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भारत जब बेहतर स्थिति में होगा तब हम आरक्षण खत्म करने पर विचार करेंगे: राहुल गांधी

नई दिल्ली : लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी आजकल अमेरिका के दौरे पर हैं। इस दौरान उनके बयानों पर विवाद खड़ा हो गया है। अमेरिकी दौरे पर गए राहुल गांधी ने कहा है कि जब कभी भारत बेहतर स्थिति में होगा, तब कांग्रेस पार्टी आरक्षण खत्म करने के बारे में सोचेगी। इस पर मायावती ने कहा कि ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग के लोग राहुल गांधी के इस नाटक से सतर्क रहे। कांग्रेस पार्टी सत्ता में आते ही आरक्षण खत्म कर देगी। संविधान और आरक्षण बचाने का नाटक करने वाली इस पार्टी से लोग जरूर सजग रहें। अमेरिका में भारतीय समुदाय के लोगों के साथ बातचीत के दौरान राहुल गांधी ने एक शख्स से उसका नाम पूछा और कहा कि भारत में इस बात को लेकर लड़ाई है कि एक सिख को पगड़ी और कड़ा पहनने की इजाजत दी जाएगी, क्या एक सिख गुरुद्वारे जा सकता है। राहुल गांधी ने कहा कि सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि लड़ाई किस बात को लेकर है। लड़ाई राजनीति को लेकर नहीं है। इस तरह की लड़ाई सिर्फ सिखों के लिए नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लिए है। राहुल गांधी के बयान पर बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आरपी सिंह ने पलटवार करते हुए उन पर केस करने की बात कही और कहा कि वो उन्हें कोर्ट में घसीटेंगे।

गाजा में कहर बनकर टूटा इजरायल, खान यूनिस में किया हवाई हमला; 40 की मौत-65 घायल

गाजा : गाजा में इजरायली हवाई हमले में 40 लोगों की मौत की खबर है। करीब 65 लोग घायल हैं। यह जानकारी गाजा की नागरिक सुरक्षा एजेंसी ने साझा की। मंगलवार को इजरायल ने फिलिस्तीनी क्षेत्र के दक्षिण में एक मानवीय क्षेत्र पर हमला। इजरायल की सेना का कहना है कि उसने इस क्षेत्र में हमास कमांड सेंटर को निशाना बनाया है। इजरायली सेना ने यह हमला गाजा के खान यूनिस शहर के अल-मवासी इलाके में किया। यह वह इलाका है जिसे इजरायल की सेना ने युद्ध शुरू होने पर सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया था। यहां पर हजारों की संख्या में फिलिस्तीनियों ने शरण ले रखी है।

स्थानीय लोगों और डॉक्टरों ने कहा कि खान यूनिस के पास अल-मवासी में एक टेंट कैंप में चार मिसाइलों से हमला किया गया। यह शिविर विस्थापित फिलिस्तीनियों से भरा हुआ है। गाजा नागरिक आपातकालीन सेवा के मुताबिक 20 टेंटों में आग लग गई। इजरायली मिसाइलों ने नौ मीटर (30 फुट) तक गहरे गड्ढे बना दिए हैं। घायल 65 लोगों में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं।

इजरायली सेना ने कहा कि उसने खान यूनिस में मानवीय क्षेत्र के अंदर स्थित एक कमांड और नियंत्रण केंद्र के भीतर काम कर रहे हमास के आतंकवादियों पर हमला किया। हमास ने इजरायल के आरोपों से इनकार किया। हमास ने एक बयान में कहा, “यह एक स्पष्ट झूठ है। इसका उद्देश्य इन घृणित अपराधों को उचित ठहराना है। हमने कई बार इनकार किया है कि उसके कोई भी सदस्य नागरिक सभाओं में मौजूद नहीं हैं। न ही इनका सैन्य उद्देश्यों से इस्तेमाल कर रहे हैं।”

आन्दोलन और अराजकता का फ़र्क़

शिवेन्द्र राणा

कोलकाता की महिला चिकित्सक के साथ हुई यौन हिंसा एवं हत्या और उसके बाद उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में यौन हिंसा के जघन्य अपराधों ने पूरे राष्ट्रीय समाज को शर्मसार कर दिया। इन घटनाओं ने इस विचार की ही पुष्टि की कि आधुनिकता एवं सभ्यता के तमाम दावों के बावजूद जंगलीपन का एक अंश अभी भी मानवीय जीवन में न सिर्फ़ सक्रिय है, बल्कि समय-समय पर ख़तरनाक रूप से प्रभावी भी हो जाता है। कोलकाता की घटना के बाद चिकित्सक वर्ग में जो आक्रोश दिखा, जैसा उनका आन्दोलन और विरोध-प्रदर्शन हुआ, वह स्वाभाविक था; क्योंकि मानव जीवन सुरक्षा के लिए समर्पित चिकित्सकों के सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा राष्ट्र की ज़िम्मेदारी है। अत: आम जनता भी उनके ग़म और ग़ुस्से से उपजे आन्दोलन की समर्थक ही नहीं, बल्कि सहभागी भी थी।

लेकिन इसके बाद यह आन्दोलन विरोध से इतर ज़िद एवं अहम् का टकराव बन गया। देश के तमाम हिस्सों में डॉक्टर्स एसोसिएशन ने चिकित्सिय सेवा ठप कर कई प्रकार की माँगें रखीं, जिनमें सुरक्षा और तत्कालीन माँगें तो थीं ही, साथ ही कुछ समूह तत्काल दाण्डिक क़ानून बनाने के साथ ही त्वरित न्याय करते हुए आरोपियों को अविलम्ब सज़ा देने की माँग करने लगे। उधर आन्दोलन का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि अस्पतालों में मरीज़ तड़पते रहे और आन्दोलनकारियों के साथ ही मरीज़ और तीमारदार सभी सड़कों पर थे। कोई ग़म-ग़ुस्से में, तो कोई अपनी पीड़ा में।

ख़ैर, इस मामले के कुछ पार्श्व पहलुओं पर विमर्श आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप पिछले कुछ समय में एक-दो राज्यों में ही महिला पुलिसकर्मियों के साथ ऐसी यौन हिंसा की घटनाएँ भी घटीं। हालाँकि उनमें से कुछ ने पुरुष सहकर्मियों पर ही आरोप लगाए। लेकिन क्या ऐसी घटनाओं पर पूरे पुलिस महकमे को ड्यूटी छोड़ हड़ताल पर चले जाना चाहिए था। लेकिन उसके बाद क़ानून व्यवस्था की क्या गति होती? डॉक्टरों का उच्च शिक्षित वर्ग यह नहीं समझ पाया कि उनके प्रोफेशन की समाज के लिए क्या महत्ता है? वे नगर निगम के कर्मचारी नहीं हैं, जिनकी कामबंदी से सड़कें-नाले साफ़ नहीं होंगे या जन्म प्रमाण-पत्र, भूमि के रिकॉर्ड जैसे काग़ज़ात नहीं बनेंगे, तो आम नागरिक का जीवन उतना प्रभावित नहीं होगा।

आप रेलवे, शिक्षण या डीआरडीओ, आईजीएनसीए आदि शोध संस्थानों जैसी सेवा का हिस्सा भी नहीं हैं, जिसका ठप पड़ना कोई त्वरित संकट पैदा करता है; बल्कि आपकी कार्यक्षमता व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है। आप धरती पर श्रेष्ठ ईश्वरीय विधान के जीवन रक्षक हैं। आप ही अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ेंगे, तो स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो जाएँगी और हुईं भी। चिकित्सक जीवन-मरण को साधने वाली विद्या के प्रतिनिधि हैं। उनका अपने कर्तव्य से विमुख होना मानवीय जीवन के लिए घातक और प्राणान्तक होगा। क्या हड़ताल पर बैठे डॉक्टरों को इसका ध्यान नहीं रहा? अत: स्पष्ट कहें, तो यह विशुद्ध भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) है, जहाँ आम जनता की जान दाँव पर लगाकर आप सत्ताओं को झुकाना और समाज को डराकर अपनी प्रभावित साबित करना चाहते हैं। यदि आप अपना कार्य करते हुए विरोध जताते हैं, तो समाज में आपके प्रति आदर तथा समर्थन और बढ़ता।

रही अपराध की बात, तो मानव सभ्यता के शुरुआत के साथ ही यह रहा है और जब तक कठोर दण्ड विधान नहीं होगा, यह रहेगा। जैसे अर्थशास्त्रीय भाषा में पूर्ण रोज़गार की आदर्श स्थिति असंभव है, वैसे ही सम्पूर्ण अपराध मुक्त समाज की संकल्पना ऐसी व्यवस्था में एक यूटोपिया सरीखा विचार है। यहाँ ज़रूरत है अपराधों और वीभत्सता की त्वरा शमन और रोकथाम की। अपराधियों पर अंकुश लगाने की। यदि अपराध हो चुका है, तो अपराधियों के विरुद्ध त्वरित कठोर दाण्डिक कार्यवाही की। ऐसे ज़्यादातर मामलों में पुलिस-प्रशासन की कार्रवाई दोषपूर्ण रही है, जिसे न्यायालय एवं विशेष जाँच एजेंसियों की सक्रियता के बाद अपनी उचित दिशा मिली है। लेकिन डॉक्टरों की हड़ताल से आर्थिक रूप से सक्षम मरीज़ों के लिए तो निजी नर्सिंगहोम का विकल्प हैं; लेकिन ग़रीब, वंचित वर्ग के मरीज़ क्या करें? धरती के भगवान तो उन्हें मरने के लिए छोड़ गये हैं। इधर पिछले क़रीब 11 दिनों में निजी अस्पतालों की पौ-बारह रही। ऐसे हड़ताल तो उनके लिए नोट छापने के मा$कूल मौक़े होते हैं। उन्हें ऐसी अराजकता में भी मानो अवसर मिल गया हो। प्राइवेट प्रैक्टिसर्न्स तो इसे लम्बा खींचते देख ख़ुश ही होंगे। उनकी कमायी बढ़ गयी। किसी शायर ने ठीक ही कहा है :-

‘सहमी हुई है झोपड़ी बारिश के ख़ौफ़ से,

महलों की आरजू है कि बरसात तेज़ हो!’

