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तम्बाकू के सेवन से कैंसर के साथ तामाम बीमारियों का खतरा

विश्व तम्बाकू विरोधी दिवस के अवसर पर देश व्यापी तम्बाकू विरोधी कार्यक्रम का आयोजन किया गया । जिसमें देश के जाने-माने डाक्टरों ने भाग लिया। डाक्टरों का कहना है कि कोरोनाकाल चल रहा है। जरा सी लापरवाही घातक साबित हो सकती है। एम्स के कैंसर रोग विशेषज्ञ डाँ राहुल का कहना है कि तम्बाकू के सेवन से कैंसर होता है। मुंह का कैंसर तम्बाकू के सेवन से होता है और फेफड़ों का कैंसर धूम्रपान करने से होता है।

मैक्स अस्पताल के कैथलैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार का कहना है कि तम्बाकू के सेवन से हार्ट रोग को बढ़ावा मिलता है। तम्बाकू खोने और धूम्रपान करने वालों को हार्ट अटैक का खतरा भी अधिक रहता है। क्योंकि हार्ट की धड़कन भी अनियमित होती है। बैचेनी के बढ़ने से घबराहट होती है। कालरा अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डाँ आर एन कालरा का कहना है कि इस समय कोरोना का कहर ज्यादा है। जो लोग तम्बाकू और सिगरेट,बीड़ी का सेवन अधिक करते है। उनको कोरोना के समय में जान का खतरा अधिक रहता है।

क्योंकि जो लोग सिगरेट और तम्बाकू का सेवन अधिक करते है, उनके फेफड़ों में 30 से 40 प्रतिशत तामाम तरह की दिक्कतें होती है। ऐसे में कोरोना काल में सिगरेट का सेवन जानलेवा साबित हो सकता है क्योकि कोरोना अपनेआप में ही  फेफड़ों की बिमारी है।

राजीव गांधी अस्पताल के डाँ अनुज कुमार का कहना है कि तम्बाकू के सेवन करने वालों को कैंसर की ही बीमारी ही नहीं होती है। बल्कि मानसिक , अस्थमा, हार्ट और न्यूरों की समस्या होती है। इसलिये तम्बाकू के ना कहें और नशा विरोधी जीवन यापन करें। जिससे कैंसर कैंसर जैसी बीमारी को काबू पाया जा सकें।

भेष बदलकर पुलिस कमिश्नर ले रहे थानों का जायज़ा

 

इस कोरोना-काल के संक्रमण में भी कुछ लोग पाप और अपराध करने से नहीं चूक हैं। इस महामारी में भी कई तरह की आपराधिक घटनाएँ देश के कई राज्यों के साथ-साथ महाराष्ट्र के पुणे में भी घटित हो चुकी हैं। मसलन, पुणे के पिंपरी चिंचवड के एक निजी अस्पताल में कोरोना-मरीज के जेवरात और दूसरी चीजों की चोरियों की शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। पर जहाँ शातिर अपराधी हैं, वहाँ पुलिस भी उनकी शिनाख़्त करके उन्हें सलाख़ो के पीछे पहुँचाने से पीछे नहीं हटती। कई पुलिसकर्मी और पुलिस अधिकारी तो ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इसके लिए उन्हें कभी-कभार भेष भी बदलना पड़ता है। हमारे देश में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें पुलिस और ख़ुफिया विभाग के अफ़सरों ने भिखारी, पागल और किन्नरों तक का भेष बदलकर अपराधियों को पकडऩे के कारनामे किये हैं।

वहीं कई अफ़सर अपने विभाग की जाँच करने और अपने मातहतों की ईमानदारी और कर्मठता का जायज़ा लेने के लिए भी ऐसा करना पड़ता है। इन दिनों पुणे (महाराष्ट्र) के पिंपरी चिंचवड शहर के मशहूर पुलिस आयुक्त (कमिश्नर) कुछ इसी तरह वेशभूषा बदलकर पुलिस महकमे के कामकाज का जायज़ा लेने रात में निकल रहे हैं। उनके काम को देखकर बस यही कहना होगा कि पुलिस आयुक्त हो, तो ऐसा; जो अपनी जनता की समस्याओं और पीड़ा को समझे। पुलिस कर्मचारियों के पेच कसे और गुण्डों, गिरोहबाजों, अवैध धन्धे करने वालों की नाक में नकेल डाले।

पिछले दिनों एक रात पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश रमज़ान महीने में एक मुस्लिम व्यक्ति की दाढ़ी वाली वेशभूषा बदलकर हिंजवडी, वाकड, पिंपरी पुलिस थानों में अचानक पहुँच गये। उनका साथ देने के लिए उनकी बेग़म के किरदार में एसीपी प्रेरणा कट्टे थीं। दोनों ने एक निजी कार का इस्तेमाल किया। इस रात पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने चेहरे पर नक़ली दाढ़ी, सिर पर नक़ली मेहंदी कलर के बाल लगाकर, पैर में फैशनेबल जूता, कुर्ते पर जीन्स पैंट पहनकर सिर पर नमाजी टोपी लगाकर अपने ही पुलिस थाने में जाकर मौजूदा ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों से उर्दू-हिन्दी लहजे में शिकायत की कि वह अपनी बेग़म के साथ खाना खाने निकले थे।

कुछ गुण्डों ने बेग़म के साथ छेडख़ानी की और क़ीमती सामान छीनकर भाग गये। हमारी शिकायत दर्ज करने की मेहरबानी करें और गुण्डों को गिरफ्तार करें। हिंजवडी और वाकड में ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाले तुरन्त घटना स्थल पर गये। हालाँकि वहाँ कोई अपराधी नहीं मिला। लेकिन एक के मोबाइल के बारे में और कुछ संदिग्ध लोगों का पता चला। भेष बदले पुलिस कमिश्नर की एफआईआर ड्यूटी अफ़सर दर्ज करने लगे, तो पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने अपनी नक़ली वेशभूषा को हटाया। मौजूदा सारे पुलिस कर्मचारियों को झटका लगा। उनके सामने उन्हीं के पुलिस कमिश्नर और एसीपी मुस्लिम वेषभूषा खड़े हैं। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश और एसीपी प्रेरणा कट्टे इसी वेशभूषा में पिंपरी पुलिस स्टेशन पहुँचे। वहाँ उनकी कथा दूसरी थी। उन्होंने यहाँ कहा कि उनके घर का एक व्यक्ति कोरोना संक्रमण पीडि़त है। एंबुलेंस से अस्पताल पहुँचाना है।

एंबुलेंस वाले ज़्यादा रुपये माँग रहे हैं। सरेआम पीडि़त लोगों को लूट रहे हैं। उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करें और कार्रवाई करें। पिंपरी पुलिस स्टेशन में ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों ने कहा कि यह हमारा काम नहीं है। साथ ही उनके बातचीत करने का व्यवहार भी ग़लत पाया गया। आयुक्त पिंपरी पुलिस स्टेशन के कामकाज से नाख़ुश हुए।
पुलिस आयुक्त का वेशभूषा बदलकर पुलिस थानों के कामकाज का जायज़ा लेने के पीछे इतना ही मक़सद था कि पुलिस का आम लोगों के प्रति कैसा व्यवहार है? शिकायतकर्ताओं की शिकायतें सुनी जाती हैं या नहीं? रात के समय पुलिस किस अवतार में नजर आते हैं? सोते हैं या जागते हैं? पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने एक सम्मेलन में पुलिस वालों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि थानों में आने वाला व्यक्ति तनाव, चिन्ता और परेशानियों से भरा होता है।

वह त्रस्त होकर ही अपनी शिकायतें पुलिस थाने लेकर आता है। लेकिन जब वह पुलिस से मिलकर वापस जाए, तो चेहरे पर समाधान, सन्तुष्टि लेकर जाए। लेकिन वर्तमान में क्या पुलिस थानों में ऐसा हो रहा है? इसी का मुआयना करने रात के समय वह तीन थानों में वेश बदलकर गये थे। उन्होंने कहा कि इससे पुलिस थानों के कर्मचारियों में अपने काम के प्रति जागरूकता आयेगी। डर बना रहेगा। कामकाज में पारदर्शिता दिखायी देगी।

पुलिस आयुक्त ने कहा है कि ऐसा ही औचक निरिक्षण आगे भी होते रहेंगे। इसके आगे वह अवैध धन्धों के अड्डों, देर रात तक चलने वाले होटलों, बार आदि में ग्राहक के रूप में जाएँगे। जिन पुलिस थानों की सीमा में और थानों के अन्दर ग़लत काम पाया जाएगा, वहाँ के थानेदार नपेंगे। शहर में आपराधिक घटनाएँ शून्य (जीरो टॉलरेंस) होने के साथ 100 फ़ीसदी अवैध धन्धे, माफियागीरी, भाईगीरी बन्द होनी चाहिए। शहर में अमन-चैन बरक़रार रखना उनका एकमात्र लक्ष्य है। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए पिंपरी चिंचवड शहर की पुलिस को जनता की सन्तुष्टि और हित के हिसाब से काम करना होगा।

उन्होंने कहा कि मेरे शब्दकोष में ग़लत काम के लिए माफ़ी नाम का शब्द नहीं है। बता दें कि जबसे कृष्ण प्रकाश पुणे के पिंपरी चिंचवड़ के पुलिस आयुक्त बने हैं, तबसे अब तक कई पुलिस निरीक्षक, कर्मचारी बरख़ास्त हो चुके हैं। कई गिरोहबाज गुण्डों पर मकोका और तड़ीपार के तहत कार्रवाई हो चुकी है। कई गिरोह और गुण्डे रडार पर हैं। अब पुलिस वालों को पुरानी खब्बूगीरी की परम्परा छोडऩी होगी और इस सख़्त पुलिस आयुक्त के ईमानदारी, कर्मठता और सच्चाई साँचे में फिट बैठना होगा।

कहाँ जाएँ क़र्ज़दार

सरकार आत्मनिर्भरता पर बल दे रही है। लेकिन वे लोग कैसे आत्मनिर्भर हों, जिनके रोज़गार छिन चुके हैं और सिर पर क़र्ज़ा बढ़ रहा है। ऐसे लोगों को बैंक, सूदख़ोर इन दिनों बुरी तरह परेशान कर रहे हैं। सरकारी सिस्टम में दोष का आलम यह है कि कमज़ोर तबक़ा सरकारी तंत्र में सुनवाई नहीं होने से वे ग़ैर-सरकारी तंत्र का सहारा ले रहे हैं। साहूकारों सेक़र्ज़ा ले रहे हैं। इन्हीं तामम पहलुओं पर शहर से लेकर ग्रामीणों पर ‘तहलका’ ने पड़ताल की।

