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योगी के राम-राज्य में जनता की दशा

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन का दूसरा कार्यकाल चल रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके समर्थक उनके शासन को राम राज्य बताकर अब तक का सर्वश्रेष्ठ शासनकाल कह रहे हैं; मगर जनता में सब इस बात से सहमत नहीं हैं। अनेक समस्याओं एवं प्रशासनिक दबाव से त्राहिमाम कर रही अधिकांश जनता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ भाजपा से भी छुटकारा पाना चाहती है। इसका स्पष्ट उदाहरण बीते वर्ष लोकसभा चुनाव में भाजपा को अत्यधिक कम मिली सीटें हैं। दूसरा उदाहरण मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर मतदान में हुई कथित गड़बड़ी है।

मास्टर नंदराम कहते हैं कि भाजपा की करनी एवं कथनी में धरती-आकाश का अंतर दिखायी देता है। जनता ने जिस आशा से बड़े सम्मान के साथ भाजपा को देश एवं उत्तर प्रदेश का शासन सौंपा है, जनता को उसका मलाल होने लगा है। प्रदेश में आपराधिक घटनाएँ हर दिन घट रही हैं। बुलडोज़र अवैध निर्माणों के अतिरिक्त निर्दोषों के निर्माणों पर भी दहाड़ रहा है। भ्रष्टाचार भी नहीं रुका है। नौकरियाँ घट रही हैं एवं शिक्षा व्यवस्था ठप होती दिख रही है। इसका परिणाम ये देखने को मिल रहा है कि लूट, चोरी एवं हत्या की वारदात बढ़ती जा रही हैं; मगर शासन प्रशासन में कोई मानने को तैयार नहीं है कि प्रदेश में अपराध हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता करन सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रदेश की व्यवस्था नहीं सँभल रही है। अपराधों की तो कोई गिनती ही नहीं है। बलात्कार की घटनाओं से मन दु:खी होता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं को न्यायाधीश समझते हैं एवं घोषणा करते हैं कि वह संत हैं; मगर प्रदेश में हर दिन कई-कई जघन्य अपराध होने के उपरांत भी उनका हृदय नहीं रोता है। उनके सारे प्रयास स्वयं की छवि चमकाने एवं अपनी कमियों पर पर्दा डालने के दिखते हैं। उन्होंने आज तक किसी बलात्कार पीड़िता के घर जाकर उसकी पीड़ा को कम करने के लिए बलात्कारियों को नेस्तनाबूद करने की क़सम नहीं खायी। ऊपर से उन्होंने अपनी पार्टी के अनेक बलात्कारियों को बचाने के प्रयास ही किये हैं। उन्नाव कांड, कानपुर कांड, हाथरस कांड, बदायूँ कांड, पीलीभीत कांड, गोरखपुर कांड, बाराबंकी कांड से लेकर हर जनपद में कोई-न-कोई घिनौनी दुराचार की घटना होती रहती है; मगर मुख्यमंत्री योगी की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ। उनका हृदय मासूम बच्चियों के बलात्कार से भी नहीं पसीजता है। भाजपा कार्यकर्ता योगेंद्र कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में अपराधी बचे ही नहीं है। जब योगेंद्र से पूछा गया कि अगर प्रदेश में अपराध नहीं हो रहे हैं, तो हर दिन अपराध के अनेक समाचार कैसे प्रकाशित हो रहे हैं? इस पर योगेंद्र ने उत्तर दिया कि छोटी-मोटी घटनाएँ कहाँ नहीं होती हैं? अपराध की बड़ी-बड़ी घटनाओं पर इस प्रकार का उत्तर देना भाजपा की मानसिकता दर्शाता है।

दहल उठीं महिलाएँ

उत्तर प्रदेश में हर दिन बलात्कार की अनेक घटनाओं से समाचार पत्र भरे दिखते हैं; मगर योगी शासन में इन घटनाओं को आम घटनाएँ कहने का चलन बन गया है। एक पुलिसकर्मी नाम प्रकाशित करने की विनती करते हुए कहते हैं कि अपराध पर रोक लगाने में पुलिस को मात्र 24 घंटे का समय पर्याप्त है। मगर अपराध की घटनाओं को अंजाम देकर भी अगर कोई अपराधी पुलिस की पकड़ से बचा रहता है, तो इसका अर्थ स्पष्ट समझ लीजिए कि उस अपराधी का बचाव कोई राजनीतिक ताक़त कर रही है। पुलिस के लिए अपराधियों को सीधा करना कोई कठिन चुनौती नहीं है। राजनीतिक दबाव एवं अपराधियों के संरक्षण का चलन राजनीति में रहता है, क्योंकि नेता चुनाव से लेकर सत्ता में अपना दबदबा बनाये रखने तक के लिए अपराधियों का सहारा लेते हैं।