यानी सवाल वही है। आख़िर एक व्यक्ति के कुकृत्य का दंड सम्पूर्ण समाज क्यों भुगते? जबकि वह स्वयं आपके संघर्ष का सहयोगी तथा पक्षधर है, तब तो यह अनुचित भी है। देश आपकी मौलिक माँग सुनकर स्वीकार रहा है। उसका समर्थन कर रहा है; लेकिन क्या आप आम जनता के शारीरिक व्याधियों से उपजी पीड़ा की दर्दनाक आवाज़ें सुन रहे हैं? और कैसा त्वरित न्याय चाहिए आपको? इस देश में कोई भी इस दुष्कृत्य को जायज नहीं ठहरा रहा है; लेकिन आधुनिक जम्हूरियत में न्यायिक प्रक्रिया का औचित्य एवं न्याय प्रणाली के सम्मान का अर्थ समझना होगा। देश में न्यायपालिका है। वह अपना काम करेगी, फ़ास्ट ट्रैक अदालतें हैं, परिष्कृत दंड संहिता, महिला अपराध विरोधी कड़े क़ानून हैं। इसके बावजूद त्वरित न्याय की माँग का तो अब एक ही मतलब बचा है कि तत्क्षण शरई अदालत लगाकर बीच चौराहे अपराधियों का सिर काट दिये जाएँ। या अंग-भंग किया जाए या उन्हें गोली मारी जाए। हालाँकि उनका अपराध इतना जघन्य है कि ये सज़ाएँ भी बहुत छोटी हैं। लेकिन न्याय के ऐसे बर्बर तरीक़े अपनाकर क्या आप अपनी लोकतांत्रिक प्रगति को पश्चगामी दिशा में नहीं धकेलेंगे? क्या आप मध्ययुगीन जीवनशैली में लौटने को उतारू हैं?

इसके अतिरिक्त नये आपराधिक क़ानून का निर्धारण तथा इसे त्वरित लागू करना जैसे माँग तात्कालिक भावुक दावे, तो हो सकते हैं; लेकिन यह संवैधानिक गरिमा नहीं है। क़ानून सड़कें बनाने की जगह नहीं है। इसके लिए देश में संसद और विधानमंडल हैं। अधिकार के नाम पर अराजकता को गौरवान्वित एवं संवैधानिक न्याय का विकृतिकरण स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परिप्रेक्ष्य में बताते चलें कि बिहार में छात्र आन्दोलन के तीव्र होने के दौरान उस समय के महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाजसेवी एवं पूर्व आईसीएस अधिकारी आर.के. पाटिल, जिनका महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में अपने कार्यों के कारण काफ़ी सम्मान था; ने 04 अक्टूबर, 1974 को जे.पी. को लिखे पत्र में लिखा- ‘इंदिरा गाँधी सरकार की ख़ामियों से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं; लेकिन वह इस बारे में अभी तक आश्वस्त नहीं हैं कि क्या गलियों-मोहल्लों की बहस से चलने वाली सरकार संसदीय बहसों द्वारा बने क़ानून के तहत चल रही सरकार से बेहतर हो पाएगी? आज आप अच्छाई के लिए लड़ रहे हैं; लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ द्वारा चलाया जाने वाला आन्दोलन रॉब्सपियर भी पैदा कर सकता है।’

निकट ही बांग्लादेश का उदाहरण देखिए कि एक लोकतांत्रिक आन्दोलन कैसे हिन्दू एवं भारत विरोधी तथा अपने ही देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के विरुद्ध हो गया है। राष्ट्रीय नायक शेख़ मुजीबुर्रहमान की प्रतिमाएँ तोड़ीं एवं अभद्र तरीक़े से अपमानित की गयीं। हिन्दुओं के घर, उपासना स्थल, दुकानें लूटी गयीं। उनकी हत्याएँ हुईं। औरतों का बलात्कार हुआ। वो इसलिए, क्योंकि आन्दोलन में जब ध्येय की नैतिकता पतित होती है, तो वो अराजकतापूर्ण एवं विघटनकारी हो जाता है। और अराजकता को प्रश्रय देना राष्ट्रीय समाज के लिए आत्मघाती निर्णय होता है।

बलात्कार के बाद डॉक्टर बेटी की हत्या देश के लिए एक शर्मनाक घटना है और पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के पालन के साथ अपराधियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही राष्ट्रीय नैतिकता का वास्तविक तक़ाज़ा है। लेकिन उसकी दोषसिद्धि आम भारतीयों के विरुद्ध होना भी अनैतिकता का प्रतिमान है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय की अपील और उसके सकारात्मक निर्देशों के बाद अखिल भारतीय चिकित्सक संघ महासंघ (एफएआईएमए) ने अपनी 11 दिनों की हड़ताल को समाप्त करने का निर्णय किया। लेकिन इस दौरान आम लोगों के प्रति डॉक्टर्स एसोसिएशन के संवेदनहीन एवं शुष्क व्यवहार ने भी आहत किया है। किसी भी अन्याय का प्रतिकार व्यक्ति का अधिकार है। और इस रूप में सहकर्मी महिला चिकित्सक के विरुद्ध हुए पाशविक अपराध के विरुद्ध आन्दोलन एवं विरोध-प्रदर्शन चिकित्सक समूह का अधिकार है। लेकिन यह अधिकार तभी अर्थपूर्ण होता है, जब यह कर्तव्य के साथ समन्वित हो।

अधिकारों के प्रति संकुचित-स्वार्थी मानसिकता राष्ट्र की नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में अराजकता पैदा करती है। उम्मीद है कि धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि ऐसी स्थिति नहीं आने देना चाहेंगे और अपने कर्तव्य पालन के प्रति दृष्टिकोण उन्नत रखेंगे।

महिला पहलवान विनेश फोगाट और ओलंपिक पदक विजेता बजरंग पुनिया कांग्रेस में शामिल

नई दिल्ली : हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी सफलता हाथ लगी है। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में अनेक पदक जीतने वाली महिला पहलवान विनेश फोगाट और ओलंपिक पदक विजेता बजरंग पुनिया ने कांग्रेस का दामन थाम लिया। नई दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल, हरियाणा के प्रभारी महासचिव दीपक बाबरिया कांग्रेस के मीडिया व प्रचार विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा और हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष उदय भान ने दोनों पहलवानों को कांग्रेस का पटका पहनाकर पार्टी में शामिल कराया। इससे पहले फोगाट और पुनिया ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से उनके आवास पर मुलाकात भी की।

पत्रकारों से बातचीत में दोनों पहलवानों का स्वागत करते हुए कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा कि यह कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा दिन है। यह बहुत गर्व की बात है कि दो महान पहलवान कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए हैं। उन्होंने कहा कि दोनों ओलंपियनों ने न केवल खेल के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है, बल्कि यौन उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई, किसानों के लिए लड़ाई और अग्निपथ योजना के खिलाफ लड़ाई लड़ने जैसे सामाजिक कार्यों में भी भाग लिया है।

कांग्रेस महासचिव वेणुगोपाल ने लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी से मुलाकात के लिए फोगाट और पुनिया को कारण बताओ नोटिस जारी करने के लिए रेलवे विभाग की आलोचना की। उन्होंने पूछा कि क्या लोकसभा में विपक्ष के नेता से मिलना कोई अपराध है।

हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष उदयभान ने कहा कि दोनों पहलवानों ने अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया में हिंदुस्तान का गौरव बढ़ाया है। वह दोनों का हरियाणा कांग्रेस कमेटी की तरफ से हार्दिक स्वागत करते हैं।