पांडव नगर निवासी दिल्ली के किशन कुमार शर्मा का कहना है कि वे एक निजी कम्पनी में सन् 2019 में काम करते थे। लेकिन पारिवारिक समस्या के चलते उनको नौकरी छोडऩी पड़ी। कुछ समय बाद आर्थिक संकट गहराने लगा। परिवार वालों की सलाह पर उन्होंने प्रोवीजन स्टोर खोलने के लिएक़र्ज़ा लेने के लिए सरकारी बैंकों से लेकर निजी बैंकों तक तामाम चक्कर लगाये, लेकिनक़र्ज़ा नहीं मिला। फिर उन्होंने साहूकार से एक लाख क़र्ज़ा लेकर किराये की दुकान पर प्रोवीजन स्टोर फरवरी, 2020 में खोला। अचानक मार्च, 2020 में लॉकडाउन के लगने से उनकी दुकान बन्द होने से सारा सामान दुकान में सड़ गया और ख़राब हो गया। फिर जून, 2020 से लेकर मार्च, 2021 तक दुकान चलने लगी। अब फिर सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया। ऐसे में अब न तो वे दुकान का किराया निकाल पा रहा है और न साहूकार का क़र्ज़ा दे पा रहे हैं। अब साहूकार के आदमी उन्हें आये दिन धमकाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि अगर दुकान भी खोलते हैं, तो सरकारी तंत्र परेशान करता है कि दुकान के काग़ज़ दिखाओ, ये करो, वो करो या कुछ लेन-देन करो।

ऐसे हालात में उनके परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट गहरा रहा है। इसी तरह नोएडा के म्यू-1 और म्यू-2 के लोगों का कहना है कि सरकार तामाम दावे कर रही है कि वह ग़रीबों के रोज़गारों पर आँच नहीं आने देगी। लेकिन सरकारी तंत्र इस क़दर तानाशाह है कि जो पढ़े-लिखे युवा अपनी छोटी-मोटी दुकानें चलाकर आत्मनिर्भरता पर काम कर रहे हैं, उनकी दुकानों को बन्द कराया जा रहा है और प्रताडि़त भी किया जा रहा है। म्यू-1 में रहने वाले राजकुमार का कहना है कि सरकार कहती है कि बैंक सेक़र्ज़ा आसानी मिलेगा। लेकिन ज़मीनी स्तर पर देखा जाए, तो बैंक में 10,000 के मामूलीक़र्ज़ा के लिए भी महीनों के चक्कर लगाने के बाद हीक़र्ज़ा नहीं मिलता है। बैंक कई ख़ामियाँ निकालकरक़र्ज़ा नहीं देते हैं। यही वजह है कि साहूकारों का कारोबार पनप और फल-फूल रहा है। साहूकार सरकारी सिस्टम में ख़ामियों का जमकर लाभ उठाते हैं और ज़रूरतमंदों को मनमाने सूद परक़र्ज़ा देकर उनकी ज़मीनें और घर हथियाने की कोशिशों में लगे रहते हैं।

उत्तर प्रदेश बाराबंकी निवासी राकेश कुमार इस दर्द से गुज़र रहे हैं। उनका कहना है कि उनका मासूम बेटा पैदा होने के बाद से लगातार बीमार रहता है। इस कारण वह बर्बाद हो चुके हैं। क़रीब ढाई महीने पहले उसे हल्का-सा बुख़ार आया। डॉक्टर से दवा दिलायी। इसके बाद उसकी तबीअत और बिगड़ गयी और डॉक्टर ने भर्ती करने को कहा। मजबूरन बच्चे को भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टर ने पाँच दिन के अन्दर 1,40,000 रुपये का बिल बना दिया, जिसे पाटने के लिए कई लोगों से उधार लेना पड़ा। एक सूदख़ोर ने उन्हें 20 फ़िसदी सैकड़ा के मासिक ब्याज पर पैसा दिया, जिसके बाद से वह जितना कमाते हैं, उसका 80 फ़िसदी हिस्सा केवल ब्याज में चला जाता था। अब काम बन्द है। क़र्ज़ा बढ़ रहा है। ऐसे में न तो परिवार का गुज़ारा हो रहा है और न बड़ी बेटी की पढ़ाई। कोई मदद भी नहीं करता।

उत्तर प्रदेश के नरैनी के निवासी अनूप कुमार ने बताया कि सामाजिक मान, मर्यादा के चलते ग्रामीण सरकारी झंझटों से बचने के लिए साहूकार या दबंग लोगों से मोटे ब्याज परक़र्ज़ा ले लेते हैं। ऐसे में क़र्ज़दार पैसा चुकाते हुए भीक़र्ज़ा के बोझ में दबता चला जाता है। अनूप कुमार का कहना है कि ऐसा नहीं है कि क़र्ज़दार कोई आम लोग हैं। वास्तव में ये लोग राजनीति, गुण्डागर्दी और सरकार से किसी-न-किसी रूप से जुड़े हैं, जिनका जाल पूरे देश में फैला हुआ है। मजबूर होकर लोग इनसेक़र्ज़ा लेते हैं और फिर बुरी तरह फँस जाते हैं। बाद में या तो क़र्ज़दारों को अपना घर-ज़मीन गँवाने पड़ते हैं या कई बार आत्महत्या तक कर लेते हैं। कई बार सूदख़ोर वसूली के लिए हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

मध्य प्रदेश के जतारा तहसील के निवासी पूरन चंद्र का कहना है कि जिस प्रकार कोरोना-काल में लॉकडाउन लगने से देश में आर्थिक मंदी और बंदी का दौर आया है, उसकी मूल वजह सरकार की नीतियाँ हैं; जो बिना सोचे-समझे लागू की गयी हैं। जैसे लॉकडाउन तो लगा दिया, लेकिन दुकानें बन्द करा दीं। इससे मध्यम वर्गीय और निम्नवर्गीय तबक़ा और कमज़ोर हुआ है। इसी के चलते लोगों को घर ख़र्च के लिएक़र्ज़ा लेना पड़ रहा है। मौज़ूदा वक़्त में देश राजनीतिक संक्रमण काल और कोरोना संक्रमण काल से गुज़र रहा है। ऐसे में कुछ लोग सरकारी सिस्टम का $फायदा लेकर सारी मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख कर ग़रीबों-पीडि़तों का जमकर दोहन कर रहे हैं। ग़रीब-किसान सहयोगी मंच से जुड़े बांदा ज़िले के निवासी गोविन्द दास का कहना है कि सरकार देशवासियों की पीड़ा समझना नहीं चाह रही है। वह लॉकडाउन भी अपने नफ़ा -नुक़सान को देखकर लगा रही है। इससे बाहुबली और सत्ता से जुड़े लोग निजी लाभ के लिए कुछ भी करते हैं। जमाख़ोरी कर महँगा सामान बेचते हैं। मोटे ब्याज पर पैसा उठाते हैं। सरकारी सिस्टम को फेल देखकर लोगों में निराशा पनप रही है। लोग सोच में हैं कि कहीं कोरोना की आड़ में सरकार कोई खेल तो नहीं कर रही है?

तबाही की जंग पर उतरे इजराइल और हमास

 

  हमास दाग़ रहा रॉकेट, तो इजराइल कर रहा भयंकर हवाई हमले
  मौतों के तांडव से लोगों में ख़ौफ़, फिलिस्तीनी कर रहे पलायन

इजराइल और फिलिस्तीनी चरमपंथी हमास के बीच तबाही का युद्ध छिड़ा हुआ है। यह युद्ध इतना भीषण है कि संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी पर भी नहीं रुक रहा है। अगर युद्ध रुक भी जाता है, तो भी दोनों देशों के शासकों और आम नागरिकों दिलों पर बड़ी तबाही की दास्तान लिख जाएगा। युद्ध का यह दौर एक महीने पहले यरुशलम में शुरू हुआ, जो इजराइल की तरफ़ से उकसाया गया रमज़ान के महीने के दौरान हथियारों से लैस इजराइली पुलिस तैनात रही और यहूदी शरणार्थियों द्वारा दर्जनों फिलिस्तीनी परिवारों को निर्वासित करने के ख़तरे ने प्रदर्शनों को हवा दी, जिससे उनकी पुलिस के साथ झड़पें हुईं। पुलिस ने जब अल अक्सा मस्जिद में आँसू गैस के गोले और फिलिस्तीनियों पर ग्रेनेड फेंके, तो यरुशलम को बचाने का दावा करने वाले हमास ने 10 मई की देर रात इजराइल में रॉकेट दाग़ने शुरू कर दिये, जिसके बाद युद्ध शुरू हो गया। वैसे तो गाजा पट्टी को लेकर दोनों देशों- इजराइल और फिलिस्तीन के बीच साल 2014 से युद्ध जारी है, मगर अब यह बहुत बड़े स्तर पर पहुँच चुका है। बता दें कि पहले का युद्ध फिलिस्तीन क्षेत्र और इसकी सीमा पर बसे इजराइली समुदायों वाले इलाक़े तक ही सीमित था, मगर अब यह यरुशलम में शुरू हुआ है; जिससे बड़ा नरसंहार हो रहा है। इस लड़ाई ने इजराइल में दशकों बाद भयावह यहूदी-अरब हिंसा को जन्म दिया है।

युद्ध की एक बड़ी वजह यह है कि हमास को इजराइल एक आतंकी संगठन मानता आया है। अब दोनों देशों के बीच मई के पहले सप्ताहांत से फिर युद्ध छिड़ गया है। ख़बर लिखे जाने तक हमास ने इजराइल पर क़रीब 1800 रॉकेट दाग़ दिये थे, वहीं इजराइल फिलिस्तीन के क़ब्ज़े वाली गाजा पट्टी क्षेत्र पर 600 से ज़्यादा हवाई हमले कर चुका है। इन हमलों में 14 मई की शाम तक क़रीब ढाई दर्जनों बच्चों समेत क़रीब 100 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी। इजरायली सेना का अनुमान है कि गाजा में हमास के पास इस समय 20 से 30 हज़ार रॉकेट हैं। वहीं इजरायल ने यह भी कहा है कि अब वह हमास के उग्रवादियों को हमेशा के लिए शान्त करके ही दम लेगा। दोनों तरफ़ से जारी हमलों से आम लोगों की घबराहट बढ़ी हुई है, जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है और इजराइल के हवाई हमलों से घबराकर फिलिस्तीन के लोग गाजा पट्टी क्षेत्र छोडक़र पलायन कर रहे हैं।

राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से मिली जानकारी के अनुसार, इस जवाबी कार्रवाई में हमास के 11 कमांडर मारे जा चुके हैं। युद्ध में 70 लोगों के मारे जाने की पुष्टि फिलिस्तीन कर चुका है। सूत्र बताते हैं कि 300 से ज़्यादा लोग इजराइली हमले में घायल हुए हैं। वहीं इजरायल केवल छ: नागरिकों के मारे जाने की बात स्वीकार रहा है। हालाँकि कुछ ख़बरों की मानें, तो दोनों ओर से अधिक मौतें हुई हैं। इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि हमले जारी रहे, तो इजरायल और फिलिस्तीन के बीच भयंकर युद्ध छिड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने कहा है कि वह ताज़ा हिंसा को लेकर बहुत चिन्तित हैं। वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने नेतन्याहू को फोन करके इजराइल के अपने प्रतिरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है।

