मुंबई : महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मतदान से पहले बीजेपी महासचिव विनोद तावड़े पर पैसे बांटने के आरोप में चुनाव आयोग ने एफआईआर दर्ज कराई है। कथित तौर पर पैसे बांटने की ये घटना उस वक्त सामने आई जब तावड़े और स्थानीय नेता राजन नाइक होटल पहुंचे थे। इसी दौरान बहुजन विकास अघाड़ी के कार्यकर्ताओं ने उनको घेर लिया। इस मामले में आयोग के अफसरों ने विनोद तावड़े और भाजपा कैंडिडेट राजन नाइक के खिलाफ लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत FIR दर्ज कराई है।
हितेंद्र ठाकुर की बहुजन विकास अघाड़ी के विधायकों ने आरोप लगाया कि तावड़े मंगलवार को 5 करोड़ रुपए लेकर विरार इलाके की एक होटल पहुंचे। उनके साथ नालासोपारा सीट से भाजपा प्रत्याशी राजन नाइक और दूसरे कार्यकर्ता भी थे। यहां उनकी मीटिंग चल रही थी। BVA के मुताबिक होटल में वोटर्स को पैसे बांटे जा रहे थे। जानकारी मिलने पर हितेंद्र ठाकुर और उनके बेटे क्षितिज ठाकुर भी होटल पहुंचे। BVA और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच जमकर विवाद हुआ। क्षितिज ठाकुर नालासोपारा सीट से BVA उम्मीदवार भी हैं। हितेंद्र ठाकुर ने यह भी आरोप लगाया है कि तावड़े के पास से नकदी के अलावा दो डायरियां भी बरामद हुईं।
दिखावे एवं छलावे की राजनीति जनता का मन अधिक दिनों के लिए नहीं मोह सकती। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सबसे हिट डायलॉग बँटोगे, तो कटोगे के नारे में यही सब दिखा। जनता के भांप लेने के उपरांत इस नारे में भाजपा ने परिवर्तन करके इसे सुपरहिट डायलॉग बनाते हुए बँटेंगे, तो कटेंगे कर दिया है। बँटोगे, तो कटोगे से बँटेंगे, तो कटेंगे कहकर भाजपा अपने कार्यों के दृश्यों को जन जन के मस्तिष्क से विस्मृत करने एवं उसे ये समझाने में लगी है कि तुम्हारे बँटने से तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है। अत: सभी एकजुट होकर केवल भाजपा का समर्थन करो। यहाँ स्पष्ट कर देना अच्छा है कि भाजपा यह बात हिन्दुओं को समझाना चाहती है। मगर उसके इस समझाने में भय दिखाया जा रहा है, जिसमें कटने का भय स्पष्ट दिख रहा है।
बँटोगे, तो कटोगे से लेकर बँटेंगे, तो कटेंगे का नारा भले ही पूरे देश में भाजपा का सुपरहिट डायलॉग बन गया हो, मगर यह डायलॉग भाजपा के लिए करिश्मा कर पाएगा, इसमें अभी संदेह है। राजनीति के कई जानकार मान रहे हैं कि भाजपा का यह नारा उसकी भविष्य की राजनीति के समापन के अध्याय की ओर संकेत करता दिख रहा है। क्योंकि एक ओर तो भाजपा हिन्दुओं की साधने के प्रयास में लगी है, जिसके चलते योगी ने यह नारा गढ़ा है; मगर दूसरी ओर भाजपा में अंदर-ही-अंदर विकट फूट पड़ी हुई है, जो भाजपा की हर बैठक में स्पष्ट दिखायी देती है।
कई चुनाव लड़ चुके उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार ओमप्रकाश कहते हैं कि राजनीति में ऐसे दाँवपेंच चलने ही पड़ते हैं। इसमें किसी पार्टी को अलग दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। यहाँ राजनीति का चौसर बिछा है, जहाँ हर पार्टी अपने प्यादों को बड़ी सोच समझ के साथ इस प्रकार लगाकर रखती है कि किसी भी हाल में राजा मर न जाए। भाजपा भी यही कर रही है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। हर पार्टी स्वयं को सृदृढ़ एवं बड़ा करने के प्रयास में लगी है।
भाजपा के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में बँटेंगे, तो कटेंगे के नारे को लेकर अत्यधिक उत्साह है। वे हर स्थान पर आमजन को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नारे का सही अर्थ क्या है। भाजपा कार्यकर्ता विमलेश कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूरे देश को एकजुट होने का संदेश दे चुके हैं। अब इसका अर्थ जिसे जो भी निकालना हो निकालता रहे। भाजपा के एक अन्य कार्यकर्ता प्रमोद कहते हैं कि बँटेंगे, तो कटेंगे का नारा हम सबको यह बताने के लिए है कि हमें अब हिन्दू राष्ट्र के लिए एकजुट हो जाना चाहिए। हमारे बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव हमें ही हानि पहुँचाने वाला है।
योगी के आगे अड़चनें
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनके समर्थक हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं। उनकी समझ में भाजपा में योगी आदित्यनाथ से बड़ा कोई दूसरा नेता ही नहीं है। कई बार ऐसा हुआ है कि योगी आदित्यनाथ को देश का प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम चली हैं। उन्हें देश का भावी प्रधानमंत्री कहकर उनके समर्थक उनका क़द बढ़ाने के प्रयास में लगे हुए हैं। अभी उनके दिये नारे बँटोगे, तो कटोगे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का खुला समर्थन मिलने के उपरांत योगी के समर्थकों का मनोबल बढ़ा है।
अब योगी आदित्यनाथ जिधर भी जा रहे हैं उनके समर्थक एक बड़ी भीड़ के रूप में वहीं जा जुटते हैं। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने बँटेंगे, तो कटेंगे नारे को जीवन के मंत्र जैसा बताकर योगी आदित्यनाथ एवं उनके समर्थकों का मनोबल बढ़ा दिया है। मथुरा स्थित गऊ ग्राम परखम के दीनदयाल उपाध्याय गौ विज्ञान एवं अनुसंधान केंद्र में 25-26 अक्टूबर को हुई संघ की वार्षिक बैठक के दौरान पत्रकारों एवं संघ भाजपा पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं के बीच उन्होंने स्पष्ट कहा कि बँटेंगे, तो कटेंगे को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। यह हिन्दू एकता एवं लोक कल्याण के लिए आवश्यक है। उनका दावा है कि लोग हिन्दुओं को तोड़ने के लिए काम कर रहे हैं। एक मुहिम के अंतर्गत केरल में 200 लड़कियों को लव जिहाद से बचाया है। इसके अतिरिक्त योगी आदित्यनाथ से युवा भी नाराज़ हैं। कई बार नौकरी माँगने वालों पर उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रशासन लाठीचार्ज कर चुका है। इसके अलावा पेपर लीक और उसके बाद भर्तियाँ कैंसिल होने की घटनाएँ भी हो चुकी हैं। प्रदर्शन करने वालों पर लाठीचार्ज ही होता है। बुलडोज़र कार्रवाई से भी बहुत लोग परेशान हैं। युवाओं को नौकरियाँ न मिलने से बेरोज़गारी बढ़ रही है।
विपक्ष के पास नहीं नारे की काट
योगी आदित्यनाथ के नारे बँटोगे, तो कटोगे को भाजपा ने सुधारते हुए बँटेंगे, तो कटेंगे तो कर लिया; मगर सोशल मीडिया पर इस नारे के अनेक अर्थ निकलने लगे हैं। कोई इस नारे के पक्ष में है एवं हिन्दुओं को एकजुट होने की सलाह अथवा चेतावनी दे रहा है तो कुछ लोग यह बताने में लगे हैं कि भाजपा लोगों को डरा रही है कि अगर आपने हमें एकजुट होकर समर्थन एवं मत नहीं दिये, तो हम आपको काट भी सकते हैं। कुछ लोग इसे सकारात्मक लेकर हिन्दुओं एवं मुसलमानों को एकजुट होकर भाजपा को राजनीति से निष्कासित करने का आह्वान कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जो हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दे रहे हैं एवं जो भाजपा को ही बाँटने एवं काटने वाला बता रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपनी एक जनसभा में हिन्दुओं को एकजुट होने का आग्रह किया था। उन्होंने संकेत किया कि विपक्षी पार्टियाँ मुसलमानों की पक्षधर हैं एवं उनका प्रयास यही है कि मुसलमान एकजुट होकर ताक़तवर बनें एवं हिन्दू जातियों के आधार पर विभाजित होकर बिखर जाएँ। यह सच है कि भाजपा के बँटोगे, तो कटोगे नारे की काट विपक्ष के पास नहीं है। कांग्रेस इतना ही कह सकी है कि बाँटने वाली भी भाजपा है एवं काटने वाले भी भाजपा ही है। मगर भाजपा के इस नारे की सही काट अभी तक किसी भी राजनीतिक पार्टी ने प्रस्तुत नहीं की है।
बँटे हुए हैं भाजपा नेता
बँटोगे, तो कटोगे से बँटेंगे, तो कटेंगे तक भाजपा नेताओं ने सुधार की नीति तो अपना ली; मगर आपसी फूट को लेकर कोई सुधार नहीं किया है। सच तो यह है कि हिन्दुओं को अपने पाले में करने के लिए सारे पापड़ बेलते हुए साम दाम दंड भेद की राजनीति कर रहे भाजपा नेता आपस में ही एकजुट नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अपने ही कई मंत्रियों एवं विधायकों से नहीं बनती है। कई बार यह विरोध खुलकर सामने आ चुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की केंद्र सरकार में भी अधिकतर मंत्रियों एवं सांसदों से नहीं बनती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह समेत उनके समर्थकों से योगी का छत्तीस का आँकड़ा रहना किसी से छिपा नहीं है। लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मनचाहे परिणाम नहीं आने के उपरांत भाजपा द्वारा गंवाए हुए संसदीय क्षेत्रों में हार के कारण जानने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जितनी भी समीक्षा बैठकें आयोजित कीं, उनमें कई भाजपा नेता एवं मंत्री नहीं पहुँचे। उत्तर प्रदेश के दोनों ही उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य एवं दिनेश शर्मा इन बैठकों के आसपास भी नहीं दिखे। उत्तर प्रदेश में सन् 2017 में विधानसभा चुनाव जीतने के उपरांत योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनते ही राज्यपाल के रूप में केंद्र सरकार ने आनंदीबेन पटेल को भेज दिया। राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री के बीच भी मतभेदों को लेकर कई बार समाचार आये; मगर उनके बीच खुलकर कभी कोई विवाद होता दिखायी नहीं दिया।
योगी के समर्थक होंगे इधर-से-उधर?