वहीं कांग्रेस में शामिल होने के बाद विनेश फोगाट ने पहलवानों के आंदोलन का समर्थन करने के लिए कांग्रेस का धन्यवाद किया और कहा कि बुरे समय में ही पता चलता है अपना कौन है। जब महिला पहलवानों को सड़क पर घसीटा जा रहा था, तो भाजपा हमारे साथ नहीं थी, जबकि कांग्रेस हमारे साथ थी। कांग्रेस हमारे दर्द और आंसुओं को समझ पा रही थी। विनेश ने कहा कि वह ऐसी विचारधारा से जुड़ रही हैं, जो महिलाओं पर हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़ी है और सड़क से संसद तक उनके हक की लड़ाई लड़ने को तैयार है। उन्होंने कहा कि वह अपनी बहनों के साथ खड़ी रहेंगी और साथ ही देश की सेवा करेंगी।

वहीं बजरंग पुनिया ने कहा कि वह कांग्रेस नेताओं का धन्यवाद करते हैं, जो मुश्किल घड़ी में पहलवानों के साथ खड़े रहे। आंदोलन कर रहे पहलवानों ने भाजपा की सभी महिला सांसदों के घर पत्र भेजा, तब भी वे महिला खिलाड़ियों के साथ खड़ी नहीं हुईं। कांग्रेस ने हमारा साथ दिया। जैसे हमने कुश्ती में जी तोड़ मेहनत की है, उसी तरह हम कांग्रेस पार्टी में रहकर मेहनत करेंगे और पार्टी को आगे बढ़ाएंगे।

उत्तर प्रदेश में दूध बेचने का लाइसेंस है?

New Delhi, India - September 14, 2013. An Indian man delivers pails of fresh milk to awaiting customers in the old part of the city.

योगेश

उत्तर प्रदेश सरकार ने दूध में मिलावट रोकने के लिए दूध विक्रेताओं को आईडी कार्ड बनवाने और 500 लीटर दूध उत्पादन वाली डेयरी मालिकों को रजिस्ट्रेशन कराना ज़रूरी कर दिया है। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (fssai) ने मिलावटी चीज़ों को रोकने के लिए मुहिम चलाते हुए मिलावटी और नक़ली दूध की बिक्री रोकने के निर्देश दिये थे, जिसके बाद उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा विभाग ने दूध में मिलावट रोकने के लिए सभी दूध विक्रेताओं से आईडी कार्ड बनवाने और 500 लीटर से ज़्यादा दूध के विक्रेताओं और डेयरी मालिकों से रजिस्ट्रेशन कराकर दूध बेचने का लाइसेंस लेने को कहा है। खाद्य सुरक्षा विभाग के सहायक आयुक्त डॉ. सुधीर कुमार सिंह ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में अभियान चलाकर दूध बेचने वालों का पंजीकरण कराया जाना तय हुआ है, जिसके अंतर्गत दूध विक्रेताओं को अब आईडी कार्ड लेकर चलना होगा।

इसके अलावा 500 लीटर या इससे ज़्यादा दूध उत्पादन करने वाले डेयरी मालिकों और दूध बेचने वालों को रजिस्ट्रेशन कराकर लाइसेंस लेना होगा, जिसकी फीस 100 रुपये से लेकर 7,000 रुपये तक है, जो डेयरी के आकार, दूध की बिक्री और दूसरी स्थितियों के हिसाब से ली जाएगी। यह सब सरकार ने दूध में मिलावट रोकने के लिए किया है। इससे मिलावट करके दूध बढ़ाने वालों की पहचान हो सकेगी और कोई भी नक़ली या मिलावट वाला दूध और दूध से बनी खाने-पीने की नक़ली चीज़ें नहीं बेच सकेगा। दूध बेचने वालों की पहचान के लिए प्रदेश में अभियान चलाया जा रहा है।

खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन ने कुछ दिन पहले खेरागढ़ में नक़ली दूध बनाने की फैक्ट्री पकड़ी थी, जिसमें हर दिन कई कुंटल नक़ली दूध बनाकर लोगों के घरों तक पहुँचाया जा रहा था। पिछले साल डेयरियों, दूध बेचने वालों और चिलर प्लांट से खाद्य सुरक्षा विभाग ने एक ही ज़िले से 246 नमूने लेकर जाँच की, तो उसमें से लगभग आधे 119 सैंपल असली दूध की कसौटी पर फेल हो गये थे। कई जगह बड़ी मात्रा में नक़ली दूध भी पकड़ा गया था। यह हाल एक ज़िले का है, तो पूरे प्रदेश का क्या हाल होगा? इसी को देखते हुए अब दूध बेचने वालों को आईडी कार्ड देने और 500 लीटर या इससे ज़्यादा दूध उत्पादन करने वाली डेरी मालिकों को लाइसेंस देने की ज़रूरत खाद्य विभाग को महसूस हुई। आईडी कार्ड बनने ओर लाइसेंस देने के बाद मिलावटी और नक़ली दूध बेचने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करते हुए उन्हें छ: महीने की सज़ा या 10,000 रुपये का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। लाइसेंस न लेने या आईडी कार्ड न बनवाने वाले दूध विक्रेताओं और डेयरी मालिकों के ख़िलाफ़ भी कड़ी कार्रवाई की जाएगी। नक़ली दूध और नक़ली दूध से बनी चीज़ें बनाने और बेचने वालों के ख़िलाफ़ हर साल कड़ी कार्रवाई होती है; लेकिन इस पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है। अब खाद्य विभाग इसे रोकने के लिए पूरी तैयारी कर रहा है।

इसके बाद भी अगर कोई बिना लाइसेंस के दूध बेचेगा, तो उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज होगा और मनमानी की पुष्टि होने पर 2,00,000 रुपये तक का ज़ुर्माना लगाने का प्रावधान होगा, जो ग़लती के हिसाब से कम या ज़्यादा हो सकता है। लाइसेंस लेने वालों और आईडी कार्ड बनवाने वालों को आधार कार्ड की कॉपी, पासपोर्ट साइज के तीन-चार फोटो, आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर, पता आदि फार्म में संलग्न करना होगा। दूध बेचने वालों और डेयरी मालिकों को फार्म भरने के 24 से 48 घंटे में आईडी कार्ड और लाइसेंस मिल जाएगा। अगर कोई आईडी कार्ड बनवाकर 500 लीटर या उससे ज़्यादा दूध बेचता पकड़ा जाएगा, तो उस पर भी सख़्त कार्रवाई होगी। खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन के खाद्य सुरक्षा अभियान के तहत नक़ली और मिलावटी खाने-पीने की चीज़ों की पहचान का व्यापारियों को प्रशिक्षण दे रहा है। इसके तहत नक़ली और मिलावटी दूध और उससे बनी खाने-पीने की चीज़ों की पहचान भी करायी जा रही है। इस प्रशिक्षण के लिए छोटे व्यापारियों को शुल्क के रूप में 200 रुपये और बड़े व्यापारियों को 708 रुपये जमा करने पड़ रहे हैं। असली और नक़ली के अलावा मिलावटी चीज़ों की पहचान करने के लिए दूध, दूध से बनी दूसरी खाने-पीने की चीज़ें, खाना, मिठाई, पेय और मीट की पहचान करायी जा रही है, जिसमें डेयरी, होटल-रेस्टोरेंट, मिष्ठान भंडार के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ और पेय सामग्री से जुड़े व्यापारी प्रशिक्षण ले सकते हैं।

उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग ने उपभोक्ताओं से भी अपील की है कि वे दूध लेते समय विक्रेता का आईडी कार्ड या लाइसेंस ज़रूर देखें, तब दूध लें। अगर कोई दूधिया अपना आईडी कार्ड या लाइसेंस नहीं दिखाता है या नक़ली या मिलावटी दूध या दूध से बने उत्पाद बेचने वाला नज़र आता है, तो टोल फ्री नंबर- 18001805533 पर सुबह 10:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक सोमवार से शुक्रवार पाँच दिन शिकायत करके उसे सज़ा दिलाने में मदद करें।

लोकसभा में केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल नक़ली और मिलावटी दूध को लेकर सवाल उठा चुकी हैं। उन्होंने लोकसभा में कहा था कि दूध और दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट के सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश से आते हैं। इसके बाद से दूध और दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ों की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा विभाग ने कमर कस ली और दूध बेचने वालों से लेकर दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ें बेचने वालों की पहचान में जुट गया। यहाँ सवाल यह भी उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर पशुपालक छोटे स्तर पर ख़ुद ही गाँवों, क़स्बों और शहरों में दूध बेचने का काम करते हैं। उनके पास दूध असली होता है; लेकिन पानी ज़्यादातर दूध विक्रेता मिलाते हैं। इससे जाँच करने वालों को उन्हें ग़लत साबित करने का मौक़ा मिल जाएगा और वो उनसे रिश्वत लेना शुरू कर देंगे। दूध पहले ही पशुपालकों के लिए घाटे का सौदा बना हुआ है। अगर कोई पशुपालक असली दूध बेचेगा, तो उसे दूध देने वाले पशु की ख़ुराक भी नहीं मिलेगी। क्योंकि एक गाय या भैंस के दूध से बहुत ज़्यादा फ़ायदा पशुपालक को नहीं होता है।