तात्कालिक आपराधिक घटनाओं पर दृष्टिपात करने पर देखा जा सकता है। बीती 20 जनवरी को बरेली के हाफिजगंज थाना क्षेत्र के एक गाँव में झब्बू नाम के एक व्यक्ति ने खेत पर जा रही सात वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म करके उसका गला दबाकर हत्या करने का प्रयास किया। परिजनों ने बलात्कारी को पकड़ लिया, जिसके बाद पुलिस ने उसे हिरासत में लेकर न्यायालय में प्रस्तुत किया, जहाँ विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो एक्ट) कोर्ट-3 उमाशंकर कहार ने फोरेंसिक साक्ष्यों के आधार पर झब्बू को दोषी मानते हुए 20 वर्ष का सश्रम कारावास एवं 10,000 रुपये के आर्थिक दंड की सज़ा सुनायी। इससे पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्म स्थली उनके ही गोरखपुर नगर में एक हुक्का बार में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार की वारदात हुई थी। बीती 27 जनवरी को ही मुज़फ़्फ़रनगर में भी एक कैफे में एक 15 वर्षीय 10वीं की छात्रा का सामूहिक बलात्कार किया गया। मुज़फ़्फ़रनगर में ही फरवरी के पहले सप्ताह में एक अन्य नवविवाहिता के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गयी। 30 जनवरी को भगवान राम की नगरी में एक मंदबुद्धि युवती से सामूहिक बलात्कार करके अज्ञात लोगों ने उसे इतना पीटा कि उसकी पसलियाँ तक टूट गयीं। 2 फरवरी को उसका शव मिला। पुलिस इस घटना को दबाने के प्रयास में लगी रही। अयोध्या में ऐसे जघन्य अपराध की घटना बताती है कि प्रदेश में राम राज्य की बात एक जुमला ही है। 29 जनवरी को शाहजहांपुर में एक छात्रा का अपहरण करके अपराधियों ने सामूहिक बलात्कार करके उसके अश्लील वीडियो बना लिये। अपराधियों ने छात्रा को धमकाते हुए घटना के बारे में किसी को न बताने एवं बुलाने पर चले आने को कहकर छोड़ दिया। घटना की जानकारी पुलिस को हुई, तो अपराधियों की गिरफ़्तारी के लिए दबिश दी गयी मगर अपराधियों ने पुलिस पर ही गोलियाँ चला दीं। मुठभेड़ में पुलिसकर्मी भी घायल हो गये; मगर अपराधी पकड़े गये। अपराधियों के इतने बुलंद हौसले बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में आपराधिक घटनाएँ नहीं रुकी हैं एवं राम राज्य कहीं नहीं है। ये केवल कुछ ही बलात्कार की घटनाएँ हैं। प्रदेश में हर प्रकार के अपराध की घटनाएँ हर दिन घटित हो रही हैं।

बुलडोज़र से समर्थक भी तंग

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उपरांत भी उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र कार्रवाई नहीं रुक रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुलडोज़र बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो चुके प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बुलडोज़र एवं एनकाउंटर को अपनी न्याय नीति का प्रमुख हथियार मानते हैं। यही कारण है कि उनका बुलडोज़र न इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आपत्ति पर रुका एवं न सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उपरांत रुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में पुलिस एनकाउंटर को लेकर भी आपत्तियाँ दर्ज हुई हैं; मगर उस पर भी रोक नहीं लगी है। एक भाजपा नेता नाम प्रकाशित न करने की विनती करते हुए कहते हैं कि योगी जनता को डराकर स्वयं को शक्तिशाली घोषित करना चाहते हैं। उनकी बुलडोज़र एवं एनकाउंटर नीतियाँ अनेक अपराधियों को डराने के नाम पर चर्चित अवश्य हुई हैं; मगर आम जनता में इसका संदेश अच्छा नहीं गया है।

बुलडोज़र केवल अपराधियों के घरों, व्यावसायिक केंद्रों एवं अवैध निर्माणों पर ही नहीं चल रहा है, वरन् सरकार के विरुद्ध हुंकार भरने वालों के घरों एवं व्यावसायिक केंद्रों पर चलने के आरोप लग रहे हैं। यह भी नहीं है कि बुलडोज़र केवल भाजपा के पक्ष में खड़े होने वालों के अवैध निर्माण ढहा रहा है। कई गाँवों में देखा गया है कि ग्राम सभा की भूमि पर अवैध निर्माण करने वाले कई भाजपा समर्थकों को भी बुलडोज़र कार्रवाई में छोड़ा नहीं गया है। भाजपा के पक्ष में बोलने एवं मतदान करने वाले दो ऐसे ही व्यक्तियों तुलाराम एवं कोमिल प्रसाद के उन निर्माणों को भी तोड़ने के लिए नाप लिया गया है, जो ग्राम सभा की भूमि पर बने हुए बताये जाते हैं। तुलाराम कहते हैं कि उन्होंने अपने घेर का निर्माण ग्रामसभा की भूमि पर अवश्य कराया है; मगर वह ग्रामसभा की भूमि उन्हें घर बनाने के लिए वर्षों पहले पट्टे पर मिली थी। कोमिल प्रसाद कहते हैं कि उनका घर तो उनके खेत में बना हुआ है फिर भी उसे तोड़ने के लिए सरकारी अधिकारी नापकूत करके ले गये हैं। गाँव के दूसरे लोग कहते हैं कि कोमिल प्रसाद ने अपना घर खेत में ही बनाया है; मगर सड़क किनारे की सरकारी भूमि को भी पाटकर उन्होंने घर सड़क किनारे बनाया है। इन दोनों लोगों के निर्माण अवैध हैं अथवा वैध यह बिना आधिकारिक घोषणा के नहीं कहा जा सकता; मगर दोनों ही लोग भाजपा के कट्टर समर्थक हैं। अब जबसे उनके निर्माणों पर बुलडोज़र चलने की बात सामने आयी है, भाजपा एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों को लेकर दोनों के सुर बदल गये हैं।

उर्दू पर प्रहार का विरोध

बीते दिनों उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी ने उर्दू को कठमुल्लापन की भाषा बताकर विवाद मोल ले लिया है। उर्दू लखनऊ की तहज़ीब वाली भाषा मानी जाती है एवं पूरे प्रदेश में उर्दू के शब्दों का अपनी स्थानीय भाषा एवं हिंदी में सम्मान के साथ सभी लोग उपयोग करते हैं। स्वयं योगी आदित्यनाथ उर्दू का विरोध करते हुए उर्दू के शब्द बोल रहे थे। उन्होंने विधानसभा में एक शायरी भी पढ़ी जो उर्दू की थी। मगर वह उर्दू को मुसलमानों की भाषा एवं उसका अपमान करके फँस गये हैं। उर्दू के प्रति उनकी इस घृणा पर मुसलमान तो फिर भी कम बोल रहे हैं, हिंदू उनको संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त घृणा फैलाने वाला मुख्यमंत्री बता रहे हैं। एक साहित्यकार कहते हैं कि पहली बात तो उर्दू भारतीय भाषा है एवं आम बोलचाल की भाषा का अभिन्न अंग है। दूसरी बात यह एक मीठी ज़ुबान है, जिसके बिना काम चल ही नहीं सकता। मगर योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करनी है एवं उन्हें हिंदुओं का नेता बनने का भूत सवार है; वह भी घृणा फैलाकर, अच्छे काम करके नहीं। ऐसे में उन्हें कौन पसंद करेगा?

