बाबा आमटे की पोती शीतल आमटे ने की आत्महत्या
चौराहे पर कांग्रेस!
कपिल सिब्बल के ट्वीट पर कांग्रेस सांसद कार्ति पी. चिदंबरम ने री-ट्वीट करते हुए लिखा कि पार्टी को आत्मनिरीक्षण, चिन्तन और विस्तृत विचार-विमर्श की ज़रूरत है। बिहार विधानसभा चुनाव में अपने सहयोगियों में सबसे कमज़ोर प्रदर्शन का तमगा कांग्रेस पर ही लगा है। मामला सिर्फ पार्टी में ही उठापटक या बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के उस बयान से पार्टी की और किरकिरी हुई, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को एक ड्रैग पार्टी कहा। उन्होंने कहा कि बिहार में कांग्रेस ने 70 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन 70 बड़ी रैलियाँ तक नहीं कीं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि जब चुनाव प्रचार चरम पर था, तब राहुल गाँधी शिमला हिल स्टेशन पर प्रियंका जी के घर पर पिकनिक मना रहे थे। क्या पार्टी ऐसे ही चलती है?
कांग्रेस की आलोचना बिहार में सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी की है। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन न हो पाने से महागठबन्धन बिहार में सरकार बनाने में विफल रहा। सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने उम्मीद जतायी है कि अब अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे से गठबन्धन के साथ कांग्रेस पार्टी सीट साझा करने में अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनायेगी। इसकी वजह यह भी है कि पश्चिम बंगाल में भगवा पार्टी किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने की जुगत में है। भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में कहा कि पार्टी को पश्चिम बंगाल में सीपीएम-कांग्रेस गठबन्धन में ड्राइवर की सीट पर नहीं होना चाहिए।
विदित हो कि पार्टी में अंतर्कलह को देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी तीन समितियों का गठन कर चुकी हैं। खास बात यह है कि इन समितियों में पत्र लिखने वाले असंतुष्टों को भी जगह दी गयी है। इन समितियों के गठन को पार्टी में मचे घमासान के मसले को शान्त किये जाने के तौर पर देखा गया था; लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा।
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कपिल सिब्बल ने कहा कि पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए उसमें व्यापक बदलाव करने होंगे, तो कुछ नेताओं ने उनका विरोध शुरू कर दिया। हालाँकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वह कांग्रेसी हैं और हमेशा कांग्रेसी रहेंगे। उन्होंने उम्मीद जतायी कि देश में लोगों को विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ कांग्रेस फिर से मज़बूती के साथ राष्ट्र निर्माण में अपने मूल्यों के साथ खड़ी होगी। उन्होंने कहा कि सियासी समझ रखने वाले ऐसे अनुभवी लोगों को साथ लेकर उनसे चर्चा करनी होगी, जो देश की राजनीतिक वास्तविकताओं को समझते हैं। ऐसे लोगों को आगे रखना होगा, जो मीडिया में तत्कालीन स्थितियाँ स्पष्ट कर सकें और लोग कब व क्या सुनना चाहते हैं, यह समझ सकें। हमें गठबन्धन के साथ-साथ लोगों के बीच पहुँचने की ज़रूरत है। अब हम लोगों से अपने पास आने की उम्मीद नहीं कर सकते। अभी हम पहले की तरह मज़बूत नहीं हैं। इसलिए सब ठीक हो जाएगा, कहकर मामले को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
सिब्बल के इस सार्वजनिक बयान पर लोकसभा में कांग्रेस के नेता और सीडब्ल्यूसी के सदस्य अधीर रंजन चौधरी ने नाराज़गी ज़ाहिर की है। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि जो पार्टी नेतृत्व से नाखुश हैं, वे पार्टी छोडऩे के लिए स्वतंत्र हैं। उन्होंने आश्चर्य जताते हुए पूछा कि बिहार चुनाव के दौरान सिब्बल ने पार्टी के लिए प्रचार क्यों नहीं किया? चौधरी ने कहा कि पार्टी के लिए कुछ भी किये बिना बोलने का मतलब आत्मनिरीक्षण नहीं है। वहीं सिब्बल के बयान का चिदंबरम ने समर्थन किया था।
आज़ादी के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी इस समय बाहरी और अंदरूनी सियासत के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है।
हालाँकि कांग्रेस बिल्कुल चुप नहीं बैठी है, लेकिन उसके सरकार पर प्रहार अपर्याप्त हैं। पार्टी कहती रही है कि संविधान के मूल और मूल्यों पर निरंतर हमले किये जा रहे हैं। लेकिन उसे समझना होगा कि भाजपा और उसके सहयोगियों का साम्प्रदायिक और विभाजनकारी एजेंडा राजनीतिक आख्यानों पर हावी हो रहा है। यह महात्मा गाँधी और गणतंत्र देश के संस्थापकों व अन्य के बीच विचारों का संघर्ष है। भय और असुरक्षा के माहौल ने देश को उलझा दिया है। ऐसे में कांग्रेस का कर्तव्य है कि वह इस चुनौती का डटकर मुकाबला करे। कांग्रेस को लोगों को आश्वस्त करना होगा कि वही उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगी और उनको सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी। ऐसा कांग्रेस को पुनर्जीवित करके ही किया जा सकता है। इसके लिए प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शक्तियों को एकजुट करना होगा। इस समय देश एक गम्भीर सामाजिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, किसान संकट और आर्थिक मंदी ने बड़ी आबादी को हाशिये पर पहुँचा दिया है। कोरोना महामारी ने इन चुनौतियों को और बढ़ाया है। इससे लाखों श्रमिकों की नौकरियाँ चली गयी हैं; काम-धंधा ठप हो गया और कई उद्योग बंद हो चुके हैं। इस आर्थिक संकट के तत्काल निवारण की आवश्यकता है। कांग्रेस को इन मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाकर व्यापक पहल करनी होगी।
पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ सीमा पर सैन्य गतिरोध भी गम्भीर चिन्ता का विषय है। भारत की विदेश नीति की हालत, पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों का तनाव जो हमेशा मैत्रीपूर्ण रहा है, वह अब गम्भीर हो गया है। इसमें सुधार की व्यापक ज़रूरत है।
2014 और 2019 में आम चुनाव के अलावा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर हुई है। इसके कारणों की पड़ताल करके तत्काल उनमें सुधार की आवश्यकता है। अन्यथा कांग्रेस इस कदर पतन की ओर चली जाएगी कि उसे दोबारा उबरना मुश्किल हो जाएगा। अपने आधारभूत वोट बैंक का खिसकना और युवाओं का पार्टी पर से विश्वास उठना उसके लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। पिछले दो आम चुनावों में भारत में 18.7 करोड़ वोटर ने पहली बार मतदान किया। 2014 में 10.15 करोड़ और 2019 में 8.55 करोड़ युवा मतदाता जुड़े। युवाओं ने मोदी और भाजपा के लिए भारी मतदान किया। भाजपा का वोट शेयर 2009 में 7.84 करोड़ से बढक़र 2014 में 17.6 करोड़ और 2019 में 22.9 करोड़ हो गया। इसके विपरीत कांग्रेस ने जहाँ 2009 में 1.23 करोड़ वोटर गँवाये। हालाँकि बाद में स्थिति में मामूली सुधार हुआ। लेकिन 2019 के चुनावी फैसले के करीब सवा साल बाद भी कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में निरंतर गिरावट के कारणों का ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण नहीं किया है।
कई राज्यों में पार्टी छोडऩे वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ समर्थकों में कमी देखी गयी है। सीडब्ल्यूसी प्रभावी रूप से भाजपा सरकार के विभाजनकारी एजेंडे और जनविरोधी नीति के खिलाफ जनमत जुटाने में सही मार्गदर्शन नहीं कर पा रही है। अब जो बैठकें भी होती हैं, वो अंतर्कलह में उलझी होती हैं, जिससे राष्ट्रीय एजेंडा और देश के अहम मुद्दे दब जाते हैं।
सीपीपी के नेताओं की बैठक के वर्षों में सीपीपी नेता और प्रचलित होने वाले संबोधनों को कम कर दिया गया है। मुद्दों पर होने वाली चर्चा भी कुछ समय से बन्द कर दी गयी है। पिछले कई वर्षों में यह भी देखा है कि पीसीसी अध्यक्षों और पदाधिकारियों और डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्तियों में देरी हो रही है। राज्य में सम्मान और स्वीकार्यता की कमान सँभालने वाले नेताओं को समय पर नियुक्त नहीं किया जाता है। पीसीसी और ज़िला स्तरीय समितियाँ, राज्य की जनसांख्यिकी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। पीसीसी को कार्यात्मक स्वायत्तता नहीं दी जाती है। नेतृत्व के विफल होने पर जवाबदेही भी तय नहीं होती।
युवा और छात्र
कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से नेतृत्व को तवज्जो दी है और इसमें बड़ी संख्या में युवाओं को प्रोत्साहित किया है। युवा नेता एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के माध्यम से आगे बढ़े। इन नेताओं में वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता थी। वरिष्ठों के अनुभव और युवाओं की ऊर्जा के मिश्रण ने कांग्रेस को मज़बूत और जीवंत बनाये रखा। लेकिन हाल के वर्षों में योग्यता आधारित और सर्वसम्मति समर्थित चयन की संस्थागत प्रक्रिया बाधित हुई है। कैडर फीडिंग संगठनों एनएसयूआई और आईवाईसी में चुनाव की शुरुआत ने संघर्ष और विभाजन पैदा किया है। संसाधन सम्पन्न व्यक्तियों या शक्तिशाली संरक्षकों द्वारा समर्थित लोगों ने इन संगठनों पर कब्ज़ा कर लिया। इसने युवा नेताओं की एक साधारण पृष्ठभूमि से उनकी सेवाएँ पार्टी को नहीं मिल सकीं, जिससे ऊपरी संगठन कमज़ोर हुआ है।
कांग्रेस पार्टी परम्परागत तरीके से राज्यों और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में प्रदर्शन नहीं कर सकी। एआईसीसी के साथ-साथ पीसीसी सत्रों में कोई नियमित विचार-विमर्श नहीं होता है, जो विभिन्न राष्ट्रों के सामाजिक सरोकारों को सम्बोधित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़े होते हैं। पार्टी को पुनर्जीवित करने और लाखों कार्यकर्ताओं की भावनाओं को देखते हुए अहम सुझाव पेश हैं-
पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व आईसीसी और पीसीसी मुख्यालय में उपलब्ध हो, जिसका असर हर क्षेत्र में नज़र आये।
पीसीसी और ज़िला समितियाँ समावेशी प्रतिनिधित्व वाली होनी चाहिए। पीसीसी को संस्थागत जवाबदेही के लिए स्वायत्तता दी जाए।
देश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान से विभाग और प्रकोष्ठों के डीसीसी अध्यक्षों या पदाधिकारियों को नियुक्त करने की प्रथा बन्द की जानी चाहिए। पीसीसी अध्यक्षों और राज्य के प्रभारी के साथ समन्वय के ज़रिये डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्ति की जानी चाहिए।
केंद्रीय संसदीय बोर्ड (सीपीबी) को संगठनात्मक मामलों, नीतियों और कार्यक्रमों पर सामूहिक सोच और निर्णय लेने को समिति गठित करे।
एक राष्ट्रव्यापी सदस्यता अभियान शुरू किया जाना चाहिए और नामांकन अभियान प्राथमिकता के आधार पर शुरू हो।
ब्लॉक, पीसीसी प्रतिनिधियों और एआईसीसी सदस्यों के चुनाव पारदर्शी तरीके से कराये जाएँ।
सीडब्ल्यूसी सदस्यों का चुनाव कांग्रेस पार्टी के संविधान के अनुसार हो।
केंद्रीय चुनाव समिति (सीईसी) को संगठनात्मक पृष्ठभूमि और सक्रिय क्षेत्र के जानकारों और अनुभवी नेताओं को शामिल किया जाए।
संसद और विधानसभा उम्मीदवारों के लिए स्क्रीनिंग कमेटी में संगठनात्मक और चुनावी अनुभव वालों को मौका मिले।
स्वतंत्र चुनाव प्राधिकरण हो, जिससे स्वतंत्र, निष्पक्ष व लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाए। इसमें वरिष्ठ नेताओं के अनुभव का इस्तेमाल करें।
इसके अलावा वर्तमान चुनौती को लड़ाई में नेतृत्व करने के अवसर में बदलने के लिए कांग्रेस को तैयार रहना चाहिए। फिर से युवाओं, महिलाओं, छात्रों, किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों और कारखाने के श्रमिकों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होने का समय आ गया है। कांग्रेस को भाजपा के एजेंडे का सामना करने और उसे हराने के लिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के राष्ट्रीय गठबन्धन बनाने की पहल करनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दलों के एक मंच के नेताओं को लाने का ईमानदार प्रयास किया जाना चाहिए। अभूतपूर्व चुनौतियों के मद्देनज़र कांग्रेस का पुनरुद्धार देश के लिए ज़रूरी है।
हालिया चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन ने एक बार फिर कांग्रेस के कामकाज पर सवालिया निशान खड़े किये हैं। पार्टी के भीतर एक लोकतांत्रिक परिवर्तन की माँग बढ़ गयी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है और पार्टी के पास नेतृत्व के बारे में ठोस निर्णय लेने का उचित समय है। कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर विकल्प यही है कि बहुत ज़्यादा देर हो जाए उससे पहले नेतृत्व की कमान गाँधी या गैर-गाँधी के बीच चयन कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि कांग्रेस को उम्मीद है कि कांग्रेस ने हर संकट के बाद उबरने की क्षमता रखती है और पहले भी ऐसे हालात का सामना बखूबी किया है। महज़ फिलहाल इस ऐतिहासिक पार्टी का मकसद खुद को विकल्प के रूप में पेश करना ही नहीं, बल्कि पुनर्जीवित करना होना चाहिए।
पार्टी में तत्काल चुनाव हों : आज़ाद
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा है कि पार्टी को पाँच सितारा संस्कृति छोडऩी होगी; इससे चुनाव नहीं जीते जाते। पार्टी में मज़बूती के लिए ब्लॉक, ज़िला और राज्य स्तर की समितियों के पुनर्गठन के लिए तत्काल चुनाव कराये जाने चाहिए। पदाधिकारियों को भी समझना होगा कि नियुक्ति के साथ ही उनकी ज़िम्मेदारी शुरू हो जाती है। आज़ाद ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को पत्र लिखने वाले पार्टी के विद्रोही नहीं, बल्कि सुधारवादी हैं; जो पार्टी की बेहतरी के लिए बोल रहे हैं। हम कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ नहीं हैं। बल्कि हम सुधारों का प्रस्ताव देकर नेतृत्व को मज़बूत कर रहे हैं। आज़ाद ने कहा कि पार्टी को सबसे बड़ा खतरा चापलूसों से है। बहुत-से पदाधिकारी अपना पद बचाने के लिए शीर्ष नेतृत्व की हाँ-में-हाँ मिलाते हैं। इनको लगता है कि हर हाल में पार्टी जीतेगी; जबकि ऐसा नहीं है। जो पार्टी का असली शुभचिन्तक होगा, वह हमेशा सच बतायेगा और उसकी भलाई के लिए सुधार की दिशा में काम करेगा।
नेतृत्व का संकट नहीं : सलमान
पार्टी में मचे घमासान के बीच वरिष्ठ पार्टी नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि कुछ नेताओं की ओर से पार्टी के शीर्ष नेताओं की आलोचना से सहमत नहीं हैं। खुर्शीद ने कहा कि पार्टी में नेतृत्व का संकट नहीं है और सभी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के समर्थन में हैं। हर व्यक्ति इसे देख सकता है; सिवाय उसके, जो देख नहीं सकता।
पार्टी का दारोमदार किसके कन्धे
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब ‘अ प्रॉमिस्ड लैंड’ में जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के लिए लिखी एक असहज टिप्पणी की बात सामने आयी तो, भाजपा खेमे के सोशल मीडिया की तरफ से राहुल का खूब मज़ाक उड़ाया गया कि अब तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी खिल्ली उडऩे लगी है। तब किसी ने किताब के इस चैप्टर के अगले ही पैरा के बारे में न बोला, न ही लिखा; जिसमें भाजपा के बाँटने वाले राष्ट्रवाद को लेकर भी कड़ी टिप्पणी की गयी है। क्यों राहुल गाँधी ही आलोचना के घेरे में आते हैं और भाजपा नहीं? इस एकतरफा राजनीति को दुनिया में बहुत-से जानकार भारत के लिए विध्वंस की तरह देखने लगे हैं, जिसमें देश के असली मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है। क्या राहुल गाँधी सचमुच इतने निरीह और अज्ञानी नेता हैं कि उन्हें किसी चीज़ की समझ ही नहीं? कांग्रेस इस पर बँटी हुई है। कांग्रेस में कुछ नेता राहुल गाँधी को भाजपा की दृष्टि से देखने लगे हैं और उन्हें लगता है कि राहुल कांग्रेस को पुनर्जीवित नहीं कर सकते। बाकी वो हैं, जो उन्हें शुद्ध कांग्रेसी की नज़र से देखते हैं और उन्हें लगता है कि राहुल को भाजपा ने एक सतत और सोची-समझी साज़िश के तहत बदनाम किया है। हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि भाजपा इस साज़िश में सफल हुई है; लेकिन यह स्थिति बहुत देर तक नहीं रहेगी। अब बिहार चुनाव के निराशाजनक दौर के बाद कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर फिर कुछ वरिष्ठों की ज़ुबाँ तल्ख हुई है। ज़ाहिर है कांग्रेस एक ऐसी विकट स्थिति में है, जिससे बाहर निकलने के लिए उसे कोई आउट ऑफ बॉक्स उपाय खोजना होगा।
बराक ओबामा की किताब की एक टिप्पणी भारत की राजनीति के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक बहुत बड़ी बात कही है कि आज का जो भारत असमानता और हिंसा से ग्रस्त है, यह भारत गाँधी के समाज की कल्पना से मेल नहीं खाता। ओबामा किताब में भाजपा के बिखराव वाले राष्ट्रवाद के उदय के बारे में जब चिन्ता जताते हुए लिखते हैं, तो राहुल को लेकर कहते हैं कि उन्हें उनकी माँ (सोनिया गाँधी) द्वारा तय की गयी नियति को पूरा करने के लिए क्या सफलतापूर्वक मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में रोपित किया जा सकेगा? ज़ाहिर है इसे इस नज़रिये से भी देखा जा सकता है कि क्या राहुल गाँधी भाजपा की इस बिखराब वाली राजनीति का मुकाबला कर पाएँगे?
यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि राहुल को लेकर ओबामा के एक नर्वस नेता वाले यह विचार करीब पाँच साल पहले की स्थिति पर आधारित हैं और निश्चित ही उसके बाद देश के राजनीतिक माहौल, राहुल गाँधी की सक्रियता और मोदी की प्रसिद्धि में काफी बदलाव आया है। यदि ज़मीनी हकीकत देखें, तो सच यह भी है कि भाजपा की बिखराव वाली नीतियों की जैसी निन्दा राहुल गाँधी ने हाल के महीनों में की है, वैसी ममता बनर्जी को छोडक़र विपक्ष में किसी ने नहीं की। खुद कांग्रेस के भीतर किसी ने राहुल गाँधी जैसा विरोध भाजपा का नहीं किया। प्रधानमंत्री मोदी की छवि भी पहले से काफी धूमिल हुई है।
सच यह भी है कि राहुल गाँधी और ममता बनर्जी के विरोध में तेवर का बहुत अन्तर रहता है। ममता निश्चित ही अपनी बात कहने में मुखर दिखती हैं और राहुल गाँधी को यही तेवर अपनाना पड़ेगा। ऐसी मौके भी आये, जब कांग्रेस के भीतर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने वाला विधेयक संसद में आने के बाद पार्टी के कई नेता रक्षात्मक दिखे और उन्होंने नरम लाइन पर चलना बेहतर समझा। कांग्रेस के भीतर दोहरी सोच का कारण यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने भाजपा की जिस कूटनीति को देश के सामने पेश किया है, वह सीधे हिन्दुत्व के एजेंडे की राजनीति है। भाजपा ने खुले रूप से हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई खोदने वाली राजनीतिक राह पकड़ ली है। लव जिहाद जैसे मुद्दों के साथ भाजपा अपने एजेंडे पर खुलकर चल रही है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए ऐसे में रास्ता आसान नहीं रह गया है। कार्ल माक्र्स ने लिखा था- ‘मुद्दों और अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना है, तो उसे धर्म की अफीम खिला दो।’ कुछ ऐसा ही भारत में हो रहा है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस, राहुल गाँधी और विपक्ष की राह कठिन हो जाती है। कांग्रेस के भीतर नेताओं को यह समझना होगा कि यह राजनीतिक स्थिति असाधारण है। इसका मुकाबला जनता को गहरे से प्रभावित करने वाले मुद्दों से ही किया जा सकता है। जनता को इन मुद्दों की अहमियत भाजपा के मुद्दे से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बतानी पड़ेगी। और यह काम कांग्रेस समेत दूसरे सभी विपक्षी दलों को भी करना होगा।
कांग्रेस के भीतर आजकल बीच की लकीर (धर्मनिरपेक्ष) पर चलने को लेकर इसलिए भी भय रहने लगा है, क्योंकि उसकी अपनी ही पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश की जनता के भीतर यह बात पैठ रही है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी बनकर रह गयी है या मुस्लिमों के प्रति उसका रुझान ज़्यादा है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस के पास मुस्लिमों का समर्थन 30 फीसदी भी नहीं रह गया है। हाल के चुनाव नतीजों से यह साफ ज़ाहिर हो जाता है। नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के लिए आरएसएस ने हिन्दुत्व की जो नयी परिभाषा अब गढ़ी है, उसमें उसका नेता अब चाहे मोदी, शाह या योगी में कोई भी रहे, कांग्रेस और बाकी विपक्ष के लिए स्थिति एक-सी ही रहेगी; तब तक, जब तक कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल जनता को यह नहीं समझा देते कि भाजपा की लाइन सिर्फ हिन्दू वोटों के लिए है, उनके हितों की रक्षा और इससे उनकी मूल समस्याएँ हल करने के लिए नहीं। कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल कोशिश करें, तो वो जनता को मुद्दों पर मतदान करने वाली जनता बनाया जा सकता है। बिहार में विधानसभा के हाल के चुनाव में तेजस्वी यादव ने बहुत आक्रामक तरीके से ज़ात-पात पर मतदान करने वाले इस राज्य में जोखिम लेकर रोज़गार को चुनाव का मुद्दा बनाकर भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतकर यह कर दिखाया।
इसे कांग्रेस में फिर घमासान मच गया है। बिहार चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 19 ही सीटें मिलने से कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता फिर मुखर हुए हैं। लेकिन यह दौर नेतृत्व की निंदा तक ही सीमित है। सुझाव कहीं से नहीं आ रहा। याद रहे कि दो साल पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत पर इन और बहुत-से पार्टी नेताओं ने राहुल गाँधी को कांग्रेस का एकछत्र नेता कहा था। राहुल कांग्रेस में ऐसे नेता हैं, जो सोनिया गाँधी के विपरीत सोच रखते हैं। जबकि पार्टी में बहुत-से ऐसे नेता हैं, जो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उन्हें सोनिया गाँधी जैसा बनना होगा। लेकिन राहुल के नेतृत्व की आलोचना करते हुए कोई भी नेता विकल्प नहीं सुझाता। भूपेश बघेल जैसे नेता हैं, जो उम्मीद जगाते हैं और वह पूरी तरह राहुल के साथ है।
बहुत पहले उत्तर प्रदेश के नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गाँधी के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था। वह हार गये थे, लेकिन इससे कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र की आवाज़ ज़िन्दा रही; भले यह सन्देश भी गया कि गाँधी परिवार ही कांग्रेस में सर्वमान्य नेतृत्व है। आज कौन है, जो चुनाव में राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव में उतर सके? तहलका से बात करते हुए इस सारे विवाद से खुद को अलग रखे हुए कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पार्टी के पास एक भी ऐसा नेता नहीं, जो पूरी कांग्रेस में गाँधी परिवार के नेताओं की तरह सर्वमान्य नेता होने का दावा कर सके। उन्होंने कहा कि गाँधी परिवार से बाहर का नेतृत्व लाने के लिए तो शरद पवार जैसे पार्टी से बाहर के किसी नेता को इम्पोर्ट करना पड़ेगा; क्योंकि गाँधी परिवार से ज़्यादा सर्वमान्य नेतृत्व कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास नहीं है। उन्होंने कहा कि शायद पार्टी नेता असली समस्या की तरफ नहीं देख रहे और नेतृत्व के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। असली समस्या भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंडे का पर्दाफाश करते हुए उससे निपटना है और हालात जब माकूल होंगे, तो यही राहुल गाँधी सफल नेता बन जाएँगे।
कांग्रेस के पास इस समय मज़बूत सलाहकार की भी कमी है। अशोक गहलोत जैसा नेता कांग्रेस की ज़रूरत है। राहुल अध्यक्ष हैं ही नहीं, लेकिन भाजपा के निशाने पर सिर्फ वही हैं। भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा तक सभी हर मुद्दे पर राहुल गाँधी को निशाने पर रखते हैं। एक-दो नेताओं को छोडक़र कितने कांग्रेस नेता हैं, जो राहुल पर भाजपा नेताओं के हमले के वक्त उन पर मज़बूत जवाबी हमला करते हैं? हाँ, नेतृत्व की आलोचना यदा-कदा करते रहते हैं। राहुल सच में इतने ही कमज़ोर नेता होते, तो भाजपा दिन-रात उनकी निंदा में भला क्यों अपना वक्त बर्बाद करती? कांग्रेस की तरफ से भाजपा को जवाब नहीं मिलने से राहुल गाँधी कांग्रेस की कमज़ोर कड़ी बन गये हैं। राहुल खुद भी ममता बनर्जी जैसे आक्रामक नेता नहीं हैं, जो ईंट का जवाब पत्थर से दे सकें। यही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। कोरोना का दबाव कम होते ही कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी; शायद जनवरी या फरवरी तक। इस पर तैयारी शुरू हो चुकी है। यह भी चर्चा है कि यदि चुनाव करवाना पड़ा, तो कांग्रेस ऑनलाइन वोटिंग करायेगी। इसके लिए कांग्रेस प्रतिनिधियों को डिजिटल वोटर कार्ड जारी कर सकती है। कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव प्राधिकरण ने 1450 के करीब कांग्रेस नेताओं की एक सूची बनाने का काम भी शुरू किया है। अभी तक तो यही लग रहा है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनेंगे। कोई आश्चर्यजनक स्थिति बनी, तो प्रियंका गाँधी भी हो सकती हैं। यह दिलचस्प होगा कि क्या गाँधी परिवार के खिलाफ कोई नेता चुनाव में उतरेगा?
ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है। बिहार ही नहीं, उप चुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को भाजपा का प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं।
कपिल सिब्बल
पार्टी में किसी तरह का नेतृत्व संकट नहीं है। जो अन्धा नहीं है, उसे साफ नज़र आ रहा है कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को पूरा समर्थन है। मैं उन नेताओं (सिब्बल और चिदंबरम) के बिहार नतीजों पर चिन्ता वाले बयान से असहमत नहीं हूँ, लेकिन किसी को भी बाहर जाकर मीडिया और दुनिया से यह कहने की क्या ज़रूरत है कि हमें यह करना होगा।
सलमान खुर्शीद
चुनाव में हार के लिए मैं पार्टी नेतृत्व को दोष नहीं देता; लेकिन हमने ज़मीनी स्तर पर जनता से सम्पर्क खो दिया है। पाँच सितारा होटल वाली राजनीति हमारा नुकसान कर रही है। जब तक हम हर स्तर पर कांग्रेस की कार्यशैली में बदलाव नहीं लाते, चीज़ें नहीं बदलेंगी। नेतृत्व को चाहिए कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को एक कार्यक्रम दे और पदों के लिए चुनाव कराये।
गुलाम नबी आज़ाद
राहुल गाँधी के साथ पूरी कांग्रेस पार्टी खड़ी है। वह मज़बूत और जनता के मुद्दों से जुड़े नेता हैं। उनकी शराफत को कमज़ोरी समझने वाले बहुत बड़ी भूल में हैं।
सुष्मिता देव
भँवर में कांग्रेस
जब देश की अर्थ-व्यवस्था गम्भीर गिरावट का सामना कर रही है, कोविड-19 के मामलों में जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है और सीमाओं पर तनाव है, तब भी कांग्रेस केंद्र सरकार को घेरने में नाकाम दिख रही है। दरअसल कांग्रेस ने केंद्र सरकार को उसकी नाकामियों पर घेरने के अब तक कई बेहतरीन अवसर खो दिये हैं। पता नहीं क्यों मुख्य विपक्षी दल निश्चित ही केंद्र के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाने के लिए बहुत बेहतर स्थिति में नहीं दिखता? देश का यह सबसे पुराना राजनीतिक दल लम्बे समय से दोहरी चुनौतियों से जूझ रहा है। इसमें पहली चुनौती है- अभी तक एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाना और दूसरी बड़ी चुनौती है- पार्टी के आंतरिक संकटों को हल करना।
इसे लेकर पिछले दिनों कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी में सुधारों की माँग को लेकर सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखा था, जिसे पार्टी में विद्रोह का लेटर बम कहा गया और कई नेता इस पर नाराज़ हुए। अब पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तल्ख भाषा में कहा है कि हम हाल के चुनावों पर कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं; ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने इस स्थिति को ही पार्टी की नियति मान लिया है। सिब्बल की एक सफल वकील और एक सफल प्रवक्ता के रूप में भले ख्याति है और वह केंद्र में कांग्रेस के कार्यकाल में कई मंत्रालय भी सँभाल चुके हैं; लेकिन इस बयान के बाद पार्टी में उनके खिलाफ आवाज़ें उठ रही हैं और उनकी आलोचना हो रही है। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने असंतुष्टों से बहुत कड़े शब्दों में बाहर जाने का सुझाव देते हुए कहा है कि वे (असंतुष्ट नेता) नयी पार्टी बना सकते हैं या ऐसी पार्टी में जा सकते हैं, जो उनकी रुचि के अनुरूप हो।
कोई भी पार्टी भीतरी कलह से पूरी तरह सुरक्षित होने का दावा नहीं कर सकती; लेकिन जब कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर उसके 23 वरिष्ठ नेता पार्टी नेतृत्व को पत्र लिखते हैं, तो नेतृत्व को नींद से जागना चाहिए; मगर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बदला। 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद से अभी तक पार्टी के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है; जबकि अध्यक्ष पद के चुनाव की चर्चा चलते-चलते 15 महीने से ज़्यादा बीत चुके हैं। पार्टी के कुछ नेता अभी भी लेटर बम फोडऩे वाले 23 नेताओं पर प्रहार करने में अपनी ऊर्जा खर्च करने में लगे हैं।
नयी समितियों के गठन को छोडक़र पार्टी के भीतर कोई आत्मनिरीक्षण नहीं किया गया है, जो यह बताता है कि पार्टी व्यापक सुधारों के लिए तैयार नहीं है। पार्टी के पदाधिकारियों का कहना है कि कुछ वरिष्ठ नेता अध्यक्ष चुनाव को टालने के लिए नेतृत्व पर ज़ोर दे रहे हैं; क्योंकि उन्हें खुद के दरकिनार किये जाने का डर सता रहा है। इनमें से कई नेता लम्बे समय से चुनाव नहीं लड़े हैं और ज़मीनी हकीकत से दूर हैं। जो भी हो फिलहाल गाँधी परिवार को यह समझने की ज़रूरत है कि पार्टी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता तभी जारी रख सकती है, जब या तो वो खुद (गाँधी परिवार) नेतृत्व छोड़ दे, या पार्टी में स्वार्थ साधने की कोशिशों में लगे रहने वाले नेताओं की अनदेखी करके दमदार तरीके से मैदान में उतरे; केंद्र की नीतियों के खिलाफ भी और आगामी चुनावों में जीत के लिए भी। मौज़ूदा सरकार पर हमले के लिए मुद्दों का इतना बारूद उपलब्ध है कि उसे खुद की कमियों को सुधारने के लिए मजबूर किया जा सकता है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह लम्बे समय से अटके संगठनात्मक सुधार की घोषणा करे और आंतरिक असंतोष को खत्म करे। हालाँकि सबसे बड़ा सवाल शेक्सपियर की पंक्तियों- ‘यह हो सकता, या नहीं हो सकता’ में निहित है। क्या कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाते हुए सरकार के सामने खड़ी होगी? जो एक मुख्य विपक्षी दल होने के नाते उसकी पहली ज़िम्मेदारी है; या फिर इस बड़े अवसर को हाथ से जाने दे!
मान्यताओं-प्रथाओं का चक्कर
हमारे देश में कुछ विचित्र मान्यताएँ-प्रथाएँ हैं, जिन्हें अन्धविश्वास कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें से एक सबसे अजीब प्रथा छत्तीसगढ़ में ‘मढ़ई मेले’ के दौरान देखी जाती है। वहाँ पुजारी बच्चा होने का आशीर्वाद देने के लिए फर्श पर पट लेटी विवाहित महिलाओं की पीठ (कटि भाग) पर चलते हैं।
इस बार दीपावली के बाद पहले शुक्रवार को छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले में यह विचित्र अनुष्ठान हुआ। एक दर्ज़न से अधिक पुजारी और तथाकथित चुड़ैल व्याधि से छुटकारा दिलाने वाले ओझा बच्चा होने का आशीर्वाद देने के बहाने महिलाओं की पीठ पर चले। वहाँ एक पुरानी मान्यता के अनुसार, देवी अंगारमोती मन्दिर में दीपावली के बाद पहले शुक्रवार को मढ़ई मेला आयोजित किया जाता है।
मुख्य बातें
इस साल 50 से अधिक गाँवों की 200 महिलाएँ ज़मीन पर पट लेट गयीं और बाकी गाँववासी यह प्रक्रिया देखने के लिए वहाँ जमा रहे। दर्ज़नों पुजारी और ओझा ने इन महिलाओं को बच्चा होने का आशीर्वाद देने के नाम पर इनकी की पीठ पर चढक़र मंदिर में प्रवेश किया। सभी महिलाएँ ज़मीन पर दण्डवत लेटी रहीं और ये पुजारी तथा ओझा धार्मिक ध्वज लहराते हुए महिलाओं की पीठ पर से होते हुए मन्दिर में पहुँचे। महिलाएँ बच्चे की चाह में खुद को एक साथ कई पुरुषों द्वारा पैरों से रौंदने के लिए तैयार थीं।
मान्यता के चक्कर में हर साल छत्तीसगढ़ के धमतरी में सैकड़ों लोग एक अनुष्ठान करते हैं, जिसके दौरान पुजारी और ओझा बच्चों का आशीर्वाद देने के लिए महिलाओं की पीठ पर चढक़र गुजरते हैं। इस वर्ष अनुष्ठान के दौरान कोरोना वायरस के बावजूद उपस्थित लोगों ने मास्क नहीं पहने थे और न ही आपसी दूरी के नियम का पालन किया। इस प्रथा पर कोई आपत्ति नहीं जताते हुए जनजातियों के हज़ारों लोग, जिनमें हमेशा की तरह पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हुए; मन्दिर पहुँचे और मधाई मेले के गवाह बने। माँ बनने की इच्छा रखने वाली नि:संतान महिलाएँ अपने पेट के बल लेटी हुई दिखायी दीं और आदिवासी पुजारी उनकी पीठ पर चढक़र मंत्रों का जाप करते हुए चल रहे थे। उनके हाथों में ध्वज थे और उत्सुक ग्रामीण इस अनुष्ठान को देखकर प्रसन्न हो रहे थे।
मेले की तस्वीरों और वीडियो आदि मेंं लोग बिना मास्क के एक-दूसरे के निकट खड़े देखे जा सकते थे। आदि शक्ति माँ अंगारमोती ट्रस्ट के सचिव आर.एन. ध्रुव कहते हैं- ‘मधाई मेला पिछले 500 साल से हो रहा है। हम उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। लोग अनुष्ठान में दृढ़ विश्वास के साथ शामिल होते हैं, जिसका गलत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए। पूर्व में मेले में भाग लेने के बाद कई विवाहित महिलाओं को पुजारियों-ओझाओं के आशीर्वाद से बच्चे होना चमत्कार ही है।’
छत्तीसगढ़ राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन किरणमयी नायक ने कहा- ‘इसके लिए बहुत जागरूकता की आवश्यकता है। मैं अपनी टीम के साथ उस जगह का दौरा करूँगी और स्थानीय लोगों की मदद से इस प्रथा को हतोत्साहित करने और महिलाओं को आसान गर्भाधान और माता का आशीर्वाद लेने के सर्वोत्तम तरीकों के बारे में जागरूक करूँगी। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचे।’
लव जिहाद की बेतुकी तुकबंदी
क्या ‘लव’ ‘जिहाद’ है? यह सवाल आज लाखों लोगों के जेहन में अनायास घूमने लगा है। इसके लिए दोनों शब्दों और उनके वास्तविक मानी पर गौर करना बहुत ज़रूरी है। एक दौर था, जब कहा गया था कि शादी से पहले प्यार अपराध है। कुछ लोग आज भी यह मानते हैं; लेकिन कुछ समझदार लोग अब इसे पूरी तरह गलत मानते हैं। शादी से पहले प्यार करने वालों को इसके लिए भयंकर-भयंकर सज़ाएँ भी दी जाती रही हैं। आज भी इसके लिए प्रेमी युगल, खासतौर पर लड़कियों को हैवानियत प्रवृत्ति के लोग भयंकर सज़ा दे डालते हैं; फिर चाहे वह उनकी बेटी या बहन क्यों न हो।
अब लव को जिहाद और जिहाद के इस नये मानी को लव से जोडऩे की साज़िश की जा रही है। सही मायने में लव क्या है और जिहाद क्या? इसे समझने के लिए पहले तो लव और जिहाद के सही मायने समझने होंगे। लव का मतलब होता है प्यार और जिहाद शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक अपनी इच्छाओं को मारना यानी विरक्त होकर ईश्वर में लीन हो जाना, या सन्त हो जाना। एक तरह से किसी तरह का अनाचार और पाप न करना। और दूसरा है- ईश्वर / इंसानियत के खिलाफ रहने वाले यानी अत्याचारियों के खिलाफ युद्ध छेडऩा। कुल मिलाकर धर्मयुद्ध को जिहाद कहते हैं। लेकिन अब लव जिहाद का रूप समाज के सामने रखा गया है। दरअसल लव यानी प्यार की खिलाफत एक धर्मयुद्ध नहीं है। यह दो लोगों की जीवन बन्धन में बँधने की स्वेच्छा में एक तरह की दखलंदाज़ी है। वहीं, प्यार में यह ज़रूरी नहीं कि कोई शादी ही करे या धर्म-परिवर्तन ही करे। लेकिन झाँसे से शादी करना या धर्म-परिवर्तन कराना गैर-कानूनी ही है। लेकिन अगर कोई खुद से लालच में या अपने हित के लिए धर्म-परिवर्तन करता है या शादी करता है, तो यह उसका निजी फैसला है और हम इसे गैर-कानूनी नहीं कह सकते। दरअसल इसका सही मापदण्ड तभी तय किया जा सकता है, जब धर्म-परिवर्तन करने वाले की नीयत, इच्छा और स्वीकृति का सही-सही पता हो। धर्म-परिवर्तन जिहाद यानी धर्मयुद्ध भी नहीं हो सकता। आज तक दुनिया में महाभारत से बड़ा कोई धर्मयुद्ध नहीं हुआ है; लेकिन वह एक ही धर्म के लोगों, बल्कि एक ही परिवार के बीच हुआ था। धर्मयुद्ध का मतलब है- मानव धर्म यानी इंसानियत को बचाना; न कि किसी के धर्म के खिलाफ कोई युद्ध छेडऩा या उसका साज़िशन धर्म-परिवर्तन कराना। ऐसे में लव को जिहाद से जोडऩा बेतुकी तुकबंदी ही है। हाँ, किसी को झाँसे में लेकर, लालच देकर या धमकी आदि देकर या बन्धक बनाकर धर्म-परिवर्तन कराने या शादी करने-कराने वालों को दोषी माना जाना कानूनी है; लेकिन इसकी सज़ा देना भी कानून का ही काम है। इसके लिए मॉब लिंचिंग या हत्या या प्रताडऩा आदि गैर-कानूनी है।
इन दिनों लव जिहाद पर जिस तरह से बहस छिड़ी हुई है, उस पर चर्चा करने से पहले मैं पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक चर्चित मामले का ज़िक्र करना चाहूँगी। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में अब से करीब आठ-दस महीने पहले एक उच्च वर्ग की लडक़ी ने एक निम्न वर्ग के लडक़े से भागकर शादी कर ली। इस पर लडक़ी के घर वालों ने, जो कि रसूखदार राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं; लडक़े को जान से मारने का षड्यंत्र रचा। आखिर में किसी तरह लडक़ी को वापस घर बुला लिया और जाने क्या किया कि लडक़े को जी-जान से प्यार करने वाली लडक़ी उसी के खिलाफ बयान जारी करने लगी। एक दूसरा उदाहरण हम किसी भी बड़े घर का ले सकते हैं। मसलन रेणु शर्मा ने शहनवाज़ हुसैन से शादी की थी, दोनों के परिवार वालों ने हल्की-फुल्की आना-कानी के बाद यह रिश्ता स्वीकार कर लिया और आज भी यह रिश्ता बहुत अच्छी तरह चल रहा है। एक और उदाहरण मध्य प्रदेश का है। करीब पाँच साल पहले राजस्थान की एक लडक़ी ने अपनी ही जाति के गुजरात के एक लडक़े से प्रेम-विवाह कर लिया; लेकिन आज तक लडक़ी के घर वालों ने यह रिश्ता मंज़ूर नहीं किया; क्योंकि लडक़ा एक मामूली कारीगर है और लडक़ी लखपति घर की है।
यहाँ सवाल उठता है कि लव जिहाद दो धर्मों के युगलों के बीच प्रेम सम्बन्ध या विवाह कर लेना है या फिर पैसे, पद, प्रतिष्ठा के ताने-बाने पर बुनी हुई एक सुविधाजनक पहेली है; जिसमें वर अगर पैसे वाला है, हैसियत वाला है, तो शादी में कोई दिक्कत नहीं, फिर चाहे वह किसी जाति का हो, किसी धर्म का हो। लेकिन अगर वह गरीब है, तो दिक्कत-ही-दिक्कत, विरोध-ही-विरोध। यह भेदभाव केवल वर पक्ष में ही नहीं होता, बल्कि वधू पक्ष में भी होता है। अगर गरीब घर की लडक़ी है, तो लडक़े वाले भी उसे अपनाना नहीं चाहते। पिछले ही साल मशहूर फिल्म अभिनेत्री ने अमेरिकी गायक निक जोनस से शादी की है। दो धर्मों के लोगों की शादी का विरोध करने वाले लोगों से पूछना चाहिए कि क्या उनकी दृष्टि में यह लव जिहाद नहीं है?