पिछले साल उत्तर प्रदेश में योगी के शासन वाली सरकार ने देसी गाय पालन को बढ़ावा देने के लिए नंदिनी कृषक समृद्धि योजना लागू की थी, जिसका उद्देश्य दूध उत्पादन बढ़ाने और गायों की देसी नस्लें बचाने व बढ़ाने का था; लेकिन यह योजना सरकार की उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हुई। अब प्रदेश सरकार इस पर उतना काम भी नहीं कर रही है। इस योजना के तहत दलालों और बड़े पशुपालकों ने ख़ूब सरकारी पैसा हड़पा और उस पैसे का उपयोग अपने दूसरे कामों में कर लिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ख़ुद नंदिनी कृषक समृद्धि योजना की शुरुआत की थी, जिसके तहत प्रदेश सरकार ने किसानों को 25 स्वदेशी दुधारू गायों को पालने को कहा था, जिसमें साहीवाल गाय, गिर गाय, थारपारकर गाय और गंगातीरी गाय पालने को कहा गया था।

इस योजना में 62 लाख 50,000 रुपये की लागत सरकार ने निर्धारित की थी, जिसमें से 31 लाख 25,000 रुपये की सब्सिडी तीन बार में देने की योजना रखी गयी। लेकिन इस योजना में दलालों और चालाक डेयरी मालिकों ने ख़ूब पैसा बनाया। इस योजना के तहत डेयरी के लिए आधा एकड़ ज़मीन और गायों के चारे के लिए 1.5 एकड़ ज़मीन वालों को ही लाभ दिया जाना था, जिससे छोटे किसानों और छोटे पशुपालकों को इसका कोई लाभ नहीं मिल सका।

ऐसे ही ही उत्तर प्रदेश सरकार ने नाबार्ड डेयरी योजना का भी ऐलान किया था; लेकिन यह योजना धरातल पर ही नहीं उतर सकी और अब ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ही इस योजना को भूल चुकी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश में दूसरी बार शासन है; लेकिन प्रदेश में डेयरी विकास और पशुपालन की गतिविधियाँ ठप पड़ी हुई हैं। गाय को माता कहकर उसके संरक्षण की बात करने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश में गोकशी तक नहीं रोक पा रहे हैं। गायों की दुर्दशा उनके मारे-मारे फिरने से ही देखी जा सकती है।

सन् 2013 में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अखिलेश यादव के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने कामधेनु योजना शुरू की थी। इसके बाद 2014 में छोटे पशुपालकों के लिए मिनी कामधेनु योजना और 2015 में एकाध पशु पालने वालों को देखते हुए माइक्रो कामधेनु योजना अखिलेश यादव के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने चलायी थी। लेकिन सन् 2017 में भाजपा की सरकार उत्तर प्रदेश में बनी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बने, तो उन्होंने एक सप्ताह के भीतर सबसे पहले अपनी पूर्ववर्ती सरकार की कई योजनाओं की तरह कामधेनु योजना को भी ख़त्म कर दिया।

रही-सही कसर गौरक्षा के एजेंडे ने निकाल दी, जिसमें गौरक्षकों के डर से लोगों ने गायों को पालना कम कर दिया। कई लोगों ने गायों का पालन ही बंद कर दिया। गौरक्षा के लिए योगी आदित्यनाथ के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने गौशालाओं को खोलना शुरू किया; लेकिन आज उत्तर प्रदेश में गौशालाओं की दशा भी अच्छी नहीं है। आज गौमांस से लेकर दूसरे मीट निर्यात में पूरे देश में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, जो लगातार बढ़ती जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश से होने वाले कुल मीट निर्यात का 50.34 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश से ही निर्यात होता है।

राहुल गांधी  बोले जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिलाएंगे वापस

जम्मू :  जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 को लेकर कांग्रेस ने अपनी प्रचार की शुरुआत कर दी है। कांग्रेस ने पहले चरण के चुनाव प्रचार के लिए स्टार प्रचारक के रूप में राहुल गांधी को उतारा है। जम्मू के रामबन में जनसभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बीजेपी पर जमकर बरसे और जम्मू-कश्मीर के लोगों को स्टेटहुड वापस दिलाने का वादा किया।

उन्होंने कहा कि बीजेपी आज देश में नफरत फैला रही है। उनका काम नफरत फैलाने का है लेकिन हमारा काम मोहब्बत फैलाने का है। राहुल गांधी ने कहा कि नफरत को मोहब्बत से ही काटा जा सकता है। उन्होंने कहा कि देश में राज्यों का बंटवारा तो कई बार हुआ लेकिन पहली बार स्टेटहुड को छीना गया। जम्मू कश्मीर का स्टेटहुड छीना गया है। राहुल गांधी ने वादा किया है कि वह जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाएंगे। उन्होंने बीजेपी और केंद्र पर यह कर निशाना साधा कि यहां केवल राज्य को ही समाप्त नहीं किया गया बल्कि लोगों का अधिकार भी छीना गया। राहुल ने कहा कि हम चाहते थे कि पहले आपको राज्य का दर्जा वापस मिले फिर चुनाव हो, लेकिन बीजेपी ये नहीं चाहती है। उनका कहना है पहले चुनाव होगा फिर राज्य के दर्जे पर बात होगी।

राहुल गांधी ने कहा कि लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी छाती चौड़ी कर के आते थे, अब उनके कंधे झुक गए हैं। इस बार उन्होंने संसद में घुसने से पहले संविधान माथे पर लगाया और फिर अंदर गए।

राहुल गांधी ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से कहा कि आज आपका धर्म और आपका सब कुछ आपसे छीना जा रहा है और सारा फायदा बाहर के लोगों को मिल रहा है। उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों को बिजली के प्रोजेक्ट का फायदा नहीं मिल रहा। बिजली के प्रोजेक्ट का फायदा यहां के लोगों को मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि आप देश के लोगों को बिजली दे रहे हैं लेकिन आपकी जेब से बिजली का पैसा लिया जा रहा है।

राहुल गांधी ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में पहले राजा होते थे, 1947 में हमने राजाओं को हटाकर लोकतांत्रिक सरकार बनाई और देश को संविधान दिया। लेकिन अब फिर से यहां राजा का शासन हो गया है। राहुल गांधी ने इसी के साथ यहां के एलजी पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि अब एलजी यहां के राजा हैं। इसीलिए हमारा पहला कदम जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाना है।

अपराध को देखने का नज़रिया एक हो

सिटी ऑफ जॉय कहलाने वाले कोलकाता में घूमने का मतलब इतिहास के साथ-साथ चलना है। लेकिन आरजी कर मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी के दौरान एक प्रशिक्षु महिला डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार व हत्या की दिल दहला देने वाली घटना ने कोलकाता की रंगत पर एक दाग़ लगा दिया। लेकिन महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले हर अपराध के दाग़ को राज्य सरकारों, ख़ासकर केंद्र सरकार को एक ही नज़रिये से देखना होगा।

कोलकाता की घटना के बाद कई राज्यों के कई शहरों में महिलाओं के साथ जिस प्रकार की वहशियों की तरह अपराधियों ने यौन उत्पीड़न की घटनाओं को अंजाम दिया है, उससे महिला सुरक्षा के क़ानून और सरकारों की महिला सुरक्षा की प्राथमिकता पर सवाल खड़े होते हैं। लेकिन कोलकाता में प्रशिक्षु महिला डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार व हत्या की बर्बर घटना के बाद समूचे देश में जो रोष, प्रदर्शन देखने को मिला, वही रोष दूसरी बलात्कार की घटनाओं में देखने को क्यों नहीं मिला? क्यों कोई राजनीतिक पार्टी हर घटना को तेरे-मेरे के नज़रिये से ही देखती है? कहीं की भी आपराधिक घटना हो, सभी में अपराधियों को सज़ा देने के लिए देश में समान क़ानून ही है ना? फिर हर घटना को अलग-अलग नज़रिए से क्यों देखा जाता है? क्यों कुछ लोग, ख़ासकर नेता उन्हें दो आँखों से देखते हैं?

