Home Blog Page 790

क्या कच्चे तेल के आयात में वाकई 10 फीसदी कटौती मुमकिन है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई, 2014 में पद सँभालने के तत्काल बाद ऐलान किया था कि वर्ष 2022 तक भारत की कच्चे तेल पर आयात की निर्भरता को 10 फीसदी कम किया जाएगा। अब छ: साल से अधिक का समय बीत चुका है और इसके लिए तय किये गये लक्ष्य के लिए महज़ दो साल बाकी हैं। कच्चे तेल के आयात में 10 फीसदी की कमी के वादे पर पिछले छ: वर्षों में कितना अमल किया गया है? इसके जवाब में कहने के लिए फिलहाल कुछ भी नहीं है।

कच्चे तेल के आयात में कोई भी कमी करने से पहले दो शर्तें ज़रूरी हैं। पहली, घरेलू उत्पादन में जितनी कमी की जाए, उतनी ही वृद्धि हो। दूसरी, देश में इसकी खपत में पर्याप्त गिरावट दर्ज की जाए। दुर्भाग्य से न तो खपत में कमी आयी है और न ही घरेलू उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत 2014-15 में भारत का कच्चे तेल का उत्पादन 37.46 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) था, जो अगले वर्ष में घटकर 36.95 एमएमटी रह गया। इसके बाद प्रत्येक वर्ष उत्पादन में गिरावट जारी रही। 2019-20 में कच्चे तेल का उत्पादन छ: फीसदी घटकर 32.17 एमएमटी हो गया, जो पिछले 18 वर्षों में उत्पादन का सबसे निचला स्तर रहा। इस गिरावट में निजी क्षेत्रों द्वारा संचालित कम्पनियों की हिस्सेदारी 15.5 फीसदी से अधिक थी; जबकि ऑयल इंडिया में उत्पादन में छ: फीसदी की गिरावट आयी। इस दौरान ओएनजीसी के क्रूड उत्पादन में महज़ दो फीसदी की कमी आयी।

उत्पादन में गिरावट के पीछे कई कारण रहे। इनमें से स्थानीय मुद्दों को लेकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में अशान्त स्थिति और आन्दोलन रहा, जिससे असम में ओएनजीसी और ऑयल इंडिया दोनों के तेल उत्पादन पर विपरीत असर देखने को मिला। केयर्न ऑयल और गैस उत्पादन में माँग और बाज़ार की वजह से भी प्रभावित हुआ। यहाँ तक कि मौज़ूदा वित्त वर्ष में भी खास सम्भावनाएँ नज़र नहीं आ रही हैं; क्योंकि तेल उत्पादकों की खास दिलचस्पी न होने के कारण वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें कम ही हैं, जिससे इनके उत्पादन स्तर में बढ़ोतरी हुई है।

सरकार अब भी आशावादी

कच्चे तेल के उत्पादन में लगातार गिरावट के बावजूद सरकार अब भी क्रूड ऑयल के आयात में कटौती के अपने लक्ष्य को लेकर आशावादी बनी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब छ: महीने पहले दोहराया था कि सरकार ने अपने आयात में 10 फीसदी की कमी लाने की दिशा में कुछ निर्णायक कदम उठाये हैं। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान भी कई बार कह चुके हैं कि सरकार कच्चे तेल पर निर्भरता कम करने के 10 फीसदी कटौती के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नयी रणनीति और पहल पर काम कर रही है। निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए पेट्रोलियम मंत्रालय की नयी रणनीति और पहल क्या थी? पहली, एक नयी हाइड्रोकार्बन अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति शुरू की गयी। दूसरी, छोटे-छोट क्षेत्रों की खोज करके मुद्रीकरण के लिए भण्डार को अनुबन्ध पर दिया गया। तीसरी, 28 जून 2017 को हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय द्वारा एक राष्ट्रीय डेटा भण्डार की स्थापना की गयी थी। कुछ अन्य पहलें भी की गयीं, जैसे कि अप्रकाशित क्षेत्रों के 2 डी भूकम्पीय सर्वेक्षण। हालाँकि परिणाम क्या मिला? यह मायने रखता है। इसलिए यह पता लगाने की आवश्यकता है कि इन सभी पहलों से वर्ष 2022 तक कच्चे तेल के आयात को 10 फीसदी कम करने के मुख्य कार्य में कितनी मदद की है?

क्या घरेलू उत्पादन का विस्तार सम्भव है?

वर्तमान में देश में दो प्रमुख सरकारी स्वामित्व वाली ईएंडपी कम्पनियाँ ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड हैं; बाकी कुछ निजी और संयुक्त उपक्रम भी हैं। वर्ष 2018-19 में 34.2 एमएमटी के कुल उत्पादन में से ओएनजीसी का हिस्सा अकेले 21.04 एमएमटी था। ऑयल इंडिया ने 3.29 एमएमटी का योगदान दिया और शेष 9.87 एमएमटी निजी और संयुक्त उद्यम संस्थाओं का रहा। इस प्रकार यह आवश्यक है कि ओएनजीसी के अपतटीय और तटवर्ती दोनों क्षेत्रों से उत्पादन 20 फीसदी या इससे भी ज़्यादा बढ़ाया जाए। हालाँकि ऐसा करना उतना आसान नहीं है, जितना कि कह देना। अपने अपतटीय और तटवर्ती क्षेत्रों से इसका वार्षिक उत्पादन लगभग 2013-14 के बाद से 22.25 एमएमटी पर स्थिर बना हुआ है। भले ही ओएनजीसी के अधिकांश तटवर्ती क्षेत्र उत्पादन में गिरावट हुई हो, पर यह 50 साल से अधिक पुराना है; साथ ही इसको श्रेय इसलिए दिया जाता है, क्योंकि इसने न केवल अपने उत्पादन को बरकरार रखा है, बल्कि उत्पादन के लिए आईओआर और ईओआर जैसी नवीनतम तकनीक का प्रयोग करके उत्पादन को बढ़ाया भी है।

भारत हमेशा से क्रूड का आयातक रहा है

कभी-कभी यह बात बताने की ज़रूरत पड़ती है कि भारत हमेशा से कच्चे तेल का आयातक रहा है। 1947 में पेट्रोलियम उत्पादों की घरेलू माँग लगभग 2.2 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) थी, जबकि उत्पादन असम से लगभग 0.25 एमएमटी था। 1960-61 में कच्चे तेल का घरेलू उत्पादन केवल 0.45 मिलियन मीट्रिक टन था। 1980-81 तक, इसका उत्पादन 10.51 एमएमटी तक बढ़ गया। सात साल बाद 2018-19 में घरेलू उत्पादन मुश्किल से 34.20 एमएमटी था; जबकि आयात 229 एमएमटी तक पहुँच गया था। यानी करीब 86 फीसदी की कमी। आसान शब्दों में कहें, तो घरेलू कच्चे तेल का उत्पादन भारत की कुल खपत का महज़ 14 फीसदी है।

क्या कच्चे तेल के आयात में 10 फीसदी की कमी लाने की प्रशंसनीय पहल वास्तविकता बन पायेगी या यह सिर्फ एक सपना साबित होगा? क्योंकि भारत में न तो कोई जादू की छड़ी है और न ही समृद्ध तेल के भण्डार हैं- महज़ कुछ जंगली हाथी वाले क्षेत्रों को छोडक़र। हमारी सालाना खपत के जो विकल्प अपनाये भी जा रहे हैं, उसके बावजूद इसमें बढ़ोतरी जारी रहेगी। इसलिए ज़रूरी है कि सच्चाई को समझें और अपने आपको ही धोखा न दें। कड़ुवा सच यही है कि आयातित कच्चे तेल पर हमारी निर्भरता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है और आगे भी बढ़ती जाएगी। भारत अमेरिका, चीन, जर्मनी, जापान, इटली, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, इंडोनेशिया, मलेशिया, इज़राइल जैसे प्रमुख तेल आयातकों की सूची में शामिल है। इसके बारे में शर्म महसूस करने का कोई कारण नहीं है।

(राज कँवर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। उपरोक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

पंजाबी सिंगर मूसेवाल की मुसीबत बने हथियार

शुभदीप के लिए समय का मौज़ूदा बिल्कुल शुभ नहीं। उनके खिलाफ आम्र्स एक्ट की धारा जैसे मामले दर्ज हो चुके हैं। फिलहाल वह अंतरिम जमानत पर हैं। शुभदीप सिद्धू उर्फ सिद्धू मूसेवाला। पंजाबी के उभरते हुए गायक और देश-विदेश में खूब चर्चित हो रहे हैं। जितनी जल्दी उन्हें शोहरत मिली है, उतनी ही तेज़ी से वह विवादों में फँसते जा रहे हैं। यह किसी कलाकार के लिए बिल्कुल भी बेहतर नहीं; शुभदीप के लिए तो बिल्कुल ही नहीं। फिर भी वह ऐसे विवाद पैदा कर रहे हैं, जिनकी वजह से उनका करियर तबाह हो सकता है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।

पंजाब के ज़िला मानसा के गाँव मूसा के शुभदीप के नाम से नहीं, बल्कि सिद्धू मूसेवाला के नाम से ज़्यादा मशहूर है। ज़मीन से जुड़े इस युवा पंजाबी गीतकार और गायक को अंदाज़ा नहीं कि हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने वाले गाने उन्हें शोहरत दिलाने से ज़्यादा मुसीबत में डाल सकते हैं। पहले के दर्ज मामलों में सशर्त अंतरिम जमानत के बाद उन्होंने संजू नाम का एलबम बनाया, जिसके गीत से वह फिर विवाद में फँस गये और मोहाली में उनके खिलाफ चौथी प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी है। किसी भी कलाकार के लिए ऐसी स्थिति अनुकूल नहीं होती; क्योंकि इससे उसका काम प्रभावित होगा।

आज वह पंजाबी गायकों में सबसे चर्चित और विवादास्पद बन गये हैं। फायरिंग रेंज में पुलिस के संरक्षण में वह एके-47 और रिवॉल्वर से गोलियाँ चलाने का अभ्यास करते दिखे हैं। वह भी ऐसे दौर में, जब कोरोना वायरस के चलते पंजाब में कफ्र्यू था। पुलिस कफ्र्यू का उल्लंघन करने वालों को सडक़ों और गलियों में बेरहमी से पीट रही थी। वहीं मूसेवाला बेखौफ सरकारी फायरिंग रेंज में गोलियाँ दाग रहे थे। जब इस तरह के वीडियो वायरल हुए, तो हंगामा हुआ, शिकायतें आयीं। कुछ समय तक उन पर कार्रवाई नहीं हुई, तो आरोप लगे कि उसका रसूख पुलिस में ऊपर तक है। भारी दवाब के चलते पुलिस को मूसेवाला समेत आठ लोगों पर प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी। इनमें एक एएसआई, दो हेड कांस्टेबल और दो कांस्टेबल भी हैं। फायरिंग रेंज में सब बंदोबस्त कराने के पीछे एक पुलिस अधिकारी के बेटे की भूमिका रही। जाँच के बाद डी.एस.पी. दलजीत विर्क को निलंबित कर दिया गया।

मूसेवाला ने 80 से ज़्यादा गीत गाये हैं, जिनमें कई काफी लोकप्रिय हुए हैं। देश-विदेश में उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में है। उनके कुछ गीत हथियारों से जुड़े हुए हैं; जिन्हें लेकर वह विवादों में फँस चुके हैं। मूसेवाला पहले गायक नहीं, जिनके गानों के शब्दों में हथियारों का इस्तेमाल हुआ है। पंजाबी के कई गाने गाये गये हैं और जो अच्छे खासे चलन में रहे हैं; लेकिन उन्हें लेकर कभी विवाद नहीं हुआ। ऐसे गायकों पर हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप भी नहीं लगे और वे गाने भी खासे लोकप्रिय रहे। तो फिर मूसेवाला पर ही हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने की तोहमतें क्यों लग रही हैं, उनके खिलाफ ही क्यों मामला दर्ज हुआ? तो इसकी वजह पुलिस की मौज़ूदगी में गोलियाँ चलाने का अभ्यास और मामला दर्ज होने के बाद संजू का वह गीत, जिसके शब्द खुलेआम चुनौती देने वाले जैसे हैं।

सहायक पुलिस महानिदेशक अर्पित शुक्ला की राय में लगातार ऐसे ही आरोपों के घिरे रहने के बावजूद फिर उसी ढर्रे का गीत बताता है कि उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ के पुलिस महानिदेशकों को स्पष्ट निर्देश है कि शराब, नशा और हिंसा जैसे विषयों को उभारने और उन्हें प्रमोट करने जैसे गीतों या अन्य किसी प्रचार सामग्री को रोका जाए। लिहाज़ा पुलिस को कार्रवाई करनी ही थी; इसलिए उसके खिलाफ मामला दर्ज करना ज़रूरी था।

गीत की एक बानगी देखें- ‘चैनलां ते चर्चा बाली चलदी, गबरू दे नाल सन्तालीस (एके-47) जुडग़ी, घट्टो घट्ट सज़ा पंज साल वट दी, गबरू उत्ते केस जेड़ा संजय दत्त दे…।’ इस गाने को हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप में पुलिस ने उन पर मामला दर्ज कर लिया; लेकिन मूसेवाला को अब भी शब्दों में ऐतराज़ योग्य कुछ भी नहीं लगता। वह कहते हैं कि जो उनके साथ हुआ, वही तो गाने में है। एके-47 उनके साथ जोड़ी गयी, तो गाने में इसका उल्लेख है।

