगले 40 साल तक चलाया जाना था; लेकिन अवधि पूरी होने से पहले इसे बन्द करने की नौबत आ गयी। वर्ष 2012 से 2014 के दौरान प्लांट के आधुनिकीकरण पर 716 करोड़ रुपये खर्च किये गये, ताकि इसकी उत्पादन क्षमता प्रभावित न हो सके। इतनी बड़ी राशि खर्च करने तीन साल बाद ही प्लांट को बन्द करने के प्रयास शुरू हो गये। बिजली उत्पादन में ज़्यादा लागत की वजह से इसे सफेद हाथी के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। अंतत: प्लांट को बन्द करना ही पड़ा। कोयला आधारित सरकारी बिजली संयंत्रों में लहरा मुहब्बता में गुरु हरगोबिन्द सिंह थर्मल प्लांट और रोपड़ में गुरु गोबिन्द सिंह सुपर पॉवर थर्मल प्लांट काम कर रहे हैं। जिस तरह से निजी बिजली उत्पादन कम्पनियों को बढ़ावा मिल रहा है, उससे भविष्य में इनके बन्द होने के खतरे से इन्कार नहीं किया जा सकता।

पीएसईबी के प्रयास

पीएसईबी इंजीनियर्स एसोसिएशन के सचिव अजयपाल सिंह अटवाल के मुताबिक, एसोसिएशन ने प्लांट को चालू रखने के हर सम्भव प्रयास किये। बन्द होने के फैसले के बाद दो इकाइयों को चलाने का प्रस्ताव तैयार किया। पंजाब के पास बिजली की कमी है। सरकारी उपक्रमों से यह कमी दूर होगी निजी क्षेत्रों पर निर्भरता ठीक नहीं है। राज्य में आधी से ज़्यादा बिजली निजी क्षेत्रों से खरीदनी पड़ रही है। इस पर भारी भरकम राशि खर्च होती है। बठिंडा थर्मल पॉवर प्लांट की दो इकाइयों को बायोमास या सोलर ऊर्जा के तौर पर चलायी जा सकती थी। प्लांट के पास पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर है; इनके लिए ज़्यादा पैसा खर्च भी नहीं होना था। इससे खेत में पराली (भूसा) जलाने से आसपास के क्षेत्रों में जहाँ प्रदूषण की समस्या खत्म होती, वहीं किसानों को इससे आय होती। एसोसिएशन ने पूरा ब्यौरा सरकार के पास भेजा; लेकिन उसे मंज़ूर नहीं किया गया।

केवल आश्वासन मिले

गुरु नानकदेव थर्मल पॉवर प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह संधू के मुताबिक, एसोसिएशन फैसले से बेहद नाराज़ है। सदस्यों में सरकार के प्रति खासी नाराज़गी है। उत्पादन बन्द होने के बाद से जुलाई के पहले सप्ताह तक कर्मचारी आन्दोलनरत ही रहे। धरना-प्रदर्शन करते रहे। लेकिन सरकार की मंशा इसे चलाने की नहीं थी। इसलिए उन्हें सफलता कहाँ से मिलती? प्लांट बन्द करने का फैसला ठीक नहीं इस पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है। पक्के कर्मचारियों की नौकरी को सीधे तौर पर खतरा न होने की बात सरकार कहती है; लेकिन ठेके वाले लोग सडक़ पर आ जाएँगे। घाटे में होने की बात कह सरकारी उपक्रमों को बन्द करने से पंजाब में सरप्लस बिजली होने का दावा कागज़ों में ही रहेगा। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना उचित कदम नहीं है। सरकार की मंशा होती, तो दो इकाइयाँ बहुत कम खर्च में चल सकती थीं। राजनीतिक दलों ने प्लांट शुरू करने के आश्वासन ही दिये; किसी ने इसके लिए गम्भीर प्रयास नहीं किये।

वायु प्रदूषण को कम करना बड़ी चुनौती

वायु प्रदूषण को लेकर आज पूरी दुनिया परेशान है। भारत में इसे लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी)  काफी सजग रहा है और समय-समय पर प्रकृति को हरा-भरा रखने तथा वायु प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करता रहा है। अब भारत सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाने की तैयारी में है। हाल ही में इसके लिए सरकार ने देश भर में ग्रीन हाइड्रोजन कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (एचसीएनजी) के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का फैसला किया है। सम्भव है कि भारत में वायु प्रदूषण तेज़ी से घटे; क्योंकि सरकार ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए एचसीएनजी को पूरे देश में लागू करने का फैसला कर चुकी है। माना जा रहा है कि एचसीएनजी के उपयोग से 70 फीसदी वायु प्रदूषण कम होगा। इतना ही नहीं, इससे वाहनों के इंजनों की क्षमता भी बढ़ेगी और लोगों को अधिक माइलेज (कम लागत में अधिक सफर का फायदा) मिलेगा। बताया जा रहा है कि एचसीएनजी को सरकार भविष्य के हरित ईंधन के रूप में देख रही है।

इस बारे में 20 जुलाई को सडक़ परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय ने सुझावों और आपत्तियों के लिए अधिसूचना के तौर पर मसौदा जारी कर दिया है। इस मसौदे में कहा गया है कि ग्रीन एनर्जी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री स्टैंडर्ड (एआर्ईएस) के नियमों- 24 व 28 के तहत सभी मानकों का पालन लोगों को करना होगा। सडक़ परिवहन मंत्रालय इस बारे में ग्रीन एनर्जी सीएनजी, एचसीएनजी और बॉयो-सीएनजी को लेकर पहले ही गाइडलाइन तैयार कर चुका है। विशेषज्ञों के अनुसार, दिल्ली, कानपुर, मुम्बई और अन्य कई अधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में बढ़ते प्रदूषण को लेकर माननीय उच्च अदालत के आदेश पर केंद्र सरकार देश भर में एचसीएनजी लागू करने की तैयारी कर रही है। बता दें कि देश की राजधानी दिल्ली में एचसीएनजी बसें चलाने का ट्रॉयल सफल हो चुका है, जिसे देखते हुए अब इसे पूरे देश में लागू करने की योजना तैयार की जाएगी।

इंजनों की बढ़ेगी क्षमता

विशेषज्ञों का कहना है कि एचसीएनजी से न केवल 70 फीसदी प्रदूषण कम होगा, बल्कि इंजन की क्षमता बढ़ेगी। एचसीएनजी सीएनजी से केवल दो-तीन रुपये महँगी हो सकती है। लेकिन इसके लिए कारों के इंजनों में कोई विशेष बदलाव करने की ज़रूरत नहीं होगी। ट्रायल रिपोर्ट कहती है कि एक बार की फुल टैंक एचसीएनजी से कोई कार 600 से 800 किलोमीटर चलेगी। पिछले साल विशेषज्ञों की एक समिति ने वायु प्रदूषण घटाने के लिए सीएनजी में 18 फीसदी हाइड्रोजन मिलाने का सुझाव दिया था। इस सुझाव के पीछे ईंधन की लागत को घटाना था; क्योंकि केवल हाइड्रोजन का इस्तेमाल करने से वाहन चलाने का खर्चा अधिक आता है। इतना ही नहीं, हाइड्रोजन से चलने वाला कार का इंजन भी काफी महँगा पड़ता है; क्योंकि उच्चस्तरीय इंजन बनाने में निर्माता कम्पनियों को अधिक लागत लगानी पड़ती है।

घटेगी पेट्रोलियम पदार्थों की खपत

भारत में अधिकतर वाहन पेट्रोल-डीजल से चलते हैं। ऐसे में एचसीएनजी का उपयोग शुरू होगा, तो पेट्रोलियम पदार्थों की खपत बहुत घट जाएगी, जिससे भारत का पेट्रोलियम कारोबार काफी कम हो जाएगा। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका, रूस, चीन, जापान, दुबई, कनाडा, ब्राजील, इजराइल, दक्षिण कोरिया जैसे देश ग्रीन एनर्जी की दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए काफी उत्साहित हैं। विकसित देशों में बतौर वाहन ईंधन के रूप में हाइड्रोजन के इस्तेमाल को लेकर लगातार ट्रॉयल हो रहे हैं। भारत भी पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता को कम करने के लिए सीएनजी, एचसीएनजी, एलपीजी, बॉयो फ्यूल आदि को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने के विकल्प को चुनना अच्छा साबित हो सकता है।

आसान नहीं प्रदूषण घटाना

भारत में प्रदूषण कम करना उतना आसान नहीं है। हर साल जहाँ पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में किसान पराली जलाते हैं, वहीं गाँवों, कस्बों यहाँतक कि शहरों में भी लोग सर्दियों में जमकर आग जलाते हैं। गाँवों में तो अधिकतर घरों में आज भी लकड़ी-गोबर के कंडों आदि से खाना बनाया जाता है। इसके अलावा भारत में उद्योगों और फैक्ट्रियों से उठने वाले धुएँ से भी विकट वायु प्रदूषण फैलता है। चिकित्सा विशेषज्ञों और वायु प्रदूषण पर जारी रिपोर्टों की मानें तो वायु प्रदूषण इंसानों के स्वास्थ्य के लिए तीसरा सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। अमेरिका स्थित हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट (एचईआई) और इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवेल्यूएशंस (आईएचएमई) की ओर से जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2019 की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषित हवा से जितनी मौतें हो रही हैं, उतनी तो धूम्रपान से भी नहीं हो रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के कारण दुनिया भर में सन् 2017 में तकरीबन 49 लाख लोगों की मौत हुई थी। दुनिया भर में कुल मौतों में 8.7 फीसदी मौतें केवल वायु प्रदूषण से हो रही हैं।

भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें

अमेरिका स्थित हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट (एचईआई) और इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवेल्यूएशंस (आईएचएमई) की ओर से जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2019 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वायु प्रदूषण की वजह से बड़ी संख्या में लोग समय से पहले ही मौत के मुँह में समा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में वायु प्रदूषण की वजह से लोगों की आयु औसतन 2.6 साल कम हुई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में बाहरी वायु प्रदूषण के चलते लोगों की औसत आयु 18 महीने और घरेलू प्रदूषण के कारण औसत आयु 14 महीने कम हुई है। यह कम हो रही वैश्विक औसत आयु के औसत 20 महीने से  काफी ज़्यादा है।

रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2017 में भारत में वायु प्रदूषण से करीब 12 लाख लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद के आँकड़े हमें प्राप्त नहीं हुए हैं। क्योंकि यह 2019 के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट के हैं। यह मौतें बाहरी और घरेलू वायु प्रदूषण के अलावा ओजोन प्रदूषण के मिले-जुले कारणों से हुई थीं। रिपोर्ट में कहा गया कि 12 लाख मौतों में से 6 लाख 73 हज़ार 100 मौतें बाहरी वायु प्रदूषण की वजह से और 4 लाख 81 हज़ार 7 सौ मौतें घरेलू वायु प्रदूषण की वजह से हुई थीं। इसी तरह चीन में भी 2017 में 12 लाख, पाकिस्तान में एक लाख 28 हज़ार, इंडोनेशिया में एक लाख 24 हज़ार, बांग्लादेश में एक लाख 23 हज़ार, नाइजीरिया में एक लाख 14 हज़ार, अमेरिका में एक लाख 8 हज़ार, रूस में 99 हज़ार, ब्राजील में 66 हज़ार और फिलीपींस में 64 हज़ार मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ओजोन प्रदूषण पिछले एक दशक में बहुत बड़ा खतरा बनकर उभरा है। सन् 2017 में दुनिया भर में ओजोन प्रदूषण के कारण तकरीबन पाँच लाख लोग असमय मृत्यु को प्राप्त हुए। 1990 से 2017 तक इसमें 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

