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वोटों के लिए छठ पूजा पर फिर सियासत

छठ पूजा को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सही तो कहा था कि छठ पर्व को सार्वजनिक स्थल पर न मनाएँ और अपने घरों में छठ पूजा करें, ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। मुख्यमंत्री के बयान के सियासी मायने निकाले जाएँ, तो गलत है। कोरोना महामारी दिल्ली में फिर तेज़ी से फैल रही है। दिल्ली डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (डीडीएमए) ने भी कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए छठ पूजा की सार्वजनिक स्थलों आपत्ति जतायी थी। लेकिन दिल्ली भाजपा ने इसे पूरी तरह से सियासी तूल दे दिया कि केजरीवाल छठ पूजा के विरोध में हैं। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने कहा कि केजरीवाल पहले रामलीला फिर दीवाली पर पटाखे जलाये जाने का विरोध कर चुके हैं और अब उन्होंने छठ पूजा के नाम पर पूर्वांचल और बिहारवासियों की आस्था और श्रद्धा के पर्व को रोकना चाहा, जिसका भाजपा ने डटकर विरोध किया और दिल्ली में रहने वाले सभी पूर्वांचल और बिहारवासियों ने सोशल डिस्टेंसिंग के साथ छठ पर्व को धूमधाम से मनाया है। छठ पूजा के नाम पर भाजपा और आप पार्टी के बीच जो भी सियासी खेल खेला गया है। उसके पीछे 2022 के दिल्ली नगर निगम चुनाव की रणनीति बनाने की चाल है।

दिल्ली में पूर्वांचल और बिहारवासियों का अच्छा-खासा वोट बैंक है। तहलका संवाददाता को पूर्वांचल और बिहारवासियों ने बताया कि छठ पूजा आस्था का पर्व है। इस पर किसी भी राजनीतिक दल को सियासत नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या करें? अब देश में आस्था और धर्म के नाम पर ही वोट बैंक की राजनीतिकी जान लगी है।

पूर्वांचल निवासी प्रत्युष सिंह का कहना है कि दीपावली के बाद बिहार और पूर्वांचल में छठ का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है; लेकिन इस बार कोरोना वायरस का सभी त्योहारों पर साया रहा है। ऐसे में हमें सावधानी तो बरतनी ही होगी, ताकि इस महामारी से बचा जा सके। उनका कहना है कि सियासत के हटकर देखा जाए तो मुख्यमंत्री केजरीवील ने ठीक ही कहा कि छठ की पूजा घर में ही करें, ताकि महामारी के मामले और न बढ़ें। बिहार निवासी सुदामा तिवारी का कहना है कि इस बार की छठ पूजा यादगार रही। क्योंकि कोरोना के डर सभी को सता रहा है। शासन-प्रशासन की पैनी नज़र रही है। इस बार अधिकतर लोगों ने अपने घरों में ही पूजा-अर्जना कर छठ का पर्व मनाया है। उनका कहना है कि यह तो जगज़ाहिर है कि कोरोना का कहर दिल्ली में ही नहीं, सारे देश में फिर से तेज़ी से फैल रहा है।

आम आदमी पार्टी के सीनियर नेता ने तहलका संवाददाता को बताया कि आगामी दिल्ली नगर निगम के चुनाव के पूर्व ही भाजपा को अपनी हार अभी से दिख रही है, सो उसके नेता अभी से पूर्वांचल और बिहारवासियों को साधने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि आम आदमी पार्टी का उन्होंने 2020 के विधानसभा के चुनाव में खुलकर साथ दिया है और अब आगामी नगर निगम चुनाव में भी उनका समर्थन मिलेगा। यह भाजपा भी भली-भाँति जानती है, सो अब वह धर्म और आस्था के नाम पर ओछी राजनीति कर रही है। पिछले कई साल से आम आदमी पार्टी छठ पर्व पर बेहतर इंतज़ाम करती रही है। दिल्ली भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व सांसद मनोज तिवारी का कहना है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बाज़ारों, होटलों और सिनेमाघरों को खोलने की बात करते है। साप्ताहिक बाज़ारों में जमकर भीड़ है। शराब की दुकानों में सारे नियमों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। इस पर मुख्यमंत्री को कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन पूर्वांचल और बिहार के लोगों से न जाने क्या नफरत है कि वह उनके त्योहार पर रोक लगाना चाहते हैं। यह पूरी तरह से साज़िश का हिस्सा रहा है।

इस पर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि कोरोना के कहर के चलते अभी स्कूलों और कॉलेजों को नहीं खोला जा रहा है। शादियों में भी 50 से ज़्यादा लोगों को जाने की इजाज़त नहीं है। इसलिए हमने छठ पर्व पर भी घरों में पूजा-अर्चना करने की बात की है।

पूर्वांचल मोर्चा के नवीन कुमार का कहना है कि सियासतदानों से ज़्यादा पूर्वांचल और बिहारवासी जानते हैंै कि मौज़ूदा समय में दिल्ली में कोरोना का संक्रमण फिर बढ़ गया है। सियासी लोग बे-वजह मामले को तूल दे रहे हैं। लोगों ने अपने परिवार के साथ घर पर अपने सुलभ तरीके से जल-निधि बनाकर उगते सूर्य को अघ्र्य देकर छठ पर्व मनाया है। उनका भी मानना है कि छठ पूजा घर में करने की सलाह पर कुछ लोगों द्वारा दिल्ली सरकार का विरोध करना भी सियासत का हिस्सा था।

बढ़ती महामारी पर बेबस सरकार

देश में कोरोना वायरस के मामले फिर से बढऩे लगे हैं। दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में नये मरीज़ों की संख्या बढ़ सकती है। क्योंकि एक तरफ बिहार में विधानसभा चुनाव के चलते जमकर रैलियाँ की गयीं, तो दूसरी तरफ त्योहारी सीज़न के दौरान देश भर के बाज़ारों में भीड़ इकट्ठी हुई।

देश में दोबारा बढ़ते मामलों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 नवंबर को कोरोना वायरस बढऩे वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक करके ताज़ा स्थिति की समीक्षा की। इस बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के अलावा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बधेल और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने हिस्सा लिया। बैठक में अमित शाह ने मुख्यमंत्रियों को कोरोना पर काबू पाने के तीन तरीके बताये।

गृहमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से कहा कि वे सुनिश्चित करें कि कोरोना वायरस की महामारी के चलते मृत्यु दर एक फीसदी से कम हो और अगर मामले बढ़ते हैं, तो यह दर पाँच फीसदी से कम हो। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री राज्यों में कंटेनमेंट जोन की रणनीति को नया रूप दें। उन्होंने यह भी कहा कि हर राज्य के अधिकारी हर हफ्ते रेड जोन का दौरा करके वहाँ के आँकड़े इकट्ठे करें और उसके हिसाब से किसी विशेष क्षेत्र की स्थिति को बदला जाना चाहिए।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में कोविड-19 की तीसरी लहर की अधिक गम्भीरता के कई कारण है, जिसमें प्रदूषण प्रमुख है। उन्होंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि जब तक शहर में संक्रमण की तीसरी लहर का कहर जारी है, तब तक दिल्ली स्थित केंद्र सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में कोरोना वायरस के मरीज़ों के लिए 1000 अतिरिक्त आईसीयू बिस्तर आरक्षित किये जाएँ।

प्रबन्धन की कमी

अब जब कोरोना मरीज़ों की संख्या फिर तेज़ी से बढ़ रही है, तो राज्य सरकारें सख्ती पर उतर आयी हैं। केंद्र व राज्य सरकारें अपनी फिक्रमंदी ज़ाहिर कर रही हैं। यहाँ राज्य सरकारों की कार्यशैली पर भी सवाल उठता है। गर्मियों में जब कोरोना के मामले लगातार तेज़ी से बढ़ रहे थे, तभी स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सचेत कर दिया था कि आने वाली सर्दियों और त्योहारी मौसम में कोरोना के मामले बढ़ सकते हैं। दिल्ली में फिर कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। नीति आयोग ने पहले ही राजधानी में आने वाले दिनों में प्रति 10 लाख की आबादी में 500 लोगों के संक्रमित होने की आशंका ज़ाहिर की थी। दिल्ली में कोरोना के बढ़ते मामलों को लेकर स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकारने में भी कई दिन लगे कि दिल्ली में कोरोना की तीसरी लहर आ चुकी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा कि हमने कभी यह नहीं सोचा था कि कोरोना चला गया है; लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि इस तरह फिर वापस लौटेगा। अक्टूबर के पहले सप्ताह में संक्रमण की दर पाँच-छ: फीसदी रही, तब लगा था कि वह कम हो गया। विशेषज्ञ कह रहे थे कि प्रदूषण बढऩे के साथ-साथ कोरोना के मामले भी बढ़ेंगे। मौसम में बदलाव व त्योहारी मौसम में कोरोना के मामलों में बढ़ोतरी पर मुख्यमंत्री का यह कहना कि कोरोना इस तरह वापस लौटेगा, ऐसी उन्हें उम्मीद नहीं थी। यह हैरत में डालने के साथ-साथ यह भी बताता है कि प्रशासन ने कोरोना को कितनी आसानी से लिया। शुरू में केरल में कोरोना पर काबू पाने की मिसाल देश भर में दी जाने लगी थी। लेकिन वहाँभी लोगों ने ओणम का त्योहार धूमधाम से मनाया और उसके बाद वहाँ कोरोना के मामलों में वृद्धि की खबरें आने लगीं। केरल सरकार ने भी माना कि कोरोना के मामलों के बढऩे की एक वजह त्योहार भी है। बिहार की राजधानी पटना में दशहरे के बाद कोरोना के मामलों में बढ़ोतरी देखी गयी। यह उदाहरण जब राज्य सरकारों के सामने हैं, तो सवाल उठता है कि राज्य सरकारों ने दीपावली, छठ पूजा आदि त्योहारों के मद्देनज़र कोरोना के फैलाव को रोकने की तैयारी क्यों नहीं की? बाज़ारों में भी विकट भीड़ उमड़ती रही और प्रशासन ने ऐसा कोई उपाय नहीं किया, जिससे इस लोगों से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराया जा सके। क्या सरकारें सितंबर से ही स्थानीय स्तर पर ऐसी कोई योजना बनाने पर काम नहीं कर सकती थीं, जिससे वार्ड स्तर पर स्थानीय विधायकों, निगम पार्षदों, रेजीडेंस वेलफेयर एसोसिएशन के सदस्यों के सहयोग से बाज़ार में लोगों की खरीदारी की ऐसी रूपरेखा तैयार की जाती, जिससे भीड़ इकट्ठी ही नहीं होती। कोरोना महामारी में भीड़ प्रबन्धन के सन्दर्भ में अभी तक सरकारें पशोपेश वाली स्थिति में ही नज़र आ रही हैं। एक तरफ उनके सामने लोगों की आजीविका, उनकी और देश की कमज़ोर आर्थिक स्थिति के आँकड़ें घूमते रहते हैं, तो दूसरी तरफ चुनावों में जीत का स्वार्थ नेताओं, सरकारों को बेपरवाह बनाते हैं। प्रधानमंत्री आये दिन अवाम को सीख देते रहते हैं कि कोरोना को हराने के लिए मास्क व दो गज़ की दूरी ज़रूरी है। लेकिन हाल में सम्पन्न बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने भी ताबड़तोड़ रैलियाँ कीं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी को हराने के लिए जनता का सहयोग भी ज़रूरी है, लेकिन प्रशासन भी जनता में व्यवहार परिवर्तन के लिए गम्भीरता से लगातार प्रयास जारी रखे। प्रशासन ने शुरू में लॉकडाउन के दौरान सख्ती बरती, लेकिन जैसे-जैसे अनलॉक की प्रक्रिया आगे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे प्रशासन सुस्त पड़ता गया और जनता लापरवाह होती गयी। प्रशासन ने मान लिया कि कोरोना के मामलों में कमी आने का मतलब है कि अब कोरोना की विदाई का वक्त आ गया है और जनता को भी लगा कि संक्रमण दर में कमी आने का अर्थ है कि घरों से बाहर बे-वजह घूमना। बहुत-से लोग मास्क से नाक व मुँह को न ढककर, उसे गले में लटकाकर घूमने लगे, बिना मास्क के घूमने लगे। अब जब हालात बेकाबू हो गये हैं तो कई राज्य सरकारों ने सीमित कफ्र्यू लगाने का ऐलान कर दिया है। शादी में मेहमानों की संख्या भी कम कर दी गयी। मास्क नहीं लगाने पर ज़ुर्माने की राशि 500 रुपये से बढ़ाकर 2000 रुपये कर दी गयी। सार्वजनिक स्थल पर थूकने, सिगरेट पीने पर भी 2000 रुपये का ज़ुर्माना लगाने का नियम बना दिया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि ज़ुर्माना राशि बढ़ाने से लोग मास्क पहनेंगे और कोरोना पर काबू पाने में मदद मिलेगी। यह कदम कितना कारगर साबित होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा।

कोरोना-टीके पर मँडराते सवाल

इन दिनों विश्व भर में 73 टीकों (वैक्सीन) पर अलग-अलग चरणों में काम चल रहा है। इनमें से छ: का आपात इस्तेमाल शुरू हो गया है। अधिक चर्चा पाँच टीकों की हो रही है। फाइजर टीका बनाने वालों का दावा है कि यह 95 फीसदी असरदार है और दिसंबर में आ सकता है। मॉडर्ना टीके को लेकर दावा है कि यह 94.5 फीसदी प्रभावशाली है। वैक्सीन का तीसरा ट्रायल शुरू हो चुका है। एस्ट्राजेनका के तीसरे चरण के नतीजों का इंतज़ार है। इसकी फरवरी में आने की सम्भावना बतायी जा रही है। रूस में बने स्पुतनिक टीके का इस्तेमाल वहाँ हो रहा है; लेकिन भारत में इसका दूसरे और तीसरे चरण का परीक्षण किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस टीके की दो खुराकें दी जाएँगी। इधर चीन ने कोरोना की एक सुपर टीका बनाने का दावा किया है। यह टीका 10 लाख लोगों को लगाया जा चुका है। और किसी में कोई गम्भीर नुकसान भी नज़र नहीं आया है। बेशक इस टीके के परीक्षण का अन्तिम चरण अभी पूरा नहीं हुआ है, मगर चीन की सरकार ने आपात स्थिति में इस प्रायोगिक टीके को मरीज़ों को लगाने की अनुमति दे दी है।

दुनिया बड़ी उम्मीद के साथ कोरोना-टीके का इंतज़ार कर रही है, मगर यह वैक्सीन कितने समय तक लोगों को कोरोना से सुरक्षा कवच प्रदान करेगी, इसे लेकर किसी के पास स्पष्ट जवाब नहीं है। इस बाबत कई अटकलें लगायी जा रही हैं, मसलन वैक्सीन की एक खुराक के बाद अगले साल बूस्टर खुराक की ज़रूरत पड़ेगी। यहाँ भी तस्वीर साफ नहीं है। दरअसल कोरोना-टीके के प्रदर्शन और उसकी क्षमता का सटीक आकलन होना अभी शेष है। यह सवाल भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्या टीका आने के बाद कोरोना से प्रभावित गम्भीर मरीज़ों की संख्या कम हो जाएगी? और अगर होगी, तो कितने फीसदी? इसी तरह कोरोना-टीका बनाने वाली कम्पनियों के साथ अमेरिका व ब्रिटेन जैसे विकसित मुल्कों ने पहले ही अधिक मात्रा में वैक्सीन खरीदने के करार कर लिये हैं। गरीब देश इसे पाने की दौड़ में काफी पीछे हैं।

