मराठा आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे आज दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करेंगे। वे चक्रवात राज्य में हुए नुक्सान और कुछ अन्य मुद्दों पर भी पीएम से चर्चा करेंगे। जानकारी के मुताबिक उन्होंने आधिकारिक बैठक के अलावा 10 मिनट की एक वन-टू-वन मीटिंग का भी पीएमओ से उद्धव ने आग्रह किया है।
ठाकरे नई दिल्ली पहुँच गए हैं। उनके साथ एक प्रतिनिधिमंडल भी आया है, जिसमें उपमुख्यमंत्री अजीत पवार के अलावा कांग्रेस नेता और लोक निर्माण मंत्री अशोक चव्हाण भी शामिल हैं। बता दें चव्हाण मराठा आरक्षण पर मंत्रिमंडलीय उपसमिति के प्रमुख हैं।
उद्धव प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुलाकात के दौरान मराठा आरक्षण के अलावा चक्रवात राहत उपायों के लिए वित्तीय मदद और जीएसटी रिफंड जैसे मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे। याद रहे पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में नौकरियों और शिक्षा में मराठा समुदाय के लोगों को आरक्षण देने से संबंधित 2018 का आरक्षण कानून खारिज कर दिया था। वालसे पाटिल ने कहा कि प्रधानमंत्री के साथ बैठक के दौरान ठाकरे मराठा आरक्षण, चक्रवात ताउते राहत उपायों के लिए वित्तीय सहायता, जीएसटी रिफंड जैसे विषयों पर चर्चा करेंगे.
बता दें एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने सोमवार शाम ठाकरे से मुलाकात की थी। पिछले एक पखवाड़े में पवार की ठाकरे के साथ यह दूसरी बैठक है। गठबंधन सरकार के सभी दल मराठा आरक्षण को लेकर एकजुट रहे हैं।
मराठा आरक्षण, चक्रवात पर आज उद्धव दिल्ली में मिलेंगे पीएम से
दो-मुँहा व्यवहार
हाल ही में फेसबुक पर मेरे द्वारा ईद-उल-फ़ितर की मुबारकबाद देने पर एक ख़ुद को ख़ुद ही सम्भ्रांत मानने वाले एक हिन्दू संरक्षक सज्जन ने टिप्पणी लिखी- ‘अरे पंडित जी पंचांग देखकर थोड़ी अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की भी कर लो।’ पहले तो इन महाशय की भाषा देखिए। इससे ही पता चलता है कि इनके संस्कार कैसे हैं? फिर भी मैंने इनको जवाब दिया- ‘भाई साहब! सभी प्रमुख त्योहारों की मुबारकबाद, शुभकामनाएँ देता हूँ। आपने कभी होली, रक्षाबन्धन और दीपावली की शुभकामनाएँ स्वीकार ही नहीं कीं।’ इस पर इनका जवाब आता है- ‘तो आपके पंचांग में आज एक ही त्योहार था क्या इन्हीं बाक़ी नहीं थे।’ इस ‘इन्हीं’ का मतलब समझने की ज़रूरत है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि इन महाशय के मन में एक मज़हब विशेष को मानने वालों के प्रति कितना ज़ह्र भरा है?
खै़र, इसके बाद मैंने दो और जवाब लिखे। लेकिन फिर इनका मुँह नहीं खुल सका। क्योंकि इनके पास जवाब नहीं था। होता भी कैसे? इन्होंने पिछले चार-पाँच साल की फेसबुक मित्रता में कभी भी न तो मेरे किसी शे’र पर दाद दी, न उसे लाइक किया और न ही सनातन रीति से मनाये जाने वाले किसी त्योहार की मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार कीं। इससे इनकी नाक कटती है। लेकिन नफ़रतें बोने से इनकी शान बढ़ती है। क्योंकि ऐसा करने से नफ़रतों की यूनिवर्सिटी चलाने वाले आकाओं की नज़रों में सम्मान बढ़ता है।
मज़ेकी बात यह है कि इन्होंने ख़ुद भी अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की शुभकामनाएँ अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं दीं। क्यों? क्योंकि इनके सम्बन्ध मुस्लिमों से भी ठीक-ठाक हैं। उनके साथ अच्छा-ख़ासा उठना-बैठना है। उन्हें ऐसे लोग फोन करके ईद-उल-फ़ितर (मीठी ईद) की ही नहीं, ईद-उल-अज़हा (बकरा ईद) की भी मुबारकबाद कहीं एक अदद दावत मिलने की ख़्वाहिश में देते हैं। बस दूसरों को नफ़रत की भट्ठी में झोंकना इनका काम है। वैसे तो इन महाशय के बारे में भी बहुत कुछ जानता हूँ। लेकिन उस सबका ज़िक्र यहाँ ठीक नहीं। दरअसल इस तरह के लोग लालची होते हैं। इन्हें जहाँ बोटी मिलेगी, वहाँ सब ठीक है; और जहाँ भाव नहीं मिलेगा, वहाँ सब कुछ ग़लत है। वैसे भी महोदय ऐसे विभाग से जुड़े हैं, जहाँ बहुत-से लोग ईमानदार होते ही नहीं हैं।
खै़र, किसी की ईमानदारी और बेईमानी से मुझे क्या लेना-देना। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसे लोगों को समाज में रहने का हक़ है? क्या यह लोग शान्तिपूर्ण और इंसानियत भरे माहौल के लिए घातक नहीं हैं? क्या ऐसे लोगों की वजह से ही अलग-अलग धर्मों को मानने वालों के बीच बैर-भाव नहीं बढ़ रहा है? क्या ऐसे लोग देश की सही मायने में पूरी ईमानदारी से रक्षा करते होंगे? क्या ऐसे लोग दूसरों के साथ समता भरा व्यवहार करते होंगे? मेरे ख़याल से तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि जो व्यक्ति ख़ुद सही नहीं है, वह दूसरों को सही रास्ता क्या दिखाएगा? कभी दिखा ही नहीं सकता। और ऐसे लोग हमारे समाज में ही किसी कंटीले जाल की तरह नहीं फैले हैं, बल्कि बड़े-बड़े ओहदों पर भी बैठे हैं; जिनका वे मनमाने तरीक़े से दिन-रात दुरुपयोग करते हैं।
यही वजह है कि आज समाज में एक ईमानदार आदमी न तो चैन से रोटी खा पाता है और न सम्मानजनक जीवन जी पाता है। ऐसे लोगों को सही मायने में यह भी पता नहीं होता कि धर्म है क्या? ज़ाहिर है जब किसी को यही नहीं मालूम होगा कि धर्म क्या है? तो वह उस पर अमल भी कैसे कर सकेगा? या अगर दारोग़ा के पद पर किसी जेबक़तरे को बैठा दिया जाए, तो ज़ाहिर है वह किसी भी ईमानदार के पक्ष में कभी फ़ैसला नहीं करेगा, बल्कि उल्टा उसे ही जेल भेज देगा। दरअसल ऐसे लोग कभी भी किसी के साथ न्यायोचित और अच्छा व्यवहार नहीं कर सकते, जब तक कि वह पैसे या शोहरत या ताक़त में बड़ा न हो या फिर जब तक उससे इन्हें कोई मतलब न हो।
ऐसे ही मेरे एक और परिचित हैं। इन सज्जन के व्यवहार की दाद देनी होगी। यह सज्जन अपनी जाति के लोगों पर जान छिडक़ते हैं, लेकिन अगर कोई मेरे जैसा सच कहने वाला मिल जाए, तो उससे भी अन्दर-ही-अन्दर गहरी दुश्मनी मानने लगते हैं। इन्हें अपनी जाति में भी वही लोग पसन्द हैं, जो या तो इनकी हाँ-में-हाँ मिलाएँ या फिर इनके काम के हों। इनकी आदत मुँह में राम, बग़ल में छूरी वाली है। इनके चाल-चरित्र का यहीं से पता चलता है कि जब पिछली सरकार में इनकी सरकारी नौकरी लगी थी, तब यह उस सरकार वाली पार्टी के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे और एक शब्द उसके ख़िलाफ़ नहीं सुन सकते थे। लेकिन अब सत्ताधारी पार्टी के कट्टर समर्थक और सीधे-सादे भक्त हैं। एक भी शब्द उसके ख़िलाफ़ बर्दाश्त नहीं करते, चाहे उसमें कितनी भी सच्चाई हो।
ऐसे लोगों को आप क्या कहेंगे? लेकिन मैं ऐसे लोगों को दो-मुहा मानता हूँ। क्योंकि इनका जब जिधर काम निकलता है, तब उधर वाले का मुँह चाटने लगते हैं और जब जिधर से इन्हें लाभ होता नहीं दिखता, तब उधर वालों को मौक़ा लगते ही काटने की फ़िराक़ में रहते हैं। यानी सही मायने में ये लोग अपनों के भी नहीं होते, सिर्फ़ मौक़ापरस्त होते हैं। ज़ाहिर है मौक़ापरस्त लोग किसी के भी सगे नहीं हो सकते।ऐसे लोगों से मैं इतना ही कहूँगा कि पहले तो अपना व्यवहार बदलिए, अपने गिरेबान में झाँकिए, अपने चाल-चरित्र को साफ़-सुथरा कीजिए, उसके बाद किसी और को समझाइए कि वह कहाँ ग़लत है और कहाँ सही? कहने का मतलब यह है कि पहले अपना दो-मुहा व्यवहार बदलिए। क्योंकि कभी-कभार ऐसे लोग सिर्फ़ चालाक सियासतदानों द्वारा इस्तेमाल करके फेंक दिये जाते हैं।
इजराइल-फिलिस्तीन फ़िलवक़्त शान्त
इजराइल व हमास में संघर्ष थमा, लेकिन दुश्मनी बरक़रार
भारतीय बयान बेहद सधा हुआ और देशहित में
निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर काम करें ओआईसी के सदस्य देश
यरुशलम स्थित अल-अक्सा मस्जिद से शुरू हुई मामूली झड़प से शुरू हुआ इजराइल और फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास के बीच 11 दिन का ख़ूनी संघर्ष अंतत: थम गया है। इस भीषण युद्ध में अब तक क़रीब 250 लोगों के मारे जाने की ख़बर है, जिसमेंज़्यादातर जानें गाजा शहर में गयी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि दोनों पक्षों ने भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव में संघर्षविराम का $फैसला लिया है। इस भयंकर संघर्ष के दौरान जिस तरह से अति उत्साह में कुछ इस्लामिक देशों के बयान आ रहे थे और वो इस मुद्दे पर गोलबंद होते दिख रहे थे, उससे लग रहा था कि यह ख़तरनाक संघर्ष अभी और चलेगा।
संघर्षविराम के बाद जहाँ हमास इसे अपनी जीत बता रहा है, वहीं इजराइल को अपने ही देश के विपक्षी राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीजफायर के लिए आलोचना की जा रही है। इस ख़ूनी संघर्ष में नुक़सान दोनों तरफ़हुआ है। लेकिन फिलिस्तीन के गाजा में जिस तरह तबाही हुई है, इसके पुनर्निर्माण में लम्बा वक़्त लगेगा। हमास ने जिस तरह से इजराइल पर हज़ारों रॉकेट हमले किये हैं, अगर इजराइल के पास अत्याधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘आयरन डोम’ नहीं होता, तो इजराइल में भयंकर तबाही मचती। इस भीषण संघर्ष में तबाही का वास्तविक आकलन कुछ समय बाद ही सम्भव है। युद्धविराम से वर्तमान माहौल भले ही बदलने लगा हो। लेकिन इस जगह पर कब छोटी झड़प आगे इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आग में झोंक दें, कुछ कहा नहीं जा सकता। संघर्षविराम के बाद इजराइल ने स्पष्ट संकेत दिये हैं कि अगर हमास ने फिर से रॉकेट से हमले किये, तो उसका जवाब बहुत सख़्ती से दिया जाएगा। यह दु:खद है कि जब दुनिया के अधिकतर देश कोरोना वायरस से ज़िन्दगियाँ बचाने में जुटे हैं, ऐसे में मध्य-पूर्व क्षेत्र दूसरे ही मामलों में फँसकर जान गवाँ रहा है। ध्यातव्य रहे कि मध्य पूर्व क्षेत्र लम्बे समय से विभिन्न कारणों से तनाव से गुज़र रहा है, वर्तमान परिदृश्य को देखकर इस क्षेत्र में अभी शान्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती।

इजराइल और हमास में जारी भीषण संघर्ष के बीच 16 मई को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी भारतीय प्रतिनिधि टी.एस. तिरूमूर्ति द्वारा जारी बयान के बाद कई अंतर्राष्ट्रीय नीति विश्लेषक और पत्रकार इस बयान को अलग अलग तरीक़े से देख रहे हैं। अगर हम भारतीय प्रतिनिधि के बयान को भारतीय हित से देखें, तो यह बयान बेहद सटीक मालूम पड़ता है। इस बयान में जहाँ एक तरफ़भारत ने हमास द्वारा जारी रॉकेट हमले का विरोध किया, वहीं इसने फिलिस्तीनी कारण का समर्थन करते हुए दो राष्ट्र की बात कही। भारत ने यह भी कहा कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के ज़रिये इस मामले को सुलझाने चाहिए। भारतीय प्रतिनिधि के सम्पूर्ण बयान का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह बयान इजराइल की तरफ़कम और फिलिस्तीन की तरफ़ ज्यादा झुका हुआ था, जो भारतीय नज़रिये से सही भी है। हालाँकि भारत ने अपने बयान से इजराइल को भी नाराज़ नहीं किया है, बल्कि इसने अपने बयान से दोनों पक्षों को साधने को कोशिश की है।