सदियों से चल रहा तनाव

दोनों देशों के बीच हो रहा यह भीषण युद्ध सन् 2014 में भी हुआ था। दरअसल यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मों के बीच तीनों की पवित्र नगरी येरुशलम को लेकर सदियों से टकराव चल रहा है। जिस पर सभी अपनी-अपनी दावेदारी करके उस पर क़ब्ज़ा जमाना चाहते हैं।

भारत ने की शान्ति की पहल
इजरायल और फिलिस्तीनी चरमपंथियों में लगातार होते युद्ध को लेकर भारत ने चिन्ता ज़ाहिर की है और सभी हिंसक गतिविधियों, विशेषकर गाजा से किये गये रॉकेट हमलों की निंदा करते हुए युद्ध को तत्काल रोकने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने ट्वीट करके कहा है कि भारत सभी तरह की हिंसक गतिविधियों, ख़ासकर गाजा से किये गये रॉकेट हमलों की निंदा करता है। तिरुमूर्ति ने इजरायल में एक भारतीय नागरिक की मौत पर शोक जताया और ज़ोर दिया कि हिंसा में तत्काल कमी लाना समय की ज़रूरत है। दोनों पक्षों को ज़मीन पर यथास्थिति में बदलाव से बचना चाहिए।

नहीं रहीं टाइम्स ग्रुप की अध्यक्ष इंदु जैन

भारत के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी लिमिटेड (बीसीसीएल), जिसे टाइम्स ग्रुप के नाम से जाना जाता है; की अध्यक्ष (चेयरपर्सन) 84 वर्षीय इंदु जैन हमारे बीच नहीं रहीं। कोरोना वायरस की चपेट में आने के बाद वह पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती थीं। उन्होंने 13 मई की शाम को निर्वाण प्राप्त किया। इंदु जैन भारतीय मीडिया की प्रमुख शख़्सियत थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। वह आजीवन आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर रहीं और परोपकार, कला संरक्षण एवं महिला अधिकारों की समर्थक रहीं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई बड़ी हस्तियों ने इंदु जैन की निर्वाण प्राप्ति पर श्रद्धांजलि दी है।

उत्तर प्रदेश के फै़ज़ाबाद में 8 सितंबर, 1936 में साहू-जैन जन्मीं इंदु जैन का विवाह टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अशोक कुमार जैन से हुआ था। सन् 1999 में उनके पति अशोक जैन का निधन हो गया था। इंदु जैन के दो बेटे- बीसीसीएल के मौज़ूदा प्रबन्ध निदेशक विनीत जैन और समीर जैन हैं।

कई बार फोब्र्स की सबसे अमीर शख़्सियतों की सूची में आ चुकी इंदु जैन दि टाइम्स फाउंडेशन की संस्थापक एवं अध्यक्ष, भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट की अध्यक्ष और फिक्की की महिला विंग (एफएलओ) की संस्थापक अध्यक्ष थीं, जिसकी स्थापना उन्होंने सन् 1983 में की। इंदु जैन ने सन् 2000 में दि टाइम्स फाउंडेशन की स्थापना की थी। दि टाइम्स फाउंडेशन आपदा राहत के लिए सामुदायिक सेवा, रिसर्च फाउंडेशन और टाइम्स रिलीफ फंड चलाता है। टाइम्स ग्रुप में टाइम्स नाउ, मिरर नाउ, मूवीज नाउ, जूम, रोमी नाउ जैसे समाचार न्यूज और मनोरंजन चैनल, टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और इकोनॉमिक टाइम्स जैसे अ$खबार शामिल हैं। इंदु जैन हमेशा काम को तवज्जो देने वाली एक सफल व्यावसायिक महिला थीं। समाज सेवा और कला आदि क्षेत्र में रुचि रखने के चलते उन्हें दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।सन् 2016 में उन्हें पद्म भूषण, सन् 2019 में इंस्टीट्यूट ऑफ कम्पनी सेक्रेटरीज ऑफ इंडिया द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, सन् 2018 में अखिल भारतीय प्रबन्धन संघ द्वारा मीडिया को लाइफटाइम कंट्रीब्यूशन के लिए पुरस्कार, भारतीय महिला कांग्रेस द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। पिछले साल उन्होंने सहस्राब्दी विश्व शिखर सम्मेलन (मिलेनियम वल्र्ड पीस समिट) में संयुक्त राष्ट्र को भी सम्बोधित किया था।

इंदु जैन का कहना था- ‘वर्तमान में जीने का मतलब है- अतीत के लिए पछतावा नहीं, भविष्य की चिन्ता नहीं। जीवन वही है, जो अभी है। मैं एक साधक पैदा हुई थी। मैं तलाश करने के लिए बहुत जिज्ञासु और उत्सुक रही। मुझे $खुश रहने और एक उद्देश्य होने के बीच कोई विकल्प नहीं दिखता। अलग-अलग प्रतीत होने वाले विकल्प बस एक ही हो सकते हैं। जीवन एक अविश्वसनीय साहसिक कार्य है और आपको इसे अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए।’

शायद उन्हें अपने निर्वाण का पूर्वाभास था। इसलिए उन्होंने अपने निर्वाण से पहले कहा था- ‘यदि कोई अंतिम इच्छा है, तो यह है कि किसी को भी मेरे जाने की सूचना नहीं दी जानी चाहिए। किसी को पूछने की ज़रूरत नहीं है कि इंदु कहाँ है? क्योंकि जहाँ भी हँसी होगी, वे उसे वहीं पाएँगे। शरीर के निर्जीव खोल का अन्तिम संस्कार उसी तरह किया जा सकता है, जिस तरह से आश्रमवासियों को सबसे अच्छा लगता है। मेरे गुरु जहाँ भी होंगे, मेरी तरफ़ से निश्चित रूप से पंख लगाएँगे। फिर मैं लम्बे समय से प्रतीक्षित मिलन-मिलान में अग्नि, भूमि, जल, वायु और अंतरिक्ष में मिस जाऊँगी। हमेशा मैं तुम
में। प्यार!’
वह श्री श्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी वासुदेव की अनुयायी थीं। आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक श्री श्री रविशंकर के साथ उनका गहरा जुड़ाव था। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए श्री श्री रविशंकर ने कहा- ‘इंदु माँ के साथ मेरा जुड़ाव सन् 1980 के दशक में शुरू हुआ था और उनकी सबसे शुरुआती यादों में से एक आध्यात्मिक चीज़ों के लिए उनकी अतृप्त जिज्ञासा थी।’


टाइम्स समूह के अध्यक्ष श्रीमती इंदु जैन के निधन में हमने एक अद्वितीय मीडिया नेता और कला और संस्कृति के एक महान् संरक्षक को खो दिया। उन्होंने उद्यमिता, आध्यात्मिकता और परोपकार के क्षेत्रों में अपनी विशेष छाप छोड़ी। उनके परिवार, दोस्तों और प्रशंसकों के प्रति संवेदना।’’
रामनाथ कोविंद, राष्ट्रपति
(एक ट्वीट में)

टाइम्स समूह की अध्यक्ष इंदु जैन के निधन से दु:खी हूँ। सामुदायिक सेवा के क्षेत्र में उनके द्वारा उठाये गये क़दमों, भारत की प्रगति को लेकर उनके जज़्बे और संस्कृति के प्रति गहरी दिलचस्पी के लिए उन्हें याद किया जाएगा। वह समाज के लिए किये गये योगदान के लिए याद रखी जाएँगी।’’
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
(एक ट्वीट में)

अभिशाप बनता जातीय व नस्लीय भेदभाव

 

झारखण्ड में आदिवासी महिला दारोग़ा की मौत पर मुख्यमंत्री की चुप्पी कठघरे में

प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस जातिवाद और नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध एकजुटता का आह्वान करता है। बावजूद इसके भारतीय समाज जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा हुआ है। आये दिन ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं, जब वंचित वर्ग के प्रतिभाओं को जाति तथा नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत का शिकार होना पड़ता है।

ऐसा ही एक मामला झारखण्ड में सामने आया है। झारखण्ड के साहेबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत के कारण मौत की शिकार हुईं, जो आदिवासी समुदाय से हैं। झारखण्ड के आदिवासी बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि आदिवासी समुदाय से होने के कारण रूपा तिर्की का विभाग के ही अधिकारियों द्वारा उत्पीडऩ किया जाता था। बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रूपा के मौत की सीबीआई जाँच कराने की माँग की है।
क्या है मामला?

साहिबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की का शव 3 मई, 2021 की रात संदेहास्पद स्थिति में उनके फ्लैट में पंखे से लटका मिला। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों पर भी दाग़ने के निशान थे। रूपा तिर्की के परिजनों और स्थानीय लोगों का कहना है कि रूपा काफ़ी मृदुभाषी होने के साथ मिलनसार थीं। रूपा आत्महत्या नहीं कर सकती हैं। रूपा की हत्या की गयी है। रूपा के परिजनों ने सरकार से निष्पक्ष जाँच करके इंसाफ़ की माँग की है।
रूपा की माँ ने एसपी को आवेदन देकर कमेटी गठित कर जाँच कराने की माँग की। आवेदन कहा गया है कि रूपा की हत्या की गयी है। उनका घुटने के बल था। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों में जगह-जगह पर दाग़ने के निशान थे। दोनों हाथों को देखने पर ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके हाथों को पकड़ा गया हो। घुटने पर मारने जैसे निशान हैं। पूरे मामले की जाँच कमेटी गठित कर की जाए। रूपा के क्वार्टर (सरकारी कमरे) के सामने रहने वाली दारोग़ा मनीषा कुमारी व ज्योत्सना महतो हमेशा उसे टॉर्चर करती थीं। छोटी-छोटी बातों पर उसे हमेशा नीचा दिखाती थीं। 10 दिन पहले दोनों ने किसी पंकज मिश्रा के पास रूपा को भेजा था। थाने से आने के बाद अन्तिम कॉल में रूपा ने कहा था-‘मम्मी, पानी पीने के बाद मुझे दवा जैसा लगा। अब तक ऐसा लग रहा है।’

‘आत्महत्या नहीं, हत्या’
विभिन्न संगठनों एवं राजनीतिक दलों ने रूपा को न्याय दिलाने के लिए विरोध-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया है और सोशल मीडिया में भी सवाल उठाये जा रहे हैं। मामले की जाँच कर रही पुलिस प्रथम-दृष्टया इसे आत्महत्या मान कर चल रही है; जबकि सामाजिक संगठनों का आरोप है कि हत्या को आत्महत्या दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। 7 मई को राज्य की राजधानी रांची के रातू स्थित काठीटाड़ चौक में आदिवासी छात्र संघ ने विरोध-प्रदर्शन किया। इस दौरान काठीटाड़ चौक पर लोगों ने हाथों में पोस्टर लेकर नारेबाज़ी की और रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच की माँग की। रांची के नामकुम में भी विरोध-प्रदर्शन किया गया। भाजपा महिला मोर्चा ने भी पलामू ज़िला मुख्यालय में भी विरोध-प्रदर्शन किया।
सोशल मीडिया पर ‘जस्टिस फॉर रूपा तिर्की’ लगातार ट्रेंड कर रहा है। ट्वीटर पर 50,000 से ज़्यादा लोगों ने ट्वीट किया है। सोशल मीडिया में यूजर्स द्वारा अनेक सवाल किये जा रहे हैं कि क्या घुटनों के बल बैठकर आत्महत्या सम्भव है? जहाँ खड़े होकर फंदा लगाया जा सकता है, वहाँ कुर्सी की ज़रूरत क्यों हुई? क्या मरते समय रूपा तिर्की को कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी? क्या उसने हाथ-पैर नहीं चलाये? फिर बेडशीट एकदम बराबर कैसे? फंदे वाली रस्सी कमर के पास से तौलिये के अन्दर से कैसे गुज़री? कोई भी इंसान कम कपड़ों में फाँसी क्यों लगाएगा? रूपा तिर्की का सुसाइड नोट कहाँ है? उनके शरीर पर निशा क्यों निकले?

