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राज्यसभा में तीसरा सप्ताह भी चढा हंगामें और स्थगन की भेंट

नयी दिल्ली : संसद के शीतकालीन सत्र के तीसरे सप्ताह में भी राज्यसभा में कोई काम नहीं हो पाया। जबकि लोकसभा पिछले दो दिन से ठीक से चल रही है और विधेयक भी पारित किए जा रहे हैं । नौ दिसंबर तक अडानी – सोरोस को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में जो घमासान चल रहा था दस दिसंबर से उसको एक नया मोड़ मिल गया । विपक्ष के 60 सांसदों ने राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नोटिस राज्यसभा के महासचिव को दे दिया । उसके बाद से तो दोनों पक्षों के बीच बिल्कुल तलवारें खिंच गयी है । दोनों पक्ष वैल के पास आ कर एक दूसरे के खिलाफ नारेबाजी और गैर संवैधानिक भाषा का प्रयोग करते हैं। बारह बजे से पहले ही सदन सोमवार तक के लिए स्थगित कर दिया गया ।

तीसरे सप्ताह के अंतिम दिन शुक्रवार को भी सभापति और नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बीच काफी कहा सुनी हुई ।सभापति ने कहा कि वे किसी से नहीं डरते किसान के बेटे हैं देश के लिए मर मिट जायेंगे। धनखड़ ने खरगे को बातचीत के लिए अपने चैंबर में आमंत्रित करते हुए कहा कि वे सदन में पैदा हुए गतिरोध को तोड़ना चाहते हैं । दोनों के बीच बातचीत से ही समाधान का रास्ता निकलेगा। इस पर खरगे ने कहा कि जो सभापति मेरा सम्मान नहीं करता मैं उसका सम्मान नहीं कर सकता ।सदन का माहौल शुक्रवार को भी बहुत तनावपूर्ण रहा । दरअसल  सत्ता पक्ष के चार सांसदों राधा मोहन अग्रवाल , सुरेंद्र नागर , नीरज शेखर और किरण चौधरी ने प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की अनुमति लेकर सभापति के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव की बात मीडिया में ले जाने अराजक और अभद्र भाषा का प्रयोग सोशल मीडिया में करने पर आपत्ति जतायी । राधा मोहन ने कहा कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का सम्मान न करना कांग्रेस की पुरानी परंपरा है । पंडित नेहरू भी देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का सम्मान नहीं करते थे । सोशल मीडिया में नेता प्रतिपक्ष द्वारा सभापति पर लगाए गए  10 आरोपी को राधा मोहन अग्रवाल ने 10 जनपथ की चाटुकारिता बताया । उन्होंने कहा 82 साल की उम्र में खरगे चाटुकारिता की सभी हदें पार कर रहे हैं । दरअसल पूरी कांग्रेस पार्टी को संविधान पर ही विश्वास नहीं है । राधा मोहन अग्रवाल ने अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने वाले 60 सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन नोटिस दिया ।  भाजपा सांसद सुरेंद्र नागर ने कहा कि सभापति एक गरीब किसान के घर पैदा हुए उनका उपराष्ट्रपति पद पर पहुंचना कांग्रेस की किसान , दलित और ओबीसी विरोधी मानसिकता को पसंद नहीं  रहा है । भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर ने कहा इनको किसान के बेटे के आगे बढ़ने पर तकलीफ है ये चाहते हैं बस एक परिवार ही आगे बढ़े । किरण चौधरी ने भी जगदीप धनखड़ का बचाव करते हुए कहा कि विपक्ष ने केवल उपराष्ट्रपति का अपमान नहीं किया बल्कि पूरी किसान बिरादरी का अपमान किया है । पूरा देश देख रहा है कि ये क्या नौटंकी कर रहे हैं ।

भाजपा सांसदों का प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की अनुमति और बोलने का समय दिए जाने पर खरगे ने कड़ी आपत्ति जतायी । उन्होंने सभापति से कहा कि भाजपा सांसद बार बार मेरा नाम लेकर अपमान कर रहे हैं और आप चुपचाप सुन रहे हैं । आप केवल सत्ता पक्ष के सांसदों को समय देकर संविधान के खिलाफ जा रहे हैं । टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन खरगे के समर्थन में उनकी सीट तक पहुंच गए ।डीएमके सांसद त्रिची शिवा और आम आदमी पार्टी ,सांसद संजय सिंह ने केवल सत्ता पक्ष के सांसदों को बोलने का मौका देने के लिए सभापति की आलोचना की ।

मंदिर-मस्जिद से जुड़ा नया केस कोर्ट में नहीं होगा दर्ज, सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को पूजास्थल कानून (प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट-1991) को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई हुई। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया संजीव खन्ना ने कहा कि जब तक हम इस मामले पर सुनवाई कर रहे हैं, तब तक देश में धार्मिक स्थलों को लेकर कोई नया मामला दाखिल नहीं किया जाएगा।

केंद्र सरकार को 4 हफ्ते का दिया समय
एक्ट के खिलाफ CPI-M, इंडियन मुस्लिम लीग, NCP शरद पवार, राजद एमपी मनोज कुमार झा समेत 6 पार्टियों ने याचिका लगाई है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि केंद्र सरकार 4 हफ्ते में अपना पक्ष रखे। सीजेआई ने कहा कि इस मामले की अगली सुनवाई तक मंदिर-मस्जिद से जुड़ी किसी भी नए मुकदमे को दर्ज नहीं किया जाएगा। इस याचिका पर चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की स्पेशल बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के एक समूह में हलफनामा दायर करने को कहा है, जो किसी पूजा स्थल पर पुर्ण दावा करने या 15 अगस्त,1947 को प्रचलित स्वरूप में बदलाव की मांग करने के लिए मुकदमा दायर करने पर रोक लगाता है।

कोई अदालत इस पर सर्वे का आदेश दें
कोर्ट का कहना है कि पूजा स्थल एक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई और उनका निपटारा होने तक देश में कोई और मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने ये भी कहा है कि निचली अदालट कोई भी इस पर प्रभावी या अंतिम आदेश न दें। सर्वे का भी आदेश न दें।

क्या है वर्शिप एक्ट ?
संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत नागरिकों को अपने धर्म को मानने और उसका पालन करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। यह कानून इसी अधिकार के तहत किसी भी धार्मिक स्थल को एक धर्म से दूसरे धर्म में बदलने पर बैन लगाता है। प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट कानून सभी धार्मिक स्थलों पर लागू होता है। यानी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या किसी भी धर्मस्थल को दूसरे धर्म में नहीं बदला जा सकता। कानून में यह प्रावधान भी है कि धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर अगर कोई कानूनी विवाद होता है, तो फैसला देते समय 15 अगस्त 1947 की स्थिति पर विचार किया जाएगा।

इस एक्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकील राजू रामचंद्रन ने कहा कि अलग-अलग कोर्ट में 10 सूट दाखिल हुए हैं। इनमें आगे की सुनवाई पर रोक लगाए जाने की जरूरत है। केंद्र सरकार ने इस मांग का विरोध किया। सुप्रीम ने मथुरा का मामला जिक्र करते हुए कहा कि यह मामला और दो अन्य सूट पहले से ही कोर्ट के सामने लंबित है।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने य़ाचिकाओं के खिलाफ दायर किया केस
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इन याचिकाओं के खिलाफ याचिका दायर की है। जमीयत का तर्क है कि एक्ट के खिलाफ याचिकाओं पर विचार करने से पूरे देश में मस्जिदों के खिलाफ मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ज्ञानवापी मस्जिद का रखरखाव करने वाली अंजुमन इंतजामिया मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी ने भी इन याचिकाओं को खारिज करने की मांग की है।

सरकार का बड़ा फैसला,‘एक देश-एक चुनाव’ विधेयक को मोदी कैबिनेट की मंजूरी

नई दिल्ली :  मोदी कैबिनेट ने गुरुवार को वन नेशन वन इलेक्शन को मंजूरी दे दी है। जानकारी के अनुसार अब संसद में जल्द ही इसे पेश भी किया जा सकता है। सूत्रों ने बताया कि केंद्र सरकार यह विधेयक संसद के इसी शीतकालीन सत्र में ही ला सकती है।

कैबिनेट एक देश एक चुनाव पर बनी रामनाथ कोविंद समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी है। सरकार चाहती है कि इस बिल पर आम राय बने। सभी हितधारकों से विस्तृत चर्चा हो। जेपीसी सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से चर्चा करेगी। इसके साथ ही सभी राज्य विधानसभाओं के स्पीकरों को भी बुलाया जा सकता है। देश भर के प्रबुद्ध लोगों के साथ ही आम लोगों की राय भी ली जाएगी। एक देश एक चुनाव के फायदों, उसे करने के तरीकों पर विस्तार से बात होगी। सरकार को उम्मीद है कि इस बिल पर आम राय बनेगी।

मोदी सरकार इस बिल को लेकर लगातार सक्रिय रही है। सरकार ने सितंबर 2023 में इस महत्वाकांक्षी योजना पर आगे बढ़ने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई में एक समिति का गठन किया था। कोविंद समिति ने अप्रैल-मई में हुए लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले मार्च में सरकार को अपनी सिफारिश सौंपी थी। केंद्र सरकार ने कुछ समय पहले समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था। रिपोर्ट में 2 चरणों में चुनाव कराने की सिफारिश की गई थी। समिति ने पहले चरण के तहत लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की है। जबकि दूसरे चरण में स्थानीय निकाय के लिए चुनाव कराए जाने की सिफारिश की गई है।