उत्तर प्रदेश में रिक्त पड़ी 10 विधानसभा सीटों में से नौ विधानसभा सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होना है। उपचुनाव में रिक्त पड़ी सीटों पर जीत के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सारे घोड़े खोल दिये हैं। उनका नारा बँटोगे, तो कटोगे भले ही भाजपा के सभी नेता भुना रहे हैं; मगर सभी नेता इस नारे से प्रसन्न नहीं दिख रहे हैं। जानकार कहते हैं कि उन्हें योगी का बढ़ता क़द अखर रहा है। मगर योगी आदित्यनाथ का क़द इस नारे ने बढ़ा दिया है। हालाँकि योगी आदित्यनाथ का असली क़द उपचुनाव के परिणाम सामने आने पर तय होगा। क्योंकि पिछले चुनावों के परिणामों में उनका क़द घटा है, जिसका ठीकरा उनके समर्थकों ने यह कहकर फोड़ दिया है कि चुनावों में योगी की राय से न टिकट बँटे एवं न ही चुनाव लड़ा गया। मगर अब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने बड़ी चतुराई से उपचुनाव के रथ की लगाम उन्हें थमा दी है। अगर योगी आदित्यनाथ इस उपचुनाव में 6-7 सीटें भी निकाल ले जाते हैं, तो उनका क़द बढ़ेगा अन्यथा उनका क़द भी घटेगा एवं उनके समर्थक मंत्रियों एवं पदाधिकारियों की भी शक्ति कम की जा सकती है।
वास्तव में 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मनचाहे परिणाम न मिलने से उत्तर प्रदेश में उथल पुथल मची हुई है। कई समीक्षा बैठकें अब तक उत्तर प्रदेश में हो चुकी हैं एवं अब उपचुनाव में भाजपा नेताओं ने पूरी शक्ति झोंक दी है। ऐसे में अगर योगी आदित्यनाथ इन नौ सीटों पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाये, तो भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई में बड़ा बदलाव निश्चित है।
भाजपा नेतृत्व ने संगठनात्मक बदलावों की प्रक्रिया के संकेत भी दे दिये हैं। एक भाजपा नेता ने नाम प्रकाशित न करने की विनती करते हुए बताया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जितने मज़बूत होंगे, उनके विरोधी उतने ही कमज़ोर होंगे। उनके विरोधी केवल विपक्ष में ही नहीं हैं अंदर भी कई हैं। योगी का लक्ष्य पूरे देश पर शासन करने का है; मगर उनकी राह में कुछ लोग रोड़ा बन रहे हैं। योगी के मंत्रिमंडल में बदलाव तो तय हैं; मगर यदि योगी आदित्यनाथ उपचुनाव में अच्छे परिणाम नहीं दे पाये, तो उनके कई निकटतम लोगों को इधर-उधर किया जा सकता है।
पार्टी के कुछ बड़े नेताओं को अहम भूमिकाओं में लाया जा सकता है। यह बदलाव संगठन एवं योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल तक में किया जाएगा। प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई बड़े पदाधिकारी एवं मंत्री इस बदलाव से प्रभावित होंगे, जिससे कुछ की शक्तियाँ कम हो जाएँगी एवं कुछ की शक्तियाँ बढ़ जाएँगी। संगठन से लेकर सरकार तक बड़े पदों की चाहत रखने वाले नेता लखनऊ से दिल्ली तक दौड़ रहे हैं। नये सिरे से पूरी समीक्षा हो रही है एवं बूथ स्तर की समितियों से लेकर ऊपर तक बड़े बदलाव होने तय हैं।
कनाडा तक पहुँचा भाजपा का नारा
कनाडा में जो कुछ हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। कनाडा के ब्रैम्पटन में हिन्दू सभा के मंदिर के पास भक्तों पर हमले को भारत सरकार ने खालिस्तानी चरमपंथियों की हिंसात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाला बताते हुए कनाडा सरकार की निंदा की है। मगर कनाडा के ही कुछ लोग इसे भारत सरकार का ही हरदीप सिंह निज्जर के हत्याकांड की तरह एक षड्यंत्र बता रहे हैं। भारत सरकार का कहना है कि कनाडा की सरकार खालिस्तान के समर्थकों को बढ़ावा दे रही है। निज्जर हत्याकांड के उपरांत अब लारेंस बिशनोई को बढ़ावा दिये जाने एवं योगी आदित्यनाथ के नारे बँटोगे, तो कटोगे के उपरांत कनाडा में यह तीसरी बार है, जब वहाँ एक चिंगारी भड़क गयी है, जहाँ सदियों से एक दूसरे के साथ रहने वाले हिन्दुओं एवं सिखों के बीच विरोध एवं विद्रोह की दरार पैदा हो चुकी है। कनाडा में हिंसा का जो वीडियो सामने आया, उसमें संत वेशभूषा में कुछ लोग कहते दिख रहे हैं कि ‘ये मत सोचना कि यह हमला सिर्फ़ हिन्दू सभा के ऊपर हुआ है। यह हमला पूरी दुनिया में मौज़ूद हिन्दू समाज के ऊपर हुआ है। हम किसी का भी विरोध नहीं करते। कोई हमारा विरोध करेगा तो हम नहीं सहेंगे।’
कनाडा में इस विवाद के उपरांत वहाँ के भारतीय राजनयिक मिशन की सुरक्षा को लेकर केंद्रीय विदेश मंत्रालय ने चिन्ता व्यक्त की है। इस विवाद के कारण भारत के वाणिज्य दूतावास को अपने टोरंटो के कार्यक्रम रद्द करने पड़े हैं। वहाँ के भारतीय सुरक्षा अधिकारियों ने कुछ निर्धारित शिविर रद्द कर दिये हैं। विदेश मंत्री जयशंकर एवं ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री पेनी वांग की साझा पत्रकार वार्ता को दिखाने वाले चैनल को कनाडा ने ब्लॉक कर दिया है। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के भारत के प्रति रवैये को भारतीय विदेश मंत्रालय ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा इसे राष्ट्रों की स्वतंत्रता पर हमला एवं कनाडा का पाखंड बताया है।
‘भाषाएँ पूर्णत: कुशल तथा लिखित साहित्य का माध्यम बनती हैं।’ -यह साहित्य की परिभाषा है। लेकिन भाषाएँ अलगाववाद एवं राष्ट्रीय वितंडा पैदा करने का माध्यम भी बनती हैं। -यह राजनीति की परिभाषा है। डीएमके के सिनेमाई युवराज एवं तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने उक्त उक्ति को चरितार्थ किया है। सनातन धर्म के विरुद्ध विषवमन के पश्चात् उन्होंने अब हिन्दी-विरोध में बयानबाज़ी शुरू की है। पिछले दिनों उन्होंने यह आरोप लगाया कि राज्य में हिन्दी थोपने की कोशिश की जा रही है। उनका यह भी आक्षेप है कि दूरदर्शन के तमिल कार्यक्रम के दौरान तमिल गान (राज्य गान) से जानबूझकर कुछ शब्द हटाये गये हैं। वह नयी शिक्षा-नीति को भी हिन्दी थोपने की मुहिम बताकर उसका विरोध कर रहे हैं। वैसे तमिल बनाम हिन्दी का वितंडा नया नहीं है।
ध्यातव्य है कि संविधान सभा ने 1949 में हिन्दी को राष्ट्रीय राजभाषा का दर्जा प्रदान किया था। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद इसे 15 साल का ग्रेस पीरियड मिला। यह मीआद 1965 को समाप्त होने वाली थी। उसी वर्ष यानी 1965 में एकेडमी ऑफ तमिल कल्चर ने एक प्रस्ताव के माध्यम से यह माँग की कि केंद्र एवं राज्य तथा एक राज्य से अन्य राज्यों के बीच होने वाले प्रशासनिक पत्राचार के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल पूर्ववत् बना रहे। इसके प्रस्तावकों में रामास्वामी पेरियार, राजगोपालाचारी, सी.एन. अन्नादुरई जैसी श$िख्सयतें शामिल थीं। तब डीएमके ने इसे द्रविड़ अभियान के रूप में शुरू किया और इसको दक्षिण के राज्यों पर हिन्दी थोपने की मुहिम के रूप प्रचारित किया। डीएमके के सर्वोच्च नेता सी. अन्नादुरई तो हिन्दी-विरोध में इतने उग्र हो गये कि हिन्दी को एक विशेषताहीन, विज्ञान और तकनीक के इस युग में फिट न होने लायक पिछड़ी क्षेत्रीय भाषा बताने लगे। इसी परिपेक्ष्य में बताते चलें कि द्रविड़ आन्दोलन की व्यवस्थित शुरुआत 1916 में जस्टिस पार्टी की स्थापना के साथ हो गयी थी। हालाँकि द्रविड़नाडु आन्दोलन रामास्वामी पेरियार द्वारा 1938 में पूरे भारत में शिक्षा हेतु हिन्दी की अनिवार्यता की योजना के प्रतिक्रियास्वरूप प्रारम्भ किया गया, जिसे बाद में उनके सहयोगियों- अन्नादुरई एवं करुणानिधि आदि द्वारा पोषित किया गया। इसी विचारधारा की प्रतिनिधि डीएमके ने अलगाववादी रुख़ अपनाकर तमिल अस्मिता के नाम पृथक द्रविड़नाडु की माँग प्रारम्भ की थी, जिसमें बाद में द्रविड़ आबादी के रूप में दक्षिण के बाक़ी राज्यों- आंध्र, केरल, कर्नाटक में प्रसारित करते हुए डेक्कन फेडरेशन का नाम दिया गया। हालाँकि 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान इस अलगाववादी द्रविड़नाडु विचार का परित्याग कर दिया गया; लेकिन हिन्दी-विरोध की राजनीति चलती रही।
हालाँकि पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार पहले ही यानी 1963 में संसद में ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट पास करवाया था, जो 1965 के बाद भी हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी के प्रयोग की स्वीकारोक्ति थी। लेकिन राजनीतिक कुटिलता में डीएमके ने पूरे तमिलनाडु को उपद्रव की आग में झोंक दिया। राज्य के सैकड़ों गाँवों में हिन्दी के पुतले और हिन्दी की किताबें, यहाँ तक कि हिन्दी में लिखी संविधान की प्रतियाँ तक जलायी गयीं। सरकारी संस्थानों रेलवे स्टेशनों, डाकघरों आदि पर लगे हिन्दी के चिह्नों, वाक्यों पर कालिख पोती गयी। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से गणतंत्र दिवस के दिन मद्रास में दो व्यक्तियों ने आत्मदाह कर लिया और तिरुची में एक व्यक्ति ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली। इसके बाद आन्दोलन ने और भयंकर रूप धारण कर लिया। राज्य भर में आन्दोलनकारियों और पुलिस में भीषण झड़प हुई। हालाँकि प्रबल रूप से हिन्दी के समर्थक प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री इस बात के लिए प्रतिबद्ध थे कि संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होनी चाहिए। उधर मोरारजी देसाई तो यह घोषणा कर रहे थे कि हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने का कार्य 50 के दशक में ही हो जाना चाहिए था; लेकिन आन्दोलन की बढ़ती उग्रता और सरकार पर अति दबाव के कारण प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भाषा-सम्बन्धी पाँच आश्वासन जारी किये, जिनमें हरेक प्रान्त को अपनी क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी में कामकाज के अधिकार के साथ-साथ राज्यों के मध्य आपस में होने वाले पत्राचार को अंग्रेजी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा के साथ उसका प्रामाणिक अनुवाद दिया जाएगा। ग़ैर-हिन्दी भाषी राज्यों को केंद्र के साथ अंग्रेजी में पत्राचार एवं इस नियम में कोई भी परिवर्तन उनकी सहमति से ही होगी। केंद्रीय स्तर पर प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा एवं अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षाएँ अंग्रेजी में होती रहेंगी; आदि थे।
इन सारे क़ानूनी तथ्यों के बावजूद डीएमके की ओर से आये दिन औचित्यहीन भाषा सम्बन्धी विवाद पैदा करने का तुक समझना फिर भी कठिन नहीं है। असल में जयललिता की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् एआईएडीएमके तेज़हीन और तमिलनाडु की राजनीति मानो विपक्षहीन हो गयी है। इस कारण डीएमके सरकार लगामहीन और पथ भ्रष्ट हो चुकी है। तमिलनाडु की जनता में शासन को लेकर एंटी-इनकंबेंसी और तीव्र असंतोष व्याप्त है। जमात और मिशनरियों के दबाव में सरकार जिस तरह हिन्दू-विरोधी कृत्यों में लिप्त है, उससे धार्मिक गोलबंदी की संभावना बढ़ रही है। इससे भाजपा के लिए एक मुफ़ीद राजनीतिक समर्थन की ज़मीन तैयार होती जा रही है, और इसे डीएमके भी महसूस कर रही है। ऐसे में भाषा और क्षेत्रवाद के संकीर्ण मुद्दों के माध्यम से पार्टी नेतृत्व स्थानीय मामलों से तमिल जनता को भटकाने के साथ ही उनकी गोलबंदी में जुटी है। यह अनायास नहीं है कि डीएमके के सिनेमाई युवराज उदयनिधि स्टालिन आये दिन संकुचित मुद्दों के आधार पर विवादित बयानबाज़ी में लगे रहते हैं।
हालाँकि परिवार की लंबी राजनीतिक विरासत को देखकर भी उन्हें इस मूलभूत मुद्दे की समझ नहीं हो पायी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे काठ की हांडी होते हैं, जो बार-बार राजनीति के चूल्हे पर नहीं चढ़ाये जा सकते। आज करुणानिधि के पोते उदयनिधि स्टालिन अतीत की जिस सफल राजनीतिक मुहिम के द्वारा स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, वैसी कोशिशें पहले भी ख़ूब हुई हैं और असफल ही रही हैं। उदाहरणस्वरूप लालू यादव की सामाजिक गोलबंदी (अगड़ा-पिछड़ा की जातीय गुटबाज़ी) की सफल रणनीति का उनके बेटे तेजस्वी यादव ने भी पुन: प्रयोग करने का प्रयास किया; लेकिन बीते लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों में उन्हें कुछ ख़ास हाथ नहीं लगा और वह काफ़ी सफल होकर भी असफल ही रहे। बाल ठाकरे के दक्षिण-विरोध के नाम पर खड़ा मराठी मानुष और शिवसेना आन्दोलन की तर्ज पर मनसे की बिहारी भगाओ मुहिम असफल रहीं और अगले बाला साहेब बनने का राज ठाकरे का ख़्वाब आज भी अधूरा ही है। स्वयं राममंदिर आन्दोलन की भाँति भाजपा की काशी की ज्ञानवापी मस्जिद-विरोध एवं मथुरा का ईदगाह-विरोध की मुहिम अब तक हिन्दू समाज को आन्दोलित एवं गोलबंद करने में अक्षम रही है।