संगम के जल पर विवाद

प्रयागराज में महाकुंभ स्नान के बीच संगम में त्रिवेणी के जल को न नहाने योग्य बताने वाली केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भड़क गये हैं। वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी पर बरसने के उपरांत त्रिवेणी के जल को नहाने योग्य न बताने वाली रिपोर्ट को लेकर भी भड़क गये। वह कहते हैं कि महाकुंभ में संगम का जल पूर्णत: स्नान करने योग्य है एवं आचमन करने योग्य भी है। संगम के जल में ऑक्सीजन की मात्रा आठ से नौ तक है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड लगातार जल स्वच्छ करने की दिशा में कार्य कर रहा है। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने महाकुंभ में बड़े-बड़े लोगों के स्नान करने की बात कही। मुख्यमत्री योगी आदित्यनाथ ने आरोप लगाया कि महाकुंभ को बदनाम करने की साज़िश चल रही है। झूठे वीडियो चल रहे हैं।

विदित हो कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने संगम के जल के कई नमूने लेकर परीक्षण किया था, जिसकी रिपोर्टर 03 फरवरी को उसने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कहा था कि गंगा-यमुना के पानी में तय मानक से कई गुना फ़ीकल कोलीफार्म बैक्टीरिया हैं। इसके उपरांत 18 फरवरी को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को अनुचित बताते हुए एक नयी रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जल के पुनर्परीक्षण की नयी रिपोर्ट माँगी है।

दिल्ली में फर्जी पहचान के साथ रह रही महिला नक्सली गिरफ्तार, झारखंड पुलिस को थी लंबे समय से तलाश

नई दिल्ली/चाईबासा: बाहरी दिल्ली के पीतमपुरा इलाके से पश्चिमी सिंहभूम की रहने वाली एक महिला नक्सली को दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने गिरफ्तार किया है। वह राष्ट्रीय राजधानी में फर्जी पहचान के सहारे घरेलू सहायिका के रूप में रह रही थी। पुलिस ने बुधवार को इस गिरफ्तारी की पुष्टि की।

कई गंभीर मामलों में वांछित थी महिला नक्सली

दिल्ली पुलिस के मुताबिक, 23 वर्षीय यह महिला झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के कुदाबुरु गांव की रहने वाली है। वह झारखंड पुलिस के साथ मुठभेड़ के कई मामलों में वांछित थी और उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC), शस्त्र अधिनियम, विस्फोटक अधिनियम और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) की विभिन्न धाराओं के तहत मामले दर्ज हैं। झारखंड की एक अदालत ने 26 मार्च 2023 को उसके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया था।

2020 में आई थी दिल्ली, फर्जी पहचान पर कर रही थी काम

पुलिस के अनुसार, महिला नक्सली संभवतः 2020 में दिल्ली आई थी। उसने झूठी पहचान के सहारे नोएडा और दिल्ली के विभिन्न इलाकों में घरेलू सहायिका के रूप में काम किया। बाद में वह पीतमपुरा में स्थायी रूप से रहने लगी।

गुप्त सूचना के आधार पर गिरफ्तारी

दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा को कई महीनों की निगरानी और खुफिया जानकारी के बाद महिला नक्सली की उपस्थिति के बारे में विश्वसनीय सूचना मिली थी। पुलिस उपायुक्त (अपराध) विक्रम सिंह ने बताया कि चार मार्च को महाराणा प्रताप एन्क्लेव, पीतमपुरा में छापेमारी के दौरान उसे गिरफ्तार किया गया।

कम उम्र में बनी थी नक्सली, खतरनाक हथियारों का मिला था प्रशिक्षण

महिला नक्सली का जन्म झारखंड के एक किसान परिवार में हुआ था। वह महज 10 साल की उम्र में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गुट में शामिल हो गई थी। उसने झारखंड के कोल्हान जंगल में रमेश नामक कमांडर के नेतृत्व में पांच साल तक प्रशिक्षण लिया। इस दौरान उसे इंसास राइफल, एसएलआर, एलएमजी, हथगोला और .303 राइफल जैसे आधुनिक हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी गई।

पुलिस मुठभेड़ों में थी सक्रिय भूमिका

झारखंड पुलिस के अनुसार, 2018 और 2020 के बीच हुई तीन अलग-अलग मुठभेड़ों में वह सक्रिय रूप से शामिल रही। पहली मुठभेड़ 2018 में कोल्हान में हुई थी, दूसरी 2019 में पोरहाट में और तीसरी 2020 में सोनुआ में हुई थी। इन मुठभेड़ों के बाद उसके गुट के कमांडरों ने उसे दिल्ली भाग जाने का निर्देश दिया था।

झारखंड पुलिस को सौंपी जाएगी आरोपी

अधिकारी ने बताया कि झारखंड के सोनुआ थाने में महिला नक्सली के खिलाफ आपराधिक साजिश, हत्या के प्रयास और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे गंभीर आरोपों के तहत कई प्राथमिकियां दर्ज हैं। दिल्ली पुलिस उसे आगे की कानूनी कार्यवाही के लिए अदालत में पेश करेगी, जिसके बाद झारखंड पुलिस उसे हिरासत में ले सकती है।।

अमेरिका का कनाडा और मेक्सिको को बड़ा झटका, आज से टैरिफ लगाने की घोषणा

वाशिंगटन: हाल के दिनों में ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कई देशों पर टैरिफ लगाने की घोषणा की थी। इस कड़ी में आज यानी मंगलवार से इसकी शुरुआत हो रही है। अमेरिका आज से कनाडा और मेक्सिको पर तगड़ा टैरिफ लगाने जा रहा है। इन दोनों देशों से अमेरिका आने वाले सामानों पर 25 फीसदी टैरिफ लगेगा। इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोमवार को कहा कि 4 मार्च से कनाडा और मेक्सिको पर टैरिफ लागू हो जाएंगे।

