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झारखण्ड तक दिख रही उत्तर प्रदेश चुनाव की तपिश

देश में पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव की हलचल है। तारीख़ों का ऐलान हो चुका है और जैसे-जैसे मतदान नज़दीक आते जा रहे हैं, चुनावी तपिश बढ़ती जा रही है। देश के 28 राज्य और नौ केंद्र शासित प्रदेशों में उत्तर प्रदेश सियासी तौर पर सबसे महत्त्वपूर्ण रहा है; क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश चुनाव पर सभी की नज़रें टिकी हैं। इससे झारखण्ड में राजनीति करने वाले और राजनीति में रुचि रखने वाले लोग भी अछूते नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की सीमाएँ झारखण्ड से सटी हुई हैं।

ज़ाहिर है कि जब उत्तर प्रदेश की चुनावी तपिश बढ़ती है, तो उसकी तपिश झारखण्ड तक पहुँचने लगती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश और झारखण्ड का आपस में कई मायनों में गहरा रिश्ता है। लिहाज़ा अन्य चार चुनावी राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश को राज्य स्तर से ज़िला और प्रखण्ड स्तर तक के मीडिया में ज़्यादा तवज्जो मिलता है। चौक-चौराहों पर चुनावी चर्चा और राजनीतिक दल, ख़ासकर भाजपा और कांग्रेस की सियासी गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं।

झारखण्ड का गढ़वा ज़िला ख़ास महत्त्व रखता है। राज्य का यह एक मात्र ज़िला है, जिसकी सीमाएँ पड़ोस के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ की सीमाओं से लगती हैं। गढ़वा के उत्तर में बिहार का रोहतास व कैमूर ज़िला, दक्षिण में छत्तीसगढ़ का सरगुजा ज़िला और पश्चिम में उत्तर प्रदेश का सोनभद्र ज़िला है; जबकि पूर्व में ख़ुद झारखण्ड के पलामू और लातेहार ज़िले मौज़ूद हैं। यानी उत्तर प्रदेश की कई गतिविधियाँ झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते से प्रवेश करती हैं। फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़ गयी है, तो झारखण्ड में गढ़वा ज़िले के रास्ते यह सरगर्मी पूरे प्रदेश तक पहुँचने लगी है।

दोनों प्रदेशों का सियासी नाता

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में चार विधानसभा सीट घोरावल, राबट्र्सगंज, ओबरा और दुद्धी हैं। इन सीटों पर तो झारखण्ड का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा पूर्वांचल की कई सीटों पर बिहार और झारखण्ड का असर रहता है। क्योंकि पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति जाति, धर्म, सम्प्रदाय, आरक्षण आदि के इर्द-गिर्द घूमती है। ख़ासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों की राजनीति की पृष्ठभूमि में तो यही है। इसलिए भी इन राज्यों में चुनाव होने पर सीमा से सटे राज्यों में गतिविधियाँ तेज़ हो जाती हैं। कांग्रेस और भाजपा के कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। भाजपा के सांसद संजय सेठ, भाजपा के संगठन महामंत्री धर्मपाल, राजेश शुक्ला, गणेश मिश्रा समेत कई नेता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। वहीं कांग्रेस के पूर्व विधायक स्व. राजेंद्र सिंह का परिवार, धनबाद के सिंह मेंशन का परिवार समेत कई अन्य नेताओं का उत्तर प्रदेश से गहरा नाता है। प्रदेश के कई आईएएस, आईपीएस समेत अन्य अधिकारी, कर्मचारी और आम लोगों का उत्तर प्रदेश के मूलनिवासी होने के कारण उनका नाता है। उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में एक और समानता है। झारखण्ड की तरह उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभा सीटें आदिवासी (एसटी) बाहुल  हैं। जैसे इलाहाबाद के करछना से अलग होकर 2012 में बनी कोरांव विधानसभा सीट या सोनभद्र ज़िलाया फिर जौनपुर, ललितपुर, बलिया आदि इलाकों एसटी वोट किसी भी उम्मीदवार कीजीत-हार में बहुत मायने रखता है। इसलिए इन ज़िलों में झारखण्ड के नेताओं और कार्यकर्ताओं का महत्त्व बढ़ जाता है।

झारखण्ड के मन्दिरों में आस्था

चुनाव से पहले और जीत के बाद कई नेता अपने-अपने धर्म स्थली पर मत्था टेकने ज़रूर जाते हैं। झारखण्ड के चार धर्म स्थल उत्तर प्रदेश के नेताओं, विशेषकर पूर्वांचली नेताओं के लिए ख़ास मायने रखते हैं। देवघर का बाबा बैद्यनाथ मन्दिर, बासुकीनाथ मन्दिर, रामगढ़ स्थित रजरप्पा की माँ छिन्मस्तिका मन्दिर और नगर उंटारी स्थित श्री वंशीधर महाप्रभु का मन्दिर इनमें ख़ास हैं। यहाँ उत्तर प्रदेश के कई नेता चुनाव से पहले और चुनाव जीतने के बाद दर्शन और पूजन के लिए आते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही नेताओं का धीरे-धीरे आना-जाना भी शुरू हो गया है। इन जगहों के पुजारियों और पण्डों का कहना है कि अभी कोरोना संक्रमण की वजह से राज्य में कई तरह की पाबंदियाँ हैं। मन्दिर में प्रवेश और पूजा-अर्चना को लेकर कई तरह के नियम बनाये गये हैं। इस वजह से अभी आवाजाही कम है। अभी कम संख्या में उत्तर प्रदेश के नेताओं का आना शुरू हुआ है। पर उम्मीद है कि संक्रमण कम होने के बाद हर बार की तरह इस बार फिर उत्तर प्रदेश के कई सांसद, विधायक और चुनाव के प्रत्याशी पूजा-अर्चना और आशीर्वाद लेने पहुँचने लगेंगे।

नेताओं का प्रवास शुरू

उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगरमी धीरे-धीरे बढ़ रही है। कोरोना संक्रमण को देखते हुए चुनाव आयोग ने प्रचार को लेकर दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। सभाओं, रैलियों और अन्य कई तरह गतिबिधियों में ज़्यादा भीड़ जुटाने पर पाबंदियाँ लगी हुई हैं। अभी कम संख्या में दर-दर (डोर-टू-डोर) जाने की अनुमति मिली है। चुनाव आयोग ने कहा है कि समय-समय पर कोरोना स्थिति के आकलन के बाद पाबंदियों को घटाया जा सकेगा। यानी ज्यों-ज्यों पाबंदियाँ हटेंगी, चुनावी सरगरमी तेज़ होती जाएगी। इन सभी बातों को देखते हुए उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका तय करनी शुरू कर दी है। दोनों दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश में प्रवास शुरू हो गया है। भाजपा की पहली टीम में संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह, प्रदेश महामंत्री प्रदीप वर्मा, सांसद सुनील सिंह, विधायक भानु प्रताप शाही, सत्येंद्र तिवारी समेत क़रीब 70 लोग शामिल हैं। काफ़ी संख्या में नेता और कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश चले गये हैं।

ये नेता काशी के चंदौली, सोनभद्र व मिर्जापुर में चुनावी प्रबन्धन में सहायता कर रहे हैं। वहीं भाजपा की दूसरी टीम भी तैयार है, जिनका दौरा जल्द शुरू होगा। इनमें केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, केंद्रीय राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी, पूर्व मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास, पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी, सांसद व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश और अन्यनेताओं की जवाबदेही तय की जाएगी।

दूसरी ओर कांग्रेस की पहली टीम में विधायक प्रदीप यादव, अंबा प्रसाद, नमन विक्सल कोंगाड़ी, पूर्व विधायक जे.पी. गुप्ता, केशव महतो कमलेश, काली चरण मुंडा आदि शामिल हैं। जबकि दूसरी टीम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर, मंत्री आलमगीर आलम, बन्ना गुप्ता, बादल पत्रलेख और अन्य विधायकों को रखा गया है।

उत्तर प्रदेश में होगा झारखण्ड के कामकाज का प्रचार

झारखण्ड में गठबन्धन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। वहीं भाजपा मुख्य विपक्षी दल है। ज़ाहिर है यहाँ के नेता उत्तर प्रदेश के चुनावी प्रचार के दौरान अपने राज्य की बात रखने से नहीं चूकेंगे। प्रचार के लिए जाने वाले नेताओं ने बातचीत में कहा कि पार्टी द्वारा जो ज़िम्मेदारी मिलेगी, उसके साथ झारखण्ड की बातों से भी उत्तर प्रदेश की जनता को अवगत कराएँगे, जिससे लोग हमारी पार्टी के पक्ष में मतदान करें। भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश चुनाव में सिंगल इंजन और डबल इंजन की महत्ता को जनता को बताएँगे। राज्य में पूर्व की भाजपा सरकार में हुए विकास कार्यों को गिनाएँगे। वर्तमान सरकार की ख़ामियों की भी चर्चा करेंगे। साथ ही बिगड़ती विधि व्यवस्था, उग्रवादी घटनाओं, महिला अत्याचार और अवरुद्ध विकास जैसे मुद्दों को गिनाएँगे।

वहीं कांग्रेस नेताओं की टीम झारखण्ड में मॉब लिंचिंग के ख़िलाफ़ बने क़ानून, किसानों के हितों में उठाये गये क़दमों, किसान क़र्ज़ माफ़ी योजना और हाल ही में पेट्रोल पर ग़रीब तबक़े को दी जाने वाली 25 रुपये की राहत जैसे कार्यों को जनता को बताएगी।

 

“पार्टी के कई नेताओं, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश प्रवास शुरू हो गया है। झारखण्ड के नेता व कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के पार्टी प्रत्याशियों कार्यकर्ताओं के सहयोगी बन रहे हैं। ख़ासकर झारखण्ड सीमा से लगी विधानसभा सीटों में यहाँ के कार्यकर्ताओं का विशेष सहयोग लिया जाता है। ज्यों-ज्यों चुनाव कार्य आगे बढ़ेगा, प्रदेश के वरिष्ठ नेता, सांसद, विधायक सभी उत्तर प्रदेश की ओर रूख़ करेंगे। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर से एक कार्य-योजना तैयार की जा चुकी है।”

दीपक प्रकाश

सांसद एवं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष

 

“दिसंबर में प्रियंका गाँधी ने उत्तर प्रदेश को लेकर एक बैठक की थी। इस बैठक में प्रदेश से कई नेता शामिल हुए थे। इसमें उत्तर प्रदेश की चुनाव में सहयोग को लेकर भी बात हुई थी। पहले चरण में कई विधायकों को उत्तर प्रदेश बुलाया गया है। यहाँ से पार्टी के विधायकों, पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का उत्तर प्रदेश जाना शुरू हो गया है। दूसरे चरण में सरकार के मंत्री और अन्य वरिष्ठ नेता उत्तर प्रदेश जाएँगे। मेरा ख़ुद का भी कार्यक्रम है। सभी नेता उत्तर प्रदेश में पार्टी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करेंगे।”

राजेश ठाकुर

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष

खुलकर सामने नहीं आ रहे कोरोना के मामले

सरकार के पास नहीं किट के ज़रिये ख़ुद से जाँच करने वाले कोरोना संक्रमितों की सही जानकारी