उत्तर प्रदेश में अध्यादेश पास
कथित लव-जिहाद और धर्म-परिवर्तन की घटनाओं पर लगाम कसने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश-2020 को मंज़ूरी दे दी है। राज्यपाल के हस्ताक्षर होते ही इसे कानून बना दिया जाएगा। इस कानून के लागू होने के बाद छल-कपट व जबरन धर्म-परिवर्तन के मामलों में एक से 10 साल तक की सज़ा और ज़ुर्माना हो सकता है। खासकर किसी नाबालिग लडक़ी या अनुसूचित जाति-जनजाति की महिला का छल से या जबरन धर्म-परिवर्तन कराने के मामले में दोषी को तीन से 10 वर्ष तक की सज़ा भुगतनी होगी।
बता दें कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के अपनी मर्ज़ी से दूसरे धर्म में शादी करने पर दखल देने को गलत ठहराने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में कुल 21 प्रस्तावों पर मुहर लगी, जिनमें सर्वाधिक चर्चित धर्म-परिवर्तन विरोधी अध्यादेश को भी स्वीकृति दी गयी है। मध्य प्रदेश सरकार भी लव जिहाद के नाम पर कानून बनाने की तैयारी कर रही है। दरअसल हाल ही में हरियाणा के बल्लभगढ़ में कथित लव जिहाद मामले में मुस्लिम युवक द्वारा हिन्दू युवती की हत्या के बाद से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक की सरकारों ने इसे लेकर कानून बनाने का ऐलान किया। सरकारों का कहना है कि इसका मकसद लोभ, लालच, दबाव, धमकी या झाँसा देकर शादी की घटनाओं को रोकना है।
इधर असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि इस तरह का कानून संविधान की धारा-14 और धारा-21 के खिलाफ है। सरकारों को चाहिए कि अगर वह ऐसा करती हैं, तो फिर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म ही कर दें। कानून की बात करने से पहले उन्हें संविधान को पढऩा चाहिए। उन्होंने कहा कि युवाओं का ध्यान बेरोज़गारी से हटाने के लिए भाजपा इस तरह के हथकंडे अपना रही है।
हाईकोर्ट की पूर्व टिप्पणी पर योगी ने जतायी थी सहमति
उत्तर प्रदेश में लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने से पहले वहाँ के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले पर सहमति जता चुके हैं, जिसमें कहा गया था कि महज़ शादी करने के लिए किया गया धर्म-परिवर्तन अवैध होगा। हालाँकि अब यह फैसला हाईकोर्ट की बड़ी बेंच ने बदल दिया है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की बात कहते हुए कहा कि जो लोग अपना स्वरूप (धर्म) छिपाकर बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं, उनको पहले से चेतावनी है कि अगर वो नहीं सुधरे, तो अब राम नाम सत्य की यात्रा निकलने वाली है। वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष एवं समाजसेवी शाइस्ता अम्बर ने इस नये कानून के बनाये जाने वाले योगी के बयान पर सख्त नाराज़गी जतायी।
हाईकोर्ट का नया फैसला
हालाँकि लव जिहाद के खिलाफ धर्म पविर्तन वाले पहले के एक फैसले को पलटते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि हर किसी को अपनी पसन्द के व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो। कोर्ट ने इसे ऐसा करने वाले की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल तत्त्व माना है। जस्टिस पंकज नकवी और जस्टिस विवेक अग्रवाल की बेंच ने कुशीनगर के सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार उर्फ आलिया की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अगर दो लोग राज़ी-खुशी से एक साथ रह रहे हैं, तो इस पर किसी को आपत्ति करने का कोई हक नहीं है।
बेंच ने प्रियांशी उर्फ समरीन और नूरजहाँ बेगम उर्फ अंजली मिश्रा के दो मामलों में पाया कि दो बालिगों को अपनी मर्जी से अपने साथी चुने थे। ऐसे में उनकी इस स्वतंत्रता के अधिकार पर कोर्ट का पहले का फैसला उचित नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि निजी रिश्तों में दखल किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार में गम्भीर अतिक्रमण है, जिसका उसे संविधान के अनुच्छेद-21 में अधिकार प्राप्त है। कोर्ट एक युवती के पिता की ओर से दर्ज करायी गयी एफआईआर भी खारिज कर दी है।
माना जा रहा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले से प्रदेश सरकार के शादी के लिए युवतियों-महिलाओं का धर्म-परिवर्तन यानी कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून के मसौदे को झटका लग सकता है।
क्या होगा नया कानून, कितनी होगी सज़ा
उत्तर प्रदेश में लव जिहाद पर कानून विधि विरुद्ध धर्म-परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश-2020 के स्वरूप के तहत जबरन धर्म-परिवर्तन पर 15 हज़ार रुपये के ज़ुर्माने के साथ एक से पाँच साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है। वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय की महिलाओं और नाबालिग लड़कियों के धर्म-परिवर्तन पर 25 हज़ार रुपये के ज़ुर्माने के अलावा तीन से 10 साल तक के लिए जेल की सज़ा होगी। इस कानून से पहले उत्तर प्रदेश के गृह विभाग ने लव जिहाद को लेकर अध्यादेश का मसौदा तैयार कर लिया था, जिसमें कहा गया था कि प्रलोभन देकर या जबरन या कपटपूर्वक या विवाह के द्वारा धर्म-परिवर्तन कराने को अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा। ऐसा करने वाले के साथ-साथ इसमें सहयोग करने वालों को भी आरोपी माना जाएगा और जुर्म साबित होने पर मुजरिम की तरह ही सज़ा दी जाएगी। इन सभी स्थितियों में धर्म-परिवर्तन होने पर आरोपी को ही साबित करना होगा कि ऐसा नहीं हुआ। बिता दें कि कुछ समय पहले प्रदेश के विधि आयोग ने जबरन धर्म-परिवर्तन पर रोकथाम कानून बनाने के लिए यूपी फ्रीडम ऑफ रिलिजन बिल-2019 का प्रस्ताव भी शासन को सौंपा था।
वहीं मध्य प्रदेश सरकार के नये कानून (मध्य प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट 2020) का ड्रॉफ्ट भी तैयार हो चुका है। इसके तहत ताज़ा लव जिहाद के मामले में पाँच साल की सज़ा के प्रावधान के अलावा हो चुकी शादियों के रद्द करने का अधिकार भी फैमिली कोर्ट को दिया जा रहा है। लेकिन पुराने मामलों में कार्रवाई तभी होगी, जब पीडि़त या उसके सगे-सम्बन्धी इसकी शिकायत करते हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी धर्म-परिवर्तन के खिलाफ सख्त कानून बनाने की बात कह चुके हैं। उनका कहना है कि धर्म-परिवर्तन के मामलों से सख्ती से निपटने के लिए कानून बनाया जाएगा, जिसका खाका तैयार कर लिया गया है। मध्य प्रदेश में कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने का पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी खुलकर समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि हिन्दू एक ऐसा धर्म है, जिसमें परिवर्तन किये बिना भी कुरान और बाइबिल पढ़ सकते हैं; इसलिए धर्म-परिवर्तन एक साज़िश है, जिस पर सख्त कानून की ज़रूरत है।
कैसे काम करेगा कानून
अगर किसी को धर्म-परिवर्तन करना है, तो उसे एक महीने पहले अदालत में अर्जी देनी पड़ेगी कि वह अपना धर्म बदलना चाहता है। लेकिन ज़ोर-जबरदस्ती या ताकत या लालच या धोखे की बुनियाद पर की गयी शादी, पहचान छिपाकर की गयी शादी को इस कानून के तहत रद्द माना जाएगा। अगर किसी ने बिना अर्जी के धर्म-परिवर्तन किया, तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। अगर शादी के लिए किसी को भरमाया गया या झाँसा देकर शादी की गयी, तो यह कानून की नज़र में जुर्म होगा।
कैसे शुरू हुआ कथित लव जिहाद का विवाद और इसे कैसे तय किया गया
मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर-मुस्लिम युवतियों-महिलाओं से शादी करने, खासकर झाँसा, लालच और धमकी देकर शादी करने को कथित तौर पर लव जिहाद कहा गया है; जिसमें महिला का धर्म-परिवर्तन करके उसे मुसलमान बनाया जाता है। हालाँकि कानूनी रूप से यह शब्द मान्य नहीं है और न ही इसका कहीं लिखित इस्तेमाल किया गया है।
भारत में पहली बार 2009 में तब राष्ट्रीय स्तर पर लव जिहाद का मुद्दा बना, जब पहली बार केरल और उसके बाद कर्नाटक में इस तरह की घटनाएँ बढ़ीं। उस समय केरल हाईकोर्ट में धर्म-परिवर्तन कर शादी यानी कथित लव जिहाद यानी गैर-मुस्लिम युवती से मुस्लिम युवक द्वारा गलत तरीके से शादी करने का मामला आया। इस मामले में नवंबर, 2009 में वहाँ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक जैकब पुन्नोज ने कहा था कि केरल में ऐसा कोई भी संगठन नहीं मिला, जिसके सदस्य गैर-मुस्लिम लड़कियों को मुस्लिम बनाने के इरादे से प्यार करते हों। दिसंबर, 2009 में न्यायमूर्ति
के.टी. शंकरन ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया और निष्कर्ष निकाला कि प्रदेश में धर्म-परिवर्तन के जबरदस्ती वाले मामलों के संकेत मिल रहे हैं। तब अदालत ने लव जिहाद मामलों में दो अभियुक्तों की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि पिछले चार वर्षों में इस तरह के 3-4 हज़ार मामले सामने आये हैं।
वहीं, 2010 में तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने स्वीकार किया था कि कई महिलाओं ने धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम कुबूला है; लेकिन इसके पीछे कोई संगठित प्रयास नहीं किया गया है। सितंबर, 2014 में भी उत्तर प्रदेश पुलिस ने उस दौरान तीन महीनों में लव जिहाद के छ: मामलों की जाँच की, जिनमें से पाँच मामलों मे धर्म-परिवर्तन के प्रयास के सुबूत नहीं मिले। भारत में लव जिहाद के मामलों को लेकर हिन्दू संगठन आज भी चिन्तित हैं, जबकि मुस्लिम संगठन इस तरह की मुहिम को लेकर सदैव इन्कार करते रहे हैं।
धर्म-परिवर्तत के खिलाफ बनने वाले कानून के मुख्य प्रावधान
1. यदि केवल विवाह के मकसद से लडक़ी का धर्म-परिवर्तन किया गया, तो विवाह शून्य घोषित किया जा सकेगा।
2. धर्म-परिवर्तन पर रोक सम्बन्धी कानून बनाने को विधि आयोग विधानसभा में अध्यादेश पारित होने से पहले ही उत्तर प्रदेश फ्रीडम ऑफ रीज़नल बिल बना चुका है।
3. धर्म-परिवर्तन को अपराध माना जाएगा, जो गैर-जमानती होगा। इस पर प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट की कोर्ट में अभियोग का मामला चलेगा।
4. जबरन या झाँसे में लेकर धर्म-परिवर्तन या विवाह के लिए धर्म-परिवर्तन के मामले में एक से पाँच साल तक की सज़ा और 15 हज़ार रुपये तक के ज़ुर्माने का प्रावधान है।
5. नाबालिग लडक़ी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर दो से तीन से 10 साल तक की सज़ा और कम-से-कम 25 हज़ार रुपये ज़ुर्माने का प्रावधान है।
6. लालच देकर, बहला-फुसलाकर सामूहिक धर्म-परिवर्तन कराने पर अधिकतम 10 साल की सज़ा और 50 हज़ार रुपये ज़ुर्माना लगाया जाएगा।
7. अगर कोई खुद से धर्म-परिवर्तन करना चाहता / चाहती है, तो उसे एक महीने पहले ज़िला मैजिस्ट्रेट को सूचना देनी ज़रूरी होगी, जिसके उल्लंघन पर छ: महीने से लेकर तीन साल तक की सज़ा हो सकती है।
8. यदि कोई संस्था लालच देकर, बहला-फुसलाकर किसी का धर्म-परिवर्तन कराती है, तो संस्था या संगठन के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों को दोषी माना जाएगा और वे सज़ावार होंगे।
गिलगित, बाल्टिस्तान में हुए चुनाव
पाकिस्तान की इमरान खान सरकार का गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव कराने का फैसला भले जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और अनुच्छेद-370 को निरस्त करने से जुड़ा हो, लेकिन खुद पाकिस्तान सरकार की ही एक एजेंसी को आशंका है कि इससे पाकिस्तान का भारत के हिस्से वाले कश्मीर पर दावा कमज़ोर हो जाएगा। यही नहीं, गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव का विरोध करने वाले मज़बूत संगठन वहाँ अब पाकिस्तान के खिलाफ नये सिरे से एकजुट हो सकते हैं। चीन जिस तरह गिलगित, बाल्टिस्तान में अपने प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहा है और अब पाकिस्तान ने वहाँ चुनाव करवाये हैं, उससे निश्चित ही इन चुनावों का सख्त विरोध कर रहे भारत की चिन्ता बड़ी है।
विरोधी दलों ने पाकिस्तान सरकार और प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पर धाँधली करके चुनाव जीतने का आरोप लगाकर इन नतीजों को मानने से इन्कार कर दिया है। इस चुनाव के ज़रिये इमरान खान सरकार ने गिलगित, बाल्टिस्तान को अपना पाँचवाँ सूबा बनाने की चाल चली है। इस चुनाव में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पीटीआई ने 23 में से 10 सीटों पर जीत हासिल की और सबसे बड़ा दल बन गयी; जबकि छ:-सात निर्दलीय उम्मीदवारों को भी जीत मिली, जिनकी मदद से पीटीआई सरकार बना रही है। बिलाबल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) को पाँच, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) को दो, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम फजल और मजलिस वाहदतुल मुस्लिमीन को एक-एक सीट मिली है।
गिलगित बाल्टिस्तान में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों की कहानियाँ यदा-कदा बाहर आती रही हैं। ज़मीन पर पाकिस्तान का काफी विरोध है। वहाँ आज़ादी की माँग करने वाली एक स्थानीय पार्टी के संस्थापक नेता नवाज़ खान नाजी का कहना है कि अभी जानते हैं कि इमरान खान की पार्टी को सेना का समर्थन है। पाकिस्तान सरकार ने इस इलाके का कोई विकास नहीं किया, उलटे यहाँ के संसाधनों को लूटा है। उधर, गिलगिट-बाल्टिस्तान इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष सेंगे सेरिंग तो कहते हैं कि यह इलाका कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं हो सकता; क्योंकि यह जम्मू और कश्मीर का क्षेत्र है। वहाँ लोग बलूचिस्तान का उदाहरण देखते हैं और कहते हैं कि वहाँ के लोगों को कभी सुकून से जीने का अधिकार नहीं मिला।
