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नक्सलियों ने सेना के वाहन को आईईडी ब्लास्ट से उड़ाया, 9 जवान शहीद

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में सोमवार को नक्सलियों ने एक बड़ी वारदात को अंजाम दिया। नक्सलियों ने संयुक्त ऑपरेशन से लौट रहे जवानों के वाहन को आईईडी ब्लास्ट से उड़ा दिया। इस घटना में नौ जवान शहीद हुए हैं। नक्सल प्रभावित कुटरू से बेदरे मार्ग पर करकेली के पास नक्सलियों द्वारा जवानों से भरे पिकअप वाहन को ब्लास्ट कर उड़ा दिया। इस हमले में अब तक नौ जवानों के शहीद होने की पुष्टि एडीजी नक्सल ऑपरेशन विवेकानंद सिन्हा ने की है।

नक्सलियों ने इस वारदात को उस वक्त अंजाम दिया, जब संयुक्त ऑपरेशन पार्टी ऑपरेशन कर वापस लौट रही थी। तभी दोपहर के लगभग दो बजे बीजापुर जिले के थाना कुटरू के अंतर्गत अंबेली गांव के पास नक्सिलयों ने आईईडी ब्लास्ट कर सुरक्षा बलों के वाहन को उड़ा दिया। इसमें दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान और एक ड्राइवर की मौत हो गई।

इस घटना पर छत्तीसगढ़ के सीएम विष्णु देव साय ने संवेदना व्यक्त किया है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “बीजापुर जिले के कुटरू में नक्सलियों द्वारा किए गए आईईडी ब्लास्ट में आठ जवानों सहित वाहन चालक के शहीद होने की खबर अत्यंत दुःखद है। मेरी संवेदनाएं शहीदों के परिजनों के साथ हैं। ईश्वर से शहीद जवानों की आत्मा की शांति और शोकाकुल परिजनों को संबल प्रदान करने की प्रार्थना करता हूं। बस्तर में चल रहे नक्सल उन्मूलन अभियान से नक्सली हताश हैं और विचलित होकर ऐसी कायराना हरकतों को अंजाम दे रहे हैं। जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी, नक्सलवाद के खात्मे के लिए हमारी यह लड़ाई मजबूती से जारी रहेगी।”

वहीं बीजापुर आईईडी ब्लास्ट पर डिप्टी सीएम अरुण साव ने कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। मैं सभी जवानों को श्रद्धांजलि देता हूं। यह नक्सलियों की कायरतापूर्ण हरकत है। हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं दिया जाएगा। इस कायराना हरकत का जवाब दिया जाएगा। हमारी सरकार का संकल्प 2026 तक बस्तर को नक्सल मुक्त करने का है, जिसमें हम सफल होंगे।

कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक्स पर लिखा, “बीजापुर से आ रही खबर बेहद दुखद है। बीजापुर के कुटरू में माओवादियों ने आईईडी ब्लास्ट कर सुरक्षाबलों के वाहन को उड़ा द‍िया। इस दुखद घटना में हमारे आठ जवान और एक वाहन चालक के शहीद होने की सूचना है। हम सब शहीदों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनकी शहादत को कोटि-कोटि सलाम करते हैं। लोकतंत्र विरोधी ताकतों के खिलाफ हम सब एकजुट हैं।”

भारत में मिले HMPV वायरस के 2 केस, चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने की पुष्टि

नई दिल्ली : चीन में तेजी से फैल रहे HMPV वायरस ने अब भारत में भी दस्तक दे दी है। कर्नाटक में इस वायरस के दो मामलों की पुष्टि हुई है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने इस बात की जानकारी दी है।

कर्नाटक में 8 महीने का एक बच्चा और तीन महीने की एक बच्ची इस वायरस से संक्रमित पाई गई हैं। दोनों बच्चों को बुखार की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। तीन महीने की बच्ची को इलाज के बाद अस्पताल से छुट्टी दे दी गई है, जबकि 8 महीने के बच्चे का इलाज अभी जारी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इस मामले को गंभीरता से ले रहा है और स्थिति पर नजर रखे हुए है। ICMR ने भी कहा है कि वह किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार है।

कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि उनकी प्रयोगशाला में नमूने की जांच नहीं हुई है। निजी अस्पताल की रिपोर्ट में यह सामने आया है। स्ट्रेन को लेकर जानकारी नहीं है। नमूने को सरकारी प्रयोगशाला में भेजा गया है। वहीं सरकार ने वायरस को लेकर अलर्ट जारी किया है। सतर्कता बरती जा रही है। बता दें, चीन में HMPV वायरस बहुत तेजी से फैल रहा है। कई शहरों में इमरजेंसी घोषित कर दी गई है और अस्पतालों में मरीजों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। खासकर बच्चों और बुजुर्गों में इस वायरस का प्रकोप ज्यादा देखा जा रहा है।

क्या है HMPV वायरस ?
HMPV (Human Metapneumovirus) एक सांस की बीमारी पैदा करने वाला वायरस है। इसके लक्षणों में बुखार, खांसी, नाक बहना, गले में खराश आदि शामिल हैं। ज्यादातर मामलों में यह वायरस हल्का होता है और खुद ही ठीक हो जाता है, लेकिन कुछ मामलों में यह गंभीर भी हो सकता है। यह वायरस संक्रमित व्यक्ति के खांसने या छींकने से निकलने वाली बूंदों के माध्यम से फैलता है।

आगरा घराने की अनसुनी विरासत: विलुप्त होती शास्त्रीय संगीत की धरोहर

बृज खंडेलवाल

कुछ दिन पहले दक्षिण भारत में आयोजित एक शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम में एक विद्वान ने मुझसे प्रश्न किया, “आगरा घराने की वर्तमान स्थिति क्या है, और कौन इसे संजो रहा है?” मेरा उत्तर अज्ञानता और असहायता के बोझ से दबा हुआ था। यह प्रश्न एक बड़ी चिंता की ओर इशारा करता है—हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, विशेष रूप से आगरा घराना, आधुनिक समय में कैसे उपेक्षित हो रहा है।

आज की तेज़ रफ़्तार जिंदगी और तात्कालिक संतुष्टि की चाह ने युवा पीढ़ी को बॉलीवुड म्यूजिक, रैप, रीमिक्स और पंजाबी पॉप जैसे त्वरित पहचान दिलाने वाले संगीत की ओर खींच लिया है। इस बदलाव के कारण गहरी संगीत परंपराओं, जैसे आगरा घराने, के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। धैर्य, एकाग्रता और समर्पण की आवश्यकता को समझने वाले कम होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, आगरा घराना, जो कभी अपनी बोल्ड और जटिल शैली के लिए मशहूर था, अब गुमनामी में खो रहा है।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की कभी जीवंत प्रतिध्वनियाँ, विशेष रूप से प्रतिष्ठित आगरा घराना, उसी शहर में गुमनामी में खोती जा रही हैं जहाँ ये  इस क्षेत्र की समृद्ध संगीत विरासत का प्रतीक था। समर्पित संरक्षकों और उत्साही शिष्यों की अनुपस्थिति में, यह सदियों पुरानी परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है। अपनी शक्तिशाली गायन तकनीकों और भावनात्मक रूप से भावपूर्ण प्रस्तुतियों के साथ आगरा घराने को फैयाज खान और विलायत हुसैन खान जैसे दिग्गज उस्तादों ने पोषित किया। फिर भी, आज, यह मान्यता और समर्थन की कमी से जूझ रहा है।  युवा पीढ़ी, क्षणभंगुर वैश्विक रुझानों से मोहित होकर, संगीत परंपरा के इस खजाने से काफी हद तक अनजान बनी हुई है। इसे पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के लिए तत्काल प्रयासों के बिना – त्यौहारों, वित्तपोषण और संस्थागत समर्थन के माध्यम से – आगरा घराना लुप्त होने का जोखिम उठाता है, एक ऐसे शहर में सांस्कृतिक शून्यता छोड़ता है जो कभी अपने भावपूर्ण ताल से गूंजता था।

चार सदी पुराने आगरा घराने के अंतिम प्रतिष्ठित प्रतिनिधि, उस्ताद अकील अहमद साहब ने किसी भी तरफ से  कोई समर्थन न मिलने के कारण गरीबी में जीवन व्यतीत किया। अभी कोई भी ऐसा नहीं है जो आगरा घराने को अन्य धाराओं से अलग करने वाली सूक्ष्म बारीकियों और विविधताओं के बारे में एक भावुक गायक को प्रशिक्षित कर सके। लेकिन संगीत शिक्षकों का कहना है कि पुरानी परंपराओं को संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि वे हमारी संगीत विरासत का हिस्सा हैं। केवल जब हम पुराने घराने के संगीत को सीखते हैं और शास्त्रीय धाराओं में अच्छी पकड़ रखते हैं, तो हम संगीत के अन्य रूपों में अच्छा कर सकते हैं। युवा पॉप संगीत धाराओं की ओर बढ़ रहे हैं जो न तो आत्मा को संतुष्ट करती हैं और न ही इंद्रियों को सुकून देती हैं। 