सीबीआई जाँच की माँग
रूपा तिर्की की मौत को साज़िश के तहत हत्या बताते देते हुए झारखण्ड के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सीबीआई जाँच की माँग की है। भाजपा विधायक दल के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, राज्यसभा सांसद समीर उरांव, मांडर विधायक बंधु तिर्की, बोरियो विधायक लोबिन हेंब्रम, आदिवासी सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष रमेश हांसदा, आदिवासी जन परिषद् के अध्यक्ष प्रेम शाही मुंडा समेत कई बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री से रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच कराने का आग्रह किया है। वहीं, झारखण्ड सरकार में मंत्री मिथलेश ठाकुर का कहना है कि होनहार पुलिस अधिकारी की असामयिक मौत हुई है। प्रथम दृष्ट्या आत्महत्या का मामला लगता है। मर्माहत करने वाली घटना है। मुख्यमंत्री ने भी संवेदना व्यक्त की है। जाँच के निर्देश दिये गये हैं। साहेबगंज एसपी के नेतृत्व में टीम गठित है। जाँच में कुछ सामने आएगा, तो फिर कार्रवाई होगी। सीबीआई जाँच सभी घटना का विकल्प नहीं है। विपक्ष के नेता केंद्र सरकार से कोरोना-काल में राज्य के लिए सहयोग माँगने के बजाय सिर्फ़ झूठी संवेदनशीलता के लिए बयानबाज़ी करते हैं।
भेदभाव का ज़हर
झारखण्ड के प्रसिद्ध आदिवासी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग ने सोशल मीडिया पल लिखा कि ‘रूपा तिर्की के आत्माहत्या का मामला साधारण नहीं है। यह आदिवासियों के ख़िलाफ़ वर्ण एवं जाति आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा भारतीय समाज के कुकर्म का परिणाम है। आप लोगों को याद होगा, डॉक्टर पायल तडवी प्रकरण। सरकारी नौकरी करने वाले लगभग सभी आदिवासियों के साथ इसी तरह से नस्ल और जाति आधारित भेदभाव, हिंसा और प्रताडऩा होता है फिर भी आदिवासी चुप रहते हैं। रूपा को न्याय देने के लिए सीबीआई जाँच होनी चाहिए। हम आदिवासी लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ एकजुट होकर ही ऐसे भेदभाव, अन्याय और अत्याचार का मुक़ाबला कर सकते हैं।’
आदिवासी अख़बार ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के प्रकाशक-संपादक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ति तिर्की कहते हैं कि रूपा तिर्की ने आत्महत्या की या उनकी हत्या की गयी? इसमें कई तरह बातें सुनने में आ रही हैं। लेकिन यह काफ़ी गम्भीर मामला है। झारखण्ड सरकार ने न कोई न्यायिक जाँच बैठायी है और न ही वह कोई उच्चस्तरीय जाँच करवा रही है। सामान्य रूप से एफआईआर दर्ज कर जाँच की जा रही है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत भी एफआईआर दर्ज नहीं की गयी है।

रूपा तिर्की का जातिगत उत्पीडऩ भी हुआ है और उनके ऊपर अधिकारियों का कुछ तात्कालिक दबाव भी था। उन पर मानसिक अत्याचार हुआ है। यदि रूपा ने आत्महत्या भी की है, तो उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया है। आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाना भी एक गम्भीर अपराध है। रूपा एक पुलिस अफ़सर थीं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। यह तो पुलिस की प्रतिष्ठा का भी सवाल है। पुलिस अफ़सर की मौत के मामले में तो वैसे भी सीबीआई जाँच होनी चाहिए। आख़िर क्यों जाँच नहीं हो रही है? झारखण्ड के मुख्यमंत्री, जो ख़ुद आदिवासी हैं; की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह लोगों के सवालों का जवाब दें और रूपा को न्याय दिलाएँ।

भारत के कथित ऊँची जातियों के लोग कहते हैं कि भारत में नस्लवाद नहीं है, जो कि एक सफ़ेद झूठ है। जाति के आधार पर उत्पीडऩ भी एक तरह का नस्लवाद ही है। पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत के लोगों के विरुद्ध भी रंग-रूप के आधार पर उत्पीडऩ किया जाता है और नस्लवादी टिप्पणियाँ की जाती हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। सन् 2019 में आदिवासी समुदाय से आने वाली मुम्बई के बीवाईएल नायर अस्पताल की 26 वर्षीय रेजिडेंट डॉक्टर पायल तड़वी ने तीन वरिष्ठ चिकित्सकों के जातिवादी-नस्लीय उत्पीडऩ से परेशान होकर अपने कमरे में फाँसी लगाकर जान दे दी। मार्च, 2020 में मणिपुर की एक महिला को कोरोना बताकर, उसके मुँह पर थूकने जैसा घृणित काम किया गया। पूर्वोत्तर भारत के लोगों को ‘चिंकी’ और ‘नेपाली’ कहना, तो आम प्रचलन-सा हो गया है। दिल्ली-मुम्बई समेत कई नगरों, महानगरों में निम्न जाति और आदिवासी लोगों का अनेक तरह से उत्पीडऩ किया जाता है।


पीडि़त क़ानून का लें सहारा
जातिवादी एवं नस्लवादी टिप्पणियों एवं उत्पीडऩ के सैकड़ों मामले हर साल पुलिस थानों में दर्ज किये जाते हैं। लेकिन पीडि़तों को क़ानून की सही जानकारी न होने के कारण उनके साथ न्याय नहीं हो पाता या बहुत मुश्किल से बहुत कम मापदण्ड या भेदभाव के आधार पर ही होता है। ऐसे मामले अगर थानों तक चले भी जाते हैं, तो पुलिस दोषियों को सज़ा देने की बजाय या तो पीडि़त को ही फटकार या धमकाती है अथवा समझौते का दबाव बनाती है।

लेकिन भारत में इसके लिए बाक़ायदा क़ानून है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15, 16 और 29 ‘नस्ल’, ‘धर्म’ तथा ‘जाति’ के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा-153(ए) भी ‘नस्ल’ को संदर्भित करती है। बावजूद इसके जातिवादी-नस्लवादी उत्पीडऩ काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। हालाँकि नस्लवादी-जातिवादी उत्पीडऩ को रोकने के लिए कड़े क़ानून बनाने एवं बड़े स्तर पर नस्लवाद-विरोधी कार्रवाई करने की आवश्यकता है। साथ ही इसके लिए सहिष्णुता, समानता के साथ ही भेदभाव विरोधी एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया जाना भी बेहद ज़रूरी है। नस्लवाद और जातिवाद से सम्बन्धित भेदभाव की हालिया घटनाएँ सम्पूर्ण समाज को समानता के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं को नये सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं।

सियासी अपराध : उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के बाद हिंसा

पंचायत चुनाव के परिणाम संकेत दे रहे हैं कि अगर योगी सरकार ने शासन व्यवस्था में सुधार नहीं किया, तो उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों के परिणाम भारतीय जनता पार्टी के लिए बेहतर नहीं होंगे

यह पहली बार नहीं है, जब चुनावों के बाद दो राज्यों में हिंसा हुई है। यह दो जगहें बंगाल और उत्तर प्रदेश हैं। यह अलग बात है कि बंगाल हिंसा पर पूरे देश में शोर हो रहा है और उत्तर प्रदेश में हो रही हिंसा पर कोई बोलने को तैयार नहीं है। हालाँकि हिंसा किसी भी रूप में हो और कहीं भी हो, वह ग़लत ही है और सरकार को उसे तुरन्त रोकना चाहिए। लेकिन लेकिन उत्तर प्रदेश में तो कम से कम ऐसा बहुत मरे मन से किया जा रहा है। यहाँ पंचायत चुनावों का परिणाम घोषित होते ही जगह-जगह हिंसा हुई है, जिसमें कई लोग भी मारे गये हैं। सूत्र बताते हैं कि पूरे प्रदेश में लगभग 30 जगह हिंसा हुई है। कहीं जमकर मारपीट हुई है, तो कहीं फायरिंग जैसी घटनाएँ भी हुई हैं। लेकिन बारबंकी में सबसे ख़तरनाक घटना होने से बची, वहाँ छतों पर बम फेंके गये। अधिकतर जगहों पर हारे हुए प्रत्याशियों ने हिंसा को बल दिया है। अपना नाम गोपनीय रखने की शर्त पर एक अधिकारी ने बताया कि ‘सत्ताधारी पार्टी के हारे हुए लोग सबसे ज़्यादाउपद्रव कर रहे हैं और फोन करके भी परेशान कर रहे हैं।’
हमने जब प्रदेश में हो रही मारपीट और हिंसा की घटनाओं के बारे में जानकारी जुटायी, तो पता चला कि प्रदेश में 25 जगहों पर तो मतगणना के दौरान और परिणाम आने पर ही हिंसा हुई और पाँच जगह पर जीत का जश्न मनाने पर हारे हुए प्रत्याशियों और उनके लोगों के हमले के बाद मारपीट हुई। इसके अलावा भी कुछ जगहों पर हिंसा होने से बची, जिसका क्रेडिट पुलिस प्रशासन और स्थानीय लोगों को जाता है। सूत्रों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में रामपुर, मुरादाबाद, प्रयागराज, गोरखपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, खीरी, रायबरेली, आजमगढ़, जौनपुर, बिजनौर, लखीमपुर खीरी, अयोध्या, बागपत, सहारनपुर और मिर्जापुर में हिंसा की घटनाएँ सामने आयी हैं। हिंसा के बाद अपर पुलिस महानिदेशक क़ानून व्यवस्था प्रशांत कुमार ने मीडिया को बताया कि प्रदेश में दो हत्या के मुक़दमे (हमारी जानकारी में क़रीब पाँच हत्याएँ), हत्या के प्रयास के सात मुक़दमे, पुलिस पर हमले के पाँच मुक़दमे, बलवा करने के 11 मुक़दमे और मारपीट की घटनाओं के पाँच मुक़दमे दर्ज किये गये हैं। इन मामलों में 35 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। यह सब 7-8 मई तक हो चुका था।