क्योंकि भारत का बयान एक तरफ़ा नहीं है। जो भी मध्य-पूर्व की राजनीति अच्छे से समझते हैं, उन्हें भारत का बयान बहुत सधा हुआ मालूम पड़ेगा। व्हाट्स ऐप विश्वविद्यालय से ज्ञान प्राप्त कर रातोंरात विदेश नीति के जानकार बना देश का एक समूह भारत के बयान को इजराइल के ख़िलाफ़मान रहा है। ऐसे लोग उतावले होकर इजराइल के प्रधानमंत्री के ट्विटर अकाउंट पर जाकर यह भी लिख रहे हैं कि पूरा देश उनके साथ हैं। ऐसे लोगों को यह स्पष्ट समझना चाहिए कि विदेश नीति में कोई भी देश अपना और देशवासियों का हित सबसे पहले देखता है, जो बिल्कुल सही भी है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत की इजराइल के साथ हाल के दिनों में घनिष्ठता बढ़ी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक इजराइल यात्रा और इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा इसकी सबसे बड़ी गवाह हैं। वर्तमान में कोरोना वायरस के दूसरी लहर से बुरी तरह प्रभावित भारत को यह देश मेडिकल सहायता भी उपलब्ध करा रहा है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना है कि भारत के अरब देशों से भी अच्छे सम्बन्ध हैं। मध्य-पूर्व वह क्षेत्र है, जहाँ भारत की एक बड़ी आबादी को काम मिला हुआ है और वे वहाँ से बड़ी मात्रा में भारत में पैसे भेजते हैं और यहाँ की अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत करते हैं। भारत का इन देशों के साथ आर्थिक कारोबार भी इजराइल की तुलना में कई गुनाज़्यादा है तथा भारत की पेट्रोल तथा डीजल जैसी ऊर्जा ज़रूरतों की भी पूर्ति इन्हीं देशों से होती है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी अंतर्राष्ट्रीय प्रवास-2020 की रिपोर्ट के अनुसार, 1.8 करोड़ भारतीय दूसरे देशों में रहते हैं और यह संख्या दुनिया में किसी भी देश के प्रवासियों कि तुलना में सबसेज़्यादा है। मध्य पूर्व के केवल तीन देशों संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब तथा क़ुवैत में ही 70 लाख सेज़्यादा भारतीय रहते हैं। ओमान और क़तर में भी इनकी संख्या अच्छी ख़ासी है। अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कोई भी देश अपनी विदेश नीति में अपने देश का हित सबसे पहले देखता है। ज़ाहिर है कि भारत भी अपनी विदेश नीति में भारतीय हितों को ध्यान में रखते हुए अरब देशों से सम्बन्ध बेहतर रखने की कोशिश करेगा।
ओआईसी का नज़रिया
भारत को यह भी अच्छे से पता है कि पाकिस्तान इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का सदस्य देश है और इसे जब भी मौक़ा मिलता है, यह अक्सर ऐसा बयान देता है कि भारत में मुस्लिमों के साथ अत्याचार हो रहा है और इनके साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाता है। हाल के वर्षों में कई बार पाकिस्तान अपने निजी स्वार्थों के लिए इसके सदस्य देशों को भारत के ख़िलाफ़लामबंद करने की कोशिश करता रहा है और यह चाह रखता रहा है कि यह संगठन भारत पर ठोस बयान दें या कार्रवाई करें। लेकिन यह अलग बात है कि सऊदी अरब के दबदबे वाले इस संगठन ने पाकिस्तान के आरोपों को कभी भीज़्यादा महत्त्व नहीं दिया। हालाँकि भारत में दक्षिणपंथ से जुड़ा एक बड़ा समूह इजराइल का पक्ष करता दिख रहा है। ऐसे लोग इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के ट्विटर अकाउंट पर भी जाकर लिख रहे हैं कि भारत इजराइल के साथ है। वहीं इजराइल की भीषण कार्रवाई के ख़िलाफ़कई देशों में धरने देखने को मिले हैं।
भारत में भी अच्छी संख्या में लोग फिलिस्तीन के पक्ष में दिखे। हमें ऐतिहासिक सन्दर्भ यही बताते हैं कि इजराइल-फिलिस्तीन के मुद्दे पर भारतज़्यादातर फिलिस्तीनियों के ही पक्ष में रहा है और यह अलग-अलग मंचों से कई बार इजराइल द्वारा फिलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के मामले में उसकी निंदा भी कर चुका है। इसके पीछे भारत की अपनी सोच है कि भारत पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर को वापस हासिल करना चाहता है। इसके लिए वह इजराइल के अवैध क़ब्ज़े की नीति को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। भारत की नीति इस मामले में बेहद स्पष्ट है कि वह इजराइल के लिए अरब के महत्त्वपूर्ण देशों से अपना सम्बन्ध कभी ख़राब नहीं करना चाहता और यही नीति देशहित में भी है। अभी हाल ही में कुछ साल पहले जब इजराइल ने अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव शहर से हटाकर यरुशलम में स्थानांतरित किया था, तो भारत ने अमेरिका के दबाव के बावजूद अपना रुख़ स्पष्ट कर दिया था कि वह इसके पक्ष में नहीं है।
ओआईसी का ज़िम्मेदार बनना वर्तमान समय की माँग
ओआईसी कहने को तो संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सदस्य देशों की संख्या के लिहाज़ से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। लेकिन इसके सदस्य देश ख़ुद के स्वार्थों से कभी ऊपर नहीं उठ सके। 57 देशों वाले इस संगठन को मुस्लिम दुनिया की सामूहिक आवाज़ माना जाता है; लेकिन सच्चाई यही है कि इसके सदस्य देशों के बीच अक्सर आपसी दबदबे को लेकर तनाव देखने को मिलता है। मध्य-पूर्व क्षेत्र में आपसी वर्चस्व के लिए सऊदी अरब और ईरान के बीच तनाव लम्बे समय से जारी है। अपनी स्थापना के समय से ही ओआईसी का प्रमुख लक्ष्य फिलिस्तीन को उसका वाजिब हक़ दिलाना था। लेकिन इस संगठन के सामने फिलिस्तीनियों की ज़मीन सिकुड़ती चली गयी और यह संगठन तमाशबीन बना रहा। इजराइल और यरुशलम के बँटवारे के बाद आज फिलिस्तीनी 48 फ़ीसदी ज़मीन से महज़ 12 फ़ीसदी ज़मीन पर सिमट गये हैं। इनके पास गाजा और वेस्ट बैंक के ही कुछ इलाक़े बचे हैं, बाक़ी इनके हिस्से के 36 फ़ीसदी ज़मीन पर इजराइलियों का क़ब्ज़ा है। वर्तमान में इजराइल इस क्षेत्र के 80 फ़ीसदी हिस्से पर क़ाबिज़ है, फिलिस्तीनी केवल 12 फ़ीसदी टुकड़ों पर सिमट गये है तथा बाक़ी के 8 फ़ीसदी हिस्सा यानी यरुशलम संयुक्त राष्ट्र संघ के नियंत्रण में है। स्मरण रहे कि यरुशलम इस्लाम, यहूदी तथा इसाई यानी तीनों धर्मों के लिए एक पवित्र स्थल है और विशेष जगह मानी जाती है। ऐसे में यह स्थान संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने अधीन लेना पड़ा, ताकि यहाँ इसके लिए संघर्ष न हो।
मुस्लिम दुनिया में जो धनी और प्रभावाशाली देश है, उनके रिश्ते पश्चिमी दुनिया से बेहतर है। वे अपने विकास में काम आने वाले ज़रूरी तकनीकों के लिएज़्यादातर पश्चिमी देशों पर निर्भर है। इजराइल काज़्यादातर पश्चिमी दुनिया के प्रभावशाली देशों से न केवल बेहतर सम्बन्ध है, बल्कि इसके शुरुआती समय से ही वे इजराइल की मदद करते रहे हैं। ओआईसी के प्रमुख देशों को भी ये पता है कि वे इजराइल काज़्यादा कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे। इसलिए इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच संघर्ष में वे इजराइल की निंदा करके रस्म अदायगी कर देते हैं। तुर्की अभी भले ही इजराइल को लेकर काफ़ी विरोध कर रहा हो, लेकिन सच यही है कि इस देश का सन् 1949 से ही इजराइल से सम्बन्ध है।
सऊदी अरब वर्तमान में भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ में इजराइल के हवाई हमलों को लेकर खुलकर विरोध करे। लेकिन इसे भी यह बात पता है कि इजराइल को अमेरिका और पश्चिमी देशों का भरपूर सपोर्ट है और ऐसे में सऊदी अरब के विरोध की एक सीमा है, जो वह कभी पार नहीं करेगा। ईरान की आलोचना से इजराइल को ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्योंकि ईरान अपने हितों के लिए लम्बे समय से इजराइल का विरोध करता रहा है। मिस्र और जॉर्डन ने पहले ही इजराइल से शान्ति समझौता किया हुआ है। संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मोरक्को पहले ही ‘अब्राहम समझौते’ के ज़रिये इजराइल को मान्यता दे चुके हैं। लेकिन इजराइल और फिलिस्तीन के बीच वर्तमान संघर्ष ने यह साबित कर दिया कि तमाम शान्ति समझौतों के बाद भी यह क्षेत्र अभी अशान्त ही रहने वाला है। संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में इजराइल के ख़िलाफ़लाये गये प्रस्ताव को अमेरिका ने वीटो करके यह स्पष्ट कर दिया है कि वह पूरी तरह इजराइल के पक्ष में है। हमें यह भी अच्छे से पता है कि पश्चिमी दुनिया अमेरिका के ही नेतृत्व मेंज़्यादातर फै़सले लेती है। अभी इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जो संघर्ष विराम हुआ है, यह भी अमेरिका और मिस्र के सहयोग से हो पाया है; ओआईसी की वजह से नहीं।
ओआईसी संगठन को मध्य-पूर्व में निरंतर चलने वाले सिया और सुन्नियों के बीच तनाव कम करने की दिशा में काम करना चाहिए। आज ईराक, सीरिया और कई अफ्रीकी देशों में आतंकवादी समूह सक्रिय हैं, जो पूरी दुनिया की शान्ति व्यवस्था के लिए ख़तरा हैं। यहाँ आये दिन जिस तरीक़े से आम इंसान मर रहे हैं और आतंकवादी संगठन युवाओं को धर्म के नाम पर गुमराह करके उन्हें वीभत्स हमलों के लिए लगातार उकसा रहे हैं, वह बेहद दु:खद है। आज आईएसआईएस और बोको हराम जैसे ख़तरनाक आतंकवादी समूहों से ट्रेनिंग लेकर छोटे-छोटे लड़ाका जिस तरह से सक्रिय हैं, वो पूरी दुनिया के लिए बेहद चिन्ता का विषय है। ओआईसी को इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि कैसे मुस्लिम युवाओं को दहशत फैलाने वाले इन आतंकवादी समूहों से जुडऩे से रोका जाए और इस क्षेत्र में शान्ति और सद्भाव का रास्ता तैयार किया जाए।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ओआईसी और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों ही दुनिया के बड़े संगठनों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाये रखना है; लेकिन वर्तमान में इनकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में है। ओआईसी से जुड़े बहुत देशों में लोकतंत्र नाम की चीज़ नहीं है, मध्य पूर्व के देशों में अभी भी राजशाही चल रही है। ऐसे में इन दोनों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को लोगों में समानता लाने और उनके अधिकारों के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहिए। यह स्पष्ट है कि जब तक ओआईसी के सदस्य देश व्यक्तिगत लाभ की नीति छोडक़र अपने आसपास की दुनिया में हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़एकजुट होकर मुखर नहीं होंगे, विस्तारवादी शक्तियाँ इनका हक़ छीनती रहेंगी। अभी बात फिलिस्तीन तक है, कल वृहत इजराइल नीति के तहत और भी देश इसके शिकार होंगे और ओआईसी के सदस्य देश एक बार फिर से सि$र्फ निंदा करेंगे।
बातचीत से ही सुधरेंगे हालात

इजराइल और चरमपंथी गुट हमास के संघर्षविराम के कुछ दिनों बाद ही भारत में फिलिस्तीनी प्रशासन के राजदूत ने कहा कि भारत को दोनों देशों के बीच शान्ति प्रक्रिया को बहाल करने में भूमिका निभानी चाहिए। कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र संघ भी यही चाहता था कि इजराइल और फिलिस्तीन के बीच शान्ति समझौते को लेकर भारत मध्यस्थता करे। पिछले साल ईरान और अमेरिका के तनाव के दौरान भारत में ईरान के राजदूत ने भी कहा था कि अगर दोनों देशों के बीच भारत शान्ति समझौते को लेकर कोई पहल करता है, तो ईरान उसका स्वागत करेगा। फिलिस्तीन और संयुक्त राष्ट्र संघ यह बात अच्छे से समझते हैं कि भारत का पश्चिम एशिया के देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध है और इस क्षेत्र में यह कई कारणों से विशेष रुचि भी रखता है।