हालाँकि आगरा घराना आगरा में लोकप्रिय नहीं था, लेकिन पूरे भारत में इसके संरक्षक थे और कई शास्त्रीय गायक इसे जीवित रख रहे थे।  “आगरा घराना अभी मरा नहीं है। इसके प्रशंसक और संरक्षक हर जगह हैं। लेकिन आगरा के लोग समृद्ध परंपरा को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए कष्ट नहीं उठा रहे हैं, जो वास्तव में दुखद है,” कहती हैं डॉ ज्योति खंडेलवाल, निदेशक, नृत्य ज्योति कथक केंद्र।

आगरा घराने का जन्म शमरंग और सासरंग के प्रयासों से हुआ, जो मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान रहने वाले दो राजपूत पुरुष थे। बाद में मुगल दरबार में गाने के लिए दोनों ने इस्लाम धर्म अपना लिया। माना जाता है कि वे ग्वालियर के मियां तानसेन के रिश्तेदार थे। उस्ताद फैयाज खान ने बाद में आवाज के उतार-चढ़ाव और आलाप (हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन का गैर-मीटर वाला प्रारंभिक खंड) और बंदिश (बीट्स के चक्र में शब्दों के साथ तय की गई मधुर रचना) के लयबद्ध पैटर्न के माध्यम से संगीत के रूप में कई बारीकियों को पेश किया। उस्ताद को उचित आगरा घराने की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। संगीत का यह स्कूल राग के मधुर पहलू पर जोर देता है और अलंकरण से परिपूर्ण है। इस स्कूल के प्रसिद्ध गायकों में शराफत हुसैन खान, उस्ताद विलायत हुसैन खान ‘अग्रवाले’, लताफत हुसैन खान, यूनुस हुसैन, विजय किचलू, ज्योत्सना भोले, दीपाली नाग और सुमति मुताटकर। उस्ताद फैयाज खान द्वारा प्रशिक्षित एक प्रसिद्ध स्वतंत्र गायक के एल सहगल थे। आगरा घराने की अद्वितीय बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाते हुए इन गायकों ने ध्रुपद और ख्याल के अलावा ठुमरी, दादरा, होरी और टप्पा जैसी गायन की विभिन्न शैलियों का अभ्यास और पोषण किया है।

अंतर राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संगीतज्ञ डॉ सदानंद ब्रह्मभट्ट बताते हैं कि ‘घराना’ शब्द द्योतक है, किसी भी राग को प्रदर्शित करने के विशिष्ट तरीके (जिसे गायकी कहते हैं) से । कलाकारों में इसे अपने परिवार तक ही सीमित रखने का चलन इसलिए था ताकि कोई और इसे सीख न ले ।और उनकी गायकी अपने परिवार तक ही सीमित रहे । ऐसा चलन वर्षों चला ।

वर्षों से संगीत साधना में लगे विद्वान पंडित ब्रह्मभट्ट कहते हैं  कि राग भैरव के स्वर सभी घरानों में एक जैसे हैं जो वर्षों से गाये जा रहे हैं परंतु इन्हें प्रस्तुत करने की गायकी में भिन्नता है । यह अंतर अत्यंत सूक्ष्म होता है जिसे एक समझदार कलाकार ही समझ सकता है ।

आजकल रिकॉर्डिंग का ज़माना है सभी लोग एक दूसरे को सुनते हैं तो अब यह उतना प्रासंगिक नहीं रहा । क्योंकि किसी घराने की गायकी चाहे वो ग्वालियर, दिल्ली, रामपुर, सहसवान, किराना, बनारस अथवा आगरा घराना हो, को आत्मसात करना एक दीर्घकालिक साधना एवं प्रक्रिया है जिसमें कमी आई है । अब किसी से एक दो राग सीखने से ही लोग उसे उस घराने का गायक कह देते हैं । इस शैली के प्रथम गायक नायक गोपाल (नौहर बानी के संस्थापक) के वंशज सुजान दास को अकबर ने इस्लाम अपनाने तथा हज करने के लिए कहा । जिससे वे हाजी सुजान ख़ान कहलाए ।हाजी सुजान खां को आगरा घराने का प्रवर्तक माना जाता है । इस घराने के प्रमुख गायक फ़ैयाज़ खां हुए जो अपनी 1932 में आगरा छोड़कर बड़ौदा चले गए । उनके बाद बशीर ख़ान और उनके दो पुत्र अक़ील अहमद ख़ान एवं शब्बीर अहमद खाँ ने इसे जारी रखा । इनके परिवार नाज़िम अहमद खाँ कोलकाता चले गए उनके पुत्र वसीम अहमद आईटीसी कोलकाता में हैं ।

“फैयाज खा साहब के बड़ौदा जाने के बाद आगरा में तब ग्वालियर घराने के तीन गुरु पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ( मेरे गुरु जी) पंडित रघुनाथ तलेगाँवकर जी, पंडित सीताराम व्यवहारे जी पधारे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत का प्रचार -प्रसार किया और कई शिष्यों को सिखाया । आजकल आगरा में इन तीनों विभूतियों के ही अर्थात् ग्वालियर की गायकी के सिखाए लोग हैं ।

आगरा में निवास करने वालों में आगरा की गायकी सीखने वालों में वर्णाली बोस है जो यहाँ रहती बाक़ी वर्तमान में आगरा घराने के प्रमुख गायकों के नाम इस प्रकार हैं- पं अरुण कशालकर जी(पुणे) , वसीम अहमद ख़ान (कोलकाता), अदिति कैकिनी उपाध्याय, भारती प्रताप इत्यादि कलाकार आगरा घराने के हैं ।”

संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि आगरा विश्वविद्यालय को आगे बढ़कर “आगरा घराने” को संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

गैर-ज़रूरी आक्षेप

शिवेन्द्र राणा

आजकल संसद इतिहास की विवेचना का नया मंच बन गयी है। अतीत के स्वर्ण युग एवं उसकी व्यथा-कथा, दोनों से सुपरिचित होना राष्ट्रीय समाज के वर्तमान एवं भावी जीवन के लिए एक उम्दा तरकीब है। अतीत को चित्त एवं अवचेतन मन में जागृत रहना ही चाहिए, ताकि वर्तमान को निर्देशित तथा भविष्य को आकार देने हेतु सुयोग्य तर्कों का आधार उपलब्ध रहे। किन्तु यह प्रक्रिया तब संकट में पड़ सकती है, जब इतिहास मानस-चेतन पर पूर्णत: अच्छादित होने लगे। तब उपरोक्त प्रक्रिया वर्तमान को तो भ्रमित करेगी ही, भविष्य को भी संकटपूर्ण स्थिति में डालेगी।

उदाहरणस्वरूप, चूँकि इस्लाम ने मध्ययुग में अपने धार्मिक उन्माद में भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का ध्वंस किया है; इस सोच के आधार पर चलायमान युग की प्रतिशोधात्मक गतिविधियाँ अनावश्यक संकट पैदा करेंगी। और कर भी रही हैं, जिसका दुष्परिणाम इस्लामिक मतावलम्बियों के बढ़ते विघटनवादी मनोवृत्ति के प्रसार के रूप में जम्हूरियत को भुगतना पड़ेगा, और भुगतना पड़ भी रहा है। इसी प्रकार बिहार की जनता कभी इस पूरे खित्ते पर क़ाबिज़ मगध साम्राज्य के स्वर्णिम कालखण्ड के दूरस्थ अतीत से परे देखेगी, तो उसे अपने आज में ग़रीबी, बेरोज़गारी, वंचना, असमानता का संकट दिखेगा, जो अपने इतिहास की विरुद्धावलियाँ सुनाने से तो दूर नहीं होगा। संकट वर्तमान में उपस्थित है, तो उसका समाधान भी आज को ही ढूँढना होगा। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आज भारतीय राजनीति में इतिहास के औचित्य पर ऐसी ही विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है, जो उसके विमर्श के औचित्य को व्यापक रूप से प्रभावित भी कर रही है। इतना कि अब यह विमर्श देश के संसदीय पटल तक खिंच आया है। इन दिनों विपक्ष के आरोपों और सवालों के समक्ष सत्ता पक्ष उसके पुराने शासन-काल के इतिहास के उदाहरणों से जवाब दे रहा है और अपने शासनादेशों को उचित ठहरा रहा है। इस चक्कर में धर्म स्थल खोदने से लेकर संग्रहालय तक खोजे जा रहे हैं। नेहरू-इंदिरा के शासकीय आदेशों से लेकर उनके निजी पत्र तक निकाले जा रहे हैं। यह सब राजनीति की फ़ौरी पेशबंदी एवं वैचारिक उठापटक के निमित्त तो औचित्यपूर्ण हो सकता है; लेकिन लोकतांत्रिक प्रगति के लिए सर्वथा औचित्यहीन ही प्रतीत होता है।