ज्ञात हो राज्य निर्वाचन आयोग ने निर्देश दिया था कि चुनाव परिणाम के बाद किसी तरह का विजय जुलूस नहीं निकाला जाए और न ही भीड़ इकट्ठी की जाए। कोरोना-काल में चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्यवाही की जाएगी। लेकिन जैसे ही पंचायत चुनाव के परिणाम सामने आये, कई जगहों पर हिंसा भडक़ उठी।
ज्ञात हो कि उत्तर के 75 ज़िलों में 3051 पद ज़िला पंचायत, 75,808 पद क्षेत्र पंचायत सदस्य, 58,194 पद ग्राम प्रधान और 7,31,813 पद ग्राम पंचायत सदस्यों के हैं। इस बार सबसे ज़्यादानिर्दलीय जीते हैं। पार्टियों में सबसे ज़्यादासीटें अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी जीते हैं। दूसरे संख्या पर भारतीय जनता पार्टी रही है और तीसरे संख्या पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी रही और चौथे संख्या की आम आदमी पार्टी ने मारी है। इसके बाद कांग्रेस और रालोद का संख्या आया है और इसके बाद कुछेक अन्य दल।

गढ़ों और धार्मिक नगरियों में भाजपा के पिछडऩे का मतलब
बड़ी बात यह रही कि भारतीय जनता पार्टी बनारस, गोरखपुर, अयोध्या, मथुरा, प्रयागराज यानी इलाहाबाद में भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी है। जबकि भाजपा को हिन्दू तीर्थ माने जाने वाले इन स्थानों पर इस तरह के परिणाम की उम्मीद क़तई नहीं थी। इसका मतलब साफ़ है कि लोग अब भारतीय जनता पार्टी के हिन्दुत्व के मोहपाश और प्रधानमंत्री मोदी के जादुई झांसे से बाहर निकलने लगे हैं। धार्मिक स्थलों पर और वह भी योगी के गढ़ गोरखपुर और मोदी के गढ़ बनारस में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार खिसकना इस बात का संकेत है कि जनता 2022 के विधानसभा चुनाव में उसे दोबारा प्रदेश की डोर देना नहीं चाहती। कुछ सियासी जानकार कहते हैं कि बंगाल के बाद पंचायत चुनाव के परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों की नींद उड़ा दी है। भाजपा कार्यकर्ता दिनेश कहते हैं कि इसमें किसी और का दोष नहीं है, हमारी पार्टी के नेता सत्ता के नशे में इतने चूर हो गये हैं कि अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं तक पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। अभी कोरोना-काल में यदि पार्टी के किसी कार्यकर्ता का कोई आदमी या परिजन बीमार पड़ रहा है, तो उसे भी इलाज नहीं मिल पा रहा है।

हत्यारे कौन?
अब हिंसा की एक बानगी देखिए, एक अख़बार ने ख़बर छापी है कि ‘गोरखपुर के एक गाँव में भीड़ ने लाठी और धारदार हथियारों से रमा शंकर नामक एक व्यक्ति पर हमला कर दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गयी।’ बताया जा रहा है कि रमा शंकर की ग़लती सि$फ़ इतनी थी कि उन्होंने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दिया था। इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि रमा शंकर पर हमला करने वाले कौन लोग हो सकते हैं? गोरखपुर में कुछ जगह आगजनी की घटनाएँ भी हुई हैं। कुछ लोगों ने वार्ड संख्या-60 में चुनाव परिणाम में फेरबदल का आरोप लगाते हुए चौकी फूँक दी। इसके बाद ज़िलाधिकारी ने काउंटिंग में गड़बड़ी पाये जाने पर रिटर्निंग ऑफिसर (आरओ) के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज कराने की धमकी दी। बाद में पता चला कि आरओ ने सही परिणाम घोषित किये थे; लेकिन लिपिकीय ग़लती के चलते परिणाम ग़लत घोषित हो गया था।

गोरखपुर में तीन वार्डों- वार्ड संख्या-45, वार्ड संख्या-60 और वार्ड संख्या-61 में गड़बड़ी मिली। जिसके चलते हिंसा हुई। इसी तरह आजमगढ़ के एक गाँव में बहुजन समाज पार्टी के एक उम्मीदवार की बहू की गोली मारकर हत्या कर दी गयी और बेटी को भी गोली मारी गयी, परन्तु वह बच गयी। समझा जा सकता है कि गोली मारने वाले कौन लोग हो सकते हैं? इसी प्रकार जौनपुर के एक गाँव में सन्तोष वर्मा नामक व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। सन्तोष के पिता ने भी बेटे की हत्या का आरोप भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर लगाया है। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी को वोट देने के कारण बिजनौर की राशिदा बेग़म की हत्या कर दी गयी। इससे भी साफ़ ज़ाहिर है कि हमलावर कौन लोग होंगे? रामपुर में भी चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद ज़िला कांग्रेस उपाध्यक्ष मतिउर्रहमान ख़ान पर हमला किया गया। वह घायल हो गये। इसी तरह बाराबंकी में तो छतों पर गोले भी फेंके गये। मतलब जहाँ देखो वहाँ हमले समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी के लोगों पर हुए हैं। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के बाद हुई हिंसा करने वालों के ख़िलाफ़ सरकार से कड़े क़दम उठाने की माँग की है। उन्होंने ट्वीट किया कि ‘उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के बाद जिस प्रकार से राजनीतिक हिंसा, झड़प, आगजनी और अन्य आपराधिक घटनाएँ लगातार घटित हो रही हैं, यह अति-दु:खद और अति-चिन्ताजनक है। बहुजन समाज पार्टी की यह माँग है कि राज्य सरकार इस मामले में गम्भीर होकर तत्काल आवश्यक सख़्त क़दम उठाये।’

लोगों में चर्चा है कि भारतीय जनता पार्टी के दाँत खाने के और दिखाने के और ही हैं। वह दिखाने के लिए राम राज्य की बात करती है, असल में तो रावण राज्य से भी बुरा हाल उत्तर प्रदेश का है, जिसमें हिंसा के पुजारी कुर्सियों पर विराजमान हैं। तनाव की उम्मीद भारतीय जनता पार्टी की सरकार में लोगों को क़तई नहीं थी। बड़ी बात यह है कि प्रदेश का मीडिया भी हिंसा की इन ख़बरों को दिखाने से घबरा रहा है या फिर विज्ञापन के चक्कर और दफ़्तर बन्द होने के डर से उस तरह नहीं दिखा रहा है, जैसे बंगाल हिंसा को दिखा रहा था। सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता बंगाल की हिंसा के ख़िलाफ़ धरने पर उतर आये, तो उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान और परिणाम के बाद हुई हिंसा किसी को क्यों नहीं दिखायी दी? उल्टा भारतीय जनता पार्टी के लोग हिंसा का आरोप समाजवादी पार्टी के लोगों पर लगाकर उन्हें समाजवादी गुंडा कहकर अपना पल्ला झाडऩे में लगे हैं। लेकिन पूछा जा सकता है कि जब प्रदेश की सत्ता में भारतीय जनता पार्टी जैसी अहिंसक पार्टी की सरकार है, तो भी उत्तर प्रदेश में यह हिंसा क्यों हुई? और गुंडागर्दी में प्रदेश का नाम ऊपर की श्रेणी में कैसे आता जा रहा है?

काम नहीं आयी रणनीति
उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में प्रदेश की योगी सरकार की रणनीति कोई ख़ास काम नहीं आ सकी। ज्ञात हो कि योगी सरकार ने पिछले साल कोरोना वायरस का बहाना करके इन चुनावों को काफ़ी दिनों तक टरकाया था। उसके बाद पिछले लगभग छ:-सात महीने से योगी और उनकी टीम पंचायत चुनावों में जीत की रणनीतियाँ तैयार कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने सैकड़ों अधिकारियों का चुनाव से ठीक पहले तबादला किया। जमकर प्रचार किया और लोगों को राम मन्दिर निर्माण की ख़याली मिठाई भी खिलायी, अपनी कामयाबी के विज्ञापन जमकर लगवाये। लेकिन कोई भी नुस्ख़ा उनके काम न आ सका। अब देखना यह है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वह उनकी टीम, जिसमें पक्के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे दिग्गज भी पूरा ज़ोर लगाएँगे। वह कौन-सी रणनीति का इस्तेमाल करेंगे? यह तो नहीं पता। लेकिन आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ योगी सरकार ने लगभग शुरू कर दी हैं।

कैप्टन की मुश्किलें बढ़ीं

पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में गुटबाज़ी बढऩे लगी है। सन् 2017 के चुनाव से पहले भी ऐसी ही स्थिति उपजी थी। कैप्टन अमरिंदर सिंह को विरोधी गुट अपरोक्ष तौर पर चुनौती दे रहा था। लेकिन कैप्टन का जादू रहा कि उन्हें केंद्रीय आलाकमान पूरा समर्थन मिला। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने कैप्टन की पीठ थपथपा दी। फिर क्या था? विरोधी गुट बिखर गया और अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री के तौर पर क़ाबिज़ हुए। अब वैसी स्थिति नहीं है, उनके नेतृत्व को अभी तक चुनौती नहीं मिली थी। लेकिन अब कैप्टन से नाराज़ दो सांसद और तीन मंत्री सीधे तौर पर उनके विरोध में खड़े नज़र आ रहे हैं।

अमरिंदर असन्तुष्टों की नाराज़गी दूर करने में लगे हैं। लेकिन विरोधी अभी दबाव बनाने में ही लगे हुए हैं। राज्य में गुप्त बैठकों का दौर जारी है। कई मंत्रियों और विधायकों की अपनी ही सरकार के प्रति नाराज़गी है। दो दर्ज़न से ज़्यादा विधायकों की बैठक हो चुकी है, जिसमें चुनावी वादे पूरे न करने पर सरकार के प्रति नाराज़गी जतायी गयी है। विधानसभा चुनाव में एक वर्ष से भी कम का समय बचा है, ऐसे में आने वाले दिन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए मुश्किल भरे हो सकते हैं। कैप्टन के धुर विरोधी राज्यसभा सदस्य और कभी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे प्रताप सिंह बाजवा ज़्यादा मुखर हो गये हैं। जिस तरह से कैप्टन ने उन्हें राज्य की राजनीति से अलग-थलग कर केंद्र की राजनीति में धकेलने में सफल रहे अब वही उनके लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। दोनों में विगत एक दशक से लगभग 36 का आँकड़ा है। कैप्टन कुशल प्रशासक हैं। लेकिन राजनीति की बिसात पर उनके मोहरे सही पड़ेंगे? यह कहना मुश्किल है।