रिपोर्ट में किये गये विश्लेषण से पता चलता है कि दुनिया की अधिकतर आबादी अस्वस्थ है और प्रदूषण में जी रही है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा निर्धारित हवा के मानकों के अनुसार, 90 फीसदी से अधिक आबादी शुद्ध हवा में साँस नहीं ले रही है।

वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियाँ

वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियाँ भारत में तेज़ी से पाँव पसार रही हैं। आज हर आदमी थोड़ा-बहुत बीमार है, जिसका एक बड़ा कारण वायु प्रदूषण है। वायु प्रदूषण से हृदयाघात, फेफड़ों की बीमारियाँ, कैंसर, मधुमेह, श्वसन सम्बन्धी बीमारियाँ होती हैं। स्वास्थय रिपोर्टों की मानें तो वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों में 49 फीसदी मौतें फेफड़ों और 33 फीसदी मौतें फेफड़ों के कैंसर, 22 फीसदी मौतें मधुमेह, 15 फीसदी मौतें हृदयाघात और 22 फीसदी मौतें हृदय की अन्य बीमारियों के चलते हुई हैं। अध्ययन में पहली बार वायु प्रदूषण को टाइप-2 मधुमेह से जोड़ा गया है। भारत में यह महामारी का रूप ले चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में मधुमेह पर वैश्विक अर्थ-व्यवस्था का 1.8 फीसदी खर्च हुआ, जो कि सभी देशों के स्वास्थ्य तंत्र के लिए तेज़ी से बढ़ती चुनौती है। रिपोर्ट के नतीजों में कहा गया है कि पीएम-2.5 मधुमेह (टाइप-2) के मामलों के साथ-साथ मृत्यु दर को बढ़ाता है। ग्लोबल बर्डन डिसीज-2017 के एक विश्लेषण में उच्च रक्तचाप और मोटापे के बाद मधुमेह (टाइप-2) से होने वाली मौतों के लिए वायु प्रदूषण (पीएम-2.5) को तीसरा सबसे बड़ा खतरा बताया गया था। वर्ष 2017 में दुनिया भर में पीएम-2.5 से होने वाले मधुमेह (टाइप-2) से दो लाख 76 हज़ार मौतें हुईं। भारत में यह खतरा बहुत तेज़ी से बड़ा है और इस साल पीएम-2.5 के कारण 55,000 मौतें हुईं।

बचाव के रास्ते

आज वायु प्रदूषण सरकार के लिए चुनौती बन गया है। इसलिए भारत सरकार को वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे; ताकि इससे फैलने वाली बीमारियों के संक्रमण को रोका जा सके। वैसे केंद्र सरकार के एचसीएनजी लागू करने के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि वायु प्रदूषण के स्तर को कम करना बहुत ज़रूरी हो गया है। इसके अलावा राज्य सरकारों, नेताओं, अभिनेताओं, अधिकारियों और लोगों को भी वायु प्रदूषण से निपटने के लिए आगे आना होगा। इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरत अधिक-से-अधिक पेड़ लगाने की है; ताकि भविष्य को सुरक्षित किया जा सके। साथ ही वनों और निर्माण के लिए जगह-जगह पेड़ों के कटान को एकदम रोकना होगा।

हिन्दू-धर्म को समझना – 4: अध्यात्म के प्रमुख आधार वेद

दिव्य ज्ञान के सबसे पुराने ज्ञात ग्रन्थ ऋग्वेद में 1,017 या 1,028 भजन शामिल हैं, जिनमें लगभग 10,600 श्लोक हैं। प्रत्येक भजन में औसतन 10 श्लोक होते हैं। सबसे छोटे भजन में केवल एक श्लोक है, जबकि सबसे लम्बे भजन में 28 श्लोक हैं। यह कहता है कि ऋचाओं या सूक्तों का ज्ञान ही ऋग्वेद का शाब्दिक अर्थ है। ऋत का अर्थ है- एक भजन, जिसमें स्तुति है और वेद का अर्थ है- ज्ञान। इसमें 10 मण्डल, 102 सूक्त और 10,555 मंत्र शामिल हैं।

यजुर्वेद (700 – 300 ई.पू.) को हिन्दू विश्व नामक ग्रन्थ में वॢणत किया गया है, जहाँ इसे दूसरे वेद के रूप में माना गया है। यह मुख्य रूप से ऋग्-वैदिक भजनों से संकलित है, लेकिन मूल ऋग्वेदिक पाठ से काफी अलग दिखता रहा है। इसके बाद की तारीख में गद्य अनुवाद भी हुए हैं। यजुर्वेद साम-वेद संहिता (संग्रह) की तरह है, जो कि ऋग्वेद से अलग एक मील का पत्थर सिद्ध होता है।

यजुर्वेद ऋग्वेद के सहज, मुक्त पूजन-काल और बाद के ब्राह्मणवादी-काल के बीच एक भेद का प्रतिनिधित्व करता है, जब कर्मकाण्ड दृढ़ता से स्थापित हो गया था। यह पुरोहित हस्तपुस्तिका है, जिसका नाम बलिदान (यज) के प्रदर्शन के लिए प्रज्ज्वलित रूप में रखा गया है, जैसा कि इसके नाम का अर्थ भी है। यह उनकी सम्पूर्णत: में बलिदान करने योग्य सूत्र का प्रतीक है। वेदियों के निर्माण के नियमों को निर्धारित करता है- नये और पूर्ण यज्ञों, राजसूय, अश्वमेध और सोम यज्ञों के लिए।

हर विस्तार में अनुष्ठान के सख्त पालन पर ज़ोर दिया गया था और विचलन के कारण नयी विचारधाराओं का निर्माण हुआ। पतंजलि (200 ईसा पूर्व) के समय एक सौ से अधिक यजुर्वैदिक विचारधाराएँ थीं। साख साहित्य का अधिकांश भाग यजुर्वैदिक ग्रन्थों के रूप में विकसित हुआ। यजुर्वेद में यज्ञ इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि देवता भी ब्राह्मणों की मर्ज़ी पर चलने को मजबूर हो जाते हैं। धर्म एक यांत्रिक अनुष्ठान बन जाता है, जिसमें पुजारियों की भीड़ विशाल और जटिल अनुष्ठानों का आयोजन करती है, जिनके प्रभाव को लेकर माना जाता है कि इनका असर दूर आकाश में भी महसूस किया जाता है।

इसके आधारभूत सिद्धांत अन्धविश्वास और पुजारियों की शक्ति में विश्वास के साथ खुद को लौकिक आदेश से पूर्ववत् थे कि आलोचकों ने उनकी तुलना मस्तिष्क विभ्रमों के प्रलाप से की है। पुजारी विशेष रूप से यजुर्वेदिक समारोहों के साथ जुड़े हुए थे। यजुर्वेद में अब दो समिधाएँ शामिल हैं, जो एक बार एक सौ और एक बार मौज़ूद थीं। दोनों समाहितों में लगभग एक ही विषय है, लेकिन अलग-अलग व्यवस्था है।

तैत्तिरीय संहिता, जिसे आमतौर पर अर्थ की अस्पष्टता के लिए काला यजुर्वेद कहा जाता है; तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में जाना जाता था और दोनों में से एक है। इसे मिला-जुला और प्रेरक चरित्र के रूप में वॢणत किया गया है। इस संहिता में मंत्र और ब्राह्मण भागों के बीच का अन्तर अन्य वेदों की तरह स्पष्ट नहीं है।

वाजसनेयी संहिता, या श्वेत यजुर्वेद, ऋषि यज्ञसेनी संहिता के लिए सूर्य देव द्वारा उनके समान रूप में संप्रेषित किया गया था। इसमें बहुत अधिक व्यवस्थित प्रक्रिया है और यह आदेश और प्रकाश लाता है और यह काले यजुर्वेद के भ्रम और अँधेरे के विपरीत है। ‘सेक्रेड स्क्रिप्ट्स ऑफ इंडिया’ नाम की किताब में कहा गया है कि यजुर्वेद मनुष्यों को कर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है और इसीलिए इसे कर्म-वेद भी कहा जाता है। यजुर्वेद का सार उन मंत्रों (अवतारों) में निहित है, जो लोगों को क्रिया आरम्भ करने के लिए प्रेरित करते हैं।

यह आगे कहता है कि यजुर्वेद की कई शाखाएँ हैं। लेकिन दो शाखाओं, अर्थात् कृष्णा और शुक्ल यजुर्वेद को अपेक्षाकृत अधिक प्रमुखता प्राप्त हुई है। अर्थात् कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। इसके अलावा यह कहता है कि यजुर्वेद बाद में तैत्तिरीय संहिता के रूप में नामित किया गया था। सामवेद (700-300 ईसा पूर्व) (समन, माधुर्य) तीसरा वेद। इसका संहिता या प्रमुख भाग पूर्ण रूप से महत्त्वपूर्ण है, जिसमें 1549 छन्द हैं; जिनमें से केवल 75 ऋग्वेद के लिए उपलब्ध नहीं हैं। छन्दों को दो पुस्तकों या छन्दों के संग्रह में व्यवस्थित किया गया है। सामवेद धुनों और मंत्रों के ज्ञान का प्रतीक है।

इस वेद की संहिता ने उन पुजारियों के लिए एक पाठ्यपुस्तक के रूप में कार्य किया, जिन्होंने सोम बलिदानों में काम किया था। यह धुनों को इंगित करता है; जिसमें पवित्र भजन गाये जाने हैं, जो कि गायन में आवश्यक अक्षरों की पुनरावृत्ति और प्रक्षेप को दर्शाते हैं। साम-वेद में सोम संस्कारों का भी विस्तृत विवरण है। सामवेद से जुड़े हुए आचार्य को उद्गति के नाम से जाना जाता है। सामवेद में कई आह्वान सोमा को सम्बोधित हैं, कुछ अग्नि को और कुछ इंद्र को।

