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महत्त्वपूर्ण चुनावों से पहले कांग्रेस कमज़ोर

महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभा चुनावों के क़रीब आते ही हरियाणा में चौंकाने वाली हार के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर में निराशाजनक प्रदर्शन ने कांग्रेस की भारत में स्थिति काफ़ी कमज़ोर कर दी है। लोकसभा चुनावों में उत्साहजनक प्रदर्शन के कुछ ही महीनों बाद कांग्रेस 08 अक्टूबर के चुनाव परिणाम के बाद अपनी रणनीति का पुनर्मूल्यांकन कर रही है। शिवसेना-यूबीटी (उद्धव बालासाहेब ठाकरे), सीपीआई और आम आदमी पार्टी (आप) सहित कई सहयोगियों ने हालिया असफलताओं के मद्देनज़र कांग्रेस से अपने दृष्टिकोण पर विचार करने का आग्रह किया है।

महाराष्ट्र, जहाँ महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन के भीतर सीट-बँटवारे की बातचीत तेज़ है; में शिवसेना-यूबीटी और शरद पवार की एनसीपी, दोनों पार्टियाँ बेहतर सौदे के लिए कांग्रेस की कमज़ोरी का फ़ायदा उठाने की इच्छुक हैं। हालाँकि कांग्रेस लोकसभा में अपने बेहतर प्रदर्शन का दावा कर रही है, जिसमें उसने महाराष्ट्र में 17 सीटों पर चुनाव लड़े और उनमें से 13 सीटों पर जीत हासिल की; लेकिन वह इस जीत पर आत्म-संतुष्टि नहीं कर सकती। हरियाणा में आम आदमी पार्टी के साथ साझेदारी के बजाय अकेले चुनाव लड़ने के उसके फ़ैसले का असर उलटा हुआ। आम आदमी पार्टी के 1.79 प्रतिशत वोट शेयर ने अंतत: भाजपा और कांग्रेस के बीच क़रीबी मुक़ाबले को प्रभावित किया। ऐसे में कांग्रेस-नेतृत्व को ड्राइंग बोर्ड पर लौटने के लिए अपने सहयोगियों के प्रति अधिक उदार रुख़ अपनाना होगा। झारखण्ड, जहाँ भाजपा गति पकड़ रही है; में कांग्रेस की बुद्धिमानी यही है कि वह झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की सहायक पार्टी की भूमिका निभाए। इसी तरह महाराष्ट्र में उसे अपने हितों से ज़्यादा गठबंधन की ज़रूरतों को प्राथमिकता देना महत्त्वपूर्ण होगा।

जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की निर्णायक जीत पाँच साल पुराने केंद्र शासित प्रदेश के लिए एक नये अध्याय की प्रतीक है। एक दशक के बाद आख़िरकार मतदाता विधानसभा चुनाव में मतदान कर सके। उन्होंने खंडित जनादेश के बजाय स्थिरता का विकल्प चुना है। यह स्पष्ट बहुमत त्रिशंकु विधानसभा में संभावित राजनीतिक चालबाज़ियों की चिन्ताओं को दूर करने में मदद करेगा और उप राज्यपाल द्वारा पाँच विधायकों के नामांकन के आसपास के विवादों को हल करेगा। विजयी गठबंधन और केंद्र के लिए आगामी चुनौती बने सत्ता परिवर्तन को ज़िम्मेदारी प्रबंधित करने के साथ-साथ जनता में एक विश्वास क़ायम करना होगा; क्योंकि कोई भी टकराव वाला दृष्टिकोण मतदाताओं की इच्छाओं की उपेक्षा करेगा। इस क्षेत्र ने हिंसा, सांप्रदायिक तनाव और लंबे समय से चली आ रही अन्याय की भावना के आघात सहे हैं। वर्षों की राजनीतिक उदासीनता के बाद हालिया चुनाव ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुनर्जीवित कर दिया है। नयी सरकार पर अब राजनीतिक अंदरूनी कलह से ध्यान हटाकर लोगों की वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने, उनके जीवन में सुधार लाने और उन्हें सशक्त बनाने की ज़िम्मेदारी है।

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने शुरुआत में प्रधानमंत्री की स्थिति को व्यापक पैमाने पर मज़बूत किया, भले ही इसमें राजनीतिक पूँजी ख़र्च हो गयी हो। भाजपा की हरियाणा में जीत राजनीतिक परिदृश्य में मोदी के स्थायी प्रभाव की एक महत्त्वपूर्ण याद दिलाती है, जो बढ़ती चुनौतियों के बीच उनके रौब को मज़बूत करती है। हरियाणा का फ़ैसला कांग्रेस के लिए आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता को रेखांकित करता है। विपक्षी नेता के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए राहुल गाँधी को पार्टी के आंतरिक विभाजनों को अधिक प्रभावी ढंग से सुलझाना होगा; क्योंकि मतदाता एकजुट नेतृत्व के लिए उनकी ओर देख रहे हैं। कांग्रेस को अपने पैर जमाने के लिए सामने आने वाली इन चुनौतियों के साथ अपनी रणनीतियों को फिर से तैयार करना होगा और आगामी चुनावों से पहले मतदाताओं की गंभीर चिन्ताओं को दूर करते हुए अपने सहयोगियों के साथ प्रभावी ढंग से जुड़ना होगा।

हैरानी भरी जीत

– हरियाणा में भाजपा को बहुमत; लेकिन कश्मीर घाटी में नहीं जीत सकी एक भी सीट !

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव नतीजों का गहराई से अध्ययन करें, तो देखेंगे कि हरियाणा में भाजपा को भी अपनी जीत की कोई उम्मीद नहीं थी। लेकिन लोगों की नाराज़गी के बावजूद हरियाणा में उसका जीतना कई सवाल खड़े करता है। जम्मू-कश्मीर के जो नतीजे आये हैं, वो ऐसे ही रहने की उम्मीद थी। घाटी में लोगों ने भाजपा के प्रति अपनी नाराज़गी दिखायी है, जबकि जम्मू में भाजपा का प्रदर्शन सामान्य रहा। इन चुनाव नतीजों का महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के चुनावों पर कोई असर पड़ेगा, ऐसा लगता नहीं है; क्योंकि वहाँ के मुद्दे अलग हैं। इन चुनावी नतीजों को प्रधानमंत्री मोदी के लिए भी तात्कालिक संजीवनी मान सकते हैं, जो इन दिनों आरएसएस की तरफ़ से जबरदस्त दबाव झेल रहे हैं। चुनावी नतीजों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी का विश्लेषण :-

दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में यदि कोई पार्टी सबसे ज़्यादा घाटे में रही है, तो वह कांग्रेस है। लगभग जीता हुआ राज्य हरियाणा वह हार गयी, जबकि जम्मू-कश्मीर में वह पिछली बार की 12 सीटों के मुक़ाबले आधी सीटों पर सिमट गयी। ऊपर से तुर्रा यह कि जम्मू में उसे सिर्फ़ दो सीटें मिलीं और उसके छ: विधायकों में एक भी हिन्दू नहीं। कांग्रेस के अति आत्मविश्वास में डूब जाने से भाजपा को हरियाणा तश्तरी में रखा मिल गया। अनुच्छेद-370 हटने के बाद हुए पहले चुनाव में भाजपा कश्मीर की 47 में से एक भी सीट नहीं जीत पायी, जो उसके प्रति घाटी के लोगों की नाराज़गी को उजागर करता है। कांग्रेस की हार के बीच सबकी नज़रों के केंद्र में पहलवान विनेश फोगाट रहीं, जिन्होंने बड़ी जीत हासिल कर विरोधियों के मुँह पर ताला जड़ दिया।