कल तक कहा जा रहा था कि चुनावी नारों द्वारा देश को आदर्श लोकतांत्रिक राज्य बनाने की उम्मीद पर जनता से सत्ता प्राप्त की गयी। और आज वैचारिक भटकाव का आलम यह है कि जम्हूरियत की मुख्य बहस इतिहास की खुदाई पर केंद्रित हो गयी है। जबकि सरकार एवं विपक्ष दोनों को यह समझ नहीं आ रहा कि इतिहास पर शोध आधारित विमर्श के लिए उचित निर्धारित स्थान विश्वविद्यालय और दूसरे शोध संस्थान हैं, संसद नहीं। असल में इस देश में एक बड़ा संकट यह है कि अक्सर संस्थाओं का उपयोग उस कार्य के लिए नहीं होता, जिसके निमित्त वे अस्तित्व में आयी हैं। और यही समस्या राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की है। वे वही काम नहीं करते, जिसके लिए उनका निर्वाचन हुआ है। जैसे कि पादरी, मुल्ले-मौलवी एवं बाबा-शंकराचार्य आदि धार्मिक-पंथीय चेतना एवं समाज के नैतिक उत्थान के लिए प्रयास के बजाय टीवी-ग्लैमर और राजनीति में घुसे हुए अपना बाज़ार चमकाने में लगे हैं और ऐसे ही संसद में जनकल्याण के लिए निर्वाचित नेताओं के इतिहास एवं व्यक्तिगत जीवन पर संभाषण हो रहे हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार, ‘शासन का उद्देश्य सर्व समाज और देश के कल्याण के अतिरिक्त अच्छे प्रबंधन यानी सुशासन स्थापित करना होना चाहिए।’ लेकिन भारत में आदर्श राज्य केवल शब्द-आडंबर में ही सन्निहित दिखता है। यहाँ विकासशील एवं औपनिवेशिकता के धक्के से धूल-धूसरित हुए भारत को संगतहीन बौद्धिक जुगाली और कोरी बकवास में ही विकसित और विश्वगुरु बनाया जाता है। और यही इस जनतंत्र का दुर्भाग्य है। कहने का आशय यह है कि देश की राजनीति में जितनी ऊर्जा भाषणबाज़ी में अब तक बर्बाद हुई है, उसका आधा हिस्सा भी व्यावहारिक कार्यरूप में दिखता, तो देश अब तक सच में विश्वगुरु और विकसित होने के नज़दीक होता। कांग्रेस सरकार ग़रीबी हटाओ के नारे लगाते हुए संविधान पर ही संकट थोप गयी; और वर्तमान भाजपा सरकार, जो लंबे समय से अपनी बड़ी-बड़ी योजनादारी की बयानी दावेदारी से ही नहीं उबर पा रही थी कि अब इतिहास की अनर्थक विवेचना में लग गयी है। उसकी यह इतिहास की चर्चा की अतिशयता कहीं वर्तमान के संकट को धूमिल न कर दे, यह अंदेशा प्रबल है।

वर्तमान में विमर्श के विषय- संविदा की नौकरियों का अनिश्चित संकट, बढ़ता निजीकरण, वक़्फ़ बोर्ड की दादागीरी, सिविल सेवा से लेकर पुलिस, रेलवे एवं एसएससी की परीक्षाओं में बढ़ती धाँधली, सरकारी संस्थानों में फैलते अनाचार, नौकरशाही की बढ़ती प्रशासनिक गुंडागर्दी, भारत से यूरोप में प्रति वर्ष बढ़ते पलायन आदि होने चाहिए थे। आज संसदीय बहस का विषय होना चाहिए था कि एक साधारण कांस्टेबल के पास करोड़ों की संपत्ति कैसे आयी? क्या प्रशासनिक तंत्र इस चरम स्तर पर भ्रष्टाचार में लिप्त है? आज भारत से प्रति वर्ष अरबों डॉलर विदेश में पढ़ रहे बच्चों के लिए उनके परिवारों द्वारा भेजे जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में सवाल यह है कि क्या हमारा ख़ुद का शैक्षणिक तंत्र इस आर्थिक नुक़सान को रोकने और स्वयं विश्व स्तर की शिक्षा प्रदान करने में आज भी असमर्थ है? लेकिन इसके विपरीत संसद में इतिहास-दर्शन के ज्ञान का भुलावा जनता को दिया जा रहा है। इतिहास ज़रूरी है; लेकिन वर्तमान की क़ीमत पर नहीं। हालाँकि संसद में होने वाला यह अनर्गल प्रलाप किसी पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक धोखाधड़ी ही नहीं, बल्कि इनके व्यावहारिक रवैये का नमूना भी है। असल में सत्ता पक्ष संसद को इतिहास की विवेचना में इसलिए बाँध सकने में सक्षम हुआ है; क्योंकि विपक्ष के पास वर्तमान की बेहतरी की कोई तरतीब ही नहीं है। और जब विपक्ष जनता के सामने वर्तमान की कोई उपयुक्त उम्मीद न पैदा करे, तो सत्ता पक्ष के लिए इतिहास के भुलावे देना सहज होता है।

अब नेहरू-इंदिरा की अतीत की ग़लतियों या सत्ता पक्ष के शब्दों में- ‘संविधान-विरोधी कृत्यों’ को कोसकर वर्तमान की असफलताओं का परिमार्जन तो नहीं हो सकता। और न ही अतीत की उनकी कमियों की आड़ में आज की सत्ता उन्मादी कार्य कर सकती है। अक्सर सत्ता का उन्माद सरकारों और नेताओं को अपने ध्येय-पथ से विचलित कर अहंकार की ओर मोड़ देता है और तंत्र के सहयोग से जन-विरोधी बना देता है। इसका ख़ामियाज़ा जनतंत्र को भुगतना पड़ता है। नेहरू परिवार ने अपनी राजनीतिक यात्रा में जो ग़लतियाँ कीं, उनका दण्ड उनकी राजनीतिक विरासत और उनकी पार्टी भुगत रही है। क्या भाजपाई उसी रास्ते के पथिक होना चाहते हैं और स्वयं की बहुमत की श्रेष्ठता के अभिमान में अपनी पार्टी और उसकी लोकतांत्रिक विरासत को आलोचना की ओर धकेल देना चाहते हैं? आख़िर कब तक वर्तमान की कमज़ोरियों एवं ख़ामियों का प्रतिशोध अतीत से लिया जाता रहेगा।

सवाल फिर भी वही हैं कि क्या अतीत की सरकारों की ग़लतियाँ गिनाकर इनके शासन की ख़ामियाँ ढक जाएँगी? क्या पूर्व के राजनेताओं की भूलें, उनके संविधान की मर्यादा के विरुद्ध किये गये कृत्य वर्तमान सत्ता को उसी कुमार्ग के अनुसरण का औचित्य सिद्ध करेंगे? क्या आये दिन की लफ़्फ़ाज़ियों से शासन के सूत्र दुरुस्त हो जाएँगे? इन सभी प्रश्नों के नकारात्मक जवाब शासन की उस अवधारणा को खंडित कर रहे हैं, जिन्हें वर्तमान के आदर्श राज्य एवं शासन के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

जो अतीत में बीत चुका है, वही इतिहास है। जो आज है या आगे आने वाला है, वह अभी इतिहास नहीं है। और राष्ट्र का अभीष्ट आदर्श इतिहास से नहीं, वरन् वर्तमान की राजनीति, नीतिशास्त्र एवं सामाजिक नियमों से तय होगा। सेबाइन के कहते हैं- ‘आदर्श राज्य के निर्माण के लिए आदर्श सामग्रियों की ही आवश्यकता होगी। यह राजनीतिज्ञों एवं विधि निर्माताओं का कर्तव्य है कि वे अपनी आदर्श राजनीतिक रचना के लिए उपयुक्त साधन एवं सामग्रियाँ एकत्रित करें। क्योंकि वे ही आदर्श राज्य के निर्माता हैं।’

एक दूसरे पक्ष के रूप में ध्यात्वय है कि संसद की प्रति मिनट की कार्यवाही में 2.5 लाख रुपये ख़र्च हो रहे हैं, जो घंटे के हिसाब से डेढ़ करोड़ होते हैं। और जनता की यह गाढ़ी कमायी इतिहास वाचन के लिए नहीं, बल्कि वर्तमान की सुव्यवस्था की चर्चा पर व्यय हो, तो नैतिक रूप से चर्चा अधिक स्वीकार्य होगी। सत्य तो यह है कि अतीत के विश्वगुरु भारत की लाक्षणिक, अलंकारिक परिभाषाओं एवं आत्ममुग्धता की अभिव्यंजनाओं के पीछे अभाव, असमता, ग़रीबी, बेरोज़गारी से जूझता एक पददलित भारत भी है, जो इन असमय, औचित्यहीन बहसों में कहीं पीछे छूटा जा रहा है। इसकी वंचना का निवारण लोकतांत्रिक भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए थी, वह तो अतृप्त क्षुधा के मौन के साथ इतिहास की ज्ञान मीमांसा सुनने को मजबूर है।

असल में जब कोई सत्ता अतीत को नकारात्मक रूप से कुरेदती है, तो इसके पीछे उसकी अपनी आंतरिक कमज़ोरियों पर आवरण डालने और वर्तमान की स्व-श्रेष्ठता का अहंकार दिखाने की मंशा होती है। पिछले दिनों पुणे में एक कार्यक्रम में वर्तमान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने परोक्ष रूप से सत्ता पक्ष को चेताते एवं आमजन की वैचारिक शंका को व्यक्त करते हुए कहा- ‘सभी को लगता है समाज में सब कुछ ग़लत हो रहा है। लेकिन हर नकारात्मक पहलू के लिए समाज में 40 गुना ज़्यादा अच्छी और शानदार सेवा की जा रही है।’ हो सकता है कि भागवत के कथन में सत्यता हो; क्योंकि जनता के बीच नकारात्मक प्रसार एवं अच्छी सेवा का निरपेक्ष मूल्याँकन व्यक्तिगत रूप से भी निर्धारित किया जा सकता है। लेकिन उल्लेखनीय रूप से उन्होंने सरकार को एक बेहतरीन सलाह देते हुए यह भी कहा- ‘इंसान पहले सुपरमैन, फिर देवता और उसके बाद भगवान बनना चाहता है। व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए। नहीं तो वह गड्ढे में गिर सकता है।’ उम्मीद है कि सत्ता पक्ष उनकी सलाह सुनने और उसके अनुरूप आचरण प्रदर्शित करने में रुचि लेगा।