आरोप यह भी रहे हैं कि पाकिस्तान और चीन मिलकर गिलगिट, बाल्टिस्तान को उपनिवेश बनाना चाहते हैं। वहाँ चुनाव करवाने की इमरान खान की चाल को इसकी तरफ एक कदम के रूप में देखा जा रहा है। भारत इमरान खान की सरकार को कड़ी चेतावनी दे चुका है कि वह उन इलाकों से बाहर निकल जाए, जिन पर उसने अवैध कब्ज़ा किया हुआ है। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव कह चुके हैं कि भारत अपने किसी भी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति बदलने की पाकिस्तानी सरकार की कोशिशों का सख्त विरोध करता है। पीओके भारत का अभिन्न हिस्सा है, और रहेगा। गिलगित, बाल्टिस्तान में पाकिस्तान का एक तरह से सैन्य कब्ज़ा रहा है। पाकिस्तान के सेना पर स्थानीय संगठन ज़ोर-ज़ुल्म का आरोप लगाते हैं। यही हालत पीओके की है, जहाँ 2021 में चुनाव होने हैं। गिलगित बाल्टिस्तान चुनाव से पहले ही पाकिस्तान के विपक्षी नेता पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के प्रमुख मौलाना फज़लुर्रहमान इमरान सरकार पर आरोप लगाया था कि नतीजे पहले से ही तय कर लिये गये थे और बड़ी संख्या में वहाँ ट्रकों से गेहूँ का वितरण किया गया; ताकि चुनाव में हेराफेरी की जा सके। उनके मुताबिक, इन ट्रकों पर प्रधानमंत्री इमरान खान के चित्रों के साथ बैनर लगे हुए थे। यही नहीं, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ की उपाध्यक्ष मरयम नवाज़ ने भी इस मसले पर इमरान सरकार पर करारा हमला करते हुए कहा था कि इमरान सरकार वोट नहीं, बूट (जूते) के लायक है। वैसे गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव को लेकर पाकिस्तान की भीतर मत-विभाजन है।
पाकिस्तान के पीएमओ के तहत काम करने वाली नेशनल सिक्योरिटी डिवीज़न (एनएसडी) के हाल में अपने एक आंतरिक आकलन में कहा था कि इसका फायदा उठाकर भारत जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 की अनुच्छेद-370 निरस्त करने की अपनी कार्रवाई को जायज़ ठहरा सकता है। एनएसडी ने कहा था कि इमरान सरकार को पीओके में इसके लिए राजनीतिक विरोध सहना पड़ सकता है। यह बात काफी हद तक सही भी लगती है; क्योंकि जम्मू-कश्मीर के ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी की पीओके ब्रांच के प्रमुख सैयद अब्दुल्लाह गिलानी गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव को विनाशकारी नतीजे वाला फैसला बता चुके हैं।
यह तय है कि इमरान खान के गिलगित बाल्टिस्तान पर जबरन कब्ज़े से वहाँ राजनीतिक विरोध अब और मुखर होगा। अभी तक यह एक स्वायत्त क्षेत्र था और प्रादेशिक विधासभा के साथ वहाँ बाकायदा चुना हुआ मुख्यमंत्री था। वहाँ के लोगों और संगठनों की माँग आज़ादी की रही है और इसके लिए वे भारत से मदद की उम्मीद भी करते रहे हैं। अब चुनाव के बाद वहाँ की स्थिति देखना निश्चित ही दिलचस्प होगा।
प्रधानमंत्री मोदी के आश्वासन के बाद भी संकट में बनारस के बुनकर
बनारस से अपनी पहली लोकसभा जीत के बाद सत्ता में आते ही और फिर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के बुनकरों, खासकर बनारस के बुनकरों के अच्छे दिन लाने का वादा किया था। लेकिन प्रधानमंत्री ने बुनकरों की आज तक सुध नहीं ली। इससे बनारस के बुनकर खासे हताश, निराश और सरकार से नाराज़ हैं। विश्व विख्यात बनारसी साडिय़ाँ बनाने वाले बुनकर आज संकट में हैं और रोज़ी-रोटी के लिए मोहताज हो रहे हैं। कोरोना-काल शुरू होने के बाद से तो हाल यह है कि इस उद्योग से जुड़े बनारस के लाखों लोग और उनके परिजन आज त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। बता दें कि बनारस के हथकरघा उद्योग को बनारसी साडिय़ों का कुटीर उद्योग माना जाता है, जो अब लगभग ठप होने के कगार पर है। बुनकरों में अपना सदियों पुराना व्यवसाय उजडऩे का खौफ और विकट रोष है और वे आन्दोलन करने की सोच रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। हथकरघा उद्योग से जुड़े बेरोज़गार हो रहे बुनकरों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देश से किये गये दर्ज़नों वादे अधूरे होने के समय से ही वे लोग इस बात को लेकर आश्वसत नहीं थे कि प्रधानमंत्री उनकी ओर ध्यान देंगे और उनका यह शक सही साबित हुआ। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में बुनकरों की दशा कितनी खराब है और हज़ारों लोग कैसे इस सदियों पुराने अपने रोज़गार से वंचित हो चुके हैं, अगर यह देखना हो तो कोई बनारस के बुनकरों की दशा देखे, जिससे करीब आठ लाख लोगों और उनके परिजनों का जीवन चलता है।
बता दें कि नवंबर, 2014 में नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार वाराणसी पहुँचकर लालपुर में व्यापार सुविधा केंद्र व शिल्प संग्रहालय का शिलान्यास किया था। वहाँ उनके साथ तत्कालीन केंद्रीय कपड़ा मंत्री संतोष गंगवार भी मौज़ूद थे। उस समय मोदी की केंद्र सरकार ने बुनकरों को आश्वासन दिया था कि इस व्यापार केंद्र पर केंद्र सरकार 147 करोड़ रुपये खर्च करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब शिलान्यास के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा था कि कृषि के बाद रोज़गार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र टेक्सटाइल है। यही एक ऐसा उद्योग है, जिसमें मालिक और मज़दूर के बीच कोई खाई नहीं होती है। उन्होंने कहा था कि इस व्यापार केंद्र की शुरुआत का मकसद बनारस के कपड़ा उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाना है। लेकिन आज बनारस का कपड़ा उद्योग ठप होने के कगार पर पहुँच रहा है और प्रधानमंत्री इस खास उद्योग की कोई सुध नहीं ले रहे हैं। यही नहीं तत्कालीन केंद्रीय कपड़ा मंत्री संतोष गंगवार ने कहा था कि केंद्र सरकार देश में हथकरघा व शिल्प से जुड़े व्यवसाय को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाना चाहती है; लेकिन इसके बाद संतोष गंगवार ने भी इस ओर पलटकर नहीं देखा। उत्तर प्रदेश के हथकरघा उद्योग की बदहाली और बुनकरों की आर्थिक तंगी को लेकर इसी जुलाई में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा भी योगी आदित्यनाथ की राज्य सरकार पर निशाना साध चुकी हैं। उन्होंने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में एक अखबार की खबर का ज़िक्र करते हुए लिखा था कि हवाई प्रचार नहीं, आर्थिक मदद का ठोस पैकेज ही बुनकरों को इस तंगहाली से निकाल सकता है।
आन्दोलन करने को विवश बुनकर
इसी साल अगस्त में बनारस के आर्थिक संकट में फँसे बुनकरों ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली का बिल बढ़ाने और पॉवरलूम पर दी जाने वाली बिजली-सब्सिडी खत्म करने को लेकर राज्य सरकार को आन्दोलन की धमकी दी थी। विदित हो कि बिजली विभाग के अधिनियम के 2006 के करार के मुताबिक, बुनकरों को एक पॉवरलूम पर हरेक महीने केवल 71.5 रुपये ही बिजली का बिल चुकाना पड़ता था, जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने खत्म करके हथकरघा उद्योगों में स्मार्ट मीटर लगा दिये। इससे बुनकरों का बिजली बिल हर महीने के डेढ़ हज़ार से अधिक आने लगा। इससे नाराज़ बुनकरों ने पहले 1 सितंबर से हड़ताल पर जाने की सरकार को चेतावनी दी थी और कहा था कि अगर मुख्यमंत्री ने उनकी परेशानी को समझते हुए मीटर हटाकर पुराने बिल को बहाल नहीं किया, तो वे पॉवरलूम को हमेशा के लिए डिसकनेक्ट (बन्द) करा लेंगे। सरकार ने 4 सितंबर को बिजली बिल पर राहत का आश्वासन दिया, जिससे बुनकर काफी खुश हुए; लेकिन बुनकरों को अब तक बिजली विभाग की तरफ से कोई राहत नहीं मिली है। ऐसे में बुनकर फिर से आन्दोलन की तैयारी कर रहे हैं। बुनकरों की मानें, तो सरकार उन्हें फिर से हड़ताल पर जाने के लिए विवश कर रही है, क्योंकि उन्हें अभी तक बिजली बिलों में कोई राहत नहीं मिली है। इधर कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन ने भी बुनकरों की रोज़ी-रोटी पर हथौड़ा मारा है और अब जब उन्हें उम्मीद थी कि रुका हुआ काम फिर से चलने लगेगा, कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों और सरकार की सख्ती ने उस पर फिर से कुठाराघात कर दिया है।
बता दें कि अगर प्रदेश के सभी बुनकर हड़ताल करते हैं, तो राज्य सरकार को हर महीने तकरीबन 100 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होगा, जो कि बढ़े बिजली बिल से मिले राजस्व से कई गुना ज़्यादा होगा। एक अनुमान के मुताबिक, बनारसी साड़ी का सालाना कारोबार तकरीबन 1,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का है, जिसमें 300 से 400 करोड़ रुपये का माल हर साल विदेशों को निर्यात होता है। बड़ी विडम्बना यह है कि चीन से अब यार्न आ रहा है, जिस पर 25 फीसदी टैक्स लगा रही है, जिससे बनारस के हथकरघा उद्योग पर एक और कुठाराघात हो रहा है। वर्ष 2007 में बनारस में करीब 5,255 छोटी बड़ी इकाइयाँ थीं। इनमें तकरीबन 20 लाख लोग काम करते थे, और यह कारोबार करीब 7 हज़ार 500 करोड़ रुपये का था। लेकिन अब इनमें से करीब सवा दो हज़ार से अधिक इकाइयाँ बन्द हो चुकी हैं और बाकी इकाइयाँ भी प्रदेश और केंद्र सरकारों की बेरुखी और टैक्स वसूली वाली सोच के चलते बन्द होने के कगार पर हैं। नये पॉवरलूम लगाने की सोच रहे व्यापारियों ने भी अब इस धन्धे से दूरी बना ली है। क्योंकि उनके पुराने उद्योगों में ताले पडऩे की नौबत आ रही है।
पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी कमायी
हथकरघा उद्योग पर जिस तरह सरकार बिजली बिल और टैक्स बढ़ाकर इससे जुड़े लोगों की खून-पसीने की कमायी छीनना चाहती है, इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि हथकरघा उद्योग में पहले ही मेहनत बहुत है और कमायी काफी कम। इस काम में बुनाई की बारीकी से लेकर डिजाइन तक का बहुत ध्यान रखा जाता है। अगर किसी साड़ी में एक धागा भी गड़बड़ हो गया, तो सारी मेहनत बेकार हो जाती है और साड़ी के दाम चौथाई से भी कम रह जाते हैं, जो कि कारीगर का मेहनताना भी नहीं होता।
एक हथकरघा कारीगर ने बताया कि एक साड़ी की बुनाई के लिए हर दिन 12 घंटे काम करने पर आठ दिनों में एक साड़ी ही तैयार हो पाती है, जिसके बदले दो हज़ार रुपये मिलते हैं यानी एक कारीगर जब बहुत मेहनत करता है, तब भी वह महीने में आठ से 10 हज़ार रुपये ही मुश्किल से कमा पाता है। ऐसे में अगर घर में कोई आवश्यक खर्चा आ पड़े या कोई बीमार हो जाए, तो कर्ज़ लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। अब इस उद्योग के ठप होने से रोज़ी-रोटी का यह छोटा-सा ज़रिया भी सरकार छीनने पर आमादा है। एक अन्य कारीगर ने बताया कि जब प्रधानमंत्री ने बनारस आकर हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने का आश्वासन दिया था, तब हमने सोचा था कि अब शायद हमारे दिन भी बहुरेंगे; लेकिन सब कुछ उल्टा हो गया है। अब न तो प्रधानमंत्री मोदी इस ओर ध्यान देते हैं और न ही मुख्यमंत्री योगी। हम लोग अपने बच्चों को अच्छा खाना, अच्छी शिक्षा तक नहीं दे पाते। अब तो मन करता है कि इस दुनिया को छोडक़र कहीं दूर चले जाएँ। इसी तरह की निराशा बनारस के हथकरघा उद्योग से जुड़े लगभग सभी लोगों में आज देखने को मिलती है।
दस्तकारी का काम भी पड़ा है ठप
यह गर्व की बात है कि बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहाँ दस्तकारी के अलावा करीब 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों होते आ रहे हैं, जिनके उत्पादन की माँग पूरी दुनिया में है। लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बन्द हो गये हैं या बन्द होने के कगार पर हैं। अगर आप बनारस के ठठेरी बाज़ार की गलियों से गुजरें, तो यहाँ झेनी-हथौड़ों की आवाज़ अब आपको धीमी पड़ती नज़र आयेगी; क्योंकि यहाँ का कारोबार भी कोरोना वायरस के चलते काफी दिनों से ठप पड़ा है। यहाँ गोप की बनावट, मुगल वंश के पुतले, बंगाली संस्कृति वाले खिलौने, गढ़ाई का काम, बर्तन और सोने-चाँदी के वरक बनाने जैसे दो दर्ज़न से अधिक दस्तकारी के काम होते हैं, जिनके कारीगरों को मंदी का सन्नाटा और रोज़ी-रोटी छिनने का खौफ खाये जा रहा है।
अगर बनारस में बनने वाले लकड़ी के खिलौनों की बात करें, तो इनकी सुन्दर बनावट और नक्काशी किसी को भी बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली होती है। ऐसा लगता है कि यहाँ के खिलौने देखने वालों से बातें करना चाहते हैं। इन खिलौनों की सुन्दरता को अगर देखना है, तो बनारस की कश्मीरी गली में जाकर देखा जा सकता है, जहाँ अब लगभग सन्नाटा-सा पसरा हुआ है। वह भी तब, जब देश के प्रधानमंत्री बनारस से ही सांसद हैं और बनारस को क्वेटो बनाने का बीड़ा उठा चुके हैं। लोगों को उनसे काफी उम्मीदें हैं। मेरी इस लेख के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अपील है कि वे बनारस के करोड़ों के हथकरघा उद्योग के साथ-साथ दूसरे उद्योगों को फिर से नयी राह दें और इन उद्योगों से जुड़े लाखों लोगों को रोज़ी-रोटी के संकट से बचाएँ, ताकि बनारस के साथ-साथ देश में खुशहाली का माहौल बन सके।
नीतीश का अग्निपथ
बिहार में सरकार बनने के पहले ही हफ्ते में मुख्यमंत्री नीतीश के एक नज़दीकी मंत्री का पुराने भ्रष्टाचार मामले में इस्तीफा, मुख्यमंत्री के मित्र सुशील मोदी को भाजपा की तरफ से उप मुख्यमंत्री न बनाना, अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल वाले दो उप मुख्यमंत्री बनाना, एक भी मुस्लिम चेहरा मंत्रिमंडल में नहीं लेना, महत्त्वपूर्णमंत्रालयों को भाजपा के पाले में रखना और विधानसभा में अपना स्पीकर बनाने का फैसला; यह कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं, जो बिहार में काँटे के चुनावी मुकाबले में जीत के एक पखबाड़े के भीतर हुई हैं। इन सभी घटनाओं से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस तरीके से सीधे रूप से प्रभावित होते हैं, उससे यह संकेत मिलता है कि नीतीश के लिए आने वाले महीने कितने चुनौती भरे रहने वाले हैं? केंद्र में एनडीए के सहयोगी दल कमोवेश सिमट चुके हैं। मोदी की केंद्र सरकार में भी एक मंत्री को छोडक़र बाकी सभी मंत्री भाजपा के ही रह गये हैं। यह अहसास अब नीतीश कुमार के भीतर भी मज़बूती से जगह बनाने लगा है कि भाजपा एक ऐसी पार्टी है, जो जिनके कन्धों का सहारा लेती है, उन्हीं साथियों को खा जाती है। नीतीश के भीतर यह अहसास चुनाव के दौरान लोजपा की भूमिका, कई सीटों पर जदयू को भाजपा का सहयोग नहीं मिलने और सरकार बनने के बाद की अन्य घटनाओं के बाद जगा है; जिनमें भाजपा नीतीश के प्रति सम्मान का ढोंग तो करती है, लेकिन हकीकत में उसके कदम नीतीश और उनकी पार्टी के प्रति प्रहार करने वाले दिखते हैं।
