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सुरों के सरताज ने भी छोड़ी दुनिया

यह साल पूरी दुनिया के लिए किसी बड़ी त्रासदी से कम साबित नहीं हो रहा है। क्योंकि इस साल जहाँ कोरोना वायरस के कहर ने लाखों लोगों को असमय अपनों से छीन लिया है, वहीं एक के बाद एक कई बड़ी हस्तियों के दुनिया से जाने ने हम सबको हतप्रभ किया है। गत 17 अगस्त को सुरों के सरताज माने-जाने वाले रसराज पंडित जसराज का भी न्यू जर्सी, संयुक्त राज्य अमेरिका में निधन हो गया। वह 90 वर्ष के थे। उनके जाने की खबर ने सभी को झकझोर दिया। पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और दुनिया भर में अनेक सम्मानों से सम्मानित शास्त्रीय गायक पंडित जसराज आठ दशकों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में छाये रहे। वह मेवाती घराने से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने केवल 14-15 साल की उम्र से शास्त्रीय संगीत सीखा। इससे पहले उन्होंने अपने बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण से तबला वादन सीखा। उन्हें ठुमरी और खयाल गायन को नयी ऊँचाइयाँ प्रदान करने के लिए विशेष रूप से हमेशा याद रखा जाएगा। पंडित जसराज के निधन की खबर मिलने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर दु:ख जताया। उन्होंने लिखा- ‘पंडित जसराज जी के दुर्भाग्यपूर्ण निधन से भारतीय संस्कृति के आकाश में गहरी शून्यता पैदा हो गयी है। उन्होंने न केवल उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ दीं, बल्कि कई अन्य गायकों के लिए अनूठे परामर्शदाता के रूप में अपनी पहचान भी बनायी। उनके परिवार और दुनिया भर में उनके प्रशंसकों के प्रति संवेदना। ओ३म् शान्ति।’

28 जनवरी, 1930 को एक संगीतज्ञ परिवार में जन्मे पंडित जसराज के पिता पंडित मोतीराम मेवाती घराने के विशिष्ट संगीतज्ञ थे। इसलिए पंडित जसराज को भी संगीत की प्राथमिक शिक्षा पिता से ही मिल रही थी। लेकिन शायद ईश्वर को यह मंज़ूर नहीं था और जब जसराज महज़ तीन साल के थे, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गयी। पंडित मोतीराम का देहांत उसी दिन हुआ, जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखरी निज़ाम उस्मान अली खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था। इसके उनके बड़े बेटे पंडित प्रताप नारायण ने पीढिय़ों से चली आ रही घर की संगीत परम्परा को आगे बढ़ाया। जसराज ने भी बड़े भाई से ही तबला वादन सीखा, किन्तु गायकों जैसी ख्याति न मिलने पर बहुत खिन्न हुए और 14-15 साल की उम्र में तबला त्यागकर संकल्प लिया कि जब तक वह शास्त्रीय गायन में विशारद प्राप्त नहीं कर लेते, अपने बाल नहीं कटवाएँगे। दरअसल सन् 1945 में लाहौर के एक कार्यक्रम में उन्होंने कुमार गंधर्व के साथ तबले पर संगत की। अगले दिन कुमार गंधर्व ने उन्हें फटकारते हुए कहा- ‘जसराज! तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो। तुम्हें रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता।’ बस, इसके पश्चात् बालक जसराज ने शपथ ले ली और तबला छोड़ मेवाती घराने के दिग्गज महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से, फिर आगरा के स्वामी वल्लभदास से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली, जिसे विशारद तक हासिल किया।

दिग्गज शास्त्रीय गायक के रूप में ख्याति प्राप्त पंडित जसराज ने कई अनूठी उपलब्धियाँ हासिल कीं। इसी साल 8 जनवरी को अंटार्कटिका के दक्षिणी  ध्रुव (सी स्प्रिट नामक क्रूज) पर उन्होंने प्रस्तुति दी थी, जिसके बाद वह सातों महाद्वीपों में कार्यक्रम पेश करने वाले पहले भारतीय बन गये। उन्होंने पहली बार सन् 1966 में वी. शांताराम की एक फिल्म में भजन गाया था। इसके बाद 1975 को फिल्म ‘बीरबल माय ब्रदर’ के लिए गाना गाया। उसके बाद उन्होंने फिल्म ‘1920’ के लिए एक रोमांटिक गाना गाया। 2008 में फिल्म ‘अदा’ के एक गाने में अपनी आवाज़ दी। दर्ज़नों गानों की धुनें तैयार कीं। आपको शायद ही पता हो कि संगीत के इस पुरोधा की क्रिकेट में काफी रुचि थी। वह सन् 1986 से ही रेडियो के माध्यम से बड़े ध्यान से क्रिकेट कमेंट्री सुनते थे।

लोगों ने उनके गायन पर तो यहाँ तक कहा कि वह जब गाते हैं, तो ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। साँसें थम-सी जाती हैं। दिल्ली में शायद दो या तीन बार मैंने भी उनका गायन सुना है। वाकई समाँ बाँध देते थे। उनका सुर लगते ही श्रोता या दर्शक ही कहें, उनके गायन में ऐसे डूब जाते थे, जैसे मूर्तियाँ हों। यही पंडित जसराज की बड़ी उपलब्धि है, जो दुनिया भर के संगीत प्रेमियों के लिए हमेशा मंत्रमुग्ध करती रहेगी, उनकी याद दिलाती रहेगी। अन्त में-

‘कुछ लोग यूँ भी जाते हैं ज़माने से।

दिल भूल नहीं पाता है भुलाने से।।’

कांग्रेस में सोनिया ही सुप्रीम

एक फिल्मी गीत है – ‘मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ।’ कांग्रेस की कुछ ऐसी ही स्थिति है; या कहिए कि दुविधा में है। कांग्रेस में साफ तौर पर दो तरह की सोच बन गयी है। एक दक्षिण की तरफ देख रही है और दूसरी पश्चिम दिशा की तरफ। दिशाएँ विपरीत हैं और दोनों में कोई एक-दूसरे से समझौता करने को तैयार नहीं; जबकि पार्टी की समस्या का एक ही हल है- मध्य मार्ग। अर्थात् पार्टी के सभी नेता एक नयी टीम तैयार करें, जिनमें अनुभव और युवा जोश का मिश्रण हो।

सोनिया गाँधी कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर इसलिए अविवादित नेता बन सकीं, क्योंकि उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की नीति अपनायी। सोनिया गाँधी ने तो उन शरद पवार को भी माफ करके यूपीए में साझेदार बना लिया, जिन्होंने उनके खिलाफ बहुत ही कटु शब्द बोलते हुए कांग्रेस से विद्रोह किया था। कुछ और भी उदाहरण हैं;  जैसे कि तारिक अनवर, जो अब कांग्रेस में ही आ चुके हैं।

इसमें रत्ती भर भी शक नहीं कि राहुल गाँधी ही सोनिया गाँधी के बाद कांग्रेस में ऐसे नेता हैं, जो देशव्यापी प्रभाव और पहचान रखते हैं। कई सर्वे भी यही बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश के सबसे लोकप्रिय नेता वही हैं। सोनिया गाँधी की जगह निश्चित ही उन्हें अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। हालाँकि राहुल गाँधी को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके आने से किसी नेता में असुरक्षा की भावना न बने। उन्हें तब तक कांग्रेस को सोनिया गाँधी की सबको साथ लेकर चलने वाली कांग्रेस बनाकर रखना होगा, जब तक कि वह अपने बूते इंदिरा गाँधी के समय वाली ताकतवर कांग्रेस नहीं बना लेते।

पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गाँधी द्वारा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सोनिया गाँधी को पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन नये अध्यक्ष के लिए कांग्रेस में कवायद शुरू हो गयी थी। पार्टी की 24 अगस्त की कार्यकारिणी (सीडब्ल्यूसी) की बैठक से पहले काफी ऊहापोह की स्थिति बनी। राहुल गाँधी के अपने नेताओं के भाजपा हित वाले आरोप पर वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल भड़क गये थे, लेकिन बाद में शान्त हो गये। अब बैठक में तय हुआ है कि कोरोना का प्रभाव कम होते ही अगले छ: महीने के भीतर पार्टी एआईसीसी का अधिवेशन करेगी। पूरी सम्भावना है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होगा। इसमें कोई गैर-गाँधी भी चुनाव लड़ सकेगा। जल्दी ही एक समिति बनेगी, जो चुनाव से पहले की प्रक्रिया पर काम करेगी। वहीं, सीडब्ल्यूसी की बैठक से जो संकेत मिले, वो यही हैं कि राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने की सूरत में वरिष्ठ नेता पार्टी का भविष्य खतरे में देखते हैं।

तहलका की भरोसेमंद जानकारी के मुताबिक, देश के एक बहुत वरिष्ठ नेता, जो अब  कांग्रेस में नहीं हैं; अपने लिए बड़ा पद मिलने की सूरत में अपनी पूरी पार्टी समेत कांग्रेस में लौटने के लिए तैयार थे। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की उन्हें पार्टी में वापस लाने की गुप्त मुहिम चली थी। सूत्रों के मुताबिक, 23 वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी का ताल्लुक इसी मुहिम से था। पार्टी में राहुल को नहीं चाहने वाले इन नेताओं का मानना था कि ये वरिष्ठ नेता कद के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी मुकाबला करने में सक्षम हैं।

सीडब्ल्यूसी की बैठक में पास प्रस्ताव में इस चिट्ठी के खिलाफ सख्त शब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया गया था, क्योंकि सोनिया गाँधी तक भी यह खबर पहुँच गयी थी। जान-बूझकर चिट्ठी को भाजपा से जोड़कर बताया गया। सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बैठक में राहुल गाँधी को पार्टी का ज़िम्मा सँभालने को कहा, जो एक बड़ी बात है। क्योंकि पटेल जो कहते हैं, उसे सोनिया गाँधी की बात माना जाता है। इससे यह साफ लगता है कि एआईसीसी के अधिवेशन में राहुल गाँधी को अध्यक्ष चुना जाएगा।

हालाँकि इस दौरान कांग्रेस की गतिविधियाँ दिलचस्प रहेंगी। साथ ही यह भी देखना दिलचस्प होगा कि वरिष्ठ नेता, जिनमें गुलाम नबी आज़ाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, शशि थरूर आदि शामिल हैं; अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर क्या योजना बनाते हैं? ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, आने वाले समय में पत्र लिखने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती है।

सोनिया गाँधी 23 नेताओं के पत्र और इसकी भाषा से सख्त नाराज़ हैं। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि कांग्रेस का एक बहुत बड़ा तबका गाँधी परिवार से बाहर जाने के खिलाफ ही नहीं है, उसे लगता है कि गाँधी परिवार के टॉप पर न रहने से कांग्रेस खत्म हो जाएगी। उनका कहना है कि एनडीए सरकार (खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) के निशाने पर गाँधी परिवार रहा है; उन्हें (कांग्रेस को) विभिन्न तरीकों से परेशान किया गया है। राजस्थान में जिस तरह राहुल गाँधी ने प्रियंका गाँधी से मिलकर सचिन पायलट वाला मसला सुलझाया। और अब पत्र बम्ब से उभरा गम्भीर विवाद सीडब्ल्यूसी की बैठक में ठण्डा किया गया। फिलहाल जिस तरह सोनिया गाँधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाये रखा गया है, उससे यही संकेत मिलता है कि गाँधी परिवार की पार्टी पर पूरी पकड़ है और विरोध के स्वर उठाने वाले अकेले पड़ सकते हैं।

पानी पर अधिकार की जंग: एसवाईएल को लेकर पंजाब और हरियाणा आमने-सामने

नदी के पानी के बँटवारे को लेकर हरियाणा और पंजाब की सरकारें अब फिर से आमने-सामने हैं। मामला सतलुज-यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) से सम्बन्धित है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने केंद्र को मध्यस्थता करके दोनों राज्यों के जल बँटवारे का आपसी सहमति के बाद निपटारा करने का आदेश दिया है। इसके लिए दिल्ली में केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की निगरानी में पहली बैठक हो चुकी है। इसमें हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो पहुँचे, पर पंजाब के मुख्यमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये शिरकत की।

हालाँकि अभी बातचीत कई दौर में होनी है। इसके बाद नतीजा क्या निकलेगा सबसे बड़ा मुद्दा यही है। समझौते की इस कोशिश में जो निष्कर्ष निकलेगा। इसकी रिपोर्ट न्यायालय में पेश की जानी है। यह पहला मौका नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा करने का स्पष्ट आदेश दिया है। इससे पहले कई बार न्यायालय ने सतलुज यमुना नहर विवाद निपटाने को कहा है। हर बार फैसला हरियाणा के पक्ष में आया है; लेकिन अभी तक स्थिति जस-की-तस ही है। बावजूद इसके राज्य को उसके हिस्से के पानी मिलने का रास्ता साफ नहीं हुआ है। पंजाब नहीं चाहता कि एसवाईएल बने और उससे हरियाणा को पानी मिले।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से हरियाणा के किसानों में जहाँ पानी मिलने की उम्मीद जगी है, वहीं पंजाब के किसान पानी की कमी की आशंका से हताश हैं। पंजाब में किसानों से जुड़ी यूनियनें सक्रिय हो गयी हैं। वहीं मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बता चुके हैं। स्पष्ट है कि पंजाब सरकार नहीं चाहेगी कि सतलुज यमुना लिंक नहर का अधूरा काम पूरा हो और हरियाणा को उससे पानी मिले। हरियाणा ने नहर बनाने का काम तय समय में पूरा कर लिया, जबकि पंजाब ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद इसे पूरा नहीं किया है। इसके विपरीत हरियाणा में चाहे कोई भी सरकार रही हो, यह मुद्दा उसके लिए हमेशा अहम रहा है। नहर से हरियाणा के खेतों में पानी पहुँचाना चुनावी वादा भी रहा है। हरियाणा में लोगों को भरोसा नहीं हुआ कि कभी यह नहर बन पायेगी और उनके हिस्से का पानी उन्हें मिल सकेगा।