सामवेद का मंत्र भाग साहित्यिक गुणवत्ता और ऐतिहासिक अभिरुचि में खराब है; लेकिन इससे सम्बन्धित ब्राह्मण महत्त्वपूर्ण हैं। सामवेद (पुराणों में एक हज़ार की बात) के एक बार के कई समासों में से केवल एक हम तक पहुँच गया है, तीन पुनरावृत्तियों में, अर्थात् गुजरात में वर्तमान कौथामा, महाराष्ट्र में रणायन्या, और कर्नाटक में जयमुनिया। भारत के पवित्र ग्रन्थों में वॢणत है कि ऋचाओं (श्लोकों) के संकलन को साम कहा जाता है। साम ऋचाओं पर निर्भर है। ऋचाओं में बोलने की सुन्दरता है। ऋचाओं की सुन्दरता साम में है और उसी की सुन्दरता उच्चारण और गायन की शैली में निहित है। इसलिए साम का ज्ञान सामवेद में है। यह गीता-10 / 22 को संदॢभत करता है, जहाँ श्रीकृष्ण ने सामवेद के महत्त्व को निम्नलिखित तरीके से बताया है- ‘वेदमन सामवेदो असमी’, जिसका अर्थ है- ‘मैं स्वयं वेदों में सामवेद हूँ।’

सामवेद के दो भाग हैं- (क) पूर्वाॢचक (ख) उत्तराॢचक। इन दोनों के बीच में महानामाॢणक्यक है, जिसमें 10 भस्म शामिल हैं। पूर्वाचारिका आज्ञेय के चार भाग हैं- पूर्वाॢचक अग्नेय, अनेद्र, पावमन और आसन्य। अथर्ववेद को हिन्दू विश्व में चौथा वेद माना जाता है; जिसके मूल में बहुत अधिक विवादास्पद अटकलें हैं। इसे ब्रह्म-वेद के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह मुख्य बलि पुजारियों, ब्राह्मणों के मैनुअल के रूप में कार्य करता था।

अथर्ववेद में ब्राह्मणों और उनके कारण होने वाले सम्मान के बारे में एक बड़ी बात कही गयी है। कार्य का छठवाँ भाग दशांश नहीं है, और लगभग छठवाँ भाग भजन ऋग्वेद के भजनों में भी पाये जाते हैं, जिनमें से ज़्यादातर पहली, आठ और 10वीं किताबों में हैं। शेष विषय अथर्ववेद के लिए अजीब है, यह वेद एक बार नौ अलग-अलग मोहरों में मौज़ूद था, जिनमें से केवल दो, पिप्पलाद और सनक का विस्तार मौज़ूद है, जो पूर्व में एक एकल द्वारा प्रकाशित टूबिंगन पाण्डुलिपि में रोथ द्वारा खोजा गया था। अथर्ववेद प्राचीन भारत के जादुई सूत्र का प्रतीक है, और इसका अधिकांश भाग मंत्र, भस्म, मंत्र और मंत्र के लिए समर्पित है।

सामान्य तौर पर आकर्षण और मंत्र दो वर्गों में विभाजित होते हैं; वे या तो भेषजानी हैं, जो औषधीय, उपचार और शान्त प्रकृति के हैं; बुखार, कुष्ठ, पीलिया, जलोदर और अन्य बीमारियों के इलाज और जड़ी-बूटियों से जुड़े हैं। इस वर्ग में सफल प्रसव के लिए प्रार्थनाएँ, प्रेम-मंत्र, चंचलता के लिए आकर्षण, पौरुष की प्राप्ति के लिए, पुत्रों के जन्म के लिए भजन और एक विचित्र मंत्र का जाप किया जाता है, ताकि रात को प्रेमी लडक़ी के घर में चोरी कर सके। या फिर वे अभिजात्य वर्ग के हैं, जो एक उत्साही और पुरुषवादी प्रकृति के हैं; इनमें बीमारियाँ पैदा करने और दुश्मनों के लिए दुर्भाग्य लाने के मंत्र शामिल हैं।

उनमें से एक मंत्र है कि एक महिला अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ उसका उपयोग कर सकती है, ताकि वह हमेशा कुँवारी बनी रहे। एक और मंत्र एक आदमी के पौरुष को नष्ट करने के लिए है, बगैरा-बगैरा। इसमें नागों और दैत्यों के भजन होते हैं, और भस्म से भरा हुआ जादू टोना और काला जादू। अथर्ववेद के प्रतिष्ठित लेखकों में से एक फारसी वंश के मग के ऋषि अथर्वन थे। लेकिन कुछ भागों में, विशेष रूप से जादूगरों और ओझाओं के संस्कारों को इंगित करने वाले छन्दों को ऋषि अंगिरस और आर्यकाल से पूर्व छन्दों को द्रविड़ सामग्री से उत्पन्न ठहराया गया था। कहा जाता है कि भजन, प्राचीन काल के ऋषि सुमन्तु द्वारा संग्रहित किये गये थे, जिन्हें व्यवस्थित करने के लिए ऋषि व्यास को सामग्री दी गयी थी।

विद्वान अथर्ववेद में मेसोपोटामियन प्रभाव देखते हैं। उनमें डॉ. भण्डारकर भी हैं, जो इसमें असुरों की जादुई विद्या का वर्णन करते हैं। अन्य लोग व्रात्य और माग सिद्धांत के प्रमाण देखते हैं। विष्णु पुराण और भाव पुराण, अंगिरस को मग के चार वेदों में से एक के रूप में बताते हैं। अथर्ववेद में घटित होने वाले विदेशी शब्द, जो तिलक ने चेल्डी (बेबीलोनिया का एक प्राचीन क्षेत्र) से लिए थे; संस्कृत के लिए केवल अजीब ही हो सकते हैं, और अच्छी तरह से मग पुजारियों की नियमित शब्दावली का हिस्सा बन सकते हैं।

सदियों से वैदिक आर्यों ने ज्योतिष के सभी जानकारों को अशुद्ध माना, और उन्हें श्राद्ध संस्कार से बाहर रखा। उन्होंने अपने सामाजिक वातावरण से उन लोगों को भी परेशान किया, जो चिकित्सक के पेशे का अनुसरण करते थे। लम्बे समय तक अथर्ववेद को अन्य तीन वेदों में शामिल नहीं किया गया था। हालाँकि वेदों को अब संख्या में चार कहा जाता है, लेकिन यह मूल रूप से मान्यता प्राप्त संख्या नहीं थी। सबसे पुराने अभिलेखों में केवल तीन वेदों का उल्लेख है, अर्थात् ऋग्, साम और यजुर्।

मनु इनको त्रयी (त्रय) के रूप में बताते हैं, जिनका अग्नि, वायु और सूर्य से उद्गम है।  और अथर्ववेद को भी उनके समय में स्वीकार नहीं किया गया था। छान्दोग्य उपनिषद् में इसका कोई सन्दर्भ नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में केवल तीन वेदों का उल्लेख है- जातक ग्रन्थों में भी केवल तीन को जानते हैं। इससे यह वर्णन नहीं प्रतीत होता कि अथर्ववेद उस समय अस्तित्वहीन था, जब अन्य वेदों की रचना की गयी थी; लेकिन यह आर्यों के पवित्र धर्मग्रन्थों का हिस्सा नहीं था। इसकी विहित स्थिति के बारे में आज कहा गया है कि दक्षिण भारत के प्रभावशाली विद्वान अब भी अथर्ववेद की वास्तविकता को नकारते हैं। भारत के पवित्र ग्रन्थों के शीर्षक में इस वेद पर चर्चा करते हुए इस वेद को आन्दोलन या एकाग्रता से रहित बताया गया है। थर्व शब्द का अर्थ चंचलता या गति है और तद्नुसार अथर्व शब्द का अर्थ है- जो अटूट, एकाग्र या अपरिवर्तनशील है। इसीलिए कहा जाता है कि थर्व गति कर्म न थर्व इति अथर्व। योग के दर्शन में वर्णन है कि योग चित्त वृत्ति निरोध, जिसका अर्थ है- योग में मन और इंद्रियों के विभिन्न आवेगों को नियंत्रित करना।

गीता पुन: बताती है कि जब मन आवेगों और दोषों से मुक्त होता है, तो मन स्थिर हो जाता है और जब व्यक्ति मन के आवेगों और अन्य इंद्रियों के नियंत्रण में होता है, तो वह तटस्थ हो जाता है; तभी मन अस्थिरता और गड़बड़ी से मुक्त हो सकता है। इसलिए अथर्व शब्द व्यक्तित्व की तटस्थता को दर्शाता है। अथर्ववेद योग, मानव शरीर विज्ञान, विभिन्न रोगों, सामाजिक संरचना, आध्यात्मिकता, प्राकृतिक सौंदर्य की प्रशंसा, राष्ट्रीय धर्म आदि के बारे में अधिक बोलता है। यह ज्ञान व्यावहारिक है और उपयोग में लाने के लायक है। यह वेद एक साथ गद्य और कविता का संलयन है। आयुर्वेद से सम्बन्धित कई तथ्य यहाँ देखे गये हैं; इसीलिए आयुर्वेद को इस वेद का उपवेद माना जाता है। यह लेखन केवल वेदों के आध्यात्मिक पहलुओं पर प्रकाश डालता है। इस ग्रन्थ के अन्य कम ज्ञात पहलुओं पर बाद में चर्चा की जाएगी।

(अगले अंक में- शाश्वत् संकट मोचक पुराण)

श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर की अकूत सम्पत्ति पर शाही परिवार का अधिकार

केरल के सुप्रसिद्ध श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर पर पिछले सप्ताह आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला जहाँ ट्रावनकोर शाहीसी परिवार के लिए अपार खुशियाँ लेकर आया, वहीं मंदिरों के प्रबन्धन, प्रशासन पर सरकारी नियंत्रण और सम्पत्ति के अधिकार के बारे में भी यह मील का पत्थर साबित होगा। श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर की सम्पत्ति पर शाही परिवार का अधिकार होना चाहिए या नहीं 1991 से 2011 तक केरल की निचली अदालत और केरल हाई कोर्ट में यह मुकदमा चला। शाही परिवार केरल सरकार से हाई कोर्ट में मुकदमा हार गया था। केरल हाई कोर्ट ने 2011 में अपने एक फैसले में राज यानी शाही परिवार के अधिकार को मान्यता न देकर प्रबन्धन समिति को पूरा अधिकार दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर की सम्पत्ति के प्रबन्धन का सेवायत अधिकार परम्परा के अनुसार, ट्रावनकोर शाहीपरिवार के पास रहेगा। अंतिम शासक की मृत्यु के बाद भी परिवार के वर्तमान सदस्यों के पास ही यह अधिकार रहेगा। तिरुअनंतपुरम के ज़िला जज की अध्यक्षता वाली कमेटी फिलहाल मंदिर की व्यवस्था देखेगी। देवता की पूजा, मंदिर की सम्पत्तियों का रखरखाव, श्रद्धालुओं को सुविधाएँ उपलब्ध कराने जैसे तमाम काम का अधिकार पाँच सदस्यीय प्रशासनिक कमेटी और तीन सदस्यीय एडवाइजरी कमेटी देखेगी।

और इसी के साथ दशकों से केरल सरकार और शाहीपरिवार के बीच दशकों से चल रहा विवाद समाप्त हो गया। श्रीपद्मनाभम् मंदिर देश के सर्वाधिक अमीर मंदिरों में से एक है। एक अनुमान के अनुसार, मंदिर के पास दो लाख करोड़ की सम्पत्ति है। मंदिर में 6 खजाने हैं, जिनमें से केवल पाँच ही खोले जा सके हैं। एक खजाना आज तक नहीं खोला जा सका। माना जाता है कि जिसने भी यह खजाना खोलने का प्रयत्न किया, वह जीवित नहीं बचा। मान्यता है कि सैकड़ों सर्प इस खजाने की रक्षा करते हैं इसके भीतर कितना सोना, कितनी चाँदी और कितने जवाहरात हैं? शाही परिवार को स्वयं भी इसका अनुमान नहीं है।