कोरोना वायरस से जूझती सरकार के लिए पहले किसान आन्दोलन और अब अपनी ही पार्टी के असन्तुष्ट नेता सरकार और उनके लिए मुसीबत बन रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी के निशाने पर कैप्टन सरकार है; लेकिन उससे पहले कांग्रेस के असन्तुष्टों जिस तरह से गोलबंद हो रहे हैं, वह बड़ा मामला है।

कैप्टन के आधा दर्ज़न से ज़्यादा मंत्री और दो दर्ज़न से ज़्यादा विधायक सरकार से नाराज़ चल रहे हैं। इनमें से कुछ सामने आने से परहेज़ कर रहे हैं। समीकरण उनके हिसाब से बने, तो उन्हें सामने आने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी।
दलित और पिछड़़ा वर्ग से जुड़े विधायक गोलबंद होने लगे हैं। तकनीकी, शिक्षा मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की नाराज़गी ज़्यादा है। कैप्टन के सलाहकारों ने उनसे मुलाक़ात कर इसे दूर करने का प्रयास किया है। चुनाव से पहले कैप्टन पार्टी में विरोध के सुरों को लगभग बन्द कर एकता स्थापित करना चाहते हैं। लुधियाना से पार्टी सांसद रवनीत सिंह बिट्टू और राज्यसभा सदस्य प्रताप सिंह बाजवा राज्य के जेल मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा के आवास पर गुप्त बैठक हुई, जिसमें कई मुद्दों पर बातचीत हुई।

इनमें विशेषकर गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी से जुड़े मामलों पर चर्चा और अभी तक कोई कार्रवाई न होने पर नाराज़गी जतायी गयी। नशा कारोबार पर रोक और हर घर के एक सदस्य को नौकरी देने जैसे वादे अधूरे रहने को नेतृत्व की नाकामी बताया गया। इधर, असन्तुष्ट केंद्रीय आलाकमान के पास अपनी बात पहुँचा रहे हैं, वहीं कैप्टन समर्थक मंत्री भी सक्रिय हैं। कैप्टन समर्थक मंत्री ब्रह्म महेंद्रा, सुंदर श्याम अरोड़ा और साधु सिंह धर्मसोत ने संयुक्त पत्र जारी कर नवजोत सिंह सिद्धू पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने को कहा है। नवजोत काफ़ी समय से अपनी ही सरकार के मुखर आलोचक बने हुए हैं।

एक दौर में कैप्टन और सिद्धू के बीच अच्छे रिश्ते थे। वह स्थानीय स्वशासन मंत्री के तौर पर वे बेहतर काम करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन कैप्टन को शायद उनकी कार्यशैली पसन्द नहीं आयी। उनका विभाग बदलने का प्रयास किया तो सिद्धू नाराज़ हो गये, तो फिर मंत्रिमंडल में जगह नहीं बना सके। उन्हें शायद इसकी परवाह भी नहीं रही होगी। लगभग ढाई साल के दौरान वह लगभग निष्क्रिय ही रहे। कुछ माह से वह अपनी ही सरकार के आलोचक बने हुए हैं। वह कहते भी हैं कि जहाँ राज्य के लोगों और हितों की अनदेखी होगी वह पीछे नहीं हटेंगे; नतीजा चाहे जो रहे, उन्हें इसकी चिन्ता न पहले थी और न आगे रहेगी। उनकी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के पास पहुँच मुख्यमंत्री से कहीं ज़्यादा है। इसलिए आलाकमान उन पर सीधे तौर पर कोई कार्रवाई करने से पहले विचार ज़रूर करेगा।

हाल में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कोटकपूरा गोलीकांड पर विशेष जाँच टीम की रिपोर्ट को ख़ारिज करते हुए विपरीत टिप्पणी की। इसके बाद से स्थितियाँ बदलने लगी हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब को लेकर बेअदबी से उपजे कोटकपूरा गोलीकांड पर पंजाब सरकार की आईजी (अब पूर्व) कुँवर विजय प्रताप सिंह की जाँच रिपोर्ट को राजनीति से प्रेरित बताते हुए नयी जाँच समिति के गठन करने और उसमें उक्त अधिकारी को शामिल न करने की बात कही। इसके बाद आईजी कुँवर विजय प्रताप सिंह ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा दे दिया।


पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की रिपोर्ट पर तल्ख़टिप्पणी के बाद जेल मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को इस्तीफ़ा सौंप दिया लेकिन उसे मज़ूर नहीं किया गया। रंधावा के मुताबिक, गुरु ग्रन्थ साहिब को लेकर बेअदबी और कोटकपूरा गोलीकांड के दोषियों को सज़ा दिलाना पार्टी का मुख्य एजेंडा था। लेकिन रिपोर्ट ख़ारिज होने के बाद पार्टी के नेता लोगों को क्या जवाब देंगे?

नवजोत सिद्धू ने तो इसे गृहमंत्री के तौर पर कैप्टन की नाक़ाबिलियत क़रार दे दिया। यह एक तरह से कैप्टन पर सीधा हमला है। इसके बाद ही कैप्टन सिद्धू के ख़िलाफ़ कुछ-न-कुछ कार्रवाई ज़रूर करेंगे। उनके तीन समर्थक मंत्रियों ब्रह्म महेंद्रा, सुंदर श्याम अरोड़ा और साधु सिंह धर्मसोत ने साझे पत्र में केंद्रीय आलाकमान से सिद्धू के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की है। सिद्धू कह चुके हैं कि अगर पार्टी लोगों की भावनाएँ ज़ाहिर करने को अनुशासनहीनता मानती है, तो वह ऐसा करते रहेंगे। राज्य कांग्रेस में एक तरह से गुटबाज़ी और ज़्यादा तीव्र होने लगी। कैप्टन का सरकार और पार्टी दोनों पर अच्छी पकड़ है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ उनसे अलग नहीं है।

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) सरकार के समय प्रदेश में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी के मामले हुए, जिनकी राज्य में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस ने ऐसी घटनाओं को साज़िश बताते हुए सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा कर दिया था।
सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने साज़िश रचने वालों और आरोपियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने को अपने एजेंडे में रखा। जाँच के लिए आयोग और पुलिस की विशेष जाँच टीमें गठित हुईं; लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। पिछले दिनों सरकार की गठित अन्तिम विशेष जाँच समिति की रिपोर्ट को उच्च न्यायालय ने ख़ारिज करते हुए दूसरी जाँच समिति बनाने का निर्देश दिया। यह जाँच रिपोर्ट साधारण नहीं, बल्कि इससे कांग्रेस की अमरिंदर सिंह सरकार की प्रतिष्ठा जुड़ी थी।

उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सरकार ने बेअदबी और कोटकपूरा गोलीकांड की जाँच के तीन सदस्यीय विशेष जाँच टीम (एसआईटी) गठित कर दी है। रिपोर्ट के लिए टीम को छ: माह का समय दिया गया है। सरकार ने न्यायालय के आदेश की पालना तो कर दी, लेकिन इससे विरोधी दलों के साथ उनकी पार्टी के ही कई नेता नाराज़ हैं।
शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल के मुताबिक, कुँवर विजय प्रताप की जाँच रिपोर्ट पर न्यायालय की तल्ख़टिप्पणी के बाद साबित हो गया है कि सरकार का मक़सद क्या था। सरकार को राजनीति से प्रेरित रिपोर्ट नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित जाँच कराकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए, ताकि दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो सके। आम आदमी पार्टी नेताओं का आरोप है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह इसकी जाँच के बहाने समय पास कर रहे हैं। नयी टीम की रिपोर्ट भी न्यायालय में ठहरेगी इसका क्या भरोसा है? विधानसभा चुनाव से पहले दोषियों को सज़ा होगी, इसमें सन्देह ही है।

राज्य के कई मंत्रियों और विधायकों का मुख्यमंत्री पर उनकी अनदेखी करने का आरोप है। दलित और पिछड़ा वर्ग के दो दर्ज़न से ज़्यादा विधायक घोषणा-पत्र में किये वादे पूरा करने का आरोप लगा रहे हैं। ऐसी हालत में विधानसभा चुनाव में किस मुँह से लोगों के सामने जाएँगे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ कहते हैं- ‘सरकार ने घोषणा पत्र के 80 फ़ीसदी वादे लगभग पूरे कर दिये हैं; बाक़ी पर काम चल रहा है।’ इसमें कितनी सच्चाई है? इस बारे में उनके नेता ही गुप्त बैठकों में उजागर कर रहे हैं। लुधियाना से पार्टी के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू कहते हैं- ‘गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी और कोटकपूरा गोलीकांड का मामला बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं से जुड़ा है। साढ़े चार साल में जाँच हुई; लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा। नयी जाँच टीम का नतीजा क्या निकलेगा? यह तो समय ही बताएगा।’

सिद्धू बनाम सिद्धु
कैप्टन सरकार के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी में नवजोत सिद्धू ही ज़्यादा मुखर है। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी सिद्धू ही हैं। क़रीब एक माह पहले अमरिंदर सिंह ने अपने सिसवां फार्म हाउस पर सिद्धू को आमंत्रित किया था। दोनों के बीच काफ़ी समय तक विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई थी। सिद्धू को पार्टी और सरकार में महत्त्व देने वाले कैप्टन ही हैं, जिसे वह भुला नहीं पा रहे हैं। कैप्टन पुरानी बातों को भुला उन्हें कोई नई ज़िम्मेदारी देने के पक्ष में है। सिद्धू की सोनिया और राहुल के पास पहुँच है यह कैप्टन भी जानते हैं। मुलाक़ात के बाद अटकलें लगीं कि शायद अब सिद्धू सरकार के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी नहीं करेंगे; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उनके तेवर और अंदाज़ वही है। गम्भीर बातों को शायराना अंदाज़ में बड़ी बेबाक़ी से कहना बहुत कुछ कर सकता हैं। कैप्टन उन्हें अपने ख़ेमे में लाने में सफल रहते हैं या नहीं यह समय ही बताएगा।