पंजाब में किसी भी पार्टी की सरकार क्यों न हो, वह किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती; चाहे देश के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ही क्यों न हो। पंजाब सतलुज के पानी पर अपना ही अधिकार समझता रहा है। ऐसे में दूसरे राज्य को पानी न देने को वह अपना हक समझता रहा है। पंजाब नदी के पानी बँटवारे पर ट्रिब्यूनल और सर्वोच्च न्यायालय में पंजाब सरकार कभी सतलुज, रावी या व्यास के पानी पर अपने एकाधिकार को साबित नहीं कर सकी; जबकि हरियाणा अपने हिस्से के पानी के अधिकार की बात से न्यायालय को संतुष्ट करा चुका है।

वैसे तो नदी के पानी विवाद का मुद्दा सन् 1966 से ही चला आ रहा है। इसी वर्ष पंजाब से अलग होकर हरियाणा वजूद में आया था। उसके बाद से ही हरियाणा सतलुज में अपने हिस्से की माँग करता रहा है। करीब एक दशक तक हरियाणा में पानी का यह मुद्दा रहा; लेकिन कोई हल नहीं निकल सका। सन् 1976 में केंद्र की पहल पर सतलुज-यमुना के 7.2 मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) पर हरियाणा और पंजाब का बराबरी का हिस्सा 3.5 एमएएफ, जबकि दिल्ली को 0.2 एमएएफ पानी मिलने की बात तय हुई। इसके बाद सतलुज-यमुना लिंक नहर की योजना तैयार हुई।

 केंद्र की पहल पर योजना पर तेज़ी से अमल हुआ। 8 अप्रैल, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने पटियाला ज़िले के कपूरी गाँव में भूमि पूजन करके इसका शुभारम्भ किया। योजना के तहत एसवाईएल की कुल लम्बाई 214 किलोमीटर रखी गयी। नहर का ज़्यादातर हिस्सा 122 किलोमीटर पंजाब में, जबकि 92 किलोमीटर हरियाणा में है। पूरी नहर का 85 से 90 फीसदी काम पूरा हो चुका है। बाकी का काम भी पूरा हो सकता है; लेकिन पंजाब इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं है।

पंजाब में शुरू से ही योजना का घोर विरोध हो रहा है। राजनीतिक समीकरणों के चलते किसी तरह योजना पर काम तो शुरू हो गया, लेकिन पूरा नहीं हो सका। नदी के पानी के बँटवारे का मसला करीब चार दशक से ऐसे ही अटका हुआ है। पंजाब में तो बाकायदा विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर नदी के पानी बँटवारे के पूर्व में किये समझौते ही रद्द किये हैं; लेकिन न्यायालय ने उन्हें गलत ठहराया है। पानी पर हरियाणा के अधिकार की बात को न्यायालय ने सही माना है। पंजाब कभी पानी पर एकाधिकार की बात कहता रहा, तो कभी राज्य में भूजल स्तर गिरने का हवाला देता रहा। पंजाब में जलसंकट का हवाला देकर किसी राज्य को पानी न देने की असमर्थता जतायी। भूमिगत पानी का स्तर तो हरियाणा में भी काफी नीचे है और राज्य के कुछ हिस्सों में भयंकर जलसंकट है, जबकि पंजाब में कम-से-कम ऐसी स्थिति तो नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर हरियाणा के गृहमंत्री अनिल विज कहते हैं कि सभी पक्षों की लम्बी सुनवाई के बाद ही फैसला आया है; अब इसमें हीला-हवाली नहीं चाहिए। नहर का बकाया काम पूरा होना चाहिए; ताकि हरियाणा को उसके हिस्से का पानी मिले। वैसे इस मामले में हरियाणा का पक्ष मज़बूत है; न्यायालय का फैसला इसे साबित भी करता है। केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह के मुताबिक, पहले दौर की बैठक को सफल कहा जा सकता है।

हरियाणा की तरफ से मुख्यमंत्री मनोहर लाल अपना पक्ष स्पष्ट रख चुके हैं; जबकि पंजाब के मुख्यमंत्री ने राज्य का पक्ष रखने के अलावा भविष्य में होने वाले खतरे की बात भी कही है। जल्द ही दूसरे दौर की बात होगी, जिसमें कैप्टन भाग लेंगे और उन्हें सहमति बनने की काफी उम्मीद है। चार दशक से पुराने इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद पंजाब के राजनीतिक हलकों में काफी सरगर्मी है। कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं चाहती कि लिंक नहर का निर्माण पूरा हो और हरियाणा को पानी मिले। हरियाणा में इसके विपरीत हर राजनीतिक पार्टी चाहती है कि नहर पूरी हो और राज्य को पानी मिले। इसे लेकर किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है। एक तरह से यह मुद्दा वोट की राजनीति से भी जुड़ा हुआ है। पंजाब में ये दल किसानों को नाराज़ नहीं कर सकते; क्योंकि राज्य हित के अलावा यह उनकी मजबूरी है। जबकि हरियाणा में ये दल राज्य हित के अलावा किसान वर्ग का समर्थन चाहते हैं। यह मुद्दा राजनीतिक नहीं होना चाहिए। क्योंकि यहाँ वोट बैंक, किसानों की नाराज़गी या उनकी सहानुभू्ति नहीं, बल्कि अधिकार की है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को किस तरह सहमति से लागू कराया जाएगा? यह यक्ष सवाल जैसा ही है। योजना पर काम तो शुरू हो गया; लेकिन पंजाब में इसका विरोध बराबर चलता रहा है। सन् 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और तबके अकाली दल अध्यक्ष संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच विभिन्न मुद्दों पर समझौता हुआ था। इसमें नदी के पानी बँटवारे का मुद्दा भी था। समझौते के एक माह के भीतर लोंगोवाल की उग्रवादियों ने हत्या कर दी थी।

पंजाब में सन् 1990 में आतंकवादियों ने योजना से जुड़े चीफ इंजीनियर एम.एल. सेखरी और अधीक्षक अभियंता अवतार सिंह औलख की हत्या कर दी थी। इसके अलावा योजना से जुड़े 30 से ज़्यादा मज़दूरों को मौत की नींद सुला दिया था। उस दौर में ऐसे सामूहिक नरसंहार होते रहे, लेकिन इन वारदात के बाद नहर निर्माण का काम बाधित हो गया। आतंकवादियों के निशाने पर एसवाईएल से जुड़े लोग रहे। लम्बे समय तक काम रुका रहा। निर्बाध गति से कभी भी योजना पर काम नहीं हो सका, वरना यह अभी तक बनकर तैयार हो जाती। पंजाब में सरकार चाहे अकाली दल-भाजपा की हो या फिर कांग्रेस की, किसी भी सरकार ने नहर बनने पर अपनी इच्छा नहीं जतायी। नहर का काफी हिस्सा जर्जर हालत में है, तो कुछ स्थानों पर वह टूट चुकी है। पंजाब में विरोध स्वरूप नहर को पाटने का काम भी हो चुका है। जिन किसानों की भूमि नहर निर्माण के लिए अधिगृहीत हुई थी, उन्हें फिर से भूमि देने का भरोसा भी पूर्व में सरकार दे चुकी है। इसके लिए बाकायदा प्रस्ताव पास हो चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि पंजाब में इसका कितना विरोध है। कृषि प्रधान राज्य होने के नाते यहाँ कोई भी सरकार किसानों के हितों के विपरीत नहीं जा सकती; लेकिन योजना तो तत्कालीन राज्य सरकार की सहमति से ही बनी। राजीव गाँधी और संत हरचंद सिंह लोंगोवाल समझौते में भी तो जल वितरण पर सहमति जतायी गयी थी; लेकिन बाद की सरकारों ने इस समझौते को भी अमान्य करार दे दिया।

पंजाब में फरवरी, 2022 में विधानसभा चुनाव होना है। इसके लिए सभी दल अभी से सक्रिय होने लगे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तो शुरू से ही पंजाब का पानी हरियाणा को देने के पक्ष में नहीं रहे हैं। ऐसे में एसवाईएल का मुद्दा उनके लिए काफी अहम है। वह कहते हैं कि न्यायालय के फैसले का वह पूरी तरह से सम्मान करते हैं, लेकिन प्रदेश के किसानों की अनदेखी कैसे की जा सकती है? राज्य में पहले ही पानी की कमी है। ऐसे में हरियाणा को पानी दिया जाता है, तो यहाँ क्या हाल होगा? इसके अलावा नहर निर्माण रोकने को यहाँ का किसान कुछ भी करने को तैयार है। किसान यूनियनें पहले भी धरना-प्रदर्शन करके इस पर अपना रुख जता चुकी हैं।

पंजाब के लिए एसवाईएल जहाँ जीवन-मरण है, वहीं हरियाणा के किसानों के लिए यह वरदान से कम नहीं है। इससे राज्य के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, मेवात, गुरुग्राम, फरीदाबाद और झज्जर को फायदा होगा।

करीब चार दशक से लम्बित एसवाईएल का मसला जल्द सुलझने के आसार कम लगते हैं; क्योंकि पंजाब का रुख बिल्कुल ही नकारात्मक लग रहा है। ऐसे में अगर इस मुद्दे पर सहमति नहीं बनती है, तो सर्वोच्च न्यायालय कड़ा रुख अपना सकता है। क्योंकि एक तरह से यह उसकी अवमानना ही होगी। तमिलनाडू और कर्नाटक में कावेरी जल विवाद का मुद्दा भी कमोबेश ऐसा ही था। आिखरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कर्नाटक को तमिलनाडू के हिस्से का पानी छोडऩा पड़ा था।

कैप्टन की मुसीबत

हरियाणा के खेतों में एसवाईएल के ज़रिए पानी पहुँचने की उम्मीद वैसे भी जल्दी पूरी नहीं होने वाली। इसमें कई तरह की बाधाएँ आने वाली हैं। पहली, पंजाब न्यायालय के आदेश के बाद भी इस पर सहमत नहीं होगा। अगर किसी तरह सहमति बनी, तो राज्य में इसका घोर विरोध होगा। दूसरी, पंजाब के हिस्से में बनी नहर लगभग क्षतिग्रस्त हो चुकी है। पटियाला से रोपड़ के बीच कई किलोमीटर नहर समतल की जा चुकी है। सहमति के बाद नहर को फिर से बनाया जाएगा; लेकिन यह इतना आसान नहीं होगा। पहले की तरह इसमें फिर बाधाएँ ही आएँगी, क्योंकि सरकार की मंशा ही नहीं है कि यह बने।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हम पूरी तरह से सम्मान करते हैं। लेकिन एसवाईएल के मुद्दे पर नतीजे भयावह हो सकते हैं। राज्य की कानून व्यवस्था को खतरा पैदा हो जाएगा। इससे हरियाणा के अलावा पड़ोसी राज्य राजस्थान भी अछूता नहीं रहेगा। हमने अपनी भावनाएँ केंद्र सरकार तक पहुँचा दी है। हम बातचीत भी खुले मन से करने को तैयार हैं; लेकिन सहमति किस तरह बनेगी? इस बारे में अभी कुछ कहना सम्भव नहीं है।

कैप्टन अमरिंदर सिंह

मुख्यमंत्री, पंजाब

हरियाणा अपने हिस्से का पानी चाहता है। इसके लिए वह चार दशक से जूझ रहा है। नदी जल बँटवारे में उसका पूरा हक है और वह उसे मिलना ही चाहिए। इसमें राजनीतिक मजबूरी का सवाल कहाँ आता है। सर्वोच्च न्यायलय ने हरियाणा के पक्ष में फैसला दिया है। पंजाब को उसका पूरा सम्मान करना चाहिए और एसवाईएल पर सहमति बनाने के लिए खुले दिल से आगे बढऩा चाहिए। हरियाणा को एसवाइएल के पानी की बहुत ज़रूरत है जिसके लिए राज्य बरसों से संघर्ष कर रहा है।

मनोहर लाल खट्टर, मुख्यमंत्री, हरियाणा

घोटाले की रजिस्ट्री

हरियाणा में ज़मीन, प्लॉट और मकानों की रजिस्ट्री के घोटाले से स्पष्ट हुआ कि राज्य में अनियमितताएँ और भ्रष्टाचार चरम पर है। भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस के दावे वाली सरकार की कथनी और करनी में भारी अन्तर है। लॉकडाउन में शराब घोटाले से किरकिरी करा चुकी हरियाणा सरकार के सामने अब रजिस्ट्री घपला आया है। सरकार इसे घोटाला नहीं, कुछ सरकारी अफसरों की अनियमितताओं का मामला कह रही है; जबकि यह करोड़ों रुपये की हेराफेरी का मामला है। फिलहाल एक तहसीलदार व पाँच नायब तहसीलदारों को निलंबित करके उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज करने के बाद सरकार इसकी जाँच अपने स्तर पर करा रही है। जबकि विपक्ष इसकी जाँच सीबीआई या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से कराने की माँग कर रहा है।

लोगों की माँग पर लॉकडाउन के दौरान सम्पत्तियों की रजिस्ट्री का काम सरकार ने शुरू किया; लेकिन संशोधन की आड़ में अफसरों ने इसका गलत इस्तेमाल करके गुडग़ाँव (गुरुग्राम), फरीदाबाद, सोनीपत और झज्जर में अनापत्ति प्रमाण-पत्र के बिना ही रजिस्ट्रियाँकरके करोड़ों के वारे-न्यारे कर डाले। सवाल यह कि राजधानी क्षेत्र में इतनी बड़ी गड़बड़ी क्या तहसीलदार या नायब तहसीलदार स्तर के अधिकारी अपने दम पर कर सकते हैं? पूर्व मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा राज्य सरकार को घोटालेबाज़ों सरकार की कहते हैं। उनका आरोप अपनी जगह सही है; लेकिन वह खुद भी कमोबेश ऐसे ही आरोपों में घिरे हैं और मामला अदालत में लम्बित है।

यह घोटाला सामने आने से पहले भी सरकार के पास रजिस्ट्री में गड़बड़ी की शिकायतें आ रही थीं; लेकिन इस पर कार्रवाई नहीं की गयी। रजिस्ट्री घोटाले की तरह ही लॉकडाउन में सरकारी शराब गोदामों से शराब चोरी का मामला सामने आया। दोनों ही विभागों का ज़िम्मा जननायक जनता पार्टी (जजपा) नेता और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के पास है। उन पर उँगलियाँ उठ रही हैं, पर वह जाँच समिति गठित करने, आरोपियों पर दोष साबित होने पर कड़ी कार्रवाई करने और भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देने की बात कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं।

लॉकडाउन में राज्य के 32 शहरों में हज़ारों रजिस्ट्रियाँ हुईं। इसमें कितने मामलों में गड़बडिय़ाँ हुई हैं? इसका खुलासा तो जाँच के बाद ही होगा। फिलहाल सरकार ने ज़िला उपायुक्तों को सन् 2017-2019 में हुई सम्पत्तियों की रजिस्ट्रियों की भी जाँच करके इसकी रिपोर्ट जल्द पेश का आदेश भी दिया है। यह रजिस्ट्री घोटाला हरियाणा डवलपमेंट ऐंड रेगुलेशन ऑफ अर्बन एरिया एक्ट में संशोधन की वजह से खुला। इसकी आड़ में गुरुग्राम, सोहना, बादशाहपुर, मानेसर और वजीराबाद में तहसीलदारों और नायब तहसीलदारों ने गड़बड़ी को अंजाम दिया। ऐसे प्लॉटों की रजिस्ट्री भी कर दी गयी, जो अनधिकृत कॉलोनियों में थे। राजस्व विभाग के पास सम्पत्तियों का पूरा ब्यौरा डिजिटल नहीं है। फाइलों पर होने वाले काम में पारदर्शिता नहीं रहती और फिर लॉकडाउन में शीर्ष अधिकारियों की निगरानी भी कहाँ थी। इसी का गलत इस्तेमाल हुआ।

कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इस मामले को गम्भीर बताते हुए कहा है कि अधिकारियों की शीर्ष अधिकारी जाँच करेंगे, तो रिपोर्ट में क्या आयेगा? मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस की बात अक्सर कहते हैं। अगर वह वाकई रजिस्ट्री मामले में गम्भीर हैं, तो जाँच उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों या फिर किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराएँ। ऐसी ही जाँच शराब घोटाले में हुई, पर क्या निष्कर्ष निकला?