जस्टिस उदय ललित और जस्टिस इन्दु मलहोत्रा की दो सदस्यीय खण्डपीठ के फैसले का पूरे हिन्दू समुदाय ने स्वागत किया है। विश्व हिन्दू परिषद् के अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार कहते हैं कि वैसे तो इस फैसले का अभी बाकी सरकारी नियत्रंण वाले मंदिरों पर बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा, लेकिन यह एक अच्छा फैसला है कि ट्रावनकोर परिवार को उनका पारम्परिक अधिकार मिल गया; वास्तव में वहीं इसके सही उत्तराधिकारी हैं। देवस्थानम बोर्ड पर अभी आगे लम्बी योजना के साथ विचार करना होगा, तभी कुछ हो पायेगा। उन्होंने कहा सरकार के अफसरों का काम मंदिर चलाना नहीं है। श्रीपद्मनाभम् मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनायी गयी खजाना कमेटी के अध्यक्ष पूर्व आईएएस ऑफिसर सी.वी. बोस कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मील का पत्थर और सम्भवत: गेम चेंजर (खेल का पासा पलट) साबित होगा। धर्म और शाहीनीति दो अलग चीज़ें हैं। धर्म निजी मामला है और सरकार चलाना संवैधानिक काम है। ये दोनों अलग-अलग ही रहने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आम जनता भी इस विषय पर अपनी साझा धार्मिक राय बनायेगी।

श्रीपद्मनाभम् स्वामी यानी भगवान विष्णु सदियों से ट्रावनकोर शाही परिवार के कुल देवता हैं। इनका विसाल और भव्य मंदिर वर्तमान केरल राज्य की शाहीधानी तिरूअनन्तपुरम् में है। अपने कुल देवता और पूरे राज्य की सीमा में आने वाले सभी मंदिर शाही परिवार की सम्पत्ति थे और इनका प्रबन्धन और प्रशासन भी शाहीपरिवार के हाथ में था। वास्तव में 1947 से पहले ट्रावनकोर शाही घराने के शासन के अंतर्गत आने वाले सभी मंदिरों का प्रबन्धन और नियंत्रण ट्रावनकोर और कोचीन देवासम बोर्ड के पास था। ट्रावनकोर ने जब भारत सरकार के साथ विलय संधि पर हस्ताक्षर कर दिये, तो 1949 से श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर प्रशासन का ट्रस्ट ट्रावनकोर के शाहीा को ही दिया गया। केरल राज्य 1956 में बना; लेकिन तब भी मंदिर का प्रबन्धन शाही परिवार के हाथ में ही रहा। शाहीा बलराम वर्मा की 1991 में मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई मार्तंड वर्मा ने मंदिर प्रबन्धन अपने हाथ में ले लिया। कुछ भक्तों को यह रास नहीं आया उन्होंने मार्तंड वर्मा को अदालत में चुनौती दी। केरल सरकार भी भक्तों के साथ इसमें पार्टी बन गयी।

केरल की अदालत ने ट्रावनकोर कोचीन हिन्दू रीलिजियस इंस्टीट्यूशन एक्ट-1950 के सीमित दायरे में मार्तंड वर्मा के अधिकार और प्राचीन श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर के नियत्रंण और प्रबन्धन के दावे को देखा और उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। अदालत ने कहा शाहीा मार्तंड वर्मा को मंदिर प्रबन्धन या नियंत्रण का कानूनी अधिकार नहीं है। क्या मंदिर शाही परिवार की सम्पत्ति है, विवाद इस पर था। शाही परिवार की दलील थी कि परम्परा के अनुसार मंदिर पर उनका अधिकार हमेशा ही रहेगा। हालाँकि शाहीा बलराम वर्मा ने अपनी लम्बी-चौड़ी वसीयत में अपनी निजी सम्पत्तियों में श्रीपद्मनाभम् मंदिर का नाम नहीं लिखा था। अब सवाल यह आया कि मंदिर पर प्रशासकीय अधिकार किसका है? मंदिर के गुप्त खजाने खोले जाएँगे या नहीं? शाहीा मार्तंड वर्मा ने 2007 में दावा किया कि मंदिर के अमूल्य खजाने पर शाही परिवार का अधिकार है। शाहीा के दावे के खिलाफ बहुत सारे मुकदमे किये गये। केरल की एक निचली अदालत ने शाहीपरिवार दवारा खजाने खोले जाने पर अंतरिम रोक लगा दी। मामला केरल हाई कोर्ट पहुँचा। शाहीपरिवार को यहाँ भी केरल सरकार से कड़ा मुकाबला करना पड़ा।

केरल हाई कोर्ट ने 31 जनवरी, 2011 में शाही परिवार के खिलाफ फैसला सुनाया और राज्य सरकार को आदेश दिया कि मंदिर के मामलों के प्रबन्धन के लिए एक ट्रस्ट का गठन किया जाए। जो मंदिर का प्रबन्धन ओर प्रशासन देखेगा और मंदिर की पूरी सम्पत्ति पर भी इसी का अधिकार होगा। ट्रावनकोर शाही परिवार ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। और वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम और पूर्व महालेखा नियंत्रण अधिकारी विनोद राय को अमिक्स क्यूरे कोर्ट का मित्र नियुक्त किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मंदिर के खजाने में मूल्यवान वस्तुओं, आभूषणों का भी विस्तृत विवरण तैयार किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई, 2011 को कहा था कि मंदिर के तहखाने-बी के खुलने की प्रक्रिया पर अगले आदेश तक रोक रहेगी। जुलाई, 2017 में कोर्ट ने कहा था कि वह इन दावों का अध्ययन करेगा कि मंदिर के एक तहखाने में रहस्यमयी ऊर्जा वाला अपार खजाना है।

खजाने खोले गये। पाँच खजाने खुल गये; लेकिन छटा खजाना कोई आज तक नहीं खोल पाया है। शाही परिवार का कहना है कि इसके पीछे कोई रहस्यमयी श्राप है, जो भी इसको खोलेगा या खोलने की कोशिश करेगा, वह जीवित नहीं रहेगा। श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर में अपार सोना-चाँदी और हीरे-जवाहरात हैं। अब सवाल यह उठा कि इन पर किसका स्वामित्त्व होगा? सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के मूल्य खजाने को ट्रावनकोर परिवार की सम्पत्ति बताया। शाहीपरिवार के लिए यह एक बड़ी जीत है। ट्रावनकोर शाहीपरिवार सदियों से मंदिर का प्रबन्धन करता आया है और मंदिर की सम्पत्ति का अधिकार भी उसी के पास रहा है। मंदिर प्रबन्धन के लिए एत्रा योगम् यानी शाहीा और आठ लोगों की परिषद् बनायी जाती थी।

  अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार की दादागीरी और मंदिर के फण्ड का दुरुपयोग बन्द हो जाएगा। सरकार ने एक नहीं, अनेक बार मंदिर की सम्पत्ति और हिन्दू धार्मिक संस्थानों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। जबरन मुख्यमंत्री कोष में सहायता राशि दान करने का आदेश दिया। हिन्दुओं और पुजारियों ने बहुत बार शिकायत की कि गैर-हिन्दुओं, जिनकी भगवान और मंदिर में आस्था नहीं है; को मंदिर का प्रशासक नियुक्त कर दिया जाता था। अब यह सब अतीत की बात हो गये हैं। अब मंदिर का फण्ड सलाहकार समिति की सिफारिश पर धार्मिक और दान कार्यों के लिए दिया जा सकेगा। फण्ड कब और कैसे खर्च होगा? सरकार का इसमें कोई दखल नहीं होगा; न ही उसकी सलाह ली जाएगी। हालाँकि केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से बहुत अनुरोध किया कि प्रशासक समिति के सदस्य नियुक्त करने का अधिकार राज्य सरकार को दिया जाए; लेकिन दोनों जजों ने उसकी एक नहीं सुनी। राज्य तो क्या केंद्र सरकार का भी कोई भी प्रतिनिधि सलाहकार समिति में नहीं होगा। सलाहकार समिति का चेयरमैन केरल हाई कोर्ट का एक सेवानिवत्त जज होगा। दूसरा सदस्य कोई ऐसा प्रख्यात व्यक्ति होगा, जिसे ट्रस्टी नियुक्त करेगा; और तीसरा एक चार्टर्ड अकाउंटेंट होगा, जिसे चेयरमैन और ट्रस्टी मिलकर नियुक्त करेंगे। पाँच सदस्यीय प्रसासन समिति में तिरूअनन्तपुरम् ज़िला अदालत को जज, शाही परिवार केरल सरकार और केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय का एक प्रतिनिधि और पाँचवाँट्रस्टी मंदिर का तंत्री होगा। सुप्रीम कोर्ट ने शर्त रखी है कि सभी ट्रस्टी और सलाहकार हिन्दू होंगे। विहिप नेता आलोक कुमार इसे हिन्दू जनजागरण की जीत बताते हैं। उनका कहना है कि मंदिरों को सरकार के कब्ज़े से छुड़ाने की यह मुहिम जारी रहेगी। दक्षिण भारत में मंदिर मुक्ति अभियान चला रहे रंगराजन कहते हैं कि इस फैसले से हमारे अभियान को बहुत बल मिला है। हम आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में यह मुहिम चला रहे हैं। उनका कहना मंदिर का हर देवता अयोध्या के राम लला की तरह अपने मंदिर अपनी ज़मीन, अपनी सम्पत्ति, अपने खजाने का मालिक है। किसी और को, और विशेषकर गैर-हिन्दुओं को यह अधिकार बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने हैदराबाद के कुछ मंदिरों से हुण्डी हटा दी है, ताकि सरकार हुण्डी पर अपना हक न जमाये।

इसी तरह उत्तराखण्ड के तीर्थ पुरोहितों को भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से बहुत राहत मिली है। उत्तराखण्ड सरकार ने भी देवस्थानम बोर्ड बना दिया है। उत्तराखण्ड में बड़े-बड़े धाम हैं; तीर्थ हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुरोहित कार्यबार सँभालते आये हैं। वे सरकार का दखल नहीं चाहते हैं। जाने-माने वकील सुब्रह्मण्यम स्वामी उनका केस लड़ रहे हैं। श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मंदिरों को सरकारों के चंगुलों से मुक्त कराने में मील का पत्थर साबित होगा। यह तो केवल एक शुरुआत है। इसके बल पर अभी बहुत से मंदिरों की मुक्ति की लड़ाई शुरू होने वाली है।