कोरोना पर सियासत हावी

कोरोना महामारी के बढ़ते मामलों को लेकर सरकार ने चिन्ता व्यक्त करके सभी देशवासियों को चिन्ता में डाल दिया है। चिन्तित लोगों का कहना है कि कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों पर फिर अब सियासत हो रही है। क्योंकि अब त्योहार निकल गये हैं और राज्यों के चुनाव भी हो चुके हैं। दुर्गा पूजा से लेकर दीपावली तक और बिहार विधानसभा चुनाव से लेकर अन्य  11 राज्यों के उप चुनावों के दौरान देश में अप्रत्याशित तरीके से देश में कोरोना के मामले घटने लगे थे। जैसे ही चुनाव परिणाम घोषित हुए, बिहार में सरकार बनी और त्योहारों की रौनक कम हुई; फिर से कोरोना के मामले बढऩे लगे।

तहलका संवाददाता को कोरोना महामारी को लेकर जानकारों और डॉक्टरों ने बताया कि अगर देश में इसी तरह सियासत होती रही, तो आने वाले दिनों में कोरोना भयंकर रूप ले लेगा। जहाँ आपदाएँ, विपदाएँ आती हैं, वहाँ कुछ व्यापारिक और सियासी लोग अपना लाभ देखते हैं। दिल्ली के डॉक्टरों का कहना है कि अचानक कोरोना के मामले बढऩे के पीछे दवाओं और वैक्सीन का बाज़ारीकरण है।

मौज़ूदा समय में देश में कोरोना को लेकर लोग आशंकित है कि कोरोना की वापसी में कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। सरकार की ओर से कोरोना के बचाव के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं, उससे अधिक परेशान करने के लिए भी प्रयास किये जा रहे हैं। जैसे मास्क न लगाने पर दो हज़ार रुपये का ज़ुर्माना, एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने पर कोरोना की जाँच कराना आदि। सरकार की ओर से धरातल पर न के बराबर काम हो रहा है। हो-हल्ला इस कदर हो रहा है कि लोगों के बीच हाहाकार मचा हुआ है।

कोरोना को रोकने में जो भी सरकारी सिस्टम लगा है, वह काफी हद तक नाकाम रहा है। कोरोना के कारण अन्य बीमारियों से पीडि़त मरीज़ों को सही उपचार नहीं मिल पा रहा है। कोरोना वायरस के भय से लोग बड़े शहरों में अपने मरीज़ परिजनों का इलाज कराने से कतरा रहे हैं। हृदय के मरीज़ों, कैंसर, किडनी और लीवर सहित तामाम गम्भीर रोगों से पीडि़त मरीज़ों के इलाज के नाम पर सरकार की ओर से कारगर कदम नहीं उठाये जा रहे हैं, जिसके कारण मरीज़ों की हालत दिन-ब-दिन गम्भीर रोग होती जा रही है और असमय मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।

कोरोना बढ़ते मामले को लेकर जाने-माने ईएनटी विशेषज्ञ डॉक्टर एम.के. तनेजा का कहना है कि देश में हड्डी रोग, नैत्र रोग, त्वचा रोग, गैस्ट्रो सहित अन्य पैथियों के चिकित्सक सरकारी दबाव में या अपनी नौकरी बचाने के लिए आठ महीने से कोरोना वायरस से संक्रमितों का उपचार करें जा रहे हैं; जबकि सच्चाई यह है कि कोरोना के इलाज में चेस्ट के मरीज़ों को मेडिसिन फिजिशियन की ज़रूरत है, जो देश में काफी कम है। तो ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कोरोना के मरीज़ों का सही तरीके से इलाज हो रहा है? डॉक्टर तनेजा का कहना है कि पीजी और अंडर पीजी करने वालों को पहले प्रशिक्षित करें और उन्हें अकादमिक सुविधाएँ दी जाएँ, तो वे भी काफी हद तक मरीज़ों का इलाज कर सकते हैं। अन्यथा साधनों और योग्यता के अभाव में कोरोना का उपचार दिखावा होगा। उनका कहना है कि क्षेत्रीय और ज़िला स्तरीय अस्पतालों में कोरोना संक्रमितों के इलाज की तामाम बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।

कोरोना वायरस की आड़ में चिकित्सा से जुड़े बहुत-से लोगों में मनमानी पनपी है। कोरोना रोग के अलावा किसी अन्य रोगियों को देखने से पहले सरकारी अस्पताल के डॉक्टर कोरोना की जाँच कराने का दबाव भी बनाते हैं, जिससे काफी लोग अपनी दूसरी बीमारियों का इलाज अपने तरीके से करने में लगे हैं। एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना एक संक्रमित और छुआछूत की बीमारी है, जिसे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) और जागरूकता के माध्यम से कम किया जा सकता है। सरकार इसको करने-कराने में नाकाम है। कोरोना के नाम पर पैसे का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है। कोविड सेंटर बनाये जाने से लेकर विज्ञापन के ज़रिये प्रचार-प्रसार करने तक में जमकर घोटाला किया जा रहा है, जिसका कोरोना की रोकथाम से लेकर दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।

  बताते चलें कि कोरोना के टीके को लेकर लोगों में एक उम्मीद है कि आने वाले दिनों में कोरोना-टीका आ जायेगा, जिससे कोरोना वायरस से राहत मिलेगी। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं और कोरोना वायरस से निपटने को लेकर उसकी साख कमज़ोर हो रही है।

जानकारों का कहना है कि अगर कोरोना वायरस का टीका आता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि जादू की छड़ी हाथ आ जाएगी, जिससे एक साथ कोरोना भगा दिया जाएगा। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना वायरस को रोकने में सरकार के प्रयास सराहनीय नहीं हैं। सरकार को सब मालूम है कि कोरोना वायरस एक घातक महामारी है और लम्बे समय तक रहने वाली है। इसमें विशेष सावधान रहने की ज़रूरत है; लेकिन सरकार अपने हिसाब से काम करती है। सियासत करती है। बिहार के विधानसभा चुनाव और दूसरे 11 राज्यों के उप चुनाव के साथ-साथ त्योहारों के दौरान जो भीड़ देखी गयी है, वो भी बढ़ते कोरोना का एक कारण है। डॉक्टर बंसल का कहना है कि कोरोना की जाँच तो शहरों में हो रही है, सो मामले भी आ रहे हैं, अगर छोटे कस्बों, गाँवों में जाँच हो, तो मरीज़ों की संख्या और भी बढ़ सकती है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना के साथ-साथ दूसरे मरीज़ों का भी समय पर इलाज होना चाहिए, ताकि किसी अन्य बीमारी के मरीज़ों की स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कत न बढ़े और न किसी की इलाज के अभाव में मौत हो।

कोरोना के मामलों में गिरावट भले ही न आयी हो, लेकिन कोरोना वायरस की जाँच के नाम पर देश में प्रमाणित और गैर-प्रमाणिक लैबों का कोरोबार भी खूब बढ़ा है। जबसे सरकार ने कहा है कि कोरोना वायरस की जाँच आम नागरिक स्वेच्छा से कहीं भी करवा सकते हैं, तबसे लोगों ने अपनी जाँच स्वयं ही लैबों में करवानी शुरू कर दी है, जिससे निजी लैब वालों का कारोबार जमकर फल-फूल रहा है।

दवा कम्पनी में काम करने वाले सचिन का कहना है कि कोरोना के बढ़ते मामलों के पीछे कहीं कोरोना-टीके का बाज़ार मज़बूत करने की साज़िश तो नहीं है? क्योंकि कोरोना-टीका बनाने और सफलता का दावा करने में तामाम नामी-गिरामी कम्पनियाँ लगी हुई हैं। इन कम्पनियों का मकसद है कि कैसे इस महामारी में उन्हें फायदा मिले। इसे लेकर भी एक सुनियोजित तरीके से लोगों में भय का माहौल तैयार किया जा रहा है, ताकि टीके का बाज़ार गर्म रहे, जिसके मार्फत जनता का पैसा खींचा जा सके। आयुर्वेदाचार्य डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कोरोना को लेकर जो वैक्सीन तैयार की जा रही है, वह आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सबसे बड़ी खोज होगी। लेकिन लोगों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इससे कोरोना वायरस का पूरा उपचार सम्भव हो गया है; यह आसानी से जाने वाला नहीं है। चेचक, हैजा, प्लेग और खसरा जैसी बीमारियों के टीके आने बाद भी ये बीमारियाँ अभी भी काफी परेशान कर रही हैं।

जिस प्रकार कोरोना को लेकर फिर से हाहाकार भरा माहौल बना हुआ है, उससे अधिक माहौल और उत्सुकता कोरोना-टीके को लेकर है। लेकिन भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और अगर टीका आ भी गया, तो भी यहाँ पर इस महामारी से निपटने में समय लगेगा।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का कहना है कि स्थानीय तौर पर विकसित एक कोरोना-टीके का परीक्षण अन्तिम चरण में है। वहीं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) और निजी कम्पनी भारत बायोटेक ने नवंबर में कोराना-टीके के तीसरे चरण का परीक्षण शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि यह टीका विदेशी कम्पनियों द्वारा तैयार से पहले भारतीयों को मिलेगा।

नेशनल मेडिकल फोरम के चैयरमेन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि सरकार को सारा ज़ोर कोरोना वायरस को रोकने में लगाना चाहिए। कोरोना-टीका जब आयेगा, तब आयेगा। इस समय तो कोरोना वायरस के तेज़ी से फैलते संक्रमण को रोकना ज़रूरी है, जिसके लिए एक बेहतर पहल की आवश्यकता है। क्योंकि कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण पनपी बेरोज़गारी से लोग आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, जिससे उनका मानसिक तनाव बढ़ रहा है और सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है। इंडियन हार्ट फांउडेशन के चैयरमेन डॉक्टर आर.एन. कालरा का कहना है कि कोरोना एक नयी बीमारी है। इस बीमारी को लेकर तामाम शोध चल रहे हैं। इसकी दवा आने में समय लग सकता है। सर्दी के मौसम में अगर कोरोना के फैलाव को रोकना है, तो मास्क लगाने के साथ-साथ आपसी दूरी का विशेष ध्यान देना होगा; अन्यथा घातक परिणाम सामने आ सकते हैं।

आन्दोलन से पंजाब की आर्थिक बदहाली

पंजाब में कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के रेल रोको अभियान से राज्य में आर्थिक बदहाली जैसी स्थिति हो गयी है। लगभग दो माह से राज्य में मालगाडिय़ों की आवाजाही पूरी तरह से बन्द है। सैकड़ों डिब्बे माल से लदे हैं, जबकि इतना ही सामान बिना लदा पड़ा हुआ है। चूँकि किसान रेल पटरियों पर धरना दे रहे हैं। ऐसे में रेलवे विभाग सुरक्षा के नज़रिये से कोई खतरा नहीं उठाना चाहता।

रेल रोको अभियान से अब तक पंजाब को ही 40 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक नुकसान हो चुका है। पंजाब सरकार आर्थिक बदहाली से घुटनों पर आ चुकी है। राज्य की माली हालत और ज़्यादा खराब न हो इसके लिए वह रेल यातायात को बहाल कराना चाहती है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कृषि कानूनों के खिलाफ और किसानों के साथ खड़े हैं; मगर राज्य की मौज़ूदा स्थिति से वह भी डरे हुए हैं। 21 नवंबर को चंडीगढ़ में किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से उनकी बातचीत कुछ हद तक सफल रही। किसान नेता 15 दिन के लिए रेलवे ट्रेक से हटने पर सहमत हो गये। 23 नवंबर से 10 दिसंबर तक राज्य में रेल यातायात बहाल होने का रास्ता खुल गया है। किसान केंद्र सरकार से (मुख्यत: प्रधानमंत्री से) रू-ब-रू होना चाहते हैं। फैसला अब केंद्र सरकार के हाथ में है कि वह क्या करती है?

यह विकल्प कितना कारगर रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा, लेकिन इससे एक बात पुष्ट होती है कि बातचीत से समस्या का समाधान सम्भव है। जब राज्य का मुख्यमंत्री अपनी ओर से पहल करते हुए बातचीत करके कुछ हद तक सफल हो सकता है, तो ऐसी पहल के द्वारा प्रधानमंत्री ज़्यादा असरदार और सफल साबित हो सकते हैं। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहे, जिससे केंद्र सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगते हैं। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी किसान चाहते हैं, वह उसे मंज़ूर नहीं है। यह पक्की बात है कि केंद्र सरकार अब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अन्य गेहूँ-चावल उत्पादक राज्यों से पूरा उत्पाद नहीं खरीदना चाहती। वह आधे से ज़्यादा उत्पाद की खरीद को निजी हाथों में देना चाहती है। वह इस खरीद की ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। यही वजह है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने में हीला-हवाली कर रही है।

सरकारी व्यवस्था अभी से कितनी गड़बड़ा रही है? इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझा जा सकता है। किसान रणबीर सिंह पाल ने 18 अक्टूबर को सरकारी मण्डी में धान बेचे; लेकिन एक महीना बीतने के बाद भी अभी तक उनके खाते में पैसे नहीं आये हैं। वह कहते हैं पहले 24 घंटे के अंदर में नकद भुगतान होता था। किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। नये कृषि कानून बनने के दौरान पहली ही फसल में यह हाल है, तो आगे क्या होगा? रणबीर सिंह जैसे बहुत-से किसानों की यही व्यथा है। उन्हें लगता है किसानों के अच्छे नहीं, बुरे दिन शुरू हो गये हैं। जब सरकारी खरीद पर भुगतान का यह हाल है, तो निजी कारोबारी उनका क्या हाल करेंगे? यह सोचने की बात है। जब हमारे उत्पाद का पैसा ही समय पर नहीं मिलेगा, तो खेती करना ही सम्भव नहीं होगा। उनकी राय में केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानून किसानी और किसानों को खत्म करने वाले हैं।

राज्य के औद्योगिक शहर लुधियाना में सैकड़ों इकाइयाँ कच्चे माल की कमी के चलते बन्द होने के कगार पर हैं। ऐसे में फिर से प्रवासी मज़दूरों का पलायन भी हो रहा है। ज़रूरी सामग्री ट्रकों के माध्यम से पहुँच ज़रूर रही है, लेकिन उससे ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। रेलवे को तो हज़ारों करोड़ का नुकसान हो रहा है, बावजूद इसके केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से बातचीत करके हल निकालने का विकल्प नहीं अपनाया है। किसान संगठन बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन सरकार कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध पर ज़रा भी गम्भीर नहीं है। उसे लगता है कि धीरे-धीरे आन्दोलन कमज़ोर होकर अपने आप ही दम तोड़ देगा।

आन्दोलन कमज़ोर ज़रूर हुआ है, लेकिन किसानों ने हिम्मत नहीं हारी है। 26 और 27 को राजधानी दिल्ली कूच करने की ज़बरदस्त तैयारी है। भारतीय किसान यूनियन (एकता-उग्राहन) की ओर से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को पत्र लिखकर दिल्ली कूच के लिए उन्हें राज्य में प्रवेश की अनुमति माँगी गयी। लेकिन जैसे ही किसानों ने दिल्ली कूट ककिया, उन पर पुलिस ने कई तरह से बल प्रयोग किया। यूनियन के मुताबिक, लाखों किसान राज्य के डबवाली और खन्नौरी सीमा से हरियाणा होकर दिल्ली पहुँचेंगे। भाकियू (एकता-उग्राहन) के सचिव सुखदेव सिंह, कोकरी कलाँ ने कहा कि हम टकराव नहीं चाहते, शान्तिपूर्ण तरीके से आन्दोलन करना चाहते हैं। दिल्ली दरबार को बताना चाहते हैं कि कृषि कानूनों के खिलाफ कितना रोष है? अगर हरियाणा सरकार अनुमति देगी तो ठीक, वरना हमें जहाँ पुलिस रोकेगी वहीं धरने पर बैठ जाएँगे। इससे राज्य की पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी। किसान दिल्ली को जोडऩे वाले पाँच राष्ट्रीय राजमार्गों को पूरी तरह जाम करने का इरादा रखते हैं। प्रस्तावित आन्दोलन के मद्देनजर केंद्र ने अभी तक इसे टालने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये हैं। यह आन्दोलन की अच्छी बात कही जा सकती है कि किसान शान्तिपूर्वक आन्दोलन कर रहे हैं। किसान संगठन चाहते हैं कि जिस तरह से केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानून बनाये हैं, उसी तरह से एक और चौथा कानून भी बना दिया जाए, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की गारंटी हो।