दुनिया की पाँचवीं अर्थव्यवस्था का रुतबा दिखाने वाली इस देश की सरकार को देश में बलात्कार महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर होने वाले अपराध समान रूप से दिखने चाहिए और समान रूप से हर मामले में कार्रवाई होनी चाहिए। दरअसल इसके असली आँकड़े जनता के सामने आते ही नहीं; क्योंकि सरकारें इस अपराध के प्रति उस स्तर पर संवेदनशील व गंभीर नहीं हैं, जितना उन्हें होना चाहिए। बलात्कार के प्रति जो नज़रिया होना चाहिए, वह भी नदारद है। दरअसल देश में क़रीब 69 करोड़ आधी आबादी है। और राजनीतिक दल इन्हें कई तरह से अपना-अपना वोट बैंक बनाने की होड़ में लगे हुए हैं।

नेता अक्सर कहते हैं कि स्त्री का अपमान करना देश का अपमान है और स्त्री का सम्मान देश का सम्मान है। लेकिन जब स्त्रियों के साथ बलात्कार की ख़बरें आती हैं और कुछ मामले देश भर में सु$िर्खयाँ बटोरते हैं, तो यही राजनेता, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों; सेलेक्टिव एप्रोच के साथ सामने आते हैं। अति संकीर्ण यह नज़रिया किसी भी सूरत में स्त्रियों के हित में नहीं है। ऐसे मामलों में सियासत से बचना चाहिए।

यह सही है कि लोकतंत्र में विपक्ष कई मर्तबा सत्तारूढ़ दल पर कई गंभीर मुददों पर दबाव डालकर सार्थक भूमिका निभाता है। कोलकाता वाले मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने उनके सूबे में होने वाले प्रदर्शन को वाम-राम से प्रेरित बताया। वह ख़ुद पीड़िता के परिवार को इंसाफ़ दिलाने के लिए सड़क पर उतरीं और प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र भी लिखा, जिसमें महिलाओं की सुरक्षा संबंधित क़ानूनों को और कड़ा बनाने की माँग की। लेकिन भाजपा रोज़ ममता बनर्जी को कटघरे में खड़ा कर रही है। वामपंथी भी इस घटना के ज़रिये अपनी रणनीति के तहत वहाँ के राजनीतिक माहौल को अपने हित में साधने की कोशिश में लगे हैं।

हाल के वर्षों में बलात्कार की कई ऐसी घटनाओं का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जहाँ पर सियासत ख़ूब हुई और दो धड़े बन गये थे। 19 साल की दलित लड़की के साथ उत्तर प्रदेश के हाथरस में सामूहिक बलात्कार की घटना का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ। भाजपा सवाल पूछ रही है कि प्रतिपक्ष नेता राहुल गाँधी हाथरस गये थे; क्योंकि वहाँ भाजपा की सरकार है। क्या वह पश्चिम बंगाल जाएँगे? जहाँ पर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री है। पर इसके साथ यह भी ध्यान में आता है कि उत्तराखण्ड में भी हाल के दिनों में सामूहिक दुष्कर्म का मामला सामने आया है, पर वह महज़ एक ख़बर बनकर रह गया।

भाजपा ने वहाँ महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर आँखें मूँद लीं। हरियाणा में बीते 10 साल से भाजपा की सरकार है। वहाँ बलात्कार के जुर्म में 20 साल की सज़ा काट रहा राम रहीम कैसे बार-बार पैरोल पर जेल से बाहर आता रहता है? इन दिनों भी वह सज़ायाफ़्ता अपराधी 02 सितंबर, 2024 तक पैरोल पर बाहर है। सन् 2017 में सज़ा सुनायी गयी थी और तबसे अब तक उसने 235 दिन जेल से बाहर बिताये हैं। हरियाणा में विधानसभा चुनाव हैं और इस पैरोल को चुनावी मौसम से जोड़कर देखा जा रहा है। आरोपियों, अपराधियों की राजनीतिक दलों से घनिष्ठता और उनके बचाव में होने वाली सियासत पर सोचने की ज़रूरत है।

इस सबके साथ-साथ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 151 मौज़ूदा सांसदों व विधायकों पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध से सम्बन्धित मामले दर्ज हैं। सवाल यह है कि जब राजनीतिक पार्टियों के ही सांसद और विधायक महिलाओं पर अत्याचार करने में गले तक लिप्त हैं, तो देश में होने वाली आपराधिक घटनाओं को ये लोग कैसे रोकेंगे? हो सकता है कि अपराध करने वाले नेता अपराधियों को बी संरक्षण देते हों? सज़ा तो हर अपराधी को होनी चाहिए, चाहे फिर वह कोई हो।

शराफ़त की नक़ाब ओढ़े अपराधियों से निपटे पुलिस

के. रवि (दादा)

मुंबई एक ऐसा बिजी शहर है, जहाँ किसी को किसी का हाल जानने की फ़ुरसत नहीं है। इसी का फ़ायदा उठाकर बड़े-बड़े माफ़िया, अपराधी, तस्कर और ठग मुंबई में छुपकर सारे अवैध धंधे करते हैं, जिनमें ज़्यादातर महिलाओं और लड़कियों का शारीरिक शोषण करने वाले भी हैं। पर इनमें से कुछ ऐसे अपराधी भी हैं, जो चेहरे पर शराफ़त की नक़ाब ओढ़ी हुई है। ऐसे अपराधी बिजनेसमैन और नेताओं में भी हैं, जो रसूख़दार और मोटी असामी हैं, जिनकी सरकार और पुलिस में अच्छी पकड़ है। ऐसे लोग क़ानून के लंबे हाथों से भी बचे रहते हैं।

ऐसे ही एक शख़्स का नाम सागर रमाकांत जोशी उर्फ़ सागर जोशी है, जिस पर महिलाओं का यौन शोषण करने के आरोप हैं। सागर जोशी पर माननीय अदालत में मुक़दमा भी चल रहा है। सरकार में अच्छी पकड़ वाला असामी सागर जोशी कुछ साल पहले इतना पैसे वाला नहीं था, लेकिन जबसे उसने एमएलएम मार्केटिंग वाला कस्टमर सेवा का धंधा शुरू किया है, वो अमीर होता चला गया। उसके कुछ कर्मचारियों से जो जानकारी मुझे मिली, उससे पता चला कि सागर जोशी जब किसी से मिलता है, तो एक सीधा, भोला और हंसमुख इंसान बनकर मिलता है। लेकिन अपने ही कर्मचारियों, ख़ासकर महिला कर्मचारियों के प्रति उसका रवैया कुछ और ही है। उस पर अपनी ही महिला कर्मचारियों के साथ बलात्कार और दुर्व्यवहार करने के आरोप हैं।

अमूमन मुंबई से लेकर बेंगलूरु के थाने तक में सागर जोशी के ख़िलाफ़ एफआईआर भी दर्ज हैं। लेकिन फिर भी यह शख़्स बिना किसी टेंशन के अपना धंधा हँसी-ख़ुशी से करके काफ़ी धन जुटा चुका है। सागर जोशी पहले गिरफ़्तार हो चुका है। लेकिन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा है। इसकी पुष्टि तब और हो गयी, जब उसकी कम्पनी में काम करने वाली एक तलाक़शुदा महिला कर्मचारी, जो किराये के मकान में अपने एक बच्चे और अपनी माँ का पेट पालती है; को सागर जोशी की सच्चाई पता चली। इस महिला कर्मचारी को एक अख़बार के ज़रिये पता चला कि जिसे वह देवता मानती है, वह बलात्कार का आरोपी है। कई लोग सागर को देवता मानते हैं। लेकिन जब उसकी इस महिला कर्मचारी ने सागर जोशी को सूचित किया कि सर आपके ख़िलाफ़ मीडिया में मामला आ चुका है, जो आगे चलकर सोशल मीडिया के ज़रिये यदि सरेआम हो जाएगा, तो हमारा क्या होगा? आप तो हमारे अन्नदाता हैं। हम सब आपको भगवान मानते हैं। इस पर आपको गंभीरता से ग़ौर करना चाहिए।

इस पर महिला कर्मचारी के साथ भी शारीरिक दुर्व्यवहार करते हुए सागर जोशी ने महिला से कहा कि ‘मेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता, भले मुझ पर अदालत में बलात्कार का मामला दर्ज है। पॉवर, पुलिस और पैसा मेरी जेब में हैं।’ कुछ दिन चुप्पी साधने के बाद सागर जोशी ने उलटा महिला कर्मचारी के ख़िलाफ़ ही काशीमीरा पुलिस थाने में ब्लैकमेल करने और फिरौती माँगने की एफआईआर दर्ज करा दी। इससे महिला काफ़ी डर गयी और अपनी नौकरी छोड़ने का मन बना बैठी। उसे डर हो गया। पुलिस ने भी बिना तफ़्तीश किये महिला को बार-बार थाने बुलाकर प्रताड़ित किया। फिर कुछ पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ता एवं वकील की मदद लेकर महिला थाने पहुँची और उसने अपनी तरफ़ से भी पूरी सच्चाई लिखकर थाने में देकर सागर जोशी के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करायी। शिकायत में कहा कि सागर पैसे और पॉवर से मज़बूत है, जो मेरे साथ कोई अनहोनी न कर दे।

ग़ौरतलब है कि मैंने सागर जोशी जैसे लोगों की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते हुए पिछले छ: महीने से जानकारी हासिल की है। तीसरी आँख की तरह जब मुझे सागर जोशी पर बलात्कार का मुक़दमा चलने और अपनी ही कर्मचारी को धमकाने और शारीरिक अभद्रता का मामला पता चला, तो न्यायालय सम्बन्धी मालूमात करते हुए सम्बन्धित काग़ज़ात इकट्ठा किये। इन काग़ज़ात में सागर जोशी की हक़ीक़त और मुंबई की एक अदालत में बलात्कार के मुक़दमे के साक्ष्य हैं। संदेह है कि जिस महिला कर्मचारी पर सागर ने फिरौती का मुक़दमा दर्ज करवाया है, उसके अलावा दफ़्तर की अन्य महिलाओं के साथ भी उसने शारीरिक शोषण किया न हो? क्योंकि सागर जोशी पर अदालत में चल रहे बलात्कार के मुक़दमे की एक मेडिकल जाँच रिपोर्ट के अनुसार, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पीड़िता का बलात्कार सागर जोशी ने न किया हो। सागर के ख़िलाफ़ चल रहे मुक़दमे और एफआईआर के काग़ज़ मेरे पास हैं और उसी आधार पर यह रिपोर्ट पेश की गयी है।