यूएस प्रेसिडेंट के टैरिफ वाले एलान के बाद व्हाइट हाउस का बयान सामने आया है। इस बयान में कहा गया कि अमेरिका को टैरिफ लगाना ही होगा। अब लोगों को कार प्लांट और दूसरी चीजें अमेरिका में ही बनाना चाहिए। जिससे उन्हें किसी प्रकार के टैरिफ का सामना नहीं करना पड़ेगा।

इतना ही नहीं गत दिनों डोनाल्ड ट्रंप ने फेंटेनाइल (ड्रग) के बारे में बात की। उन्होंने इस संदर्भ में कहा कि फेंटेनाइल की तस्करी पर रोक नहीं लगाई गई। इसलिए अब समझौते की कोई गुंजाइश बची नहीं है। ट्रंप ने चीन का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका चीन से फेंटेनाइल के शिपमेंट को रोकने में विफल रहा है। अब बीजिंग को दंडित करने के लिए सभी चीनी इंपोर्ट पर टैरिफ को 10 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी कर दिया जाएगा।

फ़सलों का उचित भाव नहीं देना चाहती सरकार!

केंद्र सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी नहीं दे रही है। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को तो केंद्र सरकार बिलकुल भी लागू नहीं करना चाहती। इसलिए दोबारा किसानों के साथ बातचीत की पहले के बाद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के गारंटी क़ानून और स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से किसानों को फ़सलों का भाव देने की सहमति केंद्र सरकार नहीं दे रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर गारंटी क़ानून और दूसरी सभी माँगों को लेकर केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच चंडीगढ़ में अभी तक छ: बैठकें हो चुकी हैं और सभी विफल रही हैं। इससे पहले 14 फरवरी को हुई बैठक भी विफल रही थी। केंद्र सरकार और किसानों के बीच अब अगली बैठक होली के बाद 19 मार्च को होनी है।

यह बैठक क़रीब ढाई घंटे चली, जिसमें केंद्र सरकार की तरफ़ से केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और केंद्रीय कमेटी के पदाधिकारी मौज़ूद थे। वहीं, किसानों की तरफ़ से संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के 28 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख किसान नेता सरवन सिंह पंधेर, काका सिंह कोटड़ा, जसविंदर लोंगोवाल, बलवंत सिंह बेहरामके सुखजीत सिंह, इंद्रजीत सिंह कोटबुढ़ा, अरुण सिन्हा, लखविंदर सिंह और अभिमन्यु कोहाड़ के अलावा दूसरे प्रमुख किसान नेता शामिल हुए थे। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल भी इस बैठक के दौरान पास ही एंबुलेंस में रहे। इस बैठक में पंजाब सरकार की तरफ़ से वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा, कृषि मंत्री गुरमीत सिंह गुड्डियाँ और फूड प्रोसेसिंग मंत्री लालचंद कटारुचक भी शामिल रहे।

इस बैठक में किसानों की माँगों पर केंद्र सरकार सहमत नहीं हुई और उसके प्रतिनिधियों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की क़ानूनी गारंटी पर हामी नहीं भरी। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि सरकार अभी 18 फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदने की जगह दो-तीन फ़सलों को और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद सकती है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत पहले ही 23 फ़सलें शामिल हैं। लगता है कि केंद्र सरकार किसानों से चालाकी कर रही है और उन्हें बहकाकर शान्त करना चाहती है। केंद्र सरकार को खनोरी बॉर्डर और शंभू बॉर्डर पर किसानों के आन्दोलन से ऐतराज़ है और डर यह है कि कहीं दोबारा पूरे देश के किसान सड़कों पर न उतर आएँ। किसान केंद्र सरकार से साफ़ कह रहे हैं कि अगर उसने किसानों की माँगें नहीं मानीं, तो वे दिल्ली जाएँगे। केंद्र सरकार जानती है कि अगर किसान दिल्ली की तरफ़ बढ़े, तो किसान आन्दोलन फिर से तूल पकड़ सकता है। यही कारण है कि 2020 से ही केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को विफल करने की कोशिश करती रही है। इसके लिए उसने किसानों को बदनाम भी किया और उन पर अत्याचार भी किये।

बैठक के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि चर्चा सकारात्मक रही है। हमने किसानों की समस्याओं को ध्यान से सुना है और हमने मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखा, जो किसानों के कल्याण से सम्बन्धित हैं। दोनों पक्षों के पास अपने-अपने आँकड़े हैं और अब इनका मिलान किया जाएगा। इस बैठक से पहले कृषि मंत्री शिवराज सिंह किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के पास पहुँचे और उनसे अनशन ख़त्म करने की अपील की। लेकिन किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने किसानों की माँगें पूरी न होने तक अनशन तोड़ने से मना कर दिया। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता सरवन सिंह पंधेर और दूसरे कई किसान नेता केंद्र सरकार के किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं करने पर दिल्ली कूच का ऐलान कर चुके हैं। अब अगली बैठक 19 मार्च को होने के बाद ही किसानों के दिल्ली कूच की तारीख़ तय हो सकेगी। 19 मार्च को केंद्र सरकार और किसानों की बैठक में क्या होगा? केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान किसानों की समस्याओं को कितनी गंभीरता से लेंगे? यह तो बैठक के बाद ही पता चलेगा। इससे पहले समझने की ज़रूरत यह है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी क्यों दी जानी ज़रूरी है?