कोरोना वायरस के मामले आये दिन बढ़ते जा रहे हैं। देश में हर रोज़ हज़ारों कोरोना संक्रमण के मरीज़ सामने आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने का कोई समुचित उपाय न होने के साथ-साथ इलाज की उचित व्यवस्था न होना भी है। हालाँकि राहत की बात यह है कि ओमिक्रॉन नामक कोरोना वायरस की इस तीसरी लहर में दूसरी लहर के मुक़ाबले मौतें कम हो रही हैं। लेकिन फिर भी अगर देखें, तो मौज़ूदा समय में स्वास्थ्य व्यवस्था का लगभग वही हाल है, जो पहले था। जबकि कोरोना की इस तीसरी लहर के बढऩे की आशंका लगातार बढ़ रही है। चाहिए तो यह था कि केंद्र सरकार समेत राज्य सरकारें पिछली ग़लतियों से सीख लेकर अस्पतालों में व्यवस्था दुरुस्त करतीं; लेकिन अस्पतालों की स्थिति ढाक के वही तीन पात जैसी ही है।

मौज़ूदा समय में जब सभी सरकारें बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था का दावा कर रही हैं, उसमें तमाम ख़ामियाँ सामने आ रही हैं। मौज़ूदा समय में सरकार ने कोरोना से लडऩे और बचाव के लिए घर बैठे जाँच के लिए जो किट दवाख़ानों (मेडिकल स्टोर्स) में उपलब्ध करायी है। इसके बावजूद भी कोरोना के सही आँकड़े सामने नहीं आ रहे हैं। क्योंकि घर बैठे जाँच करने पर जिनको कोरोना होने की पुष्टि होती है, उनमें से अधिकतर लोग डर या इस सोच के चलते कि घर में ही ठीक हो जाएँगे, छूत की इस महामारी को छिपाकर अपने तरीक़े से घर बैठे इलाज कर रहे हैं। ऐसी सोच वाले अधिकतर लोग मेडिकल स्टोर से दवा लेकर अपना स्वास्थ्य ठीक करने में लगे हैं। इससे कोरोना के मामले सही तरीक़े से सामने नहीं आ पा रहे हैं। कोरोना की किट जो मेडिकल स्टोर पर उपलब्ध है।

बड़ी बात यह है कि किट के नाम पर मेडिकल स्टोर वाले जमकर चाँदी काट रहे हैं। किट दामों में अलग-अलग मेडिकल स्टोर्स पर बड़ा अन्तर देखने को मिल रहा है। जितने मेडिकल स्टोर पर किट ख़रीदने जाओ, उतने ही अलग-अलग दाम किट के बताये जाते हैं। किसी मेडिकल स्टोर पर 200 रुपये में यह किट उपलब्ध है, तो कहीं 250 रुपये में, तो कहीं 300 रुपये में मेडिकल वाले इसे बेच रहे हैं। इससे ख़रीदारों को काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप को लेकर लोगों में सावधानी, सतर्कता तो बढ़ी है। लेकिन डर नहीं रहा है। डॉक्टर्स का कहना है कि कोरोना जबसे सियासी लोगों के लिए लाभ-हानि का कारण बना है, तबसे देश में कोरोना को लेकर लोगों के बीच में एक बात सामने आयी है कि कोरोना वायरस से ज़्यादा सियासी वायरस फैल रहा है। यह सियासी वायरस लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ तो कर ही रहा है, मानसिक तौर पर भी बीमार कर रहा है।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव व कोरोना विशेषज्ञ डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना वायरस के कई ऐसे मामले हर रोज़ ऐसे लोगों के भी आ रहे हैं, जिनको कोरोना वायरस की पहली लहर में संक्रमण हुआ था। कुछ को तो पहली के बाद दूसरी लहर में भी कोरोना हुआ था और अब तीसरी लहर में भी कोरोना हुआ है। और तो और उन्होंने कोरोना की दोनों ख़ुराक भी ली (दोनों टीके भी लगवाये) हैं। ऐसे में इन कोरोना मरीज़ों का इलाज भी चल रहा है।

मतलब साफ़ है कि कोरोना अब ज़्यादा घातक नहीं है। बस ज़रूरत है, तो सही समय पर सही तरीक़े से इलाज करवाने की। ताकि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोका जा सके और किसी प्रकार की स्वास्थ्य हानि या जान की हानि न हो सके।

डॉक्टर अनिल बंसल ने कहा कि विदेशों में कई-कई स्वास्थ्य एजेंसियाँ बीमारियों पर काम करती हैं। कोरोना पर भी कर रही हैं। ये एजेंसियाँ बीमारियों को लेकर अपनी राय रखती हैं और इलाज व बचाव के लिए सुझाव देती हैं। लेकिन भारत देश में स्वास्थ्य एजेंसियों से ज़्यादा सरकार के कुछ शक्तिशाली लोग ही एजेसियों का काम कर रहे हैं। वे जो कह रहे हैं, वही हो रहा है। इससे कोरोना पर क़ाबू पाना और भी मुश्किल हो रहा है। क्योंकि कोरोना पर डॉक्टरों और विशेषज्ञों के ज़्यादा राजनीतिक लोग ये मानते हैं कि अगर कोरोना के बड़े हुए मामले सामने आये या दिखाये गये, तो सरकार की बदनामी होगी। इसलिए न कोरोना की ज़्यादा जाँच करवाओ, और न कोरोना के मामले बड़ी संख्या में सामने लाओ। यह एक घातक सोच है, जिसका देर-सवेर देशवासियों को सामना ज़रूर करना पड़ेगा।

कोरोना वायरस को लेकर समय-समय पर जागरूक करने वाले डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी ने बताया कि जब तक देश के गाँव-गाँव में स्वास्थ्य का बुनियादी ढाँचा सही नहीं होगा, तब तक देश से कोरोना को हरा पाना मुश्किल होगा। क्योंकि जो सरकार ने किट के ज़रिये फिट रहने का फार्मूला (सूत्र) दिया है, उससे कोरोना के रोगियों की संख्या तो दिख रही है; लेकिन यह संख्या सरकारी आँकड़ों में दर्ज नहीं हो पा रही है। गाँव-गाँव में जानकारी के अभाव में लोग कोरोना का भी खाँसी-जुकाम समझकर इलाज कर रहे हैं। उनको डर लगता है कि कोरोना होने की अगर पुष्टि हो गयी, तो निश्चित तौर पर वे अलग-थलग पड़ जाएँगे और अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है। उनमें यह भी मान्यता घर कर रही है कि अगर अस्पताल पहुँच गये, तो सही होने की सम्भावना कम ही होती है। इसलिए वे कोरोना का इलाज न के बराबर कराकर समाज में परिवार में संक्रमण को फैला रहे हैं। इसलिए सरकार को जल्दी-से-जल्दी कोई ठोस कारगर क़दम उठाने होंगे।

साकेत मैक्स के फेफड़े प्रत्यारोपण विशेषज्ञ डॉक्टर राहुल चंदौला ने बताया कि कोरोना हो या अन्य बीमारी हो, समय पर इलाज होना चाहिए। रहा कोरोना पर क़ाबू पाने का सवाल, तो इसके लिए हमें कोरोना से बचाव के लिए जारी दिशा-निर्देश का पालन करना होगा। मास्क लगाकर चलें और दो गज़ दूरी का पालन करें। जब भी किसी से बात करें, तो मुँह को मास्क से ढँककर ज़रूर रखें, ताकि किसी प्रकार का वायरस किसी को कोई नुक़सान न पहुँचा सके।

कैथ लैब के निदेशक डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना, हृदय और अस्थमा के मामले लगभग एक जैसे होते हैं। इनमें स्वास्थ्य की जाँच बहुत ज़रूरी होती है। लोगों को चाहिए कि वे घबराएँ नहीं। अगर बुख़ार के साथ गले में खिंचाव हो और बैचेनी हो, तो तुरन्त डॉक्टर से परामर्श लें; ताकि बीमारी को समय रहते पहचाना जा सके और इलाज हो सके। डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि अगर कोरोना के बढ़े हुए मामले सामने आ रहे हैं, तो इसकी वजह है कि कम ही लोगों ने टीके लगवाये हैं। जिनको कोरोना हो रहा है, उसकी वजह उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना है।

स्वास्थ्य मिशन से जुड़े आलोक कुमार का कहना है कि कोरोना को लेकर लोगों में एक आदत-सी बन गयी है कि कोरोना लम्बे समय तक रहने वाला है। ऐसे में डरने की बजाय बचने की ज़रूरत पर लोग ख़ुद बल दे रहे हैं। उनका कहना है कि कोरोना में ओमिक्रॉन नाम का जो नया स्वरूप सामने आया है, उसकी जाँच तो महानगरों में हो रही है। अगर ज़िला स्तरीय और तहसील स्तर पर भी जाँच होने लगे, तो सही-सही पता चल सकेगा कि ओमिक्रॉन नामक बीमारी है कि नहीं।

इससे काफ़ी हद तक कोरोना पर क़ाबू पाया जा सकता है। सरकार को इस मामले में गम्भीरता से कोई कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है। अन्यथा कोरोना लोगों के स्वास्थ्य को तो बर्बाद कर ही रहा है, बल्कि देश की अर्थ-व्यवस्था को भी चौपट कर देगा, जिससे ज़्यादा तबाही के हालात बनेंगे।

बजट : आयकर स्लैब राहत नहीं, 60 लाख नई नौकरियां, 5G इसी साल से होगा शुरू

राकेश रॉकी

बजट को अगले 25 साल का ब्लू प्रिंट बताते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को लोकसभा में माली साल 2022-23 के लिए 39.45 लाख करोड़ रूपये का बजट पेश पेश किया। इसमें आयकर स्लैब में कोई राहत नहीं दी गयी है, लेकिन कई दूसरी बड़ी घोषणाएं की गयी हैं। ‘मेक इन इंडिया’ के तहत 60 लाख नई नौकरियों को सृजित करने और  इस साल संचार में 5G लागू करने की बात कही गयी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे ‘जीरो सम बजट’ जबकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘पेगासस स्पिन’ बजट बताया है।

बजट में कारपोरेट टैक्स को 18 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी करने जबकि सरचार्ज को 12 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने का प्रस्ताव है ताकि सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा दिया जा सके। क्रिप्टो करेंसी से होने वाली आमदनी पर अब 30 फीसदी टैक्स लगेगा जबकि वर्चुअल करेंसी पर एक फीसदी टीडीएस भी लगेगा। बजट में इनकम टैक्स स्लैब में कोई बदलाव नहीं किया गया है। लॉन्ग टर्म केपिटल  गेन पर 15 फीसदी का सरचार्ज लगेगा।

गरीबों को राहत देते हुए पीएम आवास योजना 2022-23 में 80 लाख घर लोगों को मुहैया कराएं जाएंगे और 48 हजार करोड़ रुपये इसके लिए आवंटित किए गए हैं। इसके लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम किया जाएगा, ताकि जरूरतमंदों को घर दिया जा सके। बजट के अनुसार चमड़े के सामान सस्ता होंगे, कपड़ा भी सस्ता होगा। इसके अलावा मोबाइल चार्जर और मोबाइल लेंसेस सस्ते होंगे। इसके अलावा खेती का सामान सस्ता होगा और पॉलिश्ड हीरा सस्ता होगा।

एनपीएस में अब 10 फीसदी  की जगह 14 फीसदी योगदान होगा। सरकारी कर्मचारियों के लिए एनपीएस योजना में टैक्स छूट का दायरा बढ़ा। नया टैक्स रिफॉर्म लाने की योजना है और कर्मचारियों के पेंशन पर भी टैक्स छूट मिलेगी। एनपीएस में केंद्र और राज्य का योगदान अब 14 फीसदी होगा।