नीतीश के सामने चुनौतियाँ हैं; लेकिन तात्कालिक नहीं। भाजपा को अभी सहयोगी की ज़रूरत है। भाजपा अगले साल पश्चिम बंगाल और असम और उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक का इंतज़ार करेगी। पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सबसे कठिन चुनौती है; जहाँ उसका मुकाबला ज़मीन पर बहुत मज़बूत मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ‘माँ, माटी, मानुष’ के नारे वाली टीएमसी से है। कांग्रेस और वामपंथी भी नाम मात्र की चुनौती के लिए मैदान में रहेंगे। ऐसे में भाजपा एनडीए का चोला अभी ओढ़े रखना चाहती है। साथियों को ज़्यादा छेड़ेगी-छोड़ेगी नहीं। लेकिन हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहेगी; बिहार में भी नहीं। फिलहाल केंद्र में इकलौते राज्यमंत्री रामदास अठावले ही अब एनडीए में सहयोगी दलों के नाम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; बाकी सब भाजपा के हैं। हाल में कृषि कानूनों के मुद्दे पर सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणी अकाली दल एनडीए से बाहर जा चुका है और उसकी इकलौती मंत्री हरसिमरत कौर भी इस्तीफा दे चुकी हैं। लोजपा के इकलौते मंत्री रामविलास पासवान रहे नहीं और पार्टी ने एनडीए से अलग होकर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र में एनडीए की सहयोगी रही शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर वहाँ सरकार बना रखी है। ऐसे में नीतीश कुमार पूर्व की स्थिति के विपरीत वर्तमान में एक अलग तरह के दबाव में रहेंगे।
यह दबाव उन पर अभी से दिखने लगा है। हो सकता है कि मुख्यमंत्री का पद नीतीश ने इस विचार से लिया हो कि कुछ बेहतर करके विधानसभा चुनाव में तीसरे पायदान पर पहुँची अपनी पार्टी की स्थिति को बेहतर कर सकें। लेकिन यह तय है कि भाजपा किसी भी सूरत में नीतीश और जदयू को अब बिहार में मज़बूत नहीं होने देगी; भले ही वह राज्य में उसकी साथी हो। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बिहार में भाजपा भविष्य की तैयारी में जुटी है। हो सकता है कि भाजपा आने वाले समय में नीतीश कुमार को कोई बड़ा पद देने की पेशकश करे। नीतीश वर्तमान स्थिति से वािकफ हैं। भाजपा ने उनके दोस्त माने जाने वाले सुशील मोदी को किनारे करके संघ की पृष्ठभूमि वाले तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है। सभी जानते हैं कि दोनों मुख्यमंत्री की छवि के नहीं हैं, लिहाज़ा भविष्य के लिए मुख्यमंत्री चेहरा भाजपा ने अभी परदे में रखा है। भाजपा ने पूर्व में मंत्री रहे विजय कुमार सिन्हा को विधानसभा अध्यक्ष भी बना दिया है। इससे नीतीश पर अलग से दबाव रहेगा; क्योंकि संकट के समय स्पीकर की भूमिका बहुत अहम हो जाती है।
भाजपा पश्चिम बंगाल और असम चुनावों के बाद रंग दिखायेगी; खासकर अगर वह बंगाल में जीत पायी तो। बिहार में भाजपा इन चुनावों में कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं पहुँच गयी है। उसकी सीटें भले बढ़ी हैं और 53 से बढक़र 74 हो गयीं हैं, लेकिन उसके पक्ष में पडऩे वाले मत 24.4 फीसदी से घटकर 19.46 फीसदी हो गये हैं। इसके विपरीत बिहार की सबसे बड़ी पार्टी तेजस्वी यादव की राजद की सीटें ज़रूर 81 से 75 रह गयीं, लेकिन पिछली बार के 18.4 फीसदी के मुकाबले इस बार उसे 23.1 फीसदी मत मिले हैं और भाजपा को अब राजद अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी लगती है। सरकार बन जाने के बाद भी जदयू और नीतीश कुमार की तल्खी चिराग पासवान के प्रति कम नहीं हुई है। भाजपा ने अभी तक लोजपा से सम्बन्ध तोडऩे जैसा कोई संकेत नहीं दिया है। चिराग ही नहीं, भाजपा के कई नेताओं के प्रति जदयू और नीतीश कुमार की नाराज़गी है। चुनाव के बाद से नीतीश कुमार और उनके नज़दीकी महसूस कर रहे हैं कि लोजपा ही नहीं, खुद भाजपा के लोगों ने चुनाव में बहुत सीटों पर जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ काम करके उसकी हार सुनिश्चित की। निश्चित ही जदयू नेतृत्व इससे विचलित है और वो भी भविष्य की अपनी रणनीति सोच रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा अभी नीतीश को अपने साथ की थपकी देती रहेगी।
भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना को धोखा देकर अपनी फज़ीहत देख चुकी है। बिहार में नीतीश यदि नाराज़ हो जाते हैं, तो भाजपा को सबक सिखाने के लिए राजद के रूप में उनके पास विकल्प है। सन् 2015 में दोनों साथ चुनाव लड़ चुके हैं और सरकार साथ चला चुके हैं। जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी ऐसे पत्ते हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ रहना चाहेंगे। ऐसे में बिहार में भाजपा कोई पंगा अभी नहीं लेगी। भाजपा ने चुनाव के बाद जो सबसे दिलचस्प चीज़ की, वो यह है कि उसने जीत का जश्न बिहार में बड़े हलके स्तर पर किया, जबकि दिल्ली में खूब पटाखे फोड़े। बंगाल आदि के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा गठबन्धन में दरार या लड़ाई का सन्देश नहीं देना चाहती।
बिहार में भाजपा प्रदेश की योजनाओं को अब अपने हिसाब से चला सकेगी। पार्टी सुशील मोदी को क्यों निपटाना चाहती है? यह अभी समझ से बाहर है। उनके अलावा प्रेम कुमार, नंद किशोर यादव, विनोद नारायण झा जैसे नेता भी सरकार से दूर रखे गये हैं। यादव को लेकर कहा जा रहा है कि उन्हें स्पीकर बनाया जा सकता है। ऐसे में यह सवाल दिलचस्प है कि भाजपा वरिष्ठ नेताओं की जगह नये या सरकार में कम अनुभव वालों को क्यों जगह दे रही है?
अभी तक यही माना जाता रहा है कि बिहार में भाजपा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय को अपना चेहरा बनाना चाहती है। देखना होगा अगले डेढ़ साल में भाजपा उन्हें किस तरह का रोल देती है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी चर्चा में रहे हैं, लिहाज़ा वो अपनी कोशिश करेंगे। लेकिन यह तय है कि भाजपा बिहार में अपने विस्तार में अब कोई कसर नहीं छोड़ेगी। ऐसे में लगता यही है कि बिहार में विस्तार की भाजपा की रणनीति डेढ़-दो साल बाद की दिखेगी, जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हो जाएँगे। वहाँ 2022 में मार्च के आसपास विधानसभा चुनाव होने हैं। सुशील मोदी ने उप मुख्यमंत्री पद से दूर रखे जाने को लेकर एक ट्वीट में अपने दिल का दर्द यह लिखकर बयाँ किया कि उन्हें कार्यकर्ता बने रहने से नहीं रोका जा सकता। इससे साफ है कि इस तरह किनारे कर दिये जाने से वह खुश नहीं हैं। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठ रहा है कि भाजपा नेतृत्व सुशील मोदी के साथ ऐसा अपमान वाला व्यवहार क्यों कर रहा है? इसका एक सरल जवाब यह हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के नज़दीकी या उनसे सहानुभूति रखने वाले नेताओं को बिहार में ताकत नहीं देना चाहती। यदि या सच है, तो ज़ाहिर है कि भाजपा बिहार में नीतीश कुमार पर भी मेहरबान नहीं रहेगी और उनसे सहानुभूति रखने वाला कोई होगा नहीं, जो उनका बचाव कर सके।
सुशील के समर्थकों में भी बहुत गुस्सा है। इनमें से ज़्यादातर मानते हैं कि सुशील बिहार की राजनीति में रहना चाहते हैं। बीच में यह चर्चा रही है कि सुशील मोदी को केंद्र की एनडीए सरकार में लाया जा सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले 13-14 साल की सत्ता में सुशील मोदी ही जदयू से गठबन्धन के असली खेवनहार रहे हैं। सुशील मोदी ही हैं, जिन्होंने लालू-राज से लेकर महागठबन्धन की सरकार तक जनहित के मुद्दों को उठाया और उस सरकार को तुड़वाकर भाजपा-जदयू के गठजोड़ वाली सरकार बनवायी। विधानसभा चुनाव में मोदी कोरोना से संक्रमित हुए; लेकिन जैसे ही स्वस्थ हुए चुनाव प्रचार में कूद गये। हालाँकि उन्होंने पूरा भाजपा पर फोकस न करके पूरे एनडीए के पक्ष में प्रचार किया।
नीतीश के लिए अब बिहार में भाजपा के दो दिग्गज नेताओं भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय के साथ तालमेल रखने की चुनौती होगी, जो सुशील मोदी के विपरीत नीतीश को भी एक विरोधी की ही तरह देखते हैं। इन दोनों का एक ही मकसद है भाजपा को बिहार में अपने बूते की पार्टी बनाना, लिहाज़ा बिहार में नीतीश उनके उतने ही निशाने पर रहेंगे, जितने राजद और कांग्रेस के। नित्यानंद की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। भूपेंद्र यादव की रणनीति भी भाजपा का मुख्यमंत्री बनाना है। इन दोनों से अपनी कुर्सी और पार्टी दोनों को बचाना भी नीतीश के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
इतने कमज़ोर भी नहीं सुशासन बाबू
नीतीश भले 43 सीटों पर सिमट गये हों, पर वह इतने कमज़ोर और भाजपा के लिए बहुत आसान निवाला भी नहीं हैं। विधानसभा में विधायकों के संख्या (43) के हिसाब से भी नीतीश कमज़ोर नहीं हैं; क्योंकि अगर वह भाजपा से छिटकते हैं, तो सरकार गिर जाएगी। और अगर वह राजद को समर्थन दे देते हैं, तो भाजपा का महाराष्ट्र की तरह रास्ता पूरी तरह बन्द हो जाएगा। लेकिन उन्हें भाजपा से अपने विधायकों को बचाना होगा; क्योंकि विधायकों की खरीद-फरोख्त में भाजपा माहिर है; कर्नाटक और मध्य प्रदेश इसका बड़ा उदाहरण हैं। ऐसे में नीतीश की ताकत उनके 43 विधायक ही रह सकते हैं। हालाँकि भाजपा सहयोगी दल जदयू के साथ ऐसा करने की जल्दी नहीं सोचेगी, क्योंकि नीतीश को भी ‘पलटूराम’ कहा जाता है। इसलिए उनके अस्तित्व की बात आयेगी, तब तो वह निश्चित ही खतरनाक हो उठेंगे।
लोजपा के भाजपा के साथ तालमेल के बावजूद चिराग का केवल जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारना और चुनाव के ऐन मध्य में इनकम टैक्स विभाग की जदयू से जुड़े लोगों पर छापेमारी ज़ाहिर करती है कि नीतीश को कमज़ोर करने की कोशिश उनके अपने साथी दल की तरफ से ही हुई थी। यही नहीं, चुनाव प्रचार में भाजपा सांसदों का जदयू की सीटों से किनारा करना भी कुछ संकेत करता है। और तो और सासाराम और पालीगंज जैसी सीटों पर भाजपा के बािगयों का ताल ठोकना भी यही इशारा करता है।
इस तरह देखा जाए तो इस चुनाव में जदयू और नीतीश कुमार राजद-कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन से ही नहीं लड़े, बल्कि अपने ही सहयोगी भाजपा और एनडीए सहयोगी लोजपा से भी लड़े। इसके बावजूद जदयू का 43 सीटें निकाल लेना छोटी बात नहीं है। साल 2015 में जब नीतीश राजद-कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े थे, तब उन्हें उन दलों का वोट भी खूब मिला था। इस बार भाजपा ने उलटे उनके वोट काटे। यह कमोवेश वैसी थी स्थिति है जैसी 2019 के आखिर में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में शिवसेना की भाजपा के साथ हुई थी। ऐसे में इस बार भाजपा को जो मिला उसमें सहयोग उसके अपने से बाहर का भी बहुत कुछ था; जबकि जदयू ने जो पाया, वो सारा अपने बूते का था।
कुशवाहा के गठबन्धन ने भी चुनाव में दिलचस्प रोल निभाया। यह देखा गया कि जहाँ भाजपा चुनाव लड़ रही थी वहां उसके उम्मीदवार उस जाति के नहीं थे जो भाजपा के थे। बल्कि उस जाति के थे जो महागठबंधन के उम्मीदवार की थी। नहीं भूलना चाहिए कि एनडीए को मिली 125 सीटों के खिलाफ इस चुनाव में बाकी दलों के 118 उम्मीदवार जीते हैं, जो एनडीए से 7 ही कम हैं। चिराग पासवान की लोजपा ने कई सीटों पर जदयू उम्मीदवारों को हराने में बड़ी भूमिका निभायी। चिराग ने भाजपा के मुख्यमंत्री का नारा दिया था। भले ही ऐसा नहीं हुआ, लेकिन यह कूटनीति भाजपा के काफी काम आयी। भाजपा को मजबूरी में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। क्योंकि नीतीश ने परदे के पीछे के तमाम खेल के बावजूद 43 सीटें जीत लीं। शायद चिराग नीतीश को 20-25 सीटों पर सिमटने की कल्पना कर रहे थे। ऐसा हो जाता तो नीतीश निश्चित ही आज मुख्यमंत्री नहीं होते।
यह माना जाता है कि चुनाव के बाद जब भाजपा कुछ नेताओं के पर कतर रही है, तो इसका कारण खुद को बिहार में और मज़बूत करना भी है, और गुस्सा भी। भाजपा की योजना ही 80-85 सीटें जीतने की थी। सुशील कुमार मोदी भाजपा के इस गुस्से के पहले बड़े शिकार हैं। सुशील मोदी के विरोधी चर्चा में बताते हैं कि वह नीतीश की कुर्सी बचाना चाहते थे। क्योंकि उन्हें विश्वास था कि नीतीश की सरकार में वह उप मुख्यमंत्री तो रहेंगे ही। लेकिन नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उनका दुर्भाग्य रहा कि भाजपा आलाकमान ने उन्हें उप मुख्यमंत्री नहीं बनाया। इसके पीछे उनके भाजपा के भीतर ताकतवर विरोधी रहे।
नीतीश की बड़ी कमी रही कि वह प्रचार में अपनी उपलब्धियाँ जनता को सही तरीके से नहीं बता सके। इसके विपरीत प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी हर सभा में केंद्र सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया। हालाँकि इस चुनाव से एक और बात साबित हो गयी कि नरेंद्र मोदी को भाजपा भले जीत का श्रेय दे, लेकिन वह पूरे एनडीए को वोट नहीं दिला पाये, अन्यथा जदयू की सीटें ज़्यादा होतीं। शायद उनका मकसद भी यह नहीं था। यहाँ याद करना दिलचस्प होगा कि 2010 के चुनाव में जब नरेंद्र मोदी कहीं तस्वीर में नहीं थे, तब भाजपा एनडीए गठबन्धन ने कहीं बड़ा बहुमत पाया था और उसे 206 सीटें मिली थीं। इधर, भाजपा से भी उसके कई सहयोगी छिटक चुके हैं। ऐसा लगता है कि एनडीए गठबन्धन अब कहने को रह गया है और भाजपा ही अधिकतर सीटों पर काबिज़ होती जा रही है। इसका एक कारण सहयोगियों का भाजपा नेतृत्व से रूठना भी है। लेकिन इससे भाजपा का हित भी बहुत दिनों तक नहीं सधेगा; क्योंकि नाराज़ दल उसे एक-न-एक दिन कमज़ोर कर देंगे। यदि 2014 की बात करें तो एनडीए में 24 दल शामिल थे। चुनाव में एनडीए ने 336 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 282 सीटें। तब अशोक गजपति राजू (टीडीपी) ने भी शपथ ली थी; लेकिन 2019 के चुनाव से पहले ही टीडीपी भाजपा से अलग हो गयी थी। अब अकाली दल भी उससे अलग हो चुका है।