फिलहाल बड़ा मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही है, जिस पर केंद्र सरकार गारंटी देना नहीं चाहती और किसान इसे कानूनी मान्यता दिलाने के पक्षधर है। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ के मुताबिक, केंद्र सरकार की हठधर्मिता की वजह से आन्दोलन इतना लम्बा खिच रहा है।

कांग्रेस नये कृषि कानूनों के खिलाफ है। वह किसानों की माँगों को जायज़ मानती है। पंजाब की अर्थ-व्यवस्था आन्दोलन की वजह से पटरी से उतर रही है। कृषि प्रधान राज्य पंजाब में खाद, यूरिया और अन्य संकट पैदा हो रहे हैं। नवंबर के अन्त में इनकी माँग और ज़्यादा बढ़ेगी। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने प्रयास किये। मुख्यमंत्री के कहने पर किसानों ने 15 दिन रेलवे सेवा बहाल करने पर सहमति दे दी। इस दौरान केंद्र सरकार बातचीत करके किसानों को राहत देती है, तो हालात सुधरेंगे, वरना स्थिति एक पखवाड़े बाद और खराब हो सकती है।

किसानों को खेती-बाड़ी छुड़वा सडक़ों पर धरने-प्रदर्शन पर मजबूर करने वाली केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानूनों पर ज़रा भी टस-से-मस नहीं हुई है। दो माह से आन्दोलनरत किसानों से सरकार ने बातचीत का कोई प्रस्ताव तक नहीं दिया। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जैसे आदर्श स्लोगन वाली भाजपा किसानों की आँखों की किरकिरी बन गयी है। किसान इन कृषि कानूनों को आत्मघाती बता रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री समेत लगभग सभी न इसके फायदे गिनाकर इसे क्रातिकारी कदम बता रहे हैं। तो क्या यह माना जाए कि किसानों को अपनी खेती के अच्छे-बुरे का पता नहीं? वह अन्नदाता है और बहुत कुछ जानता है। वह केवल कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए ही सडक़ों पर नहीं उतरा है, बल्कि उसे अपना अस्तित्त और खेती-किसानी ही खतरे में लग रही है। उसे पहले की तरह न्यूनतम समर्थन (एमएसपी) मूल्य की गारंटी चाहिए, लेकिन वह उसे नहीं मिल पा रही है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री न जाने कितनी बार न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने का मौखिक भरोसा किसानों को दे चुके हैं, लेकिन सब बेअसर साबित हुआ है। केंद्र सरकार को किसान यूनियनों के प्रतिनिधियों से बातचीत कर उनका भरोसा जीतने की पहल करनी चाहिए थी। अभी तक एक भी ठोस प्रस्ताव सरकार ने नहीं दिया।

पंजाब में किसानों के रेल रोको आन्दोलन की वजह से हिमाचल, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर में आवश्यक वस्तुओं की कमी हो चली है। कोयला आधारित बिजली संयंत्र बड़ी मुश्किल में है। इसके अलावा सीमेंट, खाद और अन्य ज़रूरी सामग्री रेल मार्ग से नहीं पहुँच पा रही है। केंद्र सरकार के पास एक पखवाड़े का पर्याप्त समय है। किसान संगठनों से बातचीत कर कोई हल निकाले इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? किसान सम्मानपूर्वक आन्दोलन को खत्म कर सकते हैं, बशर्ते केंद्र सरकार की मशा उनके सचमुच कल्याण की हो।

कैप्टन की सफलता

नये कृषि कानून बनाने पर केंद्र सरकार से बेहद खफा आन्दोलनरत किसानों को पंजाब सरकार से पूरा समर्थन और हमदर्दी है। शायद यही वजह रही कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जब किसान प्रतिनिधियों को बातचीत का प्रस्ताव भेजा, तो वे न केवल बातचीत को तैयार हुए, बल्कि मुख्यमंत्री के कहने पर 15 दिन के लिए रेल यातायात को बाधित न करने का वादा किया। यह कैप्टन अमरिंदर सिंह की बड़ी सफलता है। अब केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह किसानों से बातचीत करके उन्हें राहत दे। तभी किसान आन्दोलन समाप्त हो सकता है।

विपक्ष का समर्थन

पंजाब में किसानों को कांग्रेस का ही नहीं, बल्कि भाजपा को छोड़ सभी विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है। शिरोमणि अकाली दल के कोटे से केंद्र में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर ने तो इसे काला कानून बताते हुए इस्तीफा दे दिया था। शिअद पूरी तरह से किसानों के समर्थन में है, लेकिन राजनीतिक तौर पर उसे ज़्यादा फायदा नहीं मिल रहा। आम आदमी पार्टी भी किसान आन्दोलन को सही कदम बता रही है। पंजाब में कोई भी पार्टी किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती। भाजपाइयों की मजबूरी है, उन्हें केंद्र का समर्थन करना ही है। लेकिन राजनीतिक तौर पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। वोट बैंक की राजनीति से इतर किसानों के इस आन्दोलन को जायज़ ठहराने के दर्ज़नों तर्क हैं, पर शायद केंद्र सरकार को इससे फर्क नहीं पड़ता। वह किसान संगठनों में फूट पैदा करके आन्दोलन को कमज़ोर करना चाहती है, ताकि बातचीत की नौबत ही न आये।

क्या मुख्यमंत्री के बेटे से पूछताछ राजनीतिक प्रतिशोध है?

केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों, जिनका पंजाब और अन्य जगहों पर किसान विरोध कर रहे हैं, के खिलाफ चल रहे आन्दोलन के बीच पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह से स्विट्जरलैंड में धन के कथित लेन-देन और ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स के टैक्स हेवन (ऐसे देश जहाँ नाममात्र का ही टैक्स होता है) में एक ट्रस्ट के निर्माण और विदेश में अघोषित सम्पत्ति और उस पर कब्ज़ा करने को लेकर पूछताछ की गयी थी। उनके वकील जयवीर शेरगिल ने कहा कि रणइंदर सिंह से छ: घंटे तक पूछताछ की गयी और उनका बयान दर्ज किया गया। इस बात पर कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के नेताओं ने उत्तेजित स्वरों में इसे राजनीतिक प्रतिशोध का मामला बताया। हालाँकि खुद मुख्यमंत्री के बेटे ने विवाद में पढऩे से बचते हुए सिर्फ इतना ही कहा कि आप ऐसा अनुमान लगा सकते हैं।

 विदेशों में सम्पत्तियों के कथित मामले की जाँच सबसे पहले आयकर विभाग ने की थी। रणइंदर सिंह को पहले प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 6 नवंबर को बुलाया था; लेकिन उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से न आ सकने की बात कही। इससे पहले भी वह 27 अक्टूबर को पूछताछ के लिए नहीं पहुँचे थे। उन्होंने दावा किया कि उहें राष्ट्रीय राइफल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के रूप में संसदीय स्थायी समिति के साथ बैठक में हिस्सा लेना था।

अगस्त में ईडी ने अमरिंदर और उनके बेटे के खिलाफ आयकर विभाग द्वारा दायर नये दस्तावेज़ों के निरीक्षण के लिए लुधियाना की अदालत में तीन आवेदन दायर किये थे।

ईडी ने 2016 में आयकर विभाग की शिकायत पर रणइंदर सिंह के खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी, जिसमें कहा गया था कि रणिंदर ने ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स में कथित तौर पर उनके स्वामित्व वाले ट्रस्टों के बारे में झूठ बोला था।

पंजाब के मुख्यमंत्री के बेटे को बुलाने के कारण कांग्रेस का दावा था कि यह पंजाब सरकार का अपने कृषि कानून लाने का नतीजा है। यह इस साल में तीसरी बार है, जब रणइंदर सिंह को ईडी ने समन किया है। 27 अक्टूबर को वह राज्यसभा में एक बैठक और फिर 6 नवंबर को (उसी मामले में) स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए ईडी के सामने आने में विफल रहे। वह आखरी बार 21 जुलाई, 2016 को ईडी के सामने पेश हुए थे। रणइंदर सिंह ने कहा- ‘मैं एक कानून का पालन करने वाला नागरिक हूँ और ईडी के सामने आया हूँ। जब भी ईडी या किसी सरकारी एजेंसी से पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, मैं हाज़िर होने के लिए तैयार हँू। हम जाँच में अधिकारियों के साथ सहयोग करना जारी रखेंगे।’

कांग्रेस के प्रमुख नेता जहाँ ईडी के उन्हें समन भेजने के समय को देखते हुए राजनीतिक प्रतिशोध का आरोप लगा रहे हैं, वहीं रणइंदर सिंह ने कहा- ‘मैं इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। क्योंकि मामला जाँच के अधीन है। मैं इसे आपके फैसले पर छोड़ता हूँ।’ पूछताछ की लम्बी अवधि पर टिप्पणी करते हुए वकील शेरगिल ने कहा कि यह ईडी की मानक संचालन प्रक्रिया है। उसने पहले भी पाँच घंटे तक पूछताछ की थी। हम सभी सहयोग कर रहे हैं।

ईडी जाँच विदेश में अर्जित सम्पत्तियों की जाँच और धन की आवाजाही पर फोकस रख  रही है। इस मामले में पहले भी आयकर विभाग द्वारा जाँच की गयी थी। आयकर विभाग की जाँच में आरोप लगाया गया था कि परिसम्पत्तियों के पूर्ण प्रकटीकरण में विसंगतियाँ थीं। हालाँकि इस आरोप को रणइंदर सिंह ने अस्वीकार किया था।

रणइंदर सिंह को समन ईडी के उनके खिलाफ विदेश में अघोषित सम्पत्ति के कथित कब्ज़े के सम्बन्ध में विदेशी मुद्रा प्रबन्धन अधिनियम (फेमा) के तहत दर्ज एक मामले से सम्बन्धित हैं। इस मामले में एजेंसी ने उनसे 2016 में भी पूछताछ की थी और स्विटजरलैंड को धन के कथित लेन-देन, एक ट्रस्ट बनाने और ब्रिटिश वर्जिन द्वीप समूह में कुछ सहायक कम्पनियों को लेकर पूछा गया था। विदेशों में सम्पतियाँ होने के कथित मामलों की जाँच सबसे पहले आयकर विभाग ने की थी। रणिंदर सिंह ने तब किसी भी गलत काम से साफ इन्कार किया था। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और उनके बेटे रणइंदर सिंह ने दायर पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना जवाब दाखिल करते हुए अदालत के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें ईडी को उनके खिलाफ चल रहे तीन कथित कर चोरी मामलों में नये रिकॉर्ड का निरीक्षण करने की अनुमति दी थी। आयकर विभाग ने लुधियाना की अदालत में कहा कि पिता-पुत्र की जोड़ी द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाएँ खारिज की जानी चाहिए। इस मामले की सुनवाई अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अतुल कसाना की अदालत कर रही है।

अदालत ने आयकर विभाग के वकील राकेश के गुप्ता द्वारा याचिकाकर्ता (रणजीत सिंह) के माध्यम से अदालत में दाखिल जवाब पढ़ते हुए कहा कि इसलिए यह प्रार्थना की जाती है कि संशोधन याचिका को कृपया लागत के साथ खारिज करने का आदेश दिया जा सकता है। संशोधन याचिका दायर करने के लिए कोई लोकस स्टैंडी (सुने जाने का अधिकार) नहीं था और यह वर्तमान रूप में बनाये रखने योग्य नहीं है। ईडी द्वारा लुधियाना की अदालत में 14 अगस्त को पेश किये गये एक आवेदन में एजेंसी ने यह दलील दी थी कि वह कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके बेटे के खिलाफ पहले से चल रहे तीन मामलों में आयकर विभाग द्वारा दर्ज ताज़ा रिकॉर्ड और दस्तावेज़ों के निरीक्षण की अनुमति माँग रही थी। सहायक निदेशक, ईडी की ओर से दायर आवेदन में कहा गया था कि विषय-वस्तु विदेशी मुद्रा प्रबन्धन अधिनियम (फेमा), 1999 के दायरे में आती है और इसलिए एजेंसी इस मामले की जाँच के लिए अधिकृत है।

ईडी द्वारा कैप्टन अमरिंदर और उनके बेटे के आयकर रिकॉर्ड की जाँच पहले से चल रही थी। ताज़ा आवेदन में ईडी कहता है कि जाँच को तार्किक अन्त तक लाने के लिए आयकर विभाग द्वारा संलग्न दस्तावेज़ों की जाँच की जानी चाहिए।

18 सितंबर को न्यायिक मजिस्ट्रेट जसबीर सिंह की अदालत ने ईडी के आवेदन पर  कैप्टन और उनके बेटे के नये आयकर रिकॉर्ड का निरीक्षण करने के लिए जाँच एजेंसी को अनुमति दी थी। अदालत ने ईडी को 28 सितंबर को निरीक्षण करने की अनुमति दी थी। हालाँकि 25 सितंबर को अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश अतुल कसाना की अदालत ने रणइंदर सिंह द्वारा दायर संशोधित याचिका को स्वीकार करते हुए एक मामले में 18 सितंबर के आदेश के खिलाफ सीआरपीसी की धारा-397 के तहत ईडी के निरीक्षण पर स्टे दे दिया। फिर पहली अक्टूबर को इसी अदालत ने दो अन्य मामलों में ईडी के निरीक्षण पर रोक लगा दी, जिनमें एक कैप्टन और दूसरा रणइंदर के खिलाफ था। जवाब दाखिल करने के लिए आयकर विभाग और ईडी को नोटिस जारी किये गये थे।

अदालत में दायर किये गये अपने जवाब में आयकर विभाग ने निचली अदालत द्वारा ईडी के निरीक्षण को चुनौती देने वाली अमरिंदर सिंह और रणइंदर सिंह द्वारा दायर संशोधित याचिकाओं को खारिज करने की गुहार लगायी और कहा कि संशोधित याचिका वर्तमान रूप में बनाये रखने योग्य नहीं है और वर्तमान संशोधित याचिका को दायर करने के लिए याचिका में कोई लोकस स्टैंडी (वैध स्थिति) नहीं है। ईडी ने कहा कि कोई संशोधन याचिका अंत:-सम्बम्धी आदेश के खिलाफ बनाये रखने योग्य नहीं है। चुनौती के तहत आदेश एक संवादात्मक आदेश है; इसलिए यह प्रार्थना की जाती है कि संशोधन याचिका को लागतों के साथ खारिज करने का आदेश दिया जा सकता है। आयकर विभाग के वकील राकेश के गुप्ता ने कहा कि हम यह टिप्पणी नहीं कर सकते हैं कि आयकर रिकॉर्ड के निरीक्षण की अनुमति को ईडी को दी जानी चाहिए या नहीं। यह अदालत को तय करना है। हमने अपने जवाब में प्रस्तुत किया है कि अमरिंदर सिंह और रणइंदर सिंह द्वारा दायर संशोधन याचिकाओं को खारिज किया जाना चाहिए। इससे पहले 16 अक्टूबर को ईडी ने अपने जवाब में कहा था कि यह एक स्वतंत्र जाँच एजेंसी है और इस तरह उसे अमरिंदर सिंह और रणइंदर सिंह के आयकर मामलों का निरीक्षण करने का अधिकार है। ईडी ने यह भी कहा था कि याचिकाकर्ताओं को ऐसे मामलों में संशोधन याचिका दायर करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। क्योंकि उन्हें अभी तक ट्रायल कोर्ट द्वारा नहीं बुलाया गया है। रणइंदर सिंह के वकील गुरमुख सिंह ने कहा कि मामला अब 4 दिसंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया है।