संजय दत्त को ऐसे ही ऑटोमेटिक हथियार घर में छिपाने के आरोप में पाँच साल का सज़ा हुई थी। जो हकीकत है, उन्होंने वही दुनिया के सामने रखने का प्रयास किया। जो उनकी ज़िन्दगी में हो चुका होता है; जिसे वह हकीकत में देख चुके होते हैं; वह गानों के माध्यम से उसे रखने का प्रयास करते हैं। उनकी मंशा नहीं कि युवा उनके गानों से कोई सीख लें और हथियार उठा लें। वह उदाहरण देते हैं कि हिन्दी फिल्म ‘संजू’ में क्या है? फिल्म स्टार संजय दत्त की ज़िन्दगी पर आधारित हैं, उसमें वहीं तो सब कुछ है जो उन्होंने गाने में है। अगर उनका यह गाना हिंसा को हवा देने या फिर हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने वाला है, तो फिर फिल्म संजू पर भी तो कार्रवाई होनी चाहिए। उनसे पहले कई नामी गायक ऐसे ही गाने गा चुके हैं; तब कभी विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठी। वह गाने की लोकप्रियता का हवाला देते हैं कि लगभग दो करोड़ लोग इस गाने को शुरुआत में ही देख चुके हैं। देश-विदेश में उनकी बढ़ती लोकप्रियता से ईष्र्या भी उन्हें ऐसे मामलों में फँसाने की साज़िश है। उन्हें साज़िश के तहत ऐसे गम्भीर मामलों में फँसा रहे हैं, ताकि वह पुलिस और अदालतों में उलझे रहें। इस पंजाबी कलाकार को हथियारों का शौक भी है। उनके पास लाइसेंसी हथियार भी हैं। गानों में हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने और युवाओं को इस ओर मोडऩे के आरोपों को वह गलत मानते हैं। उनके गानों को सुनकर क्या कोई बन्दूक उठा लेगा? लोगों को समझ है और वे केवल मनोरंजन के लिए गाने सुनते हैं। अगर उनके गानों से पंजाब में हिंसा बढ़ी है, तो वह जेल जाने को तैयार हैं। अगर उनके चार-छ: माह जेल में रहने से पंजाब में अपराध कम होते हैं, तो वह इसके लिए तैयार हैं।

वह अपने को साधारण इंसान मानते हैं। उनके पास दिखावे जैसी कोई बात नहीं है। इतनी लोकप्रियता के बाद वह अपने गाँव मूसेवाल में खेती-बाड़ी करते हैं। उनकी माँ चरण कौर सरपंच हैं और पिता सेना से सेवानिवृत्त है। अभिनय, गीत लिखना और गाना उनका शौक है और अब तो करियर भी इसे बना लिया है। उनका मकसद किसी की भावनाएँआहत करना नहीं, बल्कि गानों के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करना है।

समाज से जुड़े विषयों पर उनके गानों को लोगों ने बहुत पसन्द किया है। वह सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेते हैं। आम आदमी हैं और उनके सरोकारों से मतलब रखते हैं; लेकिन उन्हें अब दूसरे रूप में पेश किया जा रहा है। उन्होंने कैंसर से बचाव के लिए कैंप का आयोजन किया; लेकिन किसी ने संज्ञान नहीं लिया। कुछ लोग उनके खिलाफ गहरी साज़िश के तहत उनकी छवि खराब करने में लगे हैं, जबकि वह ऐसे नहीं हैं।

मीडिया से उन्हें खासी शिकायतें हैं। वह कहते हैं कि मीडियाकर्मी उनसे जुड़ी छोटी-छोटी बातों को भी सनसनीखेज बनाकर पेश करते हैं। उन्होंने कहा कि मेरे से प्रतिक्रिया लिए बिना बहुत-सी खबरें ऐसी भी प्रकाशित या चलायी गयीं, जो सच से कोसों दूर थी। मामलों से डरकर वह कहीं भागने वाले नहीं। लेकिन खबरें चलने लगीं कि मूसेवाला घर से गायब हो गया है; जबकि वह गाँव में ही रहे। उन्होंने कहा कि वह हर जाँच का सामना करेंगे; क्योंकि उनका पुलिस और न्यायपालिका में पूरा भरोसा है।

वैसे अपने को सही साबित करने के लिए उनके पास तर्क हैं; लेकिन सवाल यह है कि क्या वह अदालत को इससे सन्तुष्ट कर सकेंगे? उनके खिलाफ पहला मामला उनके गृह ज़िला मानसा में दर्ज किया गया। मई के पहले सप्ताह में बरनाला ज़िले में बडबार पुलिस फायरिंग रेंज में एके-47 से फायरिंग करने और बाद में संगरूर ज़िले में लड्डा कोठी फायरिंग रेंज में नौ एमएम पिस्तौल से गोलियाँ चलाने के सन्दर्भ में मामले दर्ज है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में इस बाबत एक जनहित याचिका भी दायर हुई थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया।

वरिष्ठ साहित्यकार और पंजाब कला परिषद् के अध्यक्ष सुरजीत पातर चाहते हैं कि अश्लील, हिंसा, नशा, हथियार और शराब को बढ़ावा देने वाले गाने समाज के लिए ठीक नहीं हैं। जो चीज़ समाज के हित में नहीं, वह क्यों आनी चाहिए? फिल्मों के लिए सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) जैसा संस्थान है। हर फिल्म को इसकी कसौटी पर कसा जाता है। आपत्तिजनक होने पर उसमें कट या रोकी भी जाती है। पंजाबी एलबम या गानों के लिए ऐसा कोई सरकारी संस्थान नहीं है। पंजाब में इसके लिए प्रयास हुए; लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है। जब तक कोई ऐसा संस्थान नहीं बनता, ऐसे विवाद पैदा होते रहेंगे।

देश के लिए निशानेबाज़ी में नाम कमा चुकी डीएसपी अवनीत कौर की राय में लोकप्रियता के लिए कुछ भी परोसना क्या सही है। हर फिल्म या गाना ज़रूरी नहीं कि समाज को कोई संदेश दे। बहुत कुछ लोगों के मनोरंजन के लिए होता है; लेकिन उसमें भी किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहिए।

पंजाबी गानों में अश्लीलता के पुट को लेकर कई विवाद होते रहे हैं। दोहरे अर्थों वाले कई गाने खूब लोकप्रिय होते रहे हैं; लेकिन ऐसे गायक लम्बे समय तक टिके नहीं रह सके। सिद्धू मूसेवाला कहते रहे हैं कि जिस तरह से पंजाबी गायकी में उन्होंने मकाम हासिल किया है, वह बहुत लम्बे समय तक बरकरार नहीं रहेगा। जिस तरह से उन्होंने किसी की जगह ली है, आने वाले समय में उनकी जगह कोई और ले लेगा। इतनी जानकारी रखने वाले इस गीतकार और गायक को यह सब पता है, तो फिर जब तक उनका समय है, वह यादगार काम करें; ताकि लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रख सकें। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी एच.सी. अरोड़ा की राय में पंजाब की समृद्ध संस्कृति रही है। उसे ही आगे बढ़ाये जाने की ज़रूरत है। अश्लीलता, हिंसा और हथियार संस्कृति को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए। ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। उन्होंने सिद्धू मूसेवाला मामले में पंजाब के पुलिस महानिदेशक और अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (अपराध) को पत्र लिखकर आग्रह किया है कि ऐसे मामलों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124 (ए) राजद्रोह को जोड़ा जाना चाहिए; ताकि उन्हें कड़ा दण्ड मिल सके।

विवादों से नाता

मूसेवाला के कई पंजाबी एलबम काफी मकबूल-ओ-मशहूर रहे हैं। वह विभिन्न विषयों पर गाने गाते हैं और लोग उन्हें खूब पसन्द करते हैं। विडम्बना की बात यह कि जिन गीतों में उन्होंने  हथियारों को शामिल किया, ज़्यादा मशहूर वही हुए। फिल्म अभिनेता संजय दत्त की निजी ज़िन्दगी पर आधारित फिल्म ‘संजू’ काफी मशहूर हुई है। लोगों ने उसे सकारात्मक रूप से लिया। बचपन से लेकर अब तक उन्होंने जो ज़िन्दगी में अच्छा-बुरा किया, सब इसमें दिखाया गया है। नशे की गिरफ्त में आना, फिर प्रायश्चित करना और उससे मुक्ति पा लेना। उसके बाद मुम्बई दंगे से पहले दाऊद गैंग के कुछ सदस्यों से परिचय और घातक हथियार एके-56 घर में रख लेना। सब जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ? उन पर टाडा जैसी धारा लगी। अदालत ने उन पर कुछ नरमी दिखायी, इसलिए पाँच साल की कैद काटनी पड़ी थी। उसी फिल्म संजू से प्रेरित होकर मूसेवाला ने अपने गीत से क्या साबित करने की कोशिश की? समझ से परे है। वह गायक के अलावा गीतकार भी हैं। लेकिन उन्हें शब्दों की गम्भीरता का पता नहीं है। अगर होता, तो वह इस एलबम के मुख्य गीत में ऐसे शब्द कतई नहीं लेते, जो समाज को गलत संदेश देते हैं। वह गातें हैं कि जिस तरह से संजू को एके-56 रखने के आरोप में पाँच साल की सज़ा हुई थी, उन पर भी तो वैसा ही आरोप लगाया जा रहा है। तो सज़ा ज़्यादा-से-ज़्यादा पाँच साल की होगी, इससे ज़्यादा नहीं। यह युवा वर्ग को हथियारों के प्रति उकसाने जैसे शब्द हैं और निश्चित तौर पर आपत्तिजनक हैं। इसी के चलते उन पर इस सन्दर्भ में मामला पंजीकृत हुआ है।

‘फँसाने की साज़िश’

सिद्धू मूसेवाला विवादों में हैं; लेकिन वह इसके लिए अपने गीतों से ज़्यादा मीडिया वर्ग, कुछ राजनीतिक लोगों और उनके प्रतिद्वंद्वी पंजाबी गायकों को मानते हैं। वह नामों का खुलासा नहीं करते; क्योंकि इससे और भी विवाद के बढऩे का अंदेशा है। मीडिया तिल का ताड़ बनाकर पेश करता है। वह अपने पुश्तैनी घर पर हैं; लेकिन मीडिया वाले उन्हें फरार बता रहे हैं। उनका कहना है कि भला उन्हें फरार होने की क्या ज़रूरत है? उन्होंने कोई अपराध नहीं किया फिर वह क्यों फरार होंगे? उन्होंने पुलिस और न्यायपालिका पर भरोसा जताते हुए कहा कि उन्हें फँसाने की साज़िशें हो रही हैं। उनकी देश-विदेश में पहचान बनी है। लाखों लोग उनके प्रशंसक हैं। इसी वजह से विरोधी  उनके खिलाफ साज़िश कर रहे हैं। वहीं सरकारी फायरिंग रेंज में लाकडॉउन के दौरान गोलीबारी के अभ्यास में किसी की साज़िश पर मूसेवाला के पास कोई जवाब नहीं है। हथियारों का उन्हें शौक है और उनके पास लाइसेंसी है भी; लेकिन उन्हें सार्वजनिक करना क्या किसी कलाकार के लिए ठीक है? ऐसे मामलों में किसी की कोई साज़िश नहीं। इससे वह इन्कार नहीं कर सकते।

आसान नहीं है आर्थिक सुधारों की डगर

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार, कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए सरकार खुदरा ऋणों जैसे गृह, कार, पर्सनल (निजी) आदि के िकस्त एवं ब्याज को टालने या मॉरेटोरियम की मियाद बढ़ाने और आतिथ्य, विमानन, रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों के ऋण को पुनर्गठित या रिस्ट्रक्चरिंग करने पर विचार कर रही है। फिलहाल ऋण भुगतान में छूट या मॉरेटोरियम की अवधि को 31 अगस्त तक के लिए बढ़ाया गया है, जिसे पुन: बढ़ाने के लिए वित्त मंत्रालय भारतीय रिजर्व बैंक से विमर्श कर रहा है।

इसके अलावा फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को सम्बोधित करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार ऋण पुनर्गठन की सम्भावनाओं पर भी रिजर्व बैंक के साथ चर्चा कर रही है। वित्त मंत्री के अनुसार, ऋण पुनर्गठन की ज़रूरत को सरकार सैद्धांतिक रूप से सही मान रही है। बैंक भी भारतीय रिजर्व बैंक से तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की माँग कर रहे हैं। मोटे तौर पर यह ऋण आतिथ्य, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़ा हुआ है; क्योंकि इन क्षेत्रों को कोरोना महामारी की वजह से सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा है।

अप्रैल, 2020 के अन्त तक बैंकों का होटल क्षेत्र पर 45,862 करोड़ रुपये, विमानन क्षेत्र पर 30,000 करोड़ रुपये और रियल एस्टेट क्षेत्र पर 2.3 लाख करोड़ रुपये बकाया था। रेटिंग एजेंसी इक्रा के मुताबिक, खस्ताहाल विमानन क्षेत्र को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आगामी तीन साल में लगभग 35000 करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। होटल क्षेत्र में कई उधमी कर्ज़ में डूबे हैं। व्यावसायिक परिसम्पत्ति और किराये के कारोबार में भी लगभग 25 फीसदी से ज़्यादा की गिरावट आने की आशंका जतायी जा रही है।