भारत के पश्चिम एशिया की नीति और पश्चिमी देशों के साथ इसके गहरे सम्बन्ध को फिलिस्तीन बख़ूबी समझता है, इसलिए वह भारत से थोड़ीज़्यादा उम्मीद कर रहा है। फिलिस्तीन को यह उम्मीद यकायक नहीं पनपा, बल्कि भारत के साथ उसके पुराने और विश्वसनीय सम्बन्धों के कारण ऐसा वह सोच रहा है। पिछले कई वर्षों से फिलिस्तीन स्पष्ट मानता रहा है कि भारत उसका साथ देता रहा है। हाल ही में भारत ने वहाँ विकास के कार्यों को भी आगे बढ़ाया है। अगर हम वर्तमान में वैश्विक सम्बन्धों को अच्छे से समझने कि कोशिश करें, तो पाते हैं कि भारत ही वह देश है, जिसके दुनिया के दो बड़े और बेहद शक्तिशाली देश, यानी अमेरिका और रूस के साथ बहुत बेहतर सम्बन्ध हैं। ऐसे में फिलिस्तीन को लगता है कि भारत इनके साथ इस मुद्दे पर बातचीत कर अगर इजराइल पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाये, तो यहाँ शान्ति व्यवस्था को मज़बूती मिलेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा पहले के मुक़ाबले थोड़ीज़्यादा बढ़ी है और इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ, ओआईसी, अमेरिका, रूस, चीन तथा पाकिस्तान इस बात को अच्छे से जानते हैं। यह सम्भव भी हो कि भारत बड़े देशों को साथ लेकर अगर इजराइल से शान्ति के समझौते को लेकर कुछ बात करे, तो शायद बात बने। लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इजराइल और फिलिस्तीन एक दूसरे के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहते हैं? या केवल एक-दूसरे पर संगीन आरोप लगाकर हिंसात्मक गतिविधियों में फँसे रहना चाहते हैं? इस क्षेत्र के वर्तमान परिस्थितियों को समझने पर यही लगता है कि दोनों तरफ़ऐसे संगठन / पार्टियाँ हैं, जो हिंसा को बढ़ावा देना चाहते हैं और दे भी रहे हैं। जब भी यहाँ हालात बिगड़ते हैं और स्थिति संघर्ष में बदल जाती है, तब ये दोनों देश एक-दूसरे पर पहले हमला करने का आरोप लगाते हैं।
ज़्यादातर मामलों में यहाँ ऐसा ही होता है और इससे बाहरी दुनिया के देशों और संगठनों को यह पता ही नहीं चल पाता कि आख़िर पहले हमला किसने और क्यों किया? ऐसे में किसी तीसरे देश या संगठन के लिए शान्ति समझौते के प्रस्ताव को पेशकश करना, तो आसान होगा। लेकिन शान्ति बहाली के लिए बहुत सारी बातों पर अमल करना दोनों देशों के लिए आसान नहीं होगा। संघर्षविराम के बाद भी हमास और इजराइल जिस तरह से आने वाले समय को लेकर बयानबाज़ी कर रहे हैं, उससे आगे हालात बनने की जगह सि$र्फ बिगड़ेंगे और इसका ख़ामियाज़ा वहीं के लोग भुगतेंगे। इजराइल को यह बात अच्छे से समझनी चाहिए कि फिलिस्तीनियों के साथ उसका ज़मीन के केवल टुकड़े की लड़ाई नहीं है, बल्कि वे उस क्षेत्र में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो कभी फिलिस्तीन में बसने के पहले दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इजराइल ने भी लड़ी थी। चरमपंथी संगठन हमास भी ग़लत$फहमी दूर करके एक बात स्पष्ट समझ लें कि हज़ारों रॉकेट दाग़कर भी वह इजराइल काज़्यादा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। हाँ, ऐसा करने से इसकी भारी क़ीमत उसे और फिलिस्तीनियों को ज़रूर चुकानी पड़ सकती है, जो वे चुका भी रहे हैं।
इजराइल और फिलिस्तीन दोनों को हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि का दिया गया बयान एक बार फिर से सुनना चाहिए, जिसमें भारत ने दोनों देशों से आपसी बातचीत के ज़रिये इस मामले को निपटाने की अपील की और साथ ही साथ दोनों तरफ़से जारी हिंसा की निंदा की। दोनों देशों को एक बात अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि हिंसा से किसी परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता। विश्व इतिहास में ऐसे अनगिनत मामले हैं, जहाँ आपस में एक-दूसरे के विरुद्ध ताक़त और हिंसा के प्रदर्शन से सिर्फ़ बर्बादी ही हुई है, जिसकी भरपाई आज तक नहीं हुई। हमास द्वारा इजराइल पर हज़ारों रॉकेट दाग़ना और इजराइल द्वारा लगातार फिलिस्तीन की ज़मीन को ताक़त के दम पर हथियाना, ये दोनों कार्य बेहद निंदनीय हैं; और इससे यहाँ एक-दूसरे के प्रति केवल असन्तोष और हिंसा की भावना पनपेगी, जो दुर्भाग्य से यहाँ हो भी रहा है। जिस तरीक़े से इस बार इन दोनों ने एक-दूसरे पर हमले किये और बहुत सारे देश आपस में इस मामले को लेकर गोलबंदी करते हुए युद्ध को बढ़ावा देते देखे गये, वह बेहद दु:खद है। आये दिन यहाँ जिस तरह से आम लोग हिंसा में मारे जा रहे हैं और उनकी सम्पतियाँ बर्बाद हो रही हैं, उससे यह एक वैश्विक मुद्दा बन गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे मामले को लेकर समय-समय पर शान्ति सम्मेलन के प्रयास करने चाहिए और बड़े देशों को दुनिया में शान्ति स्थापित करने के लिए उनकी भूमिका को लगातार याद दिलाते रहना चाहिए, ताकि किसी भी देश की अकड़ और ज़िद से वैश्विक माहौल न बिगड़े।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)
राजस्थान : विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस को मज़बूती
चुनावी गणिताई अनिश्चय की राजनीति में बिंधी होती है। इसलिए कंटीली भाषणबाज़ी से वोटरों का मिज़ाज आँकने का दावा करना तीखी बहस तो पैदा कर सकता है, किन्तु फ़तह की चाबी नहीं थमा सकता। विश्लेषकों का कहना है कि जातीय रुझानों, दीवानावार निसार होने वाले चेहरों और लुढक़ते आँकड़ों के अलावा तथ्यों का एक उजला झरोखा भी होता है, जहाँ से वोटरों का मन पढ़ा जा सकता है। इसकी तार्किक परिणिति पिछले दिनों भीलवाड़ा ज़िले के सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में देखी गयी। हालाँकि उप चुनाव सहाड़ा, सुजानगढ़ और राजसमंद समेत तीन विधानसभा क्षेत्रों में हुए थे। लेकिन सहाड़ा में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी रामसिंह कस्वां ने अपेक्षित जज़्बा, संकल्प और इच्छा शक्ति के साथ दोहरा खेल खेलकर राजनीति के अनुभवी से अनुभवी राजनीति के जानकारों को भी हैरान कर दिया।

कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र में हुई। यहाँ दिवंगत विधायक कैलाश त्रिवेदी की पत्नी गायत्री देवी मैदान में थीं। उनके विरुद्ध भाजपा की नुमाइंदगी खेमाराम कर रहे थे। विश्लेषकों का कहना है कि दाँव-पेच में प्रतिद्वंद्वी की कमज़ोरी का स्यापा करने की बजाय मुनाफ़े पर दाँव लगाना चाहिए। कांग्रेस के चुनाव प्रभारी रामसिंह ने यही किया। उन्होंने विधानसभा के हर वोटर के घर पर दस्तक देते हुए बेधडक़ सवालों-जवाबों के साथ सबसे जुडऩे की राह बनायी। अपने प्रचार अभियान में उन्होंने मतदाताओं के दिमाग़ पर क़ब्ज़ा करने की हर तरकीब अपनायी। विश्लेषक इसे प्रचार और विचार के आदर्श मॉडल की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि वोटर अगर न्यौछावर हुआ, तो इसलिए कि चुनाव प्रभारी उनकी चिन्ताओं के लिएफ़िक्रमंद होकर उनकी ड्योढ़ी पर खड़े थे। उन्होंने कम्युनिकेशन की रणनीति से जुड़ी चिन्ताओं को भी दूर किया। रामसिंह ने सु$िर्खयाँ ही नहीं बटोरीं, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की शाबासी भी बटोरी। सहाड़ा में कांग्रेस की गायत्री देवी को 81,700 वोट मिले, जबकि भाजपा के रतनलाल जाट को 39,500 वोट मिले।
जीत का अन्तर 42,200 वोटों का रहा। सूत्रों का कहना है कि सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र के क़रीब 35,000 लोग बाहर रह कर कारोबार में जुटे हैं। यदि समय पर उनका आना सम्भव होता तो जीत का अन्तर 17,000 पर आ सकता था। वोटरों का यही रुख़ राजसमंद में भी रहा, जहाँ भाजपा की दीप्ति माहेश्वरी केवल 3,310 वोटों से जीत पायीं। इन चुनावों में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया को अपने आपको करिश्माई साबित करने के लिए बड़ी लहर चाहिए थी। लेकिन लहर तो दरकिनार भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया अपना लोहा भी नहीं मनवा सके। विश्लेषकों का कहना है कि ये उप चुनाव सतीश पूनिया की ताक़त की सैम्पलिंग थे, लेकिन पूनिया बातों की गैम्बलिंग करके ही रह गये कि पराजय की समीक्षा करेंगे और नए मनोबल के साथ आगे बढ़ेंगे।फ़िलहाल पूनिया राहत की साँस ले सकते हैं कि उन्होंने फीकी ही सही राजसमंद की सीट बचा ली है। भाजपा विधायक किरण माहेश्वरी के निधन से ख़ाली हुई इस सीट पर पार्टी को नयी किरण की तलाश थी।
उनकी बेटी दीप्ति माहेश्वरी ही उनका आईना साबित हुई। उप चुनावों में केवल भाजपा का प्रदेश नेतृत्व ही वफ़िल नहीं रहा, बल्कि पार्टी के रणनीतिकारों और नीति निर्धारकों में भी कल्पनाशीलता की कमी अखरती रही। सहाड़ा में लादूलाल पीतलिया का नामांकन और दबाव में नाम वापसी के दाँव-पेच भाजपा के लिए बहुत महँगे साबित हुए। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जनता ने सरकार को मज़बूती दी है तथा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा सामंजस्य बिठाने वाले नेता साबित हुए। अच्छी ख़बरें यहीं नहीं थमी, कांग्रेस की वोटरों की हिस्सेदारी में भी 15 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है।
विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस ने सकारात्मक सोच के साथ शुरुआत की। गहलोत सरकार के तरकश की चिरंजीवी योजना और विद्युत संबल योजना ने मतदाताओं में सरकार की पैठ बनायी। विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस की दो सीटों पर बड़ी जीत, कोरोना के दर्द के बीच हमदर्दी भरे नतीजों के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए। बहरहाल तीनों सीटों पर परिवारवाद का साया बना रहा। चुनावों से पहले भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया पूरी तरह चौकस और आत्मविश्वास से लबरेज थे।
पंचायत चुनावों में जीत इसकी बड़ी वजह थी। लेकिन पूनिया इस ताक़त को उप चुनावों में नहीं भुना सके। राजनीति में जब कोई असामान्य जीत हासिल कर लेता है, तो अनहोनी से ग़ा$फ़िल हो जाता है। सतीश पूनिया भी इसी भ्रम के शिकार हुए और तीनों सीटें जीतने का दावा कर बैठे, जबकि दावे से उलट वह दो सीटें हार बैठे। कांग्रेस ने सचिन पायलट को साथ रखते हुए गुटबाज़ी पर पर्देदारी बनाये रखी। लेकिन पूनिया भाजपा की ताक़त का स्रोत वसुंधरा राजे को भुला बैठे। विश्लेषकों का कहना है कि जब राष्ट्रीय नेतृत्व ने पूनिया को राजे को साथ लेकर चलने की नसीहत दी थी, तो वे एकला चलने की क्यों ठान बैठे? अब वसुंधरा राजे गुट खुलकर सामने आये, तो ताज्ज़ुब कैसा?
टेपिंग विवाद
राजस्थान के सियासी हलक़ों में इन दिनों नज़ारें जिस अजीबों ग़रीब ढंग से उथले पानी की तरह बदल रहे हैं, राजनीति के मिज़ाज पर संशय पैदा करते हैं। टेपिंग विवाद ऐसा ही सियासी नज़ला है, जो मूल्य आधारित राजनीति करने वाले राजनेता अशोक गहलोत को घेरने की जुगाड़ में चलाया गया भाजपा का ब्रह्मास्त्र था, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। राज्य सरकार के गृह विभाग ने इस सवाल की समीक्षा करते हुए कहा कि लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा के हित में या किसी ऐसे अपराध को प्रोत्साहित होने से रोकने के लिए, जिससे लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था को ख़तरा हो। भारतीय तार अधिनियम-1885 के अनुच्छेद-5(2), भारतीय तार अधिनियम (संशोधित)-2007 के अनुच्छेद-419(ए) और आईटी एक्ट के अनुच्छेद-69 में वर्णित प्रावधान के अनुसार सक्षम अधिकारी की स्वीकृति के उपरांत टेलीफोन अंत: अवरोध किये जाते हैं। पुलिस की ओर से सक्षम अधिकारी से अनुमति होने के बाद ही टेलीफोन अंत: अवरोध किये गये। राज्य सरकार के गृह विभाग का यह जवाब भाजपा विधायक कालीचरण सर्राफ के प्रश्न पर था कि क्या यह सही है कि विगत दिवसों में फोन टेपिंग के विवाद सामने आये हैं?