यह आवश्यक नहीं कि जनता हर क्षेत्रवाद, भाषा, पंथ के संकीर्ण मुद्दे पर आन्दोलित हो ही जाए। इससे पूर्व जम्मू-कश्मीर की भाँति कर्नाटक में राष्ट्रीय ध्वज से अलग प्रदेश के लिए झंडे के नाम पर पृथकतावादी क्षेत्रवाद की राजनीति करके कांग्रेस 2018 के विधानसभा के चुनाव में पराजित हो चुकी है। लेकिन डीएमके के युवराज इससे सीख नहीं ले पाये हैं। दि$क्क़त यह है कि वंशवाद से सत्तासीन अयोग्य लोगों को तो सत्ता प्राप्ति के रास्ते आसान ही लगते हैं। जैसा कि तेजस्वी यादव, राज ठाकरे और अब उदयनिधि स्टालिन के चाल-चरित्र से दिख रहा है। असल में वे यह नहीं समझ पाते कि तबसे लेकर अब तक इतिहास और समय के दरिया में काफ़ी पानी बह चुका है। और वैसे भी ऐसे वंशवादियों से सकारात्मक राजनीति की उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए; जो स्वयं ही एक नकारात्मक परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।
वैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के त्रिभाषा सूत्र के बाद तो शिक्षा या आधिकारिक भाषा सम्बन्धी विवाद तो होना ही नहीं चाहिए; लेकिन राजनीति की कुटिलता का क्या करें? डीएमके का हिन्दी-विरोध तो फिर भी समझा जा सकता है। लेकिन अंग्रेजी समर्थन समझ से परे है। क्या यह सिर्फ़ हिन्दी को नीचा दिखाने का प्रयास है? उन्हें यह समझना होगा कि भाषा मानव समाज की चेतना में यथार्थ निर्मित करती है और राष्ट्रीयता की सरस्वती का निवास राष्ट्रीय भाषा में ही होता है। उन्हें यह भी जानना होगा कि राष्ट्रीय एकता का मज़बूत लोकतांत्रिक ढाँचा भाषा, क्षेत्रवाद, जाति, पंथ जैसे क्षुद्र मुद्दों के त्याग पर खड़ा होता है। दूर क्यों जाना, सर्वविदित है कि भोजपुरी-अवधी के उन्नयन की समाधि पर ही हिन्दी का भव्य महल खड़ा किया गया है। हिन्दी के अस्तित्व-निरूपण में सर्वाधिक योगदान भोजपुरी-अवधि भाषाओं ने दिया है। हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारों- भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद तक की समृद्ध परंपरा इन्हीं भाषा द्वय तथा इन्हीं क्षेत्रों के भूमिपुत्र थे। लेकिन इन युगल भाषाओं के प्रतिनिधि क्षेत्रों की मूल सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना ने ही अपने सरस्वती के वरद् पुत्रों को राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में राष्ट्रभाषा हिन्दी की समृद्ध परंपरा के कर्मठ उन्नायक बनने के लिए प्रेरित किया।
कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्रीय एकता के लिए सभी को अपने निजी दृष्टिकोण को उदारता के साँचे में ढालने के लिए तत्पर होना चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि देश की हर भाषा एवं स्थानीय संस्कृति का संरक्षण, परिवर्धन होता रहे; इसे राष्ट्रीय दायित्व के रूप में स्वीकार करना होगा। लेकिन इतिहास की विरासत को देखकर ऐसे क्षेत्रवादी और भाषाई अस्मिता के विघटनकारी स्वरों की अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए। हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि उर्दू के उन्माद एवं बांग्ला की अस्मिता के संघर्ष जैसे भाषाई विवादों ने पाकिस्तान का विभाजन करा दिया। आख़िरकार बंगाली संस्कृति के सम्मान के नाम पर बांग्लादेश का निर्माण हुआ। अत: विगत समय में विभाजन से हताहत भारत की भारतीय को एकनिष्ठ एवं सुरक्षित रखने हेतु भाषा समेत जाति, पंथ जैसे किसी भी प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण का दृढ़ विरोध के साथ ऐसी कुत्सित मानसिकता का पूर्णरूपेण शमन किया जाना चाहिए।
आज की लड़कियाँ हर क्षेत्र में सशक्त बनती जा रही हैं, जिसके चलते वो अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी जीना चाहती हैं। हालाँकि सदियों से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली लड़कियाँ शादी के बाद मनचाही आज़ादी से अपनी ज़िन्दगी नहीं जी पाती हैं, जिसके चलते तलाक़ के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन जिस प्रकार की आज़ादी लड़कियाँ शादी के बाद चाहती हैं, वो न तो इतनी आसान है और न ही उन्हें इसके लिए वक़्त ही मिल पाता है। शादी के बाद घर से लेकर बच्चों को सँभालने की ज़िम्मेदारी जितनी महिलाएँ निभा पाती हैं, उतनी पुरुष नहीं निभा पाते। आज की 20 प्रतिशत लड़कियाँ घर-गृहस्थी सँभालने और बच्चे पैदा करने को झंझट मानती हैं।
एक अनुमान के मुताबिक, तक़रीबन 24 प्रतिशत लड़कियाँ अपना करियर बनाने के बाद ही शादी करना चाहती हैं। कई मायनों में हर क्षेत्र में काफ़ी आगे बढ़ चुकी लड़कियाँ करियर बनने के बाद अपने से बेहतर करियर वाला जीवन-साथी चुनना चाहती हैं। लेकिन उनकी कई शर्तों या करियर बनने में देरी के चलते उनकी शादी बालिग़ होने के काफ़ी समय बाद हो पाती है। सरकार ने लड़कियों की शादी की उम्र 18 साल रखी है; लेकिन करियर बनाने और अच्छा रिश्ता ढूँढने के चक्कर में लड़कियों की शादी मामूली तौर पर 20 से लेकर 40 साल तक में हो रही है। हालाँकि 18 साल से 26 साल तक भी लड़कियों की शादी हो जाए, तो उनकी गृहस्थी अच्छी चलती है; लेकिन इसके बाद शादी होने पर उन्हें कई तरह की शारीरिक, मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। बच्चे होने में भी समस्याएँ आती हैं। इससे चिड़चिड़ापन, तनाव, एक्स्ट्रा अफेयर जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। लंबे समय तक कुँवारा रहना भी लड़कियों के लिए बर्दाश्त से बाहर होता है, जिससे उनके शारीरिक रिश्ते बनने शुरू हो जाते हैं। इससे उनका शादीशुदा जीवन ख़ुशहाल नहीं होता।
दरअसल, शादी हर लड़की का सबसे ख़ास और ख़ूबसूरत सपना होता है। लड़की को बेल की तरह बढ़ने वाला बताया जाता है और भारत में लड़कियों को पराया धन बोला जाता है, जिसके चलते लड़कियाँ भी किशोर अवस्था से ही अपने पार्टनर के बारे में सोचने लगती हैं। अपनी शादी के सपने हर लड़की देखती है; लेकिन ज़्यादातर लड़कियाँ शादी में होने वाले ख़र्च और उस ख़र्च के चलते क़र्ज़ के बोझ के नीचे अपने माँ-बाप के सपने मरते हुए देखने के अलावा उनके क़र्ज़ में डूब जाने के डर से कमाने के बारे में सोचती हैं और इसी के चलते ज़्यादातर लड़कियाँ शादी से पहले नौकरी करने का विचार बनाती हैं। यही वजह है कि चाहते हुए भी बड़ी संख्या में आजकल की लड़कियाँ शादी के नाम से भी दूर भागने लगती हैं। यानी कहीं शादी का मोटा ख़र्च, कहीं मनचाहा लड़का मिलने की इच्छा और कहीं करियर बनाने जैसी इच्छाएँ तक़रीबन 24 प्रतिशत लड़कियों को समय पर शादी करने से रोक देती हैं। इसके चलते ज़्यादातर लड़कियाँ तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी शादी टालने की कोशिश करती हैं, तो कुछ लड़कियाँ साफ़-साफ़ शादी से मना कर देती हैं।
आज भारत में तक़रीबन 7.2 प्रतिशत ऐसी महिलाएँ हैं, जो शादी न करने से लेकर तलाक़ होने के चलते पछतावे की आग में जल रही हैं। ऐसी महिलाओं को आधी उम्र बीत जाने के बाद अपनी भूलों पर पछतावे के अलावा कुछ नहीं हासिल होता। एक अध्ययन के मुताबिक, क़रीब 39.8 प्रतिशत यानी 10 में क़रीब चार लड़कियाँ शादी से पहले डेटिंग करने लगती हैं। ये सब समय से उनकी शादी न होने के चलते होता है। क्योंकि लड़कियों के हार्मोन बहुत तेज़ी से डेवलप होते हैं और शादी की उम्र आते-आते उन्हें पुरुष साथी की ज़रूरत महसूस होने लगती है; लेकिन कई समस्याओं या अपनी ज़िद या करियर बनाने के चलते उनकी शादी सही उम्र में नहीं हो पाती, जिसके चलते वो अवैध तरीक़े से अपना पार्टनर चुन लेती हैं। अध्ययन के मुताबिक, 55 प्रतिशत माँ-बाप भी लड़कियों की शादी के लिए क़रीब उनके 20 साल के होने तक नहीं सोचते हैं। उसके बाद ही वो शादी के बारे में सोचते हैं।
डेटिंग ऐप बंबल के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में क़रीब 81 प्रतिशत महिलाएँ अविवाहित अथवा अकेला रहना पसंद करती हैं। लेकिन एक दूसरे अध्ययन के मुताबिक, जो महिलाएँ शादी नहीं करतीं या शादी के बाद तलाक़ ले लेती हैं, उनमें से 90 प्रतिशत पछताती भी हैं। वे तभी तक अकेले रहने को अच्छा समझती हैं, जब तक जवान रहती हैं; लेकिन ढलती उम्र के साथ-साथ उन्हें एक स्थायी जीवनसाथी की कमी खलने लगती है। अध्ययन के मुताबिक, क़रीब 83 प्रतिशत शहरों में बसने वाली लड़कियाँ जल्दी शादी नहीं करना चाहतीं, जबकि क़रीब 27 प्रतिशत ग्रामीण लड़कियाँ जल्दी शादी करना नहीं चाहतीं। लेकिन एक्स्ट्रा अफेयर या शादी से पहले ब्वाय फ्रेंड के बारे में 80 प्रतिशत लड़कियाँ इनकार नहीं करतीं। हालाँकि इनमें से 95 प्रतिशत लड़कियाँ अपने अफेयर या ब्वॉय फ्रेंड के बारे में माँ-बाप और समाज को कुछ भी बताना पसंद नहीं करतीं। 62 प्रतिशत शहरी लड़कियाँ और 17 प्रतिशत ग्रामीण लड़कियाँ अपने लाइफ स्टाइल में शादी के बाद भी बदलाव या समझौता नहीं करना चाहती हैं। वे परिवार से ज़्यादा अपनी ज़रूरतों और प्राथमिकताओं के साथ जीना पसंद करती हैं।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, साल 2001 में भारत में क़रीब 5.12 करोड़ से ज़्यादा महिलाएँ कुँवारी, तलाक़शुदा और विधवा थीं, जो अकेली रह रही थीं। वहीं साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, उस वक़्त भारत में क़रीब 7.14 करोड़ से ज़्यादा महिलाएँ कुँवारी, तलाक़शुदा और विधवा थीं, जो अकेली रह रही थीं। इस तरह साल 2001 से लेकर साल 2011 तक 10 वर्षों में अकेली रहने वाली महिलाओं की संख्या में क़रीब 40 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ। एक अनुमान के मुताबिक, इंटरनेट आने के बाद कुँवारी, तलाक़शुदा और विधवा महिलाओं की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है। एक आँकड़े के मुताबिक, साल 2021 में देश की अदालतों में तलाक़ के क़रीब 5,00,000 मामले चल रहे थे, जो कि साल 2023 में बढ़कर 8,00,000 से ज़्यादा हो गये थे। देश के फैमिली अदालतों पर तलाक़ के मामलों का दबाव तेज़ी से बढ़ता जा रहा है और यह बोझ तीन तलाक़ पर प्रतिबंध के बाद और तेज़ी से बढ़ा है। एक अध्ययन के मुताबिक, जितने तलाक़ के मामले अदालतें निपटाती हैं, उससे ज़्यादा मुक़दमे दर्ज हो जाते हैं। हालाँकि भारत में आज भी तलाक़ के मामले सिर्फ़ 1.3 प्रतिशत ही हैं, जबकि यूरोपीय देशों में तलाक़ के मुक़दमे 18 प्रतिशत से लेकर 94 प्रतिशत तक बताये जाते हैं। पारिवारिक रिश्ते निभाने में भारतीय महिलाएँ आज भी दुनिया में सबसे ज़्यादा बेहतर मानी जाती हैं। लेकिन आधुनिक लाइफ स्टाइल जीने की चाहत, एक्स्ट्रा अफेयर और अपने से अच्छा कमाने वाला लड़का मिलने, फ्रीडम होने, करियर बनाने, संयुक्त परिवार में न रहने की ज़िद कई ऐसी वजहें हैं, जिनके चलते अब शादी न करने या केवल पति के साथ रहने या अकेले रहने या अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जीने की ख़्वाहिश के चलते बड़ी संख्या में भारतीय लड़कियाँ भी शादी करने से कतराने से लेकर तलाक़ लेने तक पर आमादा होती जा रही हैं।