इसके साथ आपको ये भी बता दें कि एक देश एक चुनाव (वन नेशन, वन इलेक्शन) एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसके तहत भारत में लोकसभा और राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की बात की गई है। यह बीजेपी के मेनिफेस्टो के कुछ जरूरी लक्ष्यों में भी शामिल है। चुनावों को एक साथ कराने का प्रस्ताव रखने का यह कारण है कि इससे चुनावों में होने वाले खर्च में कमी हो सकती है।

हरियाणा सरकार ने तय की सेवाओं की समय-सीमा 

सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत गुरुग्राम और फरीदाबाद महानगर विकास प्राधिकरणों की 16-16 सेवाएं की गईं अधिसूचित

हरियाणा सरकार द्वारा सेवा का अधिकार अधिनियम-2014 के तहत गुरुग्राम महानगर विकास प्राधिकरण और फरीदाबाद महानगर विकास प्राधिकरण की 16-16 सेवाएं अधिसूचित की गई हैं।

इस मामले में मुख्य सचिव डॉ. विवेक जोशी द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार, इन दोनों महानगर विकास प्राधिकरणों के क्षेत्र के भीतर स्थित इकाइयों के लिए सी.एल.यू. की अनुमति (सरकार की सक्षमता को छोड़कर) 60 दिनों में और प्राधिकरणों द्वारा सी.एल.यू. अनुमति प्राप्त स्थलों की भवन योजनाओं की स्वीकृति 90 दिनों में दी जाएगी। ऑक्यूपेशन सर्टिफिकेट बिना किसी अपराध के मामलों में 60 दिनों और अन्य मामलों में 90 दिनों में जारी किया जाएगा।

पंजाब अनुसूचित सड़क और नियंत्रित क्षेत्र अनियमित विकास प्रतिबंध अधिनियम-1963 के उपबंधों के अधीन ईंट-भट्ठों और चारकोल भट्ठों के लाइसेंस 30 दिनों में जारी किए जाएंगे। नए जलापूर्ति कनेक्शन, सीवरेज और ड्रेनेज कनेक्शन (थोक और औद्योगिक कनेक्शन) 12 दिनों में प्रदान किए जाएंगे। जल निकास के नए कनेक्शन भी 12 दिनों में जारी किए जाएंगे, जबकि पानी का रिसाव और पाइप ओवरफ्लो की समस्याएं तीन दिनों में हल की जाएंगी। मुख्य सीवर लाइन के मेनहोल पर ब्लॉकेज या ओवरफ्लो को सात दिनों में ठीक किया जाएगा।

इन दोनों प्राधिकरणों की पम्पिंग मशीनरी, इलेक्ट्रिक, वायरिंग, वितरण प्रणाली आदि में खराबी जैसी छोटी-मोटी समस्याओं के कारण जलापूर्ति बहाली तीन दिनों में की जाएगी। अनुपचारित जल की कमी, ट्रांसफार्मर जलना, एच.टी./एल.टी. लाइनों में खराबी आदि बड़ी समस्याओं के चलते जलापूर्ति बहाली छः दिनों में जबकि ट्रांसफार्मर जलना, एच.टी. / एल.टी. लाइनों में खराबी, मुख्य जलापूर्ति लाइन में रिसाव आदि के कारण जलापूर्ति बहाली 10 दिनों में की जाएगी। इसी प्रकार पानी और सीवर का डुप्लीकेट बिल तीन दिनों में जारी किया जाएगा तथा बिलों में त्रुटियों का सुधार 10 दिनों में किया जाएगा।

प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाने, संचार बुनियादी ढांचे और सम्बन्धित स्थापना, बिजली लाइन और स्वास्थ्य सेवाओं आदि के लिए राइट ऑफ वे की अनुमति 60 दिनों में दी जाएगी। दोनों महानगर विकास प्राधिकरणों की इन सेवाओं के लिए पदनामित अधिकारी, शिकायतों के निवारण के लिए प्रथम और द्वितीय अपीलीय अधिकारी भी नामित किए गए हैं।

नाबार्ड के दावे और ग्रामीणों की हक़ीक़त

– राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक ने अपनी रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय और बचत में बढ़ोतरी का किया है दावा

योगेश

राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने अपने अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (एनएएफआईएस) 2021-22 में गाँव के लोगों की वार्षिक आय 9.5 प्रतिशत बढ़ने का दावा किया है। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि गाँवों में रहने वाले लोगों की औसत आय वित्त वर्ष 2016-17 में 8,059 रुपये महीने की थी और यह औसत आय वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 12,698 रुपये महीना हो गयी है। पाँच साल के औसत में ग्रामीण लोगों की आय में यह वृद्धि 57.6 प्रतिशत है, जो हर साल 9.5 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ी है। नाबार्ड ने ग्रामीण लोगों की आय में इस वृद्धि को चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर का संकेत बताया है।

इस दौरान बचत में भी वृद्धि देखी गयी है। इसके अलावा नाबार्ड ने यह भी बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 13,209 रुपये हुई है, जबकि वित्त वर्ष 2016-17 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 9,104 रुपये ही थी। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में 66 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की बचत की सूचना के आधार पर यह साफ़ है कि ग्रामीण लोगों की आय बढ़ी है। लेकिन नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् बढ़ने के अलावा उनका ख़र्चा बढ़ने की भी बात कही है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 47.4 प्रतिशत क़ज़र् था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह ग्रामीणों का औसत घरेलू ख़र्च वित्त वर्ष 2016-17 में 6,646 रुपये महीना था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 11,262 रुपये महीना हो गया। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीणों का ख़र्च खाद्य पदार्थों पर चार प्रतिशत घटा है, जबकि अन्य चीज़ों पर बढ़ा है। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीण परिवारों में कम-से-कम एक सदस्य का बीमा कराने वालों की संख्या भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में बीमा कराने वालों की संख्या 25.5 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 80.3 प्रतिशत हो गयी।

नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय बढ़ी हुई दिखायी ज़रूर गयी है, पर गाँवों में बसने वाले लोगों की आय का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें गाँवों के ही कुछ पैसे वाले लोगों से 10 से 12 प्रतिशत ब्याज पर क़ज़र् उठाना पड़ता है। कई ग्रामीणों ने बताया कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, उन्हें तो हर दिन एक-एक पैसे के लिए दि$क्क़तों का ही सामना करना पड़ता है।

ओंकार नाम के एक ग्रामीण ने बताया कि उनके पास न तो ज़्यादा खेती है और न ही कोई रोज़गार है। तीन बच्चों की पढ़ाई और पालने का ख़र्च बहुत ज़्यादा है। मज़दूरी कभी-कभी मिल जाती है, जिससे गुज़ारा भी नहीं हो पता। मोहन स्वरूप नाम के एक किसान ने बताया कि उनकी सात बीघा खेती है, पर गुज़ारा नहीं हो पाता। बेटी की शादी में क़ज़र् लिया था, चार साल हो गये और अभी क़ज़र् नहीं चुका पाया है। एक बेटा है, जो बाहर रहकर फैक्ट्री में नौकरी करता है, पर उसकी उतनी तन$ख्वाह नहीं है कि वो हमारी मदद कर सके। कुछ लोगों को छोड़कर दूसरे ज़्यादातर ग्रामीणों की भी कुछ ऐसी ही दशा है।

हमारा देश एक कृषि प्रधान देश होने के बाद भी किसानों का जीवन-यापन आसान नहीं है। खेती पर निर्भर किसानों और मज़दूरों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं है। गाँवों में संख्या भी उन्हीं की ज़्यादा है। हमारे देश के सभी राज्यों में ज़्यादातर किसानों और मज़दूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। उनकी आय उनके ख़र्च से बहुत कम है। किसानों को हर दिन आय नहीं होती है। सब्ज़ियाँ उगाने वाले किसानों को भी सप्ताह या महीने में ही कुछ पैसा देखने को मिलता है। लेकिन खेती में लागत हर दिन लगती है। बुवाई, बीज, खाद, पानी, दवाई, जुताई, निकाई, गुड़ाई, ढुलाई, कटाई और बाज़ार में फ़सलें बेचने जाने तक किसान को पैसा ख़र्च करना पड़ता है। साथ ही खेती में हर दिन परिश्रम की ज़रूरत रहती है, जो किसान परिवार ख़ुद ही ज़्यादातर करता रहता है। महँगाई और लागत बढ़ने के हिसाब से किसानों की आय नहीं बढ़ी है, दोगुनी आय की तो बात ही नहीं है। लेकिन नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर ऐंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) के ऑल इंडिया रूरल फाइनेंशियल इन्क्लूजन सर्वे 2021-22 में ऐसा ही दिखाया गया है। ये सर्वे धरातल पर कितने सही हैं और हुए हैं कि नहीं, इस बारे में नाबार्ड ही बेहतर जाने। ग्रामीणों तो बता रहे हैं कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, जितनी आय बढ़ी है, उससे ज़्यादा ख़र्चे बढ़े हैं।