पहले बात हरियाणा की। आख़िर तक यही लग रहा था कि राज्य में कांग्रेस आसान जीत हासिल करने जा रही है। लगभग सभी एग्जिट पोल भी कांग्रेस की जीत दिखा रहे थे। ज़मीन पर भी ऐसा ही दिख रहा था। बैलट पेपर की गिनती तक तो एक समय कांग्रेस 70 के पार दिख रही थी; लेकिन जैसे ही ईवीएम खुलीं, भाजपा का ग्राफ ऐसा चढ़ना शुरू हुआ कि आख़िरी नतीजा जब आया, तो वह साधारण बहुमत से दो सीटें ज़्यादा जीत चुकी थी। कांग्रेस के दफ़्तरों में सुबह जो हलवाई मिठाई बनाने की तैयारी कर रहे थे, दोपहर होते-होते वे बिना मिठाई बनाये वापस लौट चुके थे। कांग्रेस हरियाणा का चुनाव का हार चुकी थी। हरियाणा में भाजपा में लगातार तीन बार सरकार बनाने का रिकॉर्ड ज़रूर बना दिया है।

मानना पड़ेगा कि हरियाणा के नतीजे जलेबी जैसे सिद्ध हुए। कांग्रेस ने नतीजे पलटते ही गंभीर आरोप लगाया कि ईवीएम से छेड़छाड़ हुई है। पार्टी के नेता राहुल गाँधी तो हाल में जब अमेरिका की यात्रा पर गये थे, तब भी उन्होंने वहाँ कहा था कि लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी कांग्रेस की सीटें बढ़ने के बावजूद उन्हें आशंका है कि चुनाव में हेराफेरी की गयी थी। देश में ऐसी की संस्थाएँ हैं, जो ईवीएम को लेकर संदेह जता चुकी हैं। लेकिन कांग्रेस के आरोप के जवाब में इस बार फिर चुनाव आयोग ने कहा कि नतीजों को स्वीकार नहीं करना जनादेश को नहीं मानना है; क्योंकि चुनाव तो पूरी तरह निष्पक्ष हुए हैं।

यह उस चुनाव आयोग का दावा है, जो मतदान के कई-कई दिन तक वोटिंग प्रतिशत तक नहीं बता रहा है। यही नहीं, हरियाणा में गिनती करते हुए नतीजे लंबे समय तक रोकने जैसी घटना भी आयोग की तरफ़ से कई मतदान केंद्रों पर हुई। लेकिन यदि चुनाव आयोग के निष्पक्ष चुनाव के दावे पर भरोसा करें, तो भी कहना पड़ेगा कि यदि वह समय पर मतदान प्रतिशत के आँकड़े जारी कर दे, या मतदान गिनती बिना रुकावट चलते, तो शायद संदेह के जो कारण हैं, वो न रहें। संदेह तो ख़ुद चुनाव आयोग ही पैदा करता रहा है। कांग्रेस भी आरोप लगाकर चुप बैठ गयी। इससे यह संकेत गया कि शायद चुनाव में हार के कारण उसने नतीजों में छेड़छाड़ के आरोप लगाये। उसके पास प्रमाण थे, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक देनी चाहिए थी।

इन सब चीज़ों से अलग होकर देखें, तो यह तो साफ़ है कि इस चुनाव में कांग्रेस अति उत्साह में डूबी रही। इससे ज़मीन पर उसने हक़ीक़त की अनदेखी की और उसका चुनाव प्रबंधन भी भाजपा के मुक़ाबले कहीं कमज़ोर था। इसमें क़तई संदेह नहीं कि हरियाणा में भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ जबरदस्त एंटी इंकम्बेंसी थी। रोज़गार, महँगाई से लेकर किसानों और अन्य के मसले चुनाव में आख़िर तक थे। यह कहना भी ग़लत है कि यह चुनाव ज़मीन के नीचे जाट और ग़ैर-जाट में किसी हद तक चला गया। नतीजों में जातीय समीकरणों का गहरा अध्ययन ज़ाहिर करता है कि कांग्रेस को पूरा जाट वोट मिला ही नहीं। नतीजतन यह कहना ग़लत है कि यह चुनाव जाट बनाम ग़ैर-जाट हो गया था। बेशक कांग्रेस भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके इर्द-गिर्द बुनी गयी चुनावी रणनीति पर सीमित थी; लेकिन उसने सभी तबक़े की जातियों को उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतारा था। यह माना जाता है कि प्रदेश में बड़े पैमाने पर जातिगत आधार पर जो उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, उनमें से अधिकांश भाजपा की रणनीति का हिस्सा थे, ताकि कांग्रेस के वोट को बाँटा जा सके। कांग्रेस में सैलजा की नाराज़गी को भी अब हार की एक वजह माना जा रहा है। दलित राजनीति में उनके प्रतिद्वंद्वी अशोक तंवर भी ऐन मतदान से पहले कांग्रेस में लौट आये थे।

हरियाणा में कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत तो लगभग बराबर ही रहा। भाजपा को कुल वोट मिले 39.94 फ़ीसदी, तो कांग्रेस को मिले 39.09 फ़ीसदी। बस इतने महीन अंतर में ही भाजपा कांग्रेस से 11 सीट ज़्यादा जीत गयी। नतीजों की पड़ताल करने से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि जाट वोट भी पूरा का पूरा कांग्रेस को नहीं गया। वहाँ भी बँटवारा हुआ। इससे यह संकेत मिलता है कि कांग्रेस समर्थक मतदाता तो मुखर था, भाजपा को वोट देने की सोच चुके लोग चुप बैठे थे। तभी तो यह हैरानी भरा नतीजा आया।

इस बार हरियाणा के चुनाव में भाजपा की तरफ़ से न 70 पार का नारा था, न ही मोदी की गारंटी की गूँज। कहीं भी और कभी भी यह नहीं लगा कि भाजपा इस चुनाव में है। उसके नेता तक ख़ुद की हार मान चुके थे। कुछ तो इस चिन्ता में थे कि कहीं पार्टी की सीटें 20 से नीचे न चली जाएँ। लेकिन फिर भी भाजपा की जीत हुई, तो इसे कांग्रेस की मूर्खता ही कहा जाएगा; भले उसने अपनी हार का ठीकरा ईवीएम में छेड़छाड़ और चुनाव आयोग पर फोड़ा हो। हरियाणा में हार के बाद अब यह ज़रूरी हो गया है कि राहुल गाँधी और मल्लिकार्जुन खड़गे देश भर में संगठन को मज़बूत करने पर ध्यान दें। नया नेतृत्व सामने लाएँ और सहयोगी संगठनों के कंधे पर बैठकर कुछ सीटें जीतकर संतुष्ट होने की रणनीति को त्याग दें।

भाजपा को सबसे ज़्यादा समर्थन अहीरवाल बेल्ट में मिला। वहाँ की 28 में से 21 सीटें भाजपा के खाते में गयीं। कांग्रेस को मिलीं सिर्फ़ सात सीटें। जिस जाट वर्ग को हरियाणा में एकमुश्त कांग्रेस के साथ माना जा रहा था, वहाँ की पूरी जाट प्रभुत्व वाली 17 में से भाजपा ने सात सीटें जीत लीं; जबकि कांग्रेस को आठ सीटें मिलीं। यदि 25 फ़ीसदी जाट प्रभुत्व वाली सीटों की बात भी की जाए, तो भी भाजपा को 13 और कांग्रेस को 16 सीटें मिलीं। ऐसे में यह क़तई नहीं कहा जा सकता कि जाट वर्ग ने पूरी तरह भाजपा को नकार दिया, जैसा कि पहले कहा जा रहा था। लिहाज़ा चुनाव नतीजों से ज़ाहिर होता है कि इस चुनाव का मुक़ाबला जाट और ग़ैर-जाट के बीच नहीं बदला था।