वित्त मंत्री ने कहा – ‘रिजर्व बैंक डिजिटल रुपया 2022-23 में लागू करेगा। बिटकॉइन से निपटने के लिए सरकार का यह बड़ा कदम है। ग्रीन बॉन्ड के जरिए पैसे जुटाए जाएंगे। ब्लैक चेन तकनीक पर डिजिटल करेंसी जारी की जाएगी। निजी निवेश को प्रेरित करके लिए सरकार कदम उठाएगी।’

रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान और विकास के लिए रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान के बजट को 25 फीसदी आरएंडडी के लिए रखा गया है। डीआरडीओ और अन्य संस्थाएं तकनीक को विकसित कर सकती हैं। ये तमाम वे क्षेत्र हैं जहां भारतीय उद्योगों को और ज्यादा दक्ष बनाया जा सकता है। रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान के लिए स्टार्टअप को मौका दिया जाएगा। डिफेंस सेक्टर में 65 फीसदी स्वदेसी तकनीक को बढ़ावा दिया जाएगा।

सेज की जगह नया कानून लाया जाएगा। सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए 19,500 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। राज्यों को बिना ब्याज के 50 साल के लिए कर्ज दिया जाएगा। राज्यों की मदद के लिए एक लाख करोड़ रुपये का प्रस्ताव है।

देश के ग्रामीण और दूर दराज के क्षेत्रों के लिए बैंक और मोबाइल आधारित सुविधाओं के लिए एक सर्विस एलोकेशन फंड मुहैया कराया जाएगा। सरकार का विजन है कि देश के सभी गांव और वहां रहने वाले लोग डिजिटल साधन का इस्तेमाल कर सकें। एक राष्ट्र एक रजिस्टरीकरण पॉलिसी को लागू किया जाएगा। गांवों में ब्रॉड बैंड सर्विस को बढ़ावा दिया जाएगा।

वित्त मंत्री ने कहा कि ई-पासपोर्ट की सुविधा शुरू की जाएगी। वित्त वर्ष 2022-23 में चिप वाले पासपोर्ट दिए जाएंगे। साल 2022 से 5जी सर्विस को शुरू किया जाएगा। 59 स्पेक्ट्रम की नीलामी की जाएगी इसके बाद निजी फर्म 2022-23 में 5जी सर्विस शुरू करेंगे।

कंपनियों को बंद करने की योजना को जिसमें अभी दो साल का वक्त लगता है उसे घटाकर 6 महीने किया जाएगा। पारदर्शिता को बढ़ाने और देरी को कम करने के लिए ऑनलाइन ई-बिल सिस्टम सभी केंद्रीय मंत्रालयों में खरीद के लिए लागू किया जाएगा। यह सिस्टम कॉन्ट्रैक्टर्स और आपूर्तिकर्ता को डिजिटल बिल हासिल हो सकेंगे। बैंक गारंटी की जगह श्योरिटी बॉन्ड को सरकारी खरीद के मामले में स्वीकार किया जाएगा।

सीतारमण ने कहा – ‘पुराने ढर्रे पर शहरी प्लानिंग को आगे नहीं बढ़ाया जाए। इसके लिए संस्थानों की जरूरत है। बिल्डिंग बाई लॉज को आधुनिक बनाया जाएगा। टाउन प्लानिंग को भी सुधारा जाएगा। इस तरीके की प्लानिंग होगी कि आवाजाही में आसानी होगी। अमृत योजना इसे लागू करने के लिए लाया जाएगा। शहरी विकास को भारतीय जरूरतों के अनुसार बनाया जाए सके इसके लिए 5 मौजूदा संस्थानों को चिन्हित करके उन्हें सेंटर ऑफ एक्सिलेंस का दर्जा दिया जाएगा। इन सभी संस्थानों को 2500 करोड़ का फंड दिया जाएगा। प्रदूषण मुक्त परिवहन के साधनों को बढ़ावा दिया जाएगा।’

वित्त मंत्री ने कहा कि पोस्ट ऑफिस खातों के जरिए किसानों को सुविधा मुहैया कराई गई है। सरकार का प्रयास है कि डिजिटल बैंकिंग की सुविधा को देश के सभी इलाके में सही तरीके से पहुंचाए जा सके। देश के 75 जिलों 75 बैकिंग यूनिट स्थापित करेंगे। ताकि लोग अधिक से अधिक डिजिटल भुगतान कर सके। पोस्ट ऑफिस और बैंक को आपस में जोड़ा जाएगा। आपस में पैसों का लेनदेन होगा। पोस्ट ऑफिस में भी अब ऑनलाइन ट्रांसफर होगा।

वित्त मंत्री ने कहा – ‘हम विश्वास आधारित कर व्यवस्था बनाने चाहते हैं। गलतियों को दूर करने के लिए करदाताओं को अतिरिक्त भुगतान की सुविधा के साथ इनकम टैक्स रिटर्न को अपडेट करने की सुविधा होगी। टैक्स सिस्टम में सुधार की प्रक्रिया जारी रहेगी। अब करदाता अपने रिटर्न को अपडेट कर सकता है।’
रेलवे में अगले तीन साल में 400 नई वंदेभारत ट्रेन चलाने की घोषणा भी बजट में की गयी है।

पंजाब में भर्ती प्रक्रिया में गड़बड़ी पर चला न्यायिक डंडा

सरकारी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल करके की गयी थीं सहायक ज़िला अधिवक्ता की नियुक्तियाँ, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कीं रद्द

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पंजाब के अनुबन्ध आधार से नियमित हो चुके 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता (असिस्टेंट डिस्ट्रिक्ट अटार्नी) यानी एडीए की नियुक्ति को रद्द करते हुए नये सिरे से भर्ती प्रक्रिया अपनाने को कहा है। आदेश में राज्य सरकार से इन पदों के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा एक वर्ष के अन्दर चयन प्रक्रिया को पूरा कर लेने का कहा गया है। यह मामला न्यायिक व्यवस्था में राजनीतिक साँठगाँठ से जुड़ा है, जिसमें सरकारी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल कर अभ्यर्थियों को फ़ायदा पहुँचाया गया।

अक्टूबर, 2009 में पंजाब सरकार ने अनुबन्ध आधार पर 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता के लिए रिक्तियाँ निकाली थीं। अलग-अलग ज़िलों में इसकी भर्ती प्रक्रिया हुई। चयन समिति सदस्यों में ज़िला उपायुक्त, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और ज़िला अधिवक्ता को शामिल किया गया। इस चयन प्रक्रिया में 20 नंबर का साक्षात्कार भी रखा गया था। राज्य के अलग-अलग ज़िलों से चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद इसकी संयुक्त तौर पर वरीयता सूची नहीं बनायी, नतीजा यह रहा कि साक्षात्कार में 20 में से 18 नंबर लेने वाला नहीं चुना गया, जबकि किसी ज़िले में 16 नंबर वाला चुन लिया गया। इस चयन प्रक्रिया में कुछ योग्य वंचित रह गये। नियुक्तियाँ स्पष्ट तौर पर अनुबन्ध आधार पर निकाली गयी थी, इन्हें नियमित नहीं किया जा सकता था। लेकिन सरकारी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सन् 2013 में इन 98 चयनित लोगों को नियमित कर दिया गया।

उधर, पंजाब लोक सेवा आयोग की इन पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी थी। चूँकि अनुबन्ध आधार वालों को नियमित कर उन्हें सुरक्षित किया जाना था, लिहाज़ा आयोग की सीधी भर्ती प्रक्रिया तेज़ी से नहीं हो सकी या स्पष्ट कहें, तो उस होने नहीं दिया गया। यह मामला पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की सरकार के समय का है। सरकार के क़रीबी लोगों को पहले अनुबन्ध आधार पर फिर सरकारी नीतियों का अपने तौर पर इस्तेमाल से उन्हें नियमित कर सहायक ज़िला अधिवक्ता जैसे अहम पद पर बैठाना था।

अनुबन्ध आधार पर हुई चयन प्रक्रिया किसी भी तरह से पारदर्शी नहीं थी। लिहाज़ा तब इसे लेकर तब काफ़ी हो-हल्ला हुआ था। लेकिन हुआ वही, जो सरकार चाहती थी। बाद में पंजाब लोक सेवा आयोग ने भी चयनित लोगों की सूची जारी कर दी। लेकिन उससे पहले 98 पदों पर चुने गये लोगों को नियमित कर दिया गया। सन् 2016 में सरकार के नियमित करने के फ़ैसले को ग़लत बताते हुए इस न्यायालय में चुनौती दी गयी। लगभग पाँच साल तक मामला न्यायालय में चला आख़िरकार फ़ैसला चुनौती देने वालों के पक्ष में आया है। इस फ़ैसले से साबित होता है कि सरकारी स्तर पर किस तरह अपनी ताक़त का इस्तेमाल अपने हिसाब से किया जा सकता है!

सरकारी नौकरियों के चयन में पूरी तरह पारदर्शिता होनी चाहिए, ताकि उसे किसी न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। सत्ता पक्ष क़रीबी रसूख़दार लोगों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए अपनी ही बनायी नीतियों में बदलाव बड़ी आसानी से कर देता है। सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पद द्वितीय समूह (ग्रुप बी) में आता है। प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय (बी) पदों की भर्ती के लिए पंजाब लोक सेवा ही अधिकृत है, जो सीधे तौर पर चयन प्रक्रिया अपनाती है।

सवाल यह भी है कि सन् 2009 में क्या राज्य सरकार ने 98 पदों की रिक्तियाँ क्या किसी ख़ास मक़सद के लिए निकाली थीं? सत्ता पक्ष से जुड़े कुछ लोगों को इसके माध्यम से पहले अनुबन्ध आधार पर और बाद में नियमों और नीतियों की आड़ में उन्हें स्थायी करना था। पहला आरोप तो यही है कि ज़िला स्तर पर हुई चयन प्रक्रिया मनदण्डों के अनुसार नहीं थी। दूसरा हर ज़िले की अलग-अलग रिपोर्ट थी। पूरे राज्य की संयुक्त तौर पर वरीयता सूची बनायी जाती, तो कम-से-कम भेदभाव का आरोप तो नहीं लगता। लेकिन जहाँ तक बात अनुबन्ध आधार वालों को नियमित करने की है, वह पूरी तरह से ग़लत था।

मज़ेदार बात यह कि अनुबन्ध आधार पर चुने गये बहुत से अभ्यर्थी इस पद के लिए पंजाब लोक सेवा आयोग की सीधी भर्ती परीक्षा पास नहीं कर सके। कई वंचित लोग चाहे अनुबन्ध आधार पर अपनी योग्यता साबित नहीं कर सके; लेकिन वे सीधी भर्ती मेज़ चुने गये। जबकि कुछेक तो राज्य की न्यायिक सेवा परीक्षा पास करने में सफल रहे। यह कैसे सम्भव हुआ कि अनुबन्ध आधार पर तो कुछ ने बहुत अच्छे अंक पाकर वरीयता सूची में स्थान बना लिया; लेकिन आयोग की परीक्षा में वे फिसड्डी साबित हुए। योग्यता का पैमाना सभी के लिए बराबर रखा गया। लेकिन बहुत-से वरीयता सूची में वही आये, जिन्हें समायोजित (एडजस्ट) किया जाना था। उच्च न्यायालय के 25 पेज के फ़ैसले से स्पष्ट होता है कि अनुबन्ध आधार वालों को नियमों और नीतियों को अपने अनुसार बदलकर उन्हें नियमित किया जाना ग़लत है। चूँकि मामला आठ साल पुराना है और मौज़ूदा सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। फ़ैसला इस सरकार या किसी भी आने वाली सरकार के लिए सबक़ के तौर पर है। न्यायिक व्यवस्था में इस तरह के राजनीतिक और अन्य प्रभाव से समायोजित करना पूरे तंत्र के लिए गम्भीर बात है। सामान्य नौकरी में भी योग्यता की उपेक्षा कर चहेतों को समायोजित करना किसी के साथ अन्याय है, फिर न्यायिक व्यवस्था में किसी अहम पद पर ऐसा करना बेहद गम्भीर है। योग्यता को दर-किनार कर समायोजित होने वाले लोग न्यायिक सेवा में जाएँगे, तो क्या हो सकता है? इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

पंजाब लोक सेवा आयोग की सीधी भर्ती से चुने गये एक सहायक ज़िला अधिवक्ता के मुताबिक, उच्च न्यायालय का फ़ैसला बहुत-ही सराहनीय है। कोई भी सरकार हो, द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के पद की नियुक्ति को किसी भी तरह की नीति अपनाकर उन्हें नियमित नहीं कर सकती। अगर वह ऐसा करती है, तो वह न्यायालय में अपने पक्ष को मज़बूती से नहीं रख सकेगी। इंसाफ़ के लिए लड़ाई लम्बी चली; लेकिन सच की जीत हुई है। जब सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पदों के लिए पंजाब लोक सेवा आयोग भर्ती प्रक्रिया चल रही है, तो अनुबन्ध आधार वालों को चुने गये लोगों की सूची जारी होने से पहले नियमित करने की क्या जल्दी थी?