नाबार्ड ने बताया है कि देश में सबसे ज़्यादा आय पंजाब के किसानों की है, जहाँ का हर किसान परिवार हर महीने औसतन 31,433 रुपये कमाता है। इसके बाद हरियाणा के किसान परिवारों की आय दूसरे नंबर पर है, जहाँ हर किसान परिवार की औसत आय 25,655 रुपये महीने तक है। केरल भी किसान परिवारों की आय में आगे है, जहाँ हर किसान परिवार की आय 22,757 रुपये महीना है। वहीं देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्तर प्रदेश में किसान परिवारों की औसत आय 10,847 रुपये महीना ही है। देश में सबसे कम आय बिहार के किसानों की है, जहाँ हर किसान परिवार 9,252 रुपये महीने की ही औसत आय पर गुज़ारा कर रहा है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 18 राज्यों के किसान परिवारों की औसत आय 10,000 रुपये महीने से भी कमा थी। नाबार्ड ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में पाँच वर्षों में किसान परिवारों की आय 63 प्रतिशत बढ़ी है। वित्त वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश में कृषि परिवारों की औसत आय 6,668 रुपये महीने ही थी। दूसरी तरफ़ नाबार्ड ने अपने सर्वेक्षण एनएफएमएस में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् वित्त वर्ष 2016-17 की अपेक्षा 47.4 प्रतिशत बढ़ गया है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2024-25 में बैंकों ने कृषि क़ज़र् का रिकॉर्डतोड़ वितरण किया है, पर यह क़ज़र् 20 ट्रिलियन रुपये के लक्ष्य के साथ अस्थिर बना हुआ है। अब नाबार्ड पूरे देश में विभिन्न पायलट एसोसिएट्स को लागू कर रहा है, जिसमें वह कृषि क़ज़र् के कारोबार में तेज़ी करेगा और इसके लिए नाबार्ड रिजर्व बैंक की इकाई भारतीय रिजर्व बैंक की भागीदारी लेकर सहायता लेगा। नाबार्ड ने क्लाइमेट स्ट्रेटेजी 2030 तैयार की है, जिसमें हमारे देश की हरित आधारभूत ज़रूरतों को पूरा करने का उद्देश्य है। लेकिन ग्रामीणों को क़ज़र् की व्यवस्था करने के अलावा ग्रामीण विकास में नाबार्ड का कोई योगदान ऐसा नहीं है, जिससे किसानों की आर्थिक मज़बूती बढ़ सके।

यहाँ किसानों को जान लेना चाहिए कि नाबार्ड सीधे व्यक्तिगत रूप से किसानों को सीधे क़ज़र् कभी नहीं देता है। उसने ग्रामीण और सहकारी बैंकों के द्वारा ही किसानों को क़ज़र् देने का काम किया है। वह वित्तीय संस्थानों और ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े बैंकों को ही वित्तीय मदद देता है, जिसे नाबार्ड द्वारा लिये जाने वाले ब्याज से ज़्यादा पर बैंक उठाते हैं। इससे किसानों पर नाबार्ड का नहीं, बैंकों का दबाव रहता है। नाबार्ड ने वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान झारखण्ड के विकास के लिए 6,200 करोड़ रुपये का क़ज़र् देने की पेशकश की थी। हर राज्य को नाबार्ड क़ज़र् देने का काम करता है, जिससे ग्रामीणों पर क़ज़र् बढ़ता जा रहा है। हमारे देश में घनी आबादी वाले ग्रामीण इलाक़ों में कृषि और कृषि आधारित उद्योग जलवायु पर निर्भर हैं। इससे किसानों को फ़सलों की मनचाही उपज नहीं मिल पाती। इसके अलावा किसानों को फ़सलों का सही मूल्य नहीं मिल पता। इन सबके चलते ज़्यादातर किसान समय पर बैंक का क़ज़र् नहीं उतार पाते हैं और क़ज़र्दार होते चले जाते हैं।

उद्योगपति कभी नहीं चाहते कि ग्रामीण लोग ख़ुशहाल हों और वो छोटे-छोटे कृषि सम्बन्धी उद्योग भी चला सकें। अगर ऐसा होता है, तो उद्यमियों की बढ़ी हुई आय घटने लगेगी और उन्हें अमीरी पर ख़तरा मँडराता दिखने लगता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों को उद्यमों से दूर रखने की भी साज़िश होती है, जिससे ग्रामीण लोग आत्मनिर्भर न बन सकें। नाबार्ड ने यह ज़रूर कह दिया है कि वह ग्रामीण लोगों की आय बढ़ते देख रहा है और नाबार्ड इसमें अपना योगदान भी दिखा रहा है, पर ग्रामीणों की आय धरातल जितनी बढ़ी है, उससे ज़्यादा उनका ख़र्च बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में अगर ख़ुशहाली आयी भी है, तो उसके पीछे घर में किसी-न-किसी सदस्य को बाहर रहकर नौकरी करके या फिर व्यापार करना है। इसमें नाबार्ड की कोई ख़ास पहल नहीं मानी जा सकती। नाबार्ड 2024-25 में पोलैंड में सोशल बैंक जारी करने की योजना बना रहा है; पर हमारे देश के कई राज्यों में किसान और मज़दूर क़ज़र् में भी डूब रहे हैं। किसानों के क़ज़र् को माफ़ करने का काम भी नहीं हो रहा है। उचित एमएसपी के इंतज़ार में आज भी किसान हैं और उन्हें इसके लिए कई वर्षों से केंद्र सरकार से संघर्ष करना पड़ रहा है। नाबार्ड ने ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ने के दो साल पहले के आँकड़े इस साल दिये हैं। लेकिन ग्रामीणों की समस्याओं और आर्थिक तंगी को लेकर अभी सच बाहर नहीं आया है। ग्रामीण युवाओं के पास रोज़गार की कमी है, जिसे लेकर नाबार्ड को बताना चाहिए था। अभी ग्रामीणों को सरकार की काफ़ी मदद की ज़रूरत है, जिससे उनका जीवन स्तर ऊँचा उठ सके और वे ख़ुशहाल हो सकें।

भारत में हत्या, आत्महत्या और इच्छामृत्यु की वास्तविकता

भारत में ग़रीबी और भुखमरी से मरने पर किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति को सज़ा देने का कोई विकल्प नहीं है। सरकारें अपनी इच्छा से ऐसे मामलों में मुआवज़ा दे सकती हैं। लेकिन आत्महत्या की कोशिश करने पर सज़ा का प्रावधान है। हालाँकि ज़्यादातर मामले तब सामने आते हैं, जब कोई आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या की कोशिश के भी बहुत-से मामले आये दिन होते हैं; लेकिन ऐसे मामले वहीं के वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिये जाते हैं और ऐसी कोशिश करने वाले सज़ा से बच जाते हैं। इसी आत्महत्या की कोशिश को कोई अगर क़ानूनी तरीक़े से कोई अंजाम देना चाहे, तो उसे इच्छामृत्यु कहते हैं।

छत्तीसगढ़ के भरतपुर सोनहत स्थित बदरा गाँव के रहने वाले एक 43 वर्षीय शंकर यादव नाम के बीमार युवक ने छत्तीसगढ़ सरकार के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल और भरतपुर सोनहत की भाजपा विधायक रेणुका सिंह को पत्र लिखकर राज्य की भाजपा सरकार से इच्छा मृत्यु की माँग की है। शंकर यादव ने पत्र में लिखा है कि उसे लंबे समय से फाइलेरिया नाम की गंभीर बीमारी है, जिसके इलाज में उसकी ज़मीन बिककर लग गयी। उसकी माँ बोल नहीं सकती और काम करके उसका इलाज करा रही है। इसलिए राज्य सरकार उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त दे या फिर उसका इलाज कराए। हालाँकि इच्छामृत्यु की इजाज़त देने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के मुताबिक, इच्छामृत्यु की इजाज़त तब दी जा सकती है, जब इच्छामृत्यु की माँग करने वाला व्यक्ति ख़ुद ही गंभीर बीमारी से पीड़ित हो और वह अपनी इच्छा से मृत्यु चाहता हो। लेकिन इसकी जानकारी उसके परिवार वालों को भी हो और डॉक्टरों की टीम कह दे कि मरीज़ नहीं बच सकेगा। या मरीज़ लंबे समय से कोमा में हो और डॉक्टर उसे बचाने में नाकाम हों। मरीज़ की लाइलाज बीमारी या कोमा में उसके होने पर ही ऐसा किया जा सकता है। लेकिन फिर भी डॉक्टर यह लिखकर दें कि मरीज़ ने अपनी इच्छा से मृत्यु का अनुरोध किया है।

भारत में इच्छामृत्यु का संविधान में वैसे तो कोई प्रावधान नहीं है और न ही संसद ने अभी तक ऐसा कोई प्रावधान संविधान में जोड़ा है; लेकिन इच्छामृत्यु के लिए कोर्ट जाया जा सकता है। अभी तक के भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट ने 09 मार्च, 2018 को हरीश नाम के एक युवक को उसके पिता की याचिका पर इच्छामृत्यु की मंज़ूरी दी है। समय कोर्ट के पाँच जजों की बेंच ने इस मामले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जिस तरह व्यक्ति को जीने का अधिकार है, उसी तरह गरिमा से मरने का अधिकार भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस युवक की गंभीर बीमारी के चलते उसे निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) को मंज़ूरी दी थी, जिसके तहत युवक का इलाज बंद किया गया था, जिससे वो मर सके। हालाँकि इस मामले में फ़ैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि आत्महत्या का प्रयास करने वालों को आईपीसी की धारा-309 के तहत सज़ा देने का प्रावधान किया गया है और इच्छामृत्यु को भी आत्महत्या का प्रयास ही माना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद-21 के अंतर्गत जीने के अधिकार में किसी को ख़ुद की इच्छा से मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। हालाँकि फिर भी इच्छामृत्यु को स्वैच्छिक, ग़ैर-स्वैच्छिक और अनैच्छिक जैसे तीन भागों में बाँटा गया है। लेकिन किसी को इच्छामृत्यु सक्रिय और निष्क्रिय, दो ही रूपों में दिये जाने का प्रावधान माना गया है। अभी तक भारत में किसी को सक्रिय इच्छामृत्यु नहीं दी गयी है। क्योंकि सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज़ को सीधे मौत दी जाती है, जबकि निष्क्रिय इच्छामृत्यु में उसका इलाज बंद कर दिया जाता है, वेंटिलेटर सपोर्ट हटा ली जाती है। भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु अवैध है और यह आईपीसी की धारा-302 या 304 के तहत अपराध है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट संसद से इस मामले में क़ानून बनाने को कह चुका है।