भारतीय संस्कृति परिवारों, ख़ासकर संयुक्त परिवारों में ही अच्छी तरह पुष्ट होती है; लेकिन अब कई समस्याओं के चलते एकल परिवार का चलन जितनी तेज़ी से बढ़ रहा है, परिवारों में बिखराव भी उतनी ही तेज़ी से आ रहा है। मोबाइल के आने से अब हर कोई समाज में रहकर भी अलग-थलग दिखता है। इससे लड़कियों की ज़िन्दगी काफ़ी अलग और तनाव भरी हो चुकी है। इसलिए भारतीयों को भी संयुक्त परिवारों की परंपरा को जीवित करने के अलावा समय पर लड़कियों और लड़कों की शादी करने पर जोर देना होगा। संस्कारों की कमी के चलते ही दहेज, झगड़ा, मारपीट और थाना-अदालत जैसे मामलों का सामना करना पड़ता है। बहुत-सी लड़कियाँ अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने या ससुराल वालों को सबक सिखाने के चलते दहेज की माँग और मारपीट आदि के झूठे मामले उन पर दर्ज करा देती हैं, जिससे न सिर्फ़ उनकी ज़िन्दगी तबाह हो जाती है, बल्कि उनके साथ-साथ उनकी ससुराल और मायके वालों को भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आज जिस तरह से आत्मनिर्भर बनने और अच्छी ससुराल, ख़ासकर अच्छा पति पाने के चक्कर में कुँवारी लड़कियों की संख्या बढ़ रही है, उससे सेक्स रैकेट, लड़कियों की तस्करी, बलात्कार और एक्स्ट्रा या अवैध रिश्ते बढ़ते जा रहे हैं, जिसे रोकना समाज के सभी लोगों का कर्तव्य होना चाहिए।
एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में क़रीब 17 प्रतिशत लड़कियाँ अपने फ्रीडम और इच्छाओं के पूरा होने का सपना लेकर अपनी मर्ज़ी से शादी करती हैं; लेकिन जब शादी के बाद उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पातीं, तो उनमें से 84 प्रतिशत तलाक़ लेने के लिए थाने और अदालत पहुँच जाती हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि शादी के बाद लड़कियों के ऊपर एक घर सँभालने की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ कई तरह की पाबंदियाँ भी लगती हैं। उन्हें अपनी इच्छाओं को मारकर अपनी ससुराल वालों, ख़ासकर पति की इच्छाओं के अधीन होना पड़ता है और उनकी ही मनपसंद का खाना भी बनाना पड़ता है; लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि सभी ससुराल वाले लड़कियों का जीना हराम कर देते हैं। लेकिन ज़्यादातर लड़कियाँ कुछ ऐसा ही मान लेती हैं और परिवार में झगड़ा करने लगती हैं, जिसमें ज़्यादातर अलग होने की ज़िद पकड़ लेती हैं या फिर तलाक़ चाहने लगती हैं।
कुछ लड़कियाँ ससुराल में ज़ुल्म भी सहने लगती हैं। ये दोनों ही चीज़ें ग़लत हैं और दोनों ही परिस्थितियों में शादीशुदा लड़कियों को समझदारी से काम लेना चाहिए। लड़कियों के ससुराल वालों को भी दहेज के लालच और पराये घर की बेटी के साथ, जो कि उनके घर की इज़्ज़त बन चुकी होती है, उचित और सम्मानपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि घर में आयी परायी लड़की उनके घर का वंश बढ़ाने से लेकर उनके ही घर की सदस्य हो जाती है, जिसे ज़्यादातर सास-ससुर, ननद और पति भूल जाते हैं।
नई दिल्ली : प्रधानमंत्री मोदी 19वें G20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए सोमवार को ब्राजील के रियो डी जनेरियो पहुंचे। यह उनकी तीन देशों की यात्रा का दूसरा चरण है, जिसके दौरान वह 18 नवंबर और 19 नवंबर को ब्राजील में होने वाले 19वें G20 नेताओं के शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। ब्राजील पहुंचने पर भारतीय राजदूत सुरेश रेड्डी के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया। बता दें कि पीएम मोदी नाइजीरिया की यात्रा पूरी करने के बाद दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील पहुंचे।
पीएम मोदी ने ब्राजील पहुंचने के बाद एक्स पर एक पोस्ट की। अपनी पोस्ट में उन्होंने कहा कि वह शिखर सम्मेलन में विभिन्न वैश्विक नेताओं से मिलने के लिए उत्सुक हैं। एक्स पर एक पोस्ट में पीएम मोदी ने कहा, “G20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए ब्राजील के रियो डी जनेरियो में उतरा। मैं शिखर सम्मेलन के विचार-विमर्श और विभिन्न वैश्विक नेताओं के साथ सार्थक बातचीत के लिए उत्सुक हूं।” इसके साथ ही उन्होंने एयरपोर्ट पर अपने स्वागत की तस्वीरें भी शेयर कीं।
देश में बेरोज़गारी बहुत बड़ा मुद्दा है। यह बात दीगर है कि सत्तारूढ़ सरकार इससे इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती। हाल में जारी एक रिपोर्ट में रोज़गार के अवसर में कमी से चिन्ता और भी बढ़ जाती है। एसोसिएशन ऑफ अकेडमिक ऐंड एक्टिविस्ट लिब टेक की शोध रिपोर्ट के अनुसार, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गांरटी योजना (मनरेगा) में पंजीकृत 84.8 लाख श्रमिकों के नाम इस साल अप्रैल से सिंतबर के बीच हटा दिये गये। लिब टेक का यह आँकड़ा मनरेगा की सरकारी वेबसाइट से लिया गया है। इस शोध रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इनमें सबसे अधिक 14.7 प्रतिशत नाम तमिलनाडु से हटे हैं और दूसरे नंबर पर छत्तीसगढ़ है, जहाँ यह संख्या 14.6 प्रतिशत है। विश्लेषण में इस पर भी रोशनी डाली गयी है कि किस प्रकार सरकारी नियम मनरेगा को प्रभावित कर रहे हैं। इस साल जनवरी से आधार आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) अनिवार्य करने का असर भी इस पर साफ़ दिखायी दे रहा है। 27.4 प्रतिशत से अधिक पंजीकृत मज़दूर आधार आधारित भुगतान प्रणाली के लिए अपात्र बताये गये हैं।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने चार बार टालने के बाद इस साल जनवरी से एबीपीएस को अनिवार्य किया है। इसमें मज़दूरों को कई शर्तें पूरी करनी होती हैं। इसमें उनका आधार जॉब कार्ड से जुड़ा होना चाहिए और बैंक खाता भी आधार से लिंक होना चाहिए। सच यह है कि इसके क्रियान्वयन में कई मुश्किलें सामने आ रही हैं और सम्बन्धित विभाग को इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। क्रियान्वयन को सफल बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है। रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर, 2023 में इस योजना के तहत 14.3 करोड़ सक्रिय मज़दूर जुड़े थे; लेकिन एक साल यानी अक्टूबर, 2024 में यह संख्या घटकर 13.2 करोड़ रह गयी है। एक साल के दरमियान सक्रिय मज़दूरों की संख्या में आठ प्रतिशत की गिरावट चिन्ताजनक है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने मनरेगा में सक्रिय मज़दूरों की घटती संख्या के मद्देनज़र मोदी सरकार पर निशाना साधा। ग़ौरतलब है कि जब यूपीए-2 सरकार में जयराम नरेश केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री थे, तभी यह योजना शुरू की गयी थी। उन्होंने मोदी सरकार पर मनरेगा को व्यवस्थित रूप से कुचलने का आरोप लागाया है। रमेश ने एक बयान में कहा है कि अब प्रौद्योगिकी पर ग़लत तरीक़े से निर्भरता के माध्यम से श्रमिकों को उनके काम करने के अधिकार और उचित भुगतान से वंचित किया जा रहा है। इसी साल अगस्त में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी आरोप लगाया था कि प्रौद्योगिकी और आधार का उपयोग करने की आड़ में मोदी सरकार ने सात करोड़ से ज़्यादा मज़दूरों के जॉब कार्ड रद्द कर दिये हैं। इसके चलते ये लोग मनरेगा से कट गये हैं।
मनरेगा से कटने के अलावा यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि अक्टूबर, 2023 से अक्टूबर, 2024 के बीच व्यक्तिगत दिवसों में भी 16.6 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। व्यक्ति दिवस बताता है कि पंजीकृत मज़दूर एक वित्तीय वर्ष में कितने कार्य दिवसों की कुल संख्या पूरी करता है। तमिलनाडु और ओडिशा में व्यक्ति दिनों में सबसे अधिक गिरावट आयी। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि अप्रैल-सिंतबर, 2024 के दरमियान मनरेगा में पंजीकृत 84.8 लाख मज़दूरों के नाम हटा दिये गये। लेकिन इसी दौरान विभिन्न राज्यों में 45.4 लाख नये नाम जुड़े हैं। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि नये नाम जुड़ने के बाद भी इस प्रक्रिया में 39.3 लाख नाम छूट गये। नाम छूटने का दूरगामी असर पड़ सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, लगातार नाम हटने के इस रुझान से कामगारों का भरोसा इस कार्यक्रम पर घटा है और इसकी वजह से गाँवों से पलायन बढ़ा है। दरअसल, 2005 में पारित मनरेगा एक माँग आधारित योजना है, जो प्रत्येक इच्छुक ग्रामीण परिवार के लिए हर वर्ष 100 दिनों के अकुशल कार्य की गांरटी देती है। इसके तहत मिलने वाली दिहाड़ी विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है। जब यह योजना शुरू की गयी, तो इसे ग्रामीणों के लिए जीवन रेखा बताया गया; लेकिन वक़्त बीतने के साथ-साथ इसके क्रियान्वयन में चुनौतियाँ भी बढ़ती गयीं।
अब दिहाड़ी भुगतान नियमों में बदलाव से प्रवासी संकट बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। यही नहीं, अधिकांश राज्य मनरेगा द्वारा तय 15 दिनों के भीतर दिहाड़ी भुगतान करने में विफल रहे हैं। वित्त मंत्रालय ने भी स्वीकार किया था कि मज़दूरी भुगतान में देरी की स्थिति अपर्याप्त धन का नतीजा है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार संकट दूर करने में काम आने वाले तात्कालिक तरीक़ों में मनरेगा भी एक है। इसका अधिक-से-अधिक लाभ योग्य मज़दूर पात्रों को कैसे मिले, यह सुनिश्चित करना केंद्र व राज्य सरकारों का दायित्व है।
केंद्र सरकार के विज्ञापनों में और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के तमाम नेताओं के भाषणों में विकास की जो तस्वीर दिखती है या दिखायी जाती है, हक़ीक़त में हिन्दुस्तान की वो तस्वीर नहीं है। केंद्र सरकार की कई योजनाएँ काग़ज़ों पर ही पूरी हुई हैं, तो कई योजनाएँ आधी-अधूरी नज़र आती हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात के उस समय के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने पूरे देश को एक ख़्वाब दिखाया, जिसके तहत लोगों को रोज़गार देने, भुखमरी ख़त्म करने, काला धन वापस लाने, सबको 15-15 लाख रुपये देने, किसानों की आय दोगुनी करने, आतंकवाद ख़त्म करने, भ्रष्टाचार ख़त्म करने, रुपया मज़बूत करने जैसे कई वादे थे। लेकिन अब ये सभी वादे तो रह ही गये, साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद 2016 में किये गये उनके देश में मार्च, 2025 तक 100 स्मार्ट सिटी बनाने, आठ नये आधुनिक शहर बसाने और स्मार्ट गाँव बनाने जैसे काम भी ठंडे बस्ते में डाल दिये गये हैं। और अब हालत यह है कि पूरे साढ़े 10 साल के शासनकाल में केंद्र की मोदी सरकार अपने कई महत्त्वपूर्ण कामों को करने में विफल रही है। अगर केंद्र की मोदी सरकार हक़ीक़त में अपने वादे पूरे करने में सफल हुई होती और उसने महँगाई, भुखमरी, ग़रीबी, आतंकवाद, कालाधन और शिक्षा आदि पर अच्छा काम किया होता, तो हिन्दुस्तान की तस्वीर कुछ और ही होती।
अब मोदी सरकार मौज़ूदा और सिर्फ़ उन योजनाओं को लेकर काम करेगी, जो काफ़ी बाद में बनायी गयीं। लेकिन पहले की बनी हुई कई योजनाओं का अब जिक्र तक नहीं होता। इन योजनाओं में नमामि गंगे, हर परिवार को एक घर, हर घर में शौचालय, मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, आदर्श गाँव, पेट्रोल और डीजल सस्ता, मनरेगा के तहत और ज़्यादा रोज़गार, महिला सुरक्षा, अपराध पर रोक और न जाने कितनी ही योजनाएँ लायी गयीं; लेकिन सबकी सब धीरे-धीरे या तो ठंडे बस्ते में चली गयीं या फिर उन्हें अधूरा छोड़ दिया गया। हाल ही में केंद्र सरकार की कई अलग-अलग योजनाओं में हो रहे घोटालों को लेकर हिमांशु उपाध्याय नाम के एक शिकायतकर्ता ने इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत आवास एवं शहरी कार्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर, आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय के सचिव श्रीनिवास कातिकिथाला, आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव एवं वित्तीय सलाहकार संजीत, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के सचिव विवेक जोशी, वित्त सचिव टी.वी. सोमनाथन, वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग के सचिव मनोज गोविल, नेता प्रतिपक्ष एवं कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, कांग्रेस के मीडिया एवं प्रचार विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा, सपा अध्यक्ष एवं सांसद अखिलेश यादव, आम आदमी पार्टी के नेता एवं राज्यसभा सांसद संजय सिंह, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधिकारी प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई), प्रेस सूचना ब्यूरो एवं कुछ अन्य समाजचेतना, समाजसेवा से जुड़े लोगों को एक पत्र ईमेल के ज़रिये भेजा है।