इससे आयोग द्वारा चुने गये सफल लोग अब तक उनसे जूनियर ही रहे। उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने बहुत राहत दी है। फ़ैसले के बाद अब आयोग की नयी चयन प्रक्रिया से उन्हें गुज़रना पड़ेगा और नियुक्त होने वाले वरिष्ठ नहीं रहेंगे। उच्च न्यायालय का फ़ैसला पक्ष में आने के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल कक्कड़ कहते हैं कि उनका पक्ष शुरू से ही मज़बूत था, उन्हें और उनके पक्ष को जीत का भरोसा था। इस मामले में कुछ चहेतों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए शुरू से लेकर नियमित होने तक जिस तरह से सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया गया, वह सामने आ गया।

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के पदों के लिए सीधी भर्ती के लिए केवल राज्य का लोक सेवा आयोग ही अधिकार रखता है। सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पद के लिए रिक्तियों के अनुसार आयोग काम कर रहा है; लेकिन उसी दौर में अनुबन्ध आधार वालों को नियमित करने का काम तेज़ी से हो रहा है। मतलब स्पष्ट है कि आयोग की वरीयता सूची जारी होने से पहले अनुबन्ध आधार पर नियुक्त लोगों को हर हालत में नियमित कर दिया जाए। उच्च न्यायालय के फ़ैसले से आठ साल से कार्यरत सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) में निराशा है। नियुक्तियाँ रद्द होने के बाद अब उन्हें नये सिरे से अपनी योग्यता साबित करनी होगी। उन्हें फिर से परीक्षा में बैठने और उम्र में छूट देने का प्रावधान रहेगा। फ़ैसले से नये लोगों को सरकारी सेवा में आने का मौ$का भी मिलेगा।

आयोग भी कम नहीं

तृतीय समूह (ग्रुप सी) और चतुर्थ समूह (ग्रुप डी) के लिए राज्यों में अधीनस्थ सेवा बोर्ड और प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय समूह (ग्रुप बी) के लिए राज्य लोक सेवा आयोग भर्ती कराता है। इनकी चयन प्रक्रिया को लेकर सवाल उठते रहे हैं। पहले भी इसे लेकर मामले न्यायालयों में जाते रहे हैं और सरकारों की किरकिरी भी होती रही है। बावजूद इसके अन्दरख़ाने बहुत कुछ होता है। एक दौर में पंजाब लोक सेवा आयोग की छवि भी धूमिल हुई थी। जब भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा मामला सामने आया था। तब न केवल आयोग के अध्यक्ष रवि सिद्धू की बदनामी हुई, बल्कि राज्य सरकार की भी काफ़ी आलोचना हुई। पिछले दिनों हरियाणा में भ्रष्टाचार का मामला सामने आया, जिसमें घूस के बदले नौकरी देने के आरोप राज्य लोक सेवा आयोग के एक अहम पद पर बैठे अधिकारी पर लगे।

विवाह और बलात्कार!

विवाहित जोड़े के बीच बिना सहमति सम्भोग को अपराध मानने का न्यायालय में है मामला

नारीवादी लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार (पति पत्नी के बीच) को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग करते रहे हैं; क्योंकि उनका मत है कि विवाह आजीवन सहमति नहीं है। दरअसल भारत दुनिया के उन 36 देशों में से एक है, जहाँ वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। हालाँकि नारीवादी और महिला अधिकार कार्यकर्ता लम्बे समय से इसके लिए आवाज़ उठा रहे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय अब देश में वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण और बलात्कार के लिए पतियों को प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के ख़िलाफ़ कुछ याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने पाया कि निर्णय पर पहुँचने से पहले यह नाम मात्र की ही खुली चर्चा कर रहा है। पीठ ने कहा कि एक पति पत्नी को मजबूर नहीं कर सकता। लेकिन न्यायालय इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती कि अगर वह इस अपवाद को ख़ारिज़ कर देती है, तो क्या होता है? पीठ ने कहा कि अगर पति एक बार भी ऐसा करता है, तो उसे 10 साल के लिए जेल जाना होगा। हमें इस मुद्दे पर बहुत गहन विचार की ज़रूरत है। चूँकि पत्नी से बलात्कार अपराध की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) वैवाहिक बलात्कार पर कोई अलग से आँकड़े नहीं रखता है।

सन् 2000 में विधि आयोग ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि यह वैवाहिक सम्बन्धों के साथ अत्यधिक हस्तक्षेप करने जैसा हो सकता है। सन् 2013 में जे.एस. वर्मा समिति ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन चार साल बाद एक संसदीय स्थायी समिति ने इसका इस आधार पर विरोध किया कि अगर इसे अपराध के तहत लाया गया, तो पूरी परिवार व्यवस्था तनावपूर्ण हो जाएगी।

घरेलू हिंसा एक ऐसा अपराध है, जो बड़े पैमाने पर है। लेकिन इसकी रिपोर्ट बहुत कम होती है। इसलिए विवाह में यौन हिंसा की आपराधिकता को स्वीकार किया जाना चाहिए और विवाह को आजीवन सहमति के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। नारीवादियों और महिला अधिकार समूहों की लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग रही है। रूढि़वादी सोच यह है कि शादी के बाद महिला का शरीर उसके पति की सम्पत्ति है। दूसरे शब्दों में एक महिला, चाहे वह इसे पसन्द करे या न करे; विवाह के बाद पति को स्थायी सहमति और सहवास (सम्भोग) की अनुमति देती है। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कहा था कि एक पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना बलात्कार नहीं होगा, भले ही वह पत्नी की सहमति के विरुद्ध हो।

सन् 2018 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा लोकसभा में एक निजी विधेयक पेश किया गया था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अन्य अधिकारों के साथ अपराध की श्रेणी में लाने की माँग की गयी थी। हालाँकि निर्वाचित सरकार से इसके लिए समर्थन हासिल करने में विफल रहने के कारण यह मसला ठण्डे बस्ते में चला गया। भारत के बलात्कार क़ानूनों में बदलाव की सिफ़ारिश करते हुए निर्भया बलात्कार मामले के बाद गठित न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति ने सन् 2013 में कहा था कि पति-पत्नी के बीच जबरन यौन सम्बन्ध को भी बलात्कार माना जाना चाहिए और इसमें एक अपराध की तरह दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।

हालाँकि सरकार ने इस तर्क को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि इस तरह के क़दम से विवाह नाम की संस्था नष्ट हो जाएगी। महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने सन् 2007 और सन् 2014 में भारत से वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए कहा था। इसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे तर्कों में से एक यह है कि यदि यह क़ानून लागू होता है, तो महिलाएँ इसका दुरुपयोग कर सकती हैं और वे अपने पतियों के ख़िलाफ़ बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करवा सकती हैं।

न्यायपालिका को भारतीय दण्ड संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार को अपराध के रूप में रखने की तत्काल आवश्यकता है। अब दिल्ली उच्च न्यायालय एनजीओ आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोके्रटिक वीमेन्स एसोसिएशन और दो अन्य लोगों की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिन्होंने भारतीय क़ानून में अपवाद को ख़त्म करने की माँग करते हुए कहा है कि विवाहित महिलाओं के साथ उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीडऩ उनके ख़िलाफ़ भेदभाव के रूप में रखा जाए। दलील यह है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-375 एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती सम्भोग की छूट देती है।

लिहाज़ा बलात्कार के अपराध को उत्पीडऩ के ज़रिये के रूप में देखा जाना चाहिए। आईपीसी की धारा-375 वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर करती है और यह अनिवार्य करती है कि एक पुरुष का अपनी पत्नी, जिसकी उम्र 15 वर्ष से कम नहीं है; के साथ सम्भोग बलात्कार नहीं है। न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने कहा कि न्यायालय महिलाओं की शारीरिक अखण्डता को महत्त्व देते हुए लोगों को यह सन्देश दे कि वैवाहिक साथी की सहमति का सम्मान किया जाना चाहिए। जॉन ने तर्क दिया कि खण्ड-2 में जो लिखा गया है, जो 200 साल पहले हमारे औपनिवेशिक आकाओं का प्रतिपादित सिद्धांत है, जो हम पर थोप दिया गया है। यह न भारतीय पुरुष और न ही भारतीय महिला को दर्शाता है, निश्चित रूप से भारतीय विवाह को तो बिल्कुल भी नहीं। औपनिवेशिक आकाओं ने इसे शुरू किया और हम इस विरासत को ढोये जा रहे हैं।

उन्होंने तर्क दिया कि यह धारा विवाह में पति या पुरुष को प्रभुत्व देती है, जबकि पत्नी द्वारा नहीं कहने की पूरी तरह अवहेलना करते हुए उसे गठबन्धन में एक अधीनस्थ भागीदार बना दिया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि यदि न्यायालय इसे असंवैधानिक मान लेती है, तो ऐसा करके वह कोई नयी आपराधिक धारा नहीं बनाएगी। क्योंकि यह पहले से ही मौज़ूद है। हाँ, व्यक्तियों का एक वर्ग, जो वर्तमान में अभियोजन से क़ानूनी प्रतिरक्षा का आनन्द लेता है; वह ज़रूर इसे खो देगा।

उन्होंने तर्क दिया कि विवाह के भीतर सम्भोग या सार्थक वैवाहिक सम्बन्ध की अपेक्षा उचित है और किसी दिये गये मामले में सम्भोग के लिए एकतरफ़ा अपेक्षा भी हो सकती है। जॉन ने कहा कि यदि वह अपेक्षा पूरी नहीं होती है, तो पति या पत्नी को नागरिक उपायों का सहारा लेने का पूरा अधिकार है। हालाँकि जब शादी के रिश्ते में इच्छा जबरदस्ती और बल के आधार पर ज़ोर-जबरदस्ती वाली गतिविधि में बदलकर ग़ैर-सहमति के कारण नुक़सान या चोट पहुँचाती है, तो निश्चित ही लैंगिक गतिविधि को अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए।

जॉन ने इसके परिणामों का ज़िक्र करते हुए पूछा कि क्या न्यायालय एक पति, जो एक यौन रोग से पीडि़त है; को ऐसा दावा करने की अनुमति देगी और ऐसे मामले में भी अनुमति देगी, जहाँ एक महिला बीमार है और यौन सम्बन्ध उस पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है?

पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजशेखर राव ने तर्क दिया कि बलात्कारी रिश्ते के बावजूद बलात्कारी रहता है। जैसा कि उन्होंने वर्मा समिति की रिपोर्ट में पढ़ा था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने की सिफ़ारिश की गयी थी। इस प्रकार वैवाहिक बलात्कार एक क़ानूनी कल्पना पैदा करता है, भले ही इसमें बलात्कार के तहत आने वाली तमाम आपराधिक गतिविधि वाली गतिविधि हुई हों। क़ानून इसे इसलिए बलात्कार नहीं मानता है; क्योंकि एक पक्ष विवाहित हैं और महिला की आयु भी 15 वर्ष से ऊपर है।

दिल्ली के एक वकील और उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका का मसौदा तैयार करने वाले गौतम भाटिया ने कहा कि अगर शादी की औपचारिकता से पाँच मिनट पहले यौन हमला होता है, तो यह बलात्कार है। लेकिन पाँच मिनट बाद वही गतिविधि ऐसी (बलात्कार) नहीं है। निर्विवाद तथ्य यह है कि वैवाहिक बलात्कार का अर्थ है कि इसमें सवाल उठा सकने वाली सहमति अप्रासंगिक है। केवल इसी कारण से न्यायालय, जिसका कार्य सभी के समान व्यवहार और ग़ैर-भेदभाव के अधिकार को बनाये रखना और उसकी पुष्टि करना है; को इसे रद्द कर देना चाहिए।

रोज़गार माँगने की क़ीमत पिटाई!

भर्तियों में देरी और रोज़गार माँगने के बदले युवाओं की पिटाई से खुल सकता है बड़े आन्दोलन का रास्ता 

बिहार में रेलवे भर्ती के नतीजों में धाँधली के आरोपों के बाद शुरू हुआ छात्र आन्दोलन क्या देश भर में रोज़गार के मुद्दे को एक बड़े रूप में खड़ा कर सकेगा? यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन छात्रों / युवाओं ने जिस तरह इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखायी है और सत्ताधीशों ने इसे कुचलने की कोशिश की है, उससे यह तो साफ़ है कि चुनाव से ऐन पहले शुरू हुए इस आन्दोलन ने सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है। फ़िलहाल यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बिहार से शुरू हुआ छात्र विरोध उत्तर प्रदेश में भी पाँव पसार रहा है। हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के बाद यह नये रूप में सामने आये और सरकारें इससे मुश्किल में पड़ती दिखें।

आन्दोलन बिहार में रेलवे भर्ती में नतीजों में धाँधली के विरोध में शुरू हुआ। ज़ाहिर है इससे पता चलता है कि किस स्तर पर भ्रष्टाचार योग्य उम्मीदवारों को उनके हक़ से वंचित कर रहा है। सबसे ख़राब बात यह रही कि रोज़गार का हक़ माँगने सडक़ों पर उतरे युवाओं को पुलिस ज़ुल्म का शिकार बनाया गया। उन्हें लाठियों से लहूलुहान करके उनकी आवाज़ दबाने की कोशिश की गयी।

आन्दोलन के बीच ही कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इन छात्रों के प्रति अपना समर्थन ज़ाहिर किया। लेकिन मीडिया और बाक़ी राजनीतिक दल इस विरोध पर ख़ामोशी अख़्तियार किये रहे। दिन-रात राजनीतिक चाटुकारिता में मग्न मीडिया को यह कोई बड़ी ख़बर नहीं लगी, जबकि सच्चाई यह है कि यही इस देश के असली मुद्दे हैं। बिहार बन्द के दिन 28 जनवरी को जाकर राजनीतिक दलों ने छात्रों के नाम पर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश की। जबकि आन्दोलन के दौरान जब छात्र सडक़ों पर पुलिस के हाथों लहूलुहान हो रहे थे, तब उनकी भूमिका शून्य ही थी।

छात्रों का कहना था कि उन्होंने 10 दिन तक लगातार ट्वीट किये। एक करोड़ ट्वीट हुए; लेकिन सरकार सोयी रही। इसके बाद हमें मजबूरी में सडक़ पर उतरना पड़ा। सरकार के इस मामले में समिति बनाने को भी छात्र शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनका कहना है कि सरकार समिति बनाकर हमारे ग़ुस्से को ठंडा करना चाहती है, ताकि उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के चुनावों पर असर न हो और बेरोज़गार शान्त रहें। हम सरकार की साज़िश समझ रहे हैं।

बिहार की राजधानी पटना और कई शहरों में ग़ुस्साये छात्रों के प्रदर्शन का असर उत्तर प्रदेश में भी दिखायी दिया है। कई स्थानों पर हिंसा हुई है। ट्रेनों को जलाया गया है। बड़ी संख्या में छात्र गिरफ़्तार किये गये हैं। उन पर पुलिस के लाठीचार्ज का सर्वत्र विरोध हुआ है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने छात्रों पर लाठीचार्ज के बाद इसकी कड़ी निंदा करते हुए छात्रों के समर्थन का ऐलान किया। छात्रों का ग़ुस्सा तब भडक़ा, जब 14 जनवरी को रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) ने नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (एनटीपीसी) परीक्षा के नतीजे घोषित किये। उन्होंने नतीजों में बड़े पैमाने पर धाँधली के आरोप लगाये। बड़ी संख्या में छात्र इनके ख़िलाफ़ मैदान में उतर आये। छात्रों का आरोप था कि इन नतीजों में गड़बड़ी है और इसके चलते ऐसे छात्र बाहर हो जाएँगे, जिनके पास मेरिट है।

छात्रों का कहना था कि परीक्षा की तैयारी के लिए हरेक छात्र के ज़्यादा नहीं, तो चार से पाँच लाख रुपये तो ख़र्च हुए ही थे। मगर जब नतीजे आये, तो उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। छात्रों के मुताबिक, नतीजों में गड़बड़ी ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। आन्दोलन के दौरान छात्रों और पुलिस के बीच पत्थरबाज़ी से लेकर लाठीचार्ज तक हुआ। पुलिस ने छात्रों को पकड़-पकडक़र मारा, जिससे दर्ज़नों छात्र लहूलुहान भी हुए। छात्रों का आरोप है कि परीक्षा के नतीजों में भ्रष्टाचार ने उनके भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है।

छात्रों के आन्दोलन और प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार को मजबूरन जाँच समिति गठित करनी पड़ी। जल्दी में किये गये इस फ़ैसले का बड़ा कारण उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी थे। छात्रों को भी लगता है कि समिति बनाने का फ़ैसला उनके ग़ुस्से को शान्त करने का तरीक़ा मात्र था। हालाँकि छात्रों ने इस समिति को ख़ारिज़ कर दिया और आरोप लगाया कि यह समिति नहीं, उत्तर प्रदेश चुनाव तक बेरोज़गारी के ठंडा रखने की साज़िश है। छात्रों के मुताबिक, किसानों की तरह सरकार छात्रों को भी झुनझुना पकड़ाकर चुप करके बैठा देना चाहती है, ताकि एक बार चुनाव निकल जाएँ और फिर वो अपना असली रूप दिखाए।

नतीजों में धाँधली के अलावा छात्र रिक्तियाँ समय पर नहीं निकलने के कारण भी नाराज़गी है। छात्रों के मुताबिक, रिक्तियाँ निकालने में भी देरी की जा रही है। आज से पहले रेलवे की भर्ती सन् 2019 में निकली थी। तब लोकसभा के चुनाव होने वाले थे। अभी तक उसके नतीजे नहीं निकले हैं। छात्रों के पास भर्ती परीक्षाओं और नतीजों का कैलेंडर तक नहीं है, जिससे कि उन्हें पता चल सके कि सीबीटी-2 (कम्प्यूटर बेस्ड टेस्ट), स्किल टेस्ट और इंटरव्यू कब होगा? नतीजे कब आएँगे?

सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या बिहार में शुरू हुआ छात्रों का यह विरोध एक बड़े आन्दोलन में तब्दील हो पाएगा? निश्चित ही बेरोज़गारी देश में आज सबसे बड़ा मुद्दा है। लेकिन यह मुद्दा आन्दोलन का रूप नहीं ले पाया है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि छात्रों के इस ग़ुस्से को थामा नहीं गया, तो ये बड़े आन्दोलन में तब्दील हो सकता है। देश में हाल के वर्षों में बेरोज़गारी की कतार इतनी लम्बी हो गयी है कि छात्र और युवा बेक़ाबू होने लगे हैं। इस ग़ुस्से को थोड़ी-सी भी हवा मिली, तो इसके बड़े आन्दोलन में बदलते देर नहीं लगेगी।

यह स्थिति सिर्फ़ बिहार तक सीमित नहीं है, कमोवेश पूरे देश में है। अभी तक भले इस विरोध आन्दोलन का कोई नेतृत्व नहीं है; लेकिन यदि यह भडक़ा और बड़े स्तर पर फैला तो नेतृत्व आते देर नहीं लगेगी। कई संगठन हैं, जो रोज़गार को लेकर असन्तोष के स्तर पर हैं। यह सभी साथ मिल गये, तो बड़ा आन्दोलन खड़ा होते देर नहीं लगेगी। फिर राजनीति भी इससे जुड़ जाएगी। सन् 1973 में ऐसा देखने को मिला था, जब छात्रों का आन्दोलन सन् 1974 आते-आते छात्र राजनीति के रूप बदल गया था।

जैसे किसान आन्दोलन स्थगित तो हो गया है; लेकिन किसानों की तरह सरकार पर छात्रों को भी भरोसा नहीं है। सरकार और छात्रों के बीच संवाद का गम्भीर अभाव है। इसका कारण यह है कि हाल के वर्षों में सरकार मामलों को लटकाने की नीति अपनाती रही है। रोज़गार के मामले में यह सबसे ज़्यादा हो रहा है। भर्तियाँ रुकी पड़ी हैं। अनुबन्ध (कॉन्ट्रेक्ट) व्यवस्था ने नौकरी की आस में बैठे छात्रों / युवाओं में असुरक्षा की भावना भर दी है। यहाँ तक की नतीजे आने के बाद भी नियुक्तियाँ नहीं हो रही हैं, या उनमें लम्बा व$क्त लगने लगा है।

बुन्देलखण्ड में बदलेंगे सियासी समीकरण

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी हलचल तेज़ है और प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में इस बार भी चुनावी मुद्दे वहीं हैं, जो लम्बे समय से चले आ रहे हैं। लेकिन मुद्दों के समाधान को लेकर लोगों की माँगों ने ज़ोर पकड़ा है। इनमें बुन्देलखण्ड राज्य की माँग तो है ही, मगर दूसरी ओर रोज़गार के न होने से पलायन जैसे मुद्दे भी इस बार हावी हैं। बताते चलें कि बुन्देलखण्ड के हिस्से में कुल सात ज़िले आते हैं, जिनमें चार लोकसभा सीटें और 19 विधानसभा सीटें हैं। बुन्देलखण्ड निवासियों का कहना है कि चुनाव तो आते-जाते हैं; लेकिन चुनाव दौरान किये गये सियासी दलों द्वारा किये वादे पूरे न होने से वे ख़ुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों को लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता ने लोगों से बातचीच की, तो उन्होंने अपने मन की बात रखी।