घोटाले के बाद सरकार अब पूरे राजस्व रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने की बात कह रही है। यह काम तो पहले भी किया जा सकता था। सम्पत्तियों की रजिस्ट्री आदि से सरकार को बड़ा राजस्व मिलता है। सब जानते हैं कि ऐसे महत्त्वपूर्ण विभागों में भ्रष्टाचार ज़्यादा होते हैं, बावजूद इसके काफी सम्पत्तियाँ डिजिटल नहीं, बल्कि फाइलों में ही हैं।

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने टाउन और कंट्री प्लानिंग और अर्बन लोकल बॉडीज को जल्द रिपोर्ट देने को कहा है। वह कहते हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार पर गम्भीर है। मामला प्रकाश में आते ही तुरन्त कार्रवाई शुरू कर दी गयी। अभी कुछ अधिकारियों पर ही प्रथम दृष्टया आरोप साबित होने पर कार्रवाई की गयी है। उन्होंने कहा कि उन पटवारियों की भी जाँच होगी, जिन्होंने कानूनी प्रावधानों की आड़ में कृषि भूमि के उपयोग को बदला है। सरकार मामले के प्रति कितनी गम्भीर है, इसका अंदाज़ा इसी से लगता है कि हम तीन साल के दौरान हुई रजिस्ट्रियों की जाँच करा रहे हैं। जहाँ-जहाँ अनियमितताएँ मिलेंगी, अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई होगी। विपक्ष के आरोपों को वह राजनीति से प्रेरित बताते हैं।

परेशानी यह है कि जिस तरह से कृषि भूमि पर छोटे प्लॉटों में काटकर उनकी रजिस्ट्री की गयी है, उसका सबसे बड़ा नुकसान खरीदारों को होने वाला है। ऐसे कामों में बड़े उपनिवेशवादी संलिप्त होते हैं, जो किसी तरह से कृषि भूमि को गैर-कृषि भूमि में बदलवाकर छोटे प्लॉट काटकर लोगों को ऊँचे दाम पर बेच देते हैं। बाद में प्लॉट मालिकों को नक्शे पास कराने लेकर कई तरह की दिक्कतें आती हैं। फिर सरकार ऐसे मकानों को अनधिकृत मानकर कार्रवाई करती है; जिसमें लोगों की सारी जमा पूँजी चली जाती है।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा ने मेवात क्षेत्र में जाकर सरकार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। उनका कहना है कि कांग्रेस सरकार पर घोटाले के आरोप लगाने वाली भाजपा-जजपा सरकार को अपने गिरेबान में भी झाँकना चाहिए। राज्य में कितने घोटाले हो गये, पर मुख्यमंत्री अब भी भ्रष्टाचार से मुक्त सरकार होने का दम्भ भर रहे हैं। किसी भी घोटाले में कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। छोटे अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई करके सरकार बेदाग होने का दावा करती है। लेकिन प्रदेश के लोग सच्चाई अच्छी तरह जानते हैं। कांग्रेस अब प्रदेश स्तर पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी।

इंडियन नेशनल लोकदल के विधायक अभय चौटाला कहते हैं कि भाजपा-जजपा लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही है। मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी की चिन्ता है। जब कोई घोटाला सामने आता है, तो जाँच समिति गठित करके कार्रवाई की बात ही कहते हैं। आिखर इतने घोटाले हो क्यों रहे हैं? मतलब साफ है कि सरकार हर मोर्चे पर नाकाम साबित हो रही है। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन में दो घोटाले हुए और दोनों दुष्यंत के विभाग में हुए। रजिस्ट्री घोटाले की किसी स्वतंत्र एजेंसी से जाँच करायी जाए, तो सरकार में बैठे कई लोग बेनकाब हो जाएँगे। मगर सरकार अपने ही स्तर पर जाँच कराकर कुछ छिटपुट लोगों पर कार्रवाई करके पल्ला झाड़ लेना चाहती है। इधर, मुख्यमंत्री मनोहर लाल, विधानसभा अध्यक्ष ज्ञानचंद गुप्ता, इंद्री (करनाल) के विधायक रामकुमार, अंबाला शहर से विधायक असीम गोयल और रतिया के लक्ष्मण नापा कोरोना संक्रमित पाये गये हैं। विधायक सुभाष सुधा और महिपाल ढांढा, सांसद वृजेंद्र सिंह और संसाद नायब सिंह सैनी संक्रमण मुक्त हो गये हैं। स्वास्थ्य विभाग ने 26 और 27 अगस्त को दो दिवसीय विधानसभा सत्र से पहले सभी विधायकों और अन्य स्टाफ समेत कुल 361 लोगों की जाँच की थी। लेकिन कई लोगों के संक्रमित पाये जाने पर एक दिवसीय सत्र ही बुलाया गया।

इन पर हुई कार्रवाई

रजिस्ट्री में हुई अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोप में सरकार ने सोहना के तहसीलदार बंसीलाल और नायब तहसीलदार दलबीर दुग्गल को तुरन्त प्रभाव से निलंबित किया है। इनके अलावा बादशाहपुर के नायब तहसीलदार हरिकृष्ण, वजीराबाद के नायब तहसीलदार जयप्रकाश, गुरुग्राम के नायब तहसीलदार देशराज कंबोज और मानेसर के नायब तहसीलदार जगदीश पर भी निलंबन की कार्रवाई की गयी है। इनके खिलाफ हरियाणा सिविल सर्विस रूल्स के तहत जार्चशीट दायर की गयी है। इनके अलावा कादीपुर के सेवानिवृत्त नायब तहसीलदार ओमप्रकाश भी मामले में आरोपी हैं।

जब-जब गड़बडिय़ाँ सामने आयीं, तब-तब कार्रवाई करके सरकार ने अपना इरादा जताया है। मामला प्रकाश में आने के बाद उनकी सरकार न केवल जाँच कराती है, बल्कि रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई भी करती है। पूर्व की सरकारों में मामले रफा-दफा ही किये जाते रहे हैं। जो नेता आज घोटालों की बात करके सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी असली छटपटाहट सत्ता में आने की है। लोगों ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया है। हताशा में राजनीति से प्रेरित होकर सरकार की छवि को खराब करना चाहते हैं।’

मनोहर लाल खट्टर

मुख्यमंत्री, हरियाणा

भाजपा-जजपा सरकार हर मोर्चे पर नाकाम है। आज हरियाणा भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार-युक्त है। राज्य में चावल खरीद, शराब, अवैध खनन, भर्ती, पेपर लीक, स्कॉलरशिप और बिजली मीटर खरीद जैसे घोटाले हुए हैं। प्रदेश में पारदर्शिता नहीं है। सरकार का ब्यूरोक्रेसी पर नियंत्रण नहीं रह गया है। जब भी कोई मामला आता है, जाँच बैठा दी जाती है और फिर हरियाणा को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने की बयानबाज़ी शुरू हो जाती है।’

भूपेंद्रसिंह हुड्डा

पूर्व मुख्यमंत्री एवं विपक्ष के नेता

देश भर में भर्ती के लिए अब एक एजेंसी

देश में अब विभिन्न सरकारी नौकरियों के लिए एक ही एजेंसी और एक ही परीक्षा होगी। इसके लिए 19 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी (एनआरए) के गठन को मंज़ूरी दे दी गयी। कागज़ों पर ऐसे प्रस्ताव तो बहुत अच्छे होते हैं साथ ही आदर्शवादी भी लगते हैं; लेकिन क्या देश में पर्याप्त नौकरियों के अवसर हैं? क्या इससे बेरोज़गारों को उनकी योग्यता के मुताबिक अवसर की भरपाई हो सकेगी? ऐसे कई बड़े सवाल हैं।

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, हर साल रेलवे, बैंक और एसएससी के तहत केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए 2.5 से 3 करोड़ तक आवेदन आते हैं। हर साल केंद्र में करीब 1.25 लाख लोगों की भर्ती की जाती है।

25 साल से कम उम्र के युवाओं की बेरोज़गारी दर 32.5 फीसदी तक पहुँच चुकी है। केंद्र और राज्य सरकारों के लिए नौकरियों के मौके उत्पन्न करना एक चुनौती है। मध्य प्रदेश जैसे राज्य ने घोषणा कर दी है कि वहाँ पर नौकरियों में स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्वीट किया-अब मध्य प्रदेश के संसाधन में यहाँ के लोगों का पहला अधिकार होगा। सभी सरकारी नौकरियाँ  केवल मध्य प्रदेश के बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। हमारा उद्देश्य राज्य के विकास में स्थानीय प्रतिभाओं को शामिल करना है।

उधर, हरियाणा के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने घोषणा की है कि सरकार स्थानीय युवाओं के लिए निजी क्षेत्र में नौकरियों को आरक्षित करने का प्रयास करेगी। अब चूँकि निजी क्षेत्र में महामारी के कारण मंदी का दबाव है, इसलिए चिकित्सीय संकट से उबरने के बाद सरकारी के साथ निजी क्षेत्र में नौकरियों के लिए दबाव बढ़ जाएगा। तेज़ी से बढ़ती माँग के साथ रोज़गार उपलब्ध नहीं होने से बड़े विकट हालात बनते जा रहे हैं।

बहु-प्रचारित राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी (एनआरए) की नियुक्ति के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की स्वीकृति के साथ भर्ती प्रक्रिया को कारगर बनाने और कई चरणों में होने वाली परीक्षाओं पर कहीं ज़्यादा सुधार की ज़रूरत है। हम सभी इससे वािकफ हैं कि कई परीक्षणों के माध्यम से नौकरी हासिल करने में बहुत लंबा समय बर्बाद होता है। इससे उम्मीदवारों का समय जाया होने के साथ ही संसाधन का नुकसान भी होता है।

एनआरए उम्मीदवारों के समय और संसाधन दोनों को बचाएगा। एनआरए के परिणामस्वरूप प्रत्येक ज़िले में परीक्षा केंद्र की सुविधा होगी साथ ही बार-बार भरे जाने वाले फॉर्म शुल्क का बोझ भी कम होगा। सबकी सुविधाओं के हिसाब से एक जैसा पाठ्यक्रम होगा, जो शहरी और ग्रामीण युवाओं के बीच के भेदभाव को खत्म कर देगा। वर्तमान में सरकारी नौकरियों की आस वाले उम्मीदवारों को विभिन्न पदों के लिए कई भर्ती एजेंसियों द्वारा आयोजित अलग-अलग परीक्षाओं के लिए फॉर्म भरने के साथ ही बार-बार परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं। उम्मीदवारों को कई भर्ती के लिए फीस का भी भुगतान करना पड़ता है।

इतना ही नहीं, एजेंसियों और विभिन्न

 परीक्षाओं में उपस्थित होने के लिए लंबा सफर भी तय करना पड़ता है। सरकार की ओर से कहा गया है कि हर साल लगभग 1.25 लाख सरकारी नौकरियों का विज्ञापन किया जाता है, जिसके लिए 2.5 करोड़ से ज़्यादा उम्मीदवार विभिन्न

परीक्षाओं में उपस्थित होते हैं। एनआरए अब रेलवे, कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी), बैंकों के समूह-बी और समूह सी (गैर-तकनीकी) पदों के लिए समान पात्रता परीक्षा (सीईटी) कराएगी। एनआरए सरकारी और गैर-राजपत्रित पदों पर भर्ती के लिए प्रस्तावित सीईटी का मकसद हर साल वज्ञापित सरकारी नौकरियों में चयन के लिए विभिन्न भर्ती एजेंसियों द्वारा आयोजित कई परीक्षाओं को एक ही बार में ऑनलाइन आयोजित किये जाने के रूप में बदलना है। इसमें सारी व्यवस्थाएँ डिजिटल मोड में होंगी।

मुख्य विशेषताएँ

कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट साल में दो बार आयोजित किया जाएगा।

विभिन्न स्तरों पर रिक्त पदों की भर्ती के लिए स्नातक स्तर, 12वीं पास और 10वीं पास वालों के लिए अलग-अलग सीईटी होंगे।

सीईटी 12 प्रमुख भारतीय भाषाओं में आयोजित किया जाएगा। केंद्रीय में भर्ती के लिए परीक्षा के रूप में यह एक बड़ा बदलाव है।