केंद्र सरकार ने जून, 2024 ख़रीफ़ की और अक्टूबर, 2024 में रबी की कुछ ही फ़सलों का मामूली न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाते हुए किसानों को बहलाने का प्रयास किया था। जबकि केंद्र सरकार की विपणन नीति के तहत 23 फ़सलें आती हैं, जिन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के आधार पर सी2 प्लस 50 प्रतिशत के हिसाब से ख़रीदा जाना चाहिए। लेकिन केंद्र सरकार और राज्य सरकारें न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली सभी फ़सलें किसानों से ख़रीदती हैं और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही सही निर्धारण अभी तक किया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य सही न मिलने के चलते किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली अपनी ज़्यादातर फ़सलों को बाज़ार में कम भाव में बेचना पड़ता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न मिलने से बाज़ार के उतार-चढ़ाव के कारण किसानों को बहुत नुक़सान होता है। किसानों को घाटे से बचाने के लिए भारत के कृषि सुधारों के हिस्से के रूप में पहली बार वित्त वर्ष 1966-67 में बाज़ार भाव पर नियंत्रण करने के प्रयास हुए थे। इसके बाद न तो इस तरह के प्रयास हुए और न ही फ़सलों का कोई निर्धारित भाव किसानों मिल पाया है। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का गारंटी क़ानून बनना ज़रूरी है।

अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत सात तरह के अनाज (गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ और रागी), पाँच तरह की दालें (अरहर, चना, मसूर, उड़द और मूँग), सात तिलहन वाली फ़सलें (सरसों, सोयाबीन, मूँगफली, तिल, सूरजमुखी, कुसुम, निगरसीड) और चार व्यावसायिक फ़सलें (गन्ना, कपास, कच्चा जूट और सूखा गोला) आदि 23 फ़सलें आती हैं। लेकिन केंद्र सरकार अभी तक केवल 18 फ़सलें ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद रही है। हरियाणा ने अगस्त 2024 में 24 फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत रखा। इससे पहले हरियाणा सरकार 14 फ़सलें ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद रही थी। केंद्र सरकार ने कुछ वर्ष पहले यह भी कहा था कि किसान अपनी फ़सलें कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकते हैं। लेकिन राज्य सरकारें दूसरे राज्यों के किसानों की फ़सलें नहीं ख़रीदती हैं।

फ़सलों के भाव की अस्थिरता और स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने से किसानों को घाटा हो रहा है, जिसमें सबसे ज़्यादा छोटी और मध्यम जोत के किसान पिस रहे हैं। क्योंकि बड़े किसान तो किसी तरह घाटे से उबर जाते हैं, जिसकी वजह भी उनके पास अपनी मशीनरी का होना प्रमुख है। लेकिन ऐसे किसान, जो किराये पर ही मशीनरी पर निर्भर हैं और खेतों में पानी लगाने के लिए उन्हें ज़्यादा पैसा ख़र्च करना पड़ता है; उनके लिए कम न्यूनतम समर्थन मूल्य और उसका गारंटी क़ानून न होने से घाटा होता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का क़ानून इन किसानों की फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदने की गारंटी देगा और स्वामीनाथन आयोग का सी2 प्लस 50 प्रतिशत का फार्मूला किसानों को घाटे से बचाएगा। लेकिन केंद्र सरकार किसानों की इन दोनों ही माँगों को नहीं मान रही है, जिससे किसानों को अपनी फ़सलों को घाटे से बेचना पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ़ किसानों से फ़सलें ख़रीदने वाले व्यापारी मनमाने भाव में उन्हें बेचते हैं।

अभी केंद्र सरकार किसानों को ए2, ए2 प्लस एफएल, सी2 फार्मूला लगाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य दे रही है। इसमें ए2 के तहत खादों और कीटनाशकों और मज़दूरी की लागत, एफएल किसान परिवार का श्रम है और सी2 के तहत भूमि का किराया और अन्य निश्चित लागत है। हालाँकि इन सब लागतों को सरकार किसानों की वास्तविक लागत के हिसाब से भी नहीं देती, बल्कि अपने द्वारा निर्धारित लागतों को मान्य करती है, जिससे किसानों को लगातार घाटा ही होता है। इन न्यूनतम समर्थन मूल्य में किसानों को लाभ सरकार नहीं देती है। स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से लागत और लागत का 50 प्रतिशत लाभ किसानों को देने का प्रावधान है। अगर स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करे और अभी जो भाव किसानों को दे रही है, वही लागत मूल्य मान भी लें, तो उसमें आज के भाव में 50 प्रतिशत रुपये और जोड़कर उसे किसानों को देने होंगे। उदाहरण के लिए अभी गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,425 रुपये प्रति कुंतल है। अगर केंद्र सरकार स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है, तो किसानों को कम से कम 3,637.50 रुपये प्रति कुंतल गेहूँ का भाव मिलेगा। केंद्र सरकार का तर्क है कि इससे खाद्य पदार्थ महँगे हो जााएँगे। लेकिन महँगाई तो अब भी है और केंद्र सरकार उस पर रोक नहीं लगा रही है। बाज़ार में बिकने वाले खाद्य पदार्थों पर अधिकतम ख़ुदरा मूल्य लागू (एमआरपी) होता है, जबकि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर भी सरकार केवल लागत मूल्य ही देना चाहती है। आज देश के किसानों को आधिकारिक तौर पर घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है, जिसे महँगाई के हिसाब से हर साल बढ़ाया भी नहीं जाता। इससे साफ़ है कि केंद्र सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य की मौज़ूदा नीति न किसानों के हित में है, न न्यायकारी है।

जानलेवा साबित हो रही रैगिंग

हाल में केरल के कोट्टायम के सरकारी कॉलेज ऑफ नर्सिंग में सीनियर्स द्वारा जूनियर छात्र के साथ क्रूर रैगिंग की घटना का वीडियो सामने आने के बाद यह एक बार साफ़ हो गया है कि रैगिंग की रोकथाम के लिए बना क़ानून, सर्वोच्च अदालत के दिशा-निर्देश व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के रैगिंग को रोकने के लिए चलाये जाने वाले कार्यक्रम कारगर नतीजे नहीं ला पा रहे हैं। यह चिन्ता का सबब है। वीडियो में दिख रहा है कि जूनियर छात्र चारपाई पर पड़ा हुआ है और उसके हाथ पैर बाँधे हुए हैं। जब उसके गुप्तांगों पर डंबल रखे जाते हैं, तो वह दर्द से चीखता है और सीनियर्स हँसते हैं। ज्योमेट्री डिवाइडर से उसके शरीर के कई हिस्सों को चुभाया जाता है और पेट पर गोले बनाये जाते हैं। जूनियर के पैर से ख़ून बह रहा है। सीनियर्स अन्य डरे हुए छात्रों को वीडियो बनाने के लिए कहते हैं। जब भयानक कृत्य वाला यह वीडियो सामने आया, तो पुलिस ने जाँच शुरू की और आरोपी पाँचों छात्रों को गिरफ़्तार कर लिया।