बांगड़ हलक़े की बात करें, तो वहाँ की 18 सीटों में से भाजपा को छ: और कांग्रेस को आठ सीटें मिलीं। कुरुक्षेत्र की बेल्ट की 27 सीटों में से 15 भाजपा के खाते में गयीं, जबकि कांग्रेस की हिस्से में 12 सीटें आयीं। ऐसे में साफ़ ज़ाहिर है कि कांग्रेस को सबसे ज़्यादा नुक़सान यादव बहुल अहीरवाल क्षेत्र में हुआ, जहाँ उसे भाजपा की 21 के मुक़ाबले सिर्फ़ सात ही सीटें मिलीं और यहीं से कांग्रेस के हाथ से सत्ता छिटक गयी। अहीरवाल दक्षिण हरियाणा का इलाक़ा है, जिसे पिछड़ा हुआ माना जाता था। एक ज़माने में कहा जाता था कि यदि किसी अधिकारी-कर्मचारी का तबादला महेन्द्रगढ़-नारनौल हो जाए, तो समझो उसे सज़ा दी गयी है। आज भी की इलाक़े काफ़ी पिछड़े हुए हैं। कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने गठबंधन में जोड़ती, तो क्या उसे लाभ मिलता? यह कहना मुश्किल है।

यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि चुनाव में भाजपा ने 16, जबकि कांग्रेस ने 27 जाट उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। भाजपा ने ओबीसी 21 तो कांग्रेस ने 25, जबकि दलित भाजपा ने 17 और कांग्रेस ने भी 17 चुनाव मैदान में उतारे थे। ऐसे में नतीजों को जातियों के आधार पर देखें, तो कांग्रेस और भाजपा को कमोवेश सभी के वोट मिले। बस अहीरवाल इलाक़े ने चुनाव का रुख़ बदल दिया, जहाँ भाजपा ने कांग्रेस से 14 सीटों की बढ़त बना ली। यदि एससी के लिए आरक्षित सीटों की भी बात करें तो 17 में से नौ कांग्रेस को मिली हैं, जबकि आठ भाजपा को। इस चुनाव में सबसे बड़ा नुक़सान दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जजपा को हुआ, जिसकी सफ़ाई हो गयी। अजय चौटाला की इनेलो भी दो ही सीट जीत पायी। आम आदमी पार्टी (1.79 फ़ीसदी वोट), जो 6-7 सीटें जीतने का दावा कर रही थी; के अधिकतर उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गयी और दिल्ली से लगते हरियाणा की सभी सीटों पर उसे बुरी हार मिली। बसपा (1.82 फ़ीसदी वोट) और चंद्रशेखर आज़ाद भी फिसड्डी साबित हुए।

घाटी में भाजपा शून्य

यह हैरानी की बात है कि जो भाजपा अनुच्छेद-370 ख़त्म करने पर दावा करती थी कि उसके फ़ैसले को कश्मीर घाटी की जनता का भी समर्थन हासिल है, वह इस चुनाव में वहाँ की 47 सीटों में से एक भी नहीं जीत पायी। यही नहीं, जम्मू, जिसे राज्य का हिन्दू बहुल हिस्सा कहा जा सकता है; में भी भाजपा 43 में से 29 ही सीटें जीत पायी। यदि हाल के परिसीमन में छ: सीटें इस क्षेत्र में नहीं बढ़ी होतीं, तो भाजपा का प्रदर्शन और ख़राब हो जाता। उसने 2014 के चुनाव में 25 सीटें जीते थीं और इस बार उसका नारा 35 सीटें जीतने का था। लेकिन उसका प्रदर्शन ज़ाहिर करता है कि उसे अपेक्षित जनसमर्थन हिन्दू बहुल हिस्से में भी नहीं मिला। जम्मू की कुल 43 सीटों में 29 जीतना भाजपा की बड़ी जीत तो नहीं ही मानी जाएगी।

निश्चित ही इस चुनाव की हीरो फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस है, जिसने घाटी ही नहीं, बल्कि जम्मू के हिस्से में भी बेहतर प्रदर्शन किया। सबसे ज़्यादा घाटे में कांग्रेस रही, जो सिर्फ़ छ: सीटें जीत पायी। जम्मू, जहाँ उसका ख़ासा जनाधार रहा है; में भी उसकी हालत यह रही कि उसकी सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उससे ज़्यादा, सात सीटें जीतीं। यह आरोप भी सामने आये कि जम्मू में नेशनल कॉन्फ्रेंस के वोट उसे तब्दील नहीं हुए, जबकि कश्मीर में हुए।

तीन महीने पहले जो उमर अब्दुल्ला लोकसभा का चुनाव हार गये थे; वे विधानसभा की दो सीटों पर जीत गये। चुनाव से ऐन पहले जब अलगाववादी नेता इंजीनियर राशिद को जेल से छोड़ा गया था, तो आरोप लगे थे कि इसके पीछे भाजपा है, ताकि घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस को बढ़त लेने से रोका जा सके। लेकिन घाटी के लोगों ने राशिद की पार्टी को समर्थन नहीं दिया। यही नहीं, पीपल्स कॉन्फ्रेंस, जो भाजपा-पीडीपी सरकार में हिस्सेदार रही; को भी जनता ने नकार दिया और इसके अध्यक्ष सज्जाद लोन चुनाव हार गये।

फ़ारूक़ अब्दुल्ला पर घाटी की जनता के भरोसे का एक बड़ा कारण यह रहा कि हाल-फ़िलहाल में वह भाजपा के प्रति काफ़ी तीखे तेवर दिखाते रहे हैं। उनके विपरीत हाल के वर्षों में जो भी भाजपा के साथ गया उसे जनता ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। इनमें पीडीपी भी शामिल है। पार्टी की नेता महबूबा मुफ़्ती की बेटी इल्तिज़ा मुफ़्ती अपनी सीट से हार गयी और पार्टी को भी सिर्फ़ तीन ही सीटें मिलीं, जबकि 2014 में 28 सीटें जीतकर वह सबसे बड़ी पार्टी थी। पीडीपी को फिर से खड़ा करने की अब दोनों माँ-बेटी पर ज़िम्मेदारी है। आम आदमी पार्टी ने भी राज्य में खाता खोल दिया, जब उसके उमीदवार मेहराज मालिक 4,538 मतों से जीत गये। उन्होंने एनसी-कांग्रेस सरकार को समर्थन का ऐलान किया है। यह माना जाता है कि अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण उन्हें जीत मिली।

नतीजों से साफ़ ज़ाहिर है कि घाटी ने मोदी सरकार के अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना मत दिया है। साफ़ है कि भाजपा कश्मीर घाटी के लोगों के दिलों में जगह नहीं बना पायी है। जम्मू के ही इलाक़े में उसके प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र रैना तक चुनाव हार गये हैं। ज़ाहिर है भाजपा को वहाँ नया नेतृत्व खड़ा करना पड़ेगा। यह भी चर्चा है कि केंद्र आने वाले समय में लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को हटा सकता है। आरएसएस नेता राम माधव, जो इस चुनाव में भाजपा के प्रभारी थे; का नाम भी अगले लेफ्टिनेंट गवर्नर के रूप में लिया जाता है।