मंदिर का प्रशासन और कायदे-कानून

ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत आने से पहले हिन्दू मंदिर कला, संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक कार्यक्रमों के मुख्य स्थल होते थे। समाज कल्याण के लिए गरीबों के लिए यहाँ से विभिन्न प्रकार की सेवाएँ भी चलती थीं। मंदिरों के पास अपनी सम्पत्ति, नकदी सोना-चाँदी भी बहुत होता था; विशेषकर दक्षिण भारत के मंदिर हर तरह से सम्पन्न थे। अंग्रेज शासकों को समझ आ गया था कि यदि भारत को अपना गुलाम बनाना है और धर्म परिवर्तन करवाना है, तो सबसे पहले मंदिरों को कमज़ोर करना होगा; उनका नियंत्रण अपने हाथ में लेना होगा। ब्रिटिश अफसर मंदिरों पर कब्ज़े के लिए मद्रास रेगुलेशन-111, 1817 लाये। लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1840 में यह रेगुलेशन वापस ले लिया। ईसाई मिशनिरियों को यह पसन्द नहीं आया कि हिन्दू मंदिरों पर ईसाई राज करें। फिर 1863 में रिलिजियस एंडोवमेंट एक्ट लाया गया; जिसके अनुसार, मंदिर ब्रिटिश ट्रस्टी को सौंप दिये गये। ट्रस्टी मंदिर चलाते थे; लेकिन सरकार की दखलअंदाज़ी कम-से-कम होती थी। मंदिर का फण्ड ज़्यादातर मंदिर के कार्यों के लिए ही प्रयोग किया जाता था। सैकड़ों मंदिर इस एक्ट के अनुसार चलते थे। फिर ब्रिटिश सरकार द मद्रास रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडावमैंट एक्ट-1925 ले आयी। अब हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम और ईसाई संस्थाएँ भी एक्ट के दायरे में आ गयीं। ईसाइयों और मुस्लिमों ने इसका कड़ा विरोध किया, तो सरकार को ये एक्ट दोबारा लाना पड़ा। ईसाई और मुस्लिमों को बाहर करना पड़ा और नया एक्ट बनाया गया मद्रास हिन्दू रिलिजियस एंड एंडोवमेंट एक्ट-1927। सिख इसके घेरे से पहले ही बाहर हो चुके थे 1925 में वे अपना सिख गुरुद्वारा एक्ट ले आये  थे। 1935 में इस एक्ट में बड़े बदलाव किये गये। आज़ादी के बाद तमिलनाडु सरकार ने परम्परा जारी रखी। 1951 में एक एक्ट पारित किया- हिन्दू रिलिजियस एंड एंडोवमेंट एक्ट। इसे मठों ओर मंदिरों ने मद्रास हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सरकार को बहुत-सी धाराएँ हटानी पड़ीं और 1959 में तत्कालीन कांग्रेस राज्य सरकार ने हिन्दू रिलिजियस एंड चेरिटेबल एक्ट पास किया। इसके तहत हिन्दू रिलिजियस एंडोवमेंट बोर्ड भंग कर दिये गये और सरकार में हिन्दू रिलिजियस एंड चेरिटेबल एंडावमेंट विभाग बना दिया गया; जिसका अध्यक्ष कमीशनर होता है। मंदिरों में हुण्डी रखी गयी सरकार द्वारा अधिकृत किये गये बैंक में हुण्डी का पैसा जमा होता है। दान और चढ़ावे की 65 से 70 फीसदी राशि प्रशासकीय कार्यों पर खर्च होती है। पुजारियों को बहुत कम वेतन दिया जाता है।

मंदिर का इतिहास

श्रीपद्मनाभम् स्वामी मंदिर केरल की राजधानी तिरूवनंतपुरम् में है। यह भारत के प्रमुख 108 वैष्णव मंदिरों में से एक है। यहाँ सुन्दर और विशाल विग्रह मुस्कुराते हुए भगवान विष्णु का शेषनाग की शय्या पर योग निद्र्रा में विराजमान हैं; जिसे अनन्त शयन कहते हैं। शहर का नाम तिरूअनन्तपुरम् भी भगवान विष्णु के अनन्त नाम पर पड़ा है। मलयालम में तिरू का अर्थ है- श्री यानी श्री अनंत का पुरम् (नगर या निवास)। भगवान विष्णु की नाभि में कमल खिला है। इसलिए यहाँ कहलाते हैं- श्रीपद्मनाभम्। श्रीपद्मनाभम् भगवान ट्रावनकोर राज परिवार के कुल देवता और रक्षक देवता हैं। राजसी परिवार को श्रीपद्मनाभम् का दास माना जाता है। इसलिए राजपुरुषों के नाम से पहले पद्मनाभम् दास और महिलाओं के नाम से पहले पद्नमाभम् सेविनी लगाया जाता है। विष्णु जी का विग्रह 12008 शालिग्राम शिलाओं से बनाया गया है। माना जाता है कि परशुराम जी ने द्वापर युग में श्रीपद्मनाभम् भगवान का पहला विग्रह बनाया था।

वर्तमान भव्य मंदिर ट्रावनकोर राजपरिवार ने 18वीं शताब्दी में बनवाया था। यह दक्षिण भारतीय मंदिर स्थापत्य कला का अद्भुत उदहारण है, जो द्रविड़ और चेरा स्थापत्य शैली के मिश्रण से बनाया गया है। इस मंदिर का वर्णन पुराणों में भी है। माना जाता है कि 5,000 वर्ष पहले यहाँ पहला श्रीपद्मनाभम् मंदिर बनाया गया था। मंदिर में गैर-हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। भगवान के दर्शन के लिए विशेष प्रकार की पोशाक पहनकर ही जाने की अनुमति है। पैंट-कमीज़ या जींस पहनकर इस मंदिर में नहीं जा सकते।

गुना में दलित किसान पर पुलिसिया हमले से गरमायी सियासत

मध्य प्रदेश के गुना ज़िले में भूमि से कब्ज़ा हटाने को लेकर प्रशासन-पुलिस द्वारा दलित परिवार पर बर्बरतापूर्ण कार्यवाही का वीडियो सामने आने के बाद पूरे प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मी और आक्रोश का माहौल बन गया है। इस मामले में एक तरफ जहाँ राजनीतिक पाॢटयाँ दलित वोट बैंक को पाने के लिए सहानुभूति की होड़ कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर दलित-आदिवासी समाज के लोग भी प्रशासन-पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई से आक्रोशित हैं। ज्ञात हो कि 14 जुलाई 2020 को भूमि से कब्ज़ा हटाने के दौरान खेत में खड़ी फसल को बर्बाद किये जाने तथा पुलिस द्वारा बर्बर तरीके से मारपीट किये जाने से दलित दम्पति राजकुमार अहिरवार और सावित्रीबाई ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या का प्रयास किया।

क्या है मामला

गुना में मॉडल कॉलेज के निर्माण के लिए शासकीय कॉलेज प्रबन्धन को जगनपुर चक क्षेत्र में 20 बीघा ज़मीन आवंटित की गयी थी। ज़मीन पर काफी लम्बे समय से गब्बू पारदी नाम के व्यक्ति का कब्ज़ा था। गब्बू पारदी ने राजकुमार अहिरवार को ज़मीन बटाई पर दी थी।

जानकारी के अनुसार, 14 जुलाई दोपहर को अचानक गुना नगर पालिका का अतिक्रमण हटाओ दस्ता एसडीएम के नेतृत्व में पहुँचा और राजकुमार द्वारा बोई गयी फसल पर जेसीबी चलवाना शुरू कर दिया। दम्पति अपने सात बच्चों तथा अन्य परिजनों के साथ प्रशासन-पुलिस अफसरों के सामने हाथ जोडक़र फसल बर्बाद न करने का अनुरोध किया। उसका कहना था कि चार लाख रुपये कर्ज़ लेकर इस भूमि पर बोवनी (बुआई) कर चुका है। अगर फसल उजड़ी तो वह बर्बाद हो जाएगा। जब ज़मीन खाली पड़ी थी, तो कोई नहीं आया। अब फसल अंकुरित हो आयी है। इस पर बुल्डोजर न चलाया जाए। मेरे परिवार में 10-12 लोग हैं। मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अत: यह प्रक्रिया फसल कटने के बाद पूरी कर लेना। लेकिन दलित किसान की फरियाद किसी ने नहीं सुनी। दलित दम्पति ने अधिकारियों को रोका, तो पुलिस ने उन पर बुरी तरह लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं।

बताया जाता है कि जब राजकुमार की नहीं सुनी गयी, तो उससे देखा नहीं गया। वह खेत में बनी अपनी झोंपड़ी में गया और वहाँ बोतल में रखा कीटनाशक पी लिया। अधिकारी कहने लगे, यह तो नाटक कर रहे हैं। काफी देर तक दोनों खेत में ही पड़े रहे। बाद में पुलिस ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया, जहाँ उनका इलाज चल रहा है। उधर राजकुमार का छोटा भाई शिशुपाल अहिरवार आया उसने विरोध किया, तो पुलिस ने उस पर भी लाठियाँ बरसायीं और उसे लातों से भी मारा। शिशुपाल अहिरवार ने बताया कि छोटे बच्चों को भी पुलिस वालों ने उठाकर दूर फेंक दिया।

वीडियो वायरल होने पर घिरी सरकार

जब प्रशासन-पुलिस की इस असंवेदनशील भूल और लाठी बरसाते, किसान के ज़हरीला कीटनाशक पीते हुए वीडियो वायरल हुए, तो विपक्ष समेत अनेक सामाजिक संगठनों ने भी इस मामले पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और सरकार को घेरने का प्रयास किया। वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री ने शीघ्र एक्शन लिया और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गुना के कलेक्टर और एसपी को हटा दिया तथा मामले की जाँच के आदेश दे दिये।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ट्वीट किया- ‘यह शिवराज सरकार प्रदेश को कहाँ ले जा रही है? यह कैसा जंगल राज है? गुना में कैंट थाना क्षेत्र में एक दलित किसान दम्पति पर बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों द्वारा इस तरह बर्बरता पूर्ण लाठीचार्ज।’ कमलनाथ ने दो और ट्वीट कर सरकार पर हमला बोला। दूसरे ट्वीट में लिखा- ‘यदि पीडि़त युवक का ज़मीन सम्बन्धी कोई शासकीय विवाद है, तो भी उसे कानूनन हल किया जा सकता है; लेकिन इस तरह कानून हाथ में लेकर उसकी, उसकी पत्नी की, परिजनों की और मासूम बच्चों तक की इतनी बेरहमी से पिटाई! यह कहाँ का न्याय है? क्या यह सब इसलिए कि वह एक दलित परिवार से है? गरीब किसान है? क्या ऐसी हिम्मत इन क्षेत्रों में तथाकथित जनसेवकों व रसूखदारों द्वारा कब्ज़ा की गयी हज़ारों एकड़ शासकीय भूमि को छुड़ाने के लिए भी शिवराज सरकार दिखायेगी? ऐसी घटना बर्दाश्त नहीं की जा सकती है। इसके दोषियों पर तत्काल कड़ी कार्यवाही हो, अन्यथा कांग्रेस चुप नहीं बैठेगी।’ कमलनाथ ने जाँच दल गठित करके मामले की पड़ताल के लिए गुना भेजा। जाँच दल ने पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए 9 बिन्दुओं की रिपोर्ट तैयार की, जिसमें मामले की जाँच सिटिंग जज से कराने, एट्रोसिटी एक्ट तहत दोषियों पर कार्यवाही करने, पीडि़त परिवार पर दर्ज प्रकरण वापस लेने, उसे नष्ट फसल का मुआवज़ा देने, कर्ज़ चुकाने, दो हेक्टेयर ज़मीन का पट्टा एवं आवास देने, इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज रेफर करने समेत कुछ अन्य बिन्दु थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पीडि़तों को डेढ़ लाख रुपये सहायता राशि भी देने की घोषणा की है।