18 साल से कम उम्र के बच्चे बिना पैरेंट्स की मंजूरी के नहीं चला पाएंगे सोशल मीडिया

नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने लंबे समय से प्रतीक्षित डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण नियमों का मसौदा जारी कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट’ का मसौदा जारी किया है। गौरतलब है कि सरकार ने इस कानून को अगस्त 2023 में संसद में पेश किया था। सरकार ने इस मसौदे पर जनता से 18 फरवरी 2025 तक अपनी राय मांगी है। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट पर प्रतिक्रिया MyGov.in के माध्यम से दी जा सकेगी। प्राप्त प्रतिक्रिया के बाद सरकार इस पर विचार करेगी।

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के मसौदे के अनुसार, भविष्य में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया अकाउंट चलाना कठिन हो जाएगा। मसौदे में यह प्रावधान है कि यदि कोई 18 साल से कम उम्र का नाबालिग सोशल मीडिया अकाउंट खोलता है, तो इसके लिए माता-पिता की मंजूरी अनिवार्य होगी। यह मसौदा बच्चों और दिव्यांग व्यक्तियों के व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठाने पर जोर देता है।

प्रतिक्रिया का खुलासा नहीं किया जाएगा
डिजिटल पर्सनल ड्राफ्ट रूल्स मसौदे के तहत डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड, बोर्ड के चेयरपर्सन और अन्य सदस्यों की सेवा शर्तों को लेकर स्पष्टता आने की उम्मीद है। अधिसूचना जारी करते हुए इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने कहा कि मसौदे पर मिलने वाली प्रतिक्रिया का खुलासा नहीं किया जाएगा।

डेटा उल्लंघन पर संस्थाओं को देनी होगी जानकारी
नियमों के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डेटा का उल्लंघन होता है, तो सोशल मीडिया एंटिटी, वित्तीय संस्थान या वेबसाइट जैसी संस्थाओं को उस व्यक्ति को इसकी जानकारी देनी होगी। इतना ही नहीं, संस्थाओं को उल्लंघन की प्रकृति, समय और स्थान का विवरण भी साझा करना होगा। संस्थाओं को यह भी बताना होगा कि उल्लंघन के क्या परिणाम हो सकते हैं और इससे बचने के क्या उपाय हैं।

संस्थाओं को डिजिटल टोकन का करना होगा इस्तेमाल
डिजिटल पर्सनल ड्राफ्ट रूल्स मसौदे के अनुसार, जो संस्थाएँ व्यक्तिगत डेटा को एकत्र करने और संभालने की जिम्मेदारी लेती हैं, उन्हें नाबालिग बच्चों के डेटा को प्रबंधित करने से पहले उनके माता-पिता की अनुमति लेना आवश्यक होगा। सहमति की पुष्टि के लिए संस्थाओं को डिजिटल टोकन का इस्तेमाल करना होगा। इसका मतलब है कि यदि कोई 18 वर्ष से कम आयु में सोशल मीडिया अकाउंट खोलता है, तो अब संस्था को उस बच्चे के माता-पिता की अनुमति लेना अनिवार्य होगा।

शैक्षणिक संस्थाओं और बाल कल्याण संगठनों के लिए नियमों में छूट
मसौदे में शैक्षणिक संस्थाओं और बाल कल्याण संगठनों के लिए नियमों में छूट का प्रावधान भी किया गया है। मसौदे में यह भी कहा गया है कि कंसेंट मैनेजरों के लिए डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड के साथ पंजीकरण किया जाएगा, जिसका नेटवर्थ कम से कम 12 करोड़ रुपये होना चाहिए।

उत्तर प्रदेश में निर्धन बच्चों की शिक्षा पर कुठाराघात

देश की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश में राम राज्य की परिकल्पना के मध्य धरातल की सच्चाई को समझ पाना हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके समर्थक जिस व्यवस्था को राम राज्य बता रहे हैं उस व्यवस्था में अपराध महँगाई, बेरोज़गारी, अराजकता, प्रशासनिक मनमानी बढ़ने के साथ साथ अब अशिक्षा भी बढ़ रही है। कहा जाता है कि शिक्षा एक ऐसा प्रकाश है, जिसमें कोई व्यक्ति नहा ले, तो उसका जीवन स्तर ऊँचा हो जाता है। मगर रोज़गार न मिलने पर पढ़े-लिखे लोग भी निर्धनता में जीवन व्यतीत करने को विवश होते हैं।

सेवानिवृत्त अध्यापक बलवंत सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी तो बढ़ ही रही है, अशिक्षा भी बढ़ रही है। स्थानीय स्तर पर दृष्टि घुमाने पर देखने में आया कि कोरोना काल से अनेक निर्धन परिवारों के बच्चों की शिक्षा बाधित हुई है। इसके अतिरिक्त निर्धन परिवारों के अधिकांश बच्चों की शिक्षा का सामान्य स्तर भी प्राथमिक शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक ही अधिक सीमित है। निजी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने से ग्रामीण क्षेत्र के 60 प्रतिशत बच्चे वंचित हैं। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर अत्यधिक निम्न है एवं वर्ष में सरकारी विद्यालयों की छुट्टियाँ भी सबसे अधिक रहती हैं। इसके अतिरिक्त कभी अध्यापक तो कभी विद्यार्थी छुट्टियाँ लेते रहते हैं। सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों पर विद्यालय आने का पहले जैसा दबाव भी अब नहीं रहता है। पहले यदि कोई विद्यार्थी अकारण अनुपस्थित हो जाता था, तब कक्षा के कुछ बच्चे उसे घर से पकड़कर लाते थे। अध्यापकों का भय विद्यार्थियों में रहता था। अब अध्यापक बच्चों को न मार सकते हैं एवं न पढ़ने का उन पर अधिक दबाव बना सकते हैं। सरकार ने क़ानून ही ऐसा बना दिया है। निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ा पाना सबके वश की बात नहीं है।

बंद हो रहे सरकारी विद्यालय

उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग के सूत्रों से बीते दिनों मिली एक जानकारी ने शिक्षा की ज्योति जलाने वालों को झटका दिया था। जानकारी यह थी कि उत्तर प्रदेश सरकार स्वयं ही प्रदेश के 27,764 सरकारी विद्यालयों को बंद करेगी। सरकार का यह निर्णय उन बच्चों पर सबसे बड़ा कुठाराघात है, जो निर्धन परिवारों से आते हैं। ऐसा कहा गया है कि शिक्षा विभाग अगले शैक्षणिक सत्र के आरंभ होने से पहले ही प्रदेश के 27,764 विद्यालयों में ताले जड़ देगा। इतनी बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालयों में ताले लगाने के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार का तर्क है कि विद्यार्थियों की घटती संख्या के कारण इन विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। इसके लिए कुछ दिन पहले ही शिक्षा विभाग के महानिदेशक ने एक समीक्षा बैठक में इसके लिए सभी जनपदों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों को निर्देश दे दिये हैं।

बेसिक शिक्षा विभाग के आधिकारिक सूत्र कहते हैं कि 50 से कम विद्यार्थियों की संख्या वाले विद्यालयों को बंद करके उन विद्यार्थियों को निकट के दूसरे विद्यालयों में प्रवेश दिया जाएगा। इस सम्बन्ध में 14 नवंबर तक बेसिक शिक्षा अधिकारियों को विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या एवं किन-किन विद्यालयों के विद्यार्थियों को स्थानांतरित करना है, इसकी पूरी विवरणी बनाकर उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपने का आदेश था; मगर कहा जा रहा है कि अभी सरकार ने इसकी जानकारी साझा नहीं की है कि शिक्षा अधिकारियों ने उसे विद्यालयों एवं उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की विवरणी सौंपी है कि नहीं। इन विद्यालयों को बंद करने को लेकर कांग्रेस पार्टी से सांसद प्रियंका गाँधी एवं अन्य विपक्षी नेताओं ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनकी शासन व्यवस्था पर निशाना साधा था। जन-सामान्य से लेकर राजनीतिक स्तर पर विद्यालयों के बंद करने प्रश्न पर सभी ने इसे अनुचित एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अज्ञानता का परिणाम ही बताया। मास्टर नंदराम कहते हैं कि योगी सरकार को विद्यालयों में घटती विद्यार्थियों की संख्या पर चिन्ता करते हुए उसे बढ़ाने के लिए प्रयास करने चाहिए थे। इसके लिए विद्यालयों में पढ़ाई का स्तर, विद्यालयों में प्राथमिक सुविधाओं एवं अध्यापकों की नियुक्ति पर कार्य किया जाना चाहिए था। मगर पहले शिक्षा का स्तर गिराकर विद्यालयों को बंद किया जा रहा है; क्योंकि निजी विद्यालयों से लाखों रुपये महीने की कमायी करने वाले उनके व्यापारी मालिक सरकार एवं शिक्षा अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। बीते 10 वर्षों में निजी विद्यालयों की संख्या दोगुनी से अधिक हो चुकी है। इसके विपरीत सरकारी विद्यालयों की संख्या घट रही है। ऐसा करके सरकार निर्धनों से शिक्षा का अधिकार छीनने का कार्य ही कर रही है।