इस बीच अमरिंदर और रणइंदर के खिलाफ चल रहे तीन आयकर चोरी मामले भी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट पी.एस. कालेका की ट्रायल कोर्ट में जल्द सुनवाई के लिए निर्धारित हैं। कैप्टन के खिलाफ आयकर अधिनियम की धारा-277 (सत्यापन का झूठा बयान) के तहत मामला दर्ज किया गया है; जबकि रणइंदर के खिलाफ एक मामला धारा-276 ‘सी’ (कर चोरी) के तहत और दूसरा आयकर अधिनियम की धारा-277 के तहत शिकायतकर्ता आयकर विभाग की तरफ से दर्ज है।

कब रुकेगी मूर्तियों की चोरी

चरते-डकराते मवेशियों के झुण्डों की बगल से निकलता ऊबड़-खाबड़ पथरीला रास्ता कोटा शहर के निकट तारागढ़ की पहाड़ी पर स्थित रियासतकालीन डोबरा महादेव मंदिर के उजाड़ सन्नाटे में ले जाता है। मंदिर इतना उपेक्षित और तन्हा नहीं है कि हवा में फफूँद के निशानों से भरी शहतीरें नमीं से गन्धा रही हो और किसी को अहसास भी न हो। वहाँ सब कुछ चौकस है। लेकिन मंदिर की सूरत ऐसे फ्रेम की मानिंद है, जिसमें तस्वीरें नहीं हैं। इस मंदिर से भगवान लुप्त हैं। मंदिर के 800 साल प्राचीन अधिष्ठाता देवागिदेव अपने आसन से गायब हैं। इस रियासतकालीन मंदिर से गायब हुई भगवान रघुनाथ की प्रतिमा के बारे में सूत्रों का कहना है कि सैंकड़ों मीलों का सफर करके काले पत्थर से बनी चारभुजा की यह मूर्ति किसी विदेशी राष्ट्रीय कला दीर्घा में स्थापित हो चुकी है।

मंदिर के पुजारी विवेकानंद बताते हैं कि रात्रि की आरती के बाद मंदिर के कपाट बन्द करके वह ऊपर छत पर जाकर सो गये थे। अगले सुबह 5:45 बजे जब वह प्रात:कालीन पूजा-अर्चना के लिए नीचे पहुँचे, तो हतप्रभ रह गये। मंदिर के कपाट खुले हुए थे और प्रतिमा वेदी से गायब थी। मंदिर के हालात देखकर लगता था कि मूर्ति को बड़ी बेदर्दी से उखाड़ा गया था। जल्दबाज़ी में अंजाम दी गयी वारदात के कारण मूर्ति के पंजे और पायल वहीं रह गये थे। मूर्ति चोर सम्भवत: वहाँ चप्पे-चप्पे से वािकफ थे, लिहाज़ा प्रतिमा का चाँदी का छत्र और निकट ही स्थापित लड्डू गोपाल की दो प्रतिमाएँ भी ले जाने से नहीं चूके। पुजारी ने मंदिर के महंत ओमप्रकाश बृजवासी को इत्तला दी, तो पुलिस पहुँची। इस साल की शुरुआत में हुई मूर्ति चोरी की वारदात बूँदी के जालोड़ा गाँव के महादेव मंदिर में हुई। 800 साल पुरानी यह प्रतिमा कीमती नीलम की बनी हुई थी। इसलिए समझा जा सकता है कि एंटीक के लिहाज़ से यह मूर्ति कितनी बेशकीमती हो सकती थी। यह वारदात पुलिस चौकसी के तमाम दावों की धज्जियाँ उड़ाने वाली थी। करीब तीन साल पहले राज्य पुलिस ने मंदिरों की सुरक्षा को लेकर एक खास योजना तैयार की थी। इसके मुताबिक, थानेवार मंदिरों की फेहरिस्त तैयार की गयी थी और सम्बन्धित क्षेत्र के थाना प्रभारियों को सख्त हिदायत दी गयी थी कि वे मंदिर समितियों और ट्रस्टों के साथ बैठकर पुख्ता सुरक्षा बन्दोबस्त सुनिश्चित करें। लेकिन इस मामले में खामी रह गयी। यानी पुलिस के चोरी निरोधक दस्ते सिर्फ शहरी इलाकों में सिमटकर रह गये। मूर्ति चोरों को गली मिलनी ही थी, सो उन्होंने आराम से गाँव जवार के सुदूरवर्ती मंदिरों में सेंध लगा दी।

कुछ अर्सा पहले मूर्ति तस्कर वामन नारायण घीया को घेरने में कामयाब रहे तत्कालीन पुलिस अधीक्षक आनंद श्रीवास्तव कहते हैं- ‘कला शिल्पों और प्राचीन वस्तुओं की चोरी सबसे कमाऊ अपराध है। इसने ड्रग्स के धंधे को भी मात दे दी है।’ मूर्ति चोरी की बेहिसाब घटनाओं में यथार्थ का खुला पन्ना बाँचने के बावजूद भी कि प्राचीनतम देवालय तो घने जंगलों में ही मिलेंगे। पुलिस दस्ते सिर्फ शहरी देवालयों के गिर्द ही चहलकदमी करके क्यों रह गये। इसमें कोई संदेह नहीं कि पुलिस ने सुरक्षा बंदोबस्त के मद्देनज़र मंदिर समितियों के साथ बैठकें भी कीं और सीसीटीवी कैमरे भी लगा दिये; लेकिन असल लक्ष्य तो अछूता ही रह गया। पड़ताल कहती है कि बूँदी स्थित पिडोबरा महादेव मंदिर की नीलम की बेशकीमती प्रतिमा के मामले में तो पुलिस को छोड़ कोई फाख्ता भी वहाँ नज़र नहीं आयी। तो फिर क्या कर रहे थे तत्कालीन पुलिस अधीक्षक? मूर्ति चोरियों के मामले में पुलिस अधिकारियों को कुख्यात मूर्ति तस्कर वामन नारायण घिया का इतिहास ज़रूर बाँचना चाहिए, जिसने सुरक्षा बंदोबस्त के मामले में सबसे ज़्यादा विपन्न बाराँ और बूँदी को जमकर खंगाला, जहाँ प्राचीन मूर्तियों का अथाह खजाना है। यह बात दिलचस्पी से परे नहीं है कि बाराँ के गढग़च मंदिरों की पाँत से घिया गैंग द्वारा चुरायी गयी जितनी मूर्तियाँ इंटरपोल की मदद से दो वर्षों में न्यूयार्क से बरामद हुईं, उतनी केवल 10 महीनों में अकेले बूँदी ज़िले के 13 मंदिरों में चोरी हो चुकी हैं। जून से अब तक रजलावता, रायासगर, बालाजी, छोटी पड़ाव, बालाजी, जैन मंदिर, मानपुरा, बाछोला के लक्ष्मीनाथ मंदिर, भंडेडा के रामगंज गाँव में चारभुजानाथ मंदिर, बूँदी नगर परिषद की गली स्थित चौकी के हनुमान मंदिर, बड़ा नया गाँव में कंकाली माता मंदिर, बावड़ी बासनी, मंशापूर्ण गणेश मंदिर, झज्ञलीजी का बराना जैन मंदिर में चोरी हो चुकी है। इससे पहले भी बाँसी और जयस्थल में मंदिरों से मूर्ति चोरी की वारदात हो चुकी हैं।

बाराँ ज़िले के दहीखेड़ा स्थित राज मंदिर से छ: वर्ष पूर्व चोरी हुई 1700 वर्ष पुरानी लक्ष्मीनाथ भगवान की प्रतिमा को पुलिस आज तक नहीं ढूँढ पायी है। इस मूर्ति के लिए ग्रामीणों ने एक सप्ताह तक धरना-प्रदर्शन व बाज़ार बन्द रखकर विरोध किया था। इसी तरह चन्द्रामौलिक्श्वर मंदिर, गोमटेक्श्वर मंदिर, दिगम्बर जैन, कल्पतरू नसियास, गिंदोर ठाकुर साहब, नवलखा िकला, आनंदधाम मंदिर, दिगम्बर जैन पाश्वनार्थ जूनी नसिया, सारोला जैन मंदिर से बेशकीमती प्रतिमाएँ चोरी हुई थीं, जिन्हें पुलिस नहीं तलाश सकी। राजस्थान के अटरू से दो दुर्लभ मिथुन मूर्तियाँ चुरा ली गयीं। काफी प्रयासों से करीब एक दशक बाद वे भारत लौटीं; यह पहली ऐतिहासिक उपलब्धि थी। उत्तर प्रदेश के एक गाँव से चुरायी गयी हज़ार साल पुरानी वृषासन योगिनी की मूर्ति की वापसी भी काफी चर्चा में रही थी। मूर्ति चोरी की बढ़ती वारदात के बारे में सूत्रों का कहना है कि भारतीय कलाकृतियाँ चोरी करके उन्हें अमेरिकी बाज़ार में ले मोटे दामों में बेच दिया जाता है। लेकिन सरकार उनकी वापसी के लिए कोई प्रभावी प्रयास नहीं करती।

‘बस चले तो ताजमहल भी चुरा लें!’

राजस्थान पुरातत्त्व विभाग के सूत्र तो चोरों के बढ़ते दुस्साहस के मद्देनज़र यहां तक कह चुके हैं कि इनका बस चले तो, ताजमहल भी चुरा लें। उन्होंने यह भी अंदेशा जताया था कि राज्य सरकार को पर्यटकों के रूप में आने वाले देशी-विदेशी सैलानियों की भी निगहबानी करनी चाहिए। प्रख्यात देवालयों की प्रतिमाओं की फोटोग्राफी करने वाले ऐसे पर्यटकों में मूर्ति तस्कर भी हो सकते हैं। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि कुछ अर्सा पहले अलवर से चुरायी गयी महादेव की बेशकीमती प्रतिमा अनायास ही हरियाणा पुलिस के हाथ लग गयी। दरअसल हरियाणा पुलिस जिस समय दैनिक यात्रियों और वाहनों जाँच कर रही थी, तभी प्रतिमा उसके हाथ लगी। पूछताछ में भेद खुला कि यह सब कुछ पर्यटन की आड़ में हो रहा था। प्रतिमा के जानकार सूत्र कहते हैं कि ऐतिहासिक प्रतिमाओं को खपाना कोई मुश्किल नहीं है। विदेशी सम्पर्क तो इसके लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं। सूत्रों का कहना है कि पिछले साल जुलाई में एक कुख्यात मूर्ति तस्कर जयपुर पहुँचकर यहाँ कुछ दिनों तक ठहरा भी था। उसने अपना ज़्यादातर वक्त यहाँ के प्रख्यात मंदिरों की प्रतिमाओं की फोटोग्राफी में बिताया था; लेकिन किसी को कानोंकान भनक तक नहीं हुई।

तीर्थंकरों की मूर्तियों पर नज़र

कला शिल्पों की चोरियों के मद्देनज़र जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की चोरी ज़्यादा चौंकाती है। अपने अधिष्ठाता की प्रतिमाओं की सुरक्षा के प्रति जैन समुदाय की सतर्कता अनुकरणीय ही कही जाएगी। फिर भी जैन मंदिरों पर चोरों का धावा कैसे होता है?  कहना मुश्किल है। डूंगरपुर ज़िले के सागवाड़ा नगर में कंसाड़ा चौक स्थित आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में देर रात को जाली और सरिये तोडक़र चोर प्राचीन प्रतिमाएँ और छत्र चुराकर ले गये। प्रतिमाओं की संख्या 23 बतायी जाती है। चैमू कस्बे के गोविंद गढ़ गाँव में चोर कई साल पुरानी ताँबे की भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा, चार यंत्र और कलश चुराकर ले गये। गज़ब है कि मंदिर के ताले भी नहीं टूटे और सामान के साथ भी कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। जयपुर के निकट विराटनगर में मुख्य बाज़ार स्थित दिगम्बर जैन मंदिर से चोर अष्टधातु से बनी भगवान महावीर की मूर्ति चुरा ले गये। चौंकाने वाली बात है कि चोरी की घटना सुबह करीब 9:00 बजे हुई। एक व्यक्ति मोटर साइकिल पर आया और बड़ी सहूलियत से मूर्ति उठाकर चल दिया। आखिर कोई क्यों उसे नहीं रोक पाया? सीकर के कोतवाली थाना क्षेत्र में आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का ताला तोडक़र चोर अष्टधातु की मूर्ति चुरा ले गये। मूर्तियाँ काफी प्राचीन बतायी जाती हैं।

माया : अद्रश्य कारण और द्रश्य प्रभाव

पिछले लेखों में माया से सम्बन्धित और मानव जीवन के सांसारिक पहलुओं में इसकी असम्भवता पर प्रकाश डाला गया था। इनमें कहा गया था कि 95 फीसदी जीवों में मुख्य रूप से कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन शामिल हैं और तत्त्व कार्बन में चार प्रकार के सहसंयोजक बनाने की अनूठी गुणवत्ता है; बांड, अर्थात्, एकल, दोगुनी, तिगुनी और चौगुनी, एच, ओ और एन के अन्य तीन तत्त्वों के साथ। इन तत्त्वों के बीच अंतरंगता के कारण यह आंतरिक अभिरुचि रहती है कि वे मित्रवत या अमित्र गुणों वाले अनंतनंत उत्पादों को जन्म देने के लिए लगभग अनंत संख्या में क्रमपरिवर्तन और संयोजन बनाते हैं। प्रशंसनीय उत्तर माया की गूढ़ और गूढ़ अभिव्यक्तियों में असीम और अभेद्यता में फिर से निहित है।

एक जीवित चीज़ का रहस्य इसकी जटिलता और भव्यता, इसमें जाने वाले परमाणुओं में नहीं है, बल्कि जिस तरह से उन परमाणुओं को एक साथ रखा गया है; उसमें है। यह थोड़ी पेचीदा नवीनता है कि अगर किसी को चिमटी के साथ खुद को अलग करना होता है, तो एक समय में एक परमाणु, एक ठीक परमाणु धूल का एक टीला पैदा करेगा, जिसमें से कोई भी कभी जीवित नहीं था; लेकिन सभी एक बार किसी के पास थे। जल्दी या बाद में हममें से हर एक परमाणु साँस लेते हैं, जो किसी के द्वारा पहले भी साँस ली गयी होती है, जिसे आप सोच सकते हैं कि हमसे पहले कौन जीया है- गौतम बुध, महावीर, महात्मा गाँधी या ओसामा बिन लादेन? उपनिषदों के माध्यम से सनातन धर्म सन्तों ने अपने उपदेशों में दोहराया है कि यह ब्रह्माण्ड एक ऐसा मंच था, जिसमें हमेशा एक ही कलाकार (परमाणुओं) ने अपना रोल निभाया। वे भेष और समूहों में भिन्न होते थे; लेकिन पहचान बदले बिना। और ये अभिनेता अमरता से सम्पन्न थे। शायद श्रेष्ठ चेतना के माध्यम से इस शाश्वत् रहस्योद्घाटन ने इस्साक न्यूटन को मामले की अविनाशीता के कानून को उजागर करने के लिए प्रेरित किया।