इसी बीच मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने अपने ट्वीटर अकाउंट पर लिखा- ‘गुना के वीडियो को देखकर व्यथित हूँ। इस तरह की घटनाओं से बचा जाना चाहिए।’ उन्होंने जारी वीडियो में कहा कि मुख्यमंत्री (शिवराज सिंह) ने मामले में उच्चस्तरीय जाँच के आदेश दिये हैं, भोपाल से अधिकारी जाकर जाँच करेंगे और यह देखेंगे कि कौन दोषी है? दोषी पर क्या कार्रवाई हुई? इसकी रिपोर्ट देंगे।

सामाजिक संगठनों ने भी जतायी नाराज़गी

इस घटना के मध्य प्रदेश के अनेक सामाजिक संगठनों ने भी नाराज़गी जतायी और सरकार से दोषियों पर कार्यवाही करने की माँग की। मध्य प्रदेश में आदिवासियों-दलितों के पक्षधर और जयस संगठन के राष्ट्रीय संरक्षक एवं धार ज़िले के मनावर विधान सभा क्षेत्र से विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर दोषियों पर एट्रोसिटी एक्ट के तहत कार्यवाही करने तथा पाँच लाख रुपया मुआवज़ा देने की माँग की। वहीं अहिरवार महासंघ, बलाई महासंघ समेत अनेक सामाजिक संगठनों ने भी मुख्यमंत्री से कार्यवाही की माँग की है।

उप चुनाव में प्रभावित होगा दलित वोट बैंक

मध्य प्रदेश में 25 से ज़्यादा विधानसभा सीटों पर जल्द ही उप चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में यह मामला उप चुनाव को निश्चित ही प्रभावित करेगा; खासतौर से दलित वोट बैंक को। राजनीतिक पाॢटयाँ दलित वोट बैंक पाने के लिए सहानुभूति की होड़ में लगी हैं। सत्ताधारी भाजपा सरकार को जहाँ दलित वोट बैंक खिसकने का डर हैं, वहीं कांग्रेस भी दलित वोट बैंक हासिल करने के लिए भाजपा की तरह सहानुभूति की होड़ में लगी है।

खर्च बढ़ाने से मिलेगी विकास को रफ्तार

कोरोना महामारी ने देश की अर्थ-व्यवस्था को बहुत ज़्यादा कमज़ोर कर दिया है, जिसे फिर से मज़बूत करके ही लोगों को आॢथक रूप से सबल बनाया जा सकता है। यह तभी मुमकिन हो सकता है, जब खर्च में बढ़ोतरी हो। लोग खर्च करेें, तभी माँग में वृद्धि होगी। इससे उत्पादन व रोज़गार बढ़ेगा और लोग आत्मनिर्भर होंगे तथा विकास को बल मिलेगा। चूँकि महामारी की वजह से करोड़ों लोग रोज़गार से महरूम हो चुके हैं और स्व-रोज़गार करने वालों का भी लगभग चार महीने से काम-धन्धा ठप पड़ा हुआ है। यही वजह है कि लोग खर्च नहीं कर रहे हैं। जिनके पास पैसे हैं, वे भी अनावश्यक खर्च से परहेज़ कर रहे हैं। इसलिए आॢथक विकास को गति देने के लिए सरकार अब केंद्रीय सार्वजनिक कम्पनियों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। चालू वित्त में देश की 23 केंद्रीय सार्वजनिक कम्पनियों के पूँजीगत खर्च का लक्ष्य एक लाख 65 हज़ार 510 करोड़ रुपये है। अगर ये कम्पनियाँ अपने पूँजीगत खर्च के लक्ष्य को पूरा करती हैं, तो विकास की गति बढ़ सकती है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन कम्पनियों के शीर्ष प्रबन्धन के साथ बैठक करके उन्हें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कहा है।

जान के साथ जहान को बचाने के लिए लॉकडाउन की शर्तों में धीरे-धीरे राहत दी जा रही है। लॉकडाउन के कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम उधमियों की हालत बहुत ज़्यादा खराब हो गयी है। वे फिर से अपना कारोबार शुरू करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें तत्काल राहत मिलती दिखायी नहीं दे रही है। हालाँकि स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है; लेकिन गति अभी भी धीमी है। वित्त मंत्रालय के आॢथक मामलों के विभाग का कहना है कि अर्थ-व्यवस्था में सुधार आना शुरू हो चुका है। बिजली और पेट्रोल के ताज़ा आँकड़े इसे प्रमाणित कर रहे हैं। बिजली और पेट्रोल दोनों की खपत मई महीने में बढ़ी है। ई-वे बिल में भी बढ़ोतरी हुई है। वैसे मामले में अभी भी अनेक सुधारात्मक कदम उठाने की ज़रूरत है। मज़दूरों एवं कामगारों की उपलब्धता की समस्या भी है। लॉकडाउन की वजह से अधिकांश श्रमिक अपने गाँव चले गये हैं, जिन्हें वापस काम पर बुलाना आसान नहीं है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा पूँजीगत खर्च के लक्ष्य को हासिल करने पर इसलिए ज़ोर दे रही है, क्योंकि खर्च में वृद्धि किये बिना विकास के पहिये को नहीं घुमाया जा सकता है।

अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) और सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (जीएफसीई) का अहम योगदान होता है। घरेलू और गैर-लाभकारी संस्थानों द्वारा की गयी सेवाओं की अंतिम खपत व्यय को निजी अंतिम उपभोग व्यय कहते हैं। इसके अंर्तगत मन्दिर, गुरुद्वारे आदि द्वारा किये जा रहे टिकाऊ एवं गैर-टिकाऊ वस्तुओं व सेवाओं पर होने वाले अंतिम व्यय को शामिल किया जाता है। आवास एवं अन्य किराये, मकान की लागत, उत्पादन की लागत, वेतन या मज़दूरी का भुगतान, कर्मचारियों के लिए की गयी भोजन की व्यवस्था, कपड़ों पर किये खर्च आदि को भी निजी अंतिम उपभोग व्यय में शामिल किया जाता है। इसके आकलन में घरेलू उत्पादन एवं निवेश को भी आधार बनाया जाता है। आमतौर पर निजी अंतिम उपभोग व्यय का मूल्यांकन बाज़ार कीमत पर किया जाता है, जबकि सरकारी कार्यों या सरकार या सरकारी कम्पनियों द्वारा किये जाने वाले अंतिम उपभोग व्यय, जैसे- कर्मचारियों को दिया जाने वाला मुआवज़ा, सरकारी कार्यों से जुड़ी वस्तुओं एवं सेवाओं आदि को सरकारी अंतिम उपभोग व्यय कहा जाता है।

वित्त वर्ष 2018-19 में निजी अंतिम उपभोग व्यय में वृद्धि वर्ष दर वर्ष के आधार पर 8.1 फीसदी की दर से हुई, जो वित्त वर्ष 2017-18 में 7.4 फीसदी की दर से हुई थी। चालू वित्त वर्ष में भी कोरोना महामारी की वजह से इसके नकारात्मक रहने का अनुमान है। वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में वर्ष दर वर्ष आधार पर 5.8 फीसदी की दर से वृद्धि हुई, जो वित्त वर्ष 2017-18 में बढक़र लगभग तीन गुनी हो गयी। इसका कारण सातवें वेतन आयोग की सिफारिश को अमलीजामा पहनाना था। वित्त वर्ष 2018-19 में सरकारी अंतिम उपभोग व्यय कम होने से इसमें भारी कमी आयी और यह 9.2 फीसदी के स्तर पर पहुँच गयी। निजी अंतिम उपभोग व्यय, सरकारी अंतिम उपभोग व्यय एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना तिमाही आधार पर और वर्तमान व स्थिर मूल्यों पर की जाती है। इसमें भोजन, पेय पदार्थ, कपड़ा, फुटवेयर, आवास, पानी, बिजली, गैस, अन्य ईंधन, सजावट व रख-रखाव के सामान, घरेलू उपस्कर, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, शिक्षा आदि से जुड़े उत्पादों पर किया गया खर्च शामिल होता है; जो जीडीपी गणना का भी आधार होता है। वित्त वर्ष 2011-12 और वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान कुल जीडीपी में निजी अंतिम उपभोग व्यय का औसत हिस्सा 57.5 फीसदी रहा और इस अवधि में इसकी वृद्धि दर औसतन 6.8 फीसदी रही। निजी अंतिम उपभोग व्यय हमेशा से जीडीपी वृद्धि का महत्त्वपूर्ण कारक रहा है।

वित्त वर्ष 2016-17 में निजी अंतिम उपभोग व्यय का जीडीपी वृद्धि में दो-तिहाई का योगदान रहा, जबकि इस दौरान सरकारी अंतिम उपभोग व्यय का जीडीपी में 29 फीसदी का योगदान रहा था। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान जीडीपी में निजी अंतिम उपभोग व्यय की औसतन हिस्सेदारी 56 फीसदी थी, जो पहले के वर्षों के मुकाबले कम थी। वित्त वर्ष 2018-19 में सरकारी अंतिम उपभोग व्यय का भी जीडीपी में योगदान कम रहा। आँकड़ों से साफ है, निजी अंतिम उपभोग व्यय और सरकारी अंतिम उपभोग व्यय के योगदान के बिना जीडीपी में बढ़ोतरी नहीं हो सकती है। मौज़ूदा परिदृश्य में जीडीपी के नकारात्मक रहने का अनुमान है, जिसका कारण निजी अंतिम उपभोग व्यय एवं सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में कमी आना है। लॉकडाउन की वजह से अधिकांश लोग बेरोज़गार हो गये हैं और उनके पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। अर्थ-व्यवस्था को तभी गति मिल सकती है, जब खर्च में बढ़ोतरी होगी। ऐसे में विकास की गति को तेज़ करने के लिए सरकारी अंतिम उपभोग व्यय में वृद्धि लाना ही फिलहाल सरकार के पास एकमात्र विकल्प है।

कोरोना-काल में राज्य सरकारों की मनमर्ज़ी

कोरोना का कहर अब शहरों के साथ-साथ गाँवों  में भी इस कदर फैलता जा रहा है कि अब उसको काबू करने के प्रयास में जो भी सरकारी अमला लगा है, वह दिखावे के तौर पर साबित हो रहा है। क्योंकि लोगों को जागरूक करने के दौरान जो भी प्रयास किये जा रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर वे लोग खुद सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं; जो इसके लिए रखे गये हैं। बिडम्वना यह है कि सरकारें आँकड़ेबाज़ी में जनता को इस कदर उलझा रही हैं कि खुद भी उलझ गयी हैं। यह सब समझ से परे है; क्योंकि अब रोज़ाना कोरोना वायरस के संक्रमण के हज़ारों मामले आ रहे हैं और सैकड़ों लोगों की कोरोना वायरस से मौत हो रही है। ऐसे में आम जन भयभीत है।