योगी-राज में घटे विद्यालय

उत्तर प्रदेश में शिक्षा की अलख जगाने एवं उत्तर प्रदेश में राम राज्य स्थापित करने का दंभ भरने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन का विश्लेषण करने पर दृश्य अलग ही दिखेगा। नित्य सामने आने वाले समाचार अपराध की कई घटनाओं के गवाह होते हैं। बुलडोज़र का भय, महँगाई, बेरोज़गारी एवं असुरक्षा की भावना में बढ़ोतरी की भी गवाही ये समाचार देते दिखते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने क्रांति लाने की जगह उसे ठप किया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष 2001 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 88,927 थी। अगले 13 वर्षों के उपरांत वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 1,54,982 थी। इसके अगले वर्ष 2015 में 774 प्राथमिक विद्यालय बढ़े एवं इनकी कुल संख्या 1,55,756 हो गयी। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथ में आ गयी। योगी आदित्यनाथ के शासन के पाँच वर्ष बाद वर्ष 2022 में प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या घटकर 1,37,024 रह गयी थी। अर्थात् मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पाँच वर्ष के शासनकाल में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 18,732 कम हुई है। अब उन्होंने 27,764 विद्यालयों को बंद करने का निर्णय फिर ले लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगले वर्ष उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों की संख्या घटकर मात्र 1,09,260 रह जाएगी। इस प्रकार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आठ वर्ष शासनकाल में कुल 46,496 प्राथमिक बंद हो जाएँगे।

बजट में ढिंढोरा

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार शिक्षा का बजट जब-जब प्रस्तुत करती है, तो उनके शिक्षा मंत्रियों के भाषणों से ऐसा लगता है कि मानों दुनिया की सबसे अच्छी शिक्षा व्यवस्था उत्तर प्रदेश में ही है। मगर जब धरातल पर इसकी पड़ताल की जाती है तो दृश्य अलग ही दिखता है। स्नातकोत्तर की छात्रा सरिता (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन्होंने चार वर्ष पूर्व जब 12वीं की बोर्ड परीक्षा 72 प्रतिशत अंकों से पास की थी, तो उन्हें आशा थी कि प्रदेश की सरकार द्वारा 12वीं पास करने वाली छात्राओं को मिलने वाले नोटपैड में से एक मिलेगा; मगर उन्हें आज तक कोई नोटपैड नहीं मिला है।

वित्त वर्ष 2024-25 के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार ने सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले कक्षा आठ तक के 2,00,00,000 से अधिक छात्र-छात्राओं को नि:शुल्क स्वेटर एवं जूते-मोजे उपलब्ध कराने के लिए 650 करोड़ रुपये एवं किताबें रखने के लिए स्कूल बैग वितरित करने के लिए 350 करोड़ रुपये का बजट पारित किया था। सर्दियाँ भी आ गयीं; मगर सभी विद्यार्थियों पर न तो सरकारी बैग दिखते हैं एवं न ही सरकार की ओर से मिले हुए स्वेटर ही दिखते हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बजट में अलाभित समूहों एवं निर्धन वर्ग के 2,00,000 से अधिक बच्चों को वित्त वर्ष 2024-25 में विद्यालयों में प्रवेश दिलाने का लक्ष्य पूरा करने के लिए 255 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया था; मगर ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदेश सरकार ने कायाकल्प योजना के तहत भी इस वित्त वर्ष के लिए 1,000 करोड़ रुपये का बजट एवं ग्राम पंचायतों में डिजिटल पुस्तकालय स्थापित करने के लिए 300 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया था। मगर एकाध उदाहरण को छोड़ दें, तो दोनों में से एक भी कार्य धरातल पर फलीभूत होता दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ऐसी अनेक घोषणाएँ शिक्षा क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सरकार हर वर्ष करती रहती है; मगर दूसरी ओर वह शिक्षा के इन मंदिरों को बंद करती जा रही है, जिन्हें प्रदेश के नौनिहालों का जीवन प्रकाशित करने के लिए पिछली सरकारों ने बनाया है।

अच्छी नहीं विद्यालयों की स्थिति

उत्तर प्रदेश के अधिकांश विद्यालय दुर्दशाग्रस्त दिखायी देते हैं। अनेक विद्यालयों में कुछ वर्ष पूर्व बच्चों की कक्षाएँ सुसज्जित हुआ करती थीं। विद्यालयों के मैदान हरे-भरे हुआ करते थे, अब उन विद्यालयों की रंगत समाप्त होती जा रही है। कई विद्यालय जर्जर हो चुके हैं। इन विद्यालयों में बैठने की व्यवस्था तो दूर पेयजल एवं शौच की भी उचित व्यवस्था नहीं है। वर्षा में कई विद्यालय जलाशय बन जाते हैं। बीते दिनों सहारनपुर के वार्ड संख्या 66 के विद्यालय के सामने बिजली तारों का जाल विद्यार्थियों के प्राण संकट में डाले हुए हैं। कई विद्यालयों के बच्चे कीचड़ में होकर विद्यालयों तक का मार्ग तय करते हैं। कई विद्यालयों में मिलने वाले मिड-डे मील की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार हर वर्ष विद्यालयों का बजट प्रस्तुत तो करती है; मगर ऐसा लगता है कि यह बजट केवल सुनाने के लिए होता है अथवा बजट का अधिकांश भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

क्या इस साल विश्व युद्ध के लिए माहौल बन रहा है ?

*हर वर्ष विश्व युद्ध की आशंका व्यक्त की जाती है। २०२५ कुछ खास है।

**थिएटर रेडी है, जानें कब विश्व युद्ध का तीसरा सीक्वल रिलीज होगा

बृज खंडेलवाल द्वारा

“नानू, अनुमान लगाओ  कि चौथा विश्व युद्ध कब शुरू होगा?

कोई संभावना नहीं है प्रिय वीर! आने वाला विश्व युद्ध किसी को भी जीवित नहीं छोड़ेगा, जिससे तीसरा सीक्वल बन सके।”

वास्तव में, तीसरे विश्व युद्ध की संभावनाएँ,  – मानवता का पसंदीदा खेल ! यह किसी मूवी फ़्रैंचाइज़ के खराब रीबूट की तरह है: वही कथानक (सत्ता संघर्ष), नए विशेष प्रभाव (एआई ड्रोन और साइबर हमले), और पात्रों की एक और भी बदतर कास्ट।

मज़ाक को छोड़ दें, तो शराब पार्टियों के बीच चर्चा का वर्तमान विषय यह है कि क्या 2025 में आखिरकार ख़तरनाक तीसरा विश्व युद्ध छिड़ जाएगा या अभी लंबा इंतेज़ार करना होगा।

2025 के लिए सबसे भयावह भविष्यवाणियों में से, सबसे ख़तरनाक तीसरे विश्व युद्ध का भूत है। बहुत लोगों को डर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

विश्व युद्ध की संभावनाओं की भविष्यवाणी करना जटिल है। संभावित रूप से बड़े पैमाने पर संघर्ष को ट्रिगर करने वाले कारकों में शामिल हैं: यू.एस., चीन और रूस जैसी प्रमुख शक्तियों के बीच बढ़ते विवाद संघर्ष की संभावना, क्षेत्रीय विवाद, विशेष रूप से दक्षिण चीन सागर या पूर्वी यूरोप जैसे क्षेत्रों में, महत्वपूर्ण जोखिम पैदा करते हैं; नाटो जैसे मौजूदा गठबंधन, एक सदस्य राज्य पर हमला होने पर व्यापक संघर्ष का कारण बन सकते हैं। इसके विपरीत, अनौपचारिक गठबंधन भी तनाव बढ़ा सकते हैं; पानी, ऊर्जा और भोजन जैसे संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा संघर्ष का कारण बन सकती है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो पहले से ही अस्थिरता का शिकार हैं; बढ़ते साइबर हमले और डिजिटल युद्ध के कारण जवाबी कार्रवाई हो सकती है, जो  सैन्य कार्रवाइयों तक बढ़ सकती है; विभिन्न देशों में बढ़ती आतंकवादी घटनाएं, उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं के कारण कथित खतरों के खिलाफ आक्रामक विदेश नीतियां या सैन्य कार्रवाई हो सकती है; आर्थिक अस्थिरता देशों को ध्यान भटकाने या एक आम दुश्मन के खिलाफ जनता को एकजुट करने के साधन के रूप में संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित कर सकती है; अप्रत्याशित घटनाएं, जैसे क्षेत्रीय विवाद बढ़ना, सैन्य टकराव या हत्याएं, तनाव को तेजी से बढ़ा सकती हैं।