इस पत्र में प्रधानमंत्री मोदी को संबोधित करके लिखा गया है कि शिकायतकर्ता उनका ध्यान उनके आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय में नियमित रूप से होने वाली गड़बड़ियों की ओर आकर्षित करना चाहता है। पत्र में लिखा है कि भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस की सरकार की यह नीति यहाँ पूरी तरह विफल है। कुछ भ्रष्टाचारों का विवरण भी शिकायतकर्ता ने दिया है, जिसमें अमृत, एसबीएम, स्मार्ट सिटी, पीएमएवाई, एनयूएलएम जैसी योजनाएँ हैं, जिनमें निविदा के माध्यम से या एनसीडीसी के माध्यम से आईईसी गतिविधियों के लिए फर्मों को शामिल किया है। शिकायत है कि इन योजनाओं में कुछ भ्रष्ट अधिकारियों ने वेंडर्स से सेटिंग कर ली है और उन कार्यों का भी भुगतान कराया जा रहा है, जो वास्तव में पूरे नहीं हुए हैं। सम्बन्धित अधिकारी और फर्म के बीच 60:40 के अनुपात में सरकारी पैसे का बंदरबांट हो रहा है। इन सब घोटालों की जाँच की माँग करते हुए शिकायतकर्ता ने पत्र में लिखा है कि इवेंट मैनेजमेंट फर्मों / विक्रेताओं के माध्यम से किये गये कार्यक्रमों / कार्यक्रमों में वास्तव में शामिल व्यय का दोगुने से तीन गुना भुगतान किया गया है। अधिकांश योजनाओं के समर्थन के लिए पीएमयू / आईएसओ को काम पर रखा है। शिकायत में कहा गया है कि अधिकांश पीएमयू कर्मचारी उन पात्रता मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं, जिनके विरुद्ध वे काम कर रहे हैं या उन्होंने फ़र्ज़ी प्रमाण-पत्र संलग्न किया है। इसके अलावा जो आउटसोर्सिंग एजेंसी लगायी गयी है, उन्हें पूरा वेतन नहीं दिया जा रहा है और सम्बन्धित अधिकारी द्वारा कमीशन के रूप में कटौती की जा रही है। इसकी जाँच दावा किये गये बिल और पीएमयू के खाते में हस्तांतरित वास्तविक राशि से की जा सकती है।
शिकायतकर्ता ने कहा है कि मिशन निदेशक / निदेशक जब भी राज्यों के दौरे पर जाते हैं, तो शराब और अन्य अवैध चीज़ों की माँग की जाती है, जिसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। कुछ वरिष्ठ कार्यालय बहुत लंबे समय से एक मिशन में तैनात हैं, जो संवेदनशील डाक नियम का उल्लंघन है। उनका तबादला दूसरे विंग में क्यों नहीं किया जाता? इसके अलावा मिशन में कुछ अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति अवधि पूरी होने के बाद उसी सीट पर नियमित पोस्टिंग मिल गयी है। इससे पता चलता है कि उस सीट पर जमकर भ्रष्टाचार हुआ है। मिशन में कई सामान्य बेड़े के वाहन किराये पर लिये गये हैं और निदेशक स्तर के अधिकारी इन वाहनों का उपयोग केवल निजी उद्देश्यों के लिए कर रहे हैं और वे परिवहन भत्ते का भुगतान भी कर रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ अमेरिकी स्तर के अधिकारियों को भी अनौपचारिक रूप से समर्पित वाहन उपलब्ध कराये गये हैं, क्योंकि वे उस भ्रष्टाचार का हिस्सा हैं।
शिकायतकर्ता ने आगे सवाल किया है यह सरकार डिजिटल प्लेटफॉर्म को बढ़ावा दे रही है, फिर सीडी, होर्डिंग्स और इस प्रकार की अन्य सामग्री की तैयारी के लिए इस तरह के थोक भुगतान क्यों किये जा रहे हैं? शिकायतकर्ता ने प्रधानमंत्री का ध्यान इन घोटालों की तरफ़ खींचते हुए लिखा है कि जब भी इन मिशनों में ऑडिट किया जाता है, तो वे ऑडिट पार्टी को रिश्वत देते हैं, ताकि कोई ऑडिट पैरा न बनाया जा सके। ऐसा लगता है कि इस मंत्रालय के वित्त विभाग के प्रमुख भी इन भ्रष्टाचारों में शामिल हैं और उन्होंने बिना उचित जाँच-पड़ताल के भुगतान फाइलों को पारित कर दिया। मैं आपसे विनती करता हूँ कि इन भ्रष्ट अधिकारियों के ख़िलाफ़ गंभीर कार्रवाई करें और भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का लक्ष्य तय करें।
बहरहाल, अगर हम स्मार्ट सिटी बनाने और आठ नये शहर बसाने की ही बात करें, तो इन दोनों योजनाओं पर अरबों रुपये का बजट ख़र्च होना था। हर नया शहर 1,000 करोड़ रुपये ख़र्च करके बसाया जाना था; लेकिन अब केंद्रीय आवास और शहरी कार्य मंत्रालय विकास मंत्रालय ने इसे ठंडे बस्ते में डालते हुए सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना ध्यान प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री स्वनिधी योजना, दीनदयाल उपाध्याय शहरी आजीविका मिशन, शहरों में बुनियादी सुधार के लिए अमृत मिशन-2 और 16वें वित्त आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने आदि योजनाओं पर लगाया हुआ है।
दरअसल, केंद्र की मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में है और उसके पास कई योजनाएँ ऐसी हैं, जिन्हें करने के लिए केंद्र सरकार के पहले कार्यकाल में वादा किया गया था। और इन योजनाओं के लिए बाक़ायदा बजट भी पास हुए, करोड़ों-करोड़ों रुपये के बजट को लेकर काम शुरू भी हुआ, विज्ञापनों पर भी करोड़ों रुपये उड़ाये गये; लेकिन न काम हुआ, न पैसे का कोई हिसाब-किताब समझ आया और बजट ख़र्च भी हो गया। देश भर में कई एम्स बनाने को लेकर आधारशिला रखी गयी, कई एयरपोर्ट बनाने के लिए किसानों की ज़मीनें एक्वायर की गयीं; लेकिन न तो एम्स बने और न ही कुछ एयरपोर्ट बने। सरकार ने अगर किसी काम में रुचि ली है, तो वो हैं धार्मिक स्थल, ख़ासतौर से मंदिर, जहाँ अरबों रुपये चंदे के रूप में इकट्ठा हुए और उस पैसे में कितना कहाँ लगा, कितना बचा, कितना पचाया गया, ये एक अलग विषय है; लेकिन स्थानीय लोगों के घरों, दुकानों, पुराने मंदिरों, धरोहरों को तोड़ा गया। काशी और अयोध्या इसके गवाह हैं।
बहरहाल, अगर हम शहरी विकास की बात करें, तो शहरों के विकास के लिए कांग्रेस की सरकार के साल 2004 से साल 2014 तक के बजट से 13 गुना ज़्यादा बजट नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने साल 2014 से साल 2024 तक बजट ख़र्च कर दिया; लेकिन शहरों का विकास कहीं दिखायी नहीं देता। दिल्ली जैसा बड़ा शहर, जो कि देश की राजधानी भी है, उसके विकास में केंद्र सरकार का कोई काम नज़र नहीं आता। इसके अलावा जिस तेज़ी से इस बार हाईवे से लेकर सड़कें तक धँसी हैं और पुल गिरे हैं, उससे साफ़ लगता है कि केंद्र सरकार की योजनाएँ घोटालों की भेंट चढ़ी हैं। पिछले दिनों संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमने रोड बनाने में स्पेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है। उसके बाद से देश भर में मोदी सरकार के द्वारा बनाये गये रोड जिस प्रकार से धँसे और उनमें छोटी से लेकर बड़ी गाड़ियाँ तक कई राज्यों में जिस प्रकार से पाताल लोक सिधारीं, उससे साफ़ हो गया कि प्रधानमंत्री को इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है कि उनकी सरकार में हर मंत्रालय में, हर विभाग में जमकर घोटाले हुए हैं। कई केंद्रीय एजेंसियों, ख़ासतौर पर कैग की रिपोर्ट्स इस बात की गवाह हैं कि केंद्र सरकार की कई महत्त्वपूर्ण योजनाएँ घोटालों की भेंट चढ़ चुकी हैं। लेकिन बावजूद इसके किसी भी भ्रष्टाचारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जबकि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी तक़रीबन हर मंच से, हर जनसभा में सीना ठोककर दावा करते रहे हैं कि वो भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म कर देंगे। उन्होंने इसके लिए पहले देश की जनता से पाँच साल माँगे थे, फिर साल 2019 में पाँच साल और माँगे और फिर इस साल यानी 2024 के लोकसभा चुनाव में पाँच साल और माँगे और मुझे लगता है कि जनता ने उन पर हर बार भरोसा जताते हुए उन्हें तीसरा मौक़ा भी दे दिया; लेकिन भ्रष्टाचार ख़त्म होना तो दूर की बात, उलटा और बढ़ गया।
बहरहाल, शहरी विकास की ही बात करें, तो शहरों का विकास उस गति से हुआ नहीं हैं, जितना बजट शहरी विकास योजनाओं पर ख़र्च किया जा चुका है। केंद्र की मोदी सरकार ने 10 शहरों को स्मार्ट सिटी में बदलने, आठ नये शहर बसाने के अलावा 30 लाख से ज़्यादा आबादी वाले 14 शहरों के विकास का वादा भी किया था। इन 14 शहरों में गुजरात के दो शहर अहमदाबाद और सूरत, तेलंगाना का हैदराबाद शहर, तमिलनाडु के कोयंबटूर, केरल के त्रिशूर, कोझिकोड और कोच्चि शहर, महाराष्ट्र के पुणे और नागपुर शहर, राजस्थान का जयपुर शहर, उत्तर प्रदेश के लखनऊ और कानपुर शहर, मध्य प्रदेश का इंदौर शहर आदि शामिल हैं। साल 2022 तक इन शहरों का कायाकल्प होना था; लेकिन कुछ रेलवे स्टेशनों, चौक-चौराहों को छोड़कर ज़्यादातर शहरों की दशा पहले से भी ख़राब है। इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास और सोशल सेक्टर पर केंद्र की मोदी सरकार ने 90.90 लाख करोड़ रुपये ख़र्च कर दिये; लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर और सोशल सेक्टर में परिवर्तन क्या हुआ, ये हम सब जानते हैं।
इसी प्रकार से बेघरों को घर देने की बात करें, तो केंद्र की मोदी सरकार का वादा था कि वो दिसंबर 2024 तक 1.18 करोड़ परिवारों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर देगी; लेकिन अभी तक सरकारी रिकॉर्ड में ही तक़रीबन 70 लाख घर भी सरकार नहीं दे पाई है। हक़ीक़त में कितने घर लोगों को मिले, इसके भी सही आँकड़े सामने नहीं आ सके हैं। और ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ऐसी पहली सरकार है, जिसने बेघरों को आवास देने की मुहिम चलायी हो, साल 1985 में केंद्र की इंदिरा सरकार ने इंदिरा आवास योजना के नाम से देश में बहुत-से घर मुफ़्त में बनाकर दिये थे।
प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत तो घर बनाने के प्रधानमंत्री आवास योजना 2024 के तहत एक परिवार को अपनी ही ज़मीन पर घर बनाने के लिए तीन किस्तों में 1,20,000 रुपये से 1,30,000 रुपये तक की सरकारी मदद मिलती थी, जिसे बढ़ाकर 2,30,000 रुपये से 2,40,000 रुपये तक कर दिया गया है। हालाँकि बहुत-से लोगों की शिकायतें हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिलने वाली राशि का पूरा लाभ उन्हें नहीं मिला। वहीं अनेक ऐसे लोगों ने इस योजना का लाभ अधिकारियों की मिलीभगत से उठा लिया है, जिनके पास अच्छे-ख़ासे मकान बने हुए हैं।
इस प्रकार से केंद्र की मोदी सरकार में लायी गयी कई बड़ी योजनाएँ घोटालों की भेंट चढ़ चुकी हैं और विकास का जो ख़्वाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2014 से अब तक देश की भोली-भाली जनता को दिखाया है, असल में विकास उस गति से हुआ ही नहीं है।
जयपुर का जवाहर कला केंद्र पारंपरिक और इस गुलाबी शहर की मूल योजना से प्रेरित विशिष्ट वास्तुकला का नमूना है, जो अन्य शहरों के कला केंद्रों से काफ़ी अलग दिखायी देता है। यहाँ कलाकार, पत्रकार, शिक्षा शास्त्री और कला प्रेमी सब जुटते हैं। साल भर यहाँ कार्यक्रम चलते रहते हैं। बावड़ी प्रणाली पर आधारित ओपन एयर थिएटर सबको रोमांचित करता है। 9.5 एकड़ में फैले जवाहर कला केंद्र को राजस्थानी कला और शिल्प को संरक्षित रखने के उद्देश्य से सन् 1991 में बनाया गया था।
भारतीय वास्तुकार चार्ल्स कोरिया द्वारा डिजाइन किया गया जवाहर कला केंद्र नौ ग्रहों पर आधारित है। प्रत्येक ग्रह की विशेषताओं का उपयोग प्रत्येक वर्ग की कार्य क्षमता और प्रत्येक वर्ग में लागू वास्तु शिल्प डिजाइन की शैली को निर्धारित करने के लिए किया गया है। इसमें मंगल लाल ग्रह है और शक्ति का प्रतीक है। इसलिए इस वर्ग में प्रशासनिक कार्यालय बनाया गया है। मंगल की दीवारों के साथ-साथ नवग्रहों की व्याख्या की गयी है। सूर्य चूँकि प्रत्यक्ष ग्रह है, जिसे हर कोई रोज़ देखता है। यह ऊर्जा का प्रतीक है। सूर्य मंडल में पारंपरिक कुएँ (कुंड) के आकार में ओपन एयर थिएटर है।
गुरु बृहस्पति बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है। इस मंडल में लाइब्रेरी है, जिसमें 1,000 के क़रीब कला विषयों से सम्बन्धित पुस्तकें हैं। बुद्ध ख़ज़ाने का ग्रह है। इसलिए यहाँ कला प्रदर्शनियों के लिए पाँच गैलरियाँ- सुकृति, सुलेख, संदर्भ, सुदर्शन हैं और राहु मंडल में स्फटिक गैलरी है। यहाँ राजस्थानी समकालीन कला को डिस्प्ले किया गया है।