डेमोक्रिट्स नाम से एक ग्रीक, जिसे अबर्डा के हँसने वाले दार्शनिक के रूप में भी जाना जाता है; ने कहा कि ब्रह्माण्ड के पहले सिद्धांत परमाणु और खाली स्थान हैं। बाकी सब कुछ मौज़ूद है। संसार असीमित हैं। वे अस्तित्त्व में आते हैं और नष्ट हो जाते हैं। उससे कुछ भी अस्तित्त्व में नहीं आ सकता है, जो कि नहीं है, और न ही उसमें से गुज़रता है, जो नहीं है। इसके अलावा परमाणु आकार और संख्या में असीमित हैं, और वे पूरे ब्रह्माण्ड में एक भँवर में पैदा होते हैं और इस तरह सभी समग्र चीज़ें उत्पन्न करते हैं- आग, पानी, वायु, पृथ्वी। यहाँ तक कि ये दिये गये परमाणुओं के समूह हैं। और यह उनकी एकजुटता की वजह से है कि ये परमाणु अप्रभावी और अटल हैं। सूर्य और चंद्रमा ऐसे चिकने और गोलाकार द्रव्यमानों से बना है, जो कि परमाणुओं की देन है। इसी तरह आत्मा भी है; जो समान है।

अब मानव शरीर और माया के चमत्कारिक प्रभावों के बारे में चर्चा करते हैं। वास्तव में वयस्क व्यक्ति की विशिष्ट मात्रा के आधार पर कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि मानव शरीर में 15 ट्रिलियन कोशिकाएँ होती हैं। इसलिए यदि कोई मात्रा या भार उठाता है, तो एक को अलग-अलग संख्या मिलती है। मामले को बदतर बनाते हुए मानव शरीर को समान रूप से कोशिकाओं के साथ पैक नहीं किया जाता है, जैसे कैंडी सेब से भरा जार। एक अनुमान के अनुसार, मानव शरीर में प्रति सेकेंड 10 लाख कोशिकाएँ मरती हैं। इसका मतलब है कि एक दिन में लगभग 1.2 किलोग्राम कोशिकाएँ मर जाती हैं। लेकिन यह चिन्ता की कोई बात नहीं है। इसके विपरीत यह एक वास्तविक समस्या होगी, यदि मानव शरीर में कोशिकाएँ नहीं मरती हैं। कोशिका मृत्यु सेलुलर बिल्डिंग ब्लॉकों के शरीर की रीसाइक्लिंग का एक पूरी तरह से प्राकृतिक हिस्सा है और यह वास्तव में जीवन के लिए एक पूर्व शर्त है। पुरानी और टूटी हुई कोशिकाओं को निकालना होगा। कोशिकाओं के कुछ हिस्से, जो टूट गये हैं या शुरू से ही सही नहीं थे; उन्हें हटाने की आवश्यकता है।

इसलिए कोशिका मृत्यु शरीर की गुणवत्ता और स्वच्छता प्रणाली का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो पुराने और टूटे हुए टुकड़ों को दूर करती है और उन्हें नये के साथ बदल देती है। हालाँकि तब समस्या उत्पन्न होती है, जब कोशिका मृत्यु प्रक्रिया में कुछ गलत हो जाता है। कैंसर के मामले में कोशिकाएँ मरने से इन्कार करती हैं और ट्यूमर के रूप में विकसित होती हैं। अल्जाइमर या पार्किंसंस जैसी बीमारियों में इसके विपरीत होता है-  मस्तिष्क की कोशिकाएँ मर जाती हैं; भले ही वे कुछ करने के लिए नहीं हैं। आज 50 से अधिक बीमारियाँ हैं, जिनमें वैज्ञानिकों को पूरे कारण पता हैं, या इसका एक प्रमुख हिस्सा कोशिका मृत्यु में संतुलन की विफलता से सम्बन्धित है। इसने पिछले एक दशक के दौरान दुनिया में अनुसंधान के सबसे विपुल क्षेत्र के रूप में विभिन्न प्रकार की कोशिका मृत्यु में अनुसंधान किया है।

हालाँकि एक बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य यह नहीं देखा जा सकता है कि करीब 34 ट्रिलियन कोशिकाएँ दशकों तक सहयोग करती हैं। स्वार्थी रोगाणुओं के अराजक युद्ध के बजाय एक एकल मानव शरीर को जन्म देती हैं। निश्चित ही यह अद्भुत है। यहाँ तक कि बहु-कोशिकीयता के एक बुनियादी स्तर का भी विकास उल्लेखनीय है। लेकिन हमारे पूर्वज कई अलग-अलग प्रकारों से बने एक विशाल सामूहिकता को विकसित करते हुए एक साधारण स्पंज की तरह शरीर रचना से आगे बढ़ गये। एक गहरे स्तर पर उस सामूहिक को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि यह वास्तव में कितना बड़ा है?

कार्बनिक यौगिकों के चार मुख्य वर्गों जैसे कि मैक्रोमोलेक्युलस (कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, प्रोटीन और न्यूक्लिक एसिड) को लेकर कहा जाता है कि यह सभी जीवित चीज़ों के उचित कामकाज के लिए आवश्यक होते हैं, जिन्हें पॉलिमर या मैक्रोमोलेक्यूल्स कहा जाता है। ये सभी यौगिक मुख्य रूप से कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बने होते हैं; लेकिन विभिन्न अनुपातों में। इससे प्रत्येक यौगिक को अलग-अलग गुण मिलते हैं। परिचित न्यूक्लिक एसिड फॉर्म डीएनए और आरएनए हैं।

मायावी माया का एक बहुत ही आकर्षक उदाहरण इस तथ्य में निहित है कि एक ही तरह के परमाणुओं की संख्या एक ही क्रिस्टलीय रूप पैदा करती है, और एक ही क्रिस्टलीय रूप परमाणुओं की रासायनिक प्रकृति से स्वतंत्र है, और केवल उनके द्वारा  संख्या और सापेक्ष स्थिति को निर्धारित किया जाता है। इन चार मूल तत्त्वों को कैसे, क्यों और कहाँ से मिला है? इन गुणों का अब तक वैज्ञानिकों ने कोई जवाब नहीं दिया है।

प्रोटीन वह नाम है, जिसके साथ हर कोई सांसारिक मामलों में बहुत परिचित है, अमीनो एसिड से बने जटिल अणु हैं और जीवित जीवों में होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक हैं। प्रोटीन सभी जीवित जीवों में बुनियादी घटक हैं। प्रोटीन मांसपेशियों के शुष्क वज़न का लगभग 80 फीसदी, त्वचा का 70 फीसदी और रक्त का 90 फीसदी होता है। पादप कोशिकाओं का आंतरिक पदार्थ भी आंशिक रूप से प्रोटीन से बना होता है। पादप कोशिकाओं का आंतरिक पदार्थ भी आंशिक रूप से प्रोटीन से बना होता है।

प्रोटीन का महत्त्व किसी जीव या ऊतक में उनकी राशि की तुलना में उनके कार्य से अधिक सम्बन्धित है। एंजाइमो सभी के लिए एक और परिचित नाम है, जो वास्तव में प्रोटीन हैं और बहुत कम मात्रा में हो सकते हैं। फिर भी ये पदार्थ सभी चयापचय प्रतिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं। जीवों को रासायनिक पदार्थ बनाने में सक्षम बनाते हैं – अन्य प्रोटीन, न्यूक्लिक एसिड, कार्बोहाइड्रेट और लिपिड, जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। यद्यपि एमिनो एसिड में अन्य सूत्र हो सकते हैं, प्रोटीन में उन लोगों के पास सामान्य रूप से आरसीएच (एनएच 2) सीओओएच होता है, जहाँ सी कार्बन है, एच हाइड्रोजन है, एन नाइट्रोजन है, ओ ऑक्सीजन है, और आर एक समूह है; जो संरचना और संरचना में भिन्न है, जिसे साइड चेन कहा जाता है। लम्बी शृंखला बनाने के लिए अमीनो एसिड एक साथ जुड़ जाते हैं। अधिकांश आम प्रोटीनों में 100 से अधिक अमीनो एसिड होते हैं। कुछ प्रोटीन, जैसे कि हीमोग्लोबिन, एक से अधिक प्रोटीन सबयूनिट (पॉलीपेप्टाइड शृंखला) से बना होता है।

प्रोटीन कई प्रकार के अणुओं के साथ, अन्य प्रोटीन सहित, लिपिड के साथ, कार्बोहाइड्रेट के साथ और डीएनए के साथ बातचीत कर सकते हैं। जैसा कि अनुमानित औसत आकार के बैक्टीरिया में प्रति सेल लगभग दो मिलियन प्रोटीन होते हैं। सामान्य उदाहरण ई कोलाई और स्टैफिलोकोकस ऑरियस हैं। करीब 50,000 से एक मिलियन के आदेश पर छोटे बैक्टीरिया में कम अणु होते हैं। एक से तीन बिलियन के आदेश पर खमीर कोशिकाओं में लगभग 50 मिलियन प्रोटीन और मानव कोशिकाओं को शामिल करने का अनुमान लगाया गया है। मानव जीनोम द्वारा एन्कोड किये गये करीब 20,000 या तो प्रोटीनों में से केवल 6,000 विशेष कोशिकाओं में पाये गये हैं।

यूकेरियोट्स जैसे अन्य जीवों में 15,000, बैक्टीरिया में 3,200, आर्किया में 2,400 और वायरस के पास अपने सम्बन्धित जीनोम में औसतन 42 प्रोटीन होते हैं। कोशिका में प्रोटीन की सबसे प्रसिद्ध भूमिका एंजाइम के रूप में होती है, जो रासायनिक प्रतिक्रियाओं को उत्प्रेरित करती है। एंजाइम चयापचय में शामिल अधिकांश प्रतिक्रियाओं को पूरा करते हैं, साथ ही डीएनए प्रतिकृति जैसी प्रक्रियाओं में डीएनए में हेरफेर करते हैं। संरचना और कार्य में अन्तर के बावजूद, मानव शरीर में पाये जाने वाले सभी ज्ञात प्रोटीनों में एक समान मूल आणविक सूत्र ष्ट ठ्ठ॥ १.५८ ०. ०.०१५ठ्ठहृ ०.२८ ५ ०.००५ठ्ठह्र ०.३० ७ ०.००७ठ्ठस् ०.०१ २ ०.००२ठ्ठ है। प्रोटीन का सामान्य सूत्र क्रष्ट॥ (हृ॥२) ष्टह्रह्र॥ है, जहाँ ष्ट कार्बन है, ॥ हाइड्रोजन है, हृ नाइट्रोजन है, ह्र ऑक्सीजन है, और क्र एक समूह है, जो संरचना में भिन्न है, जिसे साइड चेन कहा जाता है। अब विषाणुओं का ज़िक्र करते हैं, जो कि आँख के लिए अदृश्य है; लेकिन मानवता पर एक भयावह प्रभाव होने से कोविद-19 के रूप में दुनिया भर में झटके हुए हैं; कोशिकाओं से बाहर नहीं बने हैं। एक एकल वायरस कण को एक विषाणु के रूप में जाना जाता है, और एक सुरक्षात्मक प्रोटीन शेल के भीतर बँधे जीन के एक सेट से बना होता है, जिसे कैप्सिड कहा जाता है।

वायरस पौधे, जानवर या बैक्टीरिया नहीं हैं; लेकिन वे जीवित राज्यों के सर्वोत्कृष्ट परजीवी हैं। यद्यपि वे अपनी विलक्षण प्रजनन क्षमताओं के कारण जीवित जीवों की तरह लग सकते हैं, शब्द के सख्त अर्थों में वायरस जीवित जीव नहीं हैं। एक मेजबान सेल के बिना, वायरस अपने जीवन-निर्वाह कार्यों या पुनरुत्पादन नहीं कर सकते हैं। वायरस को आमतौर पर उन जीवों द्वारा वर्गीकृत किया जाता है, जिन्हें वे जानवरों, पौधों या जीवाणुओं को संक्रमित करते हैं। चँूकि वायरस पौधे की कोशिका की दीवारों में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, वस्तुत: सभी पौधों के वायरस कीटों या अन्य जीवों द्वारा प्रसारित होते हैं, जो पौधों पर फीड करते हैं।

कवक, जो मानव शरीर को संक्रमित करने वाली एक अन्य इकाई है, आमतौर पर एक ही कोशिका से बना होता है, जैसे कि खमीर, या एकाधिक कोशिकाओं के मामले में, मशरूम के मामले में। बहु-कोशिकीय कवक के शरीर कोशिकाओं से बने होते हैं, जो एक साथ पंक्तियों में बँधते हैं, जो पेड़ों की शाखाओं से मिलते-जुलते हैं। कुछ कवक मनुष्यों में गम्भीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं, जिनमें से कई अनुपचारित होने पर घातक हो सकते हैं। इसके अलावा खून की कमियों वाले व्यक्ति विशेष रूप से कवक द्वारा विभिन्न रोगों के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं, जो आँखों, नाखूनों, बालों और विशेष रूप से त्वचा पर हमला कर सकते हैं और दाद और एथलीट फुट जैसे स्थानीय संक्रमण का कारण बन सकते हैं। फंगल बीजाणु भी विभिन्न प्रकार की एलर्जी का कारण हैं। फिर बैक्टीरिया के सन्दर्भ में आता है, मानव शरीर को संक्रमित करने और विभिन्न बीमारियों का कारण बनने वाली बहुत ही परिचित इकाई, सबसे छोटी और सरल कोशिकाएँ हैं।

उनकी रचना शायद सेल के अपरिहार्य रासायनिक शृंगार का एक बेहतर मापक है, जो एक विशेष मानव कोशिका हो सकती है। यह अनुमान लगाया गया है कि इसके लगभग 70 फीसदी खरपतवार में पानी शामिल है (जिसका अर्थ है हाइड्रोजन और ऑक्सीजन), डीएनए एक फीसदी, आरएनए छ: फीसदी, न्यूक्लियोटाइड्स 0.4 फीसदी, अमीनोकिड्स 0.4 फीसदी, कार्बोहाइड्रेट तीन फीसदी, लिपिड दो फीसदी, आयन एक फीसदी और अपशिष्ट उत्पाद 0.2 फीसदी।

अब उन अधिकांश खाद्य पदार्थों के घटकों के आने से जो मनुष्यों द्वारा प्रिय हैं, कार्बोहाइड्रेट का सबसे परिचित नाम है। यह एक प्रकार का मैक्रोमोलेक्यूल है, जो हमारे आहार का एक अनिवार्य हिस्सा बनता है। अनाज, फल और सब्ज़ियाँ सभी कार्बोहाइड्रेट के प्राकृतिक स्रोत हैं।