किसान आन्दोलन कोरोना से नहीं डिगेंगे किसान

कोरोना वायरस का संक्रमण जिस तेज़ी से फैल रहा है, उसी तेज़ी से किसान आन्दोलन की ख़बरें दबी हैं। लेकिन किसान आन्दोलन क़रीब नौ महीने से दिल्ली के सभी सीमाओं पर जारी है। पिछले साल से अब तक कोरोना वायरस का भय भी किसानों के मज़बूत इरादों को नहीं डिगा सका है और वो लगातार कृषि क़ानूनों के ख़लाफ़ आन्दोलन कर रहे हैं। पिछले दिनों यह ख़बरें भी उड़ी थीं कि किसान आन्दोलन ख़त्म हो गया है। यह भी कहा गया कि किसान कृषि क़ानूनों का विरोध नहीं कर रहे हैं, विरोध करने वाले बिचौलिये हैं, जिनकी काली कमायी इन क़ानूनों से बन्द हो जाएगी। लेकिन किसानों ने अपनी जान जोखिम में डालकर बारिश, सर्दी और गर्मी झेली है और आज भी अपनी जान पर खेलकर दिल्ली के सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, बहादुरगढ़ बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर शान्तिपूर्वक धरना दे रहे हैं। किसानों की साफ़-साफ़ माँग है कि सरकार जब तक तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा। अब किसान आन्दोलन पर युवती से दुष्कर्म की आँच पड़ रही है। पहले लाल क़िला मामला और अब टीकरी बॉर्डर मोर्चे पर आयी पश्चिम बंगाल की युवती मामले को लेकर किसानों को बदनाम किया जा रहा है। कोरोना संक्रमण से मृत्यु को प्राप्त युवती के अन्तिम संस्कार के कई दिन बाद अब उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म की बात किसानों की बदनामी का हिस्सा हो गयी है। सवाल है कि जब अनिल व अनूप नामक युवकों के नाम सामने आ रहे हैं, तो उनकी गिरफ़्तारी में देरी क्यों हो रही है? किसान भी दोनों आरोपियों की गिरफ़्तारी के पक्ष में हैं। राजनीतिज्ञ योगेंद्र यादव ने भी पुलिस पूछताछ में यही बात कही है।


सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसान आन्दोलन के मामले में सुनवाई की थी और सरकार से हल निकालने की बात कहते हुए एक समिति गठित की थी। लेकिन समिति टूट गयी और उसके बाद किसानों के मामले में कोई सुनवाई नहीं हुई। आख़र सर्वोच्च न्यायालय किस बात का इंतज़ार कर रहा है? सरकार किस बात का इंतज़ार कर रही है। कृषि क़ानूनों को किसान हित में बदलने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है? देश के कई राज्यों के किसान दिल्ली के सीमाओं पर अहिंसक आन्दोलन कर रहे हैं और सरकार से लगातार नम्र निवेदन कर रहे हैं कि वह उनकी सुने और कृषि क़ानूनों को वापस ले। क्या सरकार का यह दायित्व नहीं कि वह कोरोना-काल में किसानों को भी उनके घर ससम्मान भेजे?
अब तक सभी सीमाओं पर 300 के क़रीब किसान शहीद हो चुके हैं, मगर सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। किसान सरकार से कोई दौलत नहीं माँग रहे हैं। वे केवल तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं; जिन्हें सरकार उन पर जबरन थोपने पर तुली हुई है।
एक सीधी-सी बात यह है कि अगर किसान अपना हित नहीं चाहते, तो सरकार जबरन क्यों उनकी भलाई में लगी है? और अगर सरकार को किसानों का हित ही करनी है, तो वह किसानों का क़र्ज़माफ़ कर दे, जिसका वह 2014 में सत्ता में आने से पहले वादा भी कर चुकी है। इससे सरकार का वादा भी पूरा हो जाएगा और किसान भी ख़ुश हो जाएँगे। कुछ लोग कहते हैं कि अगर कृषि क़ानून लागू नहीं हुए तो किसानों की आय 2022 तक दोगुनी नहीं हो सकेगी। लेकिन ऐसे लोगों से जब क़ानून में शामिल बिन्दुओं के बारे में पूछो, तो उसका ठीक जवाब किसी के पास नहीं होता। जहाँ तक सवाल किसानों की आय दोगुनी करने का है, तो उसका सीधा सा तरीक़ा यही है कि किसानों को कृषि के लिए ज़रूरी ची•ों सस्ती दी जाएँ। उन्हें उद्योगपतियों की तरह मामूली ब्याज पर या बिना ब्याज के क़र्ज़दिया जाए। उनकी फ़सलों को निर्धारित मूल्य से नीचे नहीं ख़रीदा जाए और हर साल जिस तरह से महँगाई भत्ता बढ़ता है, उसी तरह से फ़सलों के दाम भी बढ़ाया जाए।

बातचीत से सरकार ने क्यों फेरा मुँह?
किसानों से बातचीत करके हल निकालने को लेकर सरकार ने उनसे 12 दौर की बातचीत की और फिर 22 जनवरी को आख़री 12वीं बातचीत के बाद से इससे मुँह फेर लिया। इसके बाद से सरकार और किसानों की बातचीत बन्द है।
हालाँकि इसका ठीकरा भी केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों के सिर पर ही फोड़ते हुए कहा था कि हमने 12 दौर तक बैठकें कीं। जब यूनियनें क़ानूनों की वापसी पर अड़ी रहीं, तो हमने उन्हें कई विकल्प दिये। इतने दौर की बातचीत के बाद भी नतीजा नहीं निकला। इसका हमें ख़ेद है। फ़ैसला न होने का मतलब है कि कोई न कोई ताक़त है, जो इस आन्दोलन को बनाए रखना चाहती है और अपने हित के लिए किसानों का इस्तेमाल करना चाहती है। ऐसे में किसानों की माँगों पर फ़ैसला नहीं हो पाएगा। इसके बाद अभी हाल ही में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों से आन्दोलन ख़त्म करने को कहते हुए उन्हें चेतावनी भी दे डाली थी। लेकिन किसान डरे नहीं और साफ़ कह दिया था कि जब तक कृषि क़ानूनों को सरकार वापस नहीं कर लेती, वह पीछे नहीं हटने वाले।

क़ानून रद्द क्यों नहीं हो सकते?
फ़िलहाल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद तीनों क़ानूनों पर रोक लगी हुई है। सरकार भी इस रोक को हटवाने की कोशिश नहीं कर रही है। इसका मतलब यह भी है कि सरकार किसानों को एक ढील देकर उन पर नकेल कसना चाहती है। सरकार अच्छी तरह जानती है कि अगर एक बार किसान आन्दोलन टूट गया, तो फिर उसे किसान संगठन भी 2020 की तरह बलशाली तरीक़े से खड़ा नहीं कर पाएँगे। पहले सरकार ने हर तरह के बल प्रयोग से किसानों को सीमाओं से खदेडऩा चाहा और जब किसान टस-से-मस नहीं हुए और अपनी माँगों पर अड़े रहे, तो सभी सीमाओं पर पाकिस्तान की सीमा की तरह कटीले तार और कीलों से घेराबंदी करायी। लेकिन जब इसकी निंदा पूरी दुनिया में होने लगी, तो सरकार को पीछे हटना पड़ा। अब सरकार ने कृषि बिलों को सीधे-सीधे वापस न लेकर उन्हें कुछ समय के लिए रोककर किसानों एक तरह की ढील दी है, ताकि वे थक हारकर अपने-अपने घरों को लौट जाएँ। लेकिन किसान सरकार की इस चाल को भी समझ गये हैं और इसका भी मुक़ाबला करने को पूरी तरह से तैयार हैं। सवाल यह है कि सरकार इन क़ानूनों को रद्द क्यों नहीं करना चाहती?

किसान विरोधी रवैये का नतीजा
यह देखने वाली बात है कि सरकार को भी किसान विरोधी रवैया का नतीजा धीरे-धीरे चुनावों में देखने को मिल रहा है। पाँच राज्यों के बाद उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए पंचायत चुनावों के नतीजे इसका बड़ा उदाहरण हैं। हालाँकि भाजपा की कई राज्यों के चुनावों में करारी हार की एक बड़ी वजह कोरोना संक्रमण के दौरान अस्पतालों की अव्यवस्था और पिछले दिनों डीजल-पेट्रोल के दाम भी बढ़े हैं। लेकिन किसान आन्दोलन सबसे बड़ा प्रभाव इसलिए पड़ा है। क्योंकि देश की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी है और किसानों के साथ सहानुभूति रखती है। यही वजह रही कि इन चुनावों में भाजपा के बड़े-बड़े दिग्गज भी हार गये।
मेट्रो मैन ई.श्रीधरन जैसे दिग्गज ने भी किसान आन्दोलन के विरोध का परिणाम देखा है। वह इस बार भाजपा के टिकट से केरल से चुनाव भी लड़े थे, मगर हार गये। तो क्या वह किसान आन्दोलन के विरोध के कारण हारे थे? वैसे तो कहा जाता है कि केरल में भाजपा की दाल ही नहीं ग़लती; पर यह भी कहा जाता है कि मेट्रो मैन को केरल के लोग, विशेषकर उनके क्षेत्र के लोग बहुत मानते हैं। लेकिन उन्होंने किसानों के ख़लाफ़ खड़े होकर अपनी छवि ख़राब की है।


क्या बोले राकेश टिकैत?
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने किसान आन्दोलन के बारे में साफ़ शब्दों में कहा कि किसान आन्दोलन तो तब तक चलता रहेगा, जब तक तीनों काले कृषि क़ानूनों को सरकार वापस नहीं ले लेती। कोरोना वायरस के संक्रमण-काल में भी दिल्ली के सीमाओं पर किसानों के जमे रहने के बारे में और इस महामारी से बचाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि किसान कोरोना वायरस को लेकर सरकार द्वारा जारी सभी दिशा-निर्देशों का पूरी तरह पालन कर रहे हैं। सोशल डिस्टेंसिंग से रह रहे हैं और मास्क भी लगा रहे हैं। इसके अलावा पूरी जगह को लगातार सैनिटाइज किया जा रहा है। यहाँ कोरोना वायरस नहीं है। बॉर्डर पर आप आकर देख सकते हैं, यहाँ किसान हैं। कोरोना वायरस से आन्दोलन नहीं रुकेगा, आन्दोलन चलता रहेगा। यह पूछने पर कि किसान आन्दोलन को लेकर सरकार के रुख़ पर आपकी क्या रणनीति है? राकेश टिकैत ने दो-टूक जवाब दिया कि सरकार के रुख़ का तो नहीं पता, पर हमारा आन्दोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक सरकार हमारी माँगें मान नहीं लेती। वैसे भी 22 जनवरी के बाद तो सरकार नहीं है। (शायद किसान नेता राकेश टिकैत का इशारा जनवरी, 2024 का है।)

 