‘राईजिंग कश्मीर’ अख़बार की कार्यकारी संपादक अनुजा ख़ुशु ने नतीजों को लेकर फोन पर बताया- ‘चुनाव जीतने और सरकार बनाने के बावजूद उमर अब्दुल्ला की राह आसान नहीं होगी। जिस तरह का बड़ा जनादेश उन्हें घाटी में मिला है उससे उन पर दबाव रहेगा कि वह जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरें। देश में ग़ैर-भाजपा राज्य जिस तरह केंद्र सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाते हैं उस स्थिति से उमर को भी गुज़रना पड़ सकता है। दूसरा यूटी होने के कारण यहाँ एलजी का बराबर हस्तक्षेप रहेगा।’

बेशक सरकार में साझीदार कांग्रेस के अनुभव का मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को लाभ मिलेगा; लेकिन वह ख़ुद ही कह चुके हैं कि अनुच्छेद-370 को वापस कराएँगे। लेकिन उनकी पार्टी के स्टैंड के बावजूद एक हक़ीक़त यह भी है कि ऐसा होना अब मुमकिन नहीं दिखता। हाँ, एनसी और कांग्रेस जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने का प्रस्ताव विधानसभा के पहले ही सत्र में ज़रूर पास करवाने की तैयारी में हैं।

उमर अब्दुल्ला ने फोन पर हुई बातचीत में कहा- ‘हमें केंद्र से मिलकर चलना पड़ेगा। हम टकराव नहीं चाहते। हमारी पहली कोशिश सूबे का स्टेटस बहाल करवाने की है।’

इस चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर जीते वरिष्ठ नेता पीरज़ादा सईद ने कहा- ‘हमारी सरकार जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए काम करेगी। कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में साफ़ कहा है कि हम जम्मू-कश्मीर को फिर से पूरा राज्य बनाने के लिए जान लगा देंगे।’

उधर पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती ने फोन पर बातचीत में कहा- ‘हम इन नतीजों से निराश ज़रूर हैं; लेकिन ज़्यादातर सीटों पर हम दूसरे नंबर पर रहे हैं। घाटी में हमारी मज़बूत ज़मीन है। हम पार्टी को सूबे की जनता की मदद से फिर से बुलंदियों तक ज़रूर पहुँचाएँगे और उनके हुक़ूक के लिए लगातार लड़ते रहेंगे।’

भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह से भी फोन पर कहा- ‘जनता का हमें पूरा समर्थन मिला है और सूबे में सबसे ज़्यादा वोट प्रतिशत हमारा रहा है। कश्मीर घाटी में हम कोई सीट नहीं जीत पाये; लेकिन हमें वहाँ काफ़ी वोट मिले हैं, जो ज़ाहिर करते हैं कि जनता समझ रही है कि भाजपा विकास की नीति में भरोसा रखती है।’

दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री कौन ?

जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला को नेशनल कॉन्फ्रेंस ने विधायक दल का नेता चुना है। उमर पहले भी राज्य के मुख्यमंत्री के अलावा वाजपेयी सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी रहे हैं। राज्य में उनकी पार्टी कांग्रेस से मिलकर सरकार बना रही है। उधर हरियाणा में नायब सिंह सैनी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली भाजपा 17 अक्टूबर को एक बैठक में मुख्यमंत्री का चयन करेगी। इसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को प्रेक्षक बनाकर चंडीगढ़ भेजा गया है।

एनएसजी राइजिंग डे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दी शुभकामनाएं

नई दिल्ली : केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) राइजिंग डे के अवसर पर बुधवार को अपने सोशल मीडिया एक्स हैंडल पर एक संदेश साझा किया है, जिसमें उन्होंने एनएसजी के सभी कर्मियों और उनके परिवारों को शुभकामनाएं दी। अमित शाह ने कहा कि एनएसजी ने ‘सर्वत्र सर्वोत्तम सुरक्षा’ के अपने आदर्श वाक्य को पूरा करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने में अद्वितीय विशेषज्ञता दिखाई है।

अमित शाह ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “एनएसजी के स्थापना दिवस पर, मैं हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड कर्मियों और उनके परिवारों को हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं। ‘सर्वत्र सर्वोत्तम सुरक्षा’ के आदर्श वाक्य पर चलते हुए, एनएसजी ने त्वरित प्रतिक्रिया, सामरिक आश्चर्य, गुप्त संचालन और त्रुटिहीन सटीकता में उल्लेखनीय विशेषज्ञता के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा को लगातार मजबूत किया है।”

अमित शाह ने एनएसजी के वीरों को भी सलाम किया, जिन्होंने अपनी ड्यूटी के दौरान अपने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने लिखा, “एनएसजी के उन बहादुर जवानों को सलाम, जिन्होंने कर्तव्य की राह में अपने प्राणों की बलिदान दिया।”

राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड को विशेष रूप से आतंकवाद, मुठभेड़ और अन्य सुरक्षा खतरों के खिलाफ त्वरित प्रतिक्रिया के लिए जाना जाता है। यह भारत का एक प्रमुख केंद्रीय अर्धसैनिक बल है, जिसकी स्थापना 1984 में हुई थी। यह विशेष रूप से आतंकवाद और सामरिक चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित है। एनएसजी के कर्मियों को कठिन परिस्थितियों में भी काम करने के लिए तैयार किया जाता है, जिससे वे किसी भी आपातकालीन स्थिति में तत्काल प्रतिक्रिया कर सके। वहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के काम की अगर हम बात करें तो इसमें आतंकवादियों का मुकाबला करना, हाईजैकिंग की घटनाओं को निपटना, और महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा शामिल है। इसके अलावा, एनएसजी विशेष अभियानों के लिए भी प्रशिक्षित है, जहां उन्हें छिपे हुए या सटीक लक्ष्यों को लक्षित करना होता है।

उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री  पद की शपथ ली

श्रीनगर : नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला  ने श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है। अब्दुल्ला 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री बने हैं। अनुच्छेद 370 हटने के बाद तत्कालीन राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया था।

जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में अब्दुल्ला का यह दूसरा कार्यकाल होगा। पहले कार्यकाल में वह 5 जनवरी, 2009 और 8 जनवरी, 2015 के बीच जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। उमर अब्दुल्ला को शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने शपथ दिलाई। कहा जा रहा है उपराज्यपाल सिर्फ 4 चुने हुए विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाएंगे।

क्या मोदी को हटाने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाएँगे राहुल?