वहीं राज्य सरकारों ने कोरोना की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए अपने-अपने तरीके से अल्पावधि के लॉकडाउन और बाज़ारों, दुकानों को खोलने की जो रोस्टर प्रणाली लागू की है, उसकी समीक्षा के लिए कोई मापदण्ड तय नहीं किये गये हैं। रोस्टर प्रणाली की जो रूपरेखा तय की गयी है, उसमें हमारे सिस्टम में भेदभाव वाली प्रणाली काफी परेशानी वाली साबित हो रही है। मसलन जिनकी पुलिस, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों से साठ-गाँठ है, वे लोग धड़ल्ले से दुकानें खोलकर दैनिक कार्य को अंजाम दे रहे हैं, जिससे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन बेमानी साबित हो रहा है। जानकारों व चिकित्सकों का कहना है कि कोरोना की लड़ाई में अगर राज्य सरकारें अपने स्तर पर लगी रहीं, तो कोई बड़ा लाभ नहीं होगा। ऐसे में राष्ट्रव्यापी योजना के तहत ही कोई ऐसे योजना बनानी होगी, जो देश में एक सामान लागू हो। अन्यथा कोरोना वायरस का थमना हाल-फिलहाल मुश्किल होगा।

अब बात करते हैं कि किन राज्यों में कोरोना वायरस का कहर थम रहा है और किन राज्यों में फैल रहा है? इस मामले में तहलका संवाददाता ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और हरियाणा में जानकारों व डॉक्टरों से बात की। वहीं दिल्ली तथा महाराष्ट्र में कोरोना के थमते मामलों के बारे में जाना, तो वहाँ के लोगों ने बताया कि डर की वजह से लोग सामाजिक मेल-मिलाप से दूर रह रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने भले ही सप्ताह के आखरी दो दिन शनिवार और रविवार को पूर्णत: लॉकडाउन को लागू किया है। उसके बावजूद यहाँ पर हर रोज़ 2000 से ज़्यादा मामले सामने आ रहे। बिहार में अप्रैल-मई में कोरोना के मामले कम आ रहे थे, लेकिन जून-जुलाई में कोरोना का कहर तेज़ी से फैला है। यहाँ के लोगों का कहना है कि एक तो बारिश का संक्रमित मौसम है, उस पर अभी दिल्ली-मुम्बई से बड़ी संख्या में लोगों का आना जारी है; जो कोरोना के बढऩे का एक कारण है।

वहीं लचर स्वास्थ्य सेवाओं के चलते मरीज़ों का इलाज न के बराबर हो पा रहा है। बिहार निवासी प्रियरंजन का कहना है कि इस राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का टोटा कोरोना के पहले से है, अब तो कोरोना वायरस फैला है, जिसके लिए स्वस्थ्य सेवाओं का होना बहुत ज़रूरी है। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है; क्योंकि यहाँ पर इसी साल अक्टूबर-नवंबर में (सम्भावित) बिहार विधान सभा के चुनाव हैं। इसलिए कोरोना के राजनीतिकरण की सम्भावना है। मध्य प्रदेश में कोरोना वायरस का ताण्डव इंदौर और उज्जैन में अप्रैल महीने से शुरू हो गया था, जो धीरे-धीरे पूरे राज्य में कहर बरपा रहा है। इसके चलते यहाँ की स्थिति यह है कि कब कौन-से ज़िले में मामले बढ़ जाएँ और ज़िलास्तरीय लॉकडाउन लग जाए? कहा नहीं जा सकता। टीकमगढ़ के रहने वाले राजेश शर्मा का कहना है कि कोरोना-काल में अब नये-नये प्रयोग देखने को मिल रहे हैं। जैसे ही कोरोना के मामले बढऩे की पुष्टि हुई  कि अचानक ज़िले में लॉकडाउन का आदेश आ गया, जिसके कारण लोग किसी अन्य प्रदेश या ज़िले में तो दूर अपने ही ज़िले में आने-जाने कतरा रहे हैं कि लॉकडाउन के कारण कहीं फँस न जाएँ। फिलहाल मध्य प्रदेश की स्थित चिन्ताजनक है। हरियाणा के लोगों का कहना है कि माना कोरोना वायरस का कहर सारी दुनिया में है, पर हरियाणा में इसके मामले सही मायने में दिल्ली के रास्ते बढ़े हैं। क्योंकि दिल्ली से लोगों का आना-जाना और आपसी सम्पर्क जारी रहा  है। किसी प्रकार की कोई सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हुआ, जिसके कारण कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ता गया।

महाराष्ट्र और दिल्ली में जहाँ पर कोरोना संक्रमित मामलों में दिन-ब-दिन गिरावट दर्ज की जा रही है, उसकी वजह सरकारी सूझ-बूझ और सही मायने में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना है। मुम्बई के धारावी में अब कोरोना के मामले काफी कम आ रहे हैं। दिल्ली में सुधार की वजह स्वास्थ्य सेवाओं में बड़े पैमाने में सुधार है। वहीं लोगों ने अपनी समझ से खुद सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया है। वैसे भी दिल्ली अन्य राज्यों की तुलना में स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहतर है।

कोरोना वायरस के कहर से राहत देने वाली बात यह है कि रिकवरी की दर लगभग 50 फीसदी के आस-पास आ गयी है। वहीं मृत्यु-दर अब भी 2.5 के आस-पास ही है। ऐसे में स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि समय-समय पर कारगर कदम उठाये जाने की वजह से काफी सफलता मिल रही है। देश में पाँच राज्यों में कोरोना वायरस से मृत्यु दर शून्य और 14 राज्यों में एक फीसदी से कम है। इसकी वजह अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों और डॉक्टरों का बेहतर प्रबन्धन है। मैक्स अस्पताल की कैथ लैब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना काल में इलाज के साथ लोगों को स्वयं में सतर्क रहने की ज़रूरत है, क्योंकि मौज़ूदा दौर में कोरोना का संक्रमण बढ़ रहा है और दोबारा संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं। एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया का कहना है कि देश में अभी संक्रमण का सामुदायिक फैलाव नहीं हुआ है। हालाँकि देश के महानगरों के कुछ जगहों पर स्थानीय स्तर हर संक्रमण बढ़ा है। डॉक्टर गुलेरिया का कहना है कि अगर दक्षिणी राज्यों में संक्रमण की स्थिति को देखे और अमेरिका, इटली और ब्राजील से तुलना करें, तो भारत में संक्रमण कम प्रभावी दिखेगा। मध्यम वर्गीय शहरों और गाँवों में कोरोना के बढ़ते संक्रमण को लेकर आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल कहते हैं कि कंटेनमेंट जोन में ढील और लापरवाही की वजह से हालात अनियंत्रित हुए हैं। क्योंकि कोरोना वायरस को लेकर लोगों का मानना है कि लम्बे समय तक यह मामला चलने वाला है। कब तक घरों में रहेंगे? यही वजह है कि लोगों ने कंटेनमेंट जोन में रहकर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ायीहैं, जिसकी वजह से देश को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।

बात भरोसे की

तामाम देशों ने कोरोना वायरस को मात देने के वैक्सीन को लाने के लिए जो दावे किये हैं, उनको दरकिनार कर देश को एम्स पर भरोसा है कि एम्स ही परीक्षण करके कोरोना को मात देने में ज़रूर सफल होगा।

देश-दुनिया में वैक्सीन को लेकर ऊहापोह की स्थिति में एम्स के डायरेक्टर डॉक्टर रणदीप गुलेरिया का कहना है कि वैक्सीन पर मानव परीक्षण के लिए लोगों की पंजीयन प्रक्रिया शुरू हो गयी है। परीक्षण की प्रक्रिया तीन चरणों में होगी। पहले चरण में वालंटियर्स का पंजीकरण  हो रहा है, जिनमें 18 से 55 वर्ष के लोग शामिल होंगे। इन लोगों की जाँच की जा रही है, ताकि हर किसी को महामारी से मुक्ति मिल सके। महिलाओं में गर्भ की जाँच की जा रही है। पहले चरण में वैक्सीन की सुरक्षा को जाँचा जाएगा। फिर 28 दिन तक उन लोगों को विशेष निगरानी में रखा जाएगा, जिनको वैक्सीन की तीन माइक्रोग्राम की दवा दी गयी है। फिर दूसरे चरण में डोज दोगुनी दी जाएगी; यानी की छ: माइक्रोग्राम। इसमें देखा जाएगा कि शरीर में क्या लाभ हो रहा है? या क्या हानि? यानी शरीर में एंटीबॉडी (प्रतिरोधक) अधिक-से-अधिक बन रहे हैं कि नहीं। इस चरण में 12 से 65 वर्षीय लोगों को शामिल किया जाएगा। तीसरे चरण के परीक्षण में घनी और अधिक जनसंख्या वाली आबादी को वैक्सीन देने के बाद यह देखा जाएगा कि वैक्सीन का क्या असर हुआ है? वहाँ के लोग कोरोना के चपेट में आ रहे हैं कि नहीं। इस दौरान चिकित्सक मरीज़ों बड़ी बारीकी से नज़र रखेंगे।

कोरोना की रोकथाम को लेकर लोगों का कहना है कि कोरोना वायरस को लेकर जो सियासी खेल खेला जा रहा है, जिस तरह आँकड़ों को लेकर लुका-छिपी हो रही है, वह घातक है। क्योंकि डॉक्टरों व जानकारों का कहना है आँकड़ों को लेकर अभी स्पष्टता नहीं है।

कहीं फिर से लॉकडाउन के हालात न बन जाएँ

दुनिया भर में कोरोना के मामले हर रोज़ बढ़ रहे हैं। संक्रमितों की संख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बेहद चिन्तित है। इस रफ्तार के आगे दुनिया बेहाल है। कारण- चीन में जनवरी की शुरुआत के तीन माह बाद विश्व में 10 लाख मामले सामने आये थे; लेकिन 13 जुलाई को एक करोड़ 30 लाख से एक करोड़ 40 लाख तक पहुँचने में महज़ चार दिन ही लगे। दुनिया में औसतन दो लाख 30 हज़ार से दो लाख 40 हज़ार के बीच मामले रोज़ सामने आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि अब तीन-चार दिन में 10 लाख केस सामने आ रहे हैं।

तेज़ी से बढ़ रहे मामले

कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित मुल्कों में पहले नम्बर पर अमेरिका, तो दूसरे नम्बर पर ब्राजील है। तीसरे नम्बर पर भारत, तो चौथे नम्बर पर रूस है। अमेरिका व ब्राजील में तो रोज़ाना एक हज़ार से अधिक लोग कोरोना के कारण मर भी रहे हैं। अमेरिका में तो हालात दिन प्रतिदिन बदतर ही हो रहे हैं। हालात बिगडऩे के कारण स्वास्थ्य विभाग ने कैलीफोर्निया, फ्लोरिडा, टेक्सॉस समेत 18 राज्यों को रेड जोन घोषित कर दिया है। टेक्सॉस और कैलीफाोर्निया में रोज़ 10-10 हज़ार मरीज़ सामने आने से अस्पतालों में जगह नहीं बची है, जो चिन्ता का विषय है।