जबकि विश्व युद्ध की संभावना को मापना मुश्किल है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के कूटनीतिक प्रयास, आर्थिक परस्पर निर्भरता और आधुनिक संचार ऐसे संघर्षों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जनवरी 2025 में, एशिया कई भू-राजनीतिक तनावों का सामना कर रहा है जो क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित कर सकते हैं। चिंता के प्रमुख क्षेत्रों में शामिल हैं: चीन और ताइवान के बीच बढ़ता तनाव, दोनों पक्षों की ओर से सैन्य गतिविधियाँ और मुखर बयानबाजी बढ़ गई है। ताइवान के पास चीन के सैन्य निर्माण और अभ्यास ने संभावित संघर्ष के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने ताइवान के साथ सैन्य आदान-प्रदान बढ़ा दिया है, और अमेरिकी सैन्य जहाज़ उच्च आवृत्ति पर ताइवान जलडमरूमध्य से गुज़रे हैं, जिससे संबंध और भी तनावपूर्ण हो गए हैं।

दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय दावों को लेकर विवाद चीन, फिलीपींस, वियतनाम और अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के बीच घर्षण पैदा करते रहते हैं। चीन द्वारा सैन्य सुविधाओं का निर्माण और विवादित रीफ़ पर काउंटर-स्टील्थ रडार सिस्टम की तैनाती ने क्षेत्रीय तनाव को बढ़ा दिया है इसके अतिरिक्त, यूक्रेन संघर्ष में रूस का समर्थन करने के लिए उत्तर कोरिया द्वारा सैनिकों की कथित तैनाती ने क्षेत्रीय गतिशीलता को जटिल बना दिया है। 2025 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वापसी ने अमेरिकी विदेश नीति में अनिश्चितताओं को जन्म दिया है। उनके प्रशासन का ‘युद्धों को समाप्त करने’ पर ध्यान केंद्रित करना और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए लेन-देन का दृष्टिकोण अपनाना एशियाई संघर्षों में अमेरिकी भागीदारी को प्रभावित कर सकता है, विशेष रूप से चीन और ताइवान से संबंधित। उधर नॉर्थ कोरिया भी समय समय पर उकसाने वाली कार्यवाही कर रहा है। जिओ पॉलिटिकल तनाव एशिया में आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर रहे हैं। चीन और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में इंजीनियरिंग क्षेत्रों में कमजोरी के संकेत मिले हैं, आंशिक रूप से अमेरिकी टैरिफ नीतियों से जुड़ी व्यापार अनिश्चितताओं के कारण। चीन की आर्थिक सुधार सुस्त बनी हुई है, जिससे क्षेत्रीय आर्थिक चिंताएँ बढ़ रही हैं। इसके अलावा, यूक्रेन और रूस के बीच संघर्ष, पश्चिम एशिया में संकट, जिसमें इज़राइल, फिलिस्तीन, सीरिया, ईरान शामिल हैं, बड़े क्षेत्रों को विनाशकारी क्रोध में झोंकने की धमकी देते हैं। दक्षिणपंथी उग्रवादियों द्वारा शेख हसीना को अपदस्थ करने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप भी एक नया हॉट स्पॉट बन गया है, जिससे उथल-पुथल और अनिश्चितता पैदा हुई है। म्यांमार की सीमा पर भी सैन्य जुंटा, बौद्ध उग्रवादी संगठन और रोहिंग्याओं के बीच लगातार संघर्ष के दृश्य देखे जा रहे हैं। अभी दुनिया के सभी क्षेत्र समस्याओं और हॉट स्पॉट से ग्रसित हैं।

विश्व को प्रलयकारी भट्टी में झोंकने  के लिए सिर्फ एक पागल अहंकारी  शासक की जरूरत है जो  एआई नियंत्रित परमाणु हथियारों के ट्रिगर को सभी दिशाओं में दबा सके। चंद घंटों में पृथ्वीवासी गोलोकधाम के द्वारों पर क्यू में लगे दिखेंगे।

किसानों की सुनो सरकार

 किसानों की ओर केंद्र सरकार का ध्यान खींचने के लिए किसान नेता डल्लेवाल ने लगा दी जान की बाज़ी

योगेश

किसान आन्दोलन अब उस मोड़ पर है, जहाँ से किसानों को यह निर्णय लेना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और दूसरी जायज़ माँगों को लेकर उनकी लड़ाई कितनी मज़बूत है। पंजाब के किसान पूरे देश के लिए किसान आन्दोलन को मज़बूत करने के लिए 2020 से लगातार किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन किसानों का आन्दोलन संयुक्त किसान मोर्चा (ग़ैर-राजनीतिक) के 70 वर्षीय किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के बिगड़ते स्वास्थ्य को लेकर संवेदनशील मोड़ पर है। किसानों का कहना है कि अगर उनके नेता को कुछ हुआ, तो पूरे देश में बड़ा आन्दोलन होगा। हालाँकि इस किसान आन्दोलन को बड़ा आन्दोलन बनने में सबसे बड़ी अड़चन पूरे देश के किसानों में जागरूकता की कमी है। लेकिन देश के सभी जागरूक किसान अपने नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के स्वास्थ्य को लेकर जितने चिन्तित हैं, उतने ही सरकार से नाराज़ भी हैं।

26 नवंबर से पंजाब-हरियाणा के बीच खनोरी बॉर्डर पर अनिश्चितकालीन आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल लगातार डॉक्टरों की निगरानी में हैं। उन्होंने किसानों को न्याय न मिलने तक अन्न-जल का त्याग कर दिया है, जबकि वह प्रोटेस्ट कैंसर से पीड़ित हैं। उनके स्वास्थ्य को लेकर केंद्र सरकार पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने उनके स्वास्थ्य की रिपोर्ट भी पिछले दिनों माँगी थी। पंजाब सरकार से किसान नेता के स्वास्थ्य का ध्यान रखने को भी कहा था। इसके अलावा जज सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली बेंच ने किसानों के मुद्दे को लेकर अगली सुनवाई की तारीख़ 02 जनवरी दी है। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने पंजाब के मुख्य सचिव और मेडिकल बोर्ड के अध्यक्ष से स्टेटस रिपोर्ट दाख़िल करने को कहा है और यह भी कहा कि अगली सुनवाई से पहले भी अगर ज़रूरत हो, तो कोई भी पक्ष कोर्ट आ सकता है। हालाँकि अभी तक कोई पक्ष सुप्रीम कोर्ट नहीं गया है। फ़िलहाल 02 जनवरी को सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर सबकी नज़र है।

इधर किसान नेता जगतीत सिंह ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते किसान नेता ने पिछले दिनों अपनी सारी संपत्ति भी अपने बच्चों के नाम कर दी थी। ज़्यादातर लोग उनके प्राणों को संकट में मान रहे हैं। कई किसान और लोग वाले लोग किसान नेता डल्लेवाल जी से अनशन तोड़ने की भी गुज़ारिश कर चुके हैं; लेकिन डल्लेवाल जी ने किसानों को न्याय दिलाने के लिए अनशन तोड़ने से मना कर दिया। अब वह लगातार डॉक्टरों की निगरानी में हैं। डॉक्टरों का कहना है कि अनशन के चलते उनके प्राण संकट में हैं।

बता दें कि 2020 में तीन कृषि क़ानून किसानों के ख़िलाफ़ लाकर केंद्र सरकार ने ही किसानों को आन्दोलन के लिए मजबूर किया था। इससे किसान आन्दोलन करने लगे। लेकिन इस आन्दोलन में किसानों पर हमले किये गये। जब किसान दिल्ली की तरफ़ बढ़े, तो उन्हें दिल्ली के सभी बॉर्डरों पर रोकने के लिए हाईवे खोदे गये, बड़ी-बड़ी कीलें लगायी गयीं और बैरिकेडिंग की गयी। किसानों पर झूठे मुक़दमे दर्ज किये गये। कई जगह किसानों की हत्या के षड्यंत्र भी किये गये, जिसमें कई किसान मारे गये। इस पर भी जब किसानों ने पीछे हटने से मना कर दिया, तब केंद्र सरकार ने किसानों का आन्दोलन समाप्त कराने की नीयत से उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी एमएसपी समेत सभी माँगें पूरी की जाएँगी।

केंद्र सरकार के झाँसे में आकर किसानों ने यह कहकर आन्दोलन स्थगित कर दिया कि अगर सरकार ने उनकी माँगों को पूरा नहीं किया, तो वे फिर से सड़कों पर उतरकर आन्दोलन करेंगे। लेकिन केंद्र सरकार का आश्वासन किसानों के साथ एक धोखा साबित हुआ है और इसी को लेकर पंजाब और हरियाणा के जागरूक किसान आन्दोलन स्थगित होने के कुछ ही महीने बाद फिर से आन्दोलन करने लगे और आज भी यह आन्दोलन जारी है। हरियाणा पुलिस ने तो किसानों को दिल्ली तक पहुँचने से रोकने के लिए आँसू गैस, रबड़ की गोलियाँ, पानी की बौछार और अन्य घातक हथियारों तक का इस्तेमाल किया है। हरियाणा पुलिस ने सिंघु और खनोरी बॉर्डर पर किसानों पर ख़तरनाक स्प्रे भी की है। हरियाणा पुलिस की कार्रवाई में इस साल ही कई किसानों की मौत हुई है और कई दज़र्न किसान बुरी तरह घायल हुए हैं। अब इस आन्दोलन में ही फ़रीदकोट के रहने वाले भारतीय किसान यूनियन (एकता सिद्धूपुर – ग़ैर राजनीतिक) के किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल लगातार किसानों के लिए सड़कों पर हैं। जब उन्हें लगा कि सरकार किसानों की कोई बात सुनने तक को तैयार नहीं है, तो उन्होंने 26 नवंबर से अनिश्चितकालीन आमरण अनशन पर बैठने का निर्णय ले लिया। उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है, जिससे किसान परेशान हैं।