होटल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एचएआई) के अनुसार, महामारी कोरोना वायरस की वजह से पर्यटन और आतिथ्य क्षेत्र में माँग में 90 फीसदी से अधिक की कमी आ चुकी है। इस क्षेत्र में लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ था; लेकिन आज करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा चुकी हैं।

मॉरेटोरियम के तहत बैंक से ऋण लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज चुकाने में एक निश्चित अवधि तक के लिए राहत दी जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में 31 अगस्त तक के लिए मॉरेटोरियम की अवधि प्रभावी है, इसलिए इस अवधि तक बैंक से कर्ज़ लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज नहीं देना होगा। लेकिन सितंबर में उन्हें इकट्ठे या िकस्तों में िकस्त एवं ब्याज दोनों अपने ऋण खातों में जमा करना होगा, अन्यथा ऋण खाते एनपीए हो जाएँगे।

अमूमन पुनर्गठन के मामले में जब कम्पनियों की माली हालत बहुत ज़्यादा खराब हो जाती है, तो वे बैंकों से ऋण खातों को पुनर्गठित करने के लिए कहते हैं। चूँकि इस विकल्प का चुनाव बैंकों के लिए भी मुफीद होता है, इसलिए वो भारतीय रिजर्व बैंक से नकदी की िकल्लत झेलने वाली कम्पनियों के खातों को पुनर्गठित करने का आग्रह करते हैं। दरअसल कम्पनी के दिवालिया होने पर कम्पनी से बैंक जितनी वसूली कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक पैसे बैंक को ऋण खातों के पुनर्गठन से मिलने की उम्मीद होती है। आमतौर पर ऋण की ब्याज दर कम करके या िकस्तों के भुगतान की अवधि में इज़ाफा करके ऋण खातों का पुनर्गठन किया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत ऋण के बदले कम्पनी के शेयरों की भी अदला-बदली की जाती है। इसका यह मतलब हुआ कि कम्पनी के शेयरों के बदले बैंक, कम्पनी का कुछ या पूरा ऋण माफ कर सकते हैं। ऋण खातों के पुनर्गठन के तहत कम्पनी बैंक को बांड का कुछ हिस्सा देने के लिए भी राज़ी हो सकते हैं। कम्पनी, बैंक से ब्याज या पूँजी का कुछ हिस्सा माफ करने के लिए भी आग्रह कर सकती है। मामले में बैंक सभी को मॉरेटोरियम या पुनर्गठन का फायदा देने के खिलाफ हैं, जो सही भी है। क्योंकि ऋण चुकाने की हैसियत रखने वाली कई कम्पनियाँ या लोग इस राहत का बेजा फायदा उठा सकते हैं। कुछ लोग आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद भी मॉरेटोरियम का फायदा उठा रहे हैं, जिसका वित्तीय क्षेत्र और गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। हालाँकि उनके इस कदम से उन्हें ज़्यादा ब्याज चुकाना होगा; क्योंकि बैंक आमतौर पर ऋण खातों में चक्रवृद्धि ब्याज प्रभावित करता है और मॉरेटोरियम का अर्थ ऋण माफी नहीं है।

एक अनुमान के मुताबिक, पहले से गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) से जूझ रहे बैंकों के एनपीए में कोरोना महामारी की वजह से और भी ज़्यादा वृद्धि हो सकती है और एनपीए में भारी इज़ाफा होने के बाद सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों का अनुपालन करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनकी औसत पूँजी पर्याप्तता का अनुपात मार्च, 2020 में 13 फीसदी था; जबकि न्यूनतम पूँजी आवश्यकता सितंबर, 2020 तक बढक़र 11.50 फीसदी होने का अनुमान है। इस तरह सरकारी बैंकों के पास सितंबर महीने में केवल 1.5 फीसदी अधिक पूँजी का कुशन मात्र रह जाएगा, जो मॉरेटोरियम अवधि के समाप्त होने या बड़े कर्ज़ का पुनर्गठन नहीं होने से एनपीए राशि को समायोजित करने में समाप्त हो जाएगा।

वित्तीय जानकारों के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-21 में सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों को पूरा करने के लिए लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। लेकिन सरकार ने अभी तक सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के सम्बन्ध में कोई बात नहीं कही है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बैंकों के प्रमुखों से बातचीत के दौरान उन्हें यह आश्वासन दिया कि उन्हें पैसों की कमी नहीं होगी। साथ ही उन्हें क्रेडिट ग्रोथ बढ़ाने के लिए भी कहा है। क्योंकि एनपीए होने के डर से सरकारी बैंकों के साथ-साथ निजी बैंक भी कर्ज़ देने में फिलवक्त जोखिम उठाने से बचने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके कारण क्रेडिट ग्रोथ में अपेक्षित तेज़ी नहीं आ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) के मुताबिक, बैंकों की ऐसी प्रवृति की वजह से आर्थिक सुधारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वैसे क्रेडिट ग्रोथ में कमी का एक महत्त्वपूर्ण कारण कर्ज़ की माँग में भारी कमी आना भी है। एफएसआर में कहा गया है कि एए और उसके ऊपर की श्रेणियों को छोड़ दें, तो हर रेटिंग श्रेणी को मिलने वाले ऋण में कमी आयी है। उद्योगों को दिये जाने वाले कर्ज़ में बढ़ोतरी के विश्लेषण से भी पता चलता है कि सरकारी बैंक सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली कम्पनियों को या अच्छे वित्तीय साख वाले व्यक्तियों को ही कर्ज़ दे रहे हैं। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये नीतिगत कदमों से वित्तीय बाज़ार की स्थिति में कुछ सुधार आया है और बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को नकदी की िकल्लत का ज़्यादा सामना नहीं करना पड़ रहा है, जिससे उधारी की लागत कम हुई है। फिर भी सरकार विकास वित्त संस्थान या डवलपमेंट फाइनेंस इंस्टीट्यूटशन (डीएफआई) की स्थापना करने पर कार्य कर रही है।

डीएफआई सरकार के स्वामित्व वाली संस्था होगी और उन उद्योगों के लिए ऋण मुहैया करायेगी, जिन्हें वाणिज्यिक ऋणदाताओं से ऋण नहीं मिला है। इस तरह इसका स्वरूप कैसा होगा? निवेश कौन करेगा? आदि की रूपरेखा अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुई है। लेकिन कहा जा रहा है कि उद्योगों की ज़रूरतों को पूरा करने में यह महती भूमिका निभा सकता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के अनुसार, फँसे हुए कर्ज़ या एनपीए से जूझ रहे बैंक उद्योग जगत की बहुत ज़्यादा मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं; इसलिए उद्योगों की बुनियादी ढाँचा वाली परियोजनाओं के लिए रकम जुटाने के लिए नये रास्ते तलाशने होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस बयान से डीएफआई की अहमियत बढ़ गयी है। गौरतलब है कि इस सन्दर्भ में एक उच्चस्तरीय समिति ने पाँच वर्षों में लगभग 111 लाख करोड़ रुपये की बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए निवेश योजनाएँ भी तैयार की हैं।

कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह से चौपट कर दिया है। हालाँकि अर्थ-व्यवस्था के पूरी तरह से गतिशील होने के बाद ही कॉरपोरेट क्षेत्र का पूरा नुकसान सामने आयेगा; लेकिन अभी भी अर्थ-व्यवस्था की तस्वीर किसी भी दृष्टिकोण से गुलाबी नहीं है। आम और खास के साथ-साथ उद्योग भी ऋण की िकस्त और ब्याज जमा नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए मॉरेटोरियम अवधि में बढ़ोतरी और बड़े कर्ज़ के पुनर्गठन की माँग की जा रही है। हालाँकि मौज़ूदा स्थिति में सरकार को सभी प्रकार के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की ज़रूरत है; तभी आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ा जा सकता है।

इसके लिए सरकार और बैंक दोनों को मिलकर काम करना होगा। चूँकि जोखिम कम होने पर ऋण के एनपीए होने की सम्भावना कम होती है और ऐसे ऋण अगर एनपीए हो भी जाते हैं, तो उसकी वसूली की उम्मीद बेहतर होती है। इसलिए एनपीए होने की आशंका से कोरोना-काल में बैंक ऋण देने में विशेष सावधानी बरत रहे हैं। अस्तु क्रेडिट में वृद्धि के लिए सरकार को बैंकों को भरोसा देना होगा कि सरकार उनके साथ खड़ी है। बैंकिंग क्षेत्र में बढ़ते एनपीए को देखते हुए सरकार को बैंकों का पुनर्पूंजीकरण भी करना होगा, ताकि सरकारी बैंक पूँजी पर्याप्तता अनुपात मानक का अनुपालन करने में आगामी महीनों में भी सक्षम रहें। इसके अलावा सरकार को सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों के कर्ज़ पर गारंटी योजना के दायरे को अन्य क्षेत्रों के लिए भी बढ़ाना होगा, ताकि आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज़ हो सके।

( सतीश सिंह एसबीआई के कॉरपोरेट केंद्र, मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में मुख्य प्रबन्धक हैं।)

पाखण्डवाद की चपेट में किसान

भारतीय राजनीति में किसान का पक्ष मज़बूती से रखने वाले कई नेता हुए और किसानों की आवाज़ उठाने वाले नेताओं को किसानों ने कभी हताश या निराश नहीं किया। आज न पहले वाले किसान नेता रहे और न ही अपने नेताओं का डटकर जी-जान से साथ देने वाले किसान रहे। आज का राजनीतिक दौर धार्मिकता, पाखण्डवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद में बदल चुका है। यही कारण है कि जब आज किसानों की दुर्दशा व अन्याय की अनदेखी करके उसे बाँटने का काम आज के तथाकथित नेताओं द्वारा किया जा रहा है, टुकड़ों में बाँटकर किसानों पर आसानी से अन्याय किया जा रहा है, तब भी इस अन्याय के खिलाफ पूरे देश के किसान एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। किसानों की न्याय की लड़ाई भटक चुकी है। आज की आधुनिक दौड़ में लगे किसानों के पुत्र तो मज़हब, वर्ण, जाति, कुल, गोत्र, क्षेत्र, भाषा, गरीब, अमीर, छोटा, बड़ा, निजी स्वार्थ, गोरक्षा, नयी गौशाला बनवाने, उनके लिए चन्दा माँगने के धर्म और राजनीतिक के ठेकेदारों के प्रोपेगंडा और न जाने कितनी तरह के पागलपन, पाखण्डवाद तथा आडम्बरों में फँसकर बहक रहे हैं; बर्बाद हो रहे हैं। अब किसानों के बच्चे गाँवों में स्कूल या अस्पताल के लिए नहीं, अपितु नये मन्दिर बनवाने, गाँव के पुराने मन्दिरों में साल भर में हर तीन-तीन महीने में भण्डारा करवाने की ज़िम्मेदारी लेकर घूम रहे हैं।

आप अक्सर देखते होंगे गाँव, कस्बों और शहरों में जगराते करने, हरिद्वार से कांवड़ लाने, माता के दरबार में पैदल जाने, नवरात्रे वृत रखने जैसे धार्मिक कार्यों में आगे आकर किसान पुत्र की बजाय धर्म-पुत्र बनकर अपने कीमती समय गँवाकर खुद को धन्य समझ रहे हैं। यह बात मैं इसलिए कह कह रहा हूँ, क्योंकि मेरा ताल्लुक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक किसान परिवार से है और मैं खेती-किसानी से जुड़ा रहा हूँ और आज हो रही किसानों की दुर्दशा तथा किसानों के बच्चों के भटकाव को अच्छी तरह देख रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों में हरिद्वार से कांवड़ का प्रचलन यहाँ पर बहुत तेज़ी से बढ़ा है। जानकारी करने पर पता चला इन कांवड़ यात्रियों में आजकल ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों के युवा बढ़-चढक़र हिस्सा ले रहें हैं।

पिछले साल मैं अपने गृह ज़िले शामली गया, तो अखबार में फोटो के साथ खबर थी कि शामली के पुलिस निरीक्षक ने कांवडिय़ों के पैर दबाये, अगले दिन मेरठ के कमिश्नर ने हेलीकॉप्टर से फूल बरसाये। जब मैंने अपने गाँव के कुछ युवाओं से हरिद्वार से कांवड़ लाने के विषय में पूछा, तो उनमें से एक ने कहा मैं तो इसके साथ गया था। दूसरे से पूछा, तो उसने बताया कि ‘हम तो एक महीने खूब मौज़-मस्ती करते हैं। ट्रेन से मुफ्त में हरिद्वार पहुँच जाते हैं। आठ दिन वहाँ मस्ती करने के बाद वापसी के रास्ते में अच्छा खाना-पीना, खीर, हलवा और सूखे मेवों से स्वागत होता है। एक महीने बढिय़ा मनोरंजन होता है।’ दु:ख इस बात का है कि इन बच्चों को अपने भविष्य की चिन्ता नहीं है। मोबाइल की दुनिया ही इन्हें असली दुनिया लगती है। और धार्मिकता में चार दिन की चमक-दमक, सेवा-सुश्रुषा इन्हें सन्तुष्ट कर देती है।

इसके अलावा किसानों और कामगारों के पुत्रों में हिन्दू धर्म के खतरे में होने के भय होने की भयंकर बीमारी भी देखी जा रही है, जो उन्हें मृग-मरीचिका की भाँति असल ज़िन्दगी से भटका रही है। उसके तमाम उदाहरण आपको मिल जाएँगे। शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी आपने आजकल सोशल मीडिया पर एक और नयी आधुनिक बीमारी देखी होगी कि अगर किसी परिचित व्यक्ति की मृत्यु हो गयी हो, तो तमाम फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप आदि पर सबसे पहले किसान पुत्र ही बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ आरआईपी-आरआईपी (क्रढ्ढक्क-क्रढ्ढक्क) लिखते हैं। जब मैंने इस बारे में कई किसान पुत्रों से इस विषय में पूछा, तो वे बगलें झाँकने लगे। क्योंकि उन्हें इसका अर्थ ही नहीं पता। उनका जवाब मिला- फलाँ ने लिखा था, तो मैंने भी लिख दिया! मैं बताता हूँ; रिप का मतलब होता है- रेस्ट इन पीस। यानी शान्ति से आराम करो। अब ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि ईसाई मान्यताओं के अनुसार, कयामत के रोज़ कब्रों के अन्दर से सभी उठ खड़े होंगे। जबकि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। इसलिए उसे अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। तो हिन्दू मत के अनुसार, रेस्ट इन पीस का मतलब ही नहीं बनता। इसीलिए हमारे यहाँ विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं। पर इन बहकते हुए बच्चों को कौन समझाए?