उधर केरल नर्सेज एंड मिडवाइव्स काउंसिल ने तृतीय वर्ष के आरोपी इन पाँचों छात्रों को पढ़ाई जारी रखने से रोकने का फ़ैसला किया है। इस काउंसिल की एक सदस्य का मानना है कि यह निर्णय इस तरह से लिया गया है कि उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखने का कोई मौक़ा नहीं मिलेगा। ऐसे व्यक्तियों को नर्सिंग पेशे में आने की अनुमति देना विनाशकारी होगा। यही नहीं इस सरकारी कॉलेज के प्रिंसिपल व एक असिस्टेंट प्रोफेसर को भी निलंबित कर दिया है। इस घटना के बाद इसी कॉलेज के कई और छात्रों ने भी रैगिंग का शिकार होने वाले अपने अनुभवों को अब साझा किया है।

दरअसल भारत के शैक्षणिक संस्थानों में रैगिंग सम्बन्धित केरल की नवीनतम घटना अपने आपमें कोई अपवाद नहीं है। आँकड़ों पर निगाह डालें, तो पता चलता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की हेल्पलाइन पर 2012-2023 के दरमियान 8,000 रैगिंग की शिकायतें दर्ज की गयीं। इन शिकायतों में 208 प्रतिशत का उछाल देखा गया। इन 8,000 शिकायतों में से 1,202 शिकायतें उत्तर प्रदेश की हैं, यह अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक हैं। यानी उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। यह हालात तब हैं, जब यहाँ के बीते सात साल से मुख्यमंत्री पद सँभाले योगी अक्सर यह डंका पीटते सुनायी पड़ते हैं कि इस राज्य में क़ानून का उल्लघंन करने वाले की $खैर नहीं। रैगिंग के कारण 78 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इनमें से सबसे अधिक 10 आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र के हैं।

सवाल यह है कि रैगिंग जारी क्यों है? यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि देश में रैगिंग को रोकने के लिए रैगिंग प्रतिषेध अधिनियम-2011 है। इसके तहत जो कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी शैक्षणिक संस्थान के अंदर या बाहर रैगिंग करता है, उसमें भाग लेता है, उसे बढ़ावा देता है या उसका प्रचार करता है, उसके अपराधी साबित होने पर दो साल तक की जेल या 10 हज़ार रुपये तक का ज़ुर्माना या दोनों ही हो सकते हैं। रैगिंग एक संज्ञेय अपराध है यानी ऐसा अपराध, जिसके लिए पुलिस बिना वारंट के अपराधी को गिरफ़्तार कर सकती है। सन् 2009 में सर्वोच्च अदालत ने रैगिंग को रोकने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किये थे।

इसमें रैगिंग को रोकने के लिए शैक्षणिक संस्थानों में प्रॉक्टोरियल समितियाँ बनाना, ऐसी घटनाओं की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना आदि शामिल हैं।

इसके अलावा यूजीसी ने भी उच्च शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने के नियम बनाये हैं। इन नियमों के तहत दोषी छात्र का कक्षा से निलंबन हो सकता है। छात्रवृत्ति और सरकारी सुविधाओं को रोकना, हॉस्टल से निलंबन या निकालना, उसका दाख़िला रद्द करना आदि। लेकिन अहम सवाल यह उठता है कि कितने शैक्षणिक संस्थानों में ऐसे नियमों का पालन गंभीरता से होता है। कमज़ोर पालन के चलते भी छात्र रैगिंग के शिकार होते हैं। शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन की इस मामले में बरतने वाले सुस्त नज़रिये की सज़ा जूनियर छात्र भुगतते हैं। भारत इस समय सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है और प्रधानमंत्री भी समय-समय पर इस युवा शक्ति की भरपूर ऊर्जा के इस्तेमाल का आह्वान करते रहते हैं। वह बीते 11 सालों से प्रधानमंत्री हैं; लेकिन इस अवधि में रैगिंग के मामलों में वृद्धि हुई है।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसलाः दृष्टिहीन भी बन सकेंगे जज

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि दृष्टिहीन (नेत्रहीन) लोग भी न्यायिक सेवाओं में नियुक्त हो सकते हैं। अदालत ने साफ किया कि दिव्यांगता के आधार पर किसी भी व्यक्ति को न्यायिक सेवाओं से वंचित नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियमों को खारिज कर दिया, जो दृष्टिहीन उम्मीदवारों को जज बनने से रोकते थे। इस फैसले के बाद अब दृष्टिहीन उम्मीदवार भी न्यायिक सेवाओं के लिए चयन प्रक्रिया में भाग ले सकेंगे।

क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने ?

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की डबल बेंच ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा, कि किसी भी व्यक्ति को उसकी दिव्यांगता के आधार पर न्यायिक सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता। दृष्टिहीन लोगों को भी समान अवसर मिलना चाहिए, ताकि वे अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें। सुप्रीम कोर्ट

ने कहा कि मध्य प्रदेश के न्यायिक सेवा नियमों में भेदभावपूर्ण भाषा का इस्तेमाल किया गया था, जिससे दृष्टिहीन उम्मीदवारों को बाहर रखा जाता था।

कैसे शुरू हुआ मामला ?