दिलचस्प यह है कि बिहार में जदयू भाजपा की सहयोगी है और सत्ता में है। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार की पार्टी का कोई सांसद मंत्री नहीं है। एनडीए में होने के नाते केवल उसका केंद्र सरकार को समर्थन है।
कितने शिक्षित विधायक
बिहार चुनाव को लेकर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा में 94 विधायक 5वीं से 12वीं तक ही पढ़े हैं। बिहार के 10 विधायक ऐसे हैं, जो 8वीं पास हैं और 30 विधायक 10वीं पास हैं। वहीं 53 विधायक 12वीं पास हैं; जबकि 134 विधायकों ने अपनी शैक्षिक योग्यता स्नातक या उससे ऊपर बतायी है। नौ विधायकों ने शैक्षिक योग्यता में सिर्फ साक्षर लिखा है। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 28 (11.5 फीसदी) है, जो पिछली बार 34 (14 फीसदी) थी। सबसे ज़्यादा शिक्षा प्राप्त महिला विधायक कांग्रेस से हैं। चार में तीन स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक हैं। जदयू की नौ विधायकों में से एक स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक (एलएलबी) हैं। एक के पास डॉक्ट्रेट की डिग्री है। जदयू में एक निरक्षर महिला भी विधायक है। राजद की 10 विधायकों में से दो स्नातक और एक डॉक्ट्रेट डिग्रीधारी हैं।
भ्रष्टाचार के मामले
सरकार बनते ही शिक्षा मंत्री मेवालाल चौधरी को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे में जानना ज़रूरी है कि किस पार्टी के कितने विधायकों पर भ्रष्टाचार के मामले हैं।
एडीआर और इलेक्शन वॉच के अध्ययन के अनुसार, नीतीश मंत्रिमंडल के 14 मंत्रियों में से आठ (57 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। वहीं छ: (43 फीसदी) के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आपराधिक मामलों वाले आठ मंत्रियों में से भाजपा के चार, जदयू के दो और हम और वीआईपी का एक-एक विधायक शामिल है। चौधरी को तो मंत्रिमंडल में शामिल करते ही हंगामा शुरू हो गया था। सन् 2017 में चौधरी के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनसे मिलने से भी इन्कार कर दिया था। मेवालाल चौधरी का नाम बीएयू भर्ती घोटाले में सामने आया था और राजभवन के आदेश से उनके खिलाफ 161 सहायक प्रोफेसर और कनिष्ठ वैज्ञानिकों की नियुक्ति के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। घोषित सम्पत्ति के लिहाज़ से चौधरी सबसे अमीर मंत्री हैं। वहीं, 14 मंत्रियों की औसत सम्पत्ति 3.93 करोड़ रुपये है। मेवालाल चौधरी ने अपने शपथ पत्र में आईपीसी के तहत एक आपराधिक मामला और चार गम्भीर मामले घोषित किये हैं। पशुपालन और मत्स्य पालन मंत्री मुकेश सहनी ने पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के तीन मामलों की घोषणा की है। भाजपा के जिबेश कुमार ने भी पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के चार मामलों की घोषणा की है। वहीं पाँच अन्य हैं, जिनके खिलाफ अलग-अलग प्रकृति के आपराधिक मामले दर्ज हैं।
भाजपा और राजद का फैलाव
चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने से ज़ाहिर होता है कि अगड़ी जातियों में भाजपा के साथ-साथ राजद को भी खूब वोट मिले, जबकि जदयू को नहीं मिले। लिहाज़ा भाजपा मानकर चल रही है कि भविष्य में उसका मुकाबला राजद से होगा। भाजपा और राजद में राजपूत विधायकों की जीत में इजाफा हुआ है; जबकि जदयू से कमी आयी है। इस तरह देखा जाए, तो राजद का उच्च जातियों में फैलाव हुआ है और उसने भाजपा को इस मामले में टक्कर दी। नतीजों से पता चलता है कि सवर्ण मतदाताओं ने भाजपा का काफी साथ दिया। हर चार में से एक विधायक सवर्ण जीता है। यादव, कुर्मी और कुशवाहा समुदाय के विधायकों की संख्या में इस बार कमी आयी है।
इस बार चुनाव में भाजपा ने जदयू, वीआईपी और हम पार्टी के साथ मिलकर अगड़ी और पिछड़ी जातियों को साधने का काम किया; लेकिन इसमें फायदा सिर्फ भाजपा को मिला। इस बार करीब 64 विधायक अगड़ी जातियों से चुनकर आये, जिनमें 28 राजपूत विधायक हैं। जबकि 2015 में यह संख्या 20 थी। भाजपा ने 21 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 15 जीत गये। जदयू के सात में से दो ही जीत सके; अबकी दो वीआईपी टिकट पर जीते। एनडीए के कुल 19 राजपूत विधायक विधानसभा पहुँचे।
उधर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबन्धन (राजद+कांग्रेस+वामपंथ) ने 18 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से आठ ही जीत सके। इनमें भी राजद के आठ उतारे लोगों में से सात उम्मीदवार शामिल हैं, जबकि कांग्रेस के 10 में से एक ही राजपूत उमीदवार को जीत मिली। एक निर्दलीय जीता। सन् 2015 के चुनाव में भाजपा के नौ, राजद के दो, जदयू के छ: और कांग्रेस के तीन राजपूत उम्मीदवार जीते थे। बिहार में इस बार 12 ब्राह्मण उम्मीदवार जीते हैं। सन् 2015 में 11 ब्राह्मण विधायक जीते थे। भाजपा ने इस बार 12 ब्राह्मण उमीदवारों को टिकट दिया था, जिनमें पाँच जीते। जदयू के दोनों ब्राह्मण जीतीं, जबकि कांग्रेस के नौ में से तीन उम्मीदवारों को जीत मिली। सबसे फायदे में राजद रहा, जिसके चार में से दो उम्मीदवार जीते; जबकि 2015 में एक ही जीता था। तब भाजपा के तीन, जदयू का एक और कांग्रेस के चार उम्मीदवार जीते थे। इस बार तीन कायस्थ समुदाय के विधायक बने जो सभी भाजपा के हैं। साल 2015 में भाजपा के दो और कांग्रेस का एक कायस्थ विधायक था।
इस बार 21 भूमिहार उम्मीदवार जीते हैं, जिनकी संख्या 2015 में 17 थी। सबसे ज़्यादा भाजपा से जीते हैं। उसने 14 भूमिहार मैदान में उतारे, जिनमें आठ जीत गये। जदयू के आठ में से पाँच जीते, जबकि हम पार्टी का एक। महागठबन्धन के टिकट पर छ: भूमिहार उम्मीदवार जीते, जिनमें सबसे ज़्यादा कांग्रेस के 11 में से चार, जबकि राजद और सीपीआई का एक-एक उम्मीदवार जीता। साल 2015 में भाजपा के नौ, जदयू के चार और कांग्रेस के तीन भूमिहार विधायक बने थे। बिहार में इस बार के विधानसभा चुनावों में यादव विधायकों की संख्या भी घटी है। कुल 52 यादव उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 61 जीते थे। यही नहीं कुर्मी और कुशवाहा विधायकों की संख्या भी घट गयी है। साल 2015 के जीती 16 कुर्मी उम्मीदवारों के मुकाबले इस बार नौ ही जीते। जदयू के 12 में से सात, जबकि भाजपा के दो जीते। महागठबंधन में राजद और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। सन् 2015 में जदयू के 13 कुर्मी विधायक सदन में पहुँचे थे। भाजपा, कांग्रेस और राजद के हिस्से में एक-एक कुर्मी विधायक आया था।
जदयू के लिए सबसे बड़ी चिन्ता बिहार में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटना है। इससे कांग्रेस को भी खासा नुकसान हुआ है। इस बार 19 मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 24 मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुँचे थे। इस बार राजद के टिकट पर सबसे ज़्यादा 8 मुस्लिम जीते, जबकि दूसरे नंबर पर पाँच मुस्लिम विधायकों के साथ ओवैसी की इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन रही। कांग्रेस के चार, भाकपा (माले) का एक और एक उम्मीदवार बसपा के टिकट पर जीता। जदयू का हाथ खाली रहा, जबकि 2015 में उसके 5 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे। तब राजद के 11, कांग्रेस के 7 और सीपीआई (माले) का एक मुस्लिम विधायक जीता था। यह तमाम आँकड़े जदयू और नीतीश की चिन्ता बढ़ाते हैं। इससे भाजपा को जदयू पर हावी होने का मौका मिलेगा। नीतीश को अपने वोट बैंक पर अब ध्यान देना होगा, नहीं तो भविष्य में उनके सामने काफी दिक्कतें आ सकती हैं।
बेहद निराशाजनक है हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों का प्रदर्शन
कोरोना महामारी के बीच केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शैक्षिक गुणवत्ता के विभिन्न मापदण्डों के आधार पर जून, 2020 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों के लिए जारी की गयी राष्ट्रीय संस्थात रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरफ) सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। वर्ष 2016 में जब पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर एनआईआरएफ सूची जारी की गयी थी, तो उसमें महज़ चार श्रेणियों को ही शामिल किया गया था। पिछले साल तक इस सूची में नौ श्रेणियाँ शामिल थीं; लेकिन इस बार इसमें डेंटल श्रेणी को भी जोड़ा गया है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) ने इस साल जो 10 अलग-अलग श्रेणियों में रैंकिंग्स जारी की है वो समग्र, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, प्रबन्धन, कॉलेज, फार्मेसी, मेडिकल, वास्तुकला, कानून, तथा डेंटल हैं।
इस वर्ष जारी इंडिया रैंकिंग्स 2020 अब तक की पाँचवीं रैंकिंग हैं और हिन्दी भाषी राज्यों के लिए यह रैंकिंग्स कई मायनों में बेहद खास है। कॉलेज कैटेगरी को छोडक़र बाकी के नौ श्रेणियों में हिन्दी राज्यों के प्रदर्शन को अगर हम गौर से देखें, तो इसे सन्तोषजनक कहा जा सकता है; लेकिन कॉलेज श्रेणी में इन राज्यों का प्रदर्शन शुरुआत से लेकर अब तक बेहद निराशाजनक रहा है। जहाँ समग्र और विश्वविद्यालय की रैंकिंग्स श्रेणी में पर्याप्त भौगोलिक विविधता देखने को मिलती है, वहीं कॉलेज श्रेणी की रैंकिंग में कुछ ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश का प्रभुत्व है। आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी राज्यों में इस गम्भीर मुद्दे पर कोई ठोस विमर्श नहीं हो रहा है। इन प्रदेशों के मुख्यधारा की ज़्यादातर मीडिया संस्थानों ने या तो इसे केवल सूचनात्मक खबर बनाया है या फिर इस मुद्दे को व्यापक दृष्टिकोण से देखने में वे असफल रहे हैं।
एनआईआरएफ-2020 की सूची के कॉलेज कैटेगरी में टॉप 100 में 88 कॉलेज तीन राज्यों हैं, जबकि एक केंद्र शासित प्रदेश से है। दक्षिण के राज्यों में तमिलनाडु के सबसे ज़्यादा 32, केरल के 20, पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल के 7 तथा देश की राजधानी दिल्ली के 29 कॉलेजों ने देश के टॉप 100 कॉलेजों की सूची में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया हैं। अगर हम टॉप 200 कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश के कॉलेजों के आँकड़े और भी बढ़ जाएँ। यह बेहद दु:खद है कि देश के बड़े राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की भी स्थिति बेहद निराशाजनक है। इन राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं हैं। अन्य हिन्दी राज्यों की अगर बात करें, तो हरियाणा का एक कॉलेज 49वें स्थान पर है और राजस्थान के दो कॉलेज टॉप 200 में शामिल हैं; लेकिन इन दोनों कॉलेजों की रैंकिंग्स 180 के ऊपर है।
बता दें कि एनआईआरएफ-2020 के समग्र सूची में लगातार दूसरे साल भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास शीर्ष पर बना हुआ है; जबकि विश्वविद्याल-रैंकिंग सूची में हर बार की तरह इस बार भी भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरु पहले स्थान पर बना हुआ है।
हिन्दी भाषी राज्यों में राष्ट्रीय स्तर पर कॉलेज कैटेगरी की इस रैंकिंग्स को लेकर एक गम्भीर विमर्श की ज़रूरत है; क्योंकि ऐसा नहीं है कि हिन्दी राज्यों के लिए कॉलेज कैटेगरी के आँकड़े केवल इसी साल निराशाजनक रहे हैं। अगर हम साल 2019 और 2018 की एनआईआरएफ सूची के कॉलेज श्रेणी के टॉप 100 कॉलेजों के रैंकिंग्स देखें, तो आँकड़े करीब 2020 जैसे ही लगते हैं। साल 2019 में भी टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 88 कॉलेज और 2018 में 87 कॉलेज उन्हीं तीन राज्यों- तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल तथा केंद्र शासित राज्य दिल्ली के ही थे। साल 2019 में टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 35 कॉलेज अकेले तमिलनाडु से थे, जबकि 2018 में इस राज्य का आँकड़ा 38 तक पहुँच गया था। साल 2019 में हिन्दी भाषी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड से कोई भी कॉलेज टॉप 200 सूची में शामिल नहीं था। इस साल की तरह ही केवल राजस्थान के दो कॉलेजों ने इस रैंकिंग सूची में 180 के बाद अपनी जगह बनायी थी। अगर 2018 में भी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 कॉलेजों की सूची में शामिल नहीं था, जो बेहद दु:खद है। कुल मिलाकर अब तक कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो सिर्फ 2017 में हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों ने टॉप 200 की सूची में सबसे ज़्यादा संख्या में जगह बनायी थी; लेकिन इनमें से कोई भी कॉलेज टॉप 100 में शामिल नहीं था। साल 2017 में जारी रैंकिंग सूची में हिन्दी राज्यों से कुल सात कॉलेजों ने अपना स्थान बनाया था, जिसमें उत्तर प्रदेश से दो, हरियाणा से तीन, मध्य प्रदेश से एक तथा झारखंड से एक कॉलेज शामिल था। बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज इस सूची में शामिल नहीं थे। साल 2016 में कॉलेज कैटेगरी की रैंकिंग को शामिल नहीं किया गया था। ध्यान रहे कि यहाँ राष्ट्रीय स्तर की इस रैंकिंग में हिन्दी राज्यों के कॉलेजों के प्रदर्शन की स्थिति के बारे में बात हो रही हैं, केंद्र शासित प्रदेशों के कॉलेजों के प्रदर्शन के बारे में नहीं। वैसे हिन्दी क्षेत्र में दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे केंद्र शासित प्रदेश कॉलेज कैटेगरी के इस राष्ट्रीय स्तर की रैंकिंग्स में काफी बेहतर कर रहे हैं। दिल्ली का मिरांडा हाउस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो लगातार चौथे साल कॉलेज रैंकिंग्स में पहले पायदान पर बना हुआ है।