अभी तक केंद्र सरकार की नौकरियों की भर्ती सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी में होती थी।

सीईटी के साथ शुरुआत में तीन एजेंसियाँ  कर्मचारी चयन आयोग, रेलवे भर्ती बोर्ड और बैंकिंग कार्मिक चयन संस्थान अभ्यर्थी चुन सकेंगी। बाद में इसे चरणबद्ध तरीके से विस्तार दिया जाएगा।

सीईटी वर्तमान में प्रचलित शहरी पूर्वाग्रह को हटाने के लिए देशभर में 1,000 केंद्रों में आयोजित किया जाएगा।

देश के हर ज़िले में एक परीक्षा केंद्र होगा। 117 ज़िलों में परीक्षा के बुनियादी ढाँचे पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।

सीईटी उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट करने के लिए तीन स्तर होंगे और इसका स्कोर तीन साल के लिए मान्य होगा।

ऊपरी आयु सीमा के अधीन सीईटी में उपस्थित होने के लिए उम्मीदवार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों की संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। कोई कितनी बार भी परीक्षा दे सकेगा और सबसे ज़्यादा अंक वाली मेरिट के हिसाब से चुनाव होगा।

मौज़ूदा नियमों के अनुसार, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों के लिए आयु में छूट का प्रावधान भी लागू होगा।

अभ्यर्थियों के लिए फायदा

कई परीक्षाएँ न दे पाने से अभ्यर्थी बहुत-सी नौकरियों में खुद को आजमा नहीं पाते हैं, यह समस्या अब खत्म हो जाएगी। एकल परीक्षा शुल्क उन वित्तीय बोझ को कम करेगा जो विभिन्न परीक्षाओं में लगाये जाते हैं।

चूँकि परीक्षा हर ज़िले में आयोजित की जाएगी, इसलिए दावेदारों के लिए यात्रा और वहाँ पर ठहरने के खर्च में बचत होगी। अपने गृह ज़िले में परीक्षा होने से महिला उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा आवेदन करने को प्रोत्साहन मिलेगा। आवेदकों को एक ही पंजीकरण पोर्टल पर पंजीकरण करना आवश्यक है। परीक्षा की तारीखों के टकराव के बारे में चिंता करने की भी ज़रूरत नहीं रहेगी।

संस्थानों के लिए भी फायदेमंद

उम्मीदवारों की प्रारंभिक या स्क्रीनिंग परीक्षा आयोजित करने की परेशानी दूर हो जाएगी।

कई चरण में होने वाली भर्ती में कमी आ जाएगी।

परीक्षा पैटर्न में मानकीकरण को अपनाया जाएगा।

विभिन्न भर्ती एजेंसियों के लिए इसमें किये जाने वाले खर्च में कटौती होगी। इससे 600 करोड़ रुपये की बचत की उम्मीद है।

24/7 हेल्पलाइन सेवा की सुविधा

सरकार ने ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्रों में उम्मीदवारों को ऑनलाइन परीक्षा प्रणाली से परिचित कराने के लिए इसकी पहुँच और जागरूकता की सुविधा प्रदान करने की योजना बनायी है। ऐसी किसी भी तरह की शिकायत या जिज्ञासा के बारे में जानने के लिए 24ङ्ग7 हेल्पलाइन सेवा स्थापित की जाएगी।

राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत सोसायटी होगी। इसकी अध्यक्षता भारत सरकार के सचिव रैंक के अधिकारी करेंगे। इसमें रेल मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवा विभाग, एसएससी, आरआरबी और आईबीपीएस के प्रतिनिधि शामिल होंगे।

उम्मीद है कि एनआरए एक अत्याधुनिक निकाय होगा जो केंद्र सरकार की भर्तियों के लिए एक अत्याधुनिक तकनीक और सर्वश्रेष्ठ विकृप साबित होगा।

एनआरए की आवश्यकता क्यों है?

जब यह अस्तित्व में आने के साथ एनआरए एक सामान्य पात्रता परीक्षा (सीईटी) आयोजित करेगा और सीईटी स्कोर के आधार पर एक उम्मीदवार संबंधित एजेंसी के साथ रिक्त पद होने पर आवेदन कर सकेगा। इसमें ग्रुप-बी और सी पदों के लिए उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट पहले किया जाएगा, साथ ही कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) व रेलवे भर्ती बोर्ड (एसएससी) और बैंकिंग कार्मिक चयन संस्थान (आईबीपीएस) भी इसी मेरिट के हिसाब से अभ्यर्थियों का चुनाव कर सेकेंगे।

परीक्षा तीन स्तरों स्नातक, 12वीं कक्षा और 10वीं पास उम्मीदवार के लिए आयोजित की जाएगी। कॉमन एंट्रेंस टेस्ट का पाठ्यक्रम सामान्य होगा। एक उम्मीदवार का सीईटी स्कोर सरकार में सभी नौकरियों के लिए परिणाम की घोषणा की तारीख से तीन साल की अवधि के लिए मान्य होगा। सामान्य प्रवेश परीक्षा तमाम स्थानीय भाषाओं में आयोजित की जाएगी। सूत्रों ने कहा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने देश में विभिन्न ज़िलों में एनआरए और परीक्षा केंद्र स्थापित करने के लिए 3 साल की अवधि को एनआरए के लिए 1517.57 करोड़ रुपये की मंज़ूरी दे दी है। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने उम्मीद जतायी है कि एनआरए स्थापित करने का निर्णय नौकरी चाहने वालों को एक सामान्य परीक्षा लेने और कई परीक्षाएँ देने में खर्च होने वाले खर्च और समय दोनों की बचत करेगा। वास्तव में यह प्रस्ताव प्रशंसनीय लगता है, लेकिन जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, वह है बेरोज़गारों की संख्या, साथ ही उनके योग्य रोज़गार की उपलब्धता। योग्य युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नौकरियों का सृजन होना भी तो ज़रूरी है।

भारत में बढ़ सकते हैं कैंसर के मामले

कोरोना-काल में भारत में दूसरे रोगों से पीडि़त लोगों के इलाज में काफी रुकावट पैदा हुई है। ऐसे में कई रोगों में बढ़ोतरी हुई है। हाल में कैंसर को लेकर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् यानी इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और राष्ट्रीय रोग सूचना विज्ञान एवं अनुसंधान केंद्र यानी नेशनल सेंटर फॉर डिसीज इन्फॉरमेटिक्स एंड रिसर्च (एनसीडीआईआर) द्वारा किये गये खुलासे ने एक बड़ी चिन्ता पैदा कर दी है। आईसीएमआर और एनसीडीआईआर ने कहा है कि आने वाले पाँच साल में भारत में कैंसर के 12 फीसदी तक मामले बढ़ जाएँगे।

इन संस्थानों द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इस साल 13.9 लाख कैंसर के मामले रह सकते हैं। यही नहीं संस्थानों ने रिपोर्ट में कहा है कि 2025 तक भारत में कैंसर के मरीज़ों की संख्या 15.7 लाख तक पहुँच सकती है। इतना ही नहीं, नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (एनसीआरपी) की एक ताज़ा रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि अगले पाँच साल में भारत में कैंसर के 12 फीसदी तक तक मामले बढ़ जाएँगे। इस हिसाब से इस साल के अन्त तक यहाँ 13.9 लाख और 2025 तक 15.7 लाख कैंसर के मामले हो जाएँगे। रिपोट्र्स के मुताबिक, पूर्वोत्तर में सबसे ज़्यादा कैंसर के मामले हैं और आगे भी यहीं सबसे ज़्यादा कैंसर के मामले बढऩे की सम्भावना है। पूर्वोत्तर में कैंसर के तेज़ी से बढऩे का सबसे बड़ा कारण तम्बाकू सेवन बताया गया है।

आईसीएमआर और एनसीडीआईआर के मुताबिक, राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम रिपोर्ट- 2020 में लगाया गया यह अनुमान 58 अस्पतालों की कैंसर मरीज़ों और जनसंख्या आधारित कैंसर मरीज़ों को लेकर मिली सूचना पर आधारित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के मामले तकरीबन दो लाख (14.8 फीसदी) और गर्भाशय के कैंसर के करीब 0.75 लाख (5.4 फीसदी) मामले हैं। भारत में वर्ष 2018 में ब्रेस्ट कैंसर से 87 हज़ार महिलाओं की मौत हुई, जिसका औसत हर दिन 239 पीडि़त महिलाओं की मौतें है। इसी तरह गर्भाशय के कैंसर से हर दिन 164 और अण्डाशय के कैंसर से हर दिन 99 मौतें हुईं। वहीं तम्बाकू से करीब 3.7 लाख (27 फीसदी) मामले फैले हैं, जो 2020 के कैंसर के कुल मामलों के 27.1 फीसदी हैं। इसके अलावा, पुरुषों और महिलाओं दोनों में 2025 तक आँतों के कैंसर के करीब 2.7 लाख मामले (19.7 फीसदी) रहने का अनुमान है।

जरनल ऑफ ग्लोबल एन्कोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुषों में फेफड़ों, मुँह, पेट और गले का कैंसर, तो वहीं महिलाओं में स्तन कैंसर तथा गर्भाशय का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। यह साझा अध्ययन टाटा मेडिकल सेंटर के डिपार्टमेंट ऑफ डाइजेस्टिव डिजीस (कोलकाता) के शोधछात्र मोहनदास के. मल्लाथ और किंग्स कॉलेज (लंदन) के शोधछात्र राबर्ट डी. स्मिथ ने एक फेलोशिप के तहत किया है, जो हिस्ट्री ऑफ द ग्रोइंग बर्डेन ऑफ कैंसर इन इंडिया : फ्रॉम एंटीक्विटी टू ट्वेंटीफस्र्ट सेंचुरी नाम से प्रकाशित हुआ है। मल्लाथ और स्मिथ ने लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी और वेलकम कलेक्शन लाइब्रेरी में 200 साल के दौरान भारत में कैंसर से सम्बन्धित विभिन्न प्रकाशनों का अध्ययन किया है। अध्ययन में लगाये गये अनुमान के मुताबिक, भारत में हर 20 साल में कैंसर के दोगुने मामले हो जाएँगे। अध्ययन में बताया गया है कि भारत में 26 वर्षों (सन् 1990 से 2016 के बीच) कैंसर से मरने वालों की दर दोगुनी रही है। सन् 2018 में कैंसर के 11.50 लाख नये मामले सामने आये थे। अब सन् 2040 तक इस कैंसर के इससे दोगुने यानी करीब 23 लाख मामले होने की आशंका है।

पूर्वोत्तर राज्यों में ज़्यादा मरीज़

अध्ययन में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों झारखण्ड, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि में कैंसर का सबसे ज़्यादा खतरा है। इसकी वजह यह इन राज्यों में कोरोना महामारी के चलते कैंसर के मरीज़ों के इलाज में आयी गिरावट है। अगर इन राज्यों ने जल्द ही इस दिशा में पहल नहीं की, तो इसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे। शोधछात्र मोहनदास के मल्लाथ ने तो अपने अध्ययन में यहाँ तक कहा है कि देश में कैंसर के इलाज का आधारभूत ढाँचा बेहतर नहीं है; क्योंकि सरकारी अस्पतालों में ऐसी सुविधाओं का अभाव है और निजी अस्पतालों तक आम लोगों की पहुँच ही नहीं है। अध्ययन में कहा गया है कि अगर तम्बाकू पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी जाए, तो महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर और पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर के केवल वो मामले बढ़ेंगे, जो उम्र से सम्बन्धित हैं और आम लोगों की औसतन 10 साल उम्र बढ़ जाएगी। अध्ययन में कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों को शुरू में ही कैंसर के इलाज की पहल करनी चाहिए। लेकिन दोनों सरकारों की आपसी खींचतान के चलते आम मरीज़ों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस मामले में विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को निजी अस्पतालों को कैंसर केयर प्रोग्राम चलाने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। क्योंकि वहाँ आम मरीज़ अपना इलाज नहीं करा सकते।

कोलकाता के एक सरकारी कैंसर अस्पताल से जुड़े एक डॉक्टर कहते हैं कि केंद्र सरकार को कैंसर के इलाज के लिए वर्ष 1946 में बनी भोरे समिति और मुदलियार समिति की रिपोट्र्स लागू करनी चाहिए। बता दें कि इन दोनों समितियों ने सभी मेडिकल कॉलेजों में बहुआयामी कैंसर इलाज यूनिट स्थापित करने और हर राज्य में केरल के तिररुअनंतपुरम स्थित रीजनल कैंसर सेंटर की तर्ज पर कैंसर स्पेशिलिटी अस्पताल खोलने की सिफारिश की थी।

भारत में 10 मरीज़ों में से 7 की मौत

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) और ग्लोबल कैंसर ऑब्जर्वेटरी (जीसीओ) के 2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में 2018 में कुल 96 लाख मौतें केवल कैंसर से हुई थीं, जिनमें से गरीब देशों में 70 फीसदी मौतें हुई थीं, जिसमें से करीब 7.84 लाख (8 फीसदी) मौतें अकेले भारत में हुई थीं।

जर्नल ऑफ ग्लोबल एन्कोलॉजी में 2017 प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में विकसित देशों की अपेक्षा लगभग दोगुने लोग कैंसर से मरते हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, भारत में 2018 में महिलाओं में कैंसर के 5.87 लाख और पुरुषों में 5.70 लाख मामले सामने आये थे। वहीं, सन् 2018 में कैंसर से 4.13 लाख पुरुषों की मौत हुई, जो महिलाओं से 42 फीसदी ज़्यादा थी।

वहीं, इस साल 3.71 लाख महिलाएँ कैंसर से मरी थीं। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में हर 10 कैंसर मरीज़ों में से 7 की मौत हो जाती है, जिसका कारण कैंसर के डॉक्टरों की कमी बताया गया था। पूरे विश्व में 2018 में कैंसर से 22 फीसदी मौतें तम्बाकू सेवन से हुईं। वहीं गरीब और विकासशील देशों में 25 फीसदी मौतों का कारण हैपेटाइटिस और एचपीवी वायरस के इंफेक्शन रहा। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि भारत में पैसे वाले लोग कैंसर का इलाज विदेशों में कराना पसन्द करते हैं।