इस फैसले की शुरूआत मध्य प्रदेश की एक महिला की याचिका से हुई थी, जिसका

एक दृष्टिहीन बेटा न्यायिक सेवा में जाना चाहता था। जब उसे चयन प्रक्रिया में भाग लेने से रोका गया, तो उसकी मां ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा। अदालत ने इसे गंभीरता से लेते हुए स्वतः संज्ञान लेकर मामला सुना और यह ऐतिहासिक निर्णय सुनाया।

यह फैसला दृष्टिहीन और अन्य दिव्यांग व्यक्तियों के लिए एक बड़ी जीत है। यह न्यायिक सेवाओं में समावेशन को बढ़ावा देगा। दिव्यांग व्यक्तियों को बराबरी का अवसर मिलेगा और भेदभाव खत्म होगा।

सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले से दृष्टिहीन उम्मीदवारों के लिए न्यायिक सेव-ओं में एक नया रास्ता खुल गया है। अब वे भी जज बनने के अपने सपने को साकार कर सकते हैं।

तापमान के साथ-साथ चढ़ रहा गुजरात का सियासी पारा

Chhota Udaipur (Gujarat), Dec 01 (ANI): BJP supporters attend a public rally addressed by Prime Minister Narendra Modi for the second phase of the Gujarat Assembly elections, in Chhota Udaipur on Thursday. (ANI Photo)

गुजरात में यूँ तो ख़ास सर्दी पड़ती नहीं है और फरवरी में ज़्यादातर तापमान सामान्य ही रहता है। लेकिन इस बार फरवरी के पहले हफ्ते में ही गुजरात में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर पहुँच गया था। अब गुजरात का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच चुका है और हर रोज़ बढ़ रहा है। तापमान के बढ़ने के साथ-साथ यहाँ का सियासी पारा लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में गुजरात में हुए निकाय चुनाव में भाजपा भले ही सबसे ज़्यादा 68 नगर पालिकाओं में से ज़्यादातर 60 सीटों और तीनों तालुका पंचायतों पर क़ब्ज़ा कर चुकी है। अब भाजपा के लिए छोटा उदयपुर नगर पालिका में बोर्ड का गठन कर सकेगी। लेकिन आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी ने निकाय चुनाव में काफ़ी बढ़त हासिल करके भाजपा को फिर से एक चुनौती दे दी है।

गुजरात की 66 नगर पालिकाओं के कुल 461 वार्डों में से 437 वार्डों के लिए 16 फरवरी को वोटिंग हुई थी और 18 फरवरी को इस चुनाव के नतीजे सामने आये थे। 24 वार्डों पर पहले ही उम्मीदवारों को निर्विरोध चुन लिया गया था। इन सीटों पर कुल औसत वोटिंग 61.65 प्रतिशत हुई। सबसे कम वोटिंग मध्यावधि चुनाव वाली बोटाद और वांकानेर नगर पालिकाओं में हुई, जहाँ सिर्फ़ 35.25 प्रतिशत ही वोट पड़े। इस नगर निकाय चुनाव में कुल 5,084 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। इससे पहले ही 214 सीटों पर भी पहले ही उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिये गये थे। उम्मीदवारों के निर्विरोध चुने जाने में भाजपा को सबसे ज़्यादा फ़ायदा पहुँचा, क्योंकि भचाऊ, बांटवा, हलोल और जाफ़राबाद आदि चार नगर पालिकाओं में भाजपा को निर्विरोध ही बहुमत हासिल हो गया था। हालाँकि साल 2023 में पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने के बाद हुए इस पहले निकाय चुनाव में द्वारका के सलाया नगर पालिका में भाजपा खाता भी नहीं खोल सकी। यहाँ की कुल 28 सीटों में से कांग्रेस ने 15 और आम आदमी पार्टी ने 13 सीटों पर जीत हासिल की है। हालाँकि मध्य गुजरात कांग्रेस का गढ़ माना जाता है; लेकिन वहाँ सभी 11 नगर पालिकाओं में उसे हार का सामना करना पड़ा है। स्थिति यह रही कि गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष अमित चावड़ा भी अपने इलाक़े में हार गये।

इस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी कई पक्की सीटें खो दीं। कांग्रेस की इस हार की वजह साल 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले कई नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना माना जा रहा है, जिनमें नारायण राठवा, संग्राम सिंह राठवा और मोहन सिंह राठवा जैसे विधायक शामिल हैं। हालाँकि लेकिन दूसरी तरफ़ इस निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी ने मज़बूती हासिल की है। इसके अलावा कई निर्दलियों ने भी चुनाव जीतकर भाजपा और कांग्रेस को चौंका दिया है। क़रीब दो-ढाई साल बाद गुजरात के विधानसभा होने हैं और भाजपा इस राज्य पर 30 साल से शासन कर रही है; लेकिन उसे कांग्रेस से ज़्यादा डर आम आदमी पार्टी से लगने लगा है। क्योंकि आम आदमी पार्टी के समर्थक और कार्यकर्ता गुजरात में लगातार बढ़ रहे हैं। इसकी तस्वीर आम आदमी पार्टी की रैलियों और सभाओं में साफ़तौर पर दिखती है।

भाजपा ने अपने गढ़ अहमदाबाद शहर में भी 28 में से 14 सीटें ही हासिल कीं, जिससे वो बहुमत से एक सीट पीछे रह गयी। अहमदाबाद शहर में कांग्रेस ने 13 और बहुजन समाज पार्टी ने बावला नगर पालिका की एक सीट जीत ली, जिससे वो किंगमेकर की भूमिका में आ गयी है। अमरेली, राजुला और जाफ़राबाद नगर पालिकाओं के अलावा सोमनाथ के कोडिनार नगर पालिका में भी भाजपा ने सभी सीटें जीत ली हैं, जबकि कांग्रेस का दोनों जगह से पूरी तरह सफ़ाया हो गया है।