प्रतिपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया का कहना था कि सरकार के मुख्य सचेतक महेश जोशी ने एक एफआईआर दर्ज करवायी थी, उसका आधार फोन टेपिंग ही था। नतीजतन तय हो गया कि सरकार ने किसी एजेंसी से फोन टेपिंग करवायी। सरकार को बताना चाहिए कि किस आधार से किन-किन लोगों के फोन टेप करवाये? जिस प्रसंग में मुक़दमा दर्ज हुआ, उसमें सक्षम स्तर पर अनुमति लेकर फोन टेप हुआ या नहीं? हम जानना चाहते हैं कि मुख्य सचेतक ने जो एफआईआर दर्ज करवायी थी, क्या उसका आधार फोन टेपिंग ही था? मुख्यमंत्री गहलोत का कहना है कि राजस्थान में अवैध तरीक़े से विधायकों के फोन टेप कराने की कोई परम्परा ही नहीं रही और न ही यहाँ ऐसा हुआ। उधर सरकार के संसदीय मंत्री शान्ति धारीवाल ने दो-टूक शब्दों में कह दिया कि एक सुबूत ला मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री ही नहीं, हम सब इस्तीफ़ा दे देंगे।
ख़ून से सनी पहलवानी
सोनीपत (हरियाणा) में तेरहवीं के बाद भी एक घर में मातम पसरा है। यह घर है कुश्ती में जूनियर नेशनल चैंपियन रहे सागर धनखड़ (23) का, जिनकी 5 मई को दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में पीट-पीट कर निर्ममता हत्या कर दी गयी। सागर के पिता अशोक कुमार और माँ सविता के लिए बेटे की मौत की ख़बर दु:खों के पहाड़ जैसी है। जिस बेटे से ओलंपिक में पदक लाने, राज्य और देश का नाम ऊँचा करने की उम्मीद थी। उन्हें वह शव के रूप में मिलेगा, यह किसी ने भी कल्पना नहीं की थी।
हत्या का आरोप लगा पदमश्री और दो बार कुश्ती में ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार पर। वे सुशील, जिनके सानिध्य में सागर ओलंपिक की तैयारी कर रहा था, जिसके भरोसे उन्हें बेटे के उपलब्धियाँ हासिल करने का भरोसा था। सागर को किराये के फ्लैट से अगवा और फिर छत्रसाल स्टेडियम में उसकी दर्ज़नों साथियों के साथ बुरी तरह पिटाई के दौरान सुशील की मौज़ूदगी वीडियो के तौर पर सामने आयी है। वह मुख्य आरोपी हैं और सारी साज़िश उनकी ही रची हुई है। हमले में सागर के साथी सोनू, भगत और अमित भी घायल हुए। क़रीब छ: फुट लम्बे और 90 किलो से ज़्यादा वज़नी सागर को दर्ज़न भर से ज़्यादा लोगों ने लोहे की छड़ों, बेसवाल और अन्य मारक हथियारों से हमला कर दिया, जिससे उनकी 30 से ज़्यादा हड्डियाँ टूटीं। बाद में उन्होंने अस्पताल में दम तोड़ दिया। पुलिस उसके बयान भी दर्ज नहीं कर सकी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह सिर फटना और अत्याधिक ख़ून का बहना रहा है। परिजनों के मुताबिक, सागर के शरीर पर 50 से ज़्यादा गम्भीर चोटों के निशान थे।
सागर के साथियों के बयान के आधार पर ही पुलिस ने मुख्य आरोपी के तौर पर सुशील और अन्य के ख़िलाफ़ मॉडल टाउन थाने में प्राथमिकी दर्ज कर कार्रवाई शुरू हुई। जब तक पुलिस स्टेडियम पहुँचती तब तक सुशील अपने साथियों के साथ वहाँ से भाग चुका था। कोई 18 दिन की लुका-छिपी के बाद पुलिस ने सुशील और अजय को गिरफ़्तार कर लिया। अब उसके फ़रार चल रहे चार और साथी पुलिस के हथे चढ़ चुके हैं। वहीं सुशील को पुलिस रिमांड पर भेज दिया है।
कभी तिरंगे को हाथ में लेकर देश का नाम ऊँचा करने वाले सुशील गिरफ़्तारी के बाद तोलिए से मुँह ढाँपते दिखे। यह एक खिलाड़ी के अर्श से फ़र्श पर आने की वह दास्तान है, जिसे उभरते हुए पहलवान और खिलाड़ी सबक़ के तौर पर ले सकते हैं। सवाल यह कि आख़िर गुरु सुशील ने अपने ही शिष्य सागर को मौत की नींद क्यों सुला दिया? क्यों अपने दर्ज़नों साथियों के साथ सुनियोजित तरीक़े से उसे अगवा किया? और फिर बेरहमी से पिटाई की। क्या उनका मक़सद सागर की हत्या करना ही था? क्या महज़ तू-तू, मैं-मैं होने भर से कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति किसी की हत्या कर सकता है? क्या सुशील की मानसिकता इतनी संक्रीर्ण थी? उन्हें याद नहीं रहा कि वह देश का गौरव हैं। युवा उन्हें आदर्श मानते हैं। उनके ऐसे कृत्य से सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। देश का सम्मान और युवा पहलवानों के आदर्श पुरुष रहे सुशील किसी पेशेवर अपराधी की तरह पुलिस से बचते रहे। मुंडका (दिल्ली) से पुलिस ने उन्हें क़ाबू कर लिया। वह समर्पण करने के प्रयास में थे, लकिन इसमें सफल नहीं हो सके। यह भारतीय खेल जगत की पहली घटना है, जिसमें ओलंपिक पदक विजेता को हत्या के मामले में एक लाख का इश्तिहारी मुजरिम घोषित किया गया हो। सुशील के साथ चार मई की रात को फ़रार हुआ अजय भी पुलिस के शिकंजे में आ गया है, उस पर भी 50,000 रुपये का इनाम था।
रोहिणी की अदालत में अग्रिम जमानत रद्द होने के बाद सुशील के पास पुलिस या कोर्ट में समर्पण के अलावा अन्य विकल्प नहीं थे। घटना में एक दर्ज़न से ज़्यादा लोग शामिल थे, पूछताछ के बाद न केवल कई और गिरफ़्तारियाँ होंगी, वरन् ऐसे ख़ुलासे होंगे; जिसके बदनुमा छींटे कुश्ती पर भी लगेंगे। कुश्ती के दाँव-पेचों के अलावा ख़ुलासे होंगे कि पहलवान पेशेवर अपराधियों के साथ मिलकर खेल के अलावा बहुत कुछ कर रहे हैं। नीरज बवाना और काला जठेड़ी गैंग के कुछ साथियों की ऐसे कुछ पहलवानों से निकटता बताती है कि कुछ भी ठीक नहीं है।
हत्या के इतने दिन दिन बाद भी माँ सविता सदमे जैसी हालत में है। वह उसकी स्मृति में जैसे अब भी शून्य में निहार रही है, कहीं से सागर लौट आए। बेटे के जीते अंतर्राष्ट्रीय पदक को उँगली से बार-बार छूना बताता है कि उनकी स्मृति में अब भी वही कुछ दौड़ रहा है। पिता अशोक कुमार ने दु:ख को किसी तरह जज़्ब कर लिया, लेकिन मन में बेटे की मौत टीस शायद कभी नहीं जाएगी। उनके मुताबिक, हर खेल में प्रशिक्षक (कोच) का क़द बहुत बड़ा होता है। कुश्ती में इसका महत्त्व बहुत ज़्यादा है। सुशील बेटे को अपना शिष्य मानता था और वह (सागर) भी सुशील को गुरु के तौर पर बहुत महत्त्व देता था। उसी गुरु ने अगवा करके उसे मौत की नींद सुला दिया, सुनकर ही दिल बैठ जाता है। सागर ने कोई ग़लती की थी, तो सुशील हमें बता देता हम समझा देते। लेकिन उसने ऐसा न कर उसे ही मार डाला।
वह कहते हैं- ‘14 साल की उम्र में सागर को छत्रसाल स्टेडियम में महाबली के नाम के विख्यात गुरु सतपाल के पास भेजा था।’ स्टेडियम से कई अंतर्राष्ट्रीय पहलवान निकले हैं। जब सागर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रौशन किया, तो उन्हें भी सुशील की तरह बेटे के बड़ी उपलब्धि हासिल करने का भरोसा था। दोनों में गुरु-शिष्य का नाता था पर इस गुरु ने क्या किया? उसने यह क्यों किया। सुशील ने ही सागर को स्टेडियम के पास अपना फ्लैट किराये पर दिया था। फिर ख़ाली भी करा लिया, हमें कारण नहीं पता पर यह सामान्य बात है। एक या दो माह का किराया अदा न करने को लेकर दोनों में कुछ कहासुनी की बातें सामने आ रही है लेकिन इतनी बड़ी घटना हो जाए, इस पर भरोसा नहीं होता।
सागर के चाचा मनिंदर धनखड़ के अनुसार, छत्रसाल स्टेडियम अब सुशील की दंबगई का केंद्र्र बन चुका है। इसी वजह से कई पहलवान अन्य अखाड़ों में जाने को मजबूर हुए। कुछ समय पहले कोच वीरेंद्र सिंह यहाँ से अलग हुए, तो बहुत से पहलवान उनके अखाड़े में चले गये। यह भी सुशील को अच्छा नहीं लगा। दबंगई, गुटबाज़ी और राजनीति के अलावा स्टेडियम में बहुत कुछ होता है, जो पुलिस जाँच में सामने आएगा। हम लोग इंसाफ़ चाहते हैं और इसके लिए पूरा संघर्ष करेंगे। सुशील प्रभावशाली है, बचने के लिए हर हथकंडा अपनाएगा। लेकिन हमें पुलिस और न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है कि हमें न्याय मिलेगा।
तिरंगे से तौलिए का सफ़र
दिल्ली के गाँव बपरोला से निकले सुशील ने कुश्ती में जबरदस्त उपलब्धियाँ हासिल कीं। वह महाबली सतपाल के शिष्य हैं, जिन्होंने अपने दौर में ख़ूब नाम कमाया। सन् 1952 में सी. जाधव ने ओलंपिक में पदक जीता था। पाँच दशक से ज़्यादा के लम्बे सूखे के बाद सुशील ने सन् 2008 के बिजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक जीता। सन् 2012 के लंदन ओलंपिक में उन्होंने श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए रजत जीता था। कुश्ती में दो ओलंपिक में पदक जीतने वाले पहले पहलवान हैं। सन् 2010 और 2014 के राष्ट्र मण्डल खेलों में उन्होंने स्वर्ण पदक जीते। पद्मश्री से सम्मानित सुशील अर्जुन अवॉर्ड के अलावा देश के सबसे बड़े खेल पुरस्कार राजीव गाँधी खेल रत्न से भी सम्मानित हो चुके हैं। अन्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बेशुमार सम्मान उनके नाम हैं। 4 मई से पहले तक कुश्ती में आदर्श रहे सुशील की अब उस छवि नहीं रख सकेंगे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीत हासिल करने के बाद देश का तिरंगा लेकर शान से स्टेडियम के चक्कर काटने वाले सुशील तौलिए से मुँह छिपाने को मजबूर हो गये हैं।
आपराधिक तालमेल
घटना में दिल्ली के कुख्यात बदमाशों नीरज बवाना और काला जठेड़ी गिरोह के नाम भी सामने आ रहे हैं। सुशील और उसके साथियों ने 4 मई की रात को सागर के साथ सोनू, भगत और अमित को भी बुरी तरह से पीटा था। इनमें सागर के सिर में ज़्यादा चोटों लगने से उसकी मौत हो गयी, जबकि बाक़ी तीन भी घायल हुए हैं। घटना में गोलियाँ भी चलीं। घायल सोनू काला जठेड़ी का क़रीबी है, जिसने पिटाई पर प्रतिक्रिया भी दी है। अंजाम कुछ भी हो सकता है। अवैध सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ेकरना, विवादित सम्पत्तियों के समझौते की एवज़ में मोटी रक़म वसूलना, अपहरण, फ़िरौती लूट और हत्या जैसी संगीन वारदात में शामिल रहे अंडर वल्र्ड के कई लोग घटना में शामिल हो सकते हैं। सवाल यह है कि तो क्या सुशील के आपराधिक लोगों से तालमेल थे?
विरासतों का विध्वंस
भू-माफिया के निशाने पर हैं शेखावाटी की हवेलियाँ
शेखावाटी की हवेलियों की पहचान केवल अभिजात्य वर्ग की बौद्धिक विलासिता के पर्यटन स्थल के रूप में ही नहीं रही, बल्कि सामान्य नागरिकों से भी इनका जुड़ाव रहा है। शेखावाटी की संस्कृति को संजोये हवेलियाँ पौराणिक और एतिहासिक घटनाओं को भित्ती चित्रों के माध्यम से प्रतिबिंबित करने का सृजनात्मक आँगन हैं।
हवेलियों के विभिन्न कक्षों की दीवारों पर फ्रेस्को पद्धति से बनाये गये भित्ती चित्रों में राम, कृष्ण तथा अन्य देवी-देवताओं की कथाओं के अतिरिक्त वनांचल का वैभव दिखाते हुए जीव-जंतुओं को विचरण करते हुए भी दिखाया गया है। शेखावाटी की हवेलियाँ संस्कृति, पुरा सम्पदा और पर्यटन का अद्भुत समन्वय है। इनका निर्माण काल 18वीं से 19वीं शताब्दी के मध्य माना गया है। हालाँकि सरकारी तंत्र ने इनका कोई अधिकारिक सर्वे नहीं करवाया। लेकिन सूत्रों की मानें तो सीकर, झुंझनू और चुरू ज़िले में इन हवेलियों की संख्या तक़रीबन 1,500 है। लेकिन पिछले पाँच साल से सुनहरी पुरा सम्पदा का यह वैभव भू-माफिया के निशाने पर है।सरकारी क़ानून-क़ायदों को दुत्कारते हुए भू-माफिया हवेलियों के छज्जों, अटारियों, गोखों को तो नेस्त-ओ-नाबूद कर ही चुके हैं। उन्होंने कला का अतुल्य वैभव दर्शाने वाले भित्ति चित्रों पर भी हथोड़े चला दिये हैं। पिछले पाँच साल से लक्ष्मणगढ़, फतेहरपुर और रामगढ़ में ही 100 से अधिक हवेलियों को मलबे के ढेर में बदल
दिया गया।

माफिया की दबंगई की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि लोगों की शिकायतों के बावजूद पुलिस अधिकारी चुप्पी साधे बैठे रहे। सूत्रों का कहना है कि सरकारी नियमों में सूराख़ तलाश कर गिरोहबंद भू-माफिया आवासीय के नाम पर व्यावसायिक इमारतें खड़ी कर चाँदी कूट रहे हैं। भू-माफिया का ऐसा दुस्साहस क्यों हुआ? पुरा सम्पदा के अप्रतिम वैभव को सरेराह नष्ट करने के हालात क्योंकर बने? सूत्रों का कहना है कि हवेलियों को गिराने के पीछे भू-माफिया की सोची-समझी साज़िश थी। दरअसल हवेलियाँ प्राइम लोकेशन पर होने की वजह से माफिया की नज़रों इन पर गड़ गयी। माफिया का व्यावसायिक लोभ निशाना साधने में जुट गया कि यदि यहाँ व्यावसायिक कॉम्पलेक्स बना लिये जाएँ, तो अथाह दौलत हाथ आ सकती है। उनके निशाने पर मुख्य रूप से झुंझनू ज़िले की छ: हवेलियाँ थीं। माफिया ने इन हवेलियों को ही धाराशायी नहीं किया, बल्कि इनसे जुड़ी सरकारी ज़मीन पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। हवेलियाँ गिराने की यह शुरुआत थी।
सूत्रों का कहना है कि पिछली सरकार के दौरान यह मंशा ज़ाहिर की गयी थी कि शेखावाटी के सेठ-साहूकारों की हवेलियों को रोज़गार का ज़रिया बनाया जाना चाहिए। इससे दोहरा फ़ायदा होगा। एक तो पर्यटन को बढ़ावा मिल सकेगा और दूसरा लोगों को रोज़गार भी मिल सकेगा। हालाँकि यह मंशा बातों तक ही सीमित थी। लेकिन इस योजना का रिसाव हुआ तो भू-माफिया बेख़ौफ़होकर हवेलियों को ध्वस्त करने में जुट गये। सब कुछ तुरत-फुरत हुआ और जयपुर समेत प्रदेश भर में हवेलियों को ध्वस्त कर व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स में तब्दील करने का काला खेल शुरू हो गया। हालाँकि इससे पहले सन् 2007 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने स्मारकों और विरासत वस्तुओं पर राष्ट्रीय योजना शुरू करने का मन बनाया था, किन्तु यह योजना एक अधूरी परियोजना बनकर रह गयी। लेकिन इस योजना की मुश्क ने भी भू-माफिया के हौसले बुलंद किये कि कभी-न-कभी उनकी मुराद ज़रूर पूरी होगी। नतीजतन पिछले पाँच साल में शेखावाटी की क़रीब 500 विरासती हवेलियाँ विध्वंस की भेंट चढ़ गयीं। नवलगढ़ में 300 हवेलियाँ थीं; लेकिन अब केवल 165 हवेलियाँ बची रह गयी हैं।
बीकानेर में 200 से ज़्यादा हवेलियाँ थीं, लेकिन अब केवल 1,100 रह गयी हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि सतर्क हुई सरकार ने तुरत-फुरत में जो काम किया, वो यह कि सीकर, चूरू, झुंझुनू में हवेलियों की विक्रय रजिस्ट्री पर रोक लगा दी। इसके साथ ही मौज़ूदा राज्य सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी कि प्रदेश की 10,000 विरासत हवेलियों को रोज़गार का ज़रिया बनाने के लिए विरासत कंजर्वेशन एंड प्रोटेक्शन रेगुलेशन में संशोधन किया जाएगा।