विश्व में कैंसर की स्थिति

डब्ल्यूएचओ और जीसीओ के मुताबिक, सन् 2018 में विश्व भर में कैंसर के करीब 1.81 करोड़ मामले सामने आये थे, जिनमें से 94 लाख से अधिक पुरुष तथा 86 लाख से अधिक महिलाएँ कैंसर पीडि़त पायी गयी थीं। वहीं इस साल 53.85 लाख पुरुषों तथा 41.69 लाख महिलाओं की कैंसर से मौत हुई थी। सन् 2018 की इस रिपोर्ट में पुरुषों में फेफड़ों के कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर और मलाशय कैंसर के सबसे ज़्यादा मामले सामने आये; जबकि महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर, मलाशय कैंसर और फेफड़ों के कैंसर के सबसे ज़्यादा मामले सामने आये थे।

पुरानी बीमारी है कैंसर

कैंसर काफी पुरानी बीमारी है, जिसे आयुर्वेद-काल से ही पनपा बताया गया है। यह बात कोलकाता के शोधछात्र मोहनदास के. मल्लाथ और लंदन के राबर्ट डी. स्मिथ अपनी साझा अध्ययन रिपोर्ट में कही है। मल्लाथ कहते हैं कि कैंसर पश्चिमी सभ्यता की देन नहीं है। आम लोगों में यह धारणा गलत बैठी हुई है। दरअसल भारत में कैंसर की बीमारी सदियों पुरानी है, जिससे मिलते-जुलते लक्षण और उससे बचने के उपायों का अथर्ववेद समेत कई पुराने भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। फर्क यह है कि कैंसर की प्राथमिक पहचान 19वीं सदी में की गयी थी। इंडियन मेडिकल सर्विस ने सन् 1910 में कैंसर के मामलों का ब्यौरा भी प्रकाशित करना शुरू किया था। लेकिन 19वीं सदी में पश्चिमी दवाओं की स्वीकार्यता बढऩे के बाद इस बीमारी की जाँच शुरू हुई।

मीठे ड्रिंक्स और गर्म पेय से भी कैंसर का खतरा

फ्रांस में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि मीठे (शक्कर वाले) ड्रिंक्स का सेवन कम करने से कैंसर के मामले घट सकते हैं। शोधकर्ताओं ने कहा है कि दुनिया भर में मीठे ड्रिंक्स का सेवन बढऩे से मोटापा बढ़ा है, जिससे कैंसर का जोखिम बढ़ा है। कुछ समय पहले साइंस पत्रिका ‘ब्रिटिश मेडिकल जनरल’ में एक लाख लोगों पर किये गये अध्ययन में पाया गया 21 फीसदी पुरुषों और 79 फीसदी महिलाओं में मीठे ड्रिंक्स लेने की आदत है; जो कैंसर के खतरे को बढ़ाती है। अध्ययन में पाया गया कि एक दिन में 100 मिलीलीटर से अधिक शर्करा युक्त ड्रिंक्स लेने से 18 फीसदी कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है, जिसमें करीब 22 फीसदी मामले स्तन कैंसर के हो सकते हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, लोगों को रोज़ की अपनी ऊर्जा खपत का 10 फीसदी या इससे भी कम भाग शक्कर या चीनी के रूप में लेना चाहिए। बेहतर होगा कि चीनी का सेवन पाँच फीसदी या 25 ग्राम तक प्रतिदिन ही रखना चाहिए।

वहीं, ईरान की तेहरान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के शोधकर्ताओं ने अपने 2016 के एक अध्ययन में कहा है कि 60 डिग्री से अधिक तापमान पर बनाकर पी जाने वाली चाय, कॉफी आदि के सेवन से एसोफैगल कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि डिस्पोजल और प्लास्टिक के बर्तनों में गर्म पेय पीने से कैंसर का खतरा बहुत ज़्यादा रहता है। इसके अलावा शराब, बीड़ी, सिगरेट और अन्य नशीले पदार्थों से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

कुत्ते लगा सकते हैं लंग्स कैंसर का पता

अमेरिकी शहर ऑरलैंडो में अमेरिकन सोसायटी फॉर बायोकेमिस्ट्री एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में पेश किये गये एक शोध में कहा गया है कि इंसान की तुलना में कुत्ते 10,000 गुना ज़्यादा तेज़ गति से कोई चीज़ सूँघ सकते हैं। इस अध्ययन रिपोर्ट को कुत्तों को इंसानों के खून के नमूने सुँघाकर लिये गये जायज़े के आधार पर तैयार किया गया, जिसमें दो साल के चार कुत्तों को कुछ सैंपल सुँघाये गये। इनमें से तीन कुत्तों ने कैंसर के लक्षण वाले खून को सूँघकर भौंककर इसकी सूचना दी, जो जाँच में सही पायी गयी। कुत्तों की लंग्स कैंसर की पता लगाने की क्षमता 96.7 फीसदी सटीक निकली, जो इस अध्ययन में पहली बार सामने आयी।

कैंसर में कारगर है फफूँद

फफूँद (फंगस) को हर कोई एकदम बेकार समझता है; लेकिन आम लोग यह बात नहीं जानते कि फफूँद का प्राचीनकाल से ही दवाओं में इस्तेमाल होती आयी है। एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि फफूँद में ऐसे कुछ तत्त्व होते हैं, जो कैंसर कोशिकाओं से लडऩे में मदद करते हैं। इसके लिए बाकायदा वैज्ञानिकों ने एक फफूँद को विकसित किया, जो कैंसर के इलाज में कारगर है। एफआरआई की फॉरेस्ट पैथोलॉजी डिवीजन के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एन.एस.के. हर्ष ने इस अध्ययन में कहा था कि भारत में फफूँद को आसानी से उगाया जा सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि फफूँद से केवल कैंसर का ही नहीं, बल्कि एचआईवी, तंत्रिका रोग, अस्थमा, हृदय रोग, पक्षाघात, उच्च व निम्न रक्तचाप, मधुमेह, हेपेटाइटिस, अल्सर, एल्कोहोलिज्म, मम्स, इपीलेप्सी, टॉयरडनेस आदि का इलाज हो सकता है।

खानपान बचायेगा कैंसर से

दवाओं के अलावा खानपान से विभिन्न बीमारियाँ ठीक करने की जुगत में दुनिया भर के रोग विशेषज्ञ और पोषण-विज्ञानी लगे हैं। इस खोज में पाया गया है कि खानपान सुधारकर कैंसर जैसी बीमारी को भी ठीक किया जा सकता है। इसमें ब्रोकली (हरी गोभी) बहुत ही कारगर है। ब्रोकली के तने में फूलों से ज़्यादा ऐसे तत्त्व होते हैं, जो कैंसर-रोधी तत्त्वों से भरपूर होते हैं। इसके अलावा कद्दू और लाल और पीले रंग के फल भी कैंसर-रोधी का काम करते हैं। सेब, अँगूर, पपीता, नारंगी में भी कैंसर से लडऩे की क्षमता पायी जाती है। कई लोगों ने खानपान से कैंसर के प्रभाव को कम किया है। कई लोगों ने तो इस खतरनाक बीमारी से छुटकारा भी पाया है। इतना ही नहीं, अगर शुरू से ही शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए, तो कैंसर को शरीर में फैलने से रोका जा सकता है। इस बात के अनेक उदाहरण हैं कि स्वस्थ्य लोगों को कैंसर ही नहीं, बल्कि कोई और बीमारी भी जल्द नहीं होती।

64 परिवारों को घर छोडऩे का नोटिस

दो साल पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस बस्ती के विद्यालय में एक सभा को सम्बोधित करके गये थे, अब उस बस्ती के लोगों से उनके घरों को खाली करने के लिए नोटिस जारी किया जा चुका है। मामला सोनभद्र में राबट्र्सगंज विकास खण्ड के ग्राम पंचायत बहुअरा का है, जहाँ के 64 परिवारों को सिंचाई विभाग मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) की ओर से एक नोटिस भेजा गया है। इनमें से एक नोटिस में लिखा है- ‘आपको सूचित किया जाता है कि आपके द्वारा सिंचाई विभाग की ज़मीन में ग्राम-बहुअरा के आराजी नं.-….में रकबा 0.037 पर कच्चा, पक्का मकान/जोत-कोड़ करके अतिक्रमण किया गया है, जो कि अवैधानिक कार्य है। इस सम्बन्ध में यदि आपको कोई आपत्ति हो, तो दिनांक 26/06/2020 को 10 बजे दिन कार्यालय ज़िलेदारी द्वितीय मिर्ज़ापुर नहर प्रखण्ड राबट्र्सगंज सोनभद्र में उपस्थित होकर अपनी सफाई पेश करें। अन्यथा मियाद गुज़रने के बाद कोई आपत्ति नहीं सुनी जाएगी और यह समझा जाएगा कि उक्त घटना सत्य है तथा आपके विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही अमल में लायी जाएगी।’

उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) का यह नोटिस राबट्र्सगंज विकास खण्ड के ग्राम पंचायत बहुअरा निवासी करीब 60 वर्षीय निर्मल कोल को मिला है। निर्मल कोल आठ सदस्यों के परिवार के मुखिया हैं। अब कोल और उनके परिजन परेशान हैं। कोल का कहना है कि वह यहीं जन्मे। यहाँ उनके परिवार की बसावट यहाँ करीब 70 साल से है। हमारे बाप-दादा यहीं रहे और मरे। अब हम लोग कहाँ जाएँगे? कोल के दर्द भरे बयान का वीडियो ‘तहलका’ के पास उपलब्ध है। कोल के परिवार में उनकी पत्नी श्याम प्यारी, बेटा शिव शंकर, बेटी ज्योति, शिव शंकर की पत्नी सरोज, उसका एक बेटा और एक बेटी है।  राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट की मानें, तो निर्मल कोल भूमिहीन हैं और 0.037 हेक्टेयर (करीब तीन बिस्वा) ज़मीन पर बने कच्चे मकान में रहते हैं।

बस्ती के सभी 64 परिवारों का करीब-करीब ऐसा ही हाल है। नहर प्रखण्ड की नोटिस के बाद उन्हें हर वक्त बेघर होने का डर सता रहा है। प्रशासन की गाडिय़ाँ बस्ती की ओर मुड़ते ही ये लोग डर से काँप जाते हैं कि कहीं उन्हें बेघर न कर दिया जाए? बस्ती के लोग पूछते हैं कि दशकों से बाप-दादा के समय से जमी-जमायी गृहस्थी लेकर आिखर हम लोग कहाँ जाएँगे? हमारे पास कोई अन्य ज़मीन भी नहीं है। इसी चिन्ता में निर्मल कोल और बस्ती के अन्य 63 परिवारों की रातों की नींद उड़ी हुई है। क्योंकि बहुअरा बंगला स्थित बस्ती के सभी 64 परिवारों का कहना है कि नहर प्रखण्ड की ओर से उन्हें नोटिस मिला है। अब कोरोना-काल में उन्हें कभी भी बेघर किया जा सकता है। यह सब भाजपा के उत्तर प्रदेश विधान परिषद् सदस्य (एमएलसी) केदारनाथ सिंह के एक पत्र पर हुआ है।

वाराणसी (स्नातक) निर्वाचन क्षेत्र से एमएलसी केदार नाथ सिंह उत्तर प्रदेश विधान परिषद् में भाजपा विधायक दल के मुख्य सचेतक भी हैं। उन्होंने एमएलसी बनने के बाद ग्राम पंचायत बहुअरा में अपने बेटे अमित कुमार सिंह के नाम 2.692 हेक्टेयर (करीब 10.73 बीघा) ज़मीन और इससे सटे ग्राम पंचायत तिनताली में अपनी बहू प्रज्ञा सिंह की कम्पनी ‘जीवक मेडिकल ऐंड रिसर्च सेंटर प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से 0.253 हेक्टेयर (एक बीघा) ज़मीन खरीदी   है। दोनों ही खेती वाली ज़मीनें हैं; जबकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इन दोनों ज़मीनों को गैर-कृषि  ज़मीन घोषित करके लगान से मुक्त कर दिया है; जबकि ग्राम पंचायत बहुअरा वाली ज़मीन में अभी भी खेती हो रही है।

इतना ही नहीं, ‘तहलका’ के हाथ लगे सुबूतों और सूचनाओं के मुताबिक, एमएलसी केदार नाथ सिंह ने पद का दुरुपयोग करते हुए विधायक निधि से अपनी बहू की कम्पनी वाली ज़मीन के चारों ओर लाखों रुपये खर्च करके आरसीसी चकरोड, पक्की नाली, विद्युत लाइन, पुलिया आदि की व्यवस्था करा ली है।

ग्राम पंचायत बहुअरा में अपने बेटे अमित कुमार सिंह के नाम से खरीदी ज़मीन तक विधायक निधि के करोड़ों रुपये खर्च करके तिनताली मोड़ से विद्युत लाइन पहुँचायी गयी है। इस विद्युत लाइन की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर है। उनके बेटे की ज़मीन को विद्युत लाइन से घेर दिया गया है। उसमें ट्रांसफॉर्मर की भी व्यवस्था की गयी है। विधायक निधि से इस ज़मीन पर सरकारी हैंडपम्प भी लगाया गया है, जबकि इस ज़मीन के पास कोई घर तक नहीं है।

एमएलसी केदार नाथ सिंह ने गत 17 फरवरी को उत्तर प्रदेश सरकार की समन्वित शिकायत निवारण प्रणाली (आईजीआरएस) के माध्यम से मुख्यमंत्री को शिकायत कर ग्राम पंचायत बहुअरा स्थित उत्तर प्रदेश सरकार की 3.470 हेक्टेअर (करीब 15 बीघा) ज़मीन अवैध कब्ज़ेदारों से मुक्त कराकर बाउण्ड्री बनवाकर सरकारी प्रयोग के लिए सुरक्षित किये जाने की गुहार लगायी थी। अगले ही दिन उन्होंने अपने लैटर पैड पर यह शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लखनऊ में की।