मैं किसानों के बच्चों से सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि किसान पुत्र होने के नाते आपका फर्ज़ बनता है कि आप अपने गौरवान्वित पेशे किसानी के लिए संगठित होकर उस लड़ाई को लड़ें, जो किसान अपने हक-हुकूक के लिए लड़ता आ रहा है। जब किसान धरने-प्रदर्शन करते हैं, तो कोई मज़दूर उसके साथ नहीं आता। कोई धार्मिक पण्डा-पुजारी, कोई मौलवी, कोई व्यापारी या कोई गौशाला प्रमुख, रक्तदान कराने वाले डॉक्टर या संगठन नहीं आते, कोई सेलिब्रिटी फिल्मी सितारें नहीं आते, खिलाड़ी, राजनेता नहीं आते। जब किसी मज़दूर को मज़दूरी न मिले, तो लेबर कोर्ट है। लेकिन किसान को फसल भाव न मिले, तो मण्डी और फण्डी (दलालों) के लिए तो कोई कोर्ट नहीं है। इसलिए अपनी आँखों पर पड़े पर्दे को उतारो और खुद के खेती-किसानी के मुद्दों पर जितना लिख सकते हो, लिखो; जितना बोल सकते हो बोलो; जो कर सकते हो, करो। आज हर रोज़ अनेक किसान आत्महत्या कर रहे हैं; आत्महत्या को मजबूर हैं। उन्हें कहीं साहूकारों, तो कहीं बैंकों के कर्ज़ ने दबोच रखा है। अधिकतर किसानों की तो लागत भी लौटकर नहीं आती। कर्ज़ा न दे पाने के कारण उन्हें पहले पुलिस प्रताडि़त करती है और फिर जेलों में ठूँस देती है। ये किसान जमानत कराने के लिए वकील की फीस तक नहीं जुटा पाते और न ही इनके पक्ष में कोई राजनेता या कोई धर्म का ठेकेदार खड़ा होता है।

क्या हमें उनसे सवाल नहीं पूछना चाहिए? जिन्होंने इन निरीह किसानों के नाम पर किसान संगठन बनाकर दुकानें खोली हुई हैं? जिन्होंने किसानों को सिर्फ वोटबैंक का ज़रिया समझा हुआ है और बड़े राजनेताओं के लिए अपनी-अपनी वोटबैंक की दुकानें खोली हुई हैं। उन दुकानों पर किसानों की मासूमियत और ज•बातों को ऊँचे दामों पर बेचा जा रहा है। वे तथाकथित किसान नेता हैं और इस देश के हर ज़िले, तहसील, ब्लॉक और कस्बे में सरकार और मण्डी-फण्डी की दलाली करते फिरते हैं और किसानों को लूट-लाटकर अपनी सम्पदा में लगातार बढ़ोतरी कर रहे हैं। क्या किसान पुत्रों को इन किसान संगठनों, तथाकथित नेताओं के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए? उनकी सम्पत्ति की जाँच की माँग नहीं करनी चाहिए? इसके अलावा क्या हमें राजनीतिक दलों में किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे नेताओं से नहीं पूछना चाहिए कि वे किसानों की अनदेखी क्यों कर रहे हैं? देश के किसानों को मज़हब, वर्ण, जाति, क्षेत्र आदि में क्यों बाँट रहे हैं? अब तो यहाँ तक इन्होंने तथाकथित नेताओं ने किसानों को फसलों के आधार पर बाँट दिया, जैसे कि यह गन्ने का किसान, आलू का किसान, धान का किसान, कपास का किसान और बाजरे का किसान आदि।

अगर इसी तरह चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब किसानों का यह बँटवारा जातिगत बँटवारे की तरह किसानों में भेदभाव का कारण बन जाए। जी हाँ, इसीलिए किसानों को बाँटा जा रहा है। इसका लाभ होगा? क्या किसानों को इसका कोई लाभ है? नहीं; इसका सीधा फायदा सरकारों और पूँजीवादियों को ही होगा और किसान यूँ ही बदहाली की ज़िन्दगी जीता रहेगा। और अगर ऐसे ही बँटता गया, तो भविष्य में और भी बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जाएगा। क्योंकि जब महाराष्ट्र और पश्चिम यूपी के गन्ना किसानों को भुगतान नहीं होता, तो आगरा, मथुरा, बदायूँ और फरुखाबाद समेत अन्य जगहों का आलू का किसान खामोश रहता है। जब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को धान का वाजिब दाम नहीं मिलता, तो पूरे देश का गन्ने का किसान चुप रहता है। जब प्याज के किसान को बाजिव दाम नहीं मिलता, तो अन्य सब्जियाँ उगाने वाला किसान चुप रहता है। इसके अलावा भी किसान निजी स्वार्थ और न जाने कितने आडम्बर और पाखण्ड दिमाग में रखकर घूम रहा हैं। क्योंकि राजनेताओं द्वारा उसको पिलायी गयी धार्मिक अफीम का नशा उसके दिमाग को सातवें आसमान पर रखता है और वह अपने भले-बुरे की बात भी नहीं समझ पाता। इसलिए जब तक धार्मिकता के नाम पर अन्धविश्वास और आपसी मतभेद का नशा किसानों के सिर से नहीं उतरेगा, तब तक तथाकथित किसान नेता, राजनेता और धर्म के ठेकेदार मिलकर सभी किसानों के नाम पर मलाई चाटते रहेंगे और किसानों का खून भी चूसते रहेंगे। बहरहाल किसान पुत्र होने के नाते मैं कहना चाहता हूँ कि किसान और उनके बच्चे इस बात का ध्यान रखें कि जब तक वे दीनबन्धु छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और कुम्भाराम आर्य जैसे किसी किसान नेता को अपने नेतृत्व की बागडोर नहीं सौंपते और एकजुट नहीं होते, तब तक ऐसे ही लुटते-पिटते रहेंगे; बर्बाद होते रहेंगे।

कहने का मतलब यह है कि इसमें किसानों के घर में पल रहे पढ़े-लिखे बच्चे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैं आज के भोले और निरीह किसानों को कहना चाहता हूँ कि आपस में धर्म, जाति, पन्थ और क्षेत्र आदि को भुलाकर देश और किसान हित के बारे में सोचें, एक साथ मिलकर एक-दूसरे से प्यार-व्यवहार का रिश्ता बनाएँ तथा सच का खुलकर साथ दें। तभी किसानों की दयनीय स्थिति बदलेगी। पहले बदली भी है, जैसे 80 साल पहले सर छोटूराम, 50 साल पहले चौधरी चरण सिंह और 30 साल पहले महेंद्र सिंह टिकैत ने बदली थी। बस आज दरकार है उन जैसे दृढ़संकल्पी, साहसी, ईमानदार, किसान-हितैषी शिक्षित युवा किसान पुत्र की! पूँजीवादियों के दबाव में सरकार जिस प्रकार नये-नये कृषि अधिनियम और किसानों का भला करने की आड़ में कई तरह की नीतियाँ लेकर आ रही है, उससे किसानों को कम और पूँजीवादियों और विदेशी कम्पनियों को अधिक लाभ मिलता नज़र आ रहा है। आज के किसानों और खासतौर से किसानों के बच्चों को इस बात को गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है कि अगर एक बार किसान पूँजीपति के चंगुल में फँस गया, तो उसका निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में वह जीवन भर सिर्फ छटपटाने के अलावा कुछ नहीं कर पाता और अन्त में या तो आत्महत्या कर लेता है या बेइ•ज़ती की ज़िन्दगी जीता रहता है।

अब भी समय है कि किसान धर्म, जाति, क्षेत्र, छोटे-बड़े और फसलवाद के बँटवारे के चक्कर में न फँसकर एकजुट हों और अपने लिए हक-हुकूक की लड़ाई लड़ें। अगर किसान जल्दी ही नहीं जागे, तो वह दिन दूर नहीं, जब नये मण्डी और कॉन्ट्रेक्ट खेती अधिनियम से किसानों से उनकी ज़मीने छिन जाएँगी; क्योंकि यह खतरा किसानों पर मँडराने लगा है। मध्य प्रदेश में ज़बरन किसानों से ज़मीन छीनने के चक्कर में उनकी खड़ी फसलों को उजाडऩा इसके ताज़ा उदाहरण हैं। कहीं ऐसा न हो कि किसान अपनी ही खेती की ज़मीन में किसी दिन मज़दूर बनकर काम करते नज़र आएँ, जैसा कि साहूकारी के दौर में होता रहा है। कहीं ऐसा न हो कि किसानों का भोलापन और आपसी भेदभाव आने वाली किसान पीढिय़ों के लिए भयानक प्रताडऩा का कारण बन जाए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक है और यह उनके निजी विचार हैं।)

श्रीलंका में राजपक्षे की जीत के मायने

भारत के चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में चुनाव के बाद महिंदा राजपक्षे सत्ता में स्थापित हो गये हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बधाई के जवाब में भले उन्होंने भारत के साथ रिश्तों को मित्र और परिवार जैसा बताया। लेकिन एक सच यह भी है कि उन्हें चीन की तरफ झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है। यह राजपक्षे ही थे, जिन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में चीन के साथ कई बुनियादी संरचना निर्माण सम्बन्धी समझौते किये थे, जिनमें से एक कर्ज़ा चुकाने में असमर्थ रहने पर रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल के लिए चीन को दे देना भी शामिल था। इस समझौते ने एशिया ही नहीं, यूरोप में भी चिन्ता पैदा की थी।

चुनाव में राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पोदुजना पेरमुना (सहयोगियों के साथ श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट) ने संवैधानिक परिवर्तनों की भी बात की थी। इसके लिए उसे दो-तिहाई बहुमत चाहिए था, जो उसे मिल गया है। महिंदा के भाई गोतबए राजपक्षे पहले से देश के राष्ट्रपति हैं। महिंदा राजपक्षे ने चुनाव में जाते हुए अपनी पार्टी श्रीलंका पोदुजना की तरफ से संविधान में बदलाव की जो बात कही है, उसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के कार्यकाल की संख्या में बढ़ोतरी और पहले से चल रहे कानूनों में बदलाव शामिल हैं।

राजपक्षे कह चुके हैं कि संविधान में बदलाव करके देश को आर्थिक और सैन्य रूप से सुरक्षित और मज़बूत करना चाहते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सैन्य स्तर पर बदलावों में चीन का किस हद तक रोल रहता है? उनके पिछले कार्यकाल में चीन का असर साफ दिखा था। राजपक्षे सिंहली हैं और देखना होगा कि तमिल समुदाय को लेकर उनके फैसले कैसे रहते हैं? हाल के वर्षों में श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध और मुस्लिम-तमिल समुदायों के बीच कुछ मसले उभरते देखे गये हैं। राजपक्षे के भाई ही थे, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए चरमपंथी संगठन एलटीटीई का खात्मा किया था।

हाल के चुनाव प्रचार में यह देखने में आया है कि श्रीलंका में सिंहली राष्ट्रवाद अलग स्तर पर उभरा है। ज़ाहिर है इससे देश के अल्पसंख्यक समुदायों में चिन्ता बढ़ी है। श्रीलंका के मुस्लिम नेता और लोग पिछले साल ईस्टर पर कुछ इस्लामिक चरमपंथियों द्वारा किये गये बम धमाकों के बाद सिंहली समुदाय के गुस्से के निशाने पर रहे हैं। उन धमाकों में 260 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी। यही नहीं, राष्ट्रपति गोतबए राजपक्षे, जो पहले प्रधानमंत्री भी रहे हैं; के ऊपर गृह-युद्ध के दौरान मानवाधिकार हनन के गम्भीर आरोप लगे थे। आरोप यह भी लगे कि विरोध के स्वर दबाने के लिए गोतबए ने उन्हें निशाना बनाया। वैसे, राजपक्षे इन तमाम आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे हैं।

यदि याद करें, तो अपने पिछले कार्यकाल में राजपक्षे ने चीन समर्थक रुख ज़ाहिर किया था। कुछ जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि यह राजपक्षे ही हैं, जिन्होंने श्रीलंका को एक तरह से चीन के उपनि‍वेश के रूप में बदल दिया था। उसके बाद भी राजपक्षे के जो बयान आते रहे हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि राजपक्षे के विचारों और नीतियों में कोई परिवर्तन दिखा हो। अब चूँकि वह प्रधानमंत्री बन गये हैं, तो चीन के प्रति उनका झुकाव इस क्षेत्र में भारत के लिए चिन्ताजनक माना जाएगा।