दरअसल सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की पूरी-की-पूरी 19 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कर इतिहास रचा था। तब लोगों ने उम्मीद की थी कि भाजपा को सभी 19 सीटों पर जीत दिलायी है और केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है, तो निश्चित तौर पर बुन्देलखण्ड का विकास होगा और साथ ही अलग से राज्य भी बनेगा। लेकिन सारी-की-सारी उम्मीदें धरी-की-धरी रह गयीं। अब इस बार के विधानसभा चुनाव आते ही लोगों ने नेताओं को पुराने वादे याद कराने की कोशिश कर रहे हैं। युवाओं का कहना है कि चुनावी वादे को सिर्फ़ वादा समझने वालों को जनता इस बार चुनाव में सबक़ सिखाएगी। समाजवादी नेता पूरन सिंह ने बताया कि सन् 2014 में जब लोकसभा का चुनाव था। तब झाँसी, ललितपुर लोकसभा सीट से भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती ने बुन्देलखण्ड के विकास को लेकर तमाम वादे किये थे। साथ ही बुन्देलखण्ड राज्य बनाने का वादा किया था। लेकिन वो वादा अब तक पूरा नहीं हुआ है। हालाँकि इतना ज़रूर हुआ है कि 28 फरवरी, 2019 को सियासत दबाव और लोगों को दिखाने के लिए बुन्देलखण्ड विकास बोर्ड का गठन हुआ है। बोर्ड में बैठे पदाधिकारी भी अपनी सियासी पकड़ के चलते बुन्देलखण्ड के नाम पर कुछ भी नहीं कर रहे हैं।

जहाँ तक 2022 के विधानसभा चुनाव की बात है, तो बुन्देलखण्ड में तीसरे चरण में 19 विधानसभा सीटों पर 20 फरवरी को मतदान होना है। इस बार भाजपा और सपा के बीच चुनावी जंग आर-पार की है। बसपा और कांग्रेस चुनावी माहौल बनाने में लगे हैं। लोगों का कहना है कि यह तो बात पक्की है कि सियासत में जुमलों और वादों का दौर चलता है; लेकिन इतना भी नहीं चलता है कि चुनाव जीतने के बाद भुला दिया जाए और जनता फिर भी ख़ामोश बैठी रहे।

बुन्देलखण्ड के विकास और यहाँ सूखा पडऩे से बेहाल किसानों की सहायता के लिए काम करने वाले विनीत कुमार ने बताया कि सन् 2007 से पहले लोगों ने यह सोचा था कि मायावती सदैव दलितों के हित की बात करती हैं। लेकिन जब सन् 2007 में बसपा ने जो दलित-ब्राह्मण कार्ड खेला था, जिसमें वे सफल भी हुईं; तब लोगों को लगा था कि दलितों के साथ सामान्य वर्ग का भी विकास होगा। उनकी समस्याओं का समाधान होगा। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। बस एक सामान्य सरकार की तरह बसपा सरकार भी आरोपों-प्रत्योरोपों से घिरी रहने वाली साबित हुई।

उसके बाद सन् 2012 में अखिलेश यादव की सरकार बनी, तो लोगों ने यह आशा की थी कि अखिलेश यादव एक युवा नेता हैं और विदेश से पढक़र आये हैं। अखिलेश ज़रूर प्रदेश के विकास के साथ बुन्देलखण्ड का विकास करेंगे, जिससे इस छिटके क्षेत्र में पानी की क़िल्लत दूर होगी। किसानों को राहत मिलेगी और ग़रीबों व बेरोज़गारों का पलायन रुकेगा। हालाँकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बुन्देलखण्ड में तालाबों के जीर्णोद्धार करने के साथ नये तालाब भी बनवाये हैं। लेकिन तालाबों की ख़ुदार्इ से लेकर और उसकी मिट्टी का ठेका ख़ासकर एक-दो विशेष जाति के लोगों को दिये जाने से बाक़ी लोगों में नाराज़गी देखी गयी। साथ ही लोगों को एम-बाई फैक्टर (मुस्लिम-यादव) के बढ़ते दबदबे से लोगों के साथ ख़ासकर महिलाओं और स्कूलों में नाराज़गी बढ़ी थी। क्योंकि थानों में और सरकारी दफ़्तरों में एम-बाई फैक्टर की ही सुनी जा रही थी। इन्हीं सब घटनाओं से क्षुब्ध होकर लोगों ने सन् 2017 के विधानसभा के चुनाव में एक तरफ़ा सभी 19 विधानसभा सीटों पर भाजपा को ऐसिहासिक जीत दिलायी।

जब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बने, तो फिर लोगों ने यह उम्मीद की थी कि योगी आदित्यनाथ पूर्वांचल के लोगों की परेशानियों से वाक़िफ़ हैं और प्रदेश के विकास के साथ-साथ बुन्देलखण्ड में विकास की गंगा बहाएँगे और पलायन को रोकेंगे। लेकिन उन्होंने भी इस महती क्षेत्र के साथ वही सब किया, जो दूसरे सियासतदान करते हैं; सिर्फ़ और सिर्फ़ वादे, और कुछ नहीं।

बुन्देलखण्ड निवासी राजेश शुक्ला ने बताया कि बुन्देलखण्ड की कई बुनियादी समस्याओं के अलावा इसके हिस्से वाले सातों ज़िलों- बाँदा, जालौन, हमीरपुर, झाँसी, ललितपुर, महोबा और चित्रकूट की अपनी-अपनी अलग-अलग बुनियादी समस्याएँ हैं। किसी ज़िले में कुछ विकास हुआ है, तो किसी ज़िले में विकास न के बराबर ही हुआ है। ऐसे में सरकार का दायित्व तो यह बनता था कि प्रत्येक ज़िले की समस्याओं और पूरे बुंदेलखण्ड के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विधिवत् योजनाओं को साकार करना किया जाए। लेकिन किसी भी सियासी दल ने यह कभी सोचा तक नहीं है। राजेश शुक्ला का मानना है कि बुन्देलखण्ड में झाँसी ज़िले का विकास जिस तरह हुआ है, उस तरह अन्य छ: ज़िलों में नहीं हैं। ऐसे में बाक़ी छ: ज़िले काफ़ी पिछड़े हुए हैं। सन् 2020 में कोरोना महामारी ने तो बुन्देलखण्ड को और भी पिछड़ा कर दिया है। किसानों की हालत ख़राब है। पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है। अब फिर से बुन्देलखण्ड में अपराध बढऩे लगा है। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड की जनता चाहती है कि सरकार किसी भी पार्टी की बने, पर युवाओं को रोज़गार मिले और किसानों को दिये जाने वाले बजट को और बढ़ाया जाए, तब जाकर कुछ होगा; अन्यथा बुन्देलखण्ड पिछड़ता ही जाएगा।

भाजपा नेता बी.एल. आर्या ने बताया कि बुन्देलखण्ड के लोगों का अपना अलग ही मिजाज़ है और तौर-तरीक़े भी अलग हैं; तो यहाँ की सियासत भी अलग है। क्योंकि यहाँ के नेता तो चाहते हैं कि बुन्देलखण्ड राज्य बने, जिसको लेकर स्थानीय नेताओं से लेकर विधायक और सांसद आवाज़ उठाते रहते हैं। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को लेकर संसद में महोबा-हमीरपुर से भाजपा सांसद पुष्पेंद्र चंदेल और बाँदा से सांसद आर.के. पटेल ने कई बार बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को उठाया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश विधानसभा में बुन्देलखण्ड की आवाज़ 19 विधायकों ने भी उठायी है।

बुन्देलखण्ड की सियासत के जानकार सन्तोष पटेल का कहना है कि इस बार चुनाव में बुन्देलखण्ड के सातों ज़िलों में चुनावी मिजाज़ बदला-बदला सा नज़र आ रहा है। सन् 2017 में भाजपा ने सभी 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन इस बार शायद भाजपा दोबारा जीत हासिल नहीं कर सकेगी। वैसे पूरे राज्य की तरह बुन्देलखण्ड में भी जाति-धर्म के ध्रुवीकरण की सियासत होती है, जिससे वोटों को बँटवारा आसानी से हो जाता है। लेकिन इस बार बुन्देलखण्ड में सातों ज़िलों की अलग-अलग सीटों पर कहीं बसपा, तो कहीं सपा का माहौल बनता दिख रहा है। वहीं भाजपा के लिए अपनी दोबारा जीत के लिए माहौल बनाना पड़ रहा है। कांग्रेस तो खोये हुए जनाधार पाने के लिए संघर्ष कर रही है। इस बार अगर भाजपा के विधायकों के प्रति लोगों का रोष और सरकार की नीतियों का विरोध मतदान में दिखता है, तो चुनावी परिणाम चौंकाने वाले साबित होंगे।

इधर कांग्रेस नेता मनोज तिवारी का कहना है कि बुंदेलखण्ड में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा का अपना जनाधार है। इस जनाधार में सेंध लगाने के लिए सियासत दल और प्रत्याशी हर सम्भव कोशिश करते हैं। इस बार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बार मतदाता ज़्यादा सजग हो गया है। वजह साफ़ है कि वे जानते हैं कि कोरोना महामारी में जिन्होंने अपने परिजनों को खोया है, उसकी वजह प्रदेश सरकार की उदासीनता और तानाशाही है। मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन को लेकर उनके परिजनों को जिस तरह जूझना पड़ा है; दवाएँ नहीं मिलीं। अस्पताल में जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिली। अपनों की जान बचाने के लिए कई-कई गुने दाम चुकाने पड़े। बावजूद इसके भी बहुत लोगों की जान चली गयी। यह सब बुन्देलखण्ड के निवासी भूलने वाले नहीं हैं। उनका कहना है कि मौज़ूदा दौर का यह दुर्भाग्य है कि सियासतदान चुनाव में विकास के मुद्दों की चर्चा करते हैं। आज की सियासत जनहित और देशहित की बात भुलाकर सत्ता का लाभ लेने के लिए चुनाव के दौरान बड़ी आसानी से धर्म और जाति का चुनाव बना देती है, जिससे भोला-भाला मतदाता उनके जाल में फँसकर मतदान कर देता है। उनका कहना है कि भाजपा के जो 19 विधायक चुनकर आये थे, उनमें से आधे से अधिक विधायकों के ख़िलाफ़ जनता का आक्रोश मतदान के दिन साफ़ दिखेगा।

ग्रामीण महिला पूजा मिश्रा का कहना है कि सन् 2017 में भाजपा ने जिस तरह बड़ी जीत दर्ज की थी, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी के नाम पर की थी। लेकिन यहाँ के विधायक यह सोचते हैं कि उन्होंने अपने दम पर जीत हासिल की है। सो उन्होंने पूरे पाँच साल में जनता की एक नहीं सुनी। अब इस बार जनता उनकी सुनने को तैयार नहीं है। क्योंकि बुन्देलखण्ड में खनिज सम्पदा के अलावा कई स्रोत हैं, जिसके बल पर विकास किया जा सकता था। लेकिन विधायकों ने जमकर खनिज, बालू में लूटपाट की है; जिसका जबाब जनता चुनाव में देगी।

विवाहित बेटी भी है अनुकम्पा नौकरी की हक़दार

न्यायालयों ने आधी आबादी के प्रति सरकारों से उनकी सामंतवादी सोच त्यागकर प्रगतिशील सोच अपनाने को कहा