मनमोहन होना आसान नहीं

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 92 साल की उम्र में 26 दिसंबर 2024 की रात 9 बजकर 51 मिनट पर इस दुनिया को छोड़ दिया। तबीयत ख़राब होने की वजह से उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में उस दिन रात 8:00 बजे के क़रीब भर्ती कराया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के देहांत के बाद देश के अलावा पूरी दुनिया से शोक संदेश आये और बड़ी संख्या में लोगों को उनके किये गये अच्छे काम और दुनिया भर में छाई मंदी के दौरान जब भारत के पास महज़ 15 दिन का पैसा बचा था और आर्थिक मामलों में देश दुनिया में बहुत पीछे खड़ा था, तब उन्होंने भारत की बाग़डोर सँभालकर न सिर्फ़ आर्थिक रूप से मज़बूत करके दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी ताक़त बनाया था, बल्कि देश में विकास भी ख़ूब किया। लेकिन उन्हीं पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री को साल 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने कभी मौन मोहन सिंह कहा, तो कभी रेन कोट पहनकर नहाने वाला प्रधानमंत्री कहा। आज भारत जिस आर्थिक संकट और महँगाई से गुज़र रहा है, वो यह साफ़ करता है कि एक पढ़े-लिखे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और आज के डींगें हाँकने वाले 56 इंची छाती का दावा करने वाले घुमक्कड़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में क्या अंतर है? इसे लेकर अब देश-विदेश में चर्चा भी हो रही है।

आज न सिर्फ़ बैंकों में आर्थिक संकट है, बल्कि देश पर चार गुने से ज़्यादा क़र्ज़ पिछले 10 वर्षों में हो चुका है। डॉलर के मुक़ाबले रुपया भी जितनी तेज़ी से कमज़ोर हुआ है और जितनी तेज़ी से बेरोज़गारी और महँगाई बढ़ रही हैं, वो सब चीज़ें उन्हीं मौन मोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री को याद करने को लोगों को मजबूर कर रही हैं। हालाँकि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्द हैं। लोगों की नज़र में तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए एक सम्मान है, जो हमेशा रहेगा। क्योंकि उनके समय में भारत की जनता जितनी सुखी थी, उतनी आज किसी भी एंगल से नहीं दिखती। आज एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं दिखायी देता, जिसमें मोदी सरकार ने मनमोहन सिंह सरकार से ज़्यादा अच्छा काम किया हो। फिर भी अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को पानी पी-पीकर कोसने वाले देश के पहले और इकलौते प्रधानमंत्री मोदी डींगें हाँकने में पीछे नहीं हैं।

साल 2004 में एनडीए की अटल सरकार के कार्यकाल पूरे होने पर लोकसभा चुनाव जीतकर यूपीए सरकार बनने पर उस समय की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री पद सँभालने का न्योता दिया और उन्होंने पूरे 10 साल जून, 2014 तक प्रधानमंत्री के रूप में देश की सेवा की। अपनी सादगी और गंभीर सोच के लिए पहचाने जाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्री के इस दो पंचवर्षीय कार्यकालों के दौरान 100 से ज़्यादा प्रेस कॉन्फ्रेंस कीं। उनकी गिनती न सिर्फ़ भारत के जाने-माने अर्थशास्त्रियों में होती है, बल्कि उनका लोहा पूरी दुनिया मानती थी। वे कभी किसी विदेशी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के जबरन गले नहीं पड़े; लेकिन उनका सम्मान पूरी दुनिया में होता था। प्रधानमंत्री बनने से पहले डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार, वित्त सचिव और देश के सबसे बड़े केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर रहकर देश की सेवा कर चुके थे। वे आरबीआई के 15वें गवर्नर थे। शान्त, विनम्र और गंभीर स्वभाव के प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह इतने समझदार थे कि उन्हें कभी डींगें हाँकते या ग़ुस्सा करते हुए नहीं देखा गया। ईमानदारी के मामले में भी वे लाल बहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री और डॉ. अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रपति की क़तार में खड़े दिखते हैं। प्रधानमंत्री रहते हुए भी उनकी संपत्ति में सरकारी पेंशन और तनख़्वाह के अलावा कोई अतिरिक्त बढ़ोतरी नहीं देखी गयी। साल 2013 में प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी संपत्ति का एक हलफ़नामे में ख़ुलासा करते हुए बताया था कि उनके पास दो घर (दिल्ली और चंडीगढ़), क़रीब 3.46 करोड़ रुपये बैंक बैलेंस, 150.80 ग्राम सोना और एक मारुति कार 800 उस समय थी। उनकी दी गयी जानकारी के मुताबिक, उनकी नेट बर्थ महज़ 15 करोड़ 77 लाख रुपये के आसपास थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही उन्हें मौन मोहन सिंह और रेनकोट पहनकर नहाने वाला प्रधानमंत्री कहा; लेकिन आज तक डॉ. मनमोहन सिंह पर न तो किसी प्रकार के भ्रष्टाचार का आरोप लग सका और न ही उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार सम्बन्धी कोई शिकायत या टिप्पणी कोई कर सका। इसके पीछे न सिर्फ़ उनकी ईमानदारी थी, बल्कि उनका सरल और देश को तरक़्क़ी देने वाला स्वभाव था।

साल 2004 से साल 2014 तक डॉ. मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री रहे, और उनकी पहचान एक ईमानदार, चिंतक, दूरदर्शी, समझदार प्रधानमंत्री के रूप में दुनिया भर में स्थापित हुई। अपने विरोधियों के भला-बुरा कहने, आलोचना होने और मीडिया के सवालों पर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कभी विचलित नहीं हुए और हर सवाल का जवाब उन्होंने देश को दिया। देश हित में वेलफेयर प्रोग्राम की शुरुआत करने वाले वे पहले प्रधानमंत्री बने। इन प्रोग्राम्स में नेशनल रूरल इंप्लाइमेंट गारंटी एक्ट (नरेगा) और राइट टू इनफार्मेशन एक्ट (सूचना का अधिकार) जैसे महत्त्वपूर्ण प्रोग्राम शामिल हैं। उनकी सोच शहरों की तरह गाँव के लोगों को गाँव में ही रोज़गार देने के प्रयास की रही, जिससे शहरों में भीड़ न बढ़े और निम्न स्तर पर गुज़र-बसर करने वाले मज़दूरों को भी कम-से-कम 100 दिन का सरकारी कामों में रोज़गार मिल सके। उनकी सरकार ने मनरेगा के ज़रिये ग़रीबों को सशक्त करने और गवर्नेंस को बेहतर बनाने पर काम किया। आज उनकी तारीफ़ न सिर्फ़ भारत के मित्र देशों, बल्कि भारत के दुश्मन देशों के नेता भी करके उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के नेता फ़वाद चौधरी ने तो अपने एक्स के सोशल अकाउंट पर लिखा है कि ‘डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बारे में सुनकर दुख हुआ। भारत आज जिस आर्थिक स्थिरता का आनंद ले रहा है, वह काफ़ी हद तक उनकी दूरदर्शी नीतियों के कारण है। उनका जन्म झेलम के गाह गाँव में हुआ, जो अब पंजाब (पाकिस्तान) के चकवाल में पड़ता है। झेलम के बेटे डॉ. सिंह इस क्षेत्र के लोगों के लिए एक प्रेरणा की तरह है।

बता दें कि डॉ. मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर, 1932 को अंग्रेजी हुकूमत के समय अविभाजित भारत के पंजाब राज्य के गाह गाँव में हुआ था, जो अगस्त, 1947 के भारत विभाजन के दौरान पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। मनमोहन सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव में ही हुई। अपने घर से सम्पन्न मनमोहन सिंह की बाद की पूरी उच्च शिक्षा प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड जैसी यूनिवर्सिटीज में हुई। साल 1991 में जब भारत गंभीर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था, तब डॉ. मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए उदारीकरण की दिशा में कई ऐतिहासिक क़दम उठाये। इसी तरह उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्थाओं में शामिल हुआ। उनकी विदेश नीति और विदेश व्यापार नीति इतनी जबरदस्त थी कि उनके कार्यकाल में भारत ने दुनिया में कई नये आयाम स्थापित किये। इसी तरह शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास में भी उनकी दूरदर्शी सोच का मुक़ाबला उनके बाद की केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नहीं कर सके। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ईमानदारी, दूरदर्शिता, उनकी नीतियाँ और उनके नेतृत्व की क्षमता भारतीय राजनीति में उनकी एक अलग पहचान बनाती हैं। उनके समय में भारत के पाकिस्तान से विवाद कम हुए थे। चीन की भी उनके शासनकाल में भारतीय सीमा में घुसने की कभी हिम्मत नहीं हो सकी।