हमें नहीं पता कि मुंबई में सागर जोशी जैसे और कितने लोग हैं? लेकिन जितने भी हैं, उनके ख़िलाफ़ सही तरीक़े से कार्रवाई होनी चाहिए। क्योंकि कार्रवाई न होने के चलते ये लोग अपने दाएँ-बाएँ रहने वाली महिला का यौन शोषण तक करते रहते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। हमारी मुंबई पुलिस के साथ-साथ देश भर की पुलिस से विनती है कि ऐसे दरिंदों को किसी भी हाल में न बख़्शे, ताकि मुंबई समेत पूरे देश में महिलाएँ ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। वैसे भी मुंबई, बदलापुर और दूसरे कई शहरों में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं ने हाहाकार मचा रखा है।

महिला-सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा ?

देश में बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक के साथ हो जाती है दरिंदगी !

आज देश में दो-तीन महीने से लेकर 70 साल की वृद्धाओं तक की अस्मत की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। एक तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर चुनाव में बड़े गर्व से देश भर के लोगों को ज़ुबानी गारंटियों की झड़ी लगाते हैं, तो दूसरी तरफ़ महिला सुरक्षा की गारंटी उनकी गारंटी की तरह ही खोखली साबित हो रही है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी का बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा लोगों को सतर्क करने के लिए है कि अपनी-अपनी बेटी बचा सको, तो बचा लो। सवाल यह है कि देश में इतनी गुंडागर्दी फैल कैसे रही है? बच्चियों से लेकर महिलाओं तक के साथ जो दरिंदगी हो रही है, उसके लिए ज़िम्मेदार कौन-कौन है? एक मनोचिकित्सक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जब किसी महिला पर कोई अपराध होता है, तो उसमें पाँच तरह के अपराधी होते हैं। पहला अपराधी वो होता है, जो अपराध करने वाला है। दूसरे वो लोग अपराधी हैं, जो अपराधियों को पहचान लेने के बाद भी पुलिस को नहीं बताते। तीसरे नंबर के अपराधी वो लोग हैं, जो अपराध होने के बाद चुप रहते हैं। चौथे नंबर के अपराधी वे लोग हैं, जो क़ानूनी तौर पर अपराध रोकने के लिए तैनात हैं; लेकिन अपराध नहीं रोक पाते। और पाँचवे अपराधी के रूप में वो सरकार होती है, जिसके शासन में अपराध होता है। जब कहीं कोई अपराध हो, तो इन पाँचों तरह के अपराधियों को सज़ा मिलनी चाहिए।

आज भारत के कई राज्यों में बलात्कार की दहला देने वाली घटनाएँ हो रही हैं, और रोकने के बजाय उन पर राजनीति हो रही है। सही आँकड़ों को देखें, तो देश हर घंटे में सैकड़ों बलात्कार होते हैं, जिनमें से मुश्किल से चार फ़ीसदी मामले पुलिस के पास आते हैं। आज देश का ऐसा कोई शहर नहीं है, जहाँ हर रोज़ 10-20 बलात्कार न होते हों। ये बलात्कार कहीं घर में, तो कहीं बाहर होते हैं। लेकिन ज़्यादातर महिलाएँ और लड़कियाँ इसे नियति समझकर ख़ामोश रह जाती हैं; लेकिन ये ख़ामोश रहने वाली महिलाएँ यह नहीं समझतीं कि इनके ख़ामोश रहने से ही अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं। पुलिस अगर अपनी ड्यूटी को अपना फ़ज़र् मानकर सुरक्षा व्यवस्था में लग जाए, तो बलात्कार ही नहीं, हर तरह के अपराध पर रोक लग सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होता और तकलीफ़ तो तब होती है, जब कई अपराध पुलिस थाने और पुलिस चौकी के आसपास हो जाते हैं। आज मणिपुर से लेकर कई राज्यों में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध हो रहे हैं; लेकिन इन अपराधों को रोकने के लिए बने क़ानून और क़ानून के रखवाले क़ानून के पुतले की तरह हाथ में न्याय की तराजू तो दिखा रहे हैं; लेकिन आँखों पर काली पट्टी बाँधे हुए हैं।

हाल की घटनाओं पर नज़र डालें, तो पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुई बलात्कार और हत्या की घटना के बाद तो देश भर में बलात्कारों की घटनाओं की झड़ी लग गयी। लेकिन दूसरी तरफ़ कहीं बलात्कारियों को जमानत मिल जाती है, कहीं उनके ख़िलाफ़ दर्ज केस वापस लिए जाते हैं, तो कहीं पीड़ित महिलाओं के साथ ही बदसलूकी करतेे हुए उन्हें और परेशान किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के बदलापुर के एक स्कूल में दो नाबालिग़ बच्चियों से बलात्कार की ख़बर आयी। इसी राज्य के अकोला में स्कूल की ही बच्चियों से छेड़छाड़ की घटना हुई, जिसके बाद आम जनता ने सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करके दोषियों को फाँसी देने की माँग की। लेकिन आज फाँसी किस आरोपी को होती है। अब तो बलात्कारियों और हत्यारों के बचाव में ही रैलियाँ निकाली जाती हैं। राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने अपराधी नेताओं और अपने-अपने अपराधी समर्थकों का बचाव खुलकर करती हैं। देश की एक बड़ी पार्टी ने खुलकर अपने आपराधिक आरोपों से घिरे नेताओं और समर्थकों को खुलकर बचाने का काम किया है।

हाल ही की कुछ घटनाओं का ज़िक्र करें, तो अभी 24 अगस्त को हरियाणा के महेंद्रगढ़ सदर थाना क्षेत्र से एक महिला ग़ायब हो गयी। 24 अगस्त को ही असम के नागांव ज़िले में नाबालिग़ लड़की से सामूहिक बलात्कार के आरोपियों को पकड़ा, तो उनमें से तफ़ज़्ज़ुल इस्लाम नाम का आरोपी भागने लगा और पानी में गिर गया, जिससे उसकी मौत हो गयी। 24 अगस्त को ही महाराष्ट्र में एक नाबालिग़ लड़की के बलात्कार के आरोपी तस्लीम ख़ान को जैसे ही जमानत मिली, पीड़ित लड़की ने आत्महत्या कर ली। कहा जा रहा है कि जमानत पर छूटने पर आरोपी नाबालिग़ लड़की को फिर से परेशान कर रहा था। उसे उसके परिवार वालों को मारने की धमकी दे रहा था। दहीवड़ी पुलिस ने आईपीसी की धारा-107 के तहत मामला दर्ज करके आरोपी को फिर से गिरफ़्तार किया है। देश के कई राज्यों में महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार की घटनाओं का अंत ही नहीं है। डेढ़ साल से हिंसा की आग में सुलग रहे मणिपुर में तो महिलाओं के साथ जो हुआ है, उससे पूरा देश शर्मिंदा हुआ; लेकिन ऐसा लगता है कि मणिपुर की और केंद्र की सरकारों को इससे शर्मिंदगी नहीं हुई। शर्मिंदगी होगी भी कैसे? जब आज कई नेता ही दज़र्नों आपराधिक घटनाओं में आरोपी हैं।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक 300 पन्नों की रिपोर्ट के मुताबिक, मौज़ूदा समय में 151 मौज़ूदा विधायकों और सांसदों के ख़िलाफ़ महिला उत्पीड़न के मामले दर्ज हैं, जिनमें से 16 सांसद हैं और 135 विधायक हैं। ये सभी 23 अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के हैं। देश के कुल 4,809 मौज़ूदा सांसदों और विधायकों में से 4,693 के चुनाव आयोग को सौंपे गये हलफ़नामों के संयुक्त अध्ययन में एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के आधार पर यह रिपोर्ट जारी हुई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, इन सांसदों और विधायकों पर बलात्कार से लेकर महिलाओं से छेड़छाड़, उनके साथ बदतमीजी-मारपीट, नाबालिग़ लड़कियों को वेश्यावृत्ति में धकेलने, उनकी ख़रीद-फ़रोख़्त करने और घरेलू हिंसा जैसे आपराधिक मामले दर्ज हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वाले इन सांसदों और विधायकों में 54 सांसद और विधायक तो अकेले भाजपा के हैं, जो सबसे ज़्यादा क़रीब 40 प्रतिशत हैं। इसके अलावा कांग्रेस के 23 सांसद और विधायक, तेदेपा यानी तेलुगु देशम पार्टी के 17, आम आदमी पार्टी के 13 हैं। बाक़ी दूसरी पार्टियों के हैं।