चीन भारत के साथ तो सीमा पर तनाव में उलझा ही है, उसने नेपाल जैसे देश को भी भारत के खिलाफ कर दिया है। नेपाल ने पिछले कुछ महीनों में खुले रूप से भारत विरोधी रुख दिखाया है। यही नहीं, हाल के महीनों में हमारे मित्र देश माने जाने वाले बांग्लादेश तक का रुख भी बदला है और वह चीन के करीब जाता दिख रहा है। बांग्लादेश पिछले कुछ समय में भारत के कुछ बयानों के कारण नाराज़ दिखा है। पाकिस्तान तो पहले ही चीन की गोद में बैठा है।

ऐसे में श्रीलंका में भी चीन समर्थक राजपक्षे के आने से भारत की दक्षिण एशिया क्षेत्र में चिन्ता निश्चित ही बढ़ेगी। भारत के सेनाध्यक्ष नरवणे अगस्त के पहले पखबाड़े सेना को हर स्थिति के लिए तैयार रहने को कह चुके हैं। चीन को लेकर बहुत-से विशेषज्ञ यह आशंका जाता रहे हैं कि वह सर्दियों में कुछ खुराफात कर सकता है। ऐसे में पड़ोस में चीन समर्थक सत्ताओं का जमाबड़ा भारत के लिए चिन्ता पैदा करने वाला तो माना ही जाएगा, भले अमेरिका और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी से निजी मित्रता के कारण दोस्ती निभाने का इज़हार कर चुके हों।

श्रीलंका में राजपक्षे की प्रधानमंत्री के तौर जीत को लेकर विदेशी मामलों के जानकारों में अलग-अलग राय रही है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार डॉ. रहीस सिंह का साफ तौर पर कहना है कि राजपक्षे की जीत से चीन की रणनीति सफल हुई है। इससे भारत को घेरने की उसकी स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स नीति को मज़बूत मिली है और निश्चित ही वह राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद अब मलक्‍का-जि‍बूती के बीच ‍यू मेरिटाइम रूट नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा। यह भारत के खिलाफ चीन की एक तरह से दोहरी साज़िश जैसा है। सिंह मानते हैं कि दुनिया में अब मनोवैज्ञानिक बढ़त की नीति अपनायी जाने लगी है और भारत को बदलकर आक्रामक रुख अपनाना होगा।

वैसे श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे की जीत के बाद उन्हें बधाई देने वाले नरेंद्र मोदी पहले  विदेशी नेताओं में से एक हैं और इसके जवाब में राजपक्षे ने एक ट्वीट के ज़रिये प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रिया अदा किया। राजपक्षे ने लिखा- ‘श्रीलंका के लोगों के समर्थन के साथ, दोनों देशों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे सहयोग को और आगे बढ़ाने के लिए आपके साथ मिलकर काम करने को उत्साहित हूँ। श्रीलंका और भारत अच्छे मित्र और सहयोगी हैं।’ राजपक्षे ने यह भी कहा कि दोनों पक्ष सभी क्षेत्रों में द्विपक्षीय सम्बन्धों को आगे बढ़ाने और विशेष सम्बन्धों को कोई नयी ऊँचाई पर ले जाने के लिए काम करेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि राजपक्षे का यह बयान ज़मीनी स्तर पर कितना सही उतरता है? या महज़ औपचारिक ही बनकर रह जाता है?

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि शायद राजपक्षे भारत को नाराज़ करने से बचने की नीति अपनाएँ। अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ कमर आगा ने श्रीलंका चुनाव नतीजों के बाद कहा कि श्रीलंका अपने स्तर पर चतुराई की नीति पर काम करता है। वह चीन ही नहीं भारत से भी अपने हित के लाभ लेता है। यह देखा गया है कि श्रीलंका ने जहाँ अपनी कुछ परियोजनाएँ चीन को दी हैं, वहीं भारत को भी दी हैं। आगा मानते हैं कि महिंदा राजपक्षे शायद भारत के साथ सम्बन्ध खराब नहीं करना चाहेंगे। ऐसा इसलिए भी, ताकि चीन का उस पर असर एक सीमित स्तर तक ही रहे।

आगा साफ तौर पर मानते हैं कि राजपक्षे की नीति चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध रखते हुए भी भारत से रिश्‍ते बनाये रखने की है। श्रीलंका को पता है कि भारत से बेवजह की दुश्‍मनी उसके गले की फाँस भी बन सकती है।

आगा के मुताबिक, नई दिल्ली की राजपक्षे से सम्भवत: सबसे बड़ी यही अपेक्षा रहेगी कि उनका देश चीन को अपने यहाँ सैन्य गतिविधियों की किसी भी सूरत में इजाज़त न दे। इसके अलावा एक बेहतर पक्ष यह भी है कि श्रीलंका के सिंहली और तमिल परस्पर विरोधी समुदाय होने के बावजूद एक मामले में एकजुट हैं कि भारत के साथ श्रीलंका के रिश्‍ते खराब न रहें। राजपक्षे को उनकी इस सोच के एकदम उलट जाना उतना आसान नहीं होगा।

लेकिन इन सब पक्षों के बावजूद यह एक बड़ा सच यह है कि राजपक्षे की पार्टी आरम्भ से ही चीन की करीबी मानी जाती रही है। इसका एक कारण श्रीलंका की आर्थिक स्थिति को मज़बूती प्रदान करने के लिए हाल के वर्षों में चीन का श्रीलंका में बड़े पैमाने पर किया जाता रहा निवेश है। यह दिलचस्प है कि चीन के इस निवेश को राजपक्षे चुनाव प्रचार में अपने विकास मॉडल के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। उनका कहना रहा कि इस निवेश का श्रीलंका को फायदा है और जनता ने उन्हें वोट देकर उनकी इस बात पर भरोसा जताया है।

याद रहे चीन ने बंदरगाहों के ज़रिये श्रीलंका में निवेश बढ़ाया है। चीन के इस निवेश के प्रति राजपक्षे परिवार के नेताओं का ज़बरदस्त मोह रहा है। एक समय यह भी आया कि श्रीलंका ने चीन के इस निवेश के चलते भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका की कई परियोजनाओं से खुद को अलग कर लिया। यही नहीं, उसने चीन को हिन्द महासागर में अपने क्षेत्र से आने की मंज़ूरी दी। श्रीलंका का सबसे कमज़ोर पक्ष आर्थिक ढाँचे का बहुत कमज़ोर होना है, जिसका चीन ने हाल के वर्षों में भरपूर फायदा उठाया है। श्रीलंका कर्ज़ में डूबा है और चीन इसका लाभ उठा रहा है। श्रीलंका के कुल कर्ज़ का करीब 12 फीसदी चीन से है, जिससे ज़मीनी स्थिति को समझा जा सकता है।

असैन्य परमाणु समझौता

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के एक साल के भीतर पड़ोसी देशों से सम्बन्ध सुधारने की अपनी नीति के तहत 2015 में श्रीलंका के साथ एक असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तखत किये थे। उस दौरान रक्षा और सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी थी। मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के बीच यह समझौता हुआ था। तब मोदी ने कहा था कि असैन्य परमाणु सहयोग पर द्विपक्षीय समझौता हमारे आपसी विश्वास की एक और अभिव्यक्ति है।

दिलचस्प यह भी था कि श्रीलंका की तरफ से  हस्ताक्षरित अपनी तरह का यह पहला समझौता था। यह सिरीसेना ही थे, जिन्होंने श्रीलंका का राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना था। तब राष्ट्रपति चुनाव में सिरीसेना ने महिंदा राजपक्षे को ही मात दी थी, जो अब प्रधानमंत्री बने हैं। हालाँकि उसके बाद दोनों देशों में रिश्तों को लेकर कुछ खास नहीं हुआ है। महिंदा राजपक्षे के चीन के निकट होने के कारण आने वाले समय में भारत के साथ उनके रिश्तों को लेकर पूरे एशिया ही नहीं पश्चिम में भी विशेषज्ञों की नज़र रहेगी।

चुनावी नतीजे

राजपक्षे की पार्टी के नेतृत्व वाले गठबन्धन श्रीलंका पीपल्स फ्रंट ने इस चुनाव में कुल 225 में से 145 सीटें जीतीं। पाँच सीटें उनकी सहयोगी पार्टियों को मिलीं। याद रहे श्रीलंका में एसएलपीपी ने 9 महीने पहले राष्ट्रपति चुनाव भी जीता था, जिसके बाद गोतबए राजपक्षे ने 18 नवंबर को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी।

महिंदा राजपक्षे सन् 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति भी रहे। इसके अलावा वह 2002-2004 और 2018-2019 में विपक्ष के नेता भी रहे हैं। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के पुत्र सजित प्रेमदासा के नेतृत्व में बना नया गठबन्धन अब श्रीलंका में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरकर आया है।

राजपक्षे को देश की सिंहली आबादी में खासी लोकप्रियता हासिल है। वह खुद इसी समुदाय से हैं। श्रीलंका में सिंहली कुल आबादी का करीब 26 फीसदी हैं। यह समुदाय राजपक्षे का इसलिए भी बड़ा समर्थक है, क्योंकि सन् 2009 में अलगाववादी संगठन तमिल लिबरेशन टाइगर्स इलम (एलटीटीई) को खत्म करने का बड़ा श्रेय उन्हें दिया जाता है। श्रीलंका की जनता कोरोना महामारी के वक्त महिंदा के बतौर अंतरिम प्रधानमंत्री रहते प्रदर्शन से भी खुश है। महिंदा 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति रहे, जिस दौरान उन्होंने अपनी स्थिति मज़बूत की। उनके इस कार्यकाल के दौरान संविधान संशोधन किया गया और उनके तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की राह साफ हुई। एक तरह से इसने उनके परिवार को श्रीलंका की सियासत में स्थापित कर दिया। हालाँकि सन् 2014 में महँगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से महिंदा राजपक्षे की लोकप्रियता को झटका लगा। उन्होंने समय से पहले 2015 में चुनाव करा लिये, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

उस राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे को अपने ही सहयोगी रहे मैत्रीपाला सिरीसेना से हार झेलनी पड़ी। उसी साल संसद ने 2015 में एक व्यक्ति के दो बार ही राष्ट्रपति रहने से सम्बन्धित संवैधानिक सीमा को बहाल कर दिया। इससे महिंदा फिर राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ पाये। तीन साल बाद 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति सिरीसेना ने अचानक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर महिंदा राजपक्षे को कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। बाद में महिंदा और संसद में उनके समर्थकों ने सत्तारूढ़ पार्टी को छोडक़र एलएसपीपी का दामन थाम लिया, जिसके बाद वह नेता प्रतिपक्ष चुने गये। साल 2019 में उनके छोटे भाई गोतबए देश के राष्ट्रपति चुन लिये गये।

मछुआरों को लेकर रहा है तनाव

भारत और श्रीलंका के बीच मछुआरों का मसला काफी समय से रहा है। श्रीलंका के नौसैनिकों ने कुछ साल पहले जब तमिलनाडु के मछुआरों को गिरफ्तार कर लिया था, तब इस पर खासा बवाल मचा था। तब भारत सरकार ने सख्त एतराज़ जताया था। यही नहीं, इससे तमिलनाडु में भी खासा आक्रोश देखने को मिला था। सन् 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला श्रीसेना के बीच परमाणु सन्धि हुई थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मछुआरों के मुद्दे पर कहा था कि उन्होंने और सिरीसेना ने इसे सर्वोच्च महत्त्व दिया है। यह दोनों पक्षों के लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है। हम इस बात पर सहमत हुए कि इस मुद्दे पर एक रचनात्मक और मानवीय रवैया अपनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि हम दोनों पक्षों के मछुआरों के संघों को जल्द मिलने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। उन्हें एक ऐसा समाधान निकालना चाहिए, जिसे दोनों सरकारें आगे बढ़ा सकें। लेकिन उसके बाद स्थितियाँ कई बार जटिल हुई हैं। मछुआरों की जब बात आती है, तो श्रीलंका के काछाथीवू द्वीप का ज़िक्र भी होता है।

रामेश्वरम से तकरीबन 10 मील दूर भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरू मध्य में स्थित 280 एकड़ का यह बंजर द्वीप एक समय भारतीय क्षेत्र में शामिल था। काछाथीवू सरकारी दस्तावेज़ों में भारत का हिस्सा बना रहा और यह स्थिति 1974 तक रही। तब श्रीलंका में श्रीमाओ भंडारनायके प्रधानमंत्री थीं और अपने राजनीतिक जीवन के मुश्किल दौर में थीं। सन् 1974 में जब वह भारत की यात्रा पर आयीं, तब उन्हें इंदिरा गाँधी का करीबी माना जाता था। उस समय काछाथीवू को विवादित क्षेत्र मानते हुए एक समझौते के तहत इसे श्रीलंका को सौंपा गया, जिससे भंडारनायके को अपनी राजनीतिक ज़मीन दोबारा पाने में मदद मिली। इंदिरा सरकार की सोच थी कि इससे दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत होंगे। समझौते में प्रावधान था कि तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आसपास आगे भी बेरोकटोक मछली पकडऩे आ सकते हैं। लेकिन सन् 1976 में भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा तय करने के लिए एक और समझौता हुआ, जिसमें प्रावधान था कि श्रीलंका समुद्र के विशेष आर्थिक क्षेत्र में भारतीय मछुआरों को मछली पकडऩे की अनुमति नहीं होगी। समझौते के बाद भी तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आस-पास मछली पकडऩे का काम करते रहे।  कुछ साल पहले श्रीलंका की नौसेना ने इस पर आपत्ति जताते हुए कई भारतीय मछुआरों को हिरासत में ले लिया था। कुछ नौसेना की गोलीबारी में मारे गये, जिससे दोनों देशों में तनाव भी बढ़ा। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने तो सन् 2008 में इसके खिलाफ बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की, जिसमें काछाथीवू द्वीप को श्रीलंका से वापस लेने की माँग थी। हालाँकि अभी तक यथास्थिति बनी हुई है। देखना यह है कि महिंदा राजपक्षे की नयी सरकार का मछुआरों को लेकर क्या रुख रहता है।