केदारनाथ सिंह ने अपने पत्र में लिखा है- ‘वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर उत्तर प्रदेश सरकार की लगभग 15 बीघा ज़मीन स्थित है। इस सरकारी ज़मीन को वहाँ के स्थानीय दबंगों द्वारा 10 रुपये के स्टाम्प पर एक लाख से तीन लाख बिस्वा बेचकर अवैध रूप से कब्ज़ा दिया जा रहा है। इसमें अधिकांश बाहरी मुस्लिम समुदाय के लोग हैं। नौ बीघा ज़मीन परती खाली ज़मीन है। इस पर बाउंड्री बनवाकर सरकारी कार्य हेतु सुरक्षित कराया जाना जनहित में अति आवश्यक है।’ वह आगे लिखते हैं- ‘उपरोक्त भूखण्ड एसएच-5ए पर स्थित है, जो कीमती है। यह उत्तर प्रदेश सरकार के नाम से दर्ज है। इसे अवैध कब्ज़ा धारकों से मुक्त कराया जाना प्रशासनिक हित में है। जो लोग अवैध कब्ज़ा किये हुए हैं। एवं जिन लोगों ने पैसा लेकर यह अवैध कब्ज़ा करवाया है, उनसे भू-राजस्व की तरह वसूली कराने एवं उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी जानी आवश्यक है। इससे भविष्य में लोग उत्तर प्रदेश सरकार की ज़मीन पर कब्ज़ा न कर सकें।’ उन्होंने पत्र की प्रति सोनभद्र के ज़िलाधिकारी, प्रमुख सचिव (राजस्व) और विंध्याचल मण्डल के आयुक्त को भी प्रेषित की।

मुख्यमंत्री कार्यालय के विशेष कार्याधिकारी आर.एन. सिंह ने 20 फरवरी को एमएलसी के पत्र पर मिर्ज़ापुर के मण्डलायुक्त से दो सप्ताह के अन्दर जाँच आख्या तलब की। मण्डलायुक्त ने भी 22 फरवरी को सोनभद्र के ज़िलाधिकारी को पत्र लिखकर मामले की जाँच करके कार्रवाई करने का निर्देश दिया। मामला एमएलसी से जुड़ा होने की वजह से सोनभद्र ज़िला प्रशासन ने तुरन्त मामले की जाँच का आदेश दे दिया।

राबट्र्सगंज तहसील के उप-ज़िलाधिकारी ने तहसीलदार और क्षेत्रीय राजस्व निरीक्षक से मामले की जाँच कराकर गत 6 मार्च को जाँच आख्या ज़िलाधिकारी को प्रेषित की। ‘तहलका’ के पास जाँच आख्या की छायाप्रति (फोटो कॉपी) मौज़ूद है। इसमें लिखा है कि ग्राम बहुअरा के आकार पत्र-45 में कुल 19 गाटा (रकबा 3.7470 हेक्टेयर) खाता संख्या-5 पर उत्तर प्रदेश सरकार (एनजेडए) के नाम से दर्ज है, जिसका प्रबन्धन नहर विभाग के पास है। जाँच आख्या में यह भी लिखा है कि मौके पर 64 परिवारों की घनी आबादी है। कुछ आराज़ी नम्बर पर त्रिभुवन सिंह और किशुनलाल ने खेती की है। शेष चार बीघा रकबा रास्ते और गड्ढे के रूप में खाली है। तहसील प्रशासन ने शासन को यह भी सूचित किया है कि मामले में कार्यवाही के लिए सम्बन्धित नहर विभाग को अलग से रिपोर्ट प्रेषित कर दी है।

अगर राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट में उल्लिखित विवादित ज़मीन पर निवास करने वाले वर्ग की बात करें, तो इसमें आरक्षित वर्गों के कोल, चमार, बहेलिया, बिन्द, नाई, भाँट, बियार, फकीर, कहार, लोहार, कोइरी, कुर्मी, अहीर, मुस्लिम-अंसार समुदायों के लोग आधे बिस्वा से लेकर पाँच बिस्वा ज़मीन पर कच्चे-पक्के मकान बनाकर रह रहे हैं।

अगर एमएलसी केदारनाथ सिंह के पत्र में उल्लिखित मुस्लिम समुदाय के कब्ज़ेदारों की बात करें, तो कुल 21 मुस्लिम परिवारों को नगर प्रखण्ड की नोटिस मिला है। नोटिस पाने वाले शेष 43 परिवार हिन्दू समुदाय के हैं। इनमें करीब 18 परिवार अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। शेष पिछड़ी जाति वर्ग के हैं। केवल एक परिवार उच्च जाति वर्ग से आने वाले पठान समुदाय का है। या यूँ कहें कि नोटिस पाने वालों में से कोई भी उच्च जाति वर्ग से आने वाले एमएलसी केदार नाथ सिंह के समुदाय का नहीं है।

उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) ने राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए ग्रामीणों को कोविड-19 वायरस से उपजे वैश्विक संकट के बीच नोटिस भेजकर एक सप्ताह के अन्दर जवाब माँगा। नोटिस मिलते ही ग्रामीणों में हड़कम्प मच गया। कोरोना वायरस जैसी महामारी के संकट में आर्थिक हालत से जूझ रहे ये गरीब अपने-अपने घरों को बचाने के लिए नेताओं और अधिकारियों का चक्कर लगा रहे हैं; लेकिन उन्हें अभी तक कोई राहत नहीं मिली है।

विवादित ज़मीन पर बसे जाटव समुदाय से आने वाले मेवा लाल की पत्नी गीता नोटिस मिलने की बात से ही गुस्से में भरी बैठी हैं। वह कहती हैं कि नोटिस भेजा गया है ताकि हम लोग यहाँ से उजड़ जाएँ। लेकिन हम लोग कानूनी लड़ाई लड़ेंगे, घर छीनने वालों से झगड़ा करेंगे, मगर यहाँ से नहीं जाएँगे। गीता ने ऑन रिकॉर्ड (एक वीडियो) में ये बातें कही हैं।

गीता के परिवार में भी कुल आठ लोग हैं। वह और उनके पति मज़दूरी कर अपने परिवार का खर्च चलाते हैं। उनके तीन बेटे हंसलाल, पिंटू, मिंटू और एक बेटी लक्ष्मीना है। सभी साथ में रहते हैं। बड़े बेटे हंसलाल की शादी हो चुकी है। उसकी पत्नी पिंकी और उनकी लड़की शिवानी की ज़िम्मेदारी भी उन पर है। उन्होंने बताया कि उनकी बहू गर्भवती है। ऐसे हालात में हम कहाँ जाएँगे? हमारे पास इसके अलावा कोई ज़मीन या दूसरा घर भी नहीं है।

गीता के पति मेवा का घर तो प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत ही बना है। ये लोग उसी में रहते हैं और उनके बेटे आवास के पीछे कच्चे मकान में रहकर जीवनयापन कर रहे हैं। इनके पास शौचालय और विद्युत कनेक्शन भी है; लेकिन प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत इनको अभी तक गैस कनेक्शन नहीं मिला है।

फिलहाल नोटिस पाने वाले बस्ती के 64 परिवारों के मुखियाओं ने मिर्ज़ापुर नहर प्रखण्ड  के ज़िलेदार (द्वितीय) को लिखित जवाब भेज दिया है और उनसे नोटिस को वापस लेने और निरस्त करने की माँग की है। जवाब में बस्ती वालों ने लिखा है कि उनके द्वारा जारी नोटिस बिल्कुल अवैधानिक और साज़िशन है। उन्होंने सम्बन्धित नोटिस पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि नोटिस में आराज़ी संख्या और अतिक्रमण स्थल की चौहद्दी नहीं दी गयी है। आपके द्वारा जारी नोटिस पर कोई विधिक कार्रवाई किया जाना महज़ पद का दुरुपयोग है।

अगर सरकारी ज़मीन पर 64 परिवारों की बस्ती के विकास की बात करें, तो यहाँ सभी घरों में सरकारी विद्युत कनेक्शन दिया गया है। पूरी बस्ती तक आरएसीसी चकरोड (सड़क) का निर्माण कराया गया है।

इंदिरा आवास योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत यहाँ दर्ज़नों घर बने हैं। अधिकतर घरों में सरकार की तरफ से शौचालय का निर्माण कराया गया है। यानी पूरी बस्ती के विकास कार्य में उत्तर प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये गये हैं। अब सवाल उठता है कि अब तक सोनभद्र ज़िला प्रशासन और सिंचाई विभाग का नहर प्रखण्ड क्यों सोता रहा? ज़िला प्रशासन ने बिना वैधानिक ज़मीन के इनके निर्माण को मंज़ूरी किस आधार पर दे दी? फिलहाल उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड की ओर से विवादित खाली ज़मीन पर पिछले महीने सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता, मिज़ापुर की तरफ बोर्ड लगा दिया गया, जिस पर लिखा है कि यह ज़मीन सिंचाई विभाग की है। स्थानीय लोगों ने बताया कि उसी दिन विभाग के अधिकारियों ने खाली पड़ी ज़मीन को ट्रैक्टर से जुताई भी करायी।

बता दें कि ग्राम पंचायत बहुअरा वही गाँव है, जहाँ सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने करीब दो साल पहले 12 सितंबर, 2018 को आये थे। विवादित ज़मीन पर बसी 64 परिवारों की बस्ती से महज़ 25 मीटर दूर स्थित प्राथमिक विद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश में मुसहरों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं समेत मुख्यमंत्री आवास योजना की शुरुआत की थी। उस समय उनके साथ भाजपा एमएलसी केदारनाथ सिंह भी मौज़ूद थे। मंच से उन्होंने ग्राम पंचायत बहुअरा को गोद लेने की सार्वजनिक घोषणा भी की थी और अब वह इसे खाली कराने पर आमादा हैं, जिससे बस्ती के लोग बहुत परेशान हैं।

परम्परागत वन्य-भूमि से बेदखल हो सकते हैं 3.78 लाख आदिवासी, वन-निवासी परिवार

आज कोविड-19 जैसी महामारी के चलते जहाँ पूरी दुनिया उथल-पुथल हो चुकी है, वहीं मध्य प्रदेश के जंगलों में सदियों से रह रहे आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास और आजीविका का संकट पैदा होने की स्थिति आ गयी है। परम्परागत रूप से वनों में रहने वाले आदिवासियों एवं वन-निवासियों ने सदियों से अपनी कर्मभूमि रही वन्य-भूमि पर वन अधिकार हेतु पट्टों के लिए मध्य प्रदेश शासन को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन दिये थे, जिसमें राज्य सरकार ने केवल 716 आवेदन स्वीकार किये हैं; जबकि 3.78 लाख से ज़्यादा आवेदन खारिज कर दिये। एक परिवार से एक आवेदन किया गया था। सरकार द्वारा इतनी बड़ी संख्या में वन अधिकार पट्टों के आवेदन खारिज किये जाने से वनों में रहने वाले 15 लाख से अधिक आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास व आजीविका की समस्या पैदा हो गयी है।

क्या है मामला

ज्ञात हो कि कुछ एनजीओ द्वारा वन अधिकार कानून-2006 को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उन सभी लोगों को वन्य-भूमि से बेदखल किया जाए, जिनके वननिवासी होने का दावा खारिज कर दिया गया है। इसकी ज़द में 16 राज्यों के लगभग 12 लाख से ज़्यादा आदिवासी एवं वननिवासी परिवार थे।

सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से देश में हड़कम्प मच गया था। इस आदेश पर अनेक बुद्धिजीवियों ने चिन्ता ज़ाहिर की थी और विपक्ष समेत अनेक वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों और परम्परागत वन-निवासियों का पक्ष सही ढंग से नहीं रखा। वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने इंगित किया कि बहुत-से लोगों के दावों को यांत्रिक तरीके से खारिज कर दिया गया और उनके दावों पर ठीक से विचार नहीं किया गया था। इस आदेश पर विवाद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक अर्जी दायर कर इस पर रोक की माँग की। 28 फरवरी, 2019 को कोर्ट ने अपने दिये आदेश पर रोक लगा दी। सितंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वन्य-भूमि पर इन दावों के न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया के तौर-तरीकों का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करें और उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाली वन्य-भूमि के वन सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट अगली सुनवाई पर पेश करें।

पट्टों के लिए वन-मित्र एप लॉन्च

आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को वन अधिकार कानून के तहत भूमि आवंटन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और भ्रष्टाचार की जाँच करने के लिए मध्य प्रदेश की कमलनाथ नीत तत्कालीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2 अक्टूबर, 2019 को वन-मित्र एप लॉन्च किया था। सभी आवेदन पत्र एप के माध्यम से भरे गये थे। एप लॉन्च के बाद उम्मीद की जा रही थी कि आदिवासियों एवं वन-निवासियों के दशकों से चली आ रही वन अधिकार पट्टा सम्बन्धी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन हमेशा की तरह तीन पीढिय़ों के कब्ज़े का प्रमाण उपलब्ध नहीं करने की बात कहकर आवेदकों के दावों को ज़िलास्तर की समितियों द्वारा खारिज कर दिया गया। जबकि वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(ण) एवं धारा-4(3) में आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों से सम्बन्धित दिये गये प्रावधानों में तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण उपलब्ध कराने का कोई उल्लेख नहीं है, बल्कि 13 दिसंबर, 2005 तक आदिवासियों, वन-निवासियों द्वारा सम्बन्धित भूमि पर काबिज़ रहने का उल्लेख है।

क्या है वन अधिकार कानून

देश को आज़ादी मिलने के साठ साल बाद देश की संसद ने वनाश्रितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होना स्वीकार किया और 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित किया गया- अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006। यह केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का कानून है।

यह कानून सन् 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के असंतुलन को ठीक करने के लिए लाया गया। वन अधिकार अधिनियम-2006 पहला और एकमात्र कानून है, जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और अन्य वन-निवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारम्परिक भूमि पर अधिकार देने का प्रावधान है। सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान है; जिसके अनुसार, ग्राम सभा के जंगल और ज़मीन पर स्थानीय ग्राम-सभा का ही अधिकार होगा। इसके लिए आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज़ दिखाकर ज़मीनों पर अपना दावा करने के बाद अधिकारी द्वारा इन दस्तावेज़ों के आधार पर आदिवासियों और वन-निवासियों के दावों की जाँच करके वन अधिकार पट्टा दिया जाता है।