04 जून के बाद से विपक्ष मज़बूत और आक्रामक मूड में नज़र आ रहा है। इसकी वजह यह भी है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों, जहाँ भारतीय जनता पार्टी की सरकारें थीं; वहाँ भी भाजपा की सीटें घटना भाजपा के लिए एक बुरे सपने जैसा है। अब भाजपा को कहीं-न-कहीं यह अहसास हो चुका है कि विपक्षी पार्टियों को ज़्यादा-से-ज़्यादा कमज़ोर किये बिना राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसके लिए अपनी सरकारों को बरक़रार रखना मुश्किल होगा। लेकिन कठिन परिस्थितियों के बावजूद हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत उन पार्टी नेताओं के लिए संजीवनी का काम कर गयी, जिन्हें चुनाव में हार होने पर किनारे किया जा सकता था।

हालाँकि संकट अभी टला नहीं है। भले ही इस जीत से भाजपा नेता उत्साहित नज़र आ रहे हैं। क्योंकि हरियाणा जीतने पर भी केंद्र में टिके रहने की चुनौती भाजपा के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है। क्योंकि जिन बैसाखियों के सहारे एनडीए गठबंधन के सहारे केंद्र में जो मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी हुई है, उसकी बैसाखियाँ भरोसेमंद नज़र नहीं आ रही हैं, ख़ासतौर पर जदयू नाम की बैसाखी। इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों ने भी सियासी रूप से कांग्रेस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वह अपनी सहयोगी पार्टियों को राज्यों में अनदेखा न करे। क्योंकि विधानसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश में सपा को, हरियाणा में आम आदमी पार्टी को और दूसरे राज्यों में अन्य स्थानीय सहयोगी पार्टियों को नज़रअंदाज़ करना और यह कहना कि गठबंधन तो लोकसभा चुनाव के लिए हुआ है, कांग्रेस को भी नुक़सान पहुँचा रहा है और इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टियों को भी। हालाँकि उत्तर प्रदेश में लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन करने और हरियाणा में कांग्रेस की हार के बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस पर दबाव बनाने का दाँव चलते हुए उत्तर प्रदेश की 10 सीटों में से छ: सीटों पर अपने उम्मीदवारों का नाम घोषित कर दिया है। अन्य सहयोगी पार्टियाँ भी मानती हैं कि कांग्रेस राज्यों में उनकी उपेक्षा करती है और जहाँ कांग्रेस मज़बूत स्थिति में है, वहाँ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सौतेला व्यवहार करती है। सहयोगी पार्टियाँ इसको कांग्रेस की हठधर्मिता और दादागीरी मान रही हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस सहयोगियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं कर रही है। ऐसे में कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं का विचार है कि कांग्रेस को एक बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

कांग्रेस की एक वरिष्ठ नेता ने कहा है कि राहुल गाँधी को उनके सुझाव पर काम करना चाहिए। उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में हरियाणा के विधानसभा के अप्रत्याशित नतीजों ने कांग्रेस समेत सारे इंडिया गठबंधन को भीतर तक झकझोर कर रख दिया है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि हरियाणा में जनता की केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति भारी नाराज़गी और बड़े पैमाने पर भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान करने के बावजूद भाजपा का जीतना चुनाव नतीजों में भारी हेर-फेर की पुष्टि कर रहा है। अब इंडिया गठबंधन महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों और इसके बाद कुछ ही महीनों में होने वाले दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भी धाँधली होने की पूरी संभावना देख रहा है। कांग्रेस नेता के मुताबिक, जब तक मोदी प्रधानमंत्री हैं, तब तक चुनाव आयोग, उसकी ईवीएम और इनके साथ-साथ ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स आदि जाँच एजेंसियाँ, सब-की-सब मोदी के हाथ में हैं। ऐसे में कोई कुछ भी कर ले, कितना भी चिल्ला ले और जनता किसी को भी ज़्यादा वोट दे दे; लेकिन चुनाव परिणाम मोदी ही तय करेंगे। क्योंकि मोदी जानते हैं कि यह उनका अंतिम दौर है और इसलिए वह सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाकर तमाम हथकंडे अपनाते हुए राजनीतिक पैंतरेबाज़ी करेंगे। ज़ाहिर है कि उन्हें अपने अंतिम दौर में लोकतंत्र की कोई चिन्ता उन्हें बिलकुल भी नहीं है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता आगे कहते हैं कि अब महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को राहुल गाँधी के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर मोदी को केंद्र की सत्ता से बेदख़ल करना ही होगा, वरना कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि मेरा विचार है कि इसके लिए कांग्रेस को किसी भी क़ुर्बानी से पीछे नहीं हटना चाहिए। कांग्रेस के लिए यह करो या मरो की स्थिति है, जिसमें नीतीश कुमार को तत्काल प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव दे देना चाहिए। क्योंकि नीतीश भी जानते हैं कि भाजपा उनको कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बना सकती और अगले साल उनसे मुख्यमंत्री पद भी जाने ही वाला है। उनकी पार्टी भी टूटने के क़गार पर है। ऐसे में नीतीश के लिए यह ऑफर फ़ायदे का सौदा ही होगा। उधर दूसरी तरफ़ वह तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाकर बिहार को भी अपने क़ब्ज़े में रख सकते हैं। नीतीश अगर साथ आ गये, तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा या विशेष पैकेज देकर मनाया जा सकता है। अब व$क्त आ गया है कि राहुल गाँधी इस ब्रह्मास्त्र का खुलकर उपयोग करें। क्योंकि यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि चंद्रबाबू नायडू जब जेल में थे, तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी कोई मदद नहीं की थी। इसलिए चंद्रबाबू नायडू के दिल के किसी कोने में वह टीस भी है, जिसकी वजह से वह अंदरख़ाने प्रधानमंत्री मोदी भी क़तई सहज नहीं हैं।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का मानना है कि ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, मायावती, लालू यादव आदि सारे विपक्षी नेताओं को मोदी ने एजेंसियों के माध्यम से दबाव में लेकर परेशान किया हुआ है। नीतीश के आने से तमाम दबाव समाप्त हो जाएँगे। इसके अलावा ऐसा करने से नीतीश कुमार का जातीय जनगणना का वादा और राहुल गाँधी का किसानों का एमएसपी देने और कर्ज माफ़ी का वादा भी पूरा हो सकेगा, जिससे देश के किसान भी नयी सरकार आने से आन्दोलन छोड़कर शान्त बैठ जाएँगे। इसके अलावा कई राज्यों के राज्यपाल भी बदले जा सकेंगे, जो विपक्षी पार्टियों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के ऊपर लगातार दबाव बनाये रहते हैं और उनके कामों में टाँग अड़ाते रहते हैं। जिस प्रकार से ममता बनर्जी की सरकार के ऊपर राज्यपाल की दख़लअंदाज़ी रहती है और दिल्ली में केजरीवाल सरकार के ऊपर उप राज्यपाल के दख़लअंदाज़ी सर्वविदित है ही, उससे भी निजात मिल सकेगी। चिराग पासवान भी कहीं-न-कहीं भाजपा और मोदी से त्रस्त हैं, क्योंकि मोदी-शाह उनकी पार्टी को तोड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उनके चाचा पशुपति पारस को बढ़ावा देकर चिराग के लिए भी ख़तरे की घंटी बजाते रहते हैं। इस प्रकार से चिराग का ख़तरा भी सरकार बदलने से टल जाएगा और वह भी इंडिया गठबंधन का हिस्सा होंगे। क्योंकि इस बात से तमाम सियासी पार्टियाँ त्रस्त हैं कि मोदी जिसका जिससे चाहें गठबंधन करवा देते हैं, पार्टी तुड़वाकर सरकार गिरवा देते हैं। तो नीतीश को चाहिए कि तेजस्वी यादव को तत्काल बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर ख़ुद इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर केंद्र में बैठें। क्योंकि कुछ ही दिनों में महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनाव हैं। इसके बाद अगले साल दिल्ली, बिहार के विधानसभा चुनाव और 2026 के मध्य में पश्चिम बंगाल में भी चुनाव हैं। अखिलेश यादव को भी समझना होगा कि उत्तर प्रदेश में 2027 में विधानसभा के चुनावों में भी कुछ भी होना है। अत: इन स्थितियों में जीत की कोई गारंटी नहीं है। इसलिए राहुल गाँधी के नीतीश कुमार को इस ब्रह्मास्त्र के तहत प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव करने के इस फ़ैसले को अखिलेश यादव को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। अगर इन राज्यों में भाजपा किसी भी तरह तिकड़म भिड़ाकर जीत गयी, तो फिर किसी भी हाल में विपक्ष की राज्यों और केंद्र में वापसी आसानी से नहीं होने वाली है। और जिस प्रकार से दिल्ली की मुख्यमंत्री का सामान मुख्यमंत्री आवास से बाहर निकलवाकर मुख्यमंत्री आवास में साज़िशन ताला जड़ दिया गया है। ऐसा फिर दूसरे उन राज्यों में भी हो सकता है, जहाँ भाजपा की सरकार नहीं बन सकेगी। और भविष्य में एक गुंडागर्दी के तहत केंद्र से लेकर राज्यों की सत्ताओं तक पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है।