देश की दो उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में अपनी हालिया टिप्पणियों, फ़ैसलों से लड़कियों व महिलाओं को और अधिक सशक्त करने की पहल की है। न्यायालयों ने राज्य सरकारों को एक बार फिर आधी आबादी के प्रति सामंतवादी सोच का त्याग कर प्रगतिशील सोच की राह अपनाने का कड़ा सन्देश दिया है। सबसे पहले राजस्थान उच्च न्यायालय के अहम आदेश का ज़िक्र किया जा रहा है। राजस्थान की जैसलमेर की शोभा देवी के पिता गणपत सिंह जोधपुर विद्युत निगम में लाइनमैन थे। 5 दिसंबर, 2016 को उनका निधन हो गया। पीछे उनकी पत्नी शान्ति देवी और बेटी शोभा रह गयीं। बेटी शोभा ने जोधपुर डिस्कॉम में आवेदन किया कि उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं रहती है, लिहाज़ा आश्रित कोटे से विवाहित बेटी को नौकरी दी जाए। लेकिन 6 जून, 2017 को जोधपुर विद्युत निगम ने आवेदन निरस्त करते हुए कहा कि विवाहित महिला आश्रित की श्रेणी में नहीं आती। इस पर महिला ने राजस्थान उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

न्यायालय ने हाल ही में शोभा के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए जोधपुर विद्युत निगम को 3 महीने के अन्दर शोभा को पिता की जगह नौकरी देने का आदेश दिया। दरअसल जोधपुर विद्युत निगम ने शोभा को अनुकम्पा नौकरी नहीं देने के पीछे दलील दी कि विवाहित बेटी अब पति के परिवार का हिस्सा है। इसलिए उसके अधिकार भी उसी परिवार में हैं। विवाहित बेटी मृतक आश्रित नहीं मानी जा सकती। ऐसे में उसे नौकरी पर नहीं रखा जा सकता। राजस्थान उच्च न्यायालय की पीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान जोधपुर विद्युत निगम की दकियानूसी दलील पर कड़ी आपत्ति ज़ाहिर करते हुए टिप्पणी की कि शादी के बाद बेटी पिता के कुनबे की हिस्सा नहीं रहती, बल्कि वह पति के कुनबे का हिस्सा हो जाती है; यह विचार बहुत पुराने हो चुके हैं। वह अपने पिता के अधिकारों में हमेशा हमवारिस रहती है। जैसे अधिकार उसके अविवाहित होने पर रहते हैं, वैसे ही विवाहित होने के बाद भी रहते हैं। क्योंकि किसी के अविवाहित या विवाहित होने से उनके माता-पिता के साथ रिश्ते बदल नहीं जाते, न ही उनकी ज़िम्मेदारी कम हो जाती है। वह पिता की अनुकम्पा नौकरी की उतनी ही हक़दार है, जितना कि बेटा। विवाहित होने के बाद भी जैसे एक बेटा अपने माता-पिता की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार होता है, ठीक वैसे ही बेटी की ज़िम्मेदारियाँ भी कम नहीं हो जातीं। और जब विवाहित बेटे और विवाहित बेटी की ज़िम्मेदारी एक समान हैं, तो फिर अनुकम्पा नौकरी के समय विवाहित बेटी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।

दरअसल अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए राज्य सरकारों के नियम अलग-अलग हैं और अधिकांश नियम पितृसत्तामक सोच को दर्शाते हैं।

ग़ौरतलब है कि अनुकम्पा नियुक्ति / नौकरी एक सरकारी सामजिक सुरक्षा योजना है। इस योजना के तहत जब किसी सरकारी कर्मचारी की नौकरी के दौरान मृत्यु हो जाती है या वह अपने मानसिक स्वास्थ्य के ठीक नहीं होने पर सेवानिवृत्ति ले लेता है, तो ऐसी परिस्थितियों में परिवार के भरण-पोषण के लिए उस कर्मचारी पर आश्रित परिवार का सदस्य अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन कर सकता है। मगर कड़ुवी हक़ीक़त यह है कि राज्य सरकारें अनुकम्पा नौकरी के नियमों की व्याख्या आवेदन करने वालों के हित में न करके अपने हित में करती हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय समाज 21वीं सदी में भी इस बीमार मानसिकता से ग्रस्त है कि बेटियाँ पराया धन होती हैं। शादी के बाद उसका मायके पर कोई अधिकार नहीं रहता। उसका नाता सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों को निभाने तक सिकुडक़र रह जाता है। इसी स्त्री विरोधी मानसिकता को राज्य सरकारें मौक़ा मिलते ही अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। जबकि राज्य सरकारों को तो संविधान के अनुसार चलकर महिलाओं को बराबरी के मौक़े देने चाहिए। लेकिन महिलाओं को उनकी लैंगिकता के आधार पर ऐसे मौक़े नहीं देने के मामले बार-बार न्यायालयों में आते हैं।

अनुकम्पा नौकरी देने के सन्दर्भ में बेटी के विवाहित होने की आड़ में बेटियों के आगे बढऩे की राह में बेवजह दिक़्क़तें पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। ऐसे ही एक मामले में पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने जुलाई, 2020 में अपने फ़ैसले में साफ़ किया कि विवाहित महिलाओं को भी अनुकम्पा नौकरी के लिए विचार के दायरे में लाया जा सकता है।

फ़ैसला सुनाने वाले न्यायाधीश ने ग़ौरतलब बिन्दु उठाया कि योजना की मंशा आश्रित परिवार को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना है। योजना में बेटे को अनुकम्पा नौकरी देते व$क्त उसके वैवाहिक दर्जे के बाबत कुछ नहीं कहा गया, तो लडक़ी के कुँआरी होने पर ज़ोर क्यों? विवाहित बेटी को आश्रित परिवार सदस्यों की परिभाषा से बाहर रखने का मतलब संविधान के अनुच्छेद-14,15 और 21 का उल्लघंन है। उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि संस्था ने सोच-समझकर इस योजना से विवाहित महिला को नहीं जोड़ा कि शादी के बाद महिला अपने पति व ससुराल पक्ष पर निर्भर होती है। यह पुरातनपंथी सोच है।

एक मुख्य बात यह है कि अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए अलग-अलग नियम हैं। उत्तर प्रदेश देश का ऐसा अकेला राज्य है, जिसने हाल ही में यह नियम बनाया है कि विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी मिल सकती है। यह नियम उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायालयों की कड़ी फटकार सुनने के बाद हाल ही में उठाया है।

ग़ौरतलब है कि प्रयागराज की मंजुल ने अपने पिता के निधन के बाद अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन किया था। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अधिकारी ने जून, 2020 में आवेदन यह कहते हुए मंज़ूर नहीं किया कि मंजुल की शादी हो चुकी है। मंजुल इलाहाबाद उच्च न्यायालय गयीं और 14 जनवरी, 2021 को न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया कि बेटी को पिता के परिवार से बाहर मानना असंवैधानिक है। न्यायालयों के ऐसे फ़ैसलों के दबाव में आकर उत्तर प्रदेश सरकार ने दो महीने पहले 11 नवंबर, 2021 को नया नियम बनाया, जिसके तहत विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर पिता की नौकरी मिल सकती है। राज्य सरकार ने इसके लिए मृत सरकारी कर्मियों के आश्रितों की भर्ती नियमावली 2021 में 12वाँ संशोधन किया है।

जहाँ तक अन्य राज्यों का सवाल है, वहाँ अनुकम्पा नौकरी के नियम बेटों की और अधिक झुके हुए हैं। ऐसी नौकरियों पर पहला हक़ अक्सर बेटों का मान लिया जाता है।  अगर किसी की एक बेटी है और वह विवाहित है, तो उसे यह कहकर अनुकम्पा नौकरी नहीं दी जाती कि विवाह के बाद वह अपने पति पर आश्रित है। सरकारें नियमों का हवाला देकर उसे अनुकम्पा नौकरी की श्रेणी से ही बाहर कर देती हैं। सवाल यह है कि ऐसा करने का मतलब लैंगिक आधार पर उसके साथ भेदभाव करना है। एक अहम सवाल यह भी है कि कितनी बेटियाँ इसके लिए न्यायालय जाती हैं? सवाल यह है कि विवाहित बेटियों को इसके लिए बार-बार न्यायालय क्यों जाना पड़ता है?

सरकारें नियम क्यों नहीं बदलतीं? और इस सन्दर्भ में मिसाल कायम करने में आगे क्यों नहीं आ रहीं? सरकारों को दीर्घकालीन प्रगतिशील नज़रिये के साथ समाज से कई क़दम आगे चलना चाहिए, न कि समाज की पिछड़ी सोच के साथ। महिलाओं को पीछे छोडक़र कोई भी समाज, देश, दुनिया तरक़्क़ी नहीं कर सकता। न्यायालय कई बार इसकी तस्दीक़ अपने फ़ैसलों के ज़रिये करते रहते हैं।

राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक फ़ैसले में कहा कि शादी के बाद महिला का निवास प्रमाण-पत्र नहीं रोक सकते। निवास की पहचान उसके या माता-पिता के जन्मस्थल से है और इसका विवाह से कोई वास्ता नहीं है। इधर सर्वोच्च न्यायालय ने 20 जनवरी को कहा कि अगर कोई व्यक्ति (पिता) मरने से पहले वसीयत नहीं करता है, तो उसकी मौत के बाद उसकी स्व-अर्जित व पुश्तैनी सम्पत्ति में बेटियों का हक़ है, और उनकी भी हिस्सेदारी है। यही नहीं, बेटियों को सम्पत्ति के अधिकार में वरीयता मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने बेटियों के सन्दर्भ में यह भी कहा कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 से पहले भी पिता की सम्पत्तियों के बँटवारे में बेटियों को बराबर का हिस्सा मिलेगा। यह देश की बेटियों की एक बहुत बड़ी जीत है। सन् 1956 के इस अधिनियम से पहले लड़कियों को यह अधिकार हासिल नहीं था।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त, 2020 में कहा था कि हिन्दू क़ानून-1956 संहिता बन्द होने के वक़्त से ही बेटियाँ अपने पिता, दादा और परदादा की सम्पत्ति में बेटों के समान ही बराबर की हक़दार हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बाद 20 जनवरी, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने देश की बेटियों को क़ानूनी रूप से और अधिक सशक्त करने व उन्हें लैंगिक इंसाफ़ दिलाने की दिशा में एक अहम क़दम उठाया है। सरकारों और प्रशासन को सुनिश्चित करना चाहिए कि आधी आबादी इससे सच्चे अर्थों में लाभान्वित हो।

सीतारमण के पिटारे से राहत की उम्मीद लगाए बैठी है आम जनता

मंत्रिमंडल ने मंगलवार सुबह केंद्रीय बजट को मंजूरी दे दी। अब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सुबह 11 बजे संसद में 2022-23 आम बजट पेश करेंगी। इस बीच सेंसेक्स आज सुबह 850 अंकों के साथ ऊपर गया है। आम जनता से लेकर उद्योग जगत सरकार से  बड़ी राहतों की उम्मीद कर रहा है। पांच राज्यों में महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव देखते हुए इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार लोकलुभावन बजट लाए।

सीतारमण का बतौर वित्त मंत्री यह चौथा बजट है। महामारी के सर्विस सेक्टर पर असर को देखते हुए उसे राहत की बड़ी उम्मीद है। खासकर आयकर में छूट की सीमा कम से कम दो लाख होने की उम्मीद वह लगाए बैठा है। सर्विस सेक्टर देश की जीडीपी का बड़ा हिस्सा है, लिहाजा देखना दिलचस्प होगा कि कम से कम चुनाव को  ही, वित्त मंत्री इस सेक्टर को राहत दें।

आर्थिक सर्वे में जिस तरह जीडीपी 8 से 8.30 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया है उससे तो यही संकेत मिलता है कि देश की अर्थव्यवस्था पटड़ी पर लौटने की दिशा में है। हालांकि, कोविड का नए नए रूपों में सामने आना अर्थव्यवस्था के सुधार के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी राहतें देना उतना आसान भी नहीं है।

हाल के किसान आंदोलन और किसानों की भाजपा के प्रति नाराजगी को देखते हुए सरकार इस क्षेत्र को राहत दे सकती है। जानकारों का कहना है सीतारमण हर क्षेत्र की जरूरतों का बजट में रखेंगी और यह समावेशी बजट हो सकता है। खासकर, किसानों की नाराजगी देखते हुए सरकार उन्हें किसी जरिये से खुश करने की कोशिश कर सकती है।

उद्योग जगत भी वित्त मंत्री से बड़ी उम्मीद कर रहा है। कोविड से पस्त हुआ एमएसएमई सबसे ज्यादा राहत की ज़रुरत महसूस कर रहा है। छोटे उद्योग कोविड की मार सह रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकार ने दया नहीं दिखाई तो उनकी हालत और खराब हो जाएगी।

वैसे हर बजट के बाद कुछ चीजें महंगी हो जाती हैं जबकि कुछ सस्‍ती हो जाती हैं।   कोरोना की मार में अर्थव्‍यवस्‍था को मजबूती देना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। महंगाई से जनता त्रस्त है, लिहाजा उसे राहत नहीं मिली तो इसका राजनीतिक नुकसान चुनाव में हो सकता है।

पेट्रोल-डीजल की कीमतों में काफी बढ़ौतरी हाल के महीनों में हुई है। सरकार उत्पाद शुल्क में कटौती करके राहत का रास्ता निकाल सकती है। एलपीजी गैस सिलेंडर पहले से काफी महंगा हुआ है। इसका कारण उसपर सब्सिडी कम करना है। जनता को उम्मीद है कि इसमें उसे राहत मिले।

क्या सेना में महिलाओं को मिलेगा बराबरी का हक़?