राज्य सरकार ने अपना मक़सद और दावा स्पष्ट करते हुए कहा कि कई लोग हवेलियों और इमारतें संरक्षित करना चाहते हैं, किन्तु उनके पास पैसा नहीं है। ऐसे में यदि इन हवेलियों में व्यावसायिक गतिविधियों की सशर्त अनुमति दी जा सके, तो काफ़ी हद तक इन्हें बचाया जा सकेगा। साथ ही रोज़गार उपलब्ध कराने का इरादा भी छिपा नहीं रह सकेगा। सूत्रों का कहना है कि अभी तीन तरह की विरासत हवेलियाँ हैं। इनमें एक राष्ट्रीय, तो दूसरी राज्य महत्त्व की है। तीसरी श्रेणी में निजी हवेलियाँ हैं। ऐसी 10,000 हवेलियाँ अधिसूचित है।

राष्ट्रीय महत्त्व की हवेलियों में व्यावसायिक गतिविधियों को अनुमति नहीं दी जाएगी अन्य हवेलियों में निर्धारित गतिविधियों के लिए विरासत प्रकोष्ठ से एग्रीमेंट करना हेागा। इससे हवेलियों की तोड़-फोड और उसे मूल स्वरूप को बदलने पर रोक लग सकेगी। राज्य सरकार के सूत्रों का कहना है कि हैरिटेज इमारतों-हवेलियों को बचाने के लिए अब सम्बद्ध क्षेत्र को स्थानीय लोग और राहगीरों के लिए अनुकूल जगह बनाने के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके ज़रिये हवेलियों में हरिटेज से जुड़ी कई गतिविधियों के संचालन की अनुमति मिल सकेगी-बशर्ते कि वहाँ रहने वाले वही रहकर काम करे।
सूत्रों का कहना है कि कोरोना के संक्रमण-काल में बने हालात का अध्ययन करने के लिए प्रस्तावित स्टेट विरासत कंजेर्वेशन एंड प्रोटेक्शन रेग्यूलेशन बायलॉज में संशोधन किये जाएँगे। इससे हवेलियों को माफिया की मैली नज़रों से बचाया जा सकेगा और उन्हें रोज़गार तथा व्यावसाय केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकेगा।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि इससे आमदनी के लिए हवेलियों को तोडक़र कॉम्पलेक्स बनाने की अवैध गतिविधियों को रोका जा सकेगा? विश्लेषकों का कहना है कि जयपुर समेत राज्य में 40 शहरों की 10,000 विरासत इमारतें और हवेलियाँ कॉम्पलेक्स निर्माण के दायरे में आ जाएँगी। लेकिन तभी, जब इमारतों को संरक्षित बनाये रखा जाए। वरिष्ठ पत्रकार भुवनेश गुप्ता का कहना है कि इन हवेलियों में विरासत गेस्ट हाउस, होटल आर्ट गैलरी, सांस्कृतिक केंद्र आदि गतिविधियाँ शुरू की जा सकेगी।
हालाँकि अभी तक इनमें केवल आवासीय उपयोग की ही इजाज़त है। योजना का लब्बोलुआब समझें, तो जिनकी हवेली होगी, वही आमदनी से जोडऩे के लिए सहूलियत दी जाएगी। लेकिन फ़िलहाल यह क़वायद क़ाग़जों में ही चल रही है, ज़मीन पर इनका अवतरण नहीं हुआ है।
शेखावाटी के मारवाड़ी सेठ-साहूकारों की सम्पदा के रूप में चर्चित इन हवेलियों से उनकी बेगानगी की बड़ी वजह रही उनका कोलकाता, मुम्बई जैसे समुद्र तटीय इलाक़ों में कारोबार फैलाकर व्यस्त हो जाना। कुछ व्यवसायी, तो अपनी कारोबारी व्यस्तता के चलते भूल ही गये कि उनके पैतृक गाँव में उनकी कोई सम्पत्ति है भी या नहीं। कुछ हवेलियों पर उनके नज़दीकी लोग ही क़ाबिज़ हो गये।
इन हवेलियों का मुख्य आकर्षण इनकी दीवारों पर फ्रेस्को पेंटिंग थी। दरअसल साहूकारों ने अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करने के लिए कलाकारों को अनुबन्धित कर हवेलियों की दीवारों और दरवाज़ों पर अलंकारिक चित्रण करवा लिया। कोई 300 साल पहले की गयी यह चित्रकारी आज भी उतनी ही जीवंत लगती है। यह बात दिलचस्पी से परे नहीं कि प्रत्येक हवेली के मुख्य द्वार पर तोरण लगे ही मिलेंगे, जिन्हें बेटियों की शादियों के बाद भी हटाया नहीं गया। कहते हैं कि इनसे पता चलता है कि इस परिवार में कितनी बेटियाँ थीं, जिनका विवाह हुआ।
हवेलियों में सुनहरी कोठी सरीखी ऐसी भी हवेलियाँ है, जिनके दरवाज़े पर शीशे मढ़े तथा हाथी, घोड़े और नृत्य करती महिलाओं के चित्र बने होते हैं। हवेलियों का निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार किया गया है। हवेली के विशाल प्रवेश द्वार को पोल कहा जाता है, जबकि अंदरूनी आँगन को चौक कहा जाता है।
कई हवेलियों में दो चौक भी होते हैं। बरामदे को तिबारी कहा जाता है, जबकि दूसरी मंज़िल को मेड़ी के नाम से जाना जाता है। शेखावाटी का पहला उल्लेख ‘बांकीदास’ की ख्यात पुस्तक में किया गया था। शेखावाटी का इतिहास पहली बार जेम्स टॉड ने लिखा था।
आदिवासियों का नरसंहार कब तक
सुकुमा के सिलगेर में सेना कैम्पों के लगने का शान्ति पूर्वक विरोध कर रहे आदिवासियों पर जवानों ने गोली चला दी, जिसमें 3 आदिवासियों की मौत हो गयी और 18 घायल हो गये
छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले में सिलेगर में सीआरपीएफ कैम्प लगने का तीन दिन से विरोध कर रहे ग्रामीण आदिवासियों पर जवानों ने बीते 17 मई को गोली चला दी। इस विरोध प्रदर्शन में बड़ी संख्या में महिलाएँ और नाबालिग़ भी शामिल थे। इस गोलीकांड में तीन आदिवासियों की मौत हो गयी, जबकि 18 घायल हो गये। स्थानीय लोग घायलों की संख्या दो दर्ज़न से अधिक बता रहे हैं। हद तो इस बात की है कि पहले पुलिस आईजी ने मारे गये आदिवासियों को नक्सली करार दे डाला, तो दूसरी ओर प्रदेश सरकार द्वारा मृतकों के आश्रितों को मुआवज़े की पेशकश भी की गयी। सवाल यह भी उठ रहा है कि 5000 लोगों के बीच में यदि तीन माओवादी भी हों, तो क्या पुलिस उन तीनों को बिना निशाना चूके मार सकती है?
यह सर्वविदित है कि छत्तीसगढ़ में लम्बे समय से आदिवासियों के साथ अत्याचार हो रहा है। इन लोगों की शिकायतें भी थानों में नहीं सुनी जातीं और जब मर्ज़ी इन्हें पुलिस, सीआरपीएफ के जवान और वास्तविक नक्सली रौंदकर चले जाते हैं। सदियों से अत्याचार के शिकार आदिवासियों की ख़ता सि$र्फ इतनी है कि ये लोग सीधे-सादे हैं और जल-जंगल-ज़मीन को बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं। अब तक सैकड़ों आदिवासियों को बिना कारण के मौत के घाट उतारा जा चुका है। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें पुलिस या सीआरपीएफ के जवानों ने आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया। मरने के बाद उन्हें नक्सली करार दे दिया गया और बाद में अदालतों में यह सिद्ध हुआ है कि मार दिये गये लोग नक्सली नहीं, बल्कि आदिवासी थे।
भीड़ पर अन्धाधुन्ध फायरिंग
सिलेगर में आदिवासी तीन दिनों से सीआरपीएफ कैम्प खोले जाने का शान्तिपूर्वक विरोध कर रहे थे। इस विरोध को रोकने के लिए सीआरपीएफ के जवानों ने अचानक से आन्दोलनकारियों पर लाठियाँ बरसायीं और फिर सीधे गोलियाँ दाग़नी शुरू कर दीं। पुलिस ने इस मामले को नक्सली मुठभेड़ से जोडऩे की कोशिश की और कहा कि आदिवासियों में नक्सली मौज़ूद थे और विरोध प्रदर्शन को नक्सल प्रायोजित बता दिया। जबकि यह सच नहीं है। मारे गये तीन लोग और घायल हुए सभी 18 लोग आस-पास के गाँवों के सीधे-सादे आदिवासी थे। इस गोलीकांड के विरोध में सिलेगर समेत लगाभग 50 गाँवों के आदिवासी विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है, जिसके चलते हालात तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए यह सीआरपीएफ कैम्प बनाया जा रहा है, ताकि आदिवासियों की ज़मीन आसानी से छीनी जा सके। सीआरपीएफ कैप का विरोध रोकने के लिए ही आदिवासियों की हत्याएँ की गयी हैं।
लोगों का विरोध देखकर पुलिस और प्रशासन को आदिवासी प्रतिनिधियों से 23 मई को बातचीत भी करनी पड़ी, लेकिन न तो मृतकों के परिजनों को कोई बड़ा राहत पैकेज देने की घोषणा की गयी और न ही सीआरपीएफ कैम्पों को हटाने को लेकर कोई आश्वासन दिया गया। जब आदिवासियों पर जवानों द्वारा गोलियाँ दाग़ने का मामला काफ़ी तूल पकड़ा, तब मरने वालों को 10-10 हज़ार रुपये राहत के तौर पर देने की घोषणा की गयी। आदिवासियों ने रुपये लेने से साफ इनकार कर दिया। अब सवाल यह उठता है कि जब मारे गये लोग नक्सली थे, तो उन्हें राहत पैकेज क्यों दिया गया, जबकि दूसरा सवाल यह है कि क्या आदिवासियों के जान की क़ीमत सि$र्फ 10 हज़ार रुपये है?
रमन सिंह की राह पर भूपेश बघेल
छत्तीसगढ़ की पूर्व की भाजपा सरकार में आदिवासियों के फ़र्ज़ीमुठभेड़ और हत्या के कारण ही सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में बस्तर समेत छत्तीसगढ़ के समस्त आदिवासियों ने भाजपा के रमन सिंह के बजाय भूपेश बघेल के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन करते हुए कांग्रेस पार्टी को जनादेश दिया। लेकिन भूपेश बघेल भी पूर्व की भाजपा सरकार की ही राह पर चल रहे हैं। 13 सितंबर, 2016 में जब भाजपा नेता डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे, तब भूपेश बघेल ने ट्वीटर पर लिखा था- @drramansingh #bastar से आदिवासियों का सफ़ाया चाहते हैं, ताकि अडानी, अंबानी और संचेती वहाँ पहुँच सकें। इसलिए आदिवासी प्रताडि़त हो रहे हैं।’ आज छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं और आदिवासियों के साथ वही अन्याय, वही प्रताडऩा, वही उनके जल-जंगल-ज़मीन छीनने का सिलसिला जारी है। अब भूपेश बघेल आदिवासियों पर हुए इस गोलीकांड पर भी चुप्पी साधे हुए हैं। ग्रामीणों का कहना है कि सीआरपीएफ के कैम्प नक्सलियों से निपटने के लिए नहीं, बल्कि आदिवासियों की ज़मीने छीनकर उद्योगपतियों को देने के लिए लगाये जा रहे हैं।
आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन
एक साल के अन्दर बस्तर सम्भाग में सीआरपीएफ के 30 से अधिक कैम्प लग चुके हैं, जबकि यह सम्भाग पाँचवीं अनुसूची में आता है और यहाँ कैम्प लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता। पेसा एक्ट के अनुसार, बस्तर सम्भाग में ग्रामसभा की अनुमति लिए बग़ैर कोई निर्माण नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके यहाँ पिछले एक साल से सीआरपीएफ के कैम्प बनाये जा रहे हैं। जब आदिवासी सुरक्षा बलों के कैम्पों का विरोध कर रहे हैं, तो उन पर सीधे लाठियाँ और गोलियाँ बरसायी जा रही हैं और उनकी हत्या की जा रही है। छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा इस तरह की बहुत सारी घटनाएँ पहले भी की जा चुकी हैं। सन् 2012 में सीआरपीएफ ने बस्तर सम्भाग के ही सारकेगुड़ा में 17 निर्दोष आदिवासियों को गोलियों से भून दिया था, जिसमें नौ छोटे बच्चे थे। ये सभी मृतक बीज पंडूम त्यौहार मना रहे थे। इस मामले में भी मारे गये लोगों को पुलिस ने माओवादी कहा था। लेकिन जब जाँच आयोग की रिपोर्ट आयी, तो उसने घोषित किया कि मारे गये लोग निर्दोष आदिवासी थे। जाँच आयोग की रिपोर्ट आने के बाद से आज तक किसी के ख़िलाफ़ कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई है।
संविधान के अनुच्छेद-244(1) पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं की भूमिका को अनदेखा कर छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर शोषण, अत्याचार किया जा रहा है। पाँचवीं अनुसूची के धारा-4(3)(क, ख, ग) अधिसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की भूमिका को नज़रअंदाज़कर, ग्रामसभाओं की भूमिकाओं को बाईपास कर राज्य सरकारें मनमाने फ़ैसले ले रही हैं, जिसके कारण अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक और कारपोरेट की दख़लअंदाज़ी बढऩे से आदिवासियों के अस्तित्व, अस्मिता, पहचान और उनकी सांस्कृतिक विरासत के ख़त्म होने का ख़तरा उत्पन्न हो गया है। बड़े पैमाने पर अनुसूचित क्षेत्रों में खनन, कारपोरेट, वन अभ्यारण्य इत्यादि के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं।
समाजसेवियों को पीडि़तों से मिलने से रोका जा रहा
बड़ी बात यह है कि इतनी बड़ी घटना, जिसे सीधे तौर पर हत्या कहना गलत नहीं होगा को लेकर राज्य की बघेल सरकार का रवैया बेरुख़ी वाला और मानवाधिकारों को हनन करने वाला है। सामाजिक कार्यकर्ता ने इस गोलीकांड के ख़िलाफ़ आवाज़उठा रहे हैं, तो उन्हें रोकने के लिए सरकार हर हथकंडे अपना रही है। इस हत्याकांड को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। आदिवासियों का कहना है कि अगर इस तरह उन्हें नक्सली कहकर बिना कारण मारा जाएगा, तो उन्हें इसका प्रतिकार करने का हक़ क्यों नहीं है? जबकि संविधान में सभी को अपने अधिकारों की लड़ाई लडऩे का हक़ दिया गया है। समाजसेवियों ने पूछा है कि अगर मारे गये लोग नक्सली थे, तो सरकार ने उनके परिजनों को मुआवज़ा देने की घोषणा क्यों की? अगर यहाँ जवानों की ग़लती नहीं है, तो फिर आदिवासी समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों को मृतकों के परिजनों, पीडि़तों और आन्दोलनकारियों से क्यों नहीं मिलने दिया जा है? छत्तीसगढ़ की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी को भी आन्दोलनकारियों के बीच जाने से रोका गया, उनका रास्ता बन्द कर दिया गया। इसी तरह दूसरे समाजसेवियों को भी तरह-तरह से प्रतिबन्धित करने की कोशिश पुलिस प्रशासन द्वारा की गयी। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और बेला भाटिया जैसे प्रतिष्ठित लोगों को पुलिस ने सिलेगर जाने की अनुमति नहीं दी। समाजसेवी मनीष कुंजाम को भी सुरक्षाबलों ने घटना स्थल तक नहीं जाने दिया। कुंजाम कहते हैं कि जब वह घटनास्थल की ओर जा रहे थे, तो सुरक्षाबलों के जवानों ने उन्हें धरमपुर के पास रोक लिया और क़रीब दो घंटे तक उन्हें परेशान किया। समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों को रोके जाने को लेकर उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की भूमिका और चुप्पी को लेकर सवाल उठाये हैं।
पुलिस कह रही है कि आदिवासियों की आड़ में नक्सली विरोध-प्रदर्शन में शामिल थे। आदिवासी समाजसेवियों का कहना है कि अगर आदिवासियों के बीच में नक्सली थे, तो पुलिस अब तक उनके ख़िलाफ़ नक्सली होने के सुबूत पेश क्यों नहीं कर सकी है? इसके अलावा अगर आदिवासियों में नक्सली थे, तो जवान भीड़ में गोली कैसे चला सकते हैं? उन्हें पुलिस ने गिरफ़्तार क्यों नहीं किया?