व्हाइट हाउस की रिपोर्ट

कहा जा रहा है कि व्हाइट हाउस ने बीते दिनों एक रिपोर्ट तैयार की थी, मगर यह रिपोर्ट जारी नहीं की गयी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कई राज्यों में लॉकडाउन का कड़ाई से पालन नहीं किया गया। लोगों को घरों में रहना अच्छा नहीं लग रहा। मास्क पहनना भी उन्हें पसन्द नहीं; लिहाज़ा वे मास्क लगाकर घर से बाहर नहीं निकलते। इसलिए कोरोना वायरस तेज़ी से फैलता जा रहा है और मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। अमेरिका में कोरोना से मरने वालों की तादाद एक लाख 48 हज़ार 490 है। ब्राजील के हालात भी बेहद गम्भीर है। यहाँ 85 हज़ार 385 से अधिक लोगों ने इस महामारी की वजह से अपनी जान गँवायी। ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोलसोनारो दोबारा लॉकडाउन जैसे कड़े कदमों के लिए अभी भी तैयार नहीं है। ध्यान देने वाली अति महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों मुल्कों में कोविड-19 संक्रमण के रोकथाम के प्रभावी उपायों की सूची में शामिल मास्क का प्रयोग नहीं करने के लिए यानी एंटी-मास्क मुहिम चलायी जा रही है।

ट्रंप की दो-टूक

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि इस महामारी से बचने के लिए हाईजीन, मास्क, सोशल डिस्टेंसिग का पालन बहुत ज़रूरी है। मगर दुनिया में सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में स्पष्ट किया कि वह कोरोना से बचाव के लिए लोगों को मास्क पहनने का आदेश नहीं देंगे। लोगों को आज़ादी मिलनी चाहिए। उन्होंने मास्क अनिवार्य करने वाले किसी भी आदेश को जारी करने वाली अटकलों को खारिज कर दिया। क्योंकि उनकी नज़र में यह निजी स्वतंत्रता हनन से जुड़ा है। गौरतलब है कि एक तरफ मास्क जो इस महामारी के संकट में संक्रमण की रोकथाम में एक प्रभावशाली उपकरण बताया जा रहा है और विश्व स्वास्थ्य संगठन व दुनिया भर के डॉक्टर्स भी लोगों को मास्क पहनने के फायदों व उसके सही तरीके से इस्तेमाल पर ज़ोर दे रहे हैं, वहीं दूसरी और मास्क पर राजनीति शुरू हो गयी है। मास्क पर राजनीति गरमायी हुई है। अमेरिका में तो मास्क समर्थक बनाम मास्क विरोधी लॉबी इस साल के अन्त में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने वाले अहम कारकों में अब तक सक्रिय नज़र आ रही है।

चुनाव से पहले राजनीतिक बहस

अमेरिका में चुनावी  माहौल में यह आभास आसानी से हो जाता है कि मास्क पहनने वाला और मास्क नहीं पहनने वाला यानी एंटी मास्क व्यक्ति किस राजनीतिक धारा की ओर अपना झुकाव रखता है? अमेरिका में लिब्रल व कंजरवेटिव वर्ग के बीच मास्क राजनीतिक बहस के प्रतीक के रूप में उभरकर सामने आया है। लिब्रल का मानना है कि जन सुरक्षा के लिए मास्क ज़रूरी है; जबकि कंजर्वेटिव इससे सहमत नहीं है। उनकी सोच में यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए एक खतरा है। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी मास्क पहनना अनिवार्य करने को स्वतंत्रता हनन से जुड़ा मसला बता चुके हैं। अमेरिका में लोगों का एक ऐसा समूह भी है, जो मास्क को राजनीतिक षड्यंत्र बनाकर बर्न द मास्क जैसे आयोजन कर रहा है। अमेरिका में सर्वे के इस्तेमाल को लेकर सर्वे होते रहते हैं। इन सर्वों से यह जानकारी सामने आ रही है कि मास्क का प्रयोग करने वाले लोगों में रिपब्लिकिन की तुलना में डेमोक्रेट्स दल की सोच वाले लोग अधिक हैं। यह भी कहा जा रहा है कि ट्रंप चुनाव के मद्देनज़र अपनी छवि को लेकर खासतौर पर सचेत हैं और उन्होंने मास्क का प्रयोग नहीं करने के पीछे दलील दी कि यह जनता के बीच उनकी सार्वजनिक छवि को प्रभावित करेगा और इसका परिणाम उनके चुनाव परिणामों पर पड़ सकता है।

ब्राजील के राष्ट्रपति भी लापरवाह

मास्क को लेकर ब्राजील में भी राजनीति हो रही है। वहाँ के राष्ट्रपति जैर बोलसोनरो ने भी शुरू में कोरोना की गम्भीरता नहीं समझी। मास्क के इस्तेमाल को हल्के से लिया। वह स्वयं कई सार्वजनिक आयोजनों में बिना मास्क के दिखायी दिये। कोरोना वायरस जैसी महामारी के प्रति बरती गयी लापरवाही की परिणाम आज वहाँ की आम जनता ही नहीं भुगत रही है, बल्कि खुद राष्ट्रपति जैर बोलसोनरो कोरोना संक्रमित पाये गये हैं। अब वह कह रहे हैं कि उनकी रिपोर्ट निगेटिव आयी है और वह फिर बिना मास्क के घूम रहे हैं।

दक्षिण कोरिया में भी मास्क नहीं पहनने को लेकर केवल जून के महीने में ही लोगों के बीच 846 झगड़े दर्ज किये गये हैं। भारत की राजधानी दिल्ली में बीते साढ़े तीन महीने में मास्क नहीं पहनने का नियम उल्लंघन करने वालों से दिल्ली पुलिस ने करीब 2.4 करोड़ रुपये बतौर ज़ुर्माना वसूले हैं। आँकड़े दर्शाते हैं कि यूरोप की तुलना में एशिया में मास्क को शुरुआत में ही अपनाना शुरू कर दिया था। यही वजह है कि वहाँहालात कुछ काबू में रहे। इसकी मिसाल जापान, चीन, हॉन्गकॉन्ग, ताइवान, सिंगापुर, मलेशिया, फिलीपीन्स और इंडोनेशिया हैं। जल्दी मास्क पहनने अपनाने वाले 42 देशों ने संक्रमण पर काबू पाने में सफलता पायी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के अध्ययन के मुताबिक, महज़ 38 फीसदी ब्रिटिश नागरिक ही बाहर जाते वक्त मास्क पहनते हैं। दूसरे यूरोपीय मुल्कों में भी लोग मास्क पहनने को गम्भीर नहीं हैं। दरअसल कोरोना महामारी कितनी गम्भीर है; रोज़ आँकड़ों की तस्वीर भयावह होती जा रही है। संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं। कोरोना के कारण अन्य रोगों से प्रभावित होने वाले रोगियों की संख्या बढऩे की आशंका जतायी जा रही है। ऐसे हालात में राष्ट्रों के प्रमुखों, सरकारों को अपने निजी और दलगत राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर आम जनता, खासकर महिलाओं, बच्चों के स्वास्थ्य के हित में ठोस कदम उठाने की हिम्मत दिखानी चाहिए। बर्न द मास्क और एंटी मास्क जैसी मुहिम मानव विरोधी हैं और ऐसी राजनीति करने वालों व उन्हें आर्थिक तथा अन्य तरीकों से प्रोत्साहित करने वालों का दुनिया कभी सम्मान नहीं करेगी।

ट्रंप ने कोरोना को लिया हल्के में

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने देश में कोरोना संक्रमण को शुरू में बहुत-ही हल्के ढंग से लिया, और जब हालात बेकाबू हो गये, तो सारा दोष चीन पर मढक़र खुद पीछे हो गये। कोरोना वायरस अमेरिका में एक अहम चुनावी मुद्दा बन गया है। डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन के एक चुनावी विज्ञापन में दर्शाया गया है कि ट्रंप कोरोना वायरस के मामलों पर गम्भीर नहीं है। खबर यह भी है कि ट्रंप की सरकार देश में कोरोना वायरस की टेस्टिंग के लिए अधिक धनराशि देने के प्रस्ताव का विरोध कर रही है। बहरहाल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र राजनीति ने मास्क को भी हथियार बनाया और इसके सहारे भी मतदाताओं को अपने-अपने पाले में लाने की कोशिश जारी है। मास्क विरोधी माहौल का असर भी दिखायी दे रहा है।

जून में मिश्गिन के एक स्टोर में दाखिल हो रही युवती को मास्क न लगाने पर रोकने वाले गार्ड की उस युवती के पिता ने गोली मारकर हत्या कर दी। अटलांटा में मास्क को अनिवार्य कर दिया गया। मेयर के इस कदम के खिलाफ जॉर्जिया के गवर्नर ने केस दर्ज करा दिया है। एक शोध के अनुसार, अगर अधिकांश अमेरिकी मास्क पहनने लगें, तो अक्टूबर तक 33 हज़ार लोगों को मरने से बचाया जा सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब तक सिर्फ एक बार ही मास्क पहने नज़र आये हैं। यह बात दीगर है कि उन्होंने हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि वह हमेशा मास्क लेकर चलते हैं और जहाँ सोशल डिस्टेंसिंग सम्भव नहीं होती, वहाँ मास्क इस्तेमाल भी करते हैं। अमेरिका में मास्क न पहनने की ज़िद इतनी हावी हो गयी है कि बीते महीनों से सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो खूब वायरल हो रहे हैं, जिसमें यह बताया जा रहा है कि मास्क पहनने से लोगों को ऑक्सीजन लेने में दिक्कत हो रही है और यह उनकी हृदय गति को भी प्रभावित करता है। जबकि ऐसा कहने वालों के पास इसे सही साबित करने के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। मास्क को लेकर लोगों को गुमराह करने वाली एंटी मास्क लॉबी को जवाब देने के लिए अमेरिका में कई टी.वी. चैनलों ने विशेषज्ञों को अपने स्टूडियों में बुलाकर लोगों को मास्क पहनने से होने वाले फायदों की जानकारी दी और गुमराह होने सें बचने की सलाह दी। विशेषज्ञों ने लोगों को यह भी समझाया कि सर्जन मास्क पहनकर ही ऑपरेशन करते हैं। अगर मास्क पहनकर साँस लेने में दिक्कत होती है, तो सर्जन तो बेहोश हो जाते। सोशल मीडिया पर कई डॉक्टरों ने मास्क पहने हुए अपने वीडियो संदेश जारी किये, जिसमें बताया गया है कि मास्क पहनने से उन्हें साँस लेने में कोई परेशानी नहीं हो रही है और उनकी दिल की धडक़न भी सामान्य है।