केंद्र सरकार के साल 2023 के आँकड़े बताते हैं कि भारत में आये दिन महिलाओं और लड़कियों के अपहरण के मामले तेज़ी से बढ़े हैं। साल 2023 में संसद में केंद्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा पेश किये आँकड़ों के मुताबिक, भारत में साल 2019 से साल 2021 के बीच महज़ तीन साल में क़रीब 13.13 लाख महिलाएँ और लड़कियाँ ग़ायब हुई हैं। इनमें से सबसे अधिक 1,60,180 महिलाएँ और 38,234 लड़कियाँ मध्य प्रदेश से ग़ायब हुई हैं। इसके अलावा पश्चिम बंगाल से 1,56,905 महिलाएँ और 36,606 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। महाराष्ट्र से1,78,400 महिलाएँ और 13,033 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। ओडिशा से 70,222 महिलाएँ और 16,649 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। छत्तीसगढ़से 49,116 महिलाएँ और 10,187 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। दिल्ली से 61,054 महिलाएँ और 22,919 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। जम्मू-कश्मीर से 8,617 महिलाएँ और 1,148 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। इसमें उत्तर प्रदेश के आँकड़े नहीं हैं। साल 2021 में एक आरटीआई के जवाब में मिली जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में हर दिन तीन लड़कियाँ ग़ायब होती हैं। इस जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश से एक साल कुल 1,763 बच्चे ग़ायब हुए, जिनमें से 1,166 लड़कियाँ थीं। इनमें से 12 से 18 साल की 1,080 लड़कियाँ थीं। हालाँकि पुलिस के मुताबिक, 1166 लड़कियों में से 966 लड़कियाँ ढूँढ निकाली थीं, जबकि 200 का पता नहीं चल पाया था।

साल 2019 से साल 2021 के बीच तीन साल में भारत से ग़ायब हुई 10,61,648 महिलाएँ और लड़कियाँ में बालिग़ यानी 18 साल से ज़्यादा उम्र की थीं। जबकि 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की संख्या 2,51,430 है। एक लोकतांत्रिक देश और न्याय की गारंटी देने वाली सरकार के शासन में महिलाओं और लड़कियों के ग़ायब होने की स्पीड इतनी ज़्यादा है कि इस अपराध को समझने और अपराधियों को पकड़ने में समय नहीं लगना चाहिए; लेकिन इतना बड़ा और गंभीर मुद्दा आज केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों और चुनावों में पार्टियों की गारंटियों से बाहर ही दिखता है।

भारत को विकसित और राम राज्य जैसा शासन बताने वाली भाजपा सरकारों को इस ओर ध्यान देना चाहिए और समय रहते महिला उत्पीड़न की इन घटनाओं पर रोक लगानी चाहिए। भारत में कड़े क़ानून हैं; लेकिन सज़ा देने की रफ़्तार बढ़ाते हुए सज़ा को और सख़्त करना चाहिए। देश भर में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों पर राजनीति करने से अच्छा है, अपराधियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाए। सरकारों, पुलिस प्रशासन, अदालतों के अलावा समाज और परिवार की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि अपने घर से लेकर बाहर तक अपराधियों पर नज़र रखें। आम आदमी को चाहिए कि अगर कोई अपराधी कहीं नज़र आता है, तो उसकी सूचना तुरंत पुलिस को दे। इसके लिए हर राज्य में अपराध निरोधक शाखाएँ खुली हुई हैं और पुलिस तैनात है। समाज की अच्छी सोच अपराधियों को डरा सकती है। बाक़ी काम क़ानून को करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से पहले सभी पार्टियों को अपराधी नेताओं को सज़ा दिलाने के लिए क़दम उठाने होंगे, जिसकी शुरुआत हर पार्टी को अपनी ही पार्टी के आरोपी नेताओं से करनी होगी और उन्हें जेल पहुँचाना होगा। वर्ना महिला सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा?

सरकारी भर्तियों में मनमानी का खेल

हाल ही में यूपीएससी में सीधी भर्ती यानी लेटरल एंट्री को लेकर जमकर हंगामा हुआ और आख़िरकार केंद्र सरकार को पिछले दरवाज़े से अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगानी पड़ी। इसमें मामला था- आरक्षण के हिसाब से लेटरल एंट्री न देने का। हालाँकि मेरा मानना यह है कि लेटरल एंट्री के ज़रिये देश के योग्य लोगों को ही चुना जाता है, जिसमें कुछ नहीं देखा जाता, न ज़ात-पात, न धर्म और न अपना-पराया। सन् 1950 से पिछली केंद्र सरकारों ने भी लेटरल एंट्री के ज़रिये ऐसी भर्तियाँ की हैं, जिसके ज़रिये कई क़ाबिल लोग इस देश को मिले। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, जिन्हें बाद में राजनीति ने देश के सर्वोच्च पद पर भी बैठाया गया। इसके अलावा आई.जी. पटेल, वी. कृष्णमूर्ति, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आर.वी. शाही के अलावा कई बड़ी विद्वान हस्तियों को ऐसी ही चुना और सरकार में लाया गया था।

लेकिन सवाल यह है कि क्या अब ऐसे लोगों को ही लेटरल एंट्री के द्वारा केंद्र सरकार अधिकारी बना रही है? या इस पिछले दरवाज़े का दुरुपयोग करते हुए सिर्फ़ अपने मतलब के लोगों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर रही है। क्योंकि अगर हम कुछ पदों पर ध्यान दें, तो देखेंगे कि उन पदों पर बैठे लोग केंद्र सरकार यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काम कर रहे हैं। कुछ लोगों को शायद यह बात बुरी लगे; लेकिन यह सच है। क्योंकि चाहे वो चुनाव आयोग हो, चाहे सीबीआई हो, चाहे ईडी हो, चाहे इनकम टैक्स विभाग हो, चाहे पुलिस प्रशासन हो, इन सबने जो काम पिछले 10.5 वर्षों में किया है, उसमें केंद्र सरकार की मंशा साफ़ झलकती है। हालाँकि पहले भी सरकार के हिसाब से अधिकारी काम करते थे; लेकिन इस क़दर खुलेआम नहीं।

दरअसल, पहले मीडिया का डर सरकारों को रहता था, जो अब ख़त्म हो चुका है। इसके लिए आज जितनी सरकारें ज़िम्मेदार हैं, उससे कहीं ज़्यादा आजकल के पत्रकार और मीडिया हाउस ज़िम्मेदार हैं, जिन्हें पत्रकारिता अब एक सेवा नहीं, बल्कि पेशा नज़र आता है। और यही वजह है कि ज़्यादातर पत्रकारों को आज अवाम गोदी मीडिया का दर्जा दे रहा है। ये सब मोटे पैकेज, ऊपर की कमायी के चक्कर में पड़े हैं और लग्जरी लाइफ का इन्हें चस्का लग चुका है। और आज के ये पत्रकार मोटा पैसा बड़ी आसानी से एसी रूम में बैठकर कमा भी रहे हैं। भले ही इन्हें ख़बरों और पत्रकारिता का ज्ञान हो या न हो; लेकिन इन्हें चैनलों पर बेकार के मुद्दों पर पार्टी प्रवक्ताओं, विश्लेषकों और पत्रकारों को मुर्गे की तरह लड़ाकर टीआरपी बटोरने का धंधा आता है, जिसके पिछले दिनों बड़े चर्चे रहे और लोगों को झूठी ख़बरें परोसने का हुनर बख़ूबी नज़र भी आया। हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब 10 रुपये का पेन जेब पर लगाकर दिन भर की कड़ी मेहनत करके ख़बरें ढूँढकर लायी जाती थीं और ख़बर के चलने पर महीने की तनख़्वाह के अलावा कोई आमदनी भले ही नहीं होती थी; लेकिन अख़बार में बाई लाइन छपने से नाम और इज़्ज़त हुआ करती थी और जिसके ख़िलाफ़ ख़बर होती थी, वो डरता था। किसी ग़लत आदमी को पता चल जाता था कि सामने कोई पत्रकार है, तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाया करती थी। और आज न वो इज़्ज़त है और न वो पत्रकार। जो हैं भी, उनके पीछे अब ग़लत लोग पड़े हैं।

बहरहाल, केंद्र की मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने उस विज्ञापन पर रोक लगा दी है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर लेटरल एंट्री के ज़रिये यूपीएससी ने 17 अगस्त को मंत्रालयों के लिए 45 ज्वाइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल की भर्तियाँ करने के लिए निकाला था। विपक्ष ने हंगामा किया कि इस लेटरल एंट्री में आरक्षण का ख़याल नहीं रखा गया। इस लेटरल एंट्री के ख़िलाफ़ देश भर में एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों ने प्रदर्शन भी किये। उत्तर प्रदेश में दो साल पहले 6,800 शिक्षकों की भर्ती में भी आरक्षण पूरा न देने को लेकर एक विरोध पहले ही खिंचा आ रहा था। लेटरल एंट्री के विज्ञापन ने आरक्षण लेने वाले वर्गों के इस ग़ुस्से में आग में घी का काम किया और 21 अगस्त को सभी ने मिलकर भारत बंद किया। लेकिन इस भारत बंद के दौरान कुछ राज्यों में आगजनी, तोड़फोड़ जैसी घटनाओं को अंजाम दिया गया, जिससे मन काफ़ी दु:खी हुआ।