बहरहाल अगर किसी भी तरह से केंद्र में सरकार बदलती है, तो आगामी तमाम विधानसभा चुनाव निष्पक्ष हो सकेंगे और नौकरशाहों, अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ-साथ मीडिया और व्यापारी आदि सब पलट जाएँगे। तमाम विपक्षी नेताओं की प्रताड़ना भी ख़त्म हो जाएगी। 2027 में राष्ट्रपति के भी चुनाव होने हैं, जिसमें केंद्र सरकार बदलने से इंडिया गठबंधन को बहुत बड़ी मदद मिलेगी। लिहाज़ा लोकतंत्र को मज़बूत करना है, तो कुछ अलग और कुछ बड़ा सोचना ही होगा। अगर विपक्ष को भाजपा की हरियाणा की तरह दूसरे राज्यों में हारकर भी चौंकाने वाली जीत से बचना है या फिर निष्पक्ष होकर मुक़ाबला करना है, तो उसे तत्काल महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनावों से पहले ही नीतीश कुमार को अपने पाले में लाकर भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की इस जीती हुई बाज़ी को पलटते हुए बैसाखियों वाली सरकार को गिराना होगा, वरना 2029 तक ऐसे ही परिणाम भाजपा के पक्ष में आते रहेंगे और विपक्ष इतना कमज़ोर हो जाएगा कि उसमें आपसी बयानबाज़ी की नूराकुश्ती चलने के सिवाय और कुछ मुश्किल से ही बचेगा। और जाहिर है कि अगर विपक्ष इससे भी ज़्यादा कमज़ोर हो गया, तो विपक्षी नेताओं को हमेशा के लिए जेल में जाने और विपक्षी पार्टियों को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकेगा। क्योंकि 50 साल तक शासन करने की जिस रणनीति के तहत मोदी-शाह की जोड़ी काम कर रही है, उसमें जनता की मज़ीर् न भी हो, तो भी सत्ता में आने से इस जोड़ी को कोई नहीं रोक सकेगा। समझने वाली बात है कि जो लोग सत्ता में आने के बाद अपनी मातृसत्ता संघ के बारे में ऐसा बोल सकते हैं कि अब भाजपा को संघ की ज़रूरत नहीं हैं, उनके लिए विरोधी पार्टियाँ क्या मायने रखती हैं? जबकि संघ के लोग हर चुनाव में भाजपा की जीत के लिए ज़मीनी स्तर पर जो मेहनत करते हैं, उसकी वजह से भाजपा का मत प्रतिशत काफ़ी बढ़ जाता है। अगर किसी चुनाव में संघ बिलकुल भी भाजपा के लिए मैदान में न उतरे, तो भाजपा को चौंकाने वाली हार का मुँह भी देखना पड़ सकता है। लेकिन पता नहीं किस बात का अहंकार है कि भाजपा के कुछ बड़े नेता संघ को भी आँख दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। हालाँकि अब संघ ने शिकंजा कसना शुरू कर दिया है और कोई बड़ी बात नहीं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर एक ऐसा चेहरा लाया जाए, जो इन नेताओं का अहंकार तोड़ सके।

कुछ लोगों का दावा है कि नागपुर में इसके लिए कई बैठकें हो चुकी हैं, जिसमें कई भाजपा नेता भी शामिल हुए हैं और उनका भी यही मानना है कि कुछ बेलगाम लोगों की नकेल इसलिए भी कसी जानी चाहिए, क्योंकि वे किसी को भी कुछ नहीं समझ रहे हैं। बहरहाल, भविष्य में क्या होगा? यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। अभी इंतज़ार के अलावा कुछ और नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

तिरुपुर की तर्ज पर स्वच्छ हों भारतीय शहर

तमिलनाडु का तिरुपुर देश का पहला केमिकल मुक्त औद्योगिक क्षेत्र बन गया है। जब देश के सभी शहर गंदगी से भरते जा रहे हैं, ऐसे समय में यह एक सुकून देने वाली ख़बर यह है। ख़ास बात यह है कि तिरुपुर के कारख़ानों से अब केमिकल कचरा बाहर नहीं जाता। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 450 किलोमीटर दूर बसा तिरुपुर वस्त्र उद्योग के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है और वस्त्र उद्योग के मानचित्र में ख़ास पहचान रखने वाले इस इलाक़े ने चीन से नौ साल पहले सस्टेनेबल डेवलपमेंट यानी सतत विकास का लक्ष्य हासिल करके प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के सामने एक मिसाल कायम कर ली थी। तिरुपुर में 10,000 से अधिक कारख़ाने हैं और इन कारख़ानों से निकलने वाले कचरे से पूरा इलाक़ा प्रदूषित हो गया था। कई झीलें सूख गयी थीं। सात साल पहले 2017 में भूजल स्तर 1,000 फुट नीचे तक चला गया था। वहाँ की नोएल्ले नदी में मछलियाँ मर रही थीं और पक्षियों ने आना छोड़ दिया था।

राज्य सरकार ने हालात बिगड़ते देख सन् 2011 में प्रदूषण फैलाने वाले 720 कारख़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकारी कार्रवाई के अलावा कारख़ानों के प्रबंधकों व काम करने वालों ने दिनोंदिन हालात बिगड़ते देख उसे सुधारने की दिशा में काम करना शुरू किया। सन् 2014 में तिरुपुर के उद्योगों ने अपना ईकोसिस्टम सुधारने की क़वायद शुरू की। तिरुपुर के ही वस्त्र उद्योग से जुड़ी जानकारी के अनुसार, वहाँ के वस्त्र उद्योग ने शून्य (0) प्रतिशत लिक्विड डिस्चार्ज हासिल करने के लिए सर्कुलर प्रोडक्शन प्रोसेस को अपनाया गया। उत्पादन प्रक्रिया में केमिकल का इस्तेमाल एक क्लोज्ड सर्किल में किया जाता है। उसके अपशिष्टों को रीसायकल प्रक्रिया से साफ़ करके दोबारा इस्तेमाल करने योग्य बनाया जाता है। कारख़ानों से निकलने वाला कोई भी प्रदूषित पदार्थ सीधे वातावरण में नहीं डाला जाता है। अब वहाँ 2024 का नजारा यह है कि नोएल्ले नदी में स्वच्छ पानी की धारा बहती है। सूख चुकी 22 झीलें भी जीवंत हो चुकी हैं और भूजल स्तर 152-300 फीट तक आ गया है।