सुप्रीम कोर्ट करे हस्तक्षेप
किसानों का मुद्दा कोई छोटा मुद्दा नहीं है। कृषि से देश का हर आदमी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। इसलिए किसान प्रभावित होंगे, तो पूरा देश सफ़र करेगा। क्योंकि यह भूख से जुड़ा मुद्दा है और बिना रोटी के कोई भी जीवित नहीं रह सकता। इसलिए कृषि क्षेत्र बर्बाद हुआ या उसे पूँजीपतियों के हाथों में दे दिया गया, तो ग़रीब लोगों के लिए तो खाना खाने तक के लाले पड़ जाएँगे। हर चीज़महँगी हो जाएगी, जिससे हर आदमी सीधे-सीधे प्रभावित होगा। इसलिए इस मामले को सुप्रीम कोर्ट को सीरियस लेते हुए इसकी ख़ुद पैरवी करनी चाहिए और सरकार को तीनों क़ानूनों को रद्द करने को कहना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करता है, तो यह पूरे देश के हित में होगा। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट जल्द-से-जल्द सुने या नये क़ानूनों में हस्तक्षेप करे।

सरकार को सिर्फ़ अपनी चमक की चिन्ता

वर्तमान एनडीए सरकार की उसके प्रदर्शन के बारे में सकारात्मक माहौल बनाये जाने की अक्सर आलोचना की जाती रही है। हालाँकि हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे, महामारी से बिगड़े हालात पर स्वास्थ्य प्रणाली पर सवालिया निशान और किसान आन्दोलन का समाधान खोजने में नाकाम रहने पर माहौल बदला है। ऐसे समय में जब सरकार तेज़ी से कार्य करने का दावा कर रही थी, तब भी असन्तुष्ट अधिकारी यह साबित करने पर तुले थे कि सब कुछ ठीकठाक चल रहा है।
हाल ही में प्रभावी संचार के लिए आयोजित एक कार्यशाला में केंद्र सरकार के क़रीब 300 आला अधिकारियों ने शिरकत की। आंतरिक सूत्रों ने बताया कि सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी कार्यशाला में मौज़ूद थे। कार्यशाला का संचालन माईजीओवी के सीईओ अभिषेक सिंह ने किया था। यह मंच सरकार की सकारात्मक छवि बनाने के लिए नागरिक सहभागिता का एक सरकारी मंच है। इस पूरी क़वायद का मक़सद उस माहौल को बदलना था, जिससे सरकार ऐसी दिखे कि वह संवेदनशील, साहसी, त्वरित, उत्तरदायी, जनता की बात सुनने वाली और समाधान खोजने के लिए तत्पर है।


दिलचस्प है कि देश में बिगड़े हालात के नज़रिये को बदलने की आवश्यकता तब महसूस की गयी, जब भारतीय निर्वाचन आयोग ने मद्रास उच्च न्यायालय की उसके ख़िलाफ़ की गयी मौखिक टिप्पणियों को देश की सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा था कि चुनाव में कोरोना वायरस फैलने से रोकने के लिए कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया और इस पर चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ का हत्या का मामला दर्ज किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को चुनावी रैलियों में कोविड-19 प्रोटोकॉल के दुरुपयोग पर रोक नहीं लगायी गयी। न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और एम.आर. शाह की खंडपीठ ने भारत के चुनाव आयोग से कहा कि मामलों की सुनवाई करते समय न्यायाधीशों द्वारा की गयी टिप्पणियाँ व्यापक जनहित में हैं और मीडिया को उन्हें रिपोर्ट करने से नहीं रोका जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम आज के समय में यह नहीं कह सकते कि मीडिया अदालत में होने वाली चर्चाओं की रिपोर्ट नहीं करेगा।
यह महज़ कोविड-19 के बाद का परिदृश्य नहीं है, तथ्य यह है कि सरकार की नीति एक विलक्षण मूल भाव की विशेषता की रही है। नैरेटिव को बदलने के लिए स्क्रिप्ट को बदलना। यह मौलिक मान्यताओं के रूप में मौलिक मान्यताओं को चुनौती देने की अपनी क्षमता पर टिकी हुई है। सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान कथा को कैसे बदला जाए? यह पिछली सरकारों के तहत किये गये कार्य, इस सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों से इतर साबित हुए। पूर्व की सरकारों में इस तरह के मामलों को गुप्त रखा जाता था। लेकिन अब फ़ायदा उठाने के लिए उनको सार्वजनिक किया जाता है। प्रचार कथानक (स्क्रिप्ट) में बदलाव के संकेत से माहौल बनाने में मदद मिलती है, जैसे जोखिम लेने के दावे। वर्तमान में ऐसे बयान देकर माहौल बनाया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कुछ भी नहीं किया है। बदलाव के बाद राजनीतिक बयानों, कूटनीतिक क़दमों और इस सरकार द्वारा अपने जोखिम लेने के दृष्टिकोण के समर्थन में किये गये सैन्य विकल्पों के संयोजन से सर्वोत्तम रूप से समझाया जाता है। थोड़े समय के लिए ऐसा लोगों के दिमाग़ में भरा जा सकता है; लेकिन हमेशा के लिए इसे लागू इसमें निहित सभी मुद्दों को हल करने के लिए लम्बी रणनीति अपनानी होती है।
उदाहरण के लिए भारत वैश्विक कोरोना महामारी की दूसरी लहर से बुरी तरह जूझ रहा है और इसी बीच क़रीब 20,000 करोड़ रुपये की लागत से बनायी जा रही सेंट्रल विस्टा परियोजना सत्ता के गलियारों में कई चर्चाओं का केंद्र में है। इसे आवश्यक सेवा की श्रेणी में रखा गया है। जब कोरोना मरीज़ों को ऑक्सीजन और वेंटिलेटर न मिलने पर मौत हो जा रही हैं, वैसे समय में इस परियोजना पर काम चल रहा है। इसके लिए बाक़ायदा विशेष अनुमति दी गयी है, ताकि परियोजना का काम न रुके। आप इसे ग़लत प्राथमिकताएँ या अहंकार कह सकते हैं। परियोजना में वर्तमान संसद भवन की जगह एक नया संसद भवन शामिल है, जिसमें प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के लिए नया आलीशान आवास और कई केंद्रीय सरकारी विभागों के लिए कार्यालय होंगे। इसमें एक नया संसद भवन परिसर होगा। इसके उच्च सदन में 1,224 सदस्य और निचले सदन में 888 सदस्य बैठने की क्षमता होगी। वर्तमान में उच्च सदन 245 को समायोजित करता है, जबकि निचले सदन की क्षमता 545 है। नये परिसर में संसद के सभी सदस्यों के लिए अलग-अलग कार्यालय भी होंगे। इसमें चार मंज़िला इमारतों वाला प्रधानमंत्री का निवास भी है। सरकार का लक्ष्य दिसंबर, 2022 तक सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को पूरा करना है।
आमतौर पर यह माना जाता है कि विदेशी मीडिया सरकार की धारणा पर बहुत गहरी चोट कर रहा है। ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया था कि भारत में ऑक्सीजन की क़िल्लत है। लेकिन उसके सियासतदान इस बात से इन्कार करते हैं कि वहाँ कोई समस्या है। लेखक द गार्जियन में कहते हैं कि ऐसे समय में जब देश अपने कोविड-19 रोगियों के लिए ऑक्सीजन हासिल करने के लिए मारामारी करनी पड़ रही है, कई जगह कमी के चेलते लोग जान भी गँवा रहे हैं। इस दौरान भी सियासी नेता न केवल उपेक्षा कर रहे हैं, बल्कि उन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की धमकी देते हैं, जो इस बारे में सच्चाई को सामने ला देते हैं।
सीएनएन के एक लेख में देश भर में कोविड के मामलों में वृद्धि के लिए चुनावी रैलियों कोज़िम्मेदार माना गया है। इसमें कहा गया है कि भारत में दूसरी लहर कीज़िम्मेदारी सरकार की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण थी और लोग अपनी सरकारों से उम्मीद करते हैं कि वे उन्हें आश्वासन दें और उनकी देखभाल करें। लेकिन सरकार अपना काम करने में पूरी तरह से नाकाम रही या कहें कि ग़ायब रही।
अटलांटिक के संपादकीय में लिखा कि मौज़ूदा संकट को हल करने में मदद करने के लिए सरकार को पहली और दूसरी लहर के बीच बहुत कम समय मिला। भारत में वायरस का संक्रमण फैलने के बाद पहले क्रूर तालाबन्दी की गयी थी, जिससे सबसे ग़रीब और कमज़ोर लोगों को चोट पहुँची। लॉकडाउन कथित तौर पर देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से परामर्श के बिना लगाया गया था। फिर अभी तक देश के स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए न तो समय का उपयोग किया गया और न ही सरकार ने इस महामारी की जंग को जीतने के लिए कोई ख़ाका पेश किया।
फाइनेंशियल टाइम्स ने भारत की दूसरी लहर की त्रासदी शीर्षक से लिखे लेख में चेतावनी दी है कि अस्पतालों के बाहर सडक़ों पर लोगों को ऑक्सीजन की कमी से मरते देखने की रिपोर्ट करना विचलित करने वाला है। जबकि कोरोना वायरस की पहचान 16 महीने पहले हो चुकी थी। फ्रांसीसी अख़बार ‘ले मोंडे’ ने लिखा है कि दूरदर्शिता, अहंकार, और लोकतंत्र की कमी ज़ाहिर तौर पर ऐसी स्थिति के कारणों में से एक है, जिससे अब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो
गयी है।


टाइम पत्रिका ने लिखा- ‘भारतीय मीडिया सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है, उसमें जवाबदेही की कमी है, इसकी वजह से मौज़ूदा संकट पैदा हुआ है। कई हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के समाचार चैनलों के साथ-साथ क्षेत्रीय समाचार माध्यमों ने सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया; जबकि उसकी विफलताओं को उजागर नहीं किया। साथ ही विपक्ष, मुस्लिमों और वामपंथियों व एनजीओ के प्रदर्शनकारियों को देश विरोधी के रूप में पेश करने के लिए लगा रहा। आलोचना पर ऐसे समय चिन्ता ज़ाहिर की जा रही है, जब बेड और ऑक्सीजन की देश में व्यापक कमी के चलते बड़ी तादाद में लोगों की मौत हो रही है। चिताओं की आग बुझ नहीं रही है। और तो और नदियों में तक लोग शवों को बहा दे रहे हैं। इससे हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
वहीं, इसी बीच वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ एक वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित कार्यशाला से पता चलता है कि सरकार गम्भीरता से बदलाव के लिए नैरेटिव को नकारात्मक से सकारात्मक करने की कोशिश में लगी है। उदाहरण तौर पर 18 साल से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण पंजीकरण के दौरान कोविन पोर्टल के क्रैश होने की ख़बर छापने से सरकार नाराज़ हो जाती है। दरअसल, दूसरी कोविड लहर की शुरुआत के बाद से ही सरकार बैकफुट पर है। महामारी के अपने कुप्रबन्धन के लिए उसे हरिद्वार में कुम्भ मेला और चुनावी रैलियों जैसे बड़े सार्वजनिक भीड़ जमा करने वाले आयोजनों को अनुमति देना शामिल है। सरकार की कोशिश है कि इस तरह का माहौल बने कि ये सब चीज़ों गौण हो जाएँ।