दरअसल, लेटरल एंट्री के तहत केंद्र सरकार कुछ पदों पर सभी क्षेत्रों से कुछ क़ाबिल लोगों की बिना यूपीएससी की परीक्षा दिये सीधी भर्ती करती है। इस भर्ती के तहत किसी क्षेत्र में किसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति को केंद्र सरकार सीधे नियुक्ति पत्र देकर बड़े आधिकारिक पद पर काम करने का सुनहरा मौक़ा देती है, जिससे उस पद पर बैठकर वह व्यक्ति देश की तरक़्क़ी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। लेकिन पिछले कई वर्षों से देखा जा रहा है कि केंद्र की सरकारें अपने मतलब के लोगों की भर्ती लेटरल एंट्री के ज़रिये करके ख़ुद के फ़ायदे के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं। केंद्र की मोदी सरकार पर इसके और हर साल बड़ी संख्या में लेटरल एंट्री के ज़रिये अपने चहेतों को भर्ती करने के कई आरोप लगे हैं। इसी प्रकार से मोदी सरकार पर अपने चहेते अधिकारियों को प्रमोशन देने, उन्हें ख़ास महकमे देने के साथ-साथ कई-कई बार जबरन एक्सटेंशन देने के भी आरोप लगे हैं। और किसी ने कोई आवाज़ भी नहीं उठायी। लेकिन इस बार जैसे ही लेटरल एंट्री का विज्ञापन जारी हुआ, विपक्ष के नेताओं ने इसे आरक्षण का मुद्दा बनाते हुए प्रतिबंधित करने की माँग कर दी। इस डायरेक्ट भर्ती को लेकर राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, मायावती, संजय सिंह और कई दूसरे नेताओं ने खुलकर विरोध किया।

दरअसल, यूपीएससी देश की सबसे मुश्किल परीक्षा है, जो तीन मुश्किल चरणों के ज़रिये ऐसे युवाओं का चुनाव करती है, जिनमें देश को विकास की राह पर चलाने और देश-विदेश नीति को समझने की क्षमता होती है। इन परीक्षाओं में पहले 400 अंकों की प्रीलिम्स यानी प्राथमिक परीक्षा होती है। यह परीक्षा पास करने के बाद उम्मीदवारों को 1,750 अंकों की मेंस यानी मुख्य परीक्षा पास करनी होती है और इस परीक्षा को भी पास करने वालों को इंटेलिजेंट अधिकारियों के एक पैनल के सामने जाकर 275 अंकों का एक इंटरव्यू पास करना होता है। जो उम्मीदवार परीक्षा के इन सभी पड़ावों को पार करके चुने जाते हैं, उनकी नियुक्ति आईएएस, आईएफएस, आईपीएस और तमाम मंत्रालयों व सरकारी विभागों में अधिकारियों के रूप में होती है।

लेकिन लेटरल एंट्री के ज़रिये जिन लोगों की भर्ती की जाती है, उन्हें कठिन परीक्षा के किसी भी दौर से नहीं गुज़रना होता है और वो इन अधिकारियों के बराबर का दर्जा पाते हैं। और यह सब उनकी ख़ास क़ाबिलियत की वजह से ही होता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किसी क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले लोगों को कोई यूनिवर्सिटी पीएचडी और डी.लिट की उपाधि देती है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पिछले क़रीब साढ़े 10 वर्षों के कार्यकाल में एक तरफ़ सरकारी पदों को पूरी ईमानदारी से भरने की बजाय सरकारी नौकरियों को ख़त्म करने का काम किया है, वहीं दूसरी तरफ़ वो लेटरल एंट्री से अधिकारियों के ऐसे पदों पर भर्ती करने में पूरी दिलचस्पी दिखाती रही है, जिन पदों पर बैठकर अधिकारी बहुत कुछ कंट्रोल करते हैं और कई अधिकारी अपनी मनमानी भी करते हैं।

विपक्ष सरकारी पदों पर भर्ती न करने और बेरोज़गारी को लेकर लगातार आवाज़ उठाता रहा है। पिछले दिनों आयी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में श्रम बल सहभागिता दर 49.9 फ़ीसदी होने के बावजूद सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी लोग ही सरकारी नौकरी पा सकते हैं यानी सरकारी नौकरी सिर्फ़ काम करने योग्य लोगों में से सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी के लिए ही सरकारी नौकरियाँ बची हैं। इससे साफ़ है कि सरकारी नौकरियाँ अब न के बराबर ही बची हैं। लोकसभा में दिये गये केंद्र सरकार के एक बयान के अनुसार, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद साल 2014 से लेकर जुलाई 2022 तक अलग-अलग सरकारी विभागों में कुल 7,22,311 सरकारी पदों पर भर्ती की है। लेकिन उनका वादा था- हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने का और जब यह सवाल आया, तो उन्होंने पकौड़ा बेचने को रोज़गार बता डाला। हैरत की बात का कि साल 2018-19 में महज़ 38,100 लोगों को ही सरकारी नौकरी मिली, जबकि इस दौरान 5,09,36,479 ज़रूरतमंद युवाओं ने सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किये।

हालाँकि सरकार ने दावा किया था कि साल 2019-20 में देश भर में 1,47,096 युवाओं को सरकारी नौकरी दी गयी। और यह भी दावा है कि मोदी सरकार के समय में रोज़गार दर लगभग 40 फ़ीसदी है। लेकिन दूसरी तरफ़ आ रही जानकारियों से पता चल रहा है कि देश भर में हर विभाग में बड़ी संख्या में सरकारी पद ख़ाली पड़े हैं। जो पद ख़ाली हो रहे हैं, उन पर भर्तियाँ नहीं हो रही हैं। मंत्रालयों तक में ठेकेदारी प्रथा शुरू हो चुकी है। परीक्षाएँ रद्द होने और पेपर लीक होने का खेल तो खुलेआम चल ही रहा है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक, देश में साल 2020 में बेरोज़गारी दर 7.11 फ़ीसदी और साल 2021 में 7.9 फ़ीसदी थी। लेकिन सरकार ख़ुद कह रही है कि वह 100 में सिर्फ़ 40 लोगों को ही नौकरी दे पा रही है। इस प्रकार तो बेरोज़गारी दर 60 फ़ीसदी हुई। फिर बेरोज़गारी के आँकड़े 7-8 फ़ीसदी के बीच में क्यों अटके हुए हैं? इसमें तो गड़बड़ी साफ़ दिख रही है। लेकिन लेटरल एंट्री में कोई कमी नहीं आयी। प्राइवेट नौकरियाँ भी घट रही हैं। अभी हाल ही में ख़बर आयी है कि महज़ एक साल में टाइटन और रिलायंस समेत पाँच बड़ी कम्पनियों ने अपने 52,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। अगर मैं मीडिया क्षेत्र की बात करूँ, तो हर मीडिया हाउस इन दिनों 10-10 कर्मचारियों का काम एक या दो कर्मचारी से ले रहा है और तनख़्वाह की बात की जाए, तो वो कई मीडिया हाउस में तो चपरासी से लेकर शुरुआती पद के लेवल की भी नहीं है। कोरोना की पहली लहर में साल 2020 में क़रीब 1.45 करोड़ लोगों को कम्पनियों ने नौकरी से हटा दिया था। इसी प्रकार से कोरोना की दूसरी में क़रीब 52,00,000 लोगों की और कोरोना की तीसरी लहर में क़रीब 18,00,000 लोगों की नौकरी छिन गयी। और ये केंद्र सरकार के ही आँकड़े हैं। लेकिन नौकरियाँ मिलीं कितनी? यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि आज जब कहीं किसी एक पद पर भर्ती निकलती है, तो लाखों बेरोज़गार उसके लिए अप्लाई करते हैं। सरकार अगर सरकारी पद बढ़ाने में असमर्थ है, तो कम-से-कम उन पदों को ज़रूर भरे, जो ख़ाली पड़े हैं। और सिर्फ़ लेटरल एंट्री, रिश्वत और सोर्स के ज़रिये सरकारी पदों पर भर्तियों का खेल भी रोके, जिससे किसी भी वर्ग या जाति के युवा को ईमानदारी से उसका हक मिल सके और बार-बार आरक्षण का मसला ही न उठे। क्योंकि जब-जब आरक्षण को लेकर कोई आन्दोलन होता है, तो सरकार और जनता दोनों का नुक़सान होता है। बिना मतलब पुलिस प्रशासन को लगाने में करोड़ों के ख़र्च के अलावा आगजनी और तोड़फोड़ जैसी घटनाओं से जान-माल का नुक़सान होता है। इसे सरकार को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)