केतु मंडल में राजस्थानी जीवन शैली के वस्त्रों, फर्नीचर और अन्य वस्तुओं का संग्रह है। शनि एक धीरे-धीरे चलने वाला ग्रह है। इसलिए शनि मंगल में सृजन नाम से स्कल्पचर और डिजाइन स्टूडियो बनाये गये हैं। इसमें नाट्य उत्सव, कला प्रदर्शनियाँ, शिल्प मेले, कार्यशालाएँ, फ़िल्म स्क्रीनिंग, संवाद, संगोष्ठियाँ और संगीत के कार्यक्रम चलते रहते हैं।
राजस्थान, ख़ासकर जयपुर एक बड़ा सांस्कृतिक शहर रहा है। शहर के प्रसिद्ध रंगकर्मी साबिर ख़ान कहते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से जयपुर कला प्रेमी शहर है। यहाँ कहीं भी कोई संगीत का या थिएटर का कार्यक्रम होता है, तो क़रीब-क़रीब हाउसफुल हो जाता है। जवाहर कला केंद्र में भी नाटक मंचन के दौरान हाउसफुल रहता है।
उन्होंने बताया कि अभी यहाँ दो साल से रामलीला हो रही है। उसमें भी काफ़ी लोगों की भीड़ जुटती है। लोकरंग यहाँ का ख़ास कार्यक्रम है, जिसमें देश के सभी लोक नृत्य के कलाकार 10-12 दिनों तक अपनी कला प्रदर्शित करते हैं। हर साल चिल्ड्रन थिएटर वर्कशॉप होती है, जिससे बच्चे आने वाले समय में थिएटर से जुड़ें। इससे उनके पैरेंट्स भी दर्शक के रूप में जुड़ते हैं।
वर्ष 2008 से कार्यरत जवाहर कला केंद्र के सहायक निदेशक अब्दुल लतीफ़ का कहना है कि आर्ट और कल्चर ऐसे आयाम हैं, जो सभ्यता को दिशा देते हैं। ऐसी जगह बेमिसाल होती है, जहाँ हम कला-संस्कृति और साहित्य के माध्यम से सबको एक साथ जोड़ते हैं। आज का जयपुर काफ़ी बढ़ गया है। लेकिन पुराना जयपुर शहर चौपड़ प्रणाली पर आधारित था और इसी सोच को ध्यान में रखकर यह इमारत बनायी गयी थी।
अब्दुल बताते हैं कि लाइब्रेरी जुपिटर यानी बृहस्पति क्षेत्र में है। लर्निंग सोर्स यहाँ हैं। राजस्थान में बाबड़ी की परंपरा के चलते यहाँ ओपन थिएटर इसी विशेषता को लेकर बना है। यह सूर्य ग्रह क्षेत्र में है। प्रशासन मंगल, तो इंडियन कॉफी हाउस चंद्र क्षेत्र में है। यहाँ शिल्पग्राम है। यहाँ विजुअल आर्ट, म्यूजिक एंड डांस, थिएटर और साहित्य पर पूरे साल काम होता है।
लाल पत्थर और संगमरमर से बने इस कला केंद्र का निर्माण पाँच वर्ष में पूरा हुआ। इसका प्रत्येक वर्ग एक विशेष ग्रह से मेल खाता है। इस केंद्र की कल्पना जयपुर के संस्थापक महाराजा जयसिंह (द्वितीय) ने 17वीं शताब्दी में की थी, जो विद्वान, गणितज्ञ और खगोल शास्त्री भी थे।
– असली-नक़ली डायमंड की कालाबाज़ारी के खेल में पड़े हैं बड़े-बड़े माफ़िया, अपराधी और जौहरी
दुनिया में आजकल हर महँगी-से-महँगी और सस्ती-से-सस्ती चीज़ की कालाबाज़ारी होने लगी है। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात से लेकर कोयला तक की कालाबाज़ारी में कई धन्ना सेठ और हमारे नेता घुसे हुए हैं। जिस दिन कालाबाज़ारी का असली सच सामने आ गया ना! कई भोले-भाले से दिखने वाले चेहरों के नक़ाब उतरेंगे और वो साफ़-साफ़ भयंकर पापी नज़र आएँगे। ऐसा नहीं है कि इन बड़े चेहरों की सच्चाई सबसे छुपी है; पर जिन्हें इनकी काली सच्चाई मालूम है, वो उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि पैसा और पॉवर इन पापियों को न सिर्फ़ बचा रहे हैं, बल्कि इनके घिनौने चेहरे पर गुलाबों जैसी ख़ुशबू, भोलापन और अच्छे इंसान की छवि का नक़ाब भी डाले हुए हैं।
कालाबाज़ारी असली चीज़ों की भी होती है और नक़ली चीज़ों की भी होती है। दुनिया में दोनों ही चीज़ों की कालाबाज़ारी का बहुत बड़ा बाज़ार है, जिसमें सब कुछ दलालों, माफ़ियाओं, गुंडों, नेताओं और अंडरवर्ल्ड के ज़रिये हैंडिल होता है। एक तरफ़ दिन भर मेहनत करने वाला मज़दूर और नौकर पेट पालने में हाँफ जाता है, तो दूसरी तरफ़ ये नक़ली चोर लोग ख़ाली बैठे-बैठे फोन की घंटी बजाकर करोड़ों से अरबों रुपये एक झटके में कमा लेते हैं। असली चीज़ों से बड़ा कारोबार नक़ली चीज़ों का है, क्योंकि नक़ली चीज़ें असली चीज़ों से भी अच्छी दिखती हैं। ऐसे में जो दुनिया के ज़्यादातर लोग समझ नहीं पाते हैं कि असली क्या है और नक़ली क्या है, वो ठगे ही जाते हैं। दो साल पहले ही जयपुर में एक अमेरिकी महिला ने एक ज्वेलर से छ: करोड़ रुपये का डायमंड (हीरा) ख़रीद लिया। जब उसने इसकी जाँच करायी, तो उसके तोते उड़ गये, क्योंकि डायमंड तो महज़ 300 रुपये का ही था। पर ज्वेलर और उसके बेटे ने अमेरिकी महिला को वो नक़ली डायमंड असली बताकर 5,99,99,400 रुपये का मुनाफ़े में बेच दिया। ज्वेलर ने अमेरिकी महिला को विश्वास में लेने के लिए हॉलमार्क सर्टिफिकेट भी दिया था। जब महिला अपने वतन अमेरिका लौटी, तो उसने हीरे की जाँच करायी और वह सहम गयी, क्योंकि उसके हाथ में छ: करोड़ का नहीं, बल्कि 300 रुपये का हीरा था। यह तो एक छोटी-सी ठगी की दास्तान है। पर हमारे यहाँ तो ऐसे ठगों की कोई कमी ही नहीं है, जो 24 घंटे इसी धंधे में लगे हैं। ठगी और कालाबाज़ारी का खेल बिना पुलिस की मिलीभगत के नहीं चलता है और पुलिस बड़ी ताक़तों के सहयोग के बिना ये सब नहीं करती है।
नक़ली डायमंड और असली डायमंड की कालाबाज़ारी ने असली डायमंड और ईमानदार व्यापारियों के कारोबार को कमज़ोर किया है। नक़ली डायमंड को सीवीडी कहा जाता है, जो लैब में तैयार होते हैं। नक़ली डायमंड की सुरक्षा में भी कम पैसा ख़र्च होता है। असली डायमंड को सिक्योरिटी के अलावा कार्बन चेंबर में रखना पड़ता है, जिसमें प्लाज्मा की ज़रूरत पड़ती है और इसके चैंबर में ऊर्जा और दबाव रखना पड़ता है, जिसके लिए बहुत ख़र्चा आता है। पर नक़ली डायमंड को न चोरी का बहुत डर है और न उसे कार्बन चेंबर और उसमें लगने वाले ख़र्च की ज़रूरत होती है। इतने पर भी नक़ली डायमंड असली डायमंड से ज़्यादा चमकदार हो सकता है, इतना चमकदार कि छोटे-मोटे पारखी भी धोखा खा जाएँ। असली डायमंड और नक़ली डायमंड की क़ीमत में 20 गुना अंतर होता है; पर डायमंड की कालाबाज़ारी करने वाले कई बार नक़ली डायमंड को असली डायमंड की क़ीमत में बेच देते हैं। पिछले कुछ वर्षों में नक़ली डायमंड का कारोबार इतना बढ़ा है कि असली डायमंड की क़ीमतों में 25 प्रतिशत से ज़्यादा की गिरावट आ गयी है। खुले बाज़ारों में ही नक़ली डायमंड की बिक्री 40 प्रतिशत हो रही है। दूसरे नक़ली जेम्स का बाज़ार तो 65 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। कालाबाज़ारी में भी नक़ली डायमंड और जेम्स असली डायमंड और जेम्स को टक्कर दे रहे हैं।
दुनिया का सबसे बड़ा हीरा बोर्स भारत डायमंड बोर्स (बीडीबी) है. जो कि मुंबई के बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स में है। अकेला बीडीबी देश के डायमंड निर्यात बाज़ार का 98 प्रतिशत डायमंड निर्यात करता है। दूसरा डायमंड निर्यात का केंद्र गुजरात के सूरत में स्थित सूरत डायमंड बोर्स (एसडीबी) है। पर दोनों ही डायमंड निर्यात केंद्रों पर दलालों, ठगों, माफ़िया और अपराधियों का जमावड़ा रहता है और ये लोग सरकार, क़ानून और पुलिस से डरे बिना डायमंड की कालाबाज़ारी कर रहे हैं। हमारे गुप्त सूत्रों से पता चला है कि बीडीबी और एसडीबी से 30 प्रतिशत कालाबाज़ारी डायमंड की होती है और कई सफ़ेदपोश इस खेल में शामिल हैं। इन बाज़ारों पर अंडरवर्ल्ड से लेकर मुंबई के बड़े-बड़े कारोबारी और माफ़िया जुड़े हुए हैं। अगर ईमानदार अफ़सर सही जाँच करें, तो कई भोले-भाले चेहरों के नक़ाब उतर जाएँगे और क़ानूनी तरीक़े से डायमंड व्यापार बढ़ जाएगा, जिससे सरकारी ख़ज़ाने में और पैसा आएगा, जिससे जनता की सेवा हो सकेगी।
दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला बाज़ार भारत में ही डायमंड का है; पर कुछ लोग अच्छे डायमंड कारोबारी का नक़ाब ओढ़कर न सिर्फ़ नक़ली डायमंड का धंधा कर रहे हैं, बल्कि डायमंड की कालाबाज़ारी भी बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से कर रहे हैं। 2021 में डायमंड के गहनों का बाज़ार सिर्फ़ हमारे देश में 4.6 बिलियन डॉलर का हुआ था। पर 2022 में इसमें आठ प्रतिशत का उछाल आया और डायमंड से सजे गहनों की बिक्री 5 बिलियन डॉलर से ज़्यादा हुई। 2022 में ख़ाली डायमंड का बाज़ार 65.8 बिलियन डॉलर का रहा। डायमंड कारोबारियों और सरकार का अनुमान है कि 2027 तक भारतीय डायमंड का कारोबार 85.8 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। पॉलिश किये हुए तैयार डायमंड की 80 प्रतिशत आपूर्ति अकेले सूरत से होती है। इस अकेले शहर में गुजरात के 90 प्रतिशत डायमंड की कटिंग और पॉलिश होती है। डायमंड की पैदाइश की बात करें, तो मध्य प्रदेश के पन्ना शहर को हीरों का शहर कहा जाता है। हमें गर्व है कि कोहिनूर हमारे देश का है और जब तक ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका में डायमंड नहीं मिलते थे, तब तक भारत ही दुनिया का अकेला डायमंड पैदा करने वाला देश रहा। आज हमारा देश डायमंड का देश और सोने की चिड़िया भले ही नहीं रहा, जिसके पीछे भी बड़ी लूट ही है; पर हम और हमारी सरकारें ईमानदारी से पेश आएँ, तो भारत सोने और हीरे की चिड़िया फिर से बन सकता है।
पर कई लोग ऐसा नहीं चाहते और भारत की छवि को कालाबाज़ारी से कलंकित करते रहते हैं। ऐसे देशद्रोही अपराधियों को तो सलाखों के पीछे होना ही चाहिए; पर कई अपराधी कारोबारी और ईमानदार अमीरों के भेष में हैं, तो कई अपराधी खादी में लिपटे हैं। बिना ख़ुफ़िया बड़ी जाँच के इन सबकी पहचान कर पाना संभव ही नहीं है। अब देखिए ना! नीरव मोदी जैसे कई डायमंड व्यापारी तो देश का पैसा लेकर भी विदेश भाग चुके हैं, जो विदेशों से कालाबाज़ारी का खेल भी कर रहे हैं। डायमंड और जेम्स की कालाबाज़ारी का जाल गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाज़ारों में पनप रहा है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड में कोयले की खदानों से हीरे निकलते हैं, तो मध्य प्रदेश में छत्रसाल से पन्ना निकलता है। पर इनकी न$क्क़ाशी, पॉलिश और दुनिया के बाज़ारों में इन्हें पहुँचाने का काम सबसे ज़्यादा गुजरात के सूरत से होता है। असली डायमंड और जेम्स की कालाबाज़ारी के अलावा नक़ली डायमंड और जेम्स की कालाबाज़ारी भी कई बड़े बाज़ारों से होती है। शासन-प्रशासन में बेईमानों की तादाद इतनी बड़ी है कि बाज़ारों में दलालों, ठगों, तस्करों, माफ़ियाओं और गुंडों के हिसाब से सब कुछ तय होता है। डायमंड और जेम्स की नीलामी भी इन बाज़ारों में इन सबकी मनमर्ज़ी से हेती है। कालाबाज़ारी में डायमंड और जेम्स का बाज़ार बहुत बड़ा हो चुका है। एक तरफ़ कालाबाज़ारी से अपराधी लोग, भ्रष्ट अधिकारी और इन सबके सरगना नेता मोटी कमायी करके अपनी तिजौरियाँ भर रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ इस कालाबाज़ारी से सरकार को राजस्व का बहुत बड़ा नुक़सान हर साल होता है। हैरानी इस बात की है कि हमारी सरकाार का इस तरफ़ ध्यान ही नहीं है। होगा भी कैसे? सरकार कोई ईमानदार डिटेक्टिव रोबोट तो है नहीं, जो सिर्फ़ बटन दबाने से बिना किसी भेदभाव के कालाबाज़ारियों का सफ़ाया कर देगी। उसे भी तो खादी पहने हुए नक़ली चेहरों पर भोली-भाली सूरत का नक़ाब ओढ़ने वाले मासूम दिखने वाले समाजसेवी और देशभक्त जैसे दिखने वाले चेहरों वाले ही चलाते हैं। ये सफ़ेदपोश अगर काले धंधे वालों से मिलकर चलते हैं, तो काली कमायी में मोटी हिस्सेदारी इन्हें मिलती है और अगर ये उनसे मिलकर नहीं चलेंगे, तो एक ही शर्त पर ज़िन्दा रहेंगे कि बिना कार्रवाई के ख़ामोशी से बैठे रहें। ऐसा न करने पर क्या होगा? यह बताने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि यह सब जानते हैं।
हम आम लोग इसी में ख़ुश रह लेते हैं कि कोहिनूर हमारा है और अंग्रेज इसे चुराकर ले गये। पर हमें यह नहीं मालूम पड़ता है कि हमारी नाक के नीचे कई ऐसे चोर हैं, जो हमें ठगने के लिए कोहिनूर की चमक जैसा मायाजाल बिछाकर बैठे हैं। डायमंड और जेम्स लेने की इच्छा रखने वाले इनके जाल में आसानी से फँस जाते हैं। बचके रहना रे बाबा! कहीं आप भी इन कालाबाज़ारियों के जाल में न फँस जाना।
– क्या अब अमेरिका से भारत के खट्टे-मीठे रिश्तों में तनाव की गुंजाइश होगी कम ?