अपने कार्यकाल के दौरान साल 2009 में प्रधानमंत्री रहते हुए जब डॉ. मनमोहन सिंह गंभीर रूप से बीमार हुए और दिल्ली के एम्स में उन्हें भर्ती कराया गया, तब उनकी क़रीब 10-12 घंटे की लंबी कोरोनरी बाईपास सर्जरी हुई थी। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह की सर्जरी करने वाले वरिष्ठ कार्डियक सर्जन डॉ. रमाकांत पांडा ने हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री के परलोक सिधारने पर एक चैनल पर दिये साक्षात्कार में बताया है कि इतनी लंबी सर्जरी के बाद जब डॉ. मनमोहन सिंह को होश आया, तो सबसे पहले उन्होंने अपनी सेहत को लेकर नहीं, बल्कि देश और कश्मीर की ख़ैरियत को लेकर पूछा था। जब उनकी साँस लेने वाली पहली नली निकाली गयी, जिससे वह बात कर सकें, तो उन्होंने मुझसे सबसे पहले यही पूछा कि मेरा देश कैसा है? कश्मीर कैसा है? मैंने कहा कि लेकिन आपने मुझसे अपनी सर्जरी के बारे में कुछ नहीं पूछा? तो उनका जवाब था कि मुझे सर्जरी की चिन्ता नहीं है। मुझे अपने देश की ज़्यादा चिन्ता है। वरिष्ठ सर्जन डॉ. रमाकांत पांडे ने बताया कि जब सर्जरी हो गयी थी, उसके बाद डॉ. मनमोहन सिंह जाँच के लिए एम्स जाते थे, तो हम उन्हें लेने गेट पर जाते थे। लेकिन वह हमेशा हमसे ऐसा करने को बड़ी विनम्रता से मना करते थे। डॉ. रमाकांत ने यहाँ तक कहा है कि वे (डॉ. मनमोहन सिंह) एक महान् इंसान, विनम्र व्यक्ति और देशभक्त थे। वह मेरे आदर्श थे।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भारत के आर्थिक सुधारों का वास्तुकार कहा जाता है। एनडीए की सरकार में प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेई के पाँच साल के शासन के बाद पूरे 10 साल तक वह देश के प्रधानमंत्री रहे; लेकिन कभी किसी कंट्रोवर्सी में नहीं फँसे और न ही जनता में उनकी निंदा इस क़दर हुई कि वह आलोचना के पात्र बन सकें। उनके बयानों में भी कभी कोई कंट्रोवर्सी रही और न ही उन्होंने कभी अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को कोसा। उन्हें जहाँ से देश की बाग़डोर मिली, वहीं से अपनी ज़िम्मेदारी सँभालते हुए देश को आगे बढ़ाया और एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री की तरह उतनी ही विदेश यात्राएँ कीं, जितनी देश के कामों के लिए ज़रूरी थीं। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कभी भी भारत या किसी अन्य देश में जाकर न ही अपने चहेते लोगों को ठेके दिलाने का काम किया और न ही किसी पूँजीपति से कोई दोस्ती का रिश्ता रखा। अपने रिश्तेदारों और सहयोगियों की भी मदद भी उन्होंने कभी अपने पद की गरिमा तार-तार करके नहीं की। अन्ना हजारे के आन्दोलन में जिस प्रकार से उनके नेतृत्व वाली यूपीए सरकार, ख़ासकर कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे; डॉ. मनमोहन सिंह का उससे दूर-दूर तक कोई नाता नहीं दिखा। ऐसे महान् भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के न रहने पर उन्हें आज सिर्फ़ भारत के समर्थक और विरोधी नेताओं के साथ-साथ देश की जनता ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया भावभीनी श्रद्धांजलि देकर याद कर रही है। वह हमेशा हमें एक अच्छे प्रधानमंत्री के रूप में याद रहेंगे और इस बात की प्रेरणा हर उस देश भक्त अच्छे नागरिक को दिलाते रहेंगे कि देश हित में काम किस तरह से ख़ामोशी से किया जाता है। अलविदा डॉ. मनमोहन सिंह!

पहले जैसा नहीं रहा बनारस

बनारस अथवा वाराणसी अब पहले जैसा नहीं रहा। हालत बहुत बदल गये हैं। ढाँचागत विकास के साथ-साथ इस प्राचीन शहर की दशा और दिशा में भी परिवर्तन हुआ है। हैदराबाद से बनारस घूमने पहुँचे श्रीनिवास और बसंता, दिल्ली से पहुँचे ललिता और शशि बंसल तो ऐसा ही बताते हैं। अस्सी घाट से लेकर दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा आरती देखने के लिए मेरे साथ वे भी क्रूज पर सवार थे। इसके अलावा जिन लोगों ने ख़ासकर महिलाओं ने इस शहर में ही अपनी आँखें खोलीं और काशी में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी बितायी, उनकी मानें तो बनारस का ऐसा कायाकल्प हो जाएगा, इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

नया विकास बहुत ख़ूबसूरत है। मेरी तो आँख यही खुली और शहर में ही सारी ज़िन्दगी काटी है। श्रीमती शोभा नूर अवस्थी कहती हैं कि लड़कियों के लिए शाम के समय चलना बहुत मुश्किल था। रात में तो सोच भी नहीं सकते थे। सड़कें बहुत ख़राब थीं। गलियों में चलने पर लड़के बहुत परेशान करते थे। गलियों में लाइट तक नहीं होती थी। पानी का कोई भरोसा नहीं था। यानी कि बहुत-ही ख़राब हालत में था यह शहर। बनारस इतना सुंदर हो जाएगा, यह सोचा भी नहीं था। इतनी सफ़ाई हो गयी। गलियों में हर जगह बल्ब दिखायी देते हैं। अब पानी भी आता है, लाइट भी आती है। पहले एसी चलाकर छोड़ देते थे कि जब लाइट आएगी, कमरा ठंडा हो जाएगा। लेकिन अब पता है कि लाइट है। हमारी मिक्सी चलेगी, हमारा ओवन चलेगा और गीजर चलेगा। अब आप आधी रात में भी घूमने निकल सकती हैं। इस शहर में महिलाओं ने बहुत अव्यथाएँ झेली हैं। शहर के इस कायाकल्प के लिए बहुत सारी महिलाएँ प्रधानमंत्री का विजन तो मानती ही हैं; लेकिन उनका कहना है कि योगी आदित्यनाथ ने इसे बहुत अच्छे-से निभाया है।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग की प्रोफेसर उर्मिला रानी श्रीवास्तव बनारस की पहचान के लिए इसकी गलियाँ, लज़ीज़ व्यंजन, हो रही तरक़्क़ी को बनारस की पहचान मानती हैं। उनका कहना है कि मेरा जन्म तो बनारस में ही हुआ। इसलिए इस शहर से काफ़ी गहरा रिश्ता है। बनारस शंकर भगवान के त्रिशूल पर स्थित है। उनका कहना है कि देश विदेश में कहीं भी चले जाओ, बनारसी अंदाज़ आपको कहीं नहीं मिलेगा। बनारस में लोग सहयोगी हैं, बहुत प्यार से बोलते हैं। बनारसी अंदाज़ जैसे कंधे पर हाथ रखकर बात करना, गले लगा लेना। विकास तो इतनी तेज़ी से हुआ है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। ख़ासतौर पर अपराध बहुत कम हुआ है। रात को भी हम लोग निकल पाते हैं। अब आबादी बहुत है। कहीं-न-कहीं अपराध तो हो भी रहा है; लेकिन उसका प्रतिशत काफ़ी कम हुआ है। प्रशासन मज़बूत हुआ है। पुलिस सक्रिय हुई है। यही वजह है कि जो कोई अपराध करता भी है, वह जल्दी पकड़ा भी जाता है। उर्मिला रानी बताती हैं कि पिछले कुछ वर्षों से जातिगत विभेद देखने को मिल रहा है। लेकिन कई समूह ऐसे हैं, जैसे पढ़े-लिखे लोगों के यहाँ कोई जातिगत विभेदन नहीं है। बचपन में तो हम कुछ जाति वग़ैरह जानते ही नहीं थे। हम तो गुरुद्वारा भी गये, चर्च भी गये। हर मज़हब की जो अच्छाइयाँ हैं, उनकी तह-ए-दिल से इज़्ज़त करते हैं। ईश्वर तो एक ही है।

बनारस के लोगों की मानें, तो शहर में काफ़ी बदलाव देखने को मिल रहा है। लेकिन बनारस कैंट से जब बाबा विश्वनाथ मंदिर की ओर जाते हैं, तो सड़कों पर ट्रैफिक जाम की समस्या बहुत परेशान करने वाली है। भीड़ में चलना बहुत मुश्किल है। काल भैरव मंदिर के बाहर लोगों की भीड़ परेशान करने वाली है और मंदिर के अंदर तो ऐसी अव्यवस्था थी कि धक्का-मुक्की वाली नौबत देखी गयी, बल्कि कई महिलाएँ और वृद्ध गिरते देखे गये।

(ग्राउंड ज़ीरो रिपोर्ट)