वहीं आदिवासियों पर गोलीबारी मामले में आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जब घटनास्थल पर जाकर मामले की पड़ताल करने चाही, तो उन्हें थाने में ही रोक लिया गया। इस मामले में आम आदमी पार्टी के प्रदेश सह संयोजक सूरज उपाध्याय ने बयान जारी करते हुए कहा कि 17 मई आदिवासियों पर जवानों द्वारा की गयी गोलीबारी की पड़ताल करने जब आम आदमी पार्टी जाँच दल सुबह सिलेगर गाँव के लिए रवाना हुआ, तो पुलिस ने उन्हें कोडनार थाने में बिठा लिया। पुलिस ने कोरोना का बहाना बनाकर उन्हें काफ़ी समय तक रोके रखा और सभी की कोरोना जाँच करवायी, जो कि निगेटिव आयी। लेकिन जाँच के बाद भी पुलिसकर्मियों ने आम आदमी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं की गाड़ी की चाबी छीन ली और जाँच दल को घटना स्थल पर जाने नहीं दिया। लेकिन पार्टी के नेता और कार्यकर्ता पुलिस के इस व्यवहार से शान्त नहीं बैठे और उन्होंने सरकार पर मामले की जाँच कर पीडि़तों को मुआवज़ा देने की माँग की। इस मामले में आम आदमी पार्टी के प्रदेश सह संयोजक सूरज उपाध्याय और दुर्गा झा ने बीजापुर ज़िले के सिलगेर में ग्रामीणों पर गोलीबारी की कड़ी निंदा करते हुए माँग की है कि निर्दोष ग्रामीणों पर जवानों द्वारा की गयी इस गोलीबारी की उच्च स्तरीय जाँच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्तर क्षेत्र में पुलिस या सैन्य बल का कैम्प बनाये जाते हैं और अगर वहाँ स्थानीय निवासी विरोध करते हैं, तो उन पर पुलिस और सैन्य बलों के जवान अत्याचार करते हैं। क्रूरतम व्यवहार करते हैं। कई बार उन्हें मार देते हैं। बाद में शासन-प्रशासन इन ग़रीब, सीधे-सादे ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली या नक्सली समर्थक क़रार दे देता है।
मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की माँग
इस मामले में एम्स के पूर्व चिकित्सक एवं मध्य प्रदेश के मनावर क्षेत्र से विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनसुईया उईके को पत्र लिखकर पीडि़तों को न्याय दिलाने की माँग की है। डॉ. हिरालाल अलावा ने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में कहा है कि दक्षिण बस्तर के सुकमा और बीजापुर ज़िले की सरहद सिलेगर में सीआरपीएफ कैम्प खोले जाने का तीन दिन से विरोध कर रहे हज़ारों ग्रामीणों की भीड़ पर अचानक गोली चलायी गयी। आँसू गैस के गोले छोड़े गये एवं मारपीट की गयी, जिसमें तीन स्थानीय ग्रामीण आदिवासियों की मौत हो गयी, जबकि दो दर्ज़न से अधिक ग्रामीण घायल हो गये हैं। मारे गये तथा घायल ग्रामीणों को पुलिस द्वारा माओवादी बताया जा रहा है और ग्रामीणों के विरोध को माओवादी प्रायोजित बताकर सच को छुपाया जा रहा है। बस्तर सम्भाग में नक्सल उन्मूलन के नाम पर कई बेक़सूर आदिवासियों को मारा जा रहा है। पिछले कई वर्षों से भोले-भाले आदिवासियों की फ़र्ज़ीमुठभेड़, फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण, नक्सलवाद के नाम पर हत्या के अनेक मामले सामने आये हैं।
डॉ. हिरालाल अलावा ने आगे लिखा है कि महोदय, जैसा कि आप अवगत हैं कि पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में समस्त विधायिका शक्ति आपमें एवं राज्यपाल में निहित है और आप संवैधानिक प्रावधानों के तहत देश के लगभग 15 करोड़ आदिवासियों के संरक्षक हैं। देश के 15 करोड़ आदिवासी अपने मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए आपसे आग्रह कर रहे हैं। डॉ. हिरालाल ने राष्ट्रपति से निवेदन किया है कि वह इस मामले की उच्चस्तरीय जाँच कराने के आदेश दें और दोषियों पर कार्रवाई करने के अलावा मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये और घायलों को 50-50 हज़ार रुपये का मुआवज़ा देने की कार्यवाही करें। साथ ही आदिवासियों के अस्तित्व, संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए बस्तर जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को मज़बूत करते हुए अनुच्छेद-244(2) की छठवीं सूची के अनुसार आदिवासियों को स्वायत्तता दी जाए, जिससे बस्तर में आदिवासियों का शोषण, पलायन रुके और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। इसी तरह डॉ. हिरालाल अलावा ने प्रदेश की राज्यपाल से आदिवासियों पर हुए अत्याचार को लेकर न्याय की माँग की है और राज्य स्तर पर मृतकों के परिजनों को 50-50 लाख रुपये एवं घायलों को 20-20 लाख रुपये देने की माँग की है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी विधायकों-मंत्रियों से की इस्तीफ़े की माँग
वहीं सर्व आदिवासी समाज के युवा प्रकोष्ठ के ज़िला अध्यक्ष सन्तु मौर्य ने इस मामले में प्रेस विज्ञप्ति जारी की है। इस प्रेस विज्ञप्ति में उन्होंने कहा है कि आदिवासियों पर हमले के विरोध में छत्तीसगढ़ के सभी आदिवासी विधायकों और मंत्रियों को सामूहिक रूप से इस्तीफ़ा देना चाहिए। उन्होंने कहा है कि आदिवासी विधायकों और मंत्रियों को मध्य प्रदेश के विधायक हिरालाल अलावा से सीख लेनी चाहिए। सन्तु मौर्य ने आगे लिखा है कि आज हक़ीक़त में कहा जाए, तो आदिवासियों के वर्तमान नेता, मंत्री और विधायक यह भी नहीं देख पा रहे कि हमारे समाज के लोगों के साथ इतना बड़ा धोखा हो रहा है और हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग आदिवासी परिवारों में जन्म लेकर भी आदिवासियों के साथ नहीं खड़े हैं, ऐसे लोगों पर धिक्कार है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों पर अत्याचार की ये बातें विदेशों तक जानी चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि चुपचाप सैन्य कैम्पों के विरोध में बैठे आदिवासियों पर गोली चलाना कैसे सही हो सकता है?
घटना के बाद आदिवासी क्षेत्र के एक पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने भी अपने समर्थकों के साथ घटनास्थल का दौरा किया। उन्होंने इस मामले में कहा कि निहत्थे और सीधे-सादे आदिवासियों पर जवानों ने बिना किसी कारण के गोली चलायी। वहीं मनीष कुंजाम ने कहा कि राज्य पुलिस जिन मृतकों को नक्सली बता रही है, सरकार उनके परिजनों को मुआवज़ा दे रही है। इससे पता चलता है कि मारे गये लोग नक्सली नहीं, बल्कि ग्रामीण आदिवासी थे। उन्होंने कहा कि इस मामले की बिना पक्षपात के न्यायिक जाँच होनी चाहिए, जिसमें हाईकोर्ट का कोई पूर्व न्यायाधीश शामिल हो।
हर मर्ज़ की दवा गुरुजी
केंद्र और राज्य सरकारें जब मर्ज़ी जहाँ मर्ज़ी लगा देती हैं अध्यापकों की ड्यूटी,
जिससे बच्चों की पढ़ाई होती है ठप
भारत में गुरु शब्द का प्रयोग प्राचीन-काल से होता आ रहा है। यह शब्द शिक्षा देने वाले को सम्बोधित करता है। आज के समय में ‘गुरुजी’ के लिए शिक्षक या अंग्रेजी शब्द टीचर या ग्रामीण बोलचाल भाषा में मास्टर साहब, जो भी प्रयोग करें, इसके अर्थ में कोई बदलाव नहीं आया है। इसका एक ही अर्थ है- शिक्षा देने वाला। पर भारत समेत झारखण्ड में सरकारी स्कूलों में काम करने वाले गुरुजी का अर्थ ही बदल गया है। वे हर मर्ज़की दवा बन गये हैं। उनसे शिक्षा से इतर हर तरह का काम लिया जाता है। स्कूलों में मिड-डे मील, बच्चों को ड्रेस बाँटने, स्कूलों के भवन निर्माण, स्कूल का लेखा-जोखा रखना, घंटी बजाना आदि स्कूल से जुड़े काम की ज़िम्मेदारी गुरुजी पर पहले से है। इसके अलावा जहाँ स्कूल के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है, वहाँ भी गुरुजी नामक प्राणी को फिट कर दिया जाता है। मसलन- जनगणना, चुनाव में ड्यूटी, मतदाता सूची तैयार करने, वोटर कार्ड बाँटने आदि कई कामों में सरकार अपनी सुविधा के लिए इनका उपयोग करती है। गुरुजी हर वो काम करते हैं, जिसका बच्चों की शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। इन दिनों गुरुजी पर एक और काम की ज़िम्मेदारी आ गयी है, वह है कोरोना से निपटना।
अस्पताल से लेकर प्लांट तक ड्यूटी
देश में कोरोना की दूसरी लहर चल रही है। मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के अन्य राज्यों समेत झारखण्ड में इन दिनों गुरुजी यानी शिक्षकों की कोरोना से निपटने में ड्यूटी लगा दी गयी है। बच्चों को शिक्षा देने वाले ये शिक्षक अस्पताल से लेकर श्मशान घाट तक सरकार की ड्यूटी बजा रहे हैं। शिक्षक स्कूली बच्चों की जगह अस्पताल और कोविड सेंटर में मरीज़ से जूझ रहे हैं। वहाँ मरीज़ों की देखभाल कर रहे। बेड, ऑक्सीजन सिलेंडर, दवा आदि का हिसाब रख रहे। कुछ शिक्षकों की ड्यूटी आइसोलेशन सेंटर में लगी है, जहाँ उन्हें सेंटर के व्यवस्था की सँभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी है। वहीं कुछ शिक्षकों को तो रेमडिसेविर इंजेक्शन समेत अन्य दवाओं के कालाबाज़ारी को रोकने के लिए दवा दुकानों पर ड्यूटी लगा दी गयी है। कोरोना जाँच में लगे शिक्षक जाँच के लिए आने वालों का केवल ब्यौरा ही नहीं रख रहे, बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में कोरोना जाँच के लिए आये व्यक्ति का स्वाब लेते भी दिख जाते हैं। कुछ शिक्षक ऑक्सीजन प्लांट में बैठकर सप्लाई को व्यवस्थित करने में लगे हैं। इसके अलावा कोरोना-काल में भी घर-घर बच्चों को मिड-डे मील का राशन पहुँचाना, किताब पहुँचाना, अपने स्कूल का हिसाब-किताब रखना, बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने का प्रयास आदि अन्य कार्य तो शामिल है ही।
संकट में जान, फिर भी नहीं सम्मान
शिक्षकों को डॉक्टर, नर्स, पारा मेडिकल स्टाफ की तरह सबसे संवेदनशील स्थान अस्पताल, कोविड सेंटर्स आदि जगहों पर अपनी जान संकट में डालकर ड्यूटी कर रहे हैं। उन्हें जो सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए, उससे वे महरूम हैं। अभी तक उन्हें राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर पर कोरोना वैरियर्स का दर्जा नहीं मिला है। राज्य के कई शिक्षकों ने बताया कि उन्हें मूलभत सुरक्षा सुविधा मसलन पीपीई किट, गल्बस, सैनिटाइजर आदि तक मुहैया नहीं कराये जा रहे हैं। अगर कोई शिक्षक ड्यूटी के दौरान कोरोना संक्रमित हो जाता है, तो उनके इलाज के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। सम्भवत: सुरक्षा की अनदेखी का नतीजा है कि भारी संख्या में ड्यूटी पर लगे शिक्षक कोरोना संक्रमित हो रहे हैं।
सैकड़ों शिक्षकों की मौत का दावा
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, समेत कई राज्यों से शिक्षकों की कोरोना से मौत की सूचना सामने आ रही है। अकेले मध्य प्रदेश में बीते दो महीने में 726 शिक्षकों की मौत का दावा किया जा रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव में शिक्षकों की ड्यूटी लगी थी। इस दौरान वह कोरोना की चपेट में आ गये। वहाँ के शिक्षक संघ ने 577 शिक्षकों के मौत की सूची सरकार को सौंपी है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में 370, बिहार में 28 और अन्य राज्यों में शिक्षकों की मौत की सूचना है। उनके संक्रमित होने के पीछे चुनावी या कोरोना ड्यूटी बतायी जा रही है। वहीं झारखण्ड में शिक्षक संघ के पदाधिकारियों का दावा है कि दूसरी लहर में राज्य में 250 से अधिक शिक्षकों की मौत हुई है। हर राज्य की तरह झारखण्ड में भी शिक्षक संघ द्वारा विरोध दर्ज कराया जा रहा है। शिक्षकों को करोना वैरियर्स घोषित करने की माँग की जा रही है। कोरोना संक्रमित शिक्षकों के इलाज के लिए विशेष व्यवस्था करने की माँग की गयी है।
शिक्षकों की ड्यूटी का दूरगामी प्रभाव
शिक्षा क्षेत्र से जुड़े जानकारों का कहना है कि शिक्षकों का मूल काम बच्चों को पढ़ाना है। सरकारी स्कूल के शिक्षकों को धीरे-धीरे इसी काम से दूर किया जा रहा है। कोरोना संकट तो उन्हें और भी शिक्षा कार्य से दूर कर रहा। कोरोना कार्य के लिए किसी अन्य विभाग के कर्मियों की ड्यूटी लगायी जा सकती थी। क्योंकि शिक्षकों की ड्यूटी लगने का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यह बच्चों के भविष्य के लिए सहीक़दम नहीं है। उनका कहना है कि कोरोना संक्रमण के कारण देश के सभी राज्यों में सरकारी या निजी स्कूल लगभग एक साल से बन्द हैं। निजी स्कूलों ने ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था तो कर ली है, लेकिन सरकारी स्कूल एक साल बाद भी इस मामले में पिछड़ा हुआ है।
अभिभावकों का दर्द
शिक्षा क्षेत्र के जानकारों की बातों से अभिभावक भी सहमत हैं। हालाँकि उनके कहने का अंदाज़ दूसरा है, लेकिन भवार्थ वही निकलता है। सब्ज़ी विक्रेता अरविंद मुंडा कहते हैं कि बच्चा तो एक साल से स्कूल नहीं गया है। बीच में मास्टर साहब स्कूल बुलाते हैं। चावल, दाल और अन्य सामान कभी घर पर भी पहुँचा जाते हैं। मुंडा आगे कहते हैं बच्चे को स्कूल में दिया कि पढ़ लेगा, तो हमारी तरह सब्ज़ी नहीं बेचेगा। पर अभी तो स्कूल ही बन्द है। पढ़ाई तो हो ही नहीं रही। पता नहीं क्या होगा? लगता है इसकी भी क़िस्मत में हमारी तरह सब्ज़ी ही बेचना है। इसी तरह घर-घर काम करने वाली शान्ति बताती हैं कि पिछले साल बेटा को एक सरकारी स्कूल के तीसरी कक्षा में दाख़िल कराया था। उन्होंने कहा बग़ैर पढ़े-लिखे और स्कूल गये ही बेटा चौथी कक्षा में चला गया। अभी भी स्कूल नहीं खुला है। स्कूल में मैडम से मिलीं, तो बोलीं मोबाइल पर पढ़ाएँगे। हमारे पास वैसा मोबाइल (स्मार्ट फोन) तो है ही नहीं, तो क्या पढ़ाएँगे?