यह भी जान लेना ज़रूरी है कि क़ानूनी रूप से किसी को फाँसी देने को इच्छामृत्यु नहीं माना गया है। महाभारत में भीष्म पितामह की इच्छामृत्यु से लेकर ऋषि-मुनियों की इच्छामृत्यु के कई उदाहरण मिलते हैं; लेकिन अब भारत में इसके लिए सबसे पहली शर्त है कि इच्छामृत्यु चाहने वाला व्यक्ति गंभीर रूप से लाइलाज बीमारी का शिकार हो और डॉक्टर उसे बचाने से मना कर चुके हों। इसके बाद भी उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त तभी दी जा सकती है, जब उसके अलावा उसके परिवार वालों और इलाज करने वाले डॉक्टरों की पूर्ण सहमति हो, उसके बाद ही कोर्ट इस पर विचार कर सकते हैं। हालाँकि इच्छामृत्यु में किसी एक डॉक्टर की सहमति के कोई मायने नहीं हैं। हालाँकि आज भी न जाने कितने ही लालची डॉक्टर चोरी-छिपे बचाये जा सकने वाले मरीज़ों तक को मौत की नींद सुला देते हैं। आज बिना कोर्ट की इजाज़त के कई डॉक्टर गंभीर मरीज़ों को सक्रिय मौत के लिए परिवार वालों को सौंपकर बोल देते हैं कि अब इनकी सेवा कर लो, इलाज का कोई फ़ायदा नहीं। भारत में गंभीर बीमारी से पीड़ित 1,000 मरीज़ों में सात मरीज़ों को आज ऐसी ही मौत दी जाती है; लेकिन क़ानून इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। और इस हत्या से बचने के लिए उनके पास सबसे आसान तरीक़ा मरीज़ के परिवार वालों से ऐसे बॉन्ड पर साइन करा लेना है, जिस पर साफ़-साफ़ लिखा होता है कि मरीज़ की हालत सीरियस है और इलाज के दौरान उसकी मौत की ज़िम्मेदारी अस्पताल, डॉक्टर और अस्पताल के किसी स्टाफ की नहीं होगी। आत्महत्या के मामले में भी यही होता है कि आत्महत्या करने वाले इच्छामृत्यु माँगने की जगह सीधे आत्महत्या कर लेते हैं और ज़्यादातर मामलों में ऐसे लोगों को इस जघन्य अपराध के लिए उकसाने वाले या इसके लिए ज़िम्मेदार लोग बच जाते हैं। इसी वजह से भारत में इच्छामृत्यु की भले ही इजाज़त न हो; लेकिन हत्याएँ और आत्महत्याएँ $खूब होती हैं।

भारत में इच्छामृत्यु की इजाज़त न होने के चलते ही छत्तीसगढ़ के मरीज़ शंकर यादव के पत्र के बाद उनकी 17 साल पुरानी फाइलेरिया बीमारी के इलाज के छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल ने स्वास्थ्य अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दिये हैं कि वे मरीज़ की हर संभव मदद करें। लेकिन सवाल यह है कि आज भी भारत में लाखों ऐसे लोग हैं, जो गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि या तो वे ठीक हो जाएँ या उन्हें मौत आ जाए। किसी ऐसे मरीज़ को क़रीब से देखने और उसका दर्द सुनने पर मन दु:खी हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मरीज़ों से पैसा लूटने के लिए इलाज को असाध्य बना देने वाले डॉक्टरों को कभी किसी मरीज़ की तकलीफ़ और पैसे की परेशानी के मद्देनज़र उस पर दया आती है? इसका जवाब न या हाँ में भी मिल सकता है; लेकिन ज़्यादातर मामलों में जवाब न ही होगा। क्योंकि मरीज़ों को बचाने के नाम पर लूट का जो खेल भारत के निजी अस्पतालों में चल रहा है, न तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है और न ही डॉक्टरों द्वारा मरीज़ों को लापरवाही, ग़लत इलाज या पैसे के लिए मार देने के किसी मामले में कोई सज़ा ही मिलती है। यही वजह है कि दूसरा भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर्स में काफ़ी बड़ी संख्या ऐसे डॉक्टर्स की है, जो मरीज़ों की जान से ज़्यादा अपनी फीस और दूसरे चार्जेज की परवाह करते हैं और अपना पैसा वसूलने के लिए मरीज़ों और उनके परिजनों के साथ क्रूरतम व्यवहार करते हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ही अशोक राणा और निर्मला देवी नाम के दंपति की अपने बेटे के लिए इच्छामृत्यु की अपील ठुकरा दी थी। इस बुजुर्ग दंपति का 30 साल का इकलौता बेटा क़रीब 11 साल से कोमा में है और उसे नाक में नली डालकर खाना-पीना दिया जाता है। डॉक्टर मरीज़ की हालत में सुधार से इनकार कर रहे हैं और बुजुर्ग दंपति इलाज कराते-कराते कंगाल हो चुके हैं। बुजुर्ग दंपति ने सुप्रीम कोर्ट से अपने बेटे की नाक से खाना देने वाली राइल्स ट्यूब हटाने की इजाज़त माँगी थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की ही इजाज़त है, जिसके दायरे में राइल्स ट्यूब का हटाना नहीं आता है। क्योंकि राइल्स ट्यूब मेडिकल सपोर्ट नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का मतलब है कि किसी को खाना न देकर तड़पा-तड़पाकर मार देना सक्रिय मौत यानी इच्छा-मृत्यु देने के बराबर है, जो कि एक अपराध है। भारत में गंभीर और लाइलाज बीमारी के मामले में सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ इलाज सपोर्ट हटाने की इजाज़त दे चुका है और भविष्य में भी शायद वो ऐसे मामलों में इसकी इजाज़त दे, जो कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु के दायरे में आता है। लेकिन सवाल यह है कि फिर भारत में भूख से तड़प-तड़पकर मर जाने वालों के लिए किसी सरकार या प्रशासन की ज़िम्मेदारी तय क्यों नहीं की गयी है? बहुत पहले क़रीब 42 साल तक कोमा में रहने पर भी मुंबई की बलात्कार पीड़ित नर्स अरुणा शानबाग को सुप्रीम कोर्ट ने 07 मार्च, 2011 को निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाज़त नहीं दी थी; जबकि उनका अपराधी बहुत पहले ही महज़ सात साल की सज़ा काटकर जेल से छूट गया था।

मौज़ूदा केंद्र सरकार ने सन् 2016 में मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेशेंट विधेयक-2016 यानी प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट ऐंड मेडिकल प्रैक्टिशनर बिल-2016 तैयार किया था, जिसमें निष्क्रिय इच्छामृत्यु की बात तो की गयी; लेकिन लिविंग विल शब्द का कहीं उल्लेख नहीं किया गया। आत्महत्याएँ रोकने के लिए भी केंद्र सरकार न तो कोई ठोस कठोर क़ानून बना पायी है और न ही इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की सज़ा बढ़ा पायी है। लोगों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने के पीछे कहीं-न-कहीं सरकार की योजनाओं का भी हाथ है। भुखमरी, बेरोज़गारी, क़ज़र् और नशा ऐसी ही समस्याएँ हैं, जिनके चलते हर साल लाखों लोग आत्महत्या के रास्ते मौत की नींद सो जाते हैं। लेकिन ऐसी मौतें रोकने के लिए क़ानूनी रूप से कोई प्रतिबंध नहीं लग सका है। यही वजह है कि आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। अगर भारत में इच्छामृत्यु माँगने की इजाज़त पीड़ितों को होती, तो काफ़ी लोगों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की पिछली रिपोर्ट्स को अगर आधार मानें, तो यह साफ़ हो जाएगा कि भारत में आत्महत्या के मामले दो से चार प्रतिशत सालाना के हिसाब से लगातार बढ़ रहे हैं। इसके अलावा सज़ा के अभाव या सज़ा कम होने के चलते हत्याओं का सिलसिला भी नहीं थम रहा है। लाइलाज बीमारी से परेशान लोगों को इच्छामृत्यु की इजाज़त न देने वाले भारत में हत्याओं और आत्महत्याओं को इस तरह बढ़ावा ही मिल रहा है, जिस पर किसी का ध्यान तक नहीं जा रहा है।

अयोध्या में अपराध घटे, गंदगी बढ़ी

राम की नगरी अयोध्या में अपराध बहुत कम है। चोरी की छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़कर अपराध का प्रतिशत काफ़ी कम हो चुका है। ऐसा वहाँ के ज़्यादातर लोग और पुलिस वाले बताते हैं। और तो और इस पवित्र नगरी में वानरों की बड़ी आबादी है। वे भी उतने हिंसक नहीं हैं। हाँ, जब कोई उनके बच्चों से छेड़-ख़ानी करता है, तो वे हिंसक ज़रूर हो उठते हैं। लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ शहर की गलियों में जगह-जगह गंदगी के ढेर लगे दिखायी देते हैं। ऐसा नहीं है कि वहाँ से कचरा उठाया नहीं जाता; लेकिन बहुत-से लोग गंदगी डालने से बाज़ नहीं आते। स्थानीय निवासी तंग हैं और विकास व सफ़ाई चाहते हैं।