श्रीलंका की राजनीति में राजपक्षे परिवार

महिंदा राजपक्षे : राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के शासनकाल में 1994 से 2001 और 1997 से 2001 में मंत्री रहे। कुमारतुंगा ने अप्रैल, 2004 के आम चुनाव के बाद उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। महिंदा को साल 2005 में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बने और जीते, जिसके बाद उन्होंने लिट्टे को खत्म करने के अभियान को तेज़ी दी। साल 2009 में लिट्टे के करीब 30 साल के खूनी संघर्ष को खत्म करके महिंदा सिंहली बौद्ध समुदाय में एक तरह हीरो बन गये और 2010 के चुनाव में वह एक बार फिर राष्ट्रपति चुने गये।

गोतबए राजपक्षे : गोतबए महिंदा के छोटे भाई हैं और अप्रैल, 2019 को ईस्टर पर हुए बम धमाकों के बाद श्रीलंका की राजनीति में उन्हें एसएलपीपी ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया और वह जीत गये। वैसे गोतबए लिट्टे के खिलाफ असैन्य संघर्ष के दौरान देश के रक्षा सचिव और 1992 में अमेरिका जाने से पहले श्रीलंका सेना में कर्नल के पद पर थे।

बासिल राजपक्षे : महिंदा के छोटे भाई हैं। श्रीलंका के संसदीय चुनाव में बासिल ने ही रणनीति पर काम किया था। बासिल एसएलपीपी के राष्ट्रीय संयोजक हैं और महिंदा के शासनकाल में आर्थिक विकास मंत्री रह चुके हैं। उन्हें एक चतुर राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में जाना जाता है।

चमाल राजपक्षे : महिंदा के बड़े भाई। उनके राष्ट्रपति शासनकाल (2010-15 ) के दौरान चमाल श्रीलंका संसद के स्पीकर रहे। सन् 2019 में गोतबए के राष्ट्रपति बनने के बाद नयी सरकार में चमाल को कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय दिया गया। वह रक्षा राज्य मंत्री और अन्य महकमों के भी मंत्री रहे।

नमल राजपक्षे : महिंदा के सबसे बड़े पुत्र। करीब 34 साल के नमल पेशे से वकील हैं। हालाँकि उन्हें परिवार का उत्तराधिकारी माना जाता है। वह संसदीय चुनाव में हम्बनटोटा से विजयी रहे हैं। नमल को सत्ता में प्रभावशाली माना जाता है। फिलहाल उनके पास कोई पद नहीं है। हाँ, उन पर धनशोधन के आरोप ज़रूर लग चुके हैं। इसके लिए वह मुकदमा भी झेल रहे हैं। जानकार मानते हैं कि महिंदा के इसी शासनकाल में उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी मिल सकती है, जिसमें राष्ट्रपति का पद भी शामिल है।

व्यवसायीकरण की ओर शिक्षा

किसी भी देश की तरक्की में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कहा भी गया है कि शिक्षित राष्ट्र, समृद्ध राष्ट्र। लेकिन अगर हम भारत की बात करें, तो यहाँ की दोहरी शिक्षा नीति ने लोगों के दो वर्ग बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है। यह दो वर्ग हैं- गरीब वर्ग और अमीर वर्ग। वैसे तो हमारे देश में सम्पन्नता के आधार पर और भी वर्ग बने हुए हैं; लेकिन शिक्षा के लिहाज़ से कहा जा सकता है कि यहाँ अच्छे स्तर की शिक्षा अमीरों के लिए है और निम्न स्तर की शिक्षा गरीबों के लिए है।

यही वजह है कि गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों के बच्चे या तो बहुत पढ़-लिख नहीं पाते और अगर पढ़-लिख जाते हैं, तो उनकी पढ़ाई का स्तर वो नहीं होता, जो उन्हें एक हाई क्लास जीवन दे सके। वहीं उच्च मध्यम वर्गीय और अमीर परिवारों के बच्चे उच्च स्तर तक अच्छी शिक्षा पाते हैं; फलस्वरूप उन्हें बेहतर से बेहतर नौकरियाँ मिलती हैं, जिसमें उनका मासिक पैकेज कम-से-कम इतना होता है, जो निम्न मध्य वर्ग या गरीब के बच्चे का अच्छे से अच्छा सालाना पैकेज भी नहीं होता। इस तरह दोहरी शिक्षा गरीबी-अमीरी की खाई को लगातार बढ़ाने का काम कर रही है, जिसके लिए सरकारों समेत कई लोग दोषी हैं। इसी तरह सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापकों की कमी से शिक्षा की नींव कमज़ोर होती जा रही है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों के शिक्षा नीति निर्माताओं को कानूनी और अन्य अड़चनें दूर करके सबसे पहले हर स्तर पर शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती का काम प्राथमिकता के साथ पूरा करना होगा, न कि निजीकरण की बात सोचनी होगी।

वैसे भी आज प्राइमरी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में अध्यापकों की काफी कमी है, जिसके चलते पढ़ाई से लेकर समूची शिक्षण व्यवस्था पर कई सवाल उठते हैं। सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को मिल रही अधकचरा शिक्षा उन्हें वह ज्ञान और कौशल नहीं दे पाती, जिसके दम पर वे अपना अच्छा भविष्य बना सकें।

दूरस्थ शिक्षा का अनियंत्रित विस्तार

शिक्षा की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए दूरस्थ शिक्षा प्रणाली शुरू की गयी, ताकि दूर-दराज़ के विद्यार्थियों और नौकरीपेशा लोग भी सरलता से शिक्षा प्राप्त कर सकें। दूरस्थ शिक्षा का भी जिस तरह अनियंत्रित विस्तार हुआ है, उससे शिक्षा की गुणवत्ता को ठेस पहुँच रही है। इसी तरह बिना आवश्यक व्यवस्था के सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाती रही है; लेकिन मात्र कुलपति नियुक्त कर देने और एक कार्यालय बना देने से विश्वविद्यालय नहीं बनता है।

अत्यधिक घातक साबित होगा शिक्षा का निजीकरण

दरअसल अधिकांश सरकारी शिक्षा केंद्र निरंतर उपेक्षा के कारण शिक्षा व्यवस्था एक चक्रव्यूह में फँसी हुई है; जिसका मोटा फायदा गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों को मिल रहा है। शिक्षा माफिया सरकारों की मिलीभगत से सरकारी शिक्षा व्यवस्था में मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है, जिससे शिक्षा का निजीकरण विस्तार पाता जा रहा है। अब केंद्र सरकार ने सरकारी स्कूलों के निजीकरण की मंशा बना ली है। वैसे तो यह बात उड़ती-उड़ती 2016-17 में ही सामने आने लगी थी, लेकिन उसके दो-ढाई साल बाद लोकसभा चुनाव होने के चलते शायद इस कदम पर चर्चा भी नहीं की गयी। 2019 में लोकसभा चुनावों में जीत के बाद फिर से यह मुद्दा उठा, लेकिन तब एनआरसी, सीएए और दिल्ली विधानसभा चुनाव आदि के चलते में मामला दबा रहा। और अब खुलकर स्कूलों के निजीकरण का विषय चर्चा में है। अर्थात् अब यह लगभग साफ ही लग रहा है कि सरकार सरकारी शिक्षण संस्थानों को भी फिजूल खर्च का बोझ जैसा समझकर उसका निजीकरण करने की जुगत में है। ज़ाहिर है कि अगर सरकारी स्कूलों का निजीकरण हुआ, तो इन स्कूलों के अधिकांश मालिक चंद प्रतिष्ठित अमीर लोग और राजनीतिक रूप से रसूखदार लोग इनका अधिग्रहण करेंगे, जैसा कि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों पर उनका कब्ज़ा है। फिर वही होगा रेलवे की तरह, सरकार खुद कह देगी कि शिक्षा शुल्क (फीस) पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और इतना कहते ही रसूखदार लोगों के हाथ में आये स्कूलों में अनाप-शनाप फीस वसूली जाएगी। शिक्षा को इस बाज़ारीकरण से बचाने के लिए सरकार को शिक्षा के निजीकरण की नीति पर ध्यान देना होगा।

गरीब बच्चों से छिन जाएगी शिक्षा

पूरे देश में सरकारी स्कूलों में बड़ी संख्या में गरीबों के बच्चे पढऩे जाते हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था पहले ही व्यावहारिक सोच से पैदा हुई समस्याओं से जूझ रही है; क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर काफी गिरता जा रहा है। कहीं पढ़ाने के लिए अध्यापक नहीं हैं, तो कहीं पढऩे का सही स्थान। व्यवस्थाओं का अभाव तो सरकारी स्कूल काफी समय से झेलते आ रहे हैं। उस पर अगर बचे-खुचे सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंप दिया, तो व्यापारिक सोच वाले स्कूलों के मालिक मनमाने तरीके से फीस वसूलेंगे और उन्हें कोई रोक नहीं सकेगा। पब्लिक स्कूलों में वसूली जा रही अनाप-शनाप फीस पर रोक न लग पाना इसका सबसे सही उदाहरण माना जा सकता है। ऐसा ही तब होगा, जब सरकारी स्कूलों पर शिक्षा माफिया का कब्ज़ा होगा और ऐसा होने पर गरीबों के बच्चे ही नहीं, निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों के बच्चे भी शिक्षा से वंचित रहने लगेंगे। शिक्षा माफिया जिस तरह इस क्षेत्र पर लगातार अधिकार जमाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है। निजी तौर पर शिक्षा का बाज़ारीकरण करने वाले माफिया दाखिले से लेकर परीक्षा परिणाम तक मिली छूट का फायदा उठाकर शिक्षा के क्षेत्र में वर्ग-भेद और विषमताएँ पैदा करने से संकोच नहीं करेंगे।

तो पूरे देश में होगा स्कूलों का निजीकरण?

सन् 2017 में मध्य प्रदेश सरकार ने सरकारी स्कूलों के निजीकरण की योजना तैयार की थी, जिसका वहाँ के अध्यापकों, समाजसेवियों और विपक्ष ने जमकर विरोध किया था। अब केंद्र सरकार भी पूरे देश में सरकारी स्कूलों के निजीकरण की तैयारी में है। भाजपा सरकार तो वैसे भी हर सरकारी विभाग को निजीकरण की ओर ले जा रही है। लेकिन शिक्षा के निजीकरण के मामले में नीति आयोग भी सरकार के साथ है। नीति आयोग ने हाल ही में जारी की एक रिपोर्ट में यह सिफारिश की है। इसमें उसने अपने तीन साल के कार्य एजेंडा में दलील दी है कि खराब शैक्षणिक स्तर वाले सरकारी स्कूलों को निजी हाथों को सौंप दिया जाना चाहिए, जिसमें सार्वजनिक-निजी भागीदारी हो। रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी स्कूलों के निजीकरण में पीपीपी मॉडल की सम्भावना भी तलाशी जा सकती है। इसके तहत निजी क्षेत्र सरकारी स्कूलों को अपनाएँ और प्रति बच्चे के आधार पर उन्हें सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित किया जाए। नीति आयोग ने कहा है कि निजीकरण से उन स्कूलों की समस्या का समाधान होगा, जो काफी खोखले हो गये हैं और उनकी हालत ठीक करने के लिए काफी खर्च होगा।

रिपोर्ट के अनुसार, समय के साथ सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ी है, मगर इनमें प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या घटी है; जबकि निजी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2010-2014 में 13,500 सरकारी स्कूल बढ़े, जबकि इनमें प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 1.13 करोड़ की कमी आयी। वहीं निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वालों की संख्या में 1.85 करोड़ बढ़ोतरी हुई। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि साल 2014-15 में लगभग 3.7 लाख (36 फीसदी) सरकारी स्कूलों में 50-50 से भी कम छात्र थे। इससे साफ है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति खराब हुई है।

सरकारी स्कूलों में सुधार क्यों नहीं करती सरकार

इस मामले में हमने कई अध्यापकों से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन सभी कुछ भी कहने से बचते नज़र आये। नाम न बताने की शर्त पर एक प्रोफेसर ने कहा कि शिक्षा को लेकर सरकार की नीयत में खोंट दिखता है, अन्यथा सरकार सरकारी स्कूलों की चरमराती शिक्षा व्यवस्था को सुधारकर अच्छा कर सकती है। उन्होंने कहा कि जिस देश में बड़े-बड़े अधिकारी, बड़े-बड़े विद्वान, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े गणितज्ञ और बड़े-बड़े खगोल शास्त्री, भू-विज्ञानी सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करके निकले हैं, उस देश की शिक्षा व्यवस्था कैसे चौपट हो सकती है? इसके पीछे का सीधा-सा कारण है- लालच का। यह लालच शिक्षा माफिया सरकार और सरकारी लोगों को मलाई खिलाकर बढ़ा रहे हैं। प्रोफेसर कहते हैं कि क्या आज केंद्र सरकार को दिल्ली के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था में हो रहे सुधारों से सीख नहीं लेनी चाहिए? सभी जानते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में गरीबों के बच्चे किसी हाल में नहीं पढ़ सकते, तो फिर यह तो गरीब बच्चों के हाथ से किताबें छीनने की साज़िश ही हुई न! उन्होंने कहा कि आज भी देश में लाखों गरीबों के पास दो वक्त की रोटी का साधन भी नहीं, तो फिर वे अपने बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं? इसी को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस सरकार ने आँगनबाड़ी केंद्र खोले थे और स्कूलों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की थी; ताकि गरीबों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण कर सकें। प्रोफेसर ने दावे के साथ कहा कि उस समय सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या तेज़ी से बढ़ी थी; लेकिन मौज़ूदा दौर में स्कूलों में बच्चों को कहीं पानी के साथ रूखी रोटी दी जा रही है, तो कहीं नमक के साथ! क्या ऐसे ही शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त होगी?