तिरुपुर की यह उपलब्धि इतिहास में दर्ज हो गयी है। असल में तक़रीबन 1.44 अरब की आबादी वाले भारत में औद्योगिक अपशिष्ट एक बहुत बड़ी समस्या है और इसका निपटान एक गंभीर चुनौती है। भारत में क़रीब 41,523 उद्योग हैं, जो सालाना 7.9 मिलियन टन ख़तरनाक कचरा पैदा करते हैं। इसके अलावा देश में घरों से निकलने वाला कचरा यानी दैनिक नगरपालिका अपशिष्ट उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। भारत में शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके फलस्वरूप शहरी खपत में भी वृद्धि हो रही है। बदलते उपभोग पैटर्न और तेज़ आर्थिक विकास के साथ यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में शहरी नगरपालिका ठोस अपशिष्ट उत्पादन 2030 में बढ़कर 165 मिलियन टन हो जाएगा। भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शामिल है, जो सबसे अधिक नगरपालिका ठोस अपशिष्ट पैदा करते हैं। लाखों टन कचरा अब भी हर साल लैंडफिल में जा रहा है और अक्सर पर्यावरण में लीक हो रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करके 22 बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है। देश में चुनावी रैलियों में लोगों की सेहत के लिए ख़तरा बन चुके इस मुद्दे पर राजनेता ख़ामोश रहते हैं। ख़तरनाक कचरे को कोई भी राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा समझता ही नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि ऐसा कचरा, जो अपने विषैले, संहारक, ज्वलनशील या प्रतिक्रियाशील होने के कारण मानव-स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए ख़तरा पैदा करता है; ख़तरनाक कचरे की श्रेणी में आता है। देश में केवल 20 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे को ही रीसायकल किया जाता है। भारत में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय देश भर में कचरे के निदान और प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार है। देश में कई क़ानून भी हैं, जिनका उल्लंघन करने पर उद्योग चलाने वालों और कचरा फैलाने वालों के ख़िलाफ़ आर्थिक दंड, सज़ा आदि का प्रावधान है। लेकिन भारत में नियमों पर अमल कौन करता है? नियमों का पालन कराने वाली इकाइयों के अधिकारी भी कितनी ईमानदारी से काम करते हैं, यह एक खुला अध्याय है। प्रधानमंत्री मोदी ने मई, 2014 में वाराणसी से जीत हासिल करने के बाद कहा था कि माँ गंगा की सेवा करना मेरे भाग्य में है। सरकार ने गंगा नदी के प्रदूषण को खत्म करने और नदी को पुनर्जीवित करने के लिए नमामि गंगे नामक मिशन शुरू किया था। लेकिन न तो इस मिशन के बारे में अब चर्चा होती है और न ही गंगा की सफ़ाई हुई; जबकि देश की 40 प्रतिशत आबादी गंगा के किनारे ही बसती है। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने ख़ुद झाड़ू मारकर स्वच्छ भारत का नारा दिया था; लेकिन सफ़ाई के मामले में भी हम बहुत पीछे हैं। बहरहाल तिरुपुर चमक रहा है, रोशनी दिखा रहा है। बस इससे देश के हर शहर को सीख लेने की ज़रूरत है।

महाराष्ट्र में एक और झारखंड में दो चरणों में होगा मतदान :निर्वाचन आयोग

नई दिल्ली : भारत निर्वाचन आयोग ने मंगलवार को महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों के लिए एक चरण में 20 नवंबर को चुनाव होंगे, जबकि 23 नवंबर को वोटों की गिनती होगी।

वहीं, झारखंड में दो चरणों में चुनाव कराया जाएगा। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने बताया, “झारखंड की 81 विधानसभा सीटों के लिए दो चरणों में मतदान होगा। पहले चरण के लिए 13 नवंबर और दूसरे चरण के लिए 20 नवंबर को वोटिंग होगी, जबकि नतीजे 23 नवंबर को घोषित होंगे।”

भारत निर्वाचन आयोग के मुताबिक, महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के लिए एक लाख से अधिक मतदान केंद्र बनाए जाएंगे। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने कहा कि ईसीआई दोनों राज्य में समावेशी और सुलभ चुनावों के जरिए सुचारू मतदान अनुभव सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है।

राजीव कुमार ने बताया कि महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में 9.63 करोड़ मतदाता मतदान करेंगे, जिनमें 4.97 करोड़ पुरुष वोटर हैं, जबकि 4.66 करोड़ महिला मतदाता शामिल हैं। इसके अलावा 1.85 करोड़ युवा वोटरों की उम्र 20 से 29 साल के बीच है। वहीं, 20.93 लाख वोटर पहली बार मतदान में हिस्सा लेंगे। 12.43 लाख वोटरों की उम्र 85 साल से अधिक है। इसके साथ ही ट्रांसजेंडर मतदाताओं की संख्या 6,031 है।

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने कहा, “झारखंड में कुल मतदाताओं की संख्या 2.6 करोड़ है, जिनमें से 1.31 करोड़ पुरुष और 1.29 करोड़ महिला मतदाता हैं। पहली बार मतदान करने वाले मतदाताओं की संख्या 11.84 लाख है। झारखंड में 1,00,186 मतदान केंद्र हैं, इस बार 29,562 पोलिंग स्टेशन होंगे। इसके साथ ही, मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने उपचुनाव की तारीखों का भी ऐलान कर दिया है। उन्होंने बताया कि 15 राज्यों की 48 विधानसभा सीटों और दो संसदीय सीटों पर उपचुनाव होना है।

कनाडा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बैन करने की उठी मांग

नई दिल्ली : न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) के नेता जगमीत सिंह ने कनाडा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेटवर्क पर बैन लगाने की मांग की है। सिंह ने यह बयान भारतीय राजनयिकों के निष्कासन और आपराधिक जांच के संदर्भ में जारी किया।

जगमीत सिंह ने कहा, “आरसीएमपी कमिश्नर द्वारा जारी की गई जानकारी को लेकर न्यू डेमोक्रेट्स चिंतित है।

सिंह का आरोप है कि भारतीय अधिकारियों के हाथों कनाडाई, विशेष रूप से कनाडा के सिख समुदाय, डर, धमकी, उत्पीड़न और हिंसा का शिकार हो रहे हैं। उनके मुताबिक सिखों संग जबरन वसूली की जा रही है।

बयान में मारे गए आतंकवादी निज्जर का भी जिक्र है। दावा किया गया है कि कनाडा के पास भारत के खिलाफ कनाडाई हरदीप सिंह निज्जर (भारत द्वारा घोषित आतंकवादी) के मर्डर से संबंधित पुख्ता सबूत हैं। उन्होंने आगे कहा, “सितंबर 2023 में ही आरसीएमपी ने 13 लोगों को जान का खतरा बताते हुए चेतावनी जारी की थी।

सिंह के मुताबिक, खतरे की चेतावनी के बावजूद कनाडाई नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की। हमारी प्राथमिकता कनाडाई नागरिकों के लिए सुरक्षित माहौल मुहैया कराने की है ताकि वो जबरन वसूली, हिंसा और चुनावी हस्तक्षेप से मुक्त रहें। कनाडा और हमारे नागरिकों की सुरक्षा के हित में मैं सभी नेताओं से आग्रह करता हूं कि वह अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करें और भारत सरकार की जवाबदेही तय करें।