 भव्य राम मंदिर में साफ़-सफ़ाई और सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद है। धमकियों से क्या कोई ख़तरा तो नहीं होता? यह सवाल सुनकर सुरक्षाकर्मी आश्चर्यजनक रूप से हँस देते हैं और वह आत्मविश्वास से भरे दिखायी देते हैं। मंदिर में कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है। साढ़े 300 एकड़ का क्षेत्र है। पैदल चलना बहुत मुश्किल लगता है। पैदल बहुत चलना पड़ता है, इसलिए छोटे-छोटे कंकड़ पत्थर चलना मुश्किल कर देते हैं। इस रास्ते पर टाट अथवा मैट आदि बिछा दिया जाए, तो पैदल चलना सुुगम हो जाए। बच्चे और वृद्ध लोग इससे काफ़ी परेशान नज़र आये।

सुरक्षा कर्मियों के मुताबिक, लाखों लोग रोज़ रामलला के दर्शन को आ रहे हैं। 19 नवंबर की शाम तक कोई डेढ़ लाख लोगों ने दर्शन किये। साफ़-सफ़ाई बढ़िया है। कई तरह की व्यवस्था संतोषजनक है। अपराधियों पर निगरानी को लेकर एसपी ऑफिस की ओर से रामघाट पर तैनात सब इंस्पेक्टर रियाज़-उल-हक़ कहते हैं कि अयोध्या में क्राइम रेट काफ़ी कम है। इसका बड़ा कारण है शहर में जगह-जगह पुलिस मुस्तैद है। छोटी-छोटी घटनाओं को छोड़ दें, तो अपराध लगभग शून्य के बराबर है। राम की भूमि है, उसका भी असर है। ऐसा भी रियाज़ मानते हैं। दूसरी तरफ़ जैसे ही शहर की गलियों में प्रवेश करते हैं, गंदगी देखकर मन दु:खी होता है। स्थानीय लोग मानते हैं कि गलियों में सुबह-शाम कचरा उठाया जाता है। ढेरों कचरा उठाते सफ़ाईकर्मी देखे भी गये। लोगों का कहना है कि मंदिर और आश्रम वाले लोग ज़्यादा सहयोग नहीं करते। वे खुले में कचरा फेंक देते हैं। अयोध्या पहुँचे बिहार के अवनीश और दिल्ली के प्रह्लाद ने भी इन कचरे के ढेरों को देखकर नाराज़गी ज़ाहिर की। उनका कहना है कि गंदगी को कोई भी पसंद नहीं करता। बड़ी बात है कि नगर निगम के अलावा यहाँ मंदिर-आश्रम ट्रस्ट वालों के पास पर्याप्त से भी अधिक फंड है। वे भी अच्छी व्यवस्था करवा सकते हैं।

 अयोध्या के महापौर गिरीशपति त्रिपाठी से जब इस बारे में बात की गयी, तो उन्होंने बताया कि नगर निगम की तरफ़ से तय नियम से कचरा उठाया जाता है। मंदिरों और आश्रमों के लिए हमने डस्टबिनों की व्यवस्था की हुई है। उन्हें डस्टबिन दे रखे हैं। हमारी पूरी कोशिश है कि गलियों में गंदगी न रहे। ख़ास बात यह है कि महापौर माँ स्वयं भी एक मंदिर के महंत हैं।

हनुमत सदन के महंत अवध बिहारी शरण कहते हैं कि गलियों में कचरा इसलिए फेंक देते हैं, ताकि गलियों में घूमने वाले जानवर, जैसे- गायें, वानर आदि उस जूठन को खा सकें। क्योंकि विशेष तौर पर तो कौन उनको खाना बनाकर देने वाला है? क्या भारतीय संस्कृति में गंदगी ठीक है? क्या भगवान राम, राजा दशरथ और अन्य इसी तरह के माहौल में रहते थे महाराज? इन सवालों पर उन्होंने एकदम तीखी प्रतिक्रिया दी। ‘नहीं बिलकुल भी नहीं। गंदगी नहीं होनी चाहिए। इसके कई कारण है कि यहाँ जो लोग रह रहे हैं, उनको इसका महत्त्व पता नहीं है। वे सजग नहीं हैं। अयोध्या के आसपास निम्न सोच के लोग हैं। उनको इसकी चिन्ता नहीं है कि क्या करना है। पहले भी जैसे मेले होते थे, तो हम लोग ख़ुद सफ़ाई करते थे। अब टैंक और सीवर का सिस्टम आ गया है। खेत में जाने वाला आदमी नहीं जानता कि शहर में कैसे क्या करना है। हालाँकि पहले की अपेक्षा 75 फ़ीसदी सुधार हुआ है।’ वह कहते हैं- ‘जब तक विचार विकसित नहीं होगा, तब तक लोगों की ऐसी ही मनोवृत्ति रहेगी और गंदगी नहीं हट सकेगी।’

(ज़ीरो ग्राउंड रिपोर्ट)

कुंठित मानसिकता के पैरोकार

शिवेन्द्र राणा

राजनीति की खींचतान और महाराष्ट्र, झारखण्ड के विधानसभा चुनावों तथा उत्तर प्रदेश के उपचुनावों की गहमागहमी के बीच एक चौंकाने वाली ख़बर चर्चा में रही। दरअसल भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम के सदस्य और पूर्व बल्लेबाज़ी कोच संजय बांगर के क्रिकेटर बेटे आर्यन बांगर अपना लिंग परिवर्तित करवाकर अनाया बन गये हैं, जिसकी जानकारी उन्होंने इंस्टाग्राम के माध्यम से दी है। इस उदाहरण के अलावा कई अन्य लिंग परिवर्तन के उदाहरण इसके जीते-जागते प्रमाण हैं।

आइंस्टीन मानते थे कि विज्ञान का सारा ज्ञान सापेक्ष एवं सीमित है। वास्तव में ऐसा ही है क्या? क्योंकि वर्तमान में विज्ञान न तो सिर्फ़ ईश्वरीय सत्ता को चुनौती ही दे रहा है, बल्कि स्वयंभू ईश्वर का प्रतिरूप बनकर अवतरित हुआ है। यदि ऐसा न होता, तो वह जन्मना एक पुरुष को नारी के रूप में परिवर्तित करने में सक्षम नहीं होता। इसलिए यह कहने का जोखिम उठाया जा सकता है कि आइंस्टीन विज्ञान की ज्ञान शक्ति का मूल्यांकन करने में ज़रा-सा चूक गये; लेकिन रूसो नहीं। रूसो ने सन् 1750 ई. में पेरिस की साहित्यिक संस्था डी ज़ोन एकेडमी के लिए लिखे गये अपने निबंध में यह सिद्ध किया है कि विज्ञान और कला ने मनुष्य का पतन किया है। रूसो ने विज्ञान को मानव सभ्यता के भ्रष्ट करने वाले कारक के रूप में रेखांकित किया, तब नि:संदेह उनके ज्ञान चक्षुओं ने भविष्य की इन विसंगतियों की कल्पना कर ली होगी।

ख़ैर, विज्ञान तो मात्र एक ज़रिया है। इसकी मुख्य केंद्रीय शक्ति तो वह मानसिकता है, जिसने इस कार्य को साध्य बनने के लिए प्रेरित किया। इस घटना का मूल संदर्भ इस पर आधारित है कि किस प्रकार आज यूरोप और अमेरिका के बाद भारत जैसे देशों में भी स्त्री-पुरुष सम्बन्ध दूषित हुए हैं, जो 18वीं सदी तक इस प्रकार निर्धारित थे कि औरत घर पर रहकर घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सँभालेंगी और पुरुष बाहर का काम करेंगे। यह उस दौर का अनुबंध है, जब समाज मुख्यत: कृषि प्रधान ही था। लेकिन बाद में खेती के विकास के साथ-साथ शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की दौड़ में महिलाओं की भूमिका बढ़ने लगी।

अब इस नये तकनीकि युग में महिलाएँ हर क्षेत्र में थोड़ी कम संख्या में ही सही, पुरुषों के बराबर खड़ी हैं। और जबसे पारम्परिक संरचना में व्यापक बदलाव होने से लैंगिक संघर्ष बढ़ा है, जिसका मुख्य ध्येय समाज पर नियंत्रण स्थापित करना है। पूर्व में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध सहयोग की भावना पर आधारित था। बाद में जब समाज का स्वरूप पॉवर स्ट्रक्चर पर आधारित हुआ, तब शक्ति और नियंत्रण की प्राप्ति ही मुख्य लक्ष्य बन गयी। यहाँ आधी आबादी (महिलाएँ) जब सत्ता की लड़ाई में पड़ीं, तो समाज सेक्स फ्री की सोच लेकर यौन वर्जनाओं से मुक्त होने लगा। परिवार का सम्मान नहीं बचता दिख रहा है और समाज की मुख्य संस्था परिवार का अस्तित्व ही संकट में है, तो लिंग आधारित आग्रह भी बेमानी ही लगता है। फिर विज्ञान की अर्थलोलुप चिकित्सा (वर्तमान स्थितियों में यही संज्ञा ठीक है) ने इसमें दख़ल दिया। क्योंकि यहाँ उसे बड़ी आर्थिक सम्पन्नता की गारंटी दिखी। हालाँकि इस घटना को समझने के दूसरे नज़रिये हो सकते हैं; जैसे कि असीम आधुनिकता के इस युग में यह वाम पक्षीय वैचारिकी की व्यक्तिगत रुचि, प्रगतिशीलता, माई बॉडी-माई च्वाइस जैसे अनुषांगिक विचारों का भाग माना जाएगा। लेकिन इसे मूलत: एक मानसिक संकट ही स्वीकार किया जाना चाहिए।