भारतीय रक्षा अकादमी (नेशनल डिफेंस एकेडमी) की प्रवेश परीक्षा 10 अप्रैल को होना तय है और इसके लिए संघ लोक सेवा आयोग ने महिलाओं के लिए मात्र 19 सीटें ही रखी हैं। इससे पहले 2021 में भी 19 सीटें ही रखी थीं। तब सर्वोच्च न्यायालय से केंद्र सरकार ने कहा था कि बुनियादी ढाँचे की समस्या के कारण इतनी कम संख्या रखी गयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर सरकार से सवाल किया था। पर 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा के लिए भी जब सीटें 19 ही रखी गयीं, तो कुश कालरा फिर सर्वोच्च न्यायालय में गये। इस पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश की खण्डपीठ ने सरकार के अतिरिक्त महा न्यायाभिकर्ता (सॉलिसीटर जनरल) ऐश्वर्या भाटी से कहा कि सरकार को यह बताना होगा कि उसके आदेश के बावजूद संघलोक सेवा आयोग द्वारा 2022 के लिए अधिसूचित प्रवेश परीक्षा के लिए महिलाओं के वास्ते 19 सीटें ही क्यों रखी गयीं?

खण्डपीठ ने सरकार को अपना जवाब तीन सप्ताह में दाख़िल कर देने और उसके बाद दोनों पक्षों को दो सप्ताह के भीतर उस पर अपना अपना पक्ष पेश करने का समय दिया है। मामले पर अगली सुनवाई अब 6 मार्च  को होगी। यह उम्मीद किसी को भी नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के मार्च में फ़ैसले के बाद भारतीय सेना में महिलाएँ पुरुषों की बराबरी के स्तर पर आ जाएँगी। फिर भी सरकार के तर्क अपने पक्ष में रहे। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले कुछ समय से भारतीय सेना में महिलाओं के प्रवेश या पदोन्नतियों को लेकर दिये जा रहे फ़ैसले सरकार व सेना में कूट-कूटकर भरी पुरुष मानसिकता पर कड़ा प्रहार ज़रूर कर रहे हैं। इसलिए यह संख्या 19 से आगे बढ़ेगी, इसकी उम्मीद वे 1002 महिलाएँ ज़रूर करेंगी, जिनका चयन 14 नवंबर, 2021 को हुई एनडीए की प्रवेश परीक्षा के बाद सेवा चयन बोर्ड परीक्षा और चिकित्सा परीक्षण के लिए किया गया है।

वैसे प्रवेश परीक्षा अधिसूचना के मुताबिक, इस परीक्षा में पास महिलाओं में से थल सेना में मात्र 10, नौसेना में तीन और वायुसेना में छ: महिलाएँ ही जा पाएँगी। याचिकाकर्ता कुश कालरा के वकील चिन्मय प्रदीप शर्मा ने परीक्षा में चयनित कुल 8,009 उम्मीदवारों में महिला-पुरुषों की संख्या को आधार बना एक अतिरिक्त हलफ़नामा पेश करके सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि कैसे 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा में भी महिलाओं के लिए कुल सीटें और महिला-पुरुष अनुपात 2021 जितना ही है। उन्होंने बताया कि 2021 की परीक्षा के लिए कुल 400 कैडेट चुने जाने थे और उनमें से महिलाएँ मात्र 19 ही थीं। 2022 में होने जा रही परीक्षा से भी 400 कैडेट चुने जाने हैं और उनमें महिलाएँ केवल 19 ही हैं। जबकि केंद्र सरकार की ओर से 20 सितंबर, 2021 को दायर हलफ़नामें में कहा गया था कि मई, 2022 तक महिला कैडेटों की संख्या बढ़ाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएँ जाएँगे। लेकिन 10 अप्रैल को होने जा रही परीक्षा सम्बन्धी अधिसूचना से साफ़ है कि स्थिति जस की तस है। और यह संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 16 व 19 का उल्लंघन है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने अतिरक्त सॉलिसीटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से पूछा कि उसके पिछले आदेश के बावजूद यूपीएससी की ओर से 2023 के लिए तय सीटों में महिलाओं का आँकड़ा बढ़ा क्यों नहीं? तब आपने बुनियादी ढाँचे की कमी को कारण बताया था। पर समझ लें कि 19 सीटों की संख्या हमेशा नहीं हो सकती। यह केवल एक तदर्थ उपाय ही था। अप्रैल, 2022 में होने वाली प्रवेश परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों में 400 कैडेटों की भर्ती 2023 में होनी है। तदर्थ उपाय से न्यायालय का क्या अभिप्राय है?

असल में अगस्त, 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले से एनडीए में महिलाओं की भर्ती के लिए रास्ता साफ़ किया था और फ़ैसले की अनुपालना के लिए सरकार ने फोरी तौर पर 19 महिलाओं की भर्ती यह कहकर की थी कि महिलाओं के लिए एनडीए में अभी बुनियादी ढाँचा तैयार करना पड़ेगा। यह एनडीए में महिलाओं की पहली भर्ती थी। इससे पहले सेना में उनके प्रवेश पर बहस व विचार-विमर्श तो लम्बे समय से चल रहा था, मगर भर्ती का फ़ैसला सरकार नहीं ले रही थी, क्योंकि सेना के अधिकारी इसके पक्ष में नहीं थे। इसके पीछे दिये जाने वाले समस्त कारण लैंगिक ही थे। पर दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर जब मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और ऋषिकेश राय की खण्डपीठ ने उसे लैंगिक समानता के संवैधानिक तराजू में तौला, तो सरकार व सेना दोनों को हथियार डालने पड़े। संघ लोक सेवा आयोग ने 9 जून, 2021 को अधिसूचना जारी कर एनडीए की प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन माँगे थे। यह केवल पुरुषों के लिए ही थे। कुश कालरा ने इसे संविधान के लैंगिक समानता के अनुच्छेदों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी।

न्यायालय ने इस पर सरकार व सेना (दोनों) को पार्टी बना न केवल आड़े हाथ लिया, बल्कि सरकार के नीतिगत निर्णय में दख़लंदाज़ी के तर्क की भी धज्जियाँ उड़ायीं। अंतरिम फ़ैसला देते हुए न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि 9 सितंबर को होने जा रही परीक्षा में महिलाओं को भी आवेदन करने दिया जाए। तब आयोग ने नये सिरे से अधिसूचना जारी कर 14 नवंबर को परीक्षा की तारीख़ तय की।

एनडीए में महिलाओं की भर्ती को लेकर उस समय सरकार ने अपना बचाव यह कहकर भी किया था कि सैनिक स्कूलों में लड़कियों का प्रवेश शुरू हो चुका है। इस पर न्यायालय ने उससे पूछा था कि राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज 99 साल पुराना संस्थान है। इसमें लड़कियों का प्रवेश नहीं है। क्या यह अपने 100 साल लैंगिक समानता के आधार पर मना सकेगा? न्यायालय का सवाल ऐसे ही नहीं था। भारतीय सेना में ग़ैर-चिकित्सकीय पदों पर महिला अधिकारियों का पहला जत्था (बैच) लघु सेवा आयोग (शॉर्ट सर्विस कमीशन) के ज़रिये सन् 1992 में आया था। स्थायी आयोग की लड़ाई जीतने में उसे 30 साल लग गये थे। न्यायालय के फ़ैसले के बाद रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने कहा कि परीक्षा के लिए कुल 5,75,856 अभ्यर्थियों में से 1,77,654 महिलाएँ थीं। पहली बार में ही इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं का परीक्षा में बैठना बताता है कि वे सेना में जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं और ज़ाहिर है कि शारीरिक मज़बूती व कड़ी मशक़्क़त का अंदाज़ भी उन्हें होगा ही। ऐसे में मात्र 19 सीटों की संख्या को ही दोहरा दिया जाना या तो सरकार व सेना के पितृसत्ता के रवैये का प्रतीक है या फिर लापरवाही। राज्यसभा में दिये गये अपने जवाब में मंत्री ने यह भी बताया था कि सेना में 7,476 अधिकारियों की कमी है। माना जाता है कि इसके पीछे मुख्य कारण अब युवकों का सेना के प्रति रुझान का कम हो जाना है। एक समय था, जब सैनिक परिवारों के बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सेना में जाते थे। पर अब नयी पीढ़ी कार्पोरेट सेक्टर में जाना पसन्द करती है। ऐसे में महिलाओं की भर्ती न केवल इस कमी को पूरा कर सकती है, बल्कि उनके आने से हमारी सेना का महिला विरोधी चेहरा भी बदलेगा। रक्षा मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, 2020 में चिकित्सा को छोड़ दें, तो भारतीय सेना में महिला अधिकारी मात्र तीन फ़ीसदी थीं। वहीं अमेरिका में 16, फ्रांस में 15, और रूस व ब्रिटेन में 10-10 फ़ीसदी थीं। दुनिया में शिखर पर पहुँचने के सपने देख रहा भारत इस क्षेत्र में अगर पिछड़ा रह जाता है, तो उसके दावों में कमी तो रहेगी ही, संविधान के प्रति उसकी निष्ठा भी शंका के दायरे में खड़ी रहेगी।

सेना के मौज़ूदा रवैये से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। फिर भी सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे का बयान उम्मीद बँधाता है। हाल ही में एनडीए परेड देखने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सेना में लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ा क़दम है। मुझे उम्मीद है कि बतौर कैडेट लड़कियाँ लडक़ों से बेहतर प्रदर्शन करेंगी। 40 साल बाद हो सकता वे वहाँ खड़ी दिखायी दें,जहाँ मैं आज खड़ा हूँ।

पर सवाल है कि क्या वह उन 19 महिलाओं को अपने संगठन के भीतर कट्टर-पुरुषवादी नज़रिये से बचाकर अपनी पूरी क्षमताओं के साथ काम करने का माहौल दे पाएँगे, जो 2022 में बतौर कैडेट भर्ती होने जा रही हैं? आगे की राह तो उसी माहौल से आसान होगी।

(लेखिका स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं।)