कार्बोहाइड्रेट शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं, विशेष रूप से ग्लूकोज के माध्यम से, एक साधारण चीनी जो स्टार्च का एक घटक है और कई प्रधान खाद्य पदार्थों में एक घटक है। मनुष्यों, जानवरों और पौधों में कार्बोहाइड्रेट के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य भी हैं। कार्बोहाइड्रेट को स्टोइकोमेट्रिक फॉर्मूला (ष्ट॥२ह्र)ठ्ठ द्वारा दर्शाया जा सकता है, जहाँ ठ्ठ अणु में कार्बन की संख्या है। दूसरे शब्दों में कार्बोहाइड्रेट के अणुओं में कार्बन से हाइड्रोजन का अनुपात 1:2:1 है। यह सूत्र कार्बोहाइड्रेट शब्द की उत्पत्ति की व्याख्या भी करता है। घटक कार्बन कार्बो और पानी के घटक हैं। इसलिए, हाइड्रेट, कार्बोहाइड्रेट को तीन उपप्रकारों में वर्गीकृत किया गया है :- मोनो-सैकराइड्स, डी-सैकराइड्स, और पॉली-सैकराइड्स। ग्लूकोज, फ्रूक्टोज और गैलेक्टोज आम मोनोसेकेराइड हैं। गैलेक्टोज दूध शर्करा में पाया जाता है और फ्रूक्टोज फल शर्करा में पाया जाता है। हालाँकि सभी में एक ही रासायनिक सूत्र (ष्ट६॥१२ह्र६) होता है, लेकिन वे संरचनात्मक और रासायनिक रूप से भिन्न होते हैं।

एक अन्य परिचित कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजन है, जो मनुष्यों और अन्य कशेरुक में ग्लूकोज का भण्डारण रूप है और ग्लूकोज के मोनोमर से बना है। ग्लाइकोजन स्टार्च के समतुल्य पशु है और यह आमतौर पर यकृत और मांसपेशियों की कोशिका में जमा होने वाला एक अत्यधिक शाखित अणु है। एक और प्रमुख कार्बोहाइड्रेट सेलूलोज, सबसे प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक बायोपॉलिमर है। पौधों की कोशिका भित्ति ज़्यादातर सेल्यूलोज से बनी होती है। यह कोशिका को संरचनात्मक सहायता प्रदान करता है। लकड़ी और कागज़ प्रकृति में ज़्यादातर सेल्यूलोसिक हैं। मानव शरीर में कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का एक और आकर्षक परस्पर सम्बन्ध, परिचित लिपिड हैं, जिनमें कार्बोहाइड्रेट जैसे अन्य अणुओं की तुलना में पानी का अनुपात बहुत कम है। लिपिड कार्बनिक यौगिकों का एक विषम समूह है, जो पानी में अघुलनशील होते हैं और गैर-ध्रुवीय कार्बनिक विलायकों में घुलनशील होते हैं। वे स्वाभाविक रूप से अधिकांश पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों में पाये जाते हैं और सेल झिल्ली के घटकों, ऊर्जा भण्डारण अणुओं, इन्सुलेशन और हार्मोन के रूप में उपयोग किये जाते हैं।

दूध सबसे आम उदाहरण है, जिसे लिपिड (लिपिड को सामान्य भाषा में कई बार वसा भी कहा जाता है, परन्तु दोनों में कुछ अन्तर होता है। लिपिड प्राकृतिक रूप से बने अणु होते हैं, जिनमें वसा, मोम, स्टेरॉल, वसा-घुलनशील विटामिन, जैसे विटामिन ए, डी, ई और के, मोनोग्लीसराइड, डाई ग्लिसराइड, फॉस्फोलिपिड और अन्य आते हैं), पर चर्चा करते समय उद्धृत किया जा सकता है। नवीनतम निष्कर्षों के अनुसार, दूध को लगभग 400 लिपिड माना जाता है, जिसमें इसके प्राकृतिक स्रोत के आधार पर कम-से-कम 16 फैटी एसिड होते हैं। मक्खन में असाधारण रूप से जटिल लिपिड और फैटी एसिड होते हैं। हालाँकि लिपिड मुख्य रूप से कार्बन और हाइड्रोजन से बने होते हैं, फिर भी कई लिपिड अणुओं में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, सल्फर और फॉस्फोरस भी हो सकते हैं। लिपिड जीवों की संरचना और कार्यों में कई और विविध प्रयोजनों की सेवा करते हैं। वे पोषक तत्त्वों का एक स्रोत हो सकते हैं, कार्बन, ऊर्जा-भण्डारण अणुओं, या झिल्ली और हार्मोन के संरचनात्मक घटकों के लिए एक भण्डारण रूप। लिपिड में रासायनिक रूप से भिन्न यौगिकों का एक व्यापक वर्ग होता है, जो पानी के अणुओं में बड़े, अघुलनशील होते हैं। फास्फोलिपिड्स कोशिका झिल्ली बनाते हैं। लिपिड पौधों, पिगमेंट (क्लोरोफिल) और स्टेरॉयड पर मोमी आवरण (छल्ली) के रूप में भी काम करते हैं। ऑक्सीजन परमाणुओं की तुलना में लिपिड में अधिक कार्बन और हाइड्रोजन परमाणु होते हैं। वसा एक ग्लिसरॉल (शराब) और तीन फैटी एसिड चेन से बना होता है। इस सबयूनिट को ट्राइग्लिसराइड कहा जाता है। फॉस्फोलिपिड्स में एक पानी-प्यार करने वाला हाइड्रोफिलिक सिर और दो पानी से डरने वाला; हाइड्रोफोबिक पूँछ हैं। न्यूक्लिक एसिड एक सेल में आनुवंशिक जानकारी ले जाते हैं। डीएनए या डी-ऑक्सीराइबोस न्यूक्लिक एसिड में एक जीवित चीज द्वारा आवश्यक प्रत्येक प्रोटीन बनाने के लिए सभी निर्देश होते हैं। आरएनए इस आनुवंशिक जानकारी को कॉपी और स्थानांतरित करता है, ताकि प्रोटीन बनाया जा सके।

चार रिंगों में व्यवस्थित 17 कार्बन परमाणुओं की आणविक संरचना की विशेषता वाले प्राकृतिक या सिंथेटिक कार्बनिक यौगिकों के एक वर्ग को स्टेरॉयड करते हैं, जो जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान और चिकित्सा में महत्त्वपूर्ण हैं और वे संलग्न समूहों की प्रकृति में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, स्थिति समूह, और स्टेरॉयड नाभिक (या गोने) का विन्यास। स्टेरॉयड के आणविक संरचनाओं में छोटे संशोधन उनकी जैविक गतिविधियों में उल्लेखनीय अन्तर पैदा कर सकते हैं। स्टेरॉयड समूह में सभी सेक्स हार्मोन, अधिवृक्क कॉर्टिकल हार्मोन, पित्त एसिड और कशेरुक के स्टेरोल शामिल हैं, साथ ही कीड़े और जानवरों और पौधों के कई अन्य शारीरिक रूप से सक्रिय पदार्थों के मॉलिंग हार्मोन शामिल हैं। चिकित्सीय मूल्य के सिंथेटिक स्टेरॉयड में बड़ी संख्या में विरोधी भडक़ाऊ एजेंट, एनाबॉलिक (विकास-उत्तेजक) एजेंट, और मौखिक गर्भ निरोधक हैं। स्टेरॉयड के अन्य प्रमुख और परिचित उदाहरणों में प्रोजेस्टेरोन (गर्भ को बढ़ावा देना), एण्ड्रोजन (मर्दाना विशेषताओं का विकास) और कार्डियो-टॉनिक स्टेरॉयड (उचित हृदय समारोह की सुविधा) शामिल हैं।

भोजन में पाया जाने वाला अधिकांश वसा ट्राइग्लिसराइड्स, कोलेस्ट्रॉल और फॉस्फोलिपिड्स के रूप में होता है। वसा-घुलनशील विटामिन (ए, डी, ई, और के) और कैरोटीनॉयड के अवशोषण को सुविधाजनक बनाने के लिए कुछ आहार वसा आवश्यक है। मनुष्यों और अन्य स्तनधारियों को कुछ आवश्यक फैटी एसिड के लिए आहार की आवश्यकता होती है, जैसे कि लिनोलिक एसिड (एक ओमेगा-6 फैटी एसिड) और अल्फा लिनोलिक एसिड (एक ओमेगा-3 फैटी एसिड); क्योंकि वे आहार में सरल अग्रदूतों से संश्लेषित नहीं कर सकते हैं। कुछ आहार नायक, जो केवल आहार के सेवन को फिर से जिगिंग के माध्यम से रोगों का प्रबन्धन करने का दावा करते हैं। मौलिक धारणा यह है कि हम सेलुलर 100 फीसदी मानव हैं। मान लीजिए कि गेहूँ और डेयरी को हटा दिया गया है, जो बच्चों या वयस्कों के लिए सबसे आम आहार है, जो कुछ बीमारी सिंड्रोम से पीडि़त हैं।

पहला विचार यह है कि भोजन से एलर्जी के लक्षण अलग-अलग होते हैं, जीर्ण दस्त या कब्ज़ आदि। इस दृष्टिकोण के साथ समस्या यह है कि शरीर 100 फीसदी मानव नहीं है। फिर से यह एक सीधा विचार है। वास्तविकता इससे कहीं अधिक परिष्कृत है। आहार के साथ मुझे जो समस्या दिखायी देती है, वह है। हमारे शरीर के सभी जीवाणु पदार्थ जीवित रहने के लिए खाद्य पदार्थों को हटाने के लिए अपनाते हैं। हम हर 25 साल में प्रिंट करते हैं। बैक्टीरिया घंटों के भीतर अनुकूलन के साथ प्रजनन कर सकते हैं।

आप देखते हैं, बैक्टीरिया में जितनी जीवित प्रवृत्ति है, उतने ही हम हैं। यह भी एक बेहतर अस्तित्त्व वृत्ति की तुलना में हम करते हैं। क्योंकि वे हमसे बहुत तेज़ी से प्रजनन कर सकते हैं। इसके शीर्ष पर आपके पास भी परजीवी हैं। यह सभी जैविक पदार्थ एक-दूसरे के बीच रासायनिक संदेश भेजकर संचार करते हैं। और इसलिए अब आप यह समझना शुरू कर सकते हैं कि आहार केवल एक सीमित प्रभाव हो सकता है। एक बार जब आप भोजन के एक हिस्से को हटा देते हैं, तो ये सभी पाँच घटक खुद को पुनर्संयोजित करते हैं। ताकि वे जीवित रह सकें और बीमारी फिर से हावी हो जाए। रोग भोजन के स्तर से अधिक गहरा है।

लोगों के दिमाग में यह विचार है कि कुछ रोगजनक हमारे प्राचीन शरीर के वातावरण में आते हैं। और ऐसे लक्षण पैदा करते हैं, जो हमें असहज बनाते हैं। और हम सभी को एक एंटीबायोटिक लेना है, जो उस एक चीज़ को मारने जा रहा है। फिर मानव शरीर फिर से 100 फीसदी मानव है। बच्चे ‘ओवर मेडिकेटेड’ हैं। जब बुखार बमुश्किल 99 डिग्री होता है, तो मैं पेरेंटिंग दवा देखता हूँ। यदि हम आँकड़ों को देखें, तो आप एंटीबायोटिक दवाओं का परिचय देखते हैं। यह सरासर झूठ है। लेकिन ऐसा ज़्यादातर लोगों के दिमाग में होता है। और इस छवि को कम करके आँका नहीं जा सकता। यह वही है, जो ज़्यादातर लोग देखते हैं। यह एक शक्तिशाली छवि है, जो हमारे मानस और अच्छे लोगों के बीच गहरा सम्बन्ध बनाती है।

वास्तव में हमें पता नहीं है कि शरीर में क्या होता है, जब हम एक एंटीबायोटिक का परिचय देते हैं। अविश्वसनीय रूप से जटिल जैविक सूप में हमारे शरीर हैं। हम तीन अरब वर्षों के विकास का परिणाम हैं। बैक्टीरिया से क्या होता है? मुँह में वायरल और फंगल मामला। आँखों और नाक में, दिल में, जिगर में, मस्तिष्क में, आँत में, प्लीहा आदि में। यह सब हमारे पास है हमारे पास कोई सुराग नहीं है। हम अपने जीवन का अहसान मानते हैं, जो हमारे अन्दर रहता है। यह हमें जीवित रखता है। हम केवल जैविक ही नहीं, विकास का एक उत्पाद हैं। लेकिन उच्च खुले चेतना प्राप्त करने के लिए परतों में निर्मित जैव-विद्युत विकास भी। रोग, मेरी विनम्र दृष्टि में उस सब का एक व्यवधान है।

परमाणु की संरचना के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत करने के बाद माया की अवधारणा पर मेरा ध्यान केंद्रित हुआ। इस लेख के माध्यम से, जो इस शृंखला में अंतिम है; मैं उपयुक्त अभिव्यक्ति खोजने के लिए काम करता हूँ; जिसमें मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकता हूँ। हालाँकि मैं खुद को एक नाविक जैसी स्थिति में अधिक पाता हूँ, जो एक दूरदराज़ के द्वीप पर फँस गया है, जहाँ स्थितियाँ किसी भी चीज़ से भिन्न होती जाती हैं, और जहाँ चीज़ों को बदतर बनाने के लिए मूल निवासी पूरी तरह से अनजान भाषा बोलते हैं। इसे छोटा करते हुए कहता हूँ- ‘माया, माया बनी हुई है; एक रहस्य।’

10 महीने में 10 घोटालों का खुलासा!

पूर्व की भाजपा सरकार ने पाँच साल तक भ्रष्टाचार को ज़ीरो टॉलरेंस बोलकर शासन किया। रघुवर दास के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार का चुनाव के समय दावा रहा कि पाँच साल में एक भी भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया। विपक्ष भी सरकार पर कोई आरोप नहीं लगा सकी। पिछले वर्ष 28 दिसंबर को सत्ता परिवर्तन हुआ।

झामुमो के नेतृत्व में कांग्रेस और राजद के सहयोग से गठबन्धन की सरकार बनी। सत्ता पलटते ही पिछले 10 महीने में पूर्व की सरकार के कई घोटाले सामने आने लगे। कुर्सी सँभालने के 10 महीने के अन्दर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 10 से अधिक मामलों में जाँच का आदेश दे चुके हैं। कई मामले भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) को जाँच के लिए दिये गये। घोटाला हुआ है या नहीं, इसका खुलासा जाँच रिपोर्ट आने के बाद ही होगा। फिलहाल सत्ता पटलते ही पूर्व की सरकार पर जाँच का साया मँडराने लगा है। इसे लेकर राज्य की राजनीतिक माहौल गरम है।

सरकार के साथ पार्टियों के तेवर सख्त

सरकार के साथ-साथ सत्ता पक्ष में शामिल पार्टियों के तेवर भी सख्त हैं। पिछले दिनों झरखण्ड में दो सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में सत्ता पक्ष ने दोनों सीटों पर कब्ज़ा जमाया। नतीजन उनका मनोबल बढ़ा हुआ है।

सरना कोड को लेकर बुलाये गये विधानसभा के विशेष सत्र में सरकार के सख्त तेवर का नज़ारा देखने के लिए भी मिला। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सदन में कहा कि कितने घोटाले किये वह सामने आ रहा है। इसलिए जनता ने विपक्ष में बैठाया है। अभी भी उप चुनाव में जनता ने साथ नहीं दिया। वहीं झामुमो व कांग्रेस के पार्टी पदाधिकारी भी भाजपा को किसी स्तर पर घेरने का मौका नहीं चूक रहा है।

भाजपा ने दी सफाई

भाजपा के वर्तमान विधायक और पार्टी पदाधिकारी अपनी पूर्व की सरकार को बचाव करने में लगे हैं। वे अब भी भ्रष्टाचार को ज़ीरो टॉलरेंस की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि पूर्व की सरकार ने राज्य में कई विकास के काम किये। सरकार को जो सही और जनहित में लगा, वह कदम उठाया। कहीं घोटाला हुआ या गड़बड़ी हुई है, तो वर्तमान सरकार जाँच कराने के लिए स्वच्छंद है।

उन्होंने कहा कि  सरकार जाँच कराये, लेकिन रिपोर्ट आने से पहले ही राजनीतिक माइलेज लेने के लिए घोटाला होने की बात न करें। रिपोर्ट आने का इंतज़ार करे।