वैचारिक विकृतियाँ मानव मस्तिष्क के उस हिस्से से उपजती हैं, जो अवचेतन मन के भावों का केंद्रीयभूत हिस्सा है। यह एक यूटोपिया निर्मित करता है, जिसके भीतर प्रभावित व्यक्ति और समाज एक अलग दुनिया में जीने लगता है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता गणितज्ञ जॉन नैश के जीवन पर आधारितचर्चित हॉलीवुड फ़िल्म ‘ए ब्यूटीफुल माइंड’ (2001) में एक टॉप सीक्रेट सैन्य मिशन के लिए गोपनीय रूप से काम करने वाला जॉन नैश बाद में एक दिमा$गी बीमारी श्चिजोफ्रेनिया का शिकार मिलता है। यही सिनेमाई फंतासी वर्तमान के वोग कल्चर के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के यथार्थ का निरूपण करती है, जहाँ लिंग परिवर्तन जैसे असामान्य कृत्य मात्र मन के तृप्ति जैसे क्षणिक आग्रह पर किये जा रहे हैं। असल में जिस विचारधारा के सैद्धांतिक नैरेटिव समाज में एक सर्वग्राह मूल्य के रूप में स्थापित होने लगते हैं।

जिन्हें भी यह लगता है कि 90 के दशक में सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप के पतन ने वामपंथ को ज़मींदोज़ कर दिया, वे भ्रम हैं। वामपंथ आज और भी शक्तिशाली तथा सर्वव्यापी है। कभी अमेरिका को अपनी भ्रमित विजय का भान हुआ था कि उसने बिना किसी प्रत्यक्ष युद्ध के शीतयुद्ध जीत लिया और रूस को विघटित कर वामपंथ का क़िला ढहा दिया; लेकिन वामपंथ ने तो बिना एक भी गोली चलाये पूरे अमेरिकी समाज को विखंडित कर दिया। उसके परिवारों, बच्चों और स्त्रियों को बर्बाद कर दिया।

60 के दशक में अमेरिकी वामपंथी हर्बर्ट मार्क्यूस के नेतृत्व में हुए लिबरल मूवमेंट, जिसने परिवार, समाज एवं राष्ट्र के संस्थापित मूल्यों को तिरस्कृत करते हुए उन्मुक्तता की आड़ में एक पतित, नशे से आबद्ध, अपराध, वासना एवं समलैंगिकता का धुंध खड़ा कर दिया। ध्यातव्य है कि यही वो समय है, जब स्त्री-उत्पीड़न से मुक्ति और फेमिनिज्म (महिलाओं के हिस्से के वामपंथ) के तराने तैरने लगे थे। 90 के दशक में प्रसारित उदारीकरण के बाद ग्लोबलाईजेशन की आँधी में दुनिया भर की राष्ट्रीय संस्कृतियाँ पश्चिमी की आधुनिकता में ढहने लगी, जिसके पार्श्व में वामपक्षीय सिद्धांतों का संबल था। अत: समाज का जो ध्वंस पश्चिम में हो रहा था, उसने बाद में एशिया-अफ्रीका के विकासशील और अर्द्ध-विकसित देशों को अपना निशाना बनाया। भारत भी उसी सूची में शामिल है।

वामपंथ के मक्का फ्रैंकफर्ट स्कूल की एक थ्योरी है पॉलिटिक्ल करेक्टनेस का मूल सिद्धांत है- ‘समाज को स्थापित मूल्यों और वैकल्पिक मूल्यों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए।’ यह एक प्रकार का बौद्धिक आंतकवाद ही है। आज पश्चिम का समाज भी इससे बुरी तरह प्रताड़ित है। जून, 2022 में मशहूर अमेरिकी उद्योगपति एलन मस्क का 18 वर्षीय बेटा जेवियर अपना लिंग परिवर्तन करवाकर विवियन जेना विल्सन बन गया। मस्क ने वामपंथ समर्थित वोक कल्चर को इसका कारण मानते हुए साफ़ कहा कि उनके बेटे की मौत यानी लिंग परिवर्तन की सर्जरी, जिसे डेडनेमिंग कहते हैं; वोक माइंड वायरस के कारण हुई है। उन्होंने घोषणा की है कि वह ट्रांसजेंडर मेडिकल ट्रीटमेंट को अपराध घोषित करने की लड़ाई लड़ेंगे और इस वायरस को ख़त्म कर देंगे, ताकि किसी और के बच्चे के साथ ऐसा न हो।

आज मस्क जैसे जेंडर फ्लूईडिटी को बुरा मानने वाले जो लोग हैं, उनमें मुख्य भाग धर्मनिष्ठ ईसाइयों का है और वामपंथ से जिसकी परम्परागत शत्रुता है। आप देखेंगे कि दुनिया के बाक़ी हिस्सों में भी जो वर्ग ऐसे विचारों का प्रबल प्रतिरोधी हैं, वे सब धार्मिक रूप से निष्ठ हिन्दू और मुस्लिम मत के अनुयायी हैं। हालाँकि ऐसे कृत्यों को साम्यवाद नहीं, अराजकतावाद कहना ज़्यादा उचित होगा; क्योंकि इसमें आर्थिक लाभ के लिए समाज का ध्वंस किया जा रहा है।

इन दिनों अमेरिका ने स्कूलों से लेकर बहुत-से सार्वजानिक स्थानों पर यूनिसेक्स वाशरूम का कॉन्सेप्ट लागू किया गया है, जहाँ लैंगिक पहचान का कोई अर्थ नहीं है। इसके पीछे मुख्य मान्यता है कि मानव शरीर विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न लैंगिक व्यवहार के लिए अनुकूलित हो जाता है। ज़रा सरल शब्दों में समझें, तो इसका सीधा अर्थ है- समलैंगिक सम्बन्धों को समाज में स्वीकृति देना। एक प्रकार से यह भी सामाजिक एवं पारिवारिक संस्थाओं, यहाँ तक कि विवाह पद्धति का ध्वंस ही है। लगता है पश्चिमी संस्कृति और सामाजिक आचार-विचार में उसका परम लक्ष्य भौतिक उपलब्धि ही एकमेव साध्य है।

ऐसे उदाहरण न तो वैज्ञानिक उपलब्धियों के चरम उन्नति के मानक हैं और न ही सामाजिक प्रगतिशीलता के। चिकित्सा एवं तकनीक के बल पर लिंग-परिवर्तन नैसर्गिक नियमों का उपहास ही नहीं अपमान है। ऐसे लोगों को लैंगिक पहचान के संकट से निवारण हेतु सर्जरी की नहीं, बल्कि मनोचिकित्सा की ज़रूरत है। ऐसे विचारों वाले लोगों के मन में दमित इच्छाएँ या कहिए कुंठाएँ उद्वेलित होती हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो कानपुर में कबाड़ से जवान बनाने की मशीन के आविष्कारक एक लुठंक दम्पति कई बुजुर्गों से करोड़ों रुपये नहीं ठग पाते, और वामपंथ इन्हीं मानसिक कुंठाओं एवं दमित मानवीय सोच का पोषक है। लेकिन भारतीय संस्कृति तो धर्म एवं नैतिकता से अनुप्राणित है। यहाँ भौतिकता का कोई विरोध नहीं है, बल्कि यह एक सोपान या सीढ़ी मात्र है; अन्तिम लक्ष्य तो आध्यात्मिकता है। प्रकृति के नियमों को भंग करने, उनको नियंत्रित करने के प्रयास मानव सभ्यता के लिए घातक सिद्ध होंगे और हो भी रहे हैं। नित नयी घातक यौनिक एवं अन्य डीएनए के घातक रोग इसी का तो परिणाम हैं।

क्या राष्ट्रीय समाज यह समझने में अक्षम हुआ है कि खोखले वामपंथीय नास्टेल्जिया के ध्वंसकारी वैचारिक आवरण में जो मानवीय मन एवं बुद्धि की उन्मुक्तता दिख रही है, दरअसल वही विनाश का मार्ग है; जिसे विज्ञान की नकारात्मक शक्ति का संबल भी मिल रहा है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति ने मानव जीवन को भौतिकवाद की गति ज़रूर दी है; लेकिन संयम से वंचित कर दिया। और यह संयम का अभाव ही विज्ञान के मार्फ़त मानव सभ्यता को सर्वनाश की ओर धकेल रहा है। हालाँकि जब भौतिकता एवं विज्ञान के इस गठजोड़ के लिए सुख-साधनों का विकास ही चरम लक्ष्य है। यह आधुनिक सभ्यता शरीर को अन्तिम सत्य स्वीकार कर उसके भोग-विलास की प्राप्ति के प्रयास में रत है। तब उसे यह क्यों समझना होगा कि उन्नत सभ्यता की वास्तविक सार्थकता का सार जीवन का चरित्र, अध्यात्म एवं संस्कृति के प्रति निष्ठा में है। और ऐसे कुमार्गों एवं कुविचारों के विरुद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा चेताती भी है।

‘काममय एवायं पुरुष इति।

स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति।।

यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते।

यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते।।’ (वृहदा. उ.-4/4/5) अर्थात् ‘मनुष्य कामनामय है। वह जैसी कामना वाला होता है, वैसा ही संकल्प करता है। जैसे संकल्प वाला होता है, वैसा ही कर्म करता है। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है।’ क्या हम अपनी आध्यात्मिक विरासत से यह सकारात्मकता ग्रहण कर सकते हैं? क्योंकि भविष्य की उम्मीद तो तभी ज़िन्दा दिखेगी, जब वर्तमान अपने अतीत की थाती को ससम्मान स्वीकारे और यह समझे कि उसकी तर्कहीन उन्मुक्तता और खोखली आधुनिकता उसे एक अंधी गली की ओर धकेल रही है।

चुनावी नतीजों के आईने से

यह दिलचस्प बात है कि महाराष्ट्र के जिस नांदेड़ लोकसभा हलक़े में इस चुनाव में कांग्रेस उपचुनाव जीत गयी, उसी नांदेड़ में विधानसभा चुनाव में छ: की छ: विधानसभा सीटें कांग्रेस हार गयी। पूरे महाराष्ट्र में जो कांग्रेस विधानसभा चुनाव में 16 सीटों पर सिमट गयी, उसने सिर्फ़ छ: महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में 13 लोकसभा सीटें जीती थीं और उसके नेतृत्व में इंडिया गठबंधन ने 48 में से 31 सीटें। तब भाजपा और उसके साथी दल सिर्फ़ 17 सीटों पर सिमट गये थे। निश्चित ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे काफ़ी चौंकाने वाले हैं। इन नतीजों से ऐसा लगता है मानो जनता ने भाजपा की मनोकामना पूरी करने के लिए ही वोट डाला हो। पर क्या यह सच है?