हवेली से मिली करोड़ों की चंदन की लकड़ी

मुखबरी के दम पर पुलिस छापेमारी में उत्तर प्रदेश के अमरोहा में चंदन तस्करी के बड़े गिरोह का पर्दाफाश हुआ है। अमरोहा के लोगों की मानें तो चंदन की लकड़ी की यह तस्करी काफी समय से हो रही थी, जिसका अड्डा यहाँ की मशहूर अनवरी हवेली थी। मौके पर पकड़ी गयी चंदन की लकड़ी की कीमत 50 करोड़ से अधिक बतायी जा रही है। हालाँकि बाद में मौखिक रूप से यह भी कहा गया कि लकड़ी की कीमत एक अरब रुपये के आस-पास है। इतनी बड़ी रकम की चंदन की लकड़ी की बरामदगी का चर्चा अब अमरोहा और आसपास के इलाकों में जमकर हो रहा है। शहर के मोहल्ला हाशमी नगर स्थित दो मंज़िला अनवरी हवेली में की गयी इस छापेमारी को दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच और अमरोहा पुलिस ने बड़े गोपनीय तरीके से अंजाम दिया।

अमरोहा पुलिस का कहना है कि 9 अगस्त की शाम को दिल्ली क्राइम ब्रांच की एक टीम अमरोहा पहुँची और अमरोहा में हो रही चंदन की अवैध तस्करी के बारे में बताया। उसके बाद दिल्ली क्राइम ब्रांच की टीम में शामिल इंस्पेक्टर पंकज अरोड़ा, एसआई लक्ष्मण सिंह तथा नौ अन्य पुलिसकर्मियों और अमरोहा पुलिस की एक ज्वाइंट ऑपेरशन टीम ने हवेली में छापेमारी की और दो गोदामों से 145 कुंतल लाल चंदन, सफेद चंदन और खैर की लकड़ी बरामद की, जिसकी बाज़ार में करीब 50 करोड़ कीमत है। इस मामले में मौके पर से अभी तक छ: आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, जिनमें सभी की भूमिका क्रेता-विक्रेता की थी। वहीं चंदन तस्करी का मास्टर माइंड और उसका बेटा अभी फरार है। पुलिस दोनों की तलाश कर रही है। क्राइम ब्रांच ने इस मामले में कहा है कि क्राइम ब्रांच को 30 जुलाई को सूचना मिली थी कि दिल्ली के गढ़ी मेंदू गाँव का भोले कश्यप नाम का आदमी चंदन की लकड़ी की अवैध तस्करी करता है। इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने छापा मारा, जिसमें 1797 किलो लाल चंदन की लकड़ी बरामद की और चंदन लकड़ी की तस्करी करने वाले भोले कश्यप को गिरफ्तार किया गया। कड़ी पूछताछ में भोले कश्यप ने अपने दो साथियों कौशिक कुमार गोदारा और इसरार को गिरफ्तार कर लिया गया है। पूछताछ में आरोपियों ने बताया कि कश्यप चंदन खरीदता था, जबकि इसरार आंध्र प्रदेश से कादिर नाम के एक शख्स से अवैध तरीके से चंदन की लकड़ी लाता था। इसरार ने पूछताछ में बताया कि वह और उसके साथी चंदन की लकड़ी अमरोहा में शाकिर नाम के शख्स को सप्लाई करते हैं। वहीं अमरोहा पुलिस ने अब तक तीन आरोपियों अरशद अली अंसारी, महमूद आलम अंसारी और मोहम्मद सलमान को गिरफ्तार किया है।

स्थानीय लोगों ने बताया कि यह हवेली कमर अहमद नाम के एक शख्स की है। पकड़े गये तस्करों में से एक कमर अहमद का दामाद है। यही कमर अहमद और उसका बेटा शाकिर चंदन की लकड़ी की तस्करी के मास्टर माइंड हैं और पूरे गिरोह के मुखिया भी। फिलहाल दोनों ही फरार हैं और पुलिस उनकी तलाश कर रही है। पुलिस ने चंदन की तस्करी करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके आगे की कार्रवाई शुरू कर दी है। पुलिस के मुताबिक, पाँच लोगों को नामज़द किया गया है।

विदेशों तक है सप्लाई

पुलिस को पूछताछ में पता चला है कि उपरोक्त तस्कर चंदन की लकड़ी की जापान और चीन जैसे देशों तक सप्लाई करते थे। इस तरह से औने-पौने दामों में अवैध तरीके से खरीदकर चंदन की लकड़ी से सभी तस्कर जमकर पैसा कमाते थे। इस मामले में पुलिस लगातार छापेमारी और पूछताछ कर रही है, ताकि गिरोह के दूर-दूर तक के सदस्यों को दबोचा जा सके।

बड़े पैमाने पर होती है चंदन की तस्करी

देश में काफी समय से बड़े पैमाने पर चंदन की लकड़ी की तस्करी होती रही है। चंदन तस्कर वीरप्पन का नाम कौन नहीं जानता है। वह एक कुख्यात बदमाश और बड़े स्तर का चंदन तस्कर था, जिसे बड़ी मुश्किल से सेना ने मार गिराया था। इसके अलावा चंदन की तस्करी के और भी बहुत-से वाकये हैं, जिनमें कई बार तो वन संरक्षकों की मिली-भगत का भी पर्दाफाश हुआ है।

अनेक रोगों की दवा है नींबू

शक्तिवर्धक : उबलते हुए एक गिलास पानी में एक नींबू निचोडक़र पीते रहने से शरीर के अंग-अंग में नयी शक्ति का अनुभव होने लगता है। इससे आँखों की रोशनी तेज़ होती है। मानसिक दुर्बलता, सिर दर्द दूर होता है और अधिक काम करने पर अधिक तथा जल्दी थकावट नहीं होती। इसे बिना शक्कर और बिना नमक मिलाये हल्के-हल्के घूँट लेकर पीना चाहिए।

रक्त और आयु वर्धक : जिन लोगों के शरीर में रक्त यानी खून की कमी हो, उन्हें और टमाटर के रस का उपयोग लाभ पहुँचाता है। वैसे कुछ लोग कहते हैं कि हर रोज़ नींबू का उपयोग करने से आयु बढ़ती है। हालाँकि यह भी कहा गया कि नींबू का अधिक उपयोग नुकसानदायक भी होता है। वैसे यह बात तो हम पहले ही बता चुके हैं कि ज़रूरत से ज़्यादा तो अमृत भी नुकसानदायक हो सकता है।

पाचन तंत्र में फायदेमंद : अगर किसी का भोजन नहीं पचता है और पेट में हमेशा गैस रहती है या भोजन के बाद अथवा सोते समय पेट फूल जाता है; रात को नींद नहीं आती, तो हर रोज़ एक गिलास गर्म पानी में नींबू का रस मिलाकर पीने से काफी फायदा मिलता है। ऐसा करने से विषैले पदार्थ मल-मूत्र द्वारा शरीर से निकल जाते हैं और पाचन शक्ति पुन: सही होने लगती है। अगर किसी को अपच की समस्या हो, तो उसे नींबू के टुकड़े पर नमक डालकर गर्म करके चूसने से आराम मिलता है। इसके अलावा नींबू और अदरक की चटनी का सेवन करने से भूख खुलती है। इसमें हरे धनिये की पत्तियाँ मिलाने से इसका और अधिक फायदा मिलता है। अगर किसी के पेट में दर्द हो, तो 12 ग्राम नींबू का रस, 6 ग्राम अदरक का रस को 6 ग्राम शहद में मिलाकर पी लेने से पेट दर्द में आराम मिलता है। अगर घर में अदरक और शहद न हो तो नींबू के रस में काला नमक और काली मिर्च और जीरे का पाउडर मिलाकर पेट का दर्द ठीक होता है; बशर्ते पेट दर्द का कारण कोई बड़ी बीमारी या किसी अंग के खराब होना न हो। ऐसा करने से पेट के कीड़े भी मरते हैं।

हिचकी : बार-बार हिचकी आने पर एक-एक चम्मच नींबू के रस और शहद में स्वादानुसार काला नमक मिलाकर पीने से हिचकियाँ बन्द हो जाती हैं।

खाँसी : नींबू में नमक, काली मिर्च और शक्कर भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। यह नुस्खा श्वास लेने में हो रही परेशानी में भी काम करता है; बशर्ते रोगी को साँस या दमा का रोग न हो।

बवासीर : नींबू के रस को स्वच्छ महीन कपड़े से छानकर उसमें जैतून का तेल बराबर मात्रा में मिलाकर दो ग्राम की मात्रा में गिलसरीन सिरिंज द्वारा रात को गुदा में प्रवेश कराते रहने से बवासीर की जलन और दर्द दूर होते हैं और मस्से छोटे हो जाते हैं।

ज्वर : ज्वर यानी बुखार, जिसमें रोगी को बार-बार प्यास लगे; होने पर उबलते पानी में नींबू निचोडक़र पिलाने से शरीर का तापमान गिर जाता है और ज्वर हल्का हो जाता है।

सुशांत की मौत के रहस्य से उठेगा परदा?

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत मामले में हर दिन नये-नये मोड़ आते जा रहे हैं। बता दें कि बीते 14 जून को सुशांत सिंह राजपूत अपने बांद्रा स्थित फ्लैट पर मृत मिले थे, जिसे आत्महत्या माना गया था। इसके चलते सुशांत के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत के परिजनों और प्रशंसकों ने उनकी मौत को हत्या कहा था। इसी के चलते महाराष्ट्र पुलिस को जाँच करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसमें सुशांत की करीबी महिला मित्र, जिससे उनकी शादी भी होने वाली थी; से महाराष्ट्र पुलिस ने पूछताछ की थी। हालाँकि पुलिस ने पूछताछ तो सुशांत के करीबी सभी लोगों से की थी; लेकिन रिया चक्रवर्ती की भूमिका शुरू से ही संदिग्ध नज़र आने लगी थी। यह अलग बात है कि उनके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं मिला है, इसलिए उन पर सुशांत की मौत से सम्बन्धित कोई सीधा आरोप भी नहीं लगा। लेकिन रिया का बीच में गायब रहना उनकी भूमिका को संदेह के घेरे में लाता दिखा। हालाँकि वह 10 जून को सुप्रीम कोर्ट पहुँचीं और उन्होंने कहा कि उन्हें गलत तरीके से फँसाने की कोशिश की जा रही है; सीबीआई द्वारा उनके खिलाफ बिना सुबूतों के एफआईआर दर्ज करना गलत है।

बता दें कि हाल ही में आरोप लगे थे कि सुशांत की मौत के बाद रिया चक्रवर्ती ने मुम्बई पुलिस के एक अधिकारी से मोबाइल फोन पर चार बार बात की थी। जैसा कि सब जानते हैं कि सुशांत की मौत से छ: दिन पहले 8 जून को उनकी सेक्रेटरी दिशा सालियान की मौत हो गयी थी। क्योंकि उनकी मौत मलाड के जन कल्याण नगर में 14वीं मंज़िल से गिरकर हुई थी, इसलिए कयास लगाये गये कि दिशा ने कूदकर खुदकुशी कर ली। लेकिन यहाँ भी एक नया मोड़ आया, वह यह कि जब दिशा सालियान की मौत हुई, उसके तुरन्त बाद रिया चक्रवर्ती ने सुशांत का फोन नम्बर ब्लैक लिस्ट में डाल दिया था और सुशांत को धमकियाँ देनी शुरू कर दी थीं। पटना में सुशांत के पिता द्वारा दर्ज करायी गयी रिपोर्ट में उन्होंने आरोप लगाया था कि दिशा की मौत के दिन ही रिया चक्रवर्ती सुशांत के घर से सारा सामान लेकर चली गयी थी और सुशांत का नम्बर ब्लॉक कर दिया था।

अगर दूसरे पहलू को देखें, तो जब पटना पुलिस जाँच के लिए मुम्बई गयी, तब महाराष्ट्र पुलिस और वहाँ की सरकार पर उसे जाँच में सहयोग न करने के आरोप लगे। खबरें तो यहाँ तक आयीं कि तथाकथित लोगों द्वारा, जो भीड़ के रूप में थे; पटना पुलिस का रास्ता रोकने के प्रयास भी किये गये। इधर, सुशांत की 11 पन्ने की डायरी जाँच टीम को मिली है। साथ ही यह भी बात सामने आ रही है कि सुशांत की एक और गर्ल फ्रेंड थी, जिसके फ्लैट की वह ईएमआई भरते थे।