शिक्षण कार्य ही पर्याप्त
शिक्षा क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले ज़्यादातर बच्चेग़रीब तबक़े से आते हैं। कम ही बच्चों के पास मोबाइल, इंटरनेट आदि की सुविधा होती है। इसलिए इस तालाबंदी के दौरान उनकी पढ़ाई के लिए कठिन परिश्रम की ज़रूरत है। शिक्षकों को कोरोना ड्यूटी की बजाय उनके मूल काम बच्चों को पढ़ाने के लिए दबाव बनाया जाता, तो बेहतर था। शिक्षकों के लिए शिक्षण कार्य ही पर्याप्त है। यह कोई छोटी ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि देश का भविष्य बुनने की ज़िम्मेदारी है। उनसे रायशुमारी कर बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रभावीक़दम उठाने के लिए मदद लेनी चाहिए थी। मौज़ूदा कम संसाधन में वह अपने-अपने स्कूल के बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं? इस पर विचार करके ठोसक़दम बढ़ाने की ज़रूरत थी, जिससे भारत की नींव को मज़बूत बनाया जा सके। इसके विपरीत उन्हें हर समय शिक्षण कार्य से दूर करते हुए अन्य कार्य में झोंका जा रहा है। यह भविष्य मेंख़तरनाक साबित होगा।
यह सही है कि शिक्षकों का मूल काम पढ़ाना है। चुनाव और आपदा के अलावा किसी भी अन्य कार्य में शिक्षकों की ड्यूटी नहीं लगानी चाहिए। अमूमन ड्यूटी लगायी भी नहीं जाती है। कोरोना संकट एक आपदा है। इससे निपटने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े लोगों के अलावा अन्य क्षेत्र के कर्मियों की ज़रूरत है। केवल शिक्षक ही नहीं विभिन्न विभागों के सरकारी कर्मियों की ड्यूटी लगायी गयी है। इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि सभी शिक्षकों की ड्यूटी नहीं लगायी जाए। जिनकी ड्यूटी नहीं लगी है, वे अपने-अपने स्कूल के बच्चों को ऑनलाइन पढ़ा रहे हैं। इसके लिए शिक्षकों को ट्रेनिंग भी दी गयी है। शिक्षकों को कोरना योद्धा मानकर टीकाकरण में प्राथमिकता के लिए केंद्रीय स्तर पर हुई बैठक में बात रखी गयी है।

राजेश कुमार शर्मा
सचिव, शिक्षा विभाग, झारखण्ड सरकार
राज्य में 2015 में मुख्य सचिव स्तर से एक आदेश पारित हुआ था कि शिक्षकों को शिक्षा से इतर किसी दूसरे कार्य में नहीं लगाया जाएगा। यह एक-दो साल तक हुआ, इसके बाद फिर पहले की तरह शिक्षकों का विभिन्न कार्यों में ड्यूटी लगने लगी। इसका असर बच्चों की पढ़ाई पर होता है। यह ठीक है कि कोरोना संक्रमण आपात स्थिति है। हम शिक्षकों ड्यूटी लगाने का विरोध नहीं हैं; लेकिन कई स्कूल ऐसे हैं, जहाँ के सभी शिक्षकों की ड्यूटी लगा दी गयी है। ड्यूटी के लिए सुरक्षा किट जैसी ज़रूरी ची•ों तक नहीं दी जाती हैं। शिक्षकों के संक्रमित होने पर समुचित इलाज की व्यवस्था नहीं है। उन्हें कोरोना योद्धा नहीं माना गया है। राज्य में अब तक लगभग 250 से अधिक शिक्षकों की मौत हो चुकी है; लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा।

राम मूर्ति ठाकुर
प्रदेश महासचिव, अखिल झारखण्ड प्राथमिक शिक्षक संघ
कोरोना-काल में अकेले बुज़ुर्गों में बढ़ता तनाव
बिना परिवार वाले या तिरस्कृत बुज़ुर्गोंके बीमार पडऩे पर नहीं हो पाती उनकी देखभाल
मैं अपने कोविड-19 इलाज के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक निजी अस्पताल में भर्ती थी। मेरे साथ वाले कमरे में एक बुज़ुर्ग महिला का भी इलाज चल रहा था। वह उस अस्पताल का कोविड वार्ड था। लिहाज़ा वहाँ पर मेडिकल, पैरा मेडिकल व सफ़ाईकर्मी के अलावा किसी अन्य के आने पर पाबंदी थी। उस बुज़ुर्ग महिला के कमरे का दरवाज़ा हर पल खुला रहता था। वह कभी ख़ुद से ही ऊँची आवाज़ में संवाद करती सुनाई देती, तो कभी अकेलेपन की पीड़ा की चोट पर मरहम लगाने के लिए टीवी की ऊँची आवाज़ का सहारा लेती महसूस होती। डॉक्टर्स हमेशा वहाँ भर्ती मरीज़ों को, जो चलने में समर्थ थे; उन्हें कॉरिडोर में थोड़ी देर टहलने की सलाह देते, ताकि मरीज़ शारीरिक व मानसिक रूप से सक्रिय रहें। लेकिन वह बुज़ुर्ग महिला ऐसा नहीं करती थी। स्टाफ को कहती कि उसका मन नहीं करता।
दूसरा दृश्य सार्वजनिक स्थल पार्क का है। मेरी बस्ती के क़रीबी दो पार्क, जो कोविड-19 के प्रथम लॉकडाउन से पहले सुबह-शाम बुज़ुर्गोंकी टोलियों से गुलजार रहते थे, वहाँ आज भी एक तरह से उनका दिखायी न देना, उनके अभिभावदन के लिए हाथों का स्वत: नमस्कार वाली मुद्रा में आ जाना, बहुत याद आता है। उनमें से अधिकांश बुज़ुर्ग अपने-अपने घरों में क़ैद होकर रह गये हैं। बहरहाल मौज़ूदा महामारी कोविड-19 या कोरोना से विश्व को जूझते हुए क़रीब डेढ़ साल होने को है और इससे कब निजात मिलेगी? कहना मुश्किल है। हर रोज़ वैज्ञानिक नयी-नयी जानकारियाँ व चेतावनियाँ जारी करते रहते हैं। वैसे तो इस ख़तरनाक महामारी ने तक़रीबन सभी आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित किया है, मगर बुज़ुर्ग आबादी के शराीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए अलग ही चुनौतियाँ पेश की हैं।
दुनिया के बहुत से देशों में बुज़ुर्ग आबादी इस महामारी के प्रसार के आँकड़ों व अस्पताल, स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने, महँगी स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक क़िल्लत, बच्चों व अपनों के दूर होने से अकेलापन होने के कारण विकट तनाव में जी रह रहे हैं। उन पर कई प्रकार के मानसिक रोगों की गिरफ़्त में आने का ख़तरा मँडराने लगा है। एक अध्ययन के अनुसार, यूरोप व चीन में कोविड-19 के कारण होने वाली तकलीफ़ों का असर 60 साल से अधिक आयु के लोगों पर अधिक पाया गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिक कोविड-19 संक्रमण की रोकथाम के लिए जिन उपायों पर अधिक बल देते हैं, उनमें सामाजिक दूरी भी शामिल है। लेकिन इसके साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन शारीरिक व मानसिक गतिविधियों का स्वशासन व समुदाय में सामाजिक भागीदारी के स्तर के साथ क़रीबी रिश्ते को भी वर्णित करता है। इस संगठन ने सामाजिक भागीदारी को धार्मिक, खेल, सांस्कृतिक, रचनात्मक, राजनीतिक व स्वैच्छिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के रूप में उल्लेख किया है। विभिन्न अध्ययन बुज़ुर्गोंके लिए सामाजिक भागीदारी के सकारात्मक प्रभाव दर्शाते हैं। यह शारीरिक गतिविधियों का व ज्ञान सम्बन्धी कार्यों का स्तर बढ़ाने के लिए प्रोत्सहित करती है। सामाजिक भागीदारी को बुज़ुर्गोंमें ज़िन्दगी की उच्च गुणवत्ता, मज़बूत मांसपेशियों, विकलांगता व कम सहरुग्णता के साथ जोडक़र देखा गया है। लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते सामाजिक दूरी, सामाजिक आयोजन में हिस्सा लेने व यहाँ तक की किसी को अपने घर पर नहीं बुलाने और कहीं अनावश्यक नहीं जाने जैसी हिदायतें बीते डेढ़ साल से बार-बार याद दिलायी जाती हैं। लिहाज़ा बुज़ुर्ग लोग अक्सर अपना पूरा वक़्त घरों ही बिताने को विवश हैं, जिसका उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत ही नकारात्मक असर हो रहा है। बेशक इस माहौल में सकारात्मक नज़रिया रखने का परामर्श दिया जा रहा है, लेकिन क्या यह सब इतना आसान है?