इंट्रो-अमेरिका में 47वें राष्ट्रपति के रूप में एक कार्यकाल के अंतर के बाद डोनाल्ड ट्रम्प दोबारा विराजमान होने वाले हैं। भारत में हमेशा की तरह अमेरिका में राष्ट्रपति चुने जाने को लेकर ख़ासी चर्चा है। मोदी समर्थक इसे भारत के लिए बहुत अच्छा मान रहे हैं, तो विरोधी अमेरिका के पुराने रवैये के उदाहरण देकर इसका कोई फ़ायदा नहीं बता रहे हैं। हालाँकि ट्रम्प के व्हाइट हाउस में वापस आने से भारत को नये अवसर मिल सकते हैं; लेकिन उभरती विश्व व्यवस्था में अपनी उचित भूमिका को फिर से स्थापित करने के लिए उसे अपनी रणनीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता होगी। अमेरिका और भारत के सम्बन्धों और अब नयी उम्मीदों के अलावा ट्रम्प और मोदी के रिश्तों के बारे में बता रहे हैं गोपाल मिश्रा :-
नवंबर, 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार अमेरिका का चुनाव जीते। 20 जनवरी, 2017 को डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति बने और 20 जनवरी, 2021 तक उन्होंने पूर्ण कार्यकाल सँभाला। लेकिन नवंबर, 2020 में दूसरी बार चुनाव मैदान में उन्हें जो बाइडेन ने पटखनी दे दी और वह हार गये। लिहाज़ा उन्होंने अमेरिका की सत्ता 20 जनवरी, 2021 को जो बाइडेन को हस्तांतरित कर दी। अब 06 नवंबर, 2024 को ट्रंप ने उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को हराकर फिर से जीत लिया और वह 20 जनवरी, 2025 को अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में व्हाइटहाउस पर फिर से क़ब्ज़ा करेंगे। कुछ लोगों को याद होगा कि डोनाल्ड ट्रम्प ने सन् 2014 से सन् 2015 तक रियलिटी टीवी शो ‘द अपरेंटिस’ और ‘द सेलेब्रिटी अपरेंटिस’ की मेज़बानी की थी। उन्होंने फ़िल्मों, टीवी धारावाहिकों और विभिन्न विज्ञापन फ़िल्मों में दज़र्नों कैमियो भूमिकाएँ भी की हैं। सन् 1990 में ‘घोस्ट्स कैन नॉट डू इट’ के लिए 11वें गोल्डन रास्पबेरी पुरस्कार में सबसे ख़राब सहायक अभिनेता का पुरस्कार जीतने के अलावा 2019 में उन्होंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘डेथ ऑफ अ नेशन एंड फॉरेनहाइट 11/9’ में अपनी भूमिका के लिए 39वें गोल्डन रास्पबेरी अवार्ड्स में सबसे ख़राब अभिनेता और सबसे ख़राब स्क्रीन कॉम्बो का पुरस्कार जीता। उनके एक टेलीविजन धारावाहिक में एक संवाद है, जिसमें कहा गया है- ‘आपको नौकरी से निकाल दिया गया है।’ जो अमेरिका में नौकरी बाज़ारों की नाज़ुक स्थिति को दर्शाता है। यह तब और भी प्रासंगिक हो जाता है, जब अमेरिका के सैन्य-औद्योगिक परिसर के भारी वित्तीय समर्थन के बावजूद राष्ट्रपति पद का सपना देख रही कमला हैरिस को 06 नवंबर को चुनाव में अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा।
अमेरिका का चुनाव सिर्फ़ वहाँ एक नये राष्ट्रपति के चयन करने वाला नहीं है, बल्कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का नेतृत्व करने के लिए मतदान है और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए एक बार फिर से चुनाव अवसरों और चुनौतियों का एक नया सेट पेश इस चुनाव में हुआ। अमेरिका का चुनाव कभी-कभी प्रत्यक्ष या अमूमन अप्रत्यक्ष रूप से महाद्वीपों के आसपास के देशों को प्रभावित और प्रभावित करता है। डोनाल्ड ट्रम्प के राजनीतिक वर्चस्व को उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा मान्यता और स्थापित किये जाने के साथ हाल ही में संपन्न चुनाव में थिएटर या शो की दुनिया का मसालेदार स्वाद भी है कि वह कई अलग कामों से जुड़े रहे हैं। उनमें से एक में सामान्य कॉर्पोरेट विस्मयादिबोधक- ‘आपको निकाल दिया गया है!’ याद किया जा रहा है। अमेरिका में हाल ही में हुए कड़े मुक़ाबले वाले चुनाव की शुरुआती प्रतिक्रियाओं ने न केवल घरेलू अमेरिकी राजनीति में सदमे की लहर पैदा कर दी है, बल्कि रूस और चीन सहित प्रमुख विश्व-शक्तियों द्वारा भी इस पर ध्यान केंद्रित किया गया। उनकी प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग थीं, या तो दबी हुई थीं, या अपेक्षा से अधिक सतर्कता वाली थीं। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की ने भी ट्रम्प को उनकी जीत के लिए बधाई दी है। दिलचस्प बात यह है कि नेतन्याहू को अक्टूबर के आख़िरी सप्ताह में कहा गया था कि उनके प्रशासन के उद्घाटन से पहले ग़ाज़ा संघर्ष समाप्त होना चाहिए और जेलेंस्की भी इस तथ्य से काफ़ी परिचित हैं कि ट्रम्प प्रशासन अब उनके देश को समर्थन नहीं देगा।
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया कुछ हद तक जटिल है; लेकिन इसने दूर-दराज़ के देशों में इतना ध्यान आकर्षित किया है कि भारत में भी अनजान लोगों को पता है कि लाल और नीले राज्य क्रमश: अमेरिकी राजनीतिक दल, रिपब्लिकन और डेमोक्रेट क्या प्रतिनिधित्व करते हैं? इसी तरह वे जानते हैं कि बैंगनी रंग के रूप में वर्णित राज्य वास्तव में स्विंग स्टेट्स या युद्ध के मैदान वाले राज्य हैं। अमेरिका के 50 राज्यों में से सात में से मिशिगन, विस्कॉन्सिन और पेंसिल्वेनिया जैसे इन स्विंग राज्यों में मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताएँ उम्मीदवार की संभावनाओं को प्रभावित करती हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी की कमला हैरिस एक मज़बूत उम्मीदवार के रूप में दिखायी देने के बावजूद निर्वाचक मंडल में केवल 226 वोट ही हासिल कर सकीं, जबकि ट्रम्प ने अपना बहुमत सुरक्षित करते हुए 270 का आँकड़ा पार कर लिया और अंतत: अंतिम टैली में 295 वोट प्राप्त किये।
दोबारा बनें रणनीतियाँ
भारत के पास अब वाशिंगटन में बहुत अधिक मैत्रीपूर्ण शासन है। भारत को विभिन्न मुद्दों, विशेष रूप से आर्थिक और रणनीतिक मामलों के प्रमुख क्षेत्रों में अपने कमज़ोर दृष्टिकोण की समीक्षा करने की आवश्यकता है। यह सर्वविदित है कि भारत के सुखद उष्णकटिबंधीय वातावरण का हिस्सा होने के कारण भारतीयों में आलस्य की प्रवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में, भारत को व्हाइट हाउस में एक मिलनसार राष्ट्रपति के साथ गहरी नींद में सोने के लालच से बचना चाहिए। जाने-माने रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, ट्रम्प को लोकतांत्रिक दुनिया का एक मज़बूत भागीदार बनने के लिए अपनी रणनीतियों और प्रयासों को फिर से तैयार करना होगा; विशेष रूप से उनके विनिर्माण प्रणालियों और उनके तत्काल पड़ोस में रणनीतिक प्रयासों में उल्लेखनीय बदलाव के संदर्भ में।
वह इशारे में बताते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के वर्षों में विभिन्न प्रमुख और रणनीतिक क्षेत्रों में पर्याप्त लाभ के लिए ज़ोर देने के बजाय अनावश्यक बयानबाज़ी पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है; शायद केवल भारतीय नेतृत्व को मर्दाना रूप देने के लिए। नई दिल्ली के जानकार वर्ग में यह महसूस किया जा रहा है कि नये अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ व्यवहार करते समय यह बहु-प्रचारित दृष्टिकोण अनुत्पादक साबित हो सकता है।
इस संदर्भ में शायद यह सुझाव दिया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले वर्तमान भारत को राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल की तुलना में कहीं अधिक परिणामोन्मुख बनने का अवसर मिलेगा। बाइडेन के अमेरिकी शासन से बाहर होने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प की दूसरी पारी औपचारिक रूप से अगले दो महीनों में व्हाइट हाउस में शुरू होगी। लेकिन परिवर्तन, विशेष रूप से संघर्षों को समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित करने की प्रक्रिया, इस अवस्था परिवर्तन-काल के दौरान देखी जाने की उम्मीद है।
इस ऐतिहासिक परिवर्तन के दौरान भारतीयों को एशिया में सबसे भरोसेमंद सहयोगी के रूप में अपनी भूमिका में ट्रम्प द्वारा ज़ोर दी गयी नयी उभरती विश्व व्यवस्था में पारस्परिक रूप से सार्थक, लाभकारी योगदान के लिए ख़ुद को फिर से स्थापित और पुनर्जीवित करना होगा। कई लोगों के लिए नई दिल्ली के मंदारिनों के लिए निवर्तमान शासन के दौरान अमेरिकी सत्ता संरचना में प्रमुख पदों पर बैठे भोले-भाले लोगों के साथ व्यवहार करना शायद आसान था। इसमें उनका एक वर्ग पश्चिम के पुराने औपनिवेशिक एजेंडे की पहचान करना शामिल था, जैसे बांग्लादेश में कट्टरपंथी इस्लाम को फिर से स्थापित करना या ईरान में पादरी शासन को चुनौती देने के लिए अनिच्छुक होना। बाइडेन शासन के समापन के अंतिम शिलालेख लिखे जाने से पहले भारतीयों को न केवल अमेरिकी प्रशासन से निपटने के लिए एक नयी कहानी बुननी होगी, बल्कि उन्हें एक नये निवेश के अनुकूल माहौल को फिर से स्थापित करना होगा। यह ध्यान देने योग्य है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल के बाद मोदी शासन ने अर्थ-व्यवस्था पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया है। बजाय इसके कि कर (टैक्स) और पुलिस अधिकारियों को अक्सर राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए तैनात किया जाता रहा है।
राजनीतिक परिदृश्य पर ट्रम्प के आगमन के साथ यदि मोदी सरकार मित्रवत् शासन से लाभान्वित होने की इच्छुक है, तो उसे अंतत: भारतीय घरेलू प्रणालियों में आर्थिक सुधारों और पारदर्शिता की प्रक्रिया को बहाल करना होगा। मोदी सरकार के लिए यह बहाना बनाना मुश्किल होगा कि समापन की ओर जा रहे वर्तमान बाइडेन प्रशासन की उदासीनता के कारण वह उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर सकी। उसे कुछ ज्ञात और अज्ञात आँकड़ों के हवाले से अपने दावों को छुपाने की बार-बार की जाने वाली कोशिशें छोड़नी होंगी। हाल ही में किसी भी भारतीय बाज़ार का दौरा करने से पता चलेगा कि पिछले 10 वर्षों से भारत लगातार दीपावली की रोशनी के लिए खिलौने और रोशनी का आयात कर रहा है और यहाँ तक कि गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियाँ भी चीन से आयात की जा रही हैं। इस प्रकार अनुमान है कि इस अवधि के दौरान उसने अपने उत्तरी पड़ोसी के साथ बारहमासी व्यापार घाटे को झेलते हुए चीनी अर्थ-व्यवस्था में लगभग 1,200 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया है।