सीबीआई जाँच में अड़ंगा

अब कयास लगाये जा रहे हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने सीबीआई जाँच में लगाया अड़ंगा लगाने की कोशिश कर रही है। दरअसल महाराष्ट्र सरकार की मंत्री और मुम्बई की मेयर किशोरी पेडणेकर ने सुशांत मामले में जाँच के लिए मुम्बई आने वाली सीबीआई की टीम को बिना सरकार की परमीशन मुम्बई में कदम रखने पर 14 दिन के क्वारंटीन में भेजने का ऐलान कर दिया है।इस पर महाराष्ट्र का विपक्षी दल ठाकरे सरकार को घेर लिया है। इसके लिए हाल ही में बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) ने आनन-फानन में कोरोना को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि दूसरे प्रदेशों से हवाई जहाज़ से आने वाले लोगों को अनिवार्य रूप से 14 दिनों के क्वारंटीन में रखा जाएगा। बीएमसी ने गत 3 अगस्त को ये दिशा-निर्देश जारी किये गये थे, जिनमें साफ कहा गया था कि अगर कोई अधिकारी भी सुशांत मामले में जाँच के लिए आता है, तो उसे भी भी जाँच के लिए एनओसी (नो ओवजेक्शन सर्टिफिकेट) यानी अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होगा,जिसके लिए मुम्बई आने और उसकी खास ज़रूरत को बताना होगा।

पटना सिटी एस.पी. को भी किया था क्वारंटीन

बता दें कि पटना सिटी के एस.पी. विनय तिवारी ने बिहार पहुँचकर आरोप लगाये थे कि मुम्बई पुलिस ने उन्हें क्वारंटीन करके जाँच को प्रभावित किया था। वहीं बिहार पुलिस ने मुम्बई पुलिस पर जाँच में सहयोग न करने का आरोप भी लगाया था। इसे लेकर बिहार पुलिस के डी.जी.पी. ने सुशांत मौत मामले की जाँच के लिए मुम्बई गये बिहार के एक आईपीएस अधिकारी को लौटने की अनुमति नहीं दिये जाने पर कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी थी। बता दें कि सुशांत मामले की जाँच के लिए मुम्बई पहुँचे बिहार के आईपीएस अधिकारी पटना सिटी के एस.पी. विनय तिवारी को अब क्वारंटीन से छोड़ दिया गया है।

क्यों है रिया पर संदेह?

दो महीने बाद भी सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझ नहीं पायी है। लेकिन इस बीच रिया की भूमिका संदिग्ध होती नज़र आ रही है। क्योंकि अनेक जाँचों में कई ऐसे खुलासे हुए हैं, जिनके चलते सुशांत से उनके सम्बन्धों और लड़ाई-झगड़े को लेकर कई चौंकाने वाले राज़ खुले हैं। बहरहाल अब यह मामला सीबीआई के हाथों में है; यह अलग बात है कि महाराष्ट्र सरकार चाहती कि इस मामले की सीबीआई जाँच की कोई ज़रूरत नहीं; क्योंकि मुम्बई पुलिस सही तरीके से जाँच कर रही है। लेकिन सीबीआई ने रिया चक्रवर्ती, उनके भाई और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा-306, 341, 342, 420, 406 और 506 के तहत मामला दर्ज किया है। इसके बाद रिया ने सीबीआई जाँच को अवैध बताना शुरू कर दिया है।

रिया ने कहा है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला नहीं सुनाता, तब तक सीबीआई को इस मामले से दूर ही रहना चाहिए। रिया ने तो यहाँ तक कहा है कि सुशांत की मौत मुम्बई में ही हुई थी, इसलिए इस मामले की जाँच मुम्बई पुलिस को ही करनी थी। लेकिन बिहार पुलिस ने मामले को सीबीआई को सौंप दिया, जिसका अधिकार सीबीआई को नहीं है। मज़े की बात यह है कि पहले खुद रिया ने ही देश के गृह मंत्री अमित शाह से सीबीआई जाँच की माँग की थी। सवाल यह है कि अगर रिया निर्दोष हैं, तो फिर वह अब सीबीआई जाँच को अब गलत क्यों ठहराना चाहती हैं?

मुम्बई पुलिस का जवाब

इधर, मुम्बई पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय में सुशांत मौत मामले में अपना जवाब दाखिल कर दिया है। मुम्बई पुलिस ने अपने जवाब में कहा है कि सुशांत सिंह राजपूत मौत मामले में अब तक मुम्बई पुलिस ने 56 लोगों के बयान दर्ज किये हैं और हर तरह से मौत के सम्भावित कारणों और परिस्थितियों की जाँच कर रही है। जवाब में आगे कहा गया है कि अब तक इस मामले में मुम्बई पुलिस की तरफ से निष्पक्ष, उचित और पेशेवर तरीके से जाँच की गयी है और आगे भी की जाएगी। साथ ही उसने कोर्ट से माँग की है कि इस मामले में मौज़ूदा तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए एफआईआर को ज़ीरो एफआईआर के तौर पर बांद्रा पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। मुम्बई पुलिस ने यह भी कहा है कि सीबीआई को बिहार सरकार की सिफारिश पर सुशांत सिंह मामले में एफआईआरदर्ज नहीं करनी चाहिए थी।

21 बार बदला कम्पनी का पता

इधर, सुशांत के मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) भी सम्पत्ति मामलों की जाँच कर रहा है। जाँच में ई.डी. की एक रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सुशांत की एक कम्पनी का आई.पी. एड्रेस उनकी मौत से पहले एक साल में 18 बार बदला गया था, जबकि उनकी मौत के बाद इसे तीन बार बदला गया। यानी कुल मिलाकर करीब एक साल दो-ढाई महीने में कम्पनी का आई.पी. एड्रेस 21 बार बदला गया। इतना ही नहीं कम्पनी का डोमेन भी बदला गया था। इस तरह रिया चक्रवर्ती कई तरह से जाल में फँसती नज़र आ रही हैं। अब देखना यह है कि इस मामले की गुत्थी सुलझती है या नहीं? अगर सुशांत सिंह के परिजनों का  आरोप या संदेह सही बैठता है, तो उन्हें न्याय मिल पाता है या नहीं?

नाम अनेक, पर ईश्वर एक

दुनिया भर में सदियों से अनेक संतों ने इस बात की पुष्टि की है कि ईश्वर एक है। बड़े-बड़े विद्वानों ने भी इस बात को माना है कि ईश्वर एक ही है, भले ही उसके नाम असंख्यों क्यों न हों। दरअसल जिस अलौकिक शक्ति, जिस परम् सत्ता की इंसान ने सदियों से खोज की है और जो खोज आज तक पूरी नहीं हो सकी है; वह यह है कि आिखर इतनी बड़ी सृष्टि और पूरे ब्रह्माण्ड को कौन चला रहा है? और इसी प्रश्न के उत्तर के लिए इंसान को धर्म-ग्रन्थों यानी मज़हबी किताबों की ओर झाँकने की आवश्यकता पड़ती रही है, जिनमें एक स्वर में कहा गया है कि ईश्वर एक है।

अमूमन लोग भी यह बात मानते हैं कि ईश्वर एक ही है। बावजूद इसके आपस में मज़हब के नाम पर और उस एक ईश्वर के अनेक नामों के चक्कर में पडक़र आपस में ही मरने-मारने पर आमादा रहते हैं; वह भी चन्द सियासतदानों और चन्द मज़हब के ठेकेदारों के बहकावे में आकर। सबका अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाला हिसाब है; पर सच को मानते हुए भी उसे स्वीकार करने वाले लोग न के बराबर ही हैं। यही वजह है कि हर समय कहीं-न-कहीं मज़हब के नाम पर, ईश्वर के नाम पर लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं। आजकल के सोशल मीडिया पर तो यह मुद्दा और भी गरमाया रहता है। लोग न तो एक-दूसरे के मज़हब को बुरा-भला कहने में संकोच करते हैं और न ही एक-दूसरे से गाली-गलौज करने में उन्हें कोई शर्म महसूस होती है। तथाकथित धर्माचार्य भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करते। उन्हें अपने ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी से ही लगाव है। दिखावे की सन्तई, अपने-अपने मज़हब के हिसाब से पूजा-पाठ / इबादत उनके जीवन को अपने-अपने गढ़ों में सम्मान और ऐश-ओ-इशरत की ज़िन्दगी दिलाने के लिए पर्याप्त हैं। वे जान-बूझकर लोगों को आडम्बर के इस खोल से बाहर आने देना नहीं चाहते। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा करने से उनकी ऐश भरी ज़िन्दगी नरक समान हो जाएगी। लोग सच जानने के बाद उनके इशारे पर नहीं नाचेंगे। हमेशा देखा गया है कि जो लोग, खासतौर पर सन्त सच की बात करते हैं; एकता, भाईचारे, समानता, इंसानयित, मुहब्बत की बात करते हैं; उनके साथ अन्याय होता है। उन्हें प्रताडऩा सहनी पड़ती है और उनके खिलाफ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ निरंकुश सत्ताएँ हाथ धोकर पड़ जाती हैं।

इसलिए ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी की चाह रखने वाले सन्तों को समझना होगा कि अगर फूलों भरा बिस्तर और ऐश-ओ-आराम वाली ज़िन्दगी ही इतनी पसन्द थी, तो फिर सन्तई का चोला ओढ़ा ही क्यों? क्यों बने पण्डित, मुल्ला, पादरी आदि? यदि सन्तों की राह इतनी आसान होती, तो उनके कदमों में बड़े-बड़े शहंशाहों के सिर न झुके होते। दुनिया भर में सन्तों का इतना मान-सम्मान नहीं होता। बड़े-बड़े आततायियों की तलवारें सन्तों के सामने आते ही गिर न पड़ी होतीं। इतिहास ऐसे िकस्सों से भरा पड़ा है, जिनमें सन्तों के तेज़, उनकी अलौकिक शक्ति और उनकी दिव्यता के कारनामे आज के आधुनिक युग में भी लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। यह िकस्से-कारनामे केवल किताबों या किंवदंतियों में ही नहीं हैं, बल्कि हकीकत में इनके प्रमाण भी हैं। आज तक न जाने कितने वैज्ञानिक, कितने पुरातत्त्वविद्, कितने इतिहासकार इन प्रमाणों और आश्चर्यजनक कारनामों की जाँच-परख कर चुके हैं और इनमें छिपे रहस्यों पर से परदा उठाने की कोशिशों में लगे  हैं; पर रहस्यों पर से परदा आज तक नहीं उठा सके। इस जाँच-परख के बाद अनेक लोग तो खुद भी सन्त हो गये और ईश्वर की खोज में लग गये।

आज भले ही बहुत-से लोगों को पैसा कमाने का लालच सन्तई की तरफ ले आया हो, पर वास्तव में ऐसे लोग असली सन्त नहीं होते। वैसे तो सन्त बनने की पहली शर्त यही होती है कि सन्त को दुनियादारी से दूर रहना चाहिए, अगर यह सम्भव न हो और उसे समाज में रहना पड़े, तो भी उसे समाज से विलग जीवन बिताना चाहिए। अगर कोई सन्त ऐसा नहीं करता है, तो ऐसे व्यक्ति को सन्त कहना भी पाप है। ऐसे लोग मान-सम्मान के लायक भी नहीं होते। क्योंकि ये वही लोग होते हैं, जो अपनी देह पर काम को बोझ न डालने के चक्कर में सन्तई का चोला ओढ़ते हैं और लोगों को आपस में बाँटने का काम करते हैं, ताकि इनका धन्धा-पानी चलता रहे। पुण्य-भूमि भारत के भोले-भाले लोग इन्हें इसलिए सम्मान देते हैं, क्योंकि हमारी परम्परा में सन्तों को ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग को प्रशस्त करने वाला शुद्ध-आत्मिक शक्ति का वाहक माना गया है। कोई नहीं जानता कि मरने के बाद वह कहाँ जाता है? उसका क्या होगा? और उसकी आत्मा किस रूप में जन्म लेगी? न कोई यह जानता है कि जन्म लेने से पहले वह क्या था? और तो और, किसी को अपने शरीर की असंख्य गतिविधियों के बारे में भी नहीं पता होता, जो हर दिन, हर पल उसके अन्दर होती रहती हैं; तो फिर उस अनन्त के बारे में कैसे जान सकता है, जिसने ऐसा अनन्त ब्रह्माण्ड बनाया है, जिसमें इंसान की हैसियत एक तिनके बराबर भी नहीं है। न जाने कब यह मिट्टी से बना शरीर ढेर हो जाए? या कब इस नश्वर शरीर के जीते-जागते अपना और दुनियादारी का ज्ञान तक न रहे। इसलिए तो कहा गया है कि हमारे पास जो कुछ है, सब उसी ईश्वर का दिया हुआ है और अन्त में उसी में मिल जाना है।

सबको उसी एक परमात्मा / उसी एक अल्लाह ने पैदा किया है और एक ही तरह से पैदा किया है। फिर यह भेद कैसा? आपसी विवाद कैसा? यह मार-काट कैसी? दूसरों पर अत्याचार क्यों? भोग-विलास की लिप्सा क्यों? धन और ऐश-ओ-आराम की अनन्त इच्छा क्यों? ईश्वर को और उसकी परम् सत्ता को बाँटने की मूर्खता भरी चेष्टा क्यों? एक-दूसरे से नफरत क्यों? ईश्वर के नाम ही तो अनेक हैं, मगर वह है तो एक ही!