दिल्ली में परचून की दुकान चलाने वाला एक युवा अपना व अपने पिता का नाम नहीं लिखने की शर्त पर बताता है कि कोविड-19 की पहली लहर में उसके बुज़ुर्ग पिता महामारी की चपेट में आ गये। नोएडा के एक सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया। अस्पताल में परिजन को उनसे मिलने की इजाज़त नहीं थी व उन्हें अस्पताल की तरफ़ से पिता के स्वास्थ्य के बारे में कोई सूचना भी नहीं दी जाती थी। पिता ही कभी-कभी परिवार जन को फोन कर देते थे। तीन दिन के बाद पिता ने बच्चों को इलाज की ज़मीनी सच्चाई बतायी- ‘न तो नर्स वक़्त पर आती है और न ही सही देखभाल हो रही है। मेरे साथ के बिस्तर वाले दो लोगों की कोरोना से यहाँ मौत हो गयी है। आप मुझे यहाँ से ले जाओ। ऐसा न हो कि मैं अपने बच्चों की शक्ल देखे बिना ही मर जाऊँ।’
यह मनोवैज्ञानिक तनाव, पीड़ा बहुत कुछ सोचने कीे विवश करती है। हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार, देश के क़रीब 82 फ़ीसदी बुज़ुर्ग इस समय किसी न किसी मानसिक तनाव से गुज़र रहे हैं। इसमें बेचैनी, पति या पत्नी का मरना, स्वास्थ्य सेवाओं तक आसानी से पहुँच न होना, नींद नहीं आना, पैनिक अटैक अकेलेपन का अहसास आदि शामिल हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. शुभ्रा जैन कहती हैं कि देश में बुज़ुर्ग आबादी बढ़ रही है। लेकिन उसके स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से निपटने के लिए एक राष्ट्र के तौर पर हम कितने तैयार हैं? यह बहुत बड़ा सवाल है। इन दिनों प्रधानमंत्री केयर्स फंड से अस्पतालों में भेजे गये वेंटिलेटर्स की गुणवत्ता पर चर्चा हो रही है। कहीं रख-रखाव की समस्या, तो कहीं उसे चलाने के लिए प्रशिक्षित स्टाफ की कमी आदि कारण गिनाये जा रहे हैं। लेकिन इस महामारी के शिकार बुज़ुर्गोंके साथ अस्पताल में कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए? उनकी उम्र के हिसाब से विशेष ज़रूरतों, जिसमें भावात्मक सपोर्ट आदि भी शामिल है, के बाबत अस्पताल के स्टाफ आदि को क्या प्रशिक्षित किया गया है? इसका जवाब सबको मालूम होना चाहिए।
एक अस्पताल में एक बुज़ुर्ग महिला के साथ सही व्यवहार नहीं करने वाली घटना को जब उसके परिजन ने अस्पताल प्रशासन को बताया, तो जवाब मिला कि हमने कुछ स्टाफ आउटसोर्स किया है। हम अब इन्हें शिष्टाचार के बारे में प्रशिक्षित करेंगे। भारत अपने देशवासियों के स्वास्थ्य पर बजट का क़रीब 1.3 फ़ीसदी ही ख़र्च करता है। लोगों की स्वास्थ्य चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, वह सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। कोविड-19 महामारी ने भारत सरकार को बार-बार शर्मसार किया है। उसके कुप्रबन्धन को बार-बार उजागर किया है।
2020 में प्रथम लॉकडाउन की घोषणा की हड़बड़ी हो या अब दूसरी लहर में दवाइयों, टीकों, ऑक्सीजन की कमी; इसके चलते कालाबाज़ारी को रोकने में असफलता व अब कोविड-रोधी टीकाकरण का हाँफना। टीकाकरण अब कछुए की चाल चल रहा है। बुज़ुर्ग जो अधिक संवेदनशील है, वे कई-कई घ्ंाटों तक टीका लगवाने के लिए लम्बी-लम्बी क़तार में खड़े देखे गये। अब तो सैंकड़ों टीकाकरण केंद्रों पर टीका उपलब्ध नहीं होने की सूचना वाली पट्टी लग चुकी है।
सरकार का महामारी से निपटने के लिए ख़ुद को बेहतर ढंग से तैयार नहीं करने की क़ीमत बुज़ुर्ग आबादी भी चुका रही है। इस कुप्रबन्धन के बुज़ुर्ग आबादी पर अल्पकालिक व दीर्घकालिक प्रभाव होंगे। हाल ही में जापान सरकार ने बुज़ुर्गोंके अकेलेपन को दूर करने के लिए मिनिस्ट्री ऑफ लोनलीनेस नामक एक विशेष मंत्रालय का गठन किया है। जापान की आबादी क़रीब 12.5 करोड़ है। इसमें 3.5 करोड़ लोगों की उम्र 65 साल या इससे अधिक है। यानी आबादी का एक-चौथाई। इन बुज़ुर्गोंको किसी जीवित साथी का साथ उपलब्ध नहीं है।
भारत में बुज़ुर्गोंकी आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। सन् 2011 जनसंख्या के अनुसार, देश में 10 करोड़ 40 लाख बुज़ुर्ग आबादी है, इसमें पाँच करोड़ 30 लाख महिलाएँ और पाँच करोड़ 10 लाख पुरुष हैं।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की अप्रैल, 2019 में जारी द स्टेट ऑफ वल्र्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट के मुताबिक, 2050 तक भारत में बुज़ुर्ग आबादी (60 साल व इससे अधिक आयु वाले लोग) कुल आबादी की 20 फ़ीसदी हो जाएगी। मनोचिकित्सक मानते हैं कि बुज़ुर्ग परिवार के लिए अमोल हैं और उनकी देखभाल के लिए परिवार को वक़्त निकालना चाहिए। ख़ासतौर पर इस महामारी के दौर में। अक्सर ऐसी सामाजिक धारणा है कि बुज़ुर्गावस्था ज़िन्दगी की आख़िरी अवस्था है।
इस धारणा के कारण न तो बुज़ुर्ग ख़ुद पर अधिक ध्यान देते हैं और न ही परिवार की प्राथमिकता में वो दर्ज होते हैं। लेकिन यह नज़रिया ख़तरनाक है। अब तो बुज़ुर्ग यह सोचने लगे हैं कि उनकी सारी ज़िन्दगी इसी महामारी में गुज़र जाएगी। यह सोच उनके लिए समाज, देश और दुनिया के लिए शुभ संकेत नहीं है।
हेल्प एज इंडिया नामक संस्था ने कोविड-19 की पहली लहर के दौरान मुल्क के बुज़ुर्गोंपर एक सर्वे किया था। उस सर्वे के मुताबिक, 61 फ़ीसदी बुज़ुर्ग लॉकडाउन के दौरान परिवार के सदस्यों की घर में उपस्थिति के बावजूद अकेलापन और सामाजिक रूप से अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। 42 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंका स्वास्थ्य समुचित सेवाओं के अभाव में पहले से और अधिक ख़राब हुआ है। 78 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको आवश्यक सेवाओं और वस्तुओं तक पहुँचने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। इसी तरह कोरोना की दूसरी लहर के दौरान एजवेल नामक संगठन का एक अध्ययन बताता है कि 82 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको अपने स्वास्थ्य की बहुत चिन्ता सता रही है। ऐसी चिन्ता इससे पहले कभी नहीं हुई। 70 फ़ीसदी से भी अधिक बुज़ुर्ग नींद नहीं आने, इन्सोमनिया और डरावने सपने आने की समस्या से जूझ रहे हैं। 63 फ़ीसदी बुज़ुर्ग अकेलेपन या सामाजिक अलगाव के कारण अवसाद जैसे लक्षणों को महसूस कर रहे हैं। 55 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको प्रतिबन्धों की वजह से मानसिक और शारीरिक रूप से कमज़ोरी का अहसास हो रहा है।
धड़ल्ले से हो रही नक़ली बीजों और कीटनाशकों की कालाबाज़ारी
इन दिनों नये कृषि क़ानूनों को लेकर आन्दोलन कर रहे किसानों के साथ कई तरह की ठगी वर्षों से हो रही है। बीज, खाद और कीटनाशकों के मामले में यह ठगी बड़े पैमाने पर होती है। किसान गोविन्द दास का कहना है कि कहने को तो हम कृषि प्रधान देश में रहते हैं। लेकिन मौज़ूदा वक़्त में अगर दुर्दशा किसी की है, तो वो है किसान। किसानों को केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें सिर्फ़ वोट बैंक के तौर पर ही उपयोग करती है। गोविन्द दास का कहना है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच आपसी तालमेल न होने की वजह से किसानों को तमाम झंझावातों से जूझना पड़ता है। ये पीड़ा सिर्फ़ गोविन्द दास की नहीं है, बल्कि देश के उन किसानों की भी है, जो केवल किसानी करके अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए जूझ रहे हैं, लेकिन सुनवाई नहीं हो रही है।
किसानों को बेहतरीन कीटनाशकों और असली बीजों के नाम पर बहुत कुछ नक़ली बेचकर लूटा जा रहा है। और तो और किसानों को अलग-अलग राज्यों में खाद विक्रेता सीधे-साधे मेहनतकश किसानों को महँगे दामों पर खाद बेच रहे हैं। ऐसा नहीं है कि किसानों के ठगे जाने वाले खेल में सिर्फ़ खाद विक्रेता ही शामिल हैं। इसमें ज़िला स्तर से लेकर तहसील स्तर का प्रशासनिक तंत्र शामिल है। इन्हीं तमाम पहलुओं पर ‘तहलका’ ने देश के अलग-अलग राज्यों के किसानों से बात की, तो उन्होंने कहा कि कोरोना-काल में अगर सबसे कारोबार पनपा है, तो नक़ली बीज और नक़ली कीटनाशक दवा कम्पनियों वालों का। क्योंकि किसानों से जुड़े कारोबार पर बहुत ही कम लोगों की नज़र पड़ती है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय और राज्यों के कृषि मंत्रालय में आपसी ताममेल न होने की वजह तो राजनीति हो सकती है; लेकिन किसानों के हित में जो योजनाएँ सरकारी बनती हैं, उन पर अमल क्यों नहीं होता? नक़ली बीजों और नक़ली कीटनाशकों का जो खेल चल रहा है, उसमें केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारियों का एक तबक़ा किसानों का जमकर दोहनकर रहा है।
बतातें चलें नक़ली बीजों और नक़ली कीटनाशकों के कारोबार में किसानों को भ्रमित कर मल्टीनेशनल दवा कम्पनियों वाले अपने-अपने उत्पादों को बेबसाइट के ज़रिये बेच रहे हैं। इस कारोबार को अंजाम देने में देश के बड़े-बड़े सियासतदानों का हाथ होने से कोई कुछ नहीं कर पा रहा है। मध्य प्रदेश के ज़िला टीकमगढ़ के किसान राजेश का कहना है कि देश में अगर सरकारें किसानों के हित सही मायने सरकार सुधार लाना चाहती हैं, तो ज़िला स्तरीय बीज भण्डारण वालों पर कार्रवाई करें। नक़ली बीज, वो भी महँगे दामों पर बेच रहे हैं। ये लोग न सिर्फ़ किसानों की फ़सल से खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि लोगों के स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। क्योंकि नक़ली बीजों, नक़ली कीटनाशकों से जो फ़सल पैदा होती है। उस फ़सल से चाहे अन्न पैदा हो या फल उनका सेवन करने वालों को हृदय, लिवर, किडनी समेत कैंसर जैसी तमाम बीमारियाँ पनप रही हैं, जो जानलेवा साबित हो रही हैं। इसी वजह से देश दुनिया में भारतीय कृषि उत्पाद की बिक्री ही कम नहीं हो रही है, बल्कि छवि भी ख़राब हो रही है। लोगों में एक शंका पैदा होती है कि नक़ली खाद और नक़ली बीज से उपजी पैदावार का सेवन लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर सकता है। ज़हरीले खाद्य पदार्थों की पैदावार बढऩे के चलते भारतीय खाद्य पदार्थों का विदेशों में निर्यात भी कम हुआ है।
कृषि विशेषज्ञ विमल कुमार ने बताया कि किसानों के साथ खिलवाड़ का खेल पुराना है, जो कोरोना-काल में और वर्तमान सरकार की अनदेखी के कारण एक भयंकर रूप ले चुका है। अगर सरकार इस नैक्सिस को तोडऩे लगे भी तो सालोंसाल लगेंगे और वे चेहरे सियासी सामने आएँगे, जो मौज़ूदा समय में किसानों के सबसे हिमायती बने हुए हैं।
क्योंकि बीज और कीटनाशक अधिनियम जो बने हैं, वे सब देखने और दिखावे के लिए बने हुए हैं। अगर इन अधिनियमों में व्यापक सुधार व संशोधन न किया गया, तो किसानों को ठगने का सिलसिला जारी रहेगा। क्योंकि अधिनियमों में नक़ली बीज और कीटनाशक के कारोबार के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज होने का प्रावधान होना चाहिए, वो भी क़ानून के तहत। अन्यथा कुछ हासिल नहीं होगा। क्योंकि नक़ली कीटनाशकों के कारोबार में जो लोग संलिप्त हैं, उनकी कम्पनी कहीं है और दवा में पता कहीं का है। इस सारे खेल में दवा का अवैध कारोबार करने वाले सबसेज़्यादा उत्तर प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ और गुजरात में हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि जो किसानों को दवा के नाम भ्रमित करने वाले ब्राण्ड बेचे जा रहे हैं। उनमें पता कहीं का है तथा फोन नंबर कहीं और का।
खाद्य कंट्रोलर ऑर्डर सबसे दिखावे के साबित हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के किसानों का कहना है कि सरकार किसी राजनीतिक दल की हो, लेकिन किसानों की समस्या जस-की-तस है। किसानों के जीवन-यापन में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। सरकारी योजनाएँ और मदद के आँकड़े भले ही सरकार समय-समय पर कुछ ही पेश करें, लेकिन उनसे किसानों का कोई भला नहीं हुआ है।
कृषि विशेषज्ञ डॉ. गजेन्द्र चंद्राकर का कहना है कि देश भर में अपराधियों द्वारा नक़ली कीटनाशकों की बढ़ती मात्रा का उत्पादन, विपणन और बिक्री की जा रही है, जो एक गम्भीर संगठित अपराध है। नक़ली कीटनाशक आपके स्वास्थ्य, आपकी जेब और पर्यावरण के लिए ख़तरा है। इसलिए किसानों को सावधान रहने की ज़रूरत है। जब भी किसान किसानी से सम्बन्धित कोई उत्पाद ख़रीदें, तो पैकेजिंग, लेबल और उत्पाद की जाँच कर लें। अगर कोई नक़ली उत्पाद बेचता दुकानदार पाया जाता है, तो उसकी शिकायत पुलिस व सम्बन्धित विभाग में करें।
डॉ. चंद्राकर का कहना है कि नक़ली बीज और नक़ली कीटनाशक के कारोबार जैसी समस्या को अगर केंद्र और राज्य सरकारें विफल रहती हैं, तो वे अपनी कृषि अर्थ-व्यवस्था, व्यापार और निर्यात को ख़तरे में डाल रही हैं।
किसानों को नक़ली बीज और नक़ली कीटनाशक बेचकर ठगने के मामले पर किसान चंद्रपाल सिंह ने कहा कि मौज़ूदा दौर में तमाम कारोबार मंदी और बंदी के कगार में पहुँच गये हैं। लेकिन नक़ली कीटनाशक दवा और नक़ली बीज बेचने वालों का कारोबार ख़ूब फल-फूल रहा है। नक़ली चीज़ों का कारोबार एक सुनियोजित तरीक़े से फल-फूल रहा है। इसमें सिस्टम के तहत किसानों तक दुकानदारों कैसे किसानी का सामान और दवा को कैसे पहुँचाया जाता है? इस बारे में चंद्रपाल का कहना है कि नक़ली माल पर ब्रांड लेबल लगाकर अच्छी पैकेजिंग साम्रगी और $गैर-स्थानीय भाषा में लेबल के साथ अनुचित पैकेजिंग साम्रगी या अल्पविकसित लेबलिंग के साथ उसे बिना चालान के अनधिकृत डीलरों द्वारा बेचा जाता है। नक़ली और अवैध उत्पादों का न तो परीक्षण किया जाता है और न ही मूल्यांकन किया जाता है, जो अपने आप में सरकारी व्यवस्था को चैलेंज कर अवैध कारोबार को बढ़ावा देता है।
बतातें चलें मल्टीनेशनल कीटनाशक दवा कम्पनियों से जुड़े व्यापारियों का सेन्टर मौज़ूदा समय में गुजरात में है, जो लगभग दो दशकों से पनप रहा है। लेकिन कोरोना-काल में एक विकराल रूप धारण कर चुका है। ‘तहलका’ को बीज की कम्पनी में काम करने वाले अर्जुन पाराशर ने बताया कि जिस प्रकार एलोपैथ और आयुर्वेद डॉक्टरों के पास एम.आर. जाते हैं।
उसी प्रकार किसानों के पास कीटनाशक दवा वाले और बीज वाले जाते हैं और किसानों को प्रलोभन देते हैं। इस खेल में स्थानीय अवैध तरीक़े से कारोबार करने वालों का हाथ होता है, जो अपनी मोटी कमायी के लिए किसानों को ठगने का काम करते हैं। राज्य सरकार के कृषि मंत्रालय में बैठे आला अधिकारियों के दिशा-निर्देश पर सारा काम चलता है। क्योंकि किसानों को ठगने में जो सिस्टम सिलसिलेवार काम कर रहा है। उसमें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों का हाथ है। एक अधिकारी ने बताया कि एक दौर वो था, जब कृषि से पढ़े-लिखे युवाओं को अनपढ़ों की तरह देखा जाता था। लेकिन अब लोगों की सोच बदल रही है, तरीक़े बदल रहे हैं। लोगों ने कृषि को पूरी तरह से कमायी का ज़रिया बना लिया है; चाहे उसमें लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक़्क़तें क्यों न हों? वे मल्टीनेशनल कम्पनियों से जुडक़र सोशल मीडिया, बेबसाइट के ज़रिये भ्रामक जानकारी दे रहे हैं, जो पूरी तरह से आपराधिक साज़िश की श्रेणी में आता है।
कृषि अनुसंधान से जुड़े पंकज यादव का कहना है कि जिस प्रकार स्वास्थ्य मंत्रालय कोरोना-काल में डॉक्टरों को मरीज़ों को स्वस्थ करने में लगे हैं। उसी प्रकार कृषि मंत्रालय को अपने कृषि अधिकारियों के साथ मिलकर किसान और किसानी के सुधार के लिए काम करना चाहिए। अन्यथा एक दिन वो आने वाला है, जब देश में नक़ली बीज, नक़ली कीटनाशकों के चलते लोगों को कई नयी बीमारियों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि जो संस्थाएँ कृषि में सुधार में लगी हैं, वो सियासी अखाड़े में तब्दील होती जा रही हैं। अगर कोई किसान या उपभोक्ता सुधार केंद्रों पर शिकायत करता है, तो उस शिकायती को राजनीति से प्रेरित माना जाता है।