दरअसल एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज रैंकिंग हिन्दी राज्यों के सन्दर्भ में कई सवाल खड़े करती है। लगता है कि इन राज्यों की सरकारों और यहाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले निजी संस्थानों ने कॉलेज शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी उतना ध्यान ही नहीं दिया, जितना उन्हें देना चाहिए था। इन राज्यों को बहुत वर्ष पहले ही कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस बनाने चाहिए थे; जो दुर्भाग्य से आज तक नहीं बने।
सबसे दु:खद बात यह है कि इन राज्यों में जो पुराने प्रसिद्ध कॉलेज थे, वो भी आज राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता के विभिन्न पैमानों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। बिहार और झारखण्ड समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में कुछ कॉलेजों के भवन इतने जर्जर हैं कि वो कभी भी गिर सकते हैं। सच तो यही है कि ये कॉलेज एक लम्बे अरसे से आधुनिकीकरण की राह देख रहे हैं। हाल के वर्षों में इन राज्यों में कॉलेजों के इंफ्रास्ट्रक्टर में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं; लेकिन अभी इस दिशा में बहुत सुधार करने होंगे। इन राज्यों के कॉलेजों में प्राध्यापकों की नियमित नियुक्तियाँ भी एक बड़ा मुद्दा है। सच तो यही है कि इन प्रदेशों में सन्बन्धित भर्तियाँ या तो लम्बे समय बाद निकलती हैं या फिर कोर्ट केस में फँस जाती हैं। बिहार समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में हज़ारों की संख्या में ऐसे छात्र भी हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेजों में नामांकन तो करा लेते हैं, लेकिन वे कॉलेज सिर्फ परीक्षा फार्म भरने और परीक्षा देने ही जाते हैं। ऐसे छात्र बस कहने को नियमित छात्र होते हैं, जबकि वास्तव में या तो ये प्रतियोगी परीक्षाओं में व्यस्त रहते हैं या फिर अपनी अन्य गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में। इन्हें नियमित कक्षा में जाना समय की बर्बादी लगता है। हिन्दी राज्यों के ऐसे कॉलेजों में 75 फीसदी उपस्थिति का नियम ज़्यादातर कागज़ों पर ही है, व्यावहारिकता में यह नियम दम तोड़ रहा है। हिन्दी भाषी राज्यों में बहुत-से कॉलेजों के पास हॉस्टल जैसी ज़रूरी सुविधा भी नहीं है। यहाँ विज्ञान विषयों की प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटर लैब्स की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कुछ हिन्दी राज्यों के पुस्तकालयों में अद्यतन अध्ययन सामग्री तक नहीं है। इन राज्यों के कॉलेजों में नियमित कक्षाएँ भले हों या न हों, लेकिन यहाँ पर छात्र और शिक्षक राजनीति चरम पर देखने को मिलती है; जिसने शैक्षणिक माहौल को और खराब कर दिया है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि शिक्षा भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में शामिल समवर्ती सूची का एक विषय है, जिस पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं और दोनों इस क्षेत्र में बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं। वर्तमान परिदृश्य में अगर हम अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को समग्रता से मूल्यांकन करें, तो पाएँगे कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार के कई संस्थान देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग श्रेणियों में लगातार बेहतर करते आ रहे हैं। राज्य सरकारों को, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी सुधार करने की ज़रूरत है, ताकि तमाम मापदण्डों को पूरा करते हुए छात्रों को गुणवतापूर्ण शिक्षा प्रदान की जा सके। शिक्षा के आज इस व्यावसायीकरण के दौर में हमारे देश में हज़ारों निजी शैक्षणिक संस्थान खुले हुए हैं; लेकिन इनमें से कुछ ही निजी संस्थान हिन्दी राज्य समेत देश के अन्य भागों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं और वे राष्ट्रीय स्तर की इन तमाम रैंकिंग्स श्रेणियों में लगातार टॉप में बने हुए हैं। लेकिन आजकल ज़्यादातर निजी संस्थानों को परम्परागत कोर्सेज से कुछ खास लेना-देना नहीं हैं; उनका ज़ोर प्रोफेशनल कोर्सेज चलाकर अधिक-से-अधिक पैसा कमाना है। हिन्दी राज्यों में ऐसे ढेरों निजी संस्थान हैं, जिनका मकसद सिर्फ लाभ कमाना है और वे इन राज्यों में कॉलेजों से ज़्यादा विश्वविद्यालय खोलने में लगे हुए हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेज
कॉलेज कैटेगरी की अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि उच्च शिक्षा में बहुत बेहतर करने वाले तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित और संचालित किये जाने वाले टॉप कॉलेजों की संख्या अच्छी-खासी है। पश्चिम बंगाल के सेंट जेवियर्स कॉलेज, तमिलनाडु के लोयोला और मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज और केरल के मर इवानियोस कॉलेज कुछ ऐसे ही उत्कृष्ट कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के टॉप रैंकिंग में शामिल हैं। राजधानी दिल्ली में स्थित देश के बेहतरीन कॉलेजों में शुमार सेंट स्टीफेंस कॉलेज भी अल्पसंख्यक ईसाई मिशनरी का संस्थान है, जो इस वर्ष राष्ट्रीय रैंकिंग्स में चौथे पायदान पर है। हिन्दी भाषी राज्यों में भी ईसाई मिशनरियों के कुछ कॉलेज उच्च शिक्षा में अच्छा कार्य कर रहे हैं; लेकिन यह दु:खद है कि ये कॉलेज राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान नहीं बना पा रहे हैं। झारखण्ड के रांची शहर में स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज, बिहार में पटना वीमेंस कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) शहर का इविंग क्रिश्चियन कॉलेज आदि कुछ ऐसे ही कॉलेज हैं। इन मिशनरियों द्वारा चलाये जाने वाले कुछ कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त है। एनआईआरएफ सूची के कॉलेज कैटेगरी के अब तक के आँकड़े यही बयाँ कर रहे हैं कि वर्तमान में देश के बहुत सारे राज्यों में आज भी ईसाई मिशनरियाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बेहतर कार्य कर रही हैं। सिख धर्म से सम्बन्धित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी भी दिल्ली में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज और श्री गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज ऑफ कॉमर्स सिख समुदाय के उत्कृष्ट अल्पसंख्यक कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में टॉप रैंकिंग्स में शामिल रहे हैं। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने भी उच्च शिक्षा के लिए पंजाब समेत कुछ अन्य राज्यों में ढेरों कॉलेज खोले हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस्लाम धर्म से सम्बन्धित व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ बेहतरीन कॉलेजों को खोला गया है। केरल के कोझिकोड में फारूक कॉलेज और तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली शहर में स्थित जमाल मोहम्मद कॉलेज ऐसे ही कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में क्रमश: 54वें और 88वें स्थान पर काबिज़ हैं। इन दोनों कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त हैं। हिन्दी राज्यों में भी मुस्लिम समुदाय द्वारा उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ अल्पसंख्यक कॉलेजों को संचालित किया जा रहा हैं, जैसे कि बिहार के गया शहर में स्थित मिर्जा गालिब कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के आजमढ़ में शिब्ली नेशनल कॉलेज; लेकिन इन कॉलेजों को अभी राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान बनाने में काफी वक्त लगेगा। यहाँ यह भी नोट करना ज़रूरी है कि बहुत सारे अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेजों को समय-समय पर सरकारी अनुदान मिलता है। अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयासों को अगर हम ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखें, तो पता चलता है कि ईसाई और सिख समुदायों ने संगठन के तौर पर (जैसे कि मिशनरी और गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति को बनाकर) शिक्षा के बेहतर संस्थानों को स्थापित किया; लेकिन मुस्लिम समाज ने जो भी शैक्षणिक संस्थान शुरू किये, उनमें ज़्यादातर व्यक्तिगत आधार पर ही आरम्भ किये हैं, जिनमें मदरसों की संख्या ज़्यादा है। जैन और पारसी जैसे अल्पसंख्यक समुदायों ने भी उच्च शिक्षा में सराहनीय प्रयास किया है।
धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के अलावा रामकृष्ण मिशन और आर्य समाज से जुड़ी संस्थाओं ने भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रामकृष्ण मिशन से जुड़े पश्चिम बंगाल के तीन कॉलेज रामकृष्ण मिशन विद्यामन्दिर, रामकृष्ण मिशन विवेकानंद सेंटेनरी कॉलेज तथा रामकृष्ण मिशन रेजिडेंशियल कॉलेज एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज कैटेगरी सूची में टॉप 20 में शामिल हैं। आर्य समाज से जुड़े दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) प्रबन्धक समिति ने भी दिल्ली, हरियाणा और पंजाब समेत अन्य राज्यों में कई बेहतरीन कॉलेज खोले हैं, जो उच्च शिक्षा में अच्छा काम कर रहे हैं। एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी की सूची में 9वें स्थान पर काबिज़ दिल्ली का हंसराज कॉलेज इसका बेहतरीन उदाहरण है; जिसका प्रबन्धन इसी समिति द्वारा किया जाता है।
हिन्दी राज्यों में बेहतर सरकारी प्रयास की ज़रूरत
वर्तमान में हिन्दी राज्यों में बड़ी तादाद में विद्यार्थी कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और अभी कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा को लेकर इनमें आकर्षण बढ़ा हैं। दुर्भाग्य यह है कि इन राज्यों में उत्कृष्ट कॉलेज और बेहतर सुविधाएँ न होने से इन राज्यों के छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। हिन्दी राज्यों के लिए दरअसल यह बेहद शर्म की बात है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे विशाल राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं है। अन्य हिन्दी राज्यों में हरियाणा और राजस्थान के कॉलेजों का प्रदर्शन भी निराशाजनक ही रहा है। यहाँ यह भी गौर करने वाली बात है कि तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल समेत अन्य कुछ राज्यों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले ईसाई मिशनरियों के कॉलेजों का प्रदर्शन भी हिन्दी राज्यों में बेहद खराब रहा है और इनके सारे कॉलेज एनआईआरएफ सूची के कॉलेज पिछले तीन वर्षों से रैंकिंग सूची से लगातार बाहर हैं। समय की माँग है कि हिन्दी भाषी राज्यों में राज्य सरकारों को उत्कृष्ट कॉलेज मॉडल बनाने पर ज़ोर देना चाहिए, ताकि इन राज्यों के छात्रों का पलायन रोका जा सके और उन्हें अपने ही राज्य में बेहतर शिक्षा दी जा सके। इस कार्य से छात्रों का आर्थिक बोझ तो कम होगा ही, साथ ही हिन्दी राज्यों की अर्थ-व्यवस्था भी थोड़ी मज़बूत होगी। हिन्दी राज्यों की सरकारों को यह भी चाहिए कि जो कॉलेज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर कार्य कर रहे हैं, उन्हें वो लगातार सम्मानित करें और उन्हें ज़्यादा आर्थिक मदद देने के साथ-साथ स्वायत्तता भी दें; ताकि ऐसे कॉलेज उच्च शिक्षा के सभी ज़रूरी पैमानों पर खरे उतर सकें और दूसरे पिछड़े कॉलेज भी इससे सीख लेकर अपना प्रदर्शन सुधार सकें।
एनआईआरएफ की रैंकिंग प्रक्रिया से आज देश के सभी कॉलेजों समेत अन्य कैटेगरी के शैक्षणिक संस्थानों को अपना प्रदर्शन सुधारने का मौका मिल रहा है और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न शैक्षिक मापदण्डों पर खरा उतरते हुए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में, जहाँ हर संस्थान अपने को श्रेष्ठ बताता है; भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की सभी महत्त्वपूर्ण श्रेणियों में रैंकिंग प्रणाली को हर साल जारी करना उच्च शिक्षा के लिहाज़ से एक बेहतर कदम माना जा सकता है। हालाँकि उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ विद्वानों तथा संस्थाओं ने इस रैंकिंग प्रणाली की आलोचना भी की है। उनका कहना है कि रैंकिंग में ज़्यादातर सरकारी संस्थानों को ही बेहतर दिखाया जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय को रैंकिंग्स से जुड़ी तमाम उलझनों को शीघ्र ही दूर करना चाहिए; ताकि उच्च शिक्षा से जुड़े अधिकतर विद्वानों और संस्थानों को भरोसे में लिया जा सके। इस रैंकिंग को सन् 2015 में शुरू किया गया था और इस वर्ष जारी यह पाँचवीं रैंकिंग हैं। भारत सरकार द्वारा जारी होने के नाते इस रैंकिंग्स प्रणाली पर छात्रों एवं उनके अभिभावकों समेत उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों व संस्थाओं का विश्वास धीरे-धीरे मज़बूत होगा और आने वाले समय में इस रैंकिंग प्रणाली का महत्त्व और अधिक बढ़ेगा। सम्भव है कि देश के बहुत सारे छात्र अच्छे करियर की उम्मीद में उन्हीं संस्थानों में प्रवेश लेने की कोशिश करें, जिन उच्च संस्थानों ने वरीयता सूची में बेहतर स्थान बनाया हो।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पीएचडी स्कॉलर हैं।)