जमकर हुई लूट, जाँच में होगा खुलासा

झामुमो महासचिव सह प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा कि हेमंत सरकार विद्वेश भावना से जाँच नहीं करा रही। कई मामले जाँच के लिए पहले से पड़े थे, तो कई में गड़बड़ी सामने आयी है। पूर्व की सरकार में जमकर लूट हुई। पूर्ववर्ती सरकार के एक-एक कामकाज की जाँच होगी। जाँच में सभी बातों का खुलासा हो जाएगा।

सरकार ने फिलहाल 10 मामलों की जाँच के आदेश दिये हैं, जो निम्न प्रकार हैं :-

  1. स्किल समिट घोटाला : पूर्व सरकार ने वर्ष 2018 और 2019 में स्किल समिट का आयोजन किया था। इन दो आयोजनों में सरकार ने विभिन्न विभागों के ज़रिये 1.33 हज़ार युवाओं को रोज़गार देने का दावा किया। इसकी जाँच एसीबी से कराने का आदेश दिया गया।
  2. छात्रवृत्ति घोटाला : अल्पसंख्यक छात्रों को छात्रवृत्ति देने के मामले में एक बड़ा घोटाला सामने आया है। फर्ज़ी छात्रों के नाम पर केंद्र से मिलने वाली राशि का गबन किया गया है। मुख्यमंत्री ने मामले की एसीबी से जाँच का आदेश दिया है।
  3. बनहरदी कोल ब्लॉक ड्रिलिंग घोटाला : बनहरदी कोल ब्लॉक ड्रिलिंग घोटाले का खुलासा मार्च, 2019 में हुआ था। एसीबी ने इस मामले में पूर्ववर्ती सरकार से जाँच की अनुमति माँगी थी, लेकिन मंज़ूरी नहीं मिली। वर्तमान सरकार ने पिछले महीने इस मामले में भी जाँच की मंज़ूरी दे दी।
  4. टॉफी और टी-शर्ट घोटाला : 15 नवंबर, 2016 में राज्य स्थापना दिवस के मौके पर बच्चों को टॉफी और टी-शर्ट बाँटी गयी थीं। एक दिन पहले यानी 14 नवंबर को पाँच लाख बच्चों को टॉफी और टी-शर्ट की आपूर्ति हुई और दूसरे दिन ही इन्हें बाँट दिया गया। लेकिन सीएजी की रिपोर्ट में इसमें भी गड़बड़ी का खुलासा हुआ। सरकार इस मामले की भी जाँच करवा रही है।
  5. कंबल घोटाला : राज्य के झारक्रफ्ट द्वारा कंबल खरीद में घोटाला का मामला पूर्ववर्ती सरकार के समय ही उजागर हुआ था। पानीपत से कंबल बनाने के लिए धागा मँगाने और बुनकरों के देने में घोटाला हुआ। तत्कालीन सरकार ने समिति बनाकर जाँच का आदेश दिया था, लेकिन मामले का पूरी तरह खुलासा नहीं हुआ। अब हेमंत सरकार इसकी जाँच करा रही है।
  6. मैनहर्ट नियुक्ति घोटाला : यह मामला 2005 का है। पिछली सरकार के मुख्यमंत्री रघुवर दास उस समय नगर विकास मंत्री थे। रांची के सिवरेज-ड्रेनेज निर्माण में कम्पनी नियुक्ति में अनियमितता का मामला सामने आया। मामले की जाँच हुई और यह बन्द भी हो गया। पूर्व मंत्री सह विधायक सरयू राय ने इस पर किताब लिखी और मामले की जाँच कराने का आग्रह किया। वर्तमान सरकार ने मैन हर्ट घोटाले की जाँच का ज़िम्मा एसीबी को दे दिया।
  1. दवा मामले की जाँच : राज्य में 2018 में 50 करोड़ की दवा खरीदी गयी। यह दवा गोदाम में ही रखे-रखे खराब हो गयी। इस दवा को बगैर ज़रूरत खरीदा गया था। इस मामले में भी हेमंत सरकार ने एसबी को जाँच करने और पीआई दाखिल करने की मंज़ूरी दी है।
  2. ज्रेडा घोटाला : झरखण्ड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (ज्रेडा) में 170 करोड़ की अनियमितता के मामले सामने आये। अधिकारियों ने शर्त पूरा नहीं करने वाली कम्पनी को काम दिया था। एसीबी ने तत्कालीन निदेशक समेत पाँच अधिकारियों के खिलाफ सरकार से जाँच की अनुमति माँगी। हेमंत सरकार ने पिछले दिनों इसकी भी अनुमति दे दी।
  3. सहकारी बैंक राशि अनियमित्ता : झरखण्ड राज्य सहकारी बैंक की रांची और सरायकेला शाखा में वित्तीय अनियमितता का मामला इस वर्ष मई में सामने आया। दोनों बैंकों में 15 करोड़ रुपये से अधिक की राशि के गबन और दुरुपयोग की बात सामने आने के बाद सरकार ने एसीबी से जाँच कराने का आदेश दिया।
  4. मोमेंटम झरखण्ड घोटाला : पूर्व सरकार ने निवेशकों को लुभाने के लिए मोमेंटम झरखण्ड का आयोजन सन् 2017 में किया था। इस मामले में 100 करोजड रुपये के घोटाले की शिकायत एसीबी के पास की गयी है। मौज़ूदा सरकार ने इस मामले को भी गम्भीरता से लिया है और इसकी भी जाँच कराने की तैयारी है।

गोरखपुर पर मेहरबान गडकरी

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि और संसदीय जनपद गोरखपुर की अब सूरत बदलने की उम्मीदें काफी बढ़ गयी हैं। इस क्षेत्र में सडक़ों के विकास की ज़िम्मेदारी केंद्रीय सडक़ परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने ले ली है। इसी महीने की 26 तारीख को केंद्रीय मंत्री गोरखपुर को 1182 करोड़ रुपये की सौगात दी। इतना ही नहीं गोरखपुर के साथ-साथ बस्ती मंडल की भी सूरत बदलने वाली है। नितिन गडकरी करीब 1075 करोड़ रुपये की सडक़ परियोजना का लोकार्पण और 107 करोड़ रुपये की परियोजना का शिलान्यास करने वाले थे, लेकिन वह वर्चुअल रूप से समारोह में शामिल हुए। इन सडक़ों समेत नवनिर्मित कालेसर-जंगल कौडिय़ा फोरलेन का लोकार्पण प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया।

17.66 किलोमीटर लम्बे गोरखपुर की बहुप्रतीक्षित योजना कालेसर-जंगल कौडिय़ा फोरलेन बाईपास को बनाने में 866 करोड़ रुपये की लागत आयी है। कोरोना प्रकोप के चलते इस बाईपास के लोकार्पण के कार्यक्रम पहले दो बार टाला जा चुका है। लेकिन अब इसका लोकार्पण किया जा चुका है। इसके लिए भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की ओर से कालेसर में भी एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसके अलावा गोरखपुर से गुज़रने वाले रामजानकी मार्ग के चौड़ीकरण एवं सुदृढ़ीकरण के कार्य का शिलान्यास भी इसी कार्यक्रम में किया गया।

सिकरीगंज और गोला के बीच करीब नौ किलोमीटर लम्बाई में होने वाले इस काम पर 37.52 करोड़ रुपये की लागत आयेगी। यह मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 227-ए के तहत आता है। इस दौरान नितिन गडकरी के वर्चुअल कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के कई मंत्री व सत्ता दल के नेता भी शामिल हुए। इससे पहले भी योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर में कई विकास परियोजनाएँ चलायी हैं।

कुशीनगर और सिद्धार्थनगर में भी विकास के लिए शिलान्यास

एनएचएआई के परियोजना निदेशक श्रीप्रकाश पाठक ने मीडिया को बताया कि गोरखपुर के अलावा कुशीनगर ज़िले में भी तमकुहीराज एवं पडरौना के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग-730 का चौड़ीकरण एवं सुदृढ़ीकरण किये जाने की योजना है, जिसका शिलान्यास भी केंद्रीय मंत्री ने किया। 19 किलोमीटर लम्बाई के इस राजमार्ग पर करीब 69.67 करोड़ रुपये की लागत आयेगी। इसके अलावा सिद्धार्थनगर ज़िले में करीब 209 करोड़ की लागत से बढऩी से कटाया चौक खण्ड तक 35 किलोमीटर लम्बे राष्ट्रीय राजमार्ग का चौड़ीकरण और इसके उन्नयन का काम पूरा हो चुका है। इस परियोजना का लोकार्पण भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया। इन विकास योजनाओं के लोकार्पण और शिलान्यास की पुष्टि ज़िलाधिकारी के. विजयेंद्र पाण्डियन पहले ही कर चुके हैं।

गोरखपुर के विकास में मुख्यमंत्री योगी के प्रयास

गडकरी के सडक़ सुधार कार्यक्रमों के एक साल पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर और सहजनवां के नागरिकों को 122 करोड़ की लागत से बनने वाली 177 विकास परियोजनाओं का ऑनलाइन शिलान्‍यास कर चुके हैं। दरअसल मुख्यमंत्री गोरखपुर के विकास में काफी समय से प्रयासरत हैं और चाहते हैं कि गोरखपुर की एक अलग पहचान बने। लेकिन उनके कार्यों में कुछ लोच तब नज़र आयी, जब उन्होंने अपने वर्चुअल कार्यक्रम में यह कहा था कि नकारात्मक सोच गोरखपुर के विकास में बाधा है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा था कि गोरखपुर के बारे में गलत धारणा से हमें बाहर निकलना है और कला, संस्कृति तथा आध्यात्म के इस महत्त्वपूर्ण केंद्र में विकास की आस को वह पूरा करेंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि प्रदेश सरकार जिस नये गोरखपुर को आकार दे रही है, उसमें हर गली विकास की रोशनी से रोशन होगी। उन्होंने शहर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से लेकर चिडिय़ाघर और खाद कारखाने की सौगात देने तक का वादा किया था। लेकिन अगर सरकार इन योजनाओं पर पूरी लगन से काम करती है, तो भी गोरखपुर वासियों को अभी ये सौगातें मिलने में शायद वक्त लगेगा।

क्या सैफई की तर्ज पर होगा गोरखपुर का विकास

कुछ लोगों का मानना है कि अपने संसदीय क्षेत्र सैफई का विकास करके मुलायम सिंह ने अपने क्षेत्र में एक चमक कायम की थी। अब योगी आदित्यनाथ भी अपने क्षेत्र गोरखपुर का विकास करके अपना चेहरा चमकाना चाहते हैं। सैफई के बारे में कहा जाता है कि यह एक गाँव है और आज विकास की ऐसी-ऐसी सुविधाएँ यहाँ हैं, जो अच्छे-अच्छे शहरों में नहीं हैं। हालाँकि सैफई को वीवीआईपी ग्राम पंचायत बनाने के पीछे सपा नेता मुलायम सिंह यादव के मित्र दर्शन सिंह का अहम योगदान माना जाता है। बताते हैं कि जब मुलायम सिंह ने सियासत में कदम रखा था, तब हर कदम पर उनका साथ देने वाले उनके मित्र दर्शन सिंह ही थे। आज सैफई में आधुनिक अस्पताल, चिकनी-चौड़ी सडक़ें और अच्छे स्तर का कॉलेज आदि सब है। सियासत के जानकारों का मानना है कि योगी आदित्यनाथ भी गोरखपुर का इसी तरह विकास करके अपने को विकास पुरुष बनाने की होड़ में लगे हुए हैं।

जो भी हो फिलहाल तो गोरखपुर के लोगों को विकास की काफी ज़रूरत है। क्योंकि पिछले साल गोरखपुर विकास प्राधिकरण (जीडीए) शहर के चारों तरफ अपनी सीमा का विस्तार करने की बात कही थी, जो अभी तक नहीं हो सका है। हो सकता है कि सडक़ों के विकास से इस परियोजना में पंख लग जाएँ। माना जा रहा था कि गोरखपुर की सीमा से लगे उसके 222 गाँव प्राधिकरण के दायरे में आ जाएँगे, जिससे उनका काफी विकास होगा। अब सडक़ों के विकास की खबर से गोरखपुर शहर के आसपास के गाँवों के लोगों में विकास की फिर एक उम्मीद जगी है। हालाँकि जीडीए ने महायोजना 2041 के निर्माण की तैयारी काफी पहले ही शुरू कर दी है; लेकिन अभी वह पूरी तरह परवान नहीं चढ़ी है। उम्मीद है कि जीडीए दो दशक तक इसे पूरा कर सके, क्योंकि जीडीए ने इस कार्य की घोषणा करते समय यह भी कहा था कि अगले 20 वर्षों में शहर के नियोजित विकास की रूपरेखा तैयार करने के साथ ही सीमा विस्तार का भी काम होगा। इस महायोजना की ही वजह से लम्बे समय से लटके 1700 एकड़ के विनियमित क्षेत्र के भी नियमित हो जाने के आसार हैं। बता दें कि तत्कालीन डीएम एवं गोरखपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रहे रवि कुमार एनजी ने पाँच साल पहले ही जीडीए का दायरा बढ़ाने को लेकर अच्छी पहल की थी; लेकिन सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के खत्म होते ही उनका तबादला हो गया, जिसके चलते यह मामला ठंडा पड़ गया था। अब मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से लोगों को इस परियोजना को पंख लगाने की उम्मीद है।

अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं गोरखपुर के गाँव

योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने हुए करीब चार साल बीत चुके हैं। गोरखपुर क्षेत्र के लोगों को भरोसा है कि मुख्यमंत्री इसी क्षेत्र के हैं और वे इस क्षेत्र और क्षेत्र के लोगों से बहुत लगाव रखते हैं, इसलिए अब इस क्षेत्र की काया पलटेगी। हालाँकि पिछले चार साल में जिस गति से गोरखपुर ज़िले और उसके गाँवों का विकास हो रहा है, उसे विकास की अच्छी रफ्तार नहीं कहा जा सकता। गोरखपुर ज़िले के कई गाँव अभी भी ऐसे हैं, जहाँ विकास तो दूर मूलभूत सुविधाओं की बेहद कमी है। कई गाँवों की कच्ची-पक्की सडक़ें अभी भी बदहाल पड़ी हैं और बिजली अभी भी 24 घंटे नहीं आती। कृषि के लिहाज़ से देखें, तो भी यहाँ की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को यह देखना होगा कि उनके इस क्षेत्र का विकास तेज़ी से हो। उनके ही क्षेत्र का क्यों? वह पूरे प्रदेश के मुखिया हैं और उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वह पूरे प्रदेश का विकास सुनिश्चित करें; ताकि उत्तर प्रदेश के लोग खुशहाल ज़िन्दगी जी सकें।

गोरखपुर पर गडकरी इतने मेहरबान क्यों

गोरखपुर में सडक़ों के सौंदर्यीकरण को लेकर भी अब वहाँ सियासत होने लगी है। कुछ सियासी लोगों और जानकारों का मानना है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ काफी समय से अपने को राष्ट्रीय नेता बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे में अपने क्षेत्र में कुछ विकास कार्य कराकर वह गोरखपुर का नाम चमकाना चाहते हैं, ताकि उन्हें विकास पुरुष का तमगा मिल सके। हालाँकि योगी आदित्यनाथ के समर्थकों का कहना है कि ऐसा नहीं है। गोरखपुर के साथ-साथ पूरे प्रदेश के विकास के लिए योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही लगे हुए हैं। यह उन्हीं के अथक प्रयासों का नतीजा है कि आज गोरखपुर में विकास की गंगा बहने लगी है। इन लोगों का कहना है कि अभी तो गोरखपुर के विकास की शुरुआत समझो, जल्द ही गोरखपुर के विकास की चर्चा देश भर में होगी।