जगमीत सिंह ने कनाडाई सरकार से भारतीय राजनयिकों के निष्कासन के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि हम एक बार फिर से कनाडा सरकार से आग्रह कर रहे हैं कि वह भारत के खिलाफ राजनयिक प्रतिबंध लगाए, आरएसएस पर कनाडा में बैन लगाएं और किसी भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई का वचन दें जो कनाडाई मिट्टी पर संगठित आपराधिक गतिविधियों में शामिल पाया जाए। जगमीत सिंह कनाडा में हाउस ऑफ कॉमर्स के सदस्‍य और विपक्ष के नेता हैं।

‘हम लड़ना नहीं चाहते, लेकिन भारत ने गलती कर दी’; निज्जर हत्याकांड पर कनाडा प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो

ओटावा : कनाडा  और भारत के रिश्तों में एक बार फिर खटास आ चुका है। कनाडा सरकार ने खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के उच्चायुक्त के शामिल होने का आरोप लगाया है। भारत सरकार ने इन आरोपों को बेबुनियाद करार दिया है। वहीं, भारत ने कनाडा से अपने उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा और अन्य राजनयिकों को वापस देश बुला लिया है।

प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो  ने कहा कि कनाडा  ने पिछले साल एक कनाडाई नागरिक की हत्या में भारतीय अधिकारियों की संलिप्तता के आरोपों से संबंधित सभी जानकारी अपने ‘फाइव आईज’ भागीदारों, विशेष रूप से अमेरिका के साथ साझा की है।

ट्रूडो ने कहा,”भारत ने सोमवार को छह कनाडाई राजनयिकों को निष्कासित कर दिया और हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की जांच से जुड़े आरोपों खारिज कर दिया है। इसके बाद कनाडा ने अपने उच्चायुक्त और अन्य अधिकारियों को वापस देश बुला लिया है। जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि मैंने पीएम मोदी से बात की और कहा था कि भारत इस मामले को गंभीरता से ले।”

ट्रूडो ने कहा है कि हमने जानबूझकर कनाडा-भारत संबंधों में तनाव पैदा करने के लिए नहीं चुना है। भारत एक महत्वपूर्ण लोकतंत्र है, एक ऐसा देश है जिसके साथ हमारे लोगों के बीच गहरे ऐतिहासिक व्यापारिक संबंध हैं। हम यह लड़ाई नहीं चाहते हैं, लेकिन जाहिर तौर पर कनाडा की धरती पर एक कनाडाई की हत्या कुछ ऐसी बात नहीं है एक देश के रूप में हम इसे नजरअंदाज कर सकते हैं, इसलिए हमने हर कदम पर भारत को जो कुछ भी पता है उससे अवगत कराया है। मैंने सीधे प्रधानमंत्री मोदी से बात की है।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हत्या का एक और प्रयास

वाशिंगटन : कैलिफोर्निया के कोचेला में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रैली में संदिग्ध को बंदूक, कारतूस और कई फर्जी पासपोर्ट संग गिरफ्तार किया गया है। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, 49 वर्षीय संदिग्ध वेम मिलर एक काले रंग की एसयूवी चला रहा था, जब उसे सुरक्षा चौकी पर पुलिसकर्मियों ने रोका। तलाशी के दौरान उसके पास से दो हथियार और एक “हाई-कैपेसिटी मैगजीन” बरामद हुई।

यूएस सीक्रेट सर्विस ने दावा किया है कि ट्रंप “पर कोई खतरा नहीं था”, साथ ही कहा कि इस घटना से सुरक्षा अभियानों पर कोई असर नहीं पड़ा है।
रिवरसाइड काउंटी शेरिफ के कार्यालय ने कहा कि मिलर को “बिना किसी घटना को अंजाम दिए” हिरासत में ले लिया गया और उस पर भरी हुई बंदूक और हाई-कैपेसिटी मैगजीन (उच्च क्षमता वाली मैगजीन) रखने का मामला दर्ज किया गया।

स्थानीय शेरिफ ने संदिग्ध को “पागल” बताया और उनके कार्यालय ने कहा कि इस मुठभेड़ से ट्रंप या रैली में शामिल होने वालों की सुरक्षा पर कोई असर नहीं पड़ा। जबकि रिवरसाइड काउंटी के शेरिफ चैड बियान्को ने कहा (बीबीसी रिपोर्ट के अनुसार) कि संदिग्ध के दिमाग में क्या चल रहा था, इस बारे में अनुमान लगाना असंभव है। कहा कि उन्हें “पूरा विश्वास है” कि उनके अधिकारियों ने ट्रंप की तीसरी हत्या की कोशिश को नाकाम किया।

उन्होंने आगे कहा कि यह साबित करना असंभव है कि उस व्यक्ति का इरादा क्या था। एक संघीय कानून प्रवर्तन अधिकारी ने सीबीएस न्यूज़ को बताया कि इस घटना से जुड़े हत्या के प्रयास का कोई संकेत नहीं मिला है। संघीय अधिकारियों का कहना है कि वे अभी भी घटना की जांच कर रहे हैं। बियान्को एक निर्वाचित अधिकारी और रिपब्लिकन हैं जिन्होंने पहले भी ट्रंप के समर्थन में बयान दिया है। वह ट्रंप के चुनाव अभियान के एक प्रतिनिधि के रूप में भी काम कर रहे हैं।

यह घटना ट्रंप के मंच पर आने से एक घंटे पहले की बताई जा रही है। इस तरह कथित तौर पर ये ट्रंप पर हमले की ये तीसरी नाकाम कोशिश है। शेरिफ ने कहा कि जैसे ही संदिग्ध रैली की बाहरी परिधि में पहुंचा सब सामान्य था लेकिन जैसे ही वो अंदर पहुंचा, “कई अनियमितताएं ” दिखने लगी। शेरिफ बियान्को ने बताया कि, वाहन पर फर्जी लाइसेंस प्लेट थी और जांच में भीतर कुछ “गड़बड़ी” भी दिखी।

शेरिफ ने कहा कि कार में कई फर्जी पासपोर्ट और कई ड्राइविंग लाइसेंस पाए गए। उनके मुताबिक लाइसेंस प्लेट “घर में बनाई गई” थी और पंजीकृत नहीं थी। उन्होंने कहा कि संदिग्ध ने अधिकारियों को बताया था कि वह सॉवरेन सिटीजन नामक समूह का सदस्य है। शेरिफ ने आगे कहा, “मैं यह नहीं कहूंगा कि यह एक उग्रवादी समूह है। यह सिर्फ एक ऐसा समूह है जो सरकार और सरकारी नियंत्रण में विश्वास नहीं करता है। वे यह नहीं मानते कि सरकार और कानून उन पर लागू होते हैं।

पकड़े गए संदिग्ध की बात करें तो उसे दो अवैध हथियार रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। कुछ ही दिनों पहले वो 5,000 डॉलर की जमानत पर रिहा हुआ था। संघीय अधिकारियों के एक बयान के अनुसार, अमेरिकी अटॉर्नी कार्यालय, सीक्रेट सर्विस और FBI को गिरफ्तारी के बारे में जानकारी है। बयान में कहा गया है, अमेरिकी सीक्रेट सर्विस का आकलन है कि शनिवार को हुई घटना ने सुरक्षात्मक कार्यों को प्रभावित नहीं किया और पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप पर कोई खतरा नहीं है। हालांकि इस समय कोई संघीय गिरफ्तारी नहीं की गई है, लेकिन जांच जारी है। अमेरिकी अटॉर्नी कार्यालय, अमेरिकी सीक्रेट सर्विस सर्विस, एफबीआई – उन प्रतिनिधियों और स्थानीय भागीदारों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने कल रात की घटनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद की।