उम्मीद है कि अगले दो महीने वैश्विक रणनीतिक मुद्दों और व्यापार नीतियों में अहम भूमिका निभाने वाली ताक़तों के लिए बेहद अहम रहने वाले हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अनिच्छुक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अंतत: नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प का स्वागत किया। एक सतर्क संदेश में उन्होंने आशा व्यक्त की कि दोनों देश अंतत: व्यापार युद्ध, ताइवान के भविष्य और दक्षिण चीन सागर से सम्बन्धित रणनीतिक मुद्दों सहित पेचीदा मुद्दों पर बातचीत के लिए एक मज़बूत तंत्र विकसित करने में सफल होंगे। इस बीच यूक्रेन से हथियारों और गोला-बारूद के ऑर्डर अचानक रद्द होने से जर्मनी को आर्थिक नुक़सान उठाना पड़ रहा है। हालाँकि यह उम्मीद की जाती है कि यदि पूर्वी यूरोपीय युद्ध के मोर्चे पर युद्ध-विराम शुरू होता है, तो यह वित्तीय नुक़सान अस्थायी हो सकता है। यदि शान्ति की ताक़तें आख़िरकार सक्रिय हो गयीं, तो यूरोपीय संघ के अन्य सदस्यों को भी कुछ राहत मिल सकती है।
दोबारा अमेरिकी राजनीति में अवतरित हुए ट्रम्प के साथ पश्चिम में अमेरिकी सहयोगियों को वापस जीतने की उम्मीद है। ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान वे इस बात से नाख़ुश थे कि ट्रम्प ने उन्हें नाटो के तहत सुरक्षा व्यवस्था की उच्च लागत को माफ़ करने के लिए कहा था। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध ने उन्हें दण्डित किया है। वे अब सुरक्षा, स्वतंत्रता और मुक्त व्यापार के लिए मिलकर काम करने को तैयार हैं।
भारत ने अपना काम कर दिया
यदि ट्रम्प के वैश्विक एजेंडे को ठीक से नहीं समझा गया, तो नये अमेरिकी प्रशासन के भारत पर संभावित प्रभाव के बारे में चर्चा निश्चित ही रहेगी। यह समझाया जा सकता है कि अमेरिका को अत्याधुनिक तकनीकों का समन्वय करके अपनी आर्थिक शक्ति फिर से हासिल करनी है। अपने एक चुनावी भाषण में ट्रम्प ने उन भारतीयों को जॉब वीजा देने की बात कही थी, जो अमेरिका में पढ़ाई के बाद अपने देश में करोड़पति बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि नई दिल्ली को अपनी प्रौद्योगिकियों को अद्यतन करके भारत को पुन: स्थापित करने के लिए ओवरटाइम काम करना होगा और अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम के साथ व्यापार और व्यापार लेन-देन में पारदर्शिता भी लानी होगी। हालाँकि साउथ ब्लॉक, जिसमें पीएमओ, रक्षा और विदेशी मामले हैं; और नॉर्थ ब्लॉक, जो गृह और वित्त मंत्रालयों का मुख्यालय है; दोनों के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि यह वास्तव में एक कठिन काम हो सकता है; लेकिन असंभव नहीं।
उम्मीद है कि वाशिंगटन में एक मैत्रीपूर्ण प्रशासन भारत को क्षेत्र में अपने सहयोगियों और दोस्तों को फिर से जीतने में मदद करेगा। हाल के वर्षों में भारत भी बिडेन की चीन समर्थक नीति के तहत होशियार रहा है। शायद अपने बेटे, हंटर और अन्य अमेरिकी निवेशकों सहित अपने परिवार के वित्तीय दबाव के कारण वह ड्रैगन से निपटने के लिए कोई दूरगामी राजनीतिक रणनीति तैयार करने में असमर्थ थे।
हालाँकि वाशिंगटन में एक मित्रवत् राष्ट्रपति के साथ व्यवहार करने के लिए भारत को काफ़ी मंथन करना है। शर्मनाक और निराधार आरोपों से घिरे ट्रम्प के सत्ता से चार साल के निर्वासन ने उन्हें एक अधिक परिपक्व, मौसम-पीड़ित राजनेता में बदल दिया है। अब एक राजनेता की भूमिका में क़दम रखने के लिए वह तैयार हैं।
हाल के महीनों के दौरान उनके चुनाव अभियानों और उनके देशवासियों, सहयोगियों और सहयोगियों के लिए टिप्पणियों का परिणाम यह रहा है कि उनकी सोच है- ‘हमें एक साथ डूबना और तैरना है।’ संघर्षों के लिए अब कोई झूठी उम्मीदें और एजेंडा नहीं, और अमेरिकी नागरिकों को अब दूसरों के लिए ख़ून नहीं बहाना पड़ेगा; चाहे वह अफ़ग़ानिस्तान हो या यूक्रेन। वास्तव में जैसा कि कई रक्षा और विदेशी मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि व्हाइट हाउस में ट्रम्प की उपस्थिति से भारत को फ़ायदा हो सकता है। लेकिन उसे अपनी वैध भूमिका को फिर से स्थापित करने के लिए अपनी रणनीतियों को नया रूप देना होगा और नये सिरे से पुनर्गठन करना होगा।
जब चुनाव नतीजे आने शुरू हुए, तो वाशिंगटन में कमला हैरिस का चुनाव कार्यालय अनिच्छुक था। लेकिन बाद में उन्होंने न केवल एक लोकतांत्रिक नेता की मर्यादा बनाए रखी, बल्कि ट्रम्प को उनकी चुनावी जीत के लिए बधाई भी दी। हालाँकि हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक हाई प्रोफाइल सभा में उन्होंने कहा कि एक साधारण पृष्ठभूमि से आने के बावजूद उन्होंने कभी इसकी उम्मीद नहीं की थी कि वह अमेरिकी प्रतिष्ठान में इतने ऊँचे पद पर होंगी और राष्ट्रपति पद के लिए भी चुनाव लड़ सकती हैं।
इस बीच ऐसा प्रतीत होता है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के लिए उदार वित्त पोषण ने अमेरिकी संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जिसके परिणामस्वरूप तूफ़ान पीड़ितों को दी जाने वाली राहत प्रभावित हुई है। अमेरिका में आये राजनीतिक तूफ़ान के अलावा सितंबर, अक्टूबर और नवंबर के महीनों के दौरान अमेरिका की एक बड़ी आबादी तूफ़ान से पीड़ित हुई है। कमला हैरिस सहित शीर्ष अधिकारियों के आश्वासन के बावजूद पीड़ित जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
दो तूफ़ान- हेलेन और मिल्टन पहले ही सितंबर और अक्टूबर में मैक्सिकन खाड़ी से टकरा चुके हैं, जिससे बड़े पैमाने पर नुक़सान हुआ है और नये चक्रवात के किसी भी समय तटीय क्षेत्रों में आने की आशंका है। नवंबर में इसके मैक्सिको की खाड़ी को पार करने की संभावना है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले ही पाँच तूफ़ान दस्तक दे चुके हैं। अपने व्यक्तिगत प्रयासों के बावजूद कमला हैरिस को संघीय आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी से चक्रवात पीड़ितों के लिए प्रति परिवार केवल 750 अमेरिकी डॉलर मिल सके, जिसने बताया है कि उसके पास हज़ारों बेघर भूखे पीड़ितों के लिए पर्याप्त धन नहीं है।
मेलानिया ट्रम्प, जिन्होंने 2017 से 2021 तक प्रथम महिला के रूप में कार्य किया; ने सोशल मीडिया पर एक बयान जारी किया है- ‘हम अपने गणतंत्र के दिल-स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे। मैं आशा करती हूँ कि हमारे देश के नागरिक एक-दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता में फिर से शामिल होंगे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए विचारधारा से ऊपर उठेंगे। अमेरिकी ऊर्जा, कौशल और पहल हमारे देश को हमेशा के लिए आगे बढ़ाने के लिए हमारे सर्वोत्तम दिमाग़ों को एक साथ लाएगी।’
ट्रम्प के मंत्रिमंडल में कौन-कौन?
राष्ट्रपति पद की शपथ लेने से पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने लिए अधिकांश नामों की घोषणा कर दी है। उनकी दूसरी पारी के नये मंत्रिमंडल में एलन मस्क से लेकर विवेक रामास्वामी जैसे नाम भी शामिल हैं। इन दोनों को डिपोर्टमेंट और गवर्मनमेंट एफिशिएंसी का प्रमुख बनाया गया है। विवेक कई सरकारी विभागों और एजेंसियों को बंद करने के पक्ष में रहे हैं। इसके अलावा डोनाल्ड ट्रम्प ने फॉक्स न्यूज के एंकर पीट हेगसेग को रक्षा मंत्री, स्टीवन विटकॉफ को मिड ईस्ट का प्रतिनिधि बनाने का मन बनाया है, तो सुसी विल्स को भी अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने का ऐलान कर दिया है। सुसी विल्स अमेरिकी इतिहास में पहली महिला चीफ-ऑफ-स्टाफ भी बन गयी हैं।
इसके अलावा ट्रम्प ने फ्लोरिडा के सीनेटर मार्को रुबियो को विदेश मंत्री, सांसद माइक वाल्ट्ज को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाने का मन बनाया है। दोनों ही भारत-अमेरिका सम्बन्धों के समर्थक हैं। भारत सरकार के समर्थक मान रहे हैं कि रुबियो और वॉल्ट्ज को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके ट्रम्प ने भारत और अमेरिका के सम्बन्धों को और मज़बूत करने की गारंटी दी है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि ट्रम्प-2.0 के मंत्रिमंडल में कई ऐसे नाम भी शामिल हैं, जो भारत हितों के प्रति ज़रा भी सकारात्मक नहीं हैं। ख़बरें हैं कि ट्रम्प ने अपनी सहयोगी एलिस स्टेफनिक को संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत के रूप में भेजने की पेशकश की है। ट्रम्प ने टॉम होमन को अमेरिका की सीमाओं और अवैध अप्रवासियों के निर्वासन का प्रभारी, रॉबर्ट एफ. कैनेडी को स्वास्थ्य मामलों, पूर्व कांग्रेसमैन ली जेल्डिन को न्यूयॉर्क स्टेट का एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी के एडमिनिस्ट्रेटर, दक्षिण डकोटा की गवर्नर क्रिस्टी नोएम को गृह सुरक्षा सचिव चुना है। ट्रम्प के प्रमुख आर्थिक सलाहकार बेसेंट को ट्रेजरी सचिव की ज़िम्मेदारी मिल सकती है। ट्रम्प के मंत्रिमंडल में निक्की हेली और पोम्पिओ को फ़िलहाल कोई जगह नहीं मिली है।
क्या कर सम्बन्धी मुद्दे पर चलेंगे ट्रम्प?
एक अमेरिकी मीडिया चैनल के मुताबिक, नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी नागरिकों पर आयकर ख़त्म करने का प्रस्ताव रखा है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि वह जल्द ही नागरिकों को परेशान करने वाली इस क्रूर प्रणाली को समाप्त करने के लिए एक टैरिफ योजना की घोषणा करेंगे। दुनिया के सबसे प्रशंसित अरबपतियों में से एक एलन मस्क से उम्मीद की जाती है कि वह विशाल सरकारी तंत्र में अतिरेक को ख़त्म करने के साथ-साथ सरकारी संस्थानों में फ़िज़ूलख़र्ची को रोकने के युग की शुरुआत करेंगे। जैसा कि ट्रम्प ने वादा किया था कि वह जल्द ही डॉज (डीओडीजीएल) या सरकारी दक्षता के एक नये विभाग का नेतृत्व करेंगे। भारत की तरह संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सरकारी कार्यालयों के अनावश्यक विस्तार ने न केवल सरकार के कामकाज को धीमा कर दिया है, बल्कि राज्य की अर्थ-व्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
भारत में लगातार प्रधानमंत्रियों के आश्वासनों के बावजूद राजनेताओं और सिविल सेवकों के बीच साँठगाँठ ने प्रशासन की दक्षता से समझौता किया है। भारतीय नौकरशाही एक ऑक्टोपस की तरह विस्तारित हो गयी है, जिसने जीवन के हर क्षेत्र में- विशेष रूप से आधुनिक कृषि, भारतीय उद्योग, अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी और विश्व स्तरीय शिक्षा के विकास में भारतीय पहल को लगभग दबा दिया है।