वन विभाग की अनैतिक कार्यवाही

वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(घ) में वन्य-भूमि की परिभाषा दी गयी है, जिसमें भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-27 एवं धारा-34(अ) के अनुसार राजपत्र में डीनोटिफाइड की गयी भूमि को एवं सुप्रीम कोर्ट की याचिका क्रमांक- 202/95 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत आई.ए. क्रमांक- 791, 792 में 01 अगस्त, 2003 के कोर्ट के आदेशानुसार बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को वन संरक्षण कानून-1980 के दायरे से मुक्त घोषित किया गया है। लेकिन राज्य स्तरीय वन अधिकार समिति एवं राज्य मंत्रालय डीनोटिफाइड भूमि एवं अदालत द्वारा मुक्त की गयी भूमि को गैर वन्य-भूमि माने जाने के बाबत अभी तक कोई पत्र, प्रपत्र या आदेश जारी ही नहीं किया। उक्त डीनोटिफाइड भूमि, बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को संरक्षित वन मानकर वन-विभाग द्वारा लगातार कब्ज़ा किया गया। वहाँ के आदिवासियों और वन-निवासियों पर अत्याचार किये गये। घरों को ढहा दिया गया। खेतों को नष्ट कर दिया गया और मामला दर्ज कर प्रताडि़त भी किया गया।

आदिवासियों-वन-निवासियों के विरुद्ध वन-विभाग की पिछली कुछ कार्यवाहियाँ

22 जुलाई 2020 पुष्पराजगढ़ ज़िले के ग्राम बेंदी के डूमर टोला में राष्ट्रपति द्वारा संरक्षित बैगा आदिवासी समुदाय के लगभग 50 परिवारों की 103 एकड़ खेती की भूमि वन-विभाग ने सरकारी दबदबा बनाकर कब्ज़ा ली और खेतों में गड्ढे खोदकर धान की खड़ी फसल को नष्ट कर दिया।

11 जुलाई, 2020 को रीवा ज़िले के अंतर्गत गुढ़ तहसील के ग्राम हरदी में वन-विभाग ने आदिवासियों, वन-निवासियों के लगभग 100 मकान बिना किसी सूचना के तोड़ दिये। पीडि़तों का आरोप था कि सन् 1990 में उन्हें सरकारी पट्टे वितरित हुए थे, तब से वे वहाँ रह रहे हैं। वन-विभाग के अधिकारियों द्वारा 5000 रुपये तक की माँग की गयी, जो नहीं दे पाने पर वन-विभाग ने उनके घर तोड़ दिये। 27 जून, 2020 को सिंगरौली ज़िले के बंधा गाँव में आदिवासियों के घरों पर वन-विभाग ने बुल्डोजर चला दिया।

आदिवासियों, वन-निवासियों में जानकारी का अभाव

परम्परागत रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जंगलों में निवास करने वाले अधिकांश आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों में ज़मीन के कागज़, पहचान पत्र, सरकारी योजनाओं की जानकारी इत्यादि का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके मद्देनज़र वन अधिकार पट्टा देने के लिए वन अधिकार कानून-2006 में नियम-13 में साक्ष्य का विस्तृत ब्यौरा दिया गया। वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम 13(झ) के तहत वन अधिकार पट्टा के लिए तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के साक्ष्य के तौर पर ग्राम के बुजूर्गों के बयान तथा ग्राम पंचायत के सरपंच और सचिव के द्वारा बयान सत्यापित करके वन अधिकार पट्टा देने का प्रावधान है। बावजूद इसके आदिवासियों व परम्परागत वन-निवासियों के साथ लगातार अत्याचार-अन्याय होता रहा और उन्हें वन अधिकार पट्टे से वंचित किया जाता रहा। वन अधिकार कानून-2006 लागू होने एवं राज्य में प्रभावी होने के समय से लेकर आज तक राज्य सरकार द्वारा लगभग 98 फीसदी दावों को तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण के नाम पर लगातार अमान्य किया गया। तहसील एवं ज़िला स्तर के अधिकारियों, वन अधिकारियों द्वारा ग्राम सभा की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया। उसी क्षेत्र में निवास करने से सम्बन्धित शासकीय अभिलेखागारों में उपलब्ध अभिलेखों (दस्तावेज़ों) का विवरण भी वन अधिकार समिति, उपखण्ड स्तरीय समिति एवं ज़िला स्तरीय समिति को उपलब्ध नहीं करवाया गया, जिसके आधार पर सत्यापन की प्रक्रिया भी निर्धारित नहीं की गयी। गैर वन्य-भूमि को वन्य-भूमि मानकर दावे मान्य-अमान्य किये गये।

कैसी हो सरकार की भूमिका

किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का उत्तरदायित्व होता है कि वह जनता के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाये और कार्य करे; न कि जनता के ही संसाधनों को कब्ज़ाने का प्रयास करे। लेकिन अब तक वन-विभाग की आदिवासियों, वन-निवासियों को जंगलों से किसी तरह बेदखल करने की पूरी कोशिश रही है। राज्य सरकार द्वारा 3.79 लाख आवेदनों में 99 फीसदी दावों को अमान्य किया जाना एक ऐतिहासिक शासकीय भूल साबित होगी। 3.79 दावे वाले परिवारों की कुल जनसंख्या लगभग 20 लाख हो सकती है। आिखर 15 लाख से अधिक लोग कहाँजाएँगे? कैसे गुज़र-बशर करेंगे? आदि सवालों का समाधान करना राज्य सरकार का दायित्व है। मध्य प्रदेश के आदिवासियों एवं परम्परागत वन निवासियों में जीवन को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। मध्य प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह आवेदकों के दावों का पुन: निरीक्षण करे और वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम-13(झ) का बड़ी संख्या में इस्तेमाल कर आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को तेज़ गति वन अधिकार पट्टे जारी करे।

हिन्दू-धर्म को समझना-6: विश्व स्तर पर लोगों को मंत्रमुग्ध करता है सनातम धर्म

सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) अपनी निहित प्रवृत्ति पर अधिक ज़ोर देता है। भले ही विशेष रूप से नहीं, पर इसके दर्शन के गूढ़ पहलुओं पर दुनिया में शान्ति की एक पूर्व शर्त के रूप में आंतरिक शान्ति पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए सामाजिक न्याय के सवालों के साथ ऐतिहासिक रूप से चिन्ता की एक कम परम्परा थी। सवाल जो पश्चिम के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं; पश्चिम के धर्मों, जैसे- यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म जैसी संस्कृतियों को विश्वशान्ति के लिए एक पूर्व शर्त के रूप में सामाजिक न्याय प्रश्नों सहित अपने धर्मों के बहिर्वादी पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं; हालाँकि विशेष रूप से नहीं।

सनातन हिन्दू दर्शन के विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतीक, जैसे प्रसिद्ध पुरुष-महिला स्वैच्छिक गले लगाते हैं; जो संक्षेप में पुरुष और महिला सिद्धांतों के संतुलन या भगवान के साथ आध्यात्मिक मिलन के मार्ग के प्रतीक के रूप में देखते हैं। लेकिन पश्चिमी देशों में इसकी अक्सर गलत व्याख्या की गयी है। यह वास्तव में संकेत देता है कि आध्यात्मिक, रहस्यमय मार्ग को विरोधाभासों के संतुलन और पारगमन की आवश्यकता होती है, न कि विरोधाभासों के उन्मूलन की; जैसा कि अन्य धार्मिक विचारों द्वारा प्रतिपादित है।

यह माना जाता है कि यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस (580-500 ईसा पूर्व) ने पुनर्जन्म (एक आत्मा का एक शरीर से दूसरे में जाना) के सिद्धांत को विकसित किया है। एक चक्रीय ब्रह्माण्ड के पाइथागोरस सिद्धांत भी सम्भवत: भारत से प्राप्त किये गये थे। ग्रीक और भारतीय चिन्तन के बीच सबसे खास समानता यह है कि नियोप्ले टॉनिक दार्शनिक प्लाटिनस (205-270) के नौ सिद्धांतों में वर्णित रहस्यवादी सूक्ति (गूढ़ ज्ञान) की प्रणाली और महर्षि पतंजलि के लिए योग-सूत्र में वर्णित समानता है। चूँकि पतंजलि पाठ पुराना है, इसलिए इसका प्रभाव सबसे अधिक सम्भावित है।

 ग्रीक दर्शन को आत्मसात् करने के अलावा हिन्दू प्रतीक-चिह्न नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, पूर्व में मॉरीशस और दक्षिण अमेरिका के सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में भी पहचाने जाते हैं। भारत में हम जिन्हें भगवान यम के रूप में जानते हैं और भैंसे को जिनकी सवारी के रूप में दिखाया गया है तथा जो मुख्य न्यायाधीश के रूप में पूज्यनीय हैं, जिनके सामने सभी को मृत्यु के बाद प्रकट होना है; एक समान चिह्न, जिसे भगवान एम्माटेन कहा जाता है; जापान में पूजनीय है। वहाँ उन्हें भैंसे की सवारी करते हुए दिखाया गया है और सभी को मृत्यु के बाद उनके सामने पेश होना होता है। देवी लक्ष्मी की प्रतिष्ठित उपस्थिति और गुणात्मक गुणों से तो हम खूब परिचित हैं, उनसे मिलती-जुलती विशेषताओं की तरह जापान की देवी किचिज्जो-टेन हैं; जिनके हाथ में नोईहोजु (चिन्तामणि) है और वे कमल के फूल पर खड़ी हैं।

भगवान गणेश या भगवान विनायक (हाथी के सिर वाले भगवान) को बाधाओं का निवारण करने वाला और सौभाग्य का देवता माना जाता है। जापान में भी इनसे मिलते-जुलते हाथी के सर वाले देवता हैं; जिन्हें गॉड कांगिटेन या लॉर्ड बिनायका-तेन कहा जाता है। भारत में हमारे पास जहाँ स्वर्ग के राजा के रूप में इंद्रदेव हैं और हाथी की सवारी करने वाले देवताओं में प्रमुख हैं; जापानियों के पास भी अपने भगवान तैशकू-तेन स्वर्ग के राजा और देवताओं के प्रमुख हैं और एक हाथी की सवारी करते हैं। हाथ में संगीत वाद्य यंत्र वीणा धारण करने वाली भारतीय देवी सरस्वती, जिन्हें विद्या की देवी के रूप में पूजते हैं; ऐसी ही देवी को जापान में लोग देवी बेज़ाइतेन को पूजते हैं, जिनके हाथ में वाद्ययंत्र बिवा रहता है। यहाँ भारत में मानव शरीर में आध्यात्मिक शरीर के प्रसिद्ध सात केंद्रों को चक्र कहा जाता है, जबकि जापान में आध्यात्मिक ऊर्जा के समान केंद्रों को चाकुर कहा जाता है। हिन्दू धर्म दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है और भारत, नेपाल और मॉरीशस में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित है; जबकि बाली (इंडोनेशिया) में भी यह एक प्रमुख धर्म है। हालाँकि इंडोनेशिया आधिकारिक तौर पर एक मुस्लिम राष्ट्र है, उसके राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में गरुड़ पंचशील हैं। इस प्रतीक को सुल्तानों द्वारा देख-रेख किये गये पोंटियानक के सुल्तान हामिद (द्वितीय) द्वारा डिजाइन किया गया था, और 11 फरवरी, 1950 को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया था। भगवान विष्णु के अनुशासित वाहक या वाहन गरुड़ इंडोनेशिया के कई प्राचीन हिन्दू मन्दिरों में दिखायी देते हैं। इंडोनेशिया में बाली के लोग अभी भी अपने स्वरूप के अनुकूल हिन्दू धर्म के एक प्रकार का पालन करते हैं। वास्तव में इंडोनेशियाई के राष्ट्रीय हवाई अड्डे को गरुड़ हवाई अड्डा भी कहा जाता है। उनके 20,000 रुपये के करेंसी नोट में भगवान गणेश का एक शिलालेख है; जबकि इंडोनेशियाई सेना में भगवान हनुमान उनके शुभंकर हैं।

वियतनाम में हिन्दू धर्म मुख्य रूप से चाम जातीय लोगों में प्रचलित है, जो शैव ब्राह्मणवाद का एक रूप है। ज़्यादातर चाम हिन्दू नागवंशी क्षत्रिय जाति के हैं; लेकिन काफी अल्पसंख्यक ब्राह्मण हैं। चाम हिन्दुओं का मानना है कि जब वे मर जाते हैं, तो पवित्र बैल नंदी उनकी आत्मा को भारत की पवित्र भूमि पर ले जाते हैं। थाईलैंड की बात करें, जो एक बुद्धवादी बहुसंख्यक राष्ट्र है, फिर भी इस पर हिन्दू धर्म का बहुत प्रभाव है।

लोकप्रिय थाई महाकाव्य रामकियेन रामायण पर आधारित है। थाइलैंड के प्रतीक ने गरुड़ को दर्शाया है, जो भगवान विष्णु के पुत्र हैं। बैंकॉक के पास थाई शहर अयुत्या, राम के जन्मस्थान अयोध्या के नाम पर है। ब्राह्मणवाद से प्राप्त कई अनुष्ठानों में संरक्षित किया जाता है; जैसे कि पवित्र तारों का उपयोग और शंख से पानी डालना। यहाँ दुकानों के बाहर विशेष रूप से कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में; धन, भाग्य और समृद्धि (लक्ष्मी का संस्करण) के देवता के रूप में नंग क्वाक की मूर्तियाँ मिलती हैं।

5वीं शताब्दी की शुरुआत में कंबोडियन रानी कुलप्रभावती ने अपने अधिकार में एक विष्णु मन्दिर के लिए धनराशि दी थी। खमेर साम्राज्य में भी उसके क्षेत्र में हिन्दू परम्पराओं की शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए शिव और विष्णु के विशाल मन्दिर बनाये गये थे। अंगकोर वट, जो कंबोडिया का एक प्रतिष्ठित प्रतीक है; पर राष्ट्रीय ध्वज दिखायी देता है, जो आगंतुकों के लिए देश का प्रमुख आकर्षण है। यह कंबोडिया में एक मन्दिर परिसर है और 162.6 हेक्टेयर (402 एकड़) क्षेत्र में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक है। मूल रूप से यह भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मन्दिर था। हालाँकि धीरे-धीरे 12वीं शताब्दी के अन्त में यह बौद्ध मन्दिर में तब्दील हो गया। अंगकोर वट खमेर मन्दिर वास्तुकला की दो बुनियादी योजनाओं को जोड़ता है- मन्दिर पर्वत और बाद में गैलरी-नुमा मन्दिर।