परिद्रश्य से अद्रश्य होती शहरी खेती

हर मायने में हम एक गहरे संकट की स्थिति से घिरे हुए हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जंगल जल रहे हैं। नदियाँ सूख रही हैं। महासागरों का पानी तेज़ाब में बदल रहा है। बारिश अप्रत्याशित होती जा रही है। बढ़ते हुए शहरों में तपते हुए द्वीप बन रहे हैं। जनहित के नाम पर समुदायों को बेदखल किया जा रहा है, और हिफाज़त के नाम पर जंगली जीवन और जैव-विविधता का सत्यानाश हो रहा है। इस सबके बीच दुनिया पर हुक्म चलाते कॉरपोरेट वर्ग का धरती को तहस-नहस करने का अभियान जारी है और लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए तानाशाह उदारपंथी लोकतंत्र की सभी संस्थाओं से खिलौने की तरह खेल रहे हैं। प्रकृति और समुदाय के साथ सीधे टकराव पर टिकी हुई मौज़ूदा राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था ने हमें भोजन, ऊर्जा, घर, पर्यावरण, आर्थिकी का मिला-जुला संकट थमा दिया है, जिसके चलते लोगों में इस बात को लेकर घबराहट का होना वाजिब है कि इंसान के अस्तित्व पर खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है।

शहर इस बदलाव के केंद्र में हैं। दुनिया में शहरी आबादी तेज़ी से बढ़ रही है; लेकिन ये शहरीकरण टिकाऊ नहीं है। शहर की योजना बनाने वाले यथार्थ से अलग-थलग एक ही दिशा में सोचते हुए सिर्फ आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने की योजना बनाते हैं। आर्थिक वृद्धि मुनाफा बढऩे और कुछ लोगों के हाथों में ज़्यादा-से-ज़्यादा पूँजी इकट्ठी होने का पर्याय है। इसके लिए शासक वर्ग को ज़्यादा-से-ज़्यादा संसाधनों पर एकाधिकार चाहिए। इसलिए शहर ऊपर, नीचे, बाहर; सब तरफ बढ़ रहे हैं। सामान, ऊर्जा, और सूचना का प्रवाह अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर आज जितना नहीं कभी नहीं था। इसके चलते जो प्रक्रियाएँ लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करती हैं और जिस वृहद् तंत्र के वे हिस्सा हैं, लोगों की समझ और सामाजिक जीवन से परे हो गये हैं। ये बदलाव धन संचय की पूँजीवादी प्रक्रिया के तहत आया है और साथ ही इस बदलाव से धन संचय और तेज़ हुआ है। धन संचय की वर्तमान प्रक्रियाओं में से सबसे अहम है- वित्तीयकरण और निजीकरण; जिसके ज़रिये सामान्य जीवन के हर पक्ष पर कॉर्पोरेट को नियंत्रण मिल जाता है। हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हर हिस्सा हमारी निगरानी से इतना दूर हो गया है कि वो असलियत से अलग हो गया है। जीवन के स्वाभाविक स्वरूप और उसको सहारा देने वाली सामाजिक-पारिस्थितिक प्रक्रियाओं से दूर होते शहर और शहर के जीवन की नीरसता से घिरा इंसान पूँजीवादी आधुनिकता की जादुई बनावट में अपना बयान पा रहा है।

दुनिया की खाद्य व्यवस्था आज के समय में कॉर्पोरेट द्वारा नियंत्रित और बेहद वित्तीयकृत (सरल मायने में यथार्थ से दूर) है और चंद लोगों के दाँव खेलने से यह तय हो सकता है कि बाकी लोग भोजन पाते हैं या नहीं, और जो पाते हैं वो किन दामों पर? शहर में खाने की आपूर्ति में दूर गाँवों और दूसरे देशों में होने वाली उपज का हिस्सा बढ़ रहा है; क्योंकि शहर और उसके आसपास की ज़मीन तो रियल एस्टेट और मुनाफाखोरी के बाकी उपक्रमों में खपायी जा रही है। तरक्की के नाम पर न सिर्फ शहर का पानी, हवा और रहने की जगह आदि को दूषित किया जा रहा है, बल्कि शहर में जो खाना आता है, उसका भी पर्यावरण पर बहुत बड़ा असर पड़ता है। दिल्ली जैसे शहर में हज़ारों टन कचरा लैंडफिल (जो अब कचरे के पहाड़ में तब्दील हो चुके हैं) पर रोज़ जमा हो रहा है और शहरी पर्यावरण को हद से ज़्यादा नुकसान पहुँचा रहा है। लेकिन अगर सिर्फ आस-पास ही नज़र घुमा के देख लें, तो पता चल जाएगा कि इस प्रक्रिया की रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में कोई जगह नहीं दिखती। जैसा हम सोचते हैं और जो हम करते हैं, वो उसी तंत्र द्वारा तय हो रहा है, जिसके हिसाब से हमें अपनी ज़िन्दगी को किसी-न-किसी हद तक ढालना ही पड़ रहा है। बल्कि एक वर्ग इस तंत्र के हिसाब से सिर्फ खुद को ढालने के साथ-साथ इसको अपने फायदे के लिए मज़बूत भी कर रहा है। मसलन, शहर और आस-पास के इलाके में भू-उपयोग में बदलाव करके सरकारें उदारीकरण के एजेंट की तरह काम करती हैं और खेती-लायक ज़मीन को वैश्विक स्तर पर खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध करा देती हैं। इस नीतिगत बदलाव से पारम्परिक रूप से खेती पर निर्भर रहने वाले समुदाय में भी ज़मीन के उपयोग में रुचि घटी है और ज़मीन के दाम से मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति मज़बूत हुई है। यह सब इस बात की बानगी है कि संकट कितना गहराया हुआ है। लेकिन इससे भी बुरी बात ये है कि संकट से उबारने के जो उपाय, जैसे कि बड़े पैमाने पर सौर प्लांट या जैवडीजल के लिए खेती आदि, योजनाओं में लाये भी जा रहे हैं; उनके पीछे असल में ज़मीन को सस्ते में हड़पने और वित्तीकरण को बढ़ाने की ही दृष्टि है और इनका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि बड़े उद्योगपतियों के मुनाफे पर कोई आँच न आने पाये; भले ही संकट और भीषण हो जाए।

इस तरह के गहरे संकट के बीच ज़रूरी है कि हम सम्भावनाओं के नये आयाम बनाएँ। संकट को जड़ से हटाने के लिए शहरों को प्रकृति के साथ अपने सम्बन्ध को एक नये सिरे से संगठित करना होगा। शहर और आस-पास हर स्तर पर हो रही खेती में इस अतिशय ग्लोबल, वित्त-केंद्रित, यथार्थ से दूर होते जाते वैश्विक खाद्य तंत्र का एक बुनियादी विकल्प बनने की सम्भावना है। इससे खाद्य शृंखला छोटी रहती है और खाद्य, ऊर्जा, और कचरा के शहरी तंत्र आपस में एक-दूसरे से नज़दीकी से जुड़े रहते हैं। इस तरह न सिर्फ शहर का पर्यावरणीय दुष्प्रभाव कम होता है, बल्कि इससे लोग अपने जीवन और अपने भोजन पर नियंत्रण वापस ला पाते हैं। भोजन किस तरह से उगाया जा रहा है? उसमें पोषक तत्त्व कितने हैं? यह जाँचकर और भोजन और स्थानीय पर्यावरण से ज़हरीले रसायन को हटाकर शहरी आबादी अपने भोजन की सुरक्षा और गुणवत्ता पर अपना सीधा अधिकार जमा सकती है। फसल में ज़हरीले तत्त्वों को कम करने से भोजन का प्रदूषण और खेत से पेट तक की दूरी के घटने से पर्यावरण का प्रदूषण कम किया जा सकता है, जिसका नागरिक स्वास्थ्य के लिहाज़ से बड़ा महत्त्व है। इसके अलावा शहरी खेती करने वालों के लिए राशन के खर्च के कम होने से उनकी प्रभावी आमदनी बढ़ जाती है। इसलिए अगर ऐसे प्रयासों का नगर पालिका और शहर क्षेत्र के स्तर पर समन्वय किया जाए, तो शहरी क्षेत्र अपने भोजन, जल, ज़मीन, ऊर्जा, रोज़गार और ज्ञान को लेकर अधिक आत्मनिर्भर हो सकेगा। शहरों में मोहल्ला स्तर पर इसके बहुत-से छिपे हुए प्रभाव हो सकते हैं। अगर क्षेत्रीय स्तर पर सामुदायिक खेती की जाए और उसके उत्पादों (और लोगों के घरों में उगाये हुए उत्पादों) को वितरित करने के लिए स्थानीय बाज़ार लगाया जाए, तो लोगों के बीच आपस में सम्बन्ध और शहरी सामुदायिकता की भावना बढ़ेगी। शहरी खेती शहर के तनावग्रस्त माहौल से पार पाने और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने में मदद कर सकती है और शहर भर की सेहत में योगदान कर सकती है।

यहाँ स्पष्ट करते चलें कि शहरी खेती से हमारा मतलब काफी व्यापक परिवेशों में प्रयोग की जा रही विविध पद्धतियों से है, जो अपने उद्देश्य, प्रक्रियाओं और फीडबैक चक्र के मामले में काफी अलहदा हो सकती हैं। इसमें शहरों और आस-पास खेतों में, घरों की छतों पर और आँगन/उद्यान वगैरह में की जा रही खेती के साथ-साथ मुर्गीपालन, डेयरी, पशुधन, रेशम, जल खेती (नदी, तालाब या अन्य जल निकायों में पौधे और जन्तुओं का उत्पादन) सहित आजीविका के अन्य स्वरूप शामिल हैं। शहरी कृषि के पारिस्थितिकी तंत्र में न केवल खेती के विभिन्न प्रकार शामिल हैं, बल्कि कचरे का पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) और मिट्टी की देखभाल के लिए कचरे से बनी खाद का इस्तेमाल भी शामिल है। इसके अलावा शहर के जल संसाधनों, चरागाह और अन्य सामूहिक संसाधनों का टिकाऊ उपयोग, माल परिवहन तंत्र, खेत में अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग भी शहरी खेती के मुद्दे हैं। इसी तरह भूमि सम्बन्धों और संसाधन आवंटन में इंसाफ और उस पर इतिहासपरक दृष्टि शहरी खेती की चर्चा का केंद्रीय मुद्दा है।

शहरी खेती की अर्थ-व्यवस्था के आकार और कुल पैदावार के बारे में ठोस जानकारी का अभाव है। लेकिन उपलब्ध शोध के अनुसार, अनुमान लगाएँ तो शहर में खेती की ज़मीन और खेती की उपज से शहर की खाद्य आपूर्ति- दोनों का मौज़ूद आकार भी काफी महत्त्वपूर्ण है। फिर भी शहरीकरण की मौज़ूदा प्रक्रियाओं के बीच घिरा होने से शहरी किसान और खेतिहर समुदाय अदृश्य और भयभीत है। कुछ नये शोध कार्यों से हाल ही में ये बात पुष्ट हुई है कि शहरीकरण के मौज़ूदा वैश्विक स्वरूप और शहरी खेती की स्थानीय प्रथाओं के बीच का सैद्धांतिक सम्बन्ध एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आदि के सभी गरीब देशों में लगभग एक जैसा है; जिसकी अभिव्यक्ति भूमि अधिकार की गैर-मौज़ूदगी, खेती का अवैध घोषित होना, आवास और अन्य बुनियादी अधिकारों की नज़रंदाज़ी और वित्त-केंद्रित शहरीकरण द्वारा किसान की आजीविका निगले जाने के रूप में होती है। एक विश्वव्यापी अनुमान के अनुसार, लगभग 20-30 फीसदी शहरी निवासी कृषि-खाद्य क्षेत्र में पहले से ही शामिल हैं। उतना ही दिलचस्प तथ्य यह है कि महिलाएँ वैश्विक शहरी कृषि समुदाय का लगभग दो-तिहाई हिस्सा हैं, और अधिकांश भौगोलिक क्षेत्रों में शहरी किसान ज़्यादातर महिलाएँ हैं। साथ ही यह खाद्य सुरक्षा का सबसे सस्ता स्रोत है और शहरी गरीबों के लिए गरिमापूर्ण और सार्थक आजीविका के कुछ चुनिन्दा विकल्पों में से एक है। कई जगहों पर शहरी कृषि ने खेत से पेट तक भोजन की दूरी और कोल्ड स्टोरेज में ऊर्जा के उपयोग को कम करके शहरी ग्रीनहाउस उत्सर्जन को कम करने की क्षमता दिखायी है। यही नहीं, छत पर खेती का एक फायदा यह भी दिखा है कि इमारतों में एयर कंडीशनिंग की आवश्यकता कम हुई है और इस तरह से हीट आइलैंड प्रभाव पर कुछ काबू पाया गया है। शोध में ये भी पता चला है कि भारत में छत पर खेती अन्य प्रकार के शहरी भूमि उपयोग की तुलना में उच्च जैव विविधता दिखा सकती है। इस तरह के स्पष्ट लाभ के कारण इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दुनिया भर के शहर अपनी योजनाओं में शहरी खेती को शामिल कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, जापान में टोक्यो की शहर में इमारतों की छत के 20 फीसदी से अधिक (और बड़ी इमारतों की छत के 30 फीसदी से अधिक) हिस्से पर पेड़-पौधे उगाना अनिवार्य है। यह भी गौरतलब है कि एशिया के उत्तर-पूर्वी इलाके के शहरों (उदाहरण के लिए, हनोई) और अफ्रीका के शहरों (उदाहरण के लिए, नैरोबी और कंपाला) ने शहरी कृषि की नीतियाँ सफलता से  विकसित की हैं। पेट्रोलियम आपूर्ति निरस्त होने और सोवियत संघ के कमज़ोर होकर विघटित हो जाने के बाद बदलते अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक रिश्तों से क्यूबा पर घोर खाद्य संकट आ गया था; जिसके जवाब में वहाँ नागरिकों में सरकार की मदद से शहरी खेती पर केंद्रित खाद्य सुरक्षा को कायम किया। दुर्भाग्य है कि गरीब देशों के लोगों और सरकारों के इन प्रयासों की हमारे नीतिकारों ने न कोई समीक्षा की, न ही योजना बनाने वालों का इस तरफ ध्यान गया।

दु:खद यह भी है कि व्यवस्थागत समर्थन के अभाव में और शहरी नीति निर्माताओं की अनिच्छा के कारण, शहरी कृषि आज अवैध है और यह ऐसी प्रवृत्ति है, जो वैश्विक दक्षिण के सभी शहरों में व्याप्त है। शहरी खेती के ये क्षेत्र, चाहे वह शहरी गाँवों के खेतों में हों या छत / आँगन के बगीचों में; ये सभी एक नुकसानदेह शहरीकरण के रेगिस्तान के बीच नखलिस्तान सरीखे हैं, जहाँ शहरी जीवन प्रकृति के साथ नज़दीक के सम्बन्धों से बँधा और गढ़ा हुआ है। अब समय आ गया है कि शहरी खेती का समुदाय का एक बड़े पैमाने पर संगठित हो और साथ मिलकर हमारे बंजर होते शहरों में इस नखलिस्तान के फैलाव के तरीके तलाश करे।

(लेखक शहरी सामाजिक योजना के विशेषज्ञ हैं और जन-संसाधन केंद्र, दिल्ली से जुड़े हैं।)