इस चुनाव के बाद देश की राजनीति में पहली बार संसद के भीतर गाँधी परिवार के तीन सदस्य पहुँच गये हैं। सोनिया गाँधी राज्यसभा में, तो राहुल और प्रियंका गाँधी लोकसभा में। चूँकि इस बार जनता ने दोनों राज्यों- महाराष्ट्र और झारखण्ड में जीतने वाले गठबंधनों को एकतरफ़ा समर्थन दिया है, लिहाज़ा कहा जा सकता है कि नतीजे मिले-जुले रहे। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के यह नतीजे भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिले गंभीर झटकों से उबरने में मदद करेंगे। महाराष्ट्र में कांग्रेस ही नहीं, उसके दोनों साथियों शरद पवार वाली एनसीपी और उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को बड़ा राजनीतिक नुक़सान हुआ है; क्योंकि लोकसभा चुनाव नतीजों से कांग्रेस को काफ़ी राजनीतिक ताक़त मिली थी। महाराष्ट्र की जनता के विपरीत झारखण्ड के मतदाता ने झामुमो और कांग्रेस गठबंधन पर भरोसा जताते हुए इस गठबंधन को पिछली बार से ज़्यादा बड़ा समर्थन दे दिया; और बँटेंगे, तो कटेंगे वाले भाजपा के नारे को पूरी तरह ठुकरा दिया। राजनीतिक रूप से कह सकते हैं कि एक राज्य में भाजपा वाला एनडीए गठबंधन और एक राज्य में कांग्रेस वाला इंडिया गठबंधन जीत गया। हालाँकि महाराष्ट्र बड़ा राज्य है, लिहाज़ा राजनीतिक रूप से वहाँ की जीत भी बड़ी कही जाएगी। महाराष्ट्र के नतीजों को लेकर समाज के तबक़ों में अलग-अलग सोच है। कुछ का कहना है कि शिंदे सरकार की ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहीण योजना’ ने कमाल कर दिया, तो कुछ का कहना है कि बँटेंगे, तो कटेंगे नारे ने हिन्दुओं का ध्रुवीकरण कर दिया और राज्य में इसके लिए आरएसएस ने ज़मीन पर बहुत ज़्यादा काम किया। हालाँकि नतीजों से ज़ाहिर होता है कि हिन्दुओं के ही नहीं, बल्कि भाजपा का विरोध कर रहे मुसलमानों के वोट भी भाजपा ही समेटकर ले गयी। क्या वास्तव में अब देश या कहिए महाराष्ट्र के मुसलमान भी भाजपा के मुरीद हो गये और उन्होंने बँटेंगे, तो कटेंगे नारे को समर्थन दिया?

इनसे इतर समाज में एक ऐसा तबक़ा है, जिसे आशंका है कि भाजपा का चुनाव में जीतना वास्तव में जनादेश नहीं, बल्कि पिछले दरवा•ो से हासिल की गयी जीत है। इस वर्ग का कहना है कि महाराष्ट्र में जीत भाजपा ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के राजनीतिक भविष्य के लिए भी ज़रूरी थी और उसे इसका प्रबंध करना पड़ा, जिसमें धन्नासेठों की बड़ी भागीदारी रही। नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के बीच महाराष्ट्र में पैसे के बड़े पैमाने पर उपयोग के आरोप लगे थे। निश्चित ही इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस का यह उचित समय है। इन नतीजों से यह तो ज़ाहिर हुआ कि देश में मोदी लहर जैसी कोई चीज़ अब नहीं है। होती, तो झारखण्ड में भी भाजपा ही जीतती। देश में इन चुनावों के साथ दो लोकसभा सीटों पर भी उप चुनाव हुए जो दोनों कांग्रेस ने जीते। जबकि उपचुनावों में 48 विधानसभा सीटों में से भाजपा 20 और कांग्रेस सात सीटें जीती, जिनमें एक सीट भाजपा के प्रचंड बहुमत वाले राज्य मध्य प्रदेश की भी शामिल है। उपचुनाव में कर्नाटक में तो कांग्रेस ने सभी तीन और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने सभी छ: सीटें जीत लीं। वहाँ ममता बनर्जी का जादू बरक़रार है। पंजाब उपचुनाव में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली। वहाँ कांग्रेस ने एक और आम आदमी पार्टी ने तीन सीटें जीतीं। असम के उपचुनावों में भाजपा ने ज़रूर बेहतर प्रदर्शन किया। उत्तर प्रदेश में जैसा चुनाव हुआ, उससे देश के लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले हरेक नागरिक को झटका लगा है। जिस तरह मुसलमानों को वोट देने से रोका गया, वह देश के भविष्य के लिए चिन्ता की बात है। यह सब तब हुआ, जब देश और सत्ताएँ कुछ दिन में होने वाले संविधान दिवस को मनाने की तैयारी कर रहे थे। भाजपा वहाँ नौ में से सात सीटें जीत गयी, जबकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चौंकाने वाले नतीजे देने वाली सपा दो सीटें ही जीत पायी। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि सपा को कांग्रेस से गठबंधन में चुनाव लड़ना चाहिए था। ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता ने सपा में यह भरोसा भर दिया कि वह अकेले ही सब कुछ कर सकती है। अखिलेश यादव को लोकसभा नतीजों के बाद राष्ट्रीय नेता के रूप में उभारने वाले पोस्टर भी लगाये गये। हालाँकि अखिलेश का पूरा फोकस राज्य पर रहना चाहिए था।

महाराष्ट्र में बतौर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का कार्यकाल इस लिहाज़ से बहुत अच्छा रहा कि इन कुछ महीनों में उन्होंने अपनी नम्रता और राजनीतिक चतुराई से सबका दिल जीता। बेशक वह मूल पार्टी शिवसेना को धोखा देकर भाजपा के साथ आ गये; लेकिन माना जाता है कि इसके पीछे असली कारण 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री न बनाया जाना था। बेशक भाजपा के साथ जाने के बाद उन्होंने इसे उद्धव ठाकरे के कांग्रेस के साथ जाने के फ़ैसले के प्रति अपनी असहमति बताया हो। लाडकी बहीण जैसी लोकलुभावन योजना लाकर शिंदे ने चुनाव को बड़े स्तर पर प्रभावित किया। हालाँकि इस पर सवाल ज़रूर हैं कि महिलाओं के खाते में नक़द पैसे डालने वाली यह योजना चुनाव की घोषणा से कुछ घंटे पहले ही लागू की गयी, जिससे ऐसा लगा कि मतदाताओं को रिश्वत दी गयी है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि महाराष्ट्र की जीत से भाजपा को ताक़त मिली है; लेकिन आरएसएस ने इस चुनाव में ज़मीन पर बहुत ज़्यादा काम किया। इस हिन्दूवादी संगठन का गढ़ नागपुर महाराष्ट्र में ही है। बेशक भाजपा इस चुनाव की जीत का श्रेय ले रही हो, आरएसएस की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। उधर झारखण्ड की जीत से इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि भाजपा की ख़िलाफ़ इंडिया गठबंधन की लड़ाई वास्तव में कमज़ोर नहीं पड़ी है और उसे ज़्यादा निराश होने की ज़रूरत नहीं है। झारखण्ड में मतदाताओं ने झामुमो-कांग्रेस को एकतरफ़ा जनमत दिया है। वहाँ झामुमो ने जिन 43 सीटों पर लड़ा, उनमें से 34 सीटें; जबकि कांग्रेस ने कुल लड़ी 30 सीटों में से 16 सीटें जीत लीं। कुल 81 सीटों में वहाँ इस गठबंधन को अन्य दलों के साथ मिलकर 56 सीटें मिली हैं, जिनमें चार सीटें राजद की भी शामिल हैं। उधर एनडीए में भाजपा को 68 सीटों पर लड़कर सिर्फ़ 21 सीटें मिलीं।