यह हिन्दू पौराणिक कथाओं में देवों के घर माउंट मेरू का प्रतिनिधित्व करने के लिए बनाया गया है। मन्दिर के केंद्र में मीनारों का एक समूह है। अधिकांश अंगकोरियाई मन्दिरों के विपरीत अंगकोर वट पश्चिम में उन्मुख किया गया है। इसके महत्त्व को लेकर विद्वानों के मत विभाजित हैं। अब तक के सबसे बड़े हिन्दू मन्दिरों में से एक इस मन्दिर में दुनिया की सबसे बड़ी नक्काशी है, जिसमें दूध के समुद्र के मंथन को दर्शाया गया है। यह भारतीय वास्तुकला का एक मामूली विषय है; लेकिन खमेर मन्दिरों में प्रमुख कथाओं में से एक है। दक्षिण अमेरिका में हिन्दू धर्म कई देशों में पाया जाता है। लेकिन गुयाना और सूरीनाम की इंडो-कैरिबियन आबादी में यह सबसे मज़बूत है।

दक्षिण अमेरिका में लगभग 5,50,000 हिन्दू हैं। मुख्य रूप से गुयाना में भारतीय बँधुआ मज़दूरों के वंशज हैं। गुयाना में लगभग 2,70,000 हिन्दू, सूरीनाम में 1,20,000 और कुछ अन्य फ्रेंच गुयाना में हैं।

गुयाना और सूरीनाम में हिन्दू इसे दूसरा सबसे बड़ा धर्म बनाते हैं, वहीं कुछ क्षेत्रों और ज़िलों में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। हाल के वर्षों में सनातन प्रभाव ने अपनी पहुँच को दूर-दूर तक फैलाया है, जो मुख्य रूप से इस्कॉन और अन्य हिन्दू दर्शन-शास्त्रीय संगठनों के प्रयासों के कारण है, जो अपने भक्ति सत्रों को बहुत उत्साह और आनन्दपूर्ण तरीके से करते हैं। सनातन धर्म ग्रन्थ विश्व स्तर पर लोगों को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं।

पैतृक सम्पत्ति में बेटी का भी बराबर हक

हिन्दू कानून में सुधार के लिए सन् 1941 से लेकर सन् 1956 तक यानी 15 वर्षों की अवधि तक मंथन होता रहा। हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार अधिनियम-1937 की विसंगतियों को देखने के लिए सन् 1941 में हिन्दू कानून समिति की स्थापना की गयी थी। सन् 1944 में फिर दूसरी हिन्दू कानून समिति का गठन किया गया। कानून के जानकारों और जनता की राय लेने के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसकी सिफारिशों पर संसद में सन् 1948 और सन् 1951 के बीच और फिर सन् 1951-1954 के बीच कई दफा बहस हुई। चार प्रमुख बिन्दुओं को लेकर सन् 1955-56 में इसे पारित किया जा सका। बाद में इसने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 का रूप लिया। इसके तहत महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार यानी संयुक्त हिन्दू परिवार में विरासत के अधिकार को मान्यता दी गयी। हालाँकि तब भी बेटी को को-पार्सनर (सम उत्तराधिकारी) का दर्जा नहीं दिया गया।

महिलाओं के अधिकारों पर भ्रम की स्थिति

भारत में पुरखों की सम्पत्ति अधिकार पर शास्त्र और परम्परागत कानूनी प्रावधानों का पालन किया जाता रहा है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। प्रधान पक्ष दो हैं- मिताक्षरा और दायभाग। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है; जबकि दायभाग जिमुतवाहन की कृति है। मिताक्षरा के अनुसार, पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है।

नतीजे के तौर पर हिन्दुओं के बीच सम्पत्ति कानून भिन्न थे; जिन पर महिलाओं के साथ भेदभाव किया गया और इनमें पुरुषों के पक्ष में स्वामित्व के अधिकार दिये गये। मिताक्षरा कानून के तहत एक हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों की चार पीढिय़ों पर संयुक्त रूप से जीवित रहने से विकसित हुई। स्वामित्व जन्म से था न कि उत्तराधिकार से। उनके जन्म के समय पुरुष सदस्य ने सम्पत्ति का अधिकार हासिल कर लिया। बंगाल में स्वीकृत दायभाग ने संयुक्त स्वामित्व या को-पार्सनरी की धारणा को नहीं अपनाया।

चूँकि पहले महिलाएँ को-पार्सनरी (सम उत्तराधिकार) का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए उनके पास संयुक्त स्वामित्व का सैद्धांतिक अधिकार भी नहीं था। इस तरह वे अपने हिस्से की माँग नहीं कर सकती थीं। सिर्फ पत्नियाँ ही इस तरह के लिंगभेद की शिकार नहीं थीं, बल्कि जब मालिकाना हक दिये जाने की बात आती, तो बेटियों को भी इसी तरह वंचित रखा जाता था। हिन्दू कानून के पूरे इतिहास में पहली बार सन् 1937 अधिनियम के आधार पर महिलाओं को सम्पत्ति रखने और निपटान के अधिकार को वैधानिक मान्यता मिली। यहाँ तक कि अगर महिलाओं को सम्पत्ति के स्वामित्व की अनुमति दी गयी थी, तो यह केवल एक जीवन हित था, जो उनकी मृत्यु पर उसे मूल स्रोत पर लौट जाता था। महिलाएँ दो प्रकार की सम्पत्ति की मालकिन हो सकती थीं-स्त्रीधन और और विमेंस एस्टेट। हालाँकि उसके नाम की यह सम्पत्ति हमेशा ही बेहद कम रही। उसके पास दावा करने का शायद माद्दा भी नहीं था, साथ ही उसे अपने अधिकारों के बारे में जानकारी भी नहीं थी।

स्त्रीधन को हिन्दू महिलाओं की सम्पूर्ण सम्पत्ति माना जाता है। इसके तहत उसके पास अपने विवाह और विधवापन के दौरान बेचने, उपहार, बन्धक, पट्टे या विनिमय करने जैसी शक्तियाँ थीं; लेकिन उसकी शादी होने पर उसकी शक्ति पर कुछ पाबंदिया लगा दी थीं। इसलिए महिलाओं ने इस पर पूर्ण नियंत्रण का आनन्द नहीं लिया। क्योंकि स्त्रीधन के कुछ मामलों में उनको अपने पति की सहमति लेनी ज़रूरी थी। हिन्दू महिलाओं को बेहद सीमित स्वामित्व दिया गया था, जिसने अपनी सम्पत्ति को महिलाओं की सम्पत्ति या विधवा की सम्पत्ति के रूप में जाना।

सन् 1937 के अधिनियम के आधार पर विधवा के पास निपटान की सीमित शक्ति थी, यानी वह कानूनी आवश्यकता को छोड़कर पति की मौत के बाद अलग नहीं कर सकती थी। उसकी मृत्यु पर यह महिलाओं की सम्पत्ति अन्तिम पूर्ण मालिक के वारिसों को वापस कर देती थी। सन् 1956 में लैंगिक असमानताओं का ज़िक्र किया गया और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-14 ने महिलाओं की सम्पत्ति की इस अवधारणा को खत्म कर दिया। लेकिन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 ने को-पार्सनर प्रणाली को बरकरार रखा, जिसके परिणामस्वरूप पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ। महिलाओं को को-पार्सनर नहीं

माना गया। मिताक्षरा परिवारों की बेटियों को समान अधिकारों से वंचित रखा गया। कई लोगों ने इसे महिलाओं के सम्पत्ति अधिकारों से वंचित रखने के तौर पर देखा।

हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 में बेटियों के अधिकार

9 सितंबर, 2005 को 39 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 में संशोधन किया गया। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के अनुसार, हर बेटी, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित; को पिता के हिन्दू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) का सदस्य माना जाता है और उसे उसकी एचयूएफ सम्पत्ति की कर्ता के रूप में भी नियुक्त किया जा सकता है। सन् 2005 का संशोधन अब बेटियों को उन्हीं अधिकारों, कर्तव्यों, देनदारियों को प्रदान करता है, जो उनके जन्म के आधार पर अभी बेटों तक सीमित था। अब परिवार की महिलाएँ भी को-पार्सनर हैं। संशोधन अधिनियम-2005 ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-4 (2) को हटा दिया और पुरुषों के समान कृषि भूमि में महिलाओं के उत्तराधिकार का मार्ग प्रशस्त किया। संशोधन ने भेदभावपूर्ण राज्य-स्तरीय अन्य कानूनों को खत्म कर दिया है और कई महिलाओं को लाभान्वित किया है, जो अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम-2005 ने मिताक्षरा को-पार्सनरी में बेटियों के अधिकारों से सम्बन्धित एक बहुत ही प्रासंगिक मामले को सम्बोधित किया है। इसमें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में संशोधन करके एक बेटी के अधिकार को बढ़ाया है। संशोधित धारा-6 में सम्पत्ति में बेटियों को भी समान हक दिया गया है। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के लागू होने के साथ ही धारा-6 (1) मिताक्षरा कानून द्वारा शासित एक संयुक्त परिवार में एक बेटी, बेटे की तरह ही जन्म से ही को-पार्सनर बन जाएगी। बेटी के पास समान भी सम्पत्ति पर बेटे की ही तरह अधिकार होंगे, जिनको उसके अधीन किया जाएगा।

एक पुत्र के रूप में को-पार्सनर सम्पत्ति में बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार होगा और हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनर के किसी भी सन्दर्भ को बेटी के सन्दर्भ में शामिल किये जाने के तौर पर समझा जाएगा। लेकिन संशोधन के ज़रिये एक बेटी को दिये गये लाभों का फायदा केवल तभी मिल सकता है, जब उसके पिता का निधन 9 सितंबर, 2005 के बाद हुआ हो और बेटी केवल सह-हिस्सेदार बनने के योग्य हो सकती है साथ ही पिता और पुत्री दोनों के 9 सितंबर, 2005 तक जीवित होने की शर्त थी। इसके साथ ही अधिनियम की धारा-23 में महिला वारिस को संयुक्त परिवार के पूर्ण आवास में हिस्सेदार माना गया है; जब तक कि पुरुष उत्तराधिकारी अपने सम्बन्धित शेयरों को विभाजित करने का विकल्प नहीं चुनते हैं। संशोधन अधिनियम में इसे छोड़ दिया गया था। 174वें विधि आयोग की रिपोर्ट ने भी हिन्दू उत्तराधिकार कानून में इस तरह के सुधार की सिफारिश की गयी थी। कानूनी व्यवस्था में लैंगिक भेद को दूर करते हुए अधिनियम में संशोधन करके यह सुनिश्चित किया कि मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में एक को-पार्सनर की बेटी जन्म से ही बराबर की हिस्सेदार बन जाएगी, जिस तरह से बेटा को-पार्सनर प्रॉपर्टी में अधिकार रखता है। बेटी को भी बेटे जितना ही हिस्सा प्रदान किया जाए।

कैसे सामने आया मामला?

सन् 2005 के कानून में जब महिलाओं को समान अधिकार दिये गये थे, इसे बावजूद कई मामलों में सवाल उठाये गये थे कि क्या कानून पूरी तरह से लागू होता है और महिलाओं के अधिकार पिता के जीवित रहते हुए क्या होते हैं या विरासत में इनको क्या मिलता है? इस तरह कई सवाल सामने आये थे। ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी फैसले देकर मुद्दे को और जटिल बना दिया था। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी शीर्ष अदालत के विभिन्न विचारों को बाध्यकारी मिवर्षों के रूप में पालन किया था। प्रकाश वी. फूलवती (2015) मामले में न्यायमूर्ति ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि 2005 के संशोधन का लाभ केवल 9 सितंबर, 2005 (कानून में संशोधन लागू होने की तिथि सेे) को जीवित को-पार्सनर की बेटियों को दिया जा सकता है। फरवरी, 2018 में सन् 2015 के फैसले के विपरीत न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने कहा कि सन् 2001 में मृत्यु हो चुकी एक पिता की हिस्सेदारी भी 2005 के कानून के अनुसार सम्पत्ति के विभाजन के दौरान उनकी बेटियाँ को-पार्सनर के रूप में होंगी। उसी साल अप्रैल में जस्टिस आर.के. अग्रवाल की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने सन् 2015 में लिये गये फैसले की स्थिति को ही दोहराया।

अब एक कदम और आगे

समान अधिकार को लेकर अदालतों की अलग-अलग पीठ द्वारा परस्पर विरोधी फैसलों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में तीन सदस्यों की पीठ के समक्ष लाया गया। इसमें वर्तमान पीठ ने सन् 2015 और अप्रैल, 2018 के फैसले को पलटते हुए मामले का निपटारा कर दिया। इसमें कहा गया कि 2005 के कानून का मकसद ही था कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में निहित भेदभाव को दूर करके बेटियों को समान अधिकार प्रदान किये जाएँ। हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनरी सम्बन्धी सम्पत्ति में बेटों की तरह ही अधिकार दिये गये। 11 अगस्त, 2020 को लैंगिक मतभेद को मिटाने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि बेटियों को पैतृक सम्पत्ति पर समान अधिकार होगा।

कोर्ट ने कहा कि बेटा तभी तक बेटा रहता है, जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती; लेकिन बेटी ताउम्र बेटी रहती है। हिन्दू उत्तराधिकार कानून-1956 की धारा-6 का प्रावधान संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुई बेटी को बेटे की तरह ही समान अधिकार और दायित्व प्रदान करता है। पीठ ने कहा कि 9 सितंबर, 2005 से पहले जन्मी बेटियाँ धारा-6 (1) के प्रावधान के तहत 20 दिसंबर, 2004 से पहले बेची या बँटवारा की गयी सम्पत्तियों में हिस्सा माँग सकती हैं। चूँकि को-पार्सनरी (समान हक) का अधिकार जन्म से ही है; लिहाज़ा यह आवश्यक नहीं है कि 9 सितंबर, 2005 को कानून के अमल में आने से पहले पिता जीवित ही होना चाहिए।

(लेखिका नेशनल यूनिवॢसटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ की डीन तथा एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)