इन नतीजों से ज़ाहिर हो गया कि आदिवासी मतदाताओं ने झामुमो-कांग्रेस गठबंधन पर भरोसा किया। भाजपा के बांग्लादेशी घुसपैठियों के आरोप को मतदाता ने सच नहीं माना। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका है। हेमंत सोरेन, जो फिर से झारखण्ड के मुख्यमंत्री बन गये हैं; सबसे बड़े आदिवासी नेता के रूप में स्थापित हुए हैं। उनकी पत्नी कल्पना सोरेन भी एक मज़बूत नेता के रूप में उभरी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन तो जीत गये; लेकिन उनके बेटे भाजपा उम्मीदवार बाबूलाल सोरेन को 18,000 वोटों से करारी हार मिली। निश्चित ही चुनाव से ऐन पहले पाला बदलने वाले चम्पाई सोरेन के राजनीतिक करियर के लिए यह बड़ा झटका है। झारखण्ड में भाजपा की हार में बड़ा हाथ असम के उसके बड़बोले मुख्यमंत्री हिमन्त बिश्व सरमा की बतौर प्रभारी फ्लॉप रणनीति का भी रहा। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटें कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को पक्की उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव के बाद उसकी सरकार बनेगी। आख़िरी समय तक यही संकेत मिल रहे थे; लेकिन चुनाव नतीजे ऐसे आये कि भाजपा के नेता भी हक्के-बक्के रह गये। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि भाजपा ने कोंकण और कांग्रेस की मज़बूती वाले विदर्भ में सेंध लगाते हुए अपनी ताक़त बढ़ा ली है, जबकि शरद पवार के पश्चिम महाराष्ट्र के गढ़ को भी भेद दिया। कांग्रेस को इन सभी क्षेत्रों में झटका लगा है। हो सकता है यह स्थायी झटका न हो; लेकिन यह देखने के लिए उसे अगले चुनाव का इंतज़ार करना होगा।

इस चुनाव में महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से महायुति ने 228, महाविकास अघाड़ी ने 47 और अन्य ने 13 सीटें जीतीं। महायुति में भाजपा ने 132 सीटें, मुख्यमंत्री के रूप में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पहला विधानसभा चुनाव लड़ रही शिवसेना ने 55 सीटें, जबकि कमज़ोर बताये जा रहे अजित पवार की एनसीपी ने 41 सीटें जीत लीं। महाविकास अघाड़ी में शिवसेना (उद्धव) को 20, कांग्रेस को 16 और एनसीपी (शरद) को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा। बाक़ी सीटें अन्य के खाते में गयीं। इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका राज ठाकरे को लगा, जिनके बेटे अमित ठाकरे समेत महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सभी 125 उम्मीदवार चुनाव हार गये। इन नतीजों से साफ़ हो गया है कि भाजपा के लिए आज भी हिन्दुत्व ध्रुवीकरण की राजनीतिक सबसे बड़ी ताक़त है। राहुल गाँधी के जातिगत गणना, आरक्षण और संविधान जैसे मुद्दे जनता के बीच अभी मज़बूती से नहीं पहुँचे हैं। बेशक प्रियंका गाँधी के जीतने से लोकसभा में कांग्रेस की आवाज़ और मज़बूत होगी; लेकिन पार्टी के लिए समय आ गया है कि वह देश भर में संगठन का कायाकल्प करे और राज्यों में सहयोगियों की बैसाखी बने रहने की जगह अपने पाँव मज़बूत करे।

कैसे विश्वास हो ?

व्यवसाय में झूठ और बेईमानी कोई नयी बात नहीं है। जो जितना बड़ा बेईमान, उतना ही बड़ा व्यापारी। यह बात शायद व्यापारियों को बुरी लगे; लेकिन सच है। बिना बेईमानी के व्यापार अरबों में नहीं पहुँचता। इसे समाज में हुनर माना जाता है। लेकिन जब किसी की बेईमानी का पर्दाफ़ाश होता है, तो उसे लोग अपने-अपने नज़रिये से तोलने लगते हैं।

देश के जाने-माने उद्योगपति और अडाणी समूह के संस्थापक और अध्यक्ष गौतम अडाणी भी ऐसी ही एक बेईमानी के आरोपों से आजकल घिरे हैं। जबसे उन पर अमेरिका में एक सौर ऊर्जा का ठेका लेने के लिए भारतीय अधिकारियों को मोटी रिश्वत देकर दूसरे निवेशकों के साथ धोखाधड़ी के आरोप लगे और न्यूयॉर्क की फेडरल कोर्ट में उनकी गिरफ़्तारी की बात उठी, भारत में उनकी चर्चा एक बार फिर बहुत ज़्यादा होने लगी। उनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भी उनके दोस्त या कहें कि उनके लिए काम करने वाले प्रधानमंत्री के रूप में उछला है। सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कार्टून, टिप्पणियों, फब्तियों, नारों और कटाक्षों की बाढ़-सी आ गयी। अडाणी समूह के शेयर एक साथ गिरने लगे। यह सब कुछ ठीक उसी तरह हुआ, जिस तरह हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद अडानी के शेयर जनवरी, 2023 में हुआ था। अब यह दूसरी बार है, जब गौतम अडाणी सवालों के कटघरे में हैं और उन पर बेईमानी के आरोप लग रहे हैं। हालाँकि कांग्रेस नेता और सांसद राहुल गाँधी से लेकर दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक, अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल पहले भी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गौतम अडाणी में आपसी साँठगाँठ को लेकर कई तरह के आरोप लगा चुके हैं। दोनों नेता यहाँ तक कह चुके हैं कि गौतम अडाणी के व्यवसायों में प्रधानमंत्री मोदी की हिस्सेदारी है और गौतम अडाणी की कम्पनियों को विदेशों में ठेके दिलवाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ़ अपने पद का दुरुपयोग करते हैं, बल्कि सरकारी पैसा भी बर्बाद करते हैं।

अब अमेरिका में रिश्वत देकर ठेका लेने के आरोप के मामले में केंद्र सरकार गौतम अडाणी का बचाव कर रही है। राहुल गाँधी कार्रवाई की माँग कर रहे हैं और केजरीवाल दिल्ली के चुनावों की तैयारी में मशरूफ़ हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल इसे अमेरिकी न्यायालय से जुड़ा क़ानूनी मामला बता रहे हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने प्रेस वार्ता करके बचाव के लिए यह तक कह दिया कि भारत सरकार को इस मुद्दे पर अमेरिकी प्रशासन ने पहले से सूचित नहीं किया।

आश्चर्य इस बात का है कि अमेरिका में उद्योगपति गौतम अडाणी और उनके भतीजे सागर अडाणी समेत आठ लोगों के ख़िलाफ़ रिश्वत$खोरी और धोखाधड़ी के आरोप लगने और इन सबके गिरफ़्तारी समन जारी होने के बाद भाजपा के कई नेता तिलमिलाये हुए हैं और अडाणी के बचाव में उतर आये हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि अडाणी समूह को अगले एक साल में लगभग तीन अरब डॉलर का ऋण चुकाना है। अडाणी समूह ने इसके लिए बैंकों से ऋण की उम्मीद की तरफ़ इशारा किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय बैंक अब सरकार के इशारे पर अडाणी समूह को और ऋण देंगे। पहले ही दज़र्नों उद्योगपतियों द्वारा देश का पैसा ऋण के रूप में लेकर विदेश भाग जाना और एनडीए की केंद्र सरकार द्वारा अरबों रुपये का अडाणी समेत बड़े-बड़े उद्योगपतियों का ऋण माफ़ करना देश को बड़े वित्तीय संकट में डाल चुका है। अब एक ऐसे उद्योगपति को बैंकों द्वारा ऋण दिये जाने के संकेत मिलना, जिसके चलते पूरी दुनिया का भरोसा न सिर्फ़ भारतीय व्यापारियों पर से उठ सकता है, बल्कि केंद्र सरकार की छवि भी ख़राब हुई है; कितना उचित है? यह तय किया जाना चाहिए।

सभी जानते हैं कि पहले ही वित्तीय संकट से जूझ रहे भारतीय बैंकों के पास उनका पैसा नहीं, बल्कि खाता धारकों का पैसा है। ऐसे में बैंकों द्वारा उद्योगपतियों को लगातार ऋण वितरित करना और उसे माफ़ करते चले जाना कहीं-न-कहीं बैंकों को दिवालिया बनाने का रास्ता तैयार करने जैसा है। सन् 2014 में केंद्र में एनडीए की सरकार बनने के बाद से बैंकों के घाटे का आलम यह है कि देश के कई बड़े बैंक बंद हो चुके हैं और कई बैंकों का आपस में एकीकरण करना पड़ा है। इसमें घाटे को छिपाने की केंद्र सरकार की चालाकी का खेल साफ़ दिखायी देता है। हालाँकि इस घाटे के लिए सिर्फ़ उद्योगपति ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार भी ज़िम्मेदार है, जो ख़ुद भी बैंकों का पैसा तय सीमा से ज़्यादा लेने के अलावा विदेशी ऋण भी बढ़ाती जा रही है। इसका असर यह हो रहा है कि सभी बैंक आम खाता धारकों के खातों पर तरह-तरह के ज़ुर्माने और शुल्क लगाकर करोड़ों रुपये सालाना बटोर रहे हैं।

अब तो स्थिति यहाँ तक आ चुकी है कि  देश का सबसे बड़ा सरकारी बैंक भारतीय स्टेट बैंक भी विदेशी बैंकों से 1.25 बिलियन डॉलर का ऋण लेने को मजबूर है। इससे पहले भी भारतीय स्टेट बैंक ने जुलाई, 2024 में ही 750 मिलियन डॉलर का ऋण लिया था। अगर इसी तरह से भारत के बैंक घाटे में जाकर ऋण लेते रहे, तो वे अपने ग्राहकों के पैसे की सुरक्षा कैसे करेंगे? केंद्र सरकार तो ऋण लेकर घी पीने का काम कर-करा रही है। फिर कैसे मान लिया जाए कि देश सुरक्षित हाथों में है? कैसे विश्वास हो कि 2030 तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था वाला देश बन जाएगा?