इसके अलावा जामनगर की जाम जोधपुर नगर पालिका के 7 वार्डों में भाजपा ने कुल 28 सीटों में से 27 पर जीत हासिल की है; लेकिन एक सीट पर जीत दर्ज करके आम आदमी पार्टी ने यहाँ अपना खाता खोल लिया है। कांग्रेस यहाँ भी कोई सीट नहीं जीत सकी। लेकिन माँगरोल नगर पालिका के 9 वार्डों की 36 सीटों में से भाजपा को कड़ी टक्कर देते हुए कांग्रेस ने 15 सीटें हासिल की हैं, जबकि भाजपा को भी 15 सीटें ही हासिल हुई हैं। यहाँ पर भी आम आदमी पार्टी ने एक सीट पर क़ब्ज़ा जमा लिया है। यहाँ की बाक़ी पाँच सीटों में से चार सीटें बहुजन समाज पार्टी के खाते में और एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के खाते में गयी है। वहीं वडोदरा ज़िले की कुल 28 सीटों में से भाजपा ने 19 और आम आदमी पार्टी ने चार सीटें जीती हैं। लेकिन पंचमहल की हलोल नगर पालिका की सभी 36 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल करके रिकॉर्ड बनाया है। खेड़ा ज़िले की महुधा नगर पालिका की 24 सीटों में से पहली बार भाजपा ने 14 सीटों पर जीत हासिल की है। आणंद ज़िले की ओड नगर पालिका की भी 24 सीटों में से भाजपा ने सबसे ज़्यादा 18 सीटें जीती हैं।

आम आदमी पार्टी की गुजरात में एंट्री साल 2021 में निकाय चुनाव से हुई थी, जब उसने सूरत में भाजपा को बुरी तरह हराकर 27 सीटों पर जीत हासिल की थी और प्रधानमंत्री के गृह ज़िला बड़नगर में दो सीटें हासिल की थीं। इस बार आम आदमी पार्टी ने भाजपा से भी कई सीटें छीन ली हैं; लेकिन सबसे ज़्यादा सीटें कांग्रेस को हराकर जीती हैं। वहीं समाजवादी पार्टी ने पहली ही बार में निकाय चुनाव में छ: सीटें जीतकर सबको चौंका दिया है। इसके अलावा सर्व समाज पार्टी ने चार सीटें और भारत नवनिर्माण मंच ने दो सीटों पर इस निकाय चुनाव में जीत हासिल की है।

जानकार मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी साल 2027 के गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के लिए कड़ी चुनौती बन सकती हैं। इन दोनों पार्टियों के बढ़ने से कांग्रेस और कमज़ोर हो सकती है। इस बार के निकाय चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से आंकलाव, बालासिनोर, देवगढ़ बारिया, ओड, लुनावाडा, संतरामपुर और हलोल नगर पालिका में हराकर बढ़त हासिल की है, तो आम आदमी पार्टी ने पहली ही बार में आठ सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया है। आम आदमी पार्टी ने भाजपा के 16 बाग़ी नेताओं को टिकट दिया था, जिससे भाजपा को कड़ी चुनौती मिली। वहीं आदिवासी बहुल इलाक़े में आम आदमी पार्टी ने कई सीटें जीतकर भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। नर्मदा तालुका पंचायत में भी आम आदमी पार्टी ने भाजपा को कड़ी टक्कर देते हुए दो में से एक सीट पर क़ब्ज़ा कर लिया।

गुजरात में स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजे देखने लगता है कि भाजपा से गुजरात विधानसभा की सत्ता और नगर पालिका की सत्ता आसानी से कोई नहीं छीन सकेगा; लेकिन आम आदमी पार्टी उसके लिए चुनौती ज़रूर बन रही है। गुजरात निकाय चुनाव में आम आदमी की सीटें बढ़ने को लोग भाजपा से दिल्ली की हार का बदला बता रहे हैं; लेकिन अभी आम आदमी पार्टी गुजरात में उतनी मज़बूत स्थिति में नहीं पहुँच सकी है कि इसे दिल्ली में हार का बदला कहा जा सके। साल 2022 में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने काफ़ी मेहनत की थी; लेकिन उसके पाँच उम्मीदवार ही जीतकर विधानसभा पहुँच सके। हालाँकि किसी नई पार्टी के लिए भाजपा के गढ़ में इतनी बड़ी सेंध लगाना भी बड़ी बात है। गुजरात सरकार में भाजपा पिछले 30 साल से क़ाबिज़ है और कांग्रेस 30 साल से गुजरात की सत्ता से दूर है। ऐसे में आम आदमी पार्टी का पहले ही विधानसभा चुनाव में पाँच विधानसभाओं में क़ब्ज़ा कर लेना भी कोई छोटी बात नहीं है।

सूत्रों के मुताबिक, आम आदमी पार्टी के प्रमुख दिल्ली हार के बाद गुजरात में अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल ने गुजरात में साल 2027 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए पार्टी में कई बड़े बदलाव करने के साथ-साथ चुनावी रणनीति बनाएँगे, जिससे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के गढ़ में ही भाजपा को हराया जा सके। ऐसा कहा जा रहा है कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली की कमान वहाँ की पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी सँभाल सकती हैं। आम आदमी पार्टी के नेता मानकर चल रहे हैं कि अगर निष्पक्ष चुनाव हुए, तो गुजरात में आम आदमी पार्टी सत्ता में आ सकती है। हालाँकि ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा के गुजरात हारते ही पूरे देश में भाजपा कमज़ोर हो जाएगी और प्रधानमंत्री मोदी का जादू ख़त्म होने में वक़्त नहीं लगेगा। साल 2027 में फरवरी में पंजाब विधानसभा के भी चुनाव हैं और अक्टूबर-नवंबर में गुजरात विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी को गुजरात में बढ़त बनाने की रणनीति बनाने के साथ-साथ पंजाब में अपनी सत्ता बचाने की भी चुनौती होगी। मौसम के हिसाब से तो तापमान चढ़ता-उतरता रहेगा; लेकिन तापमान के साथ-साथ बढ़ता हुआ गुजरात का सियासी पारा अब 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले उतरने वाला नहीं है।

गिरते मूल्य, बढ़ती बेशर्मी: समाज की नई तस्वीर

“नंगे हैं तो क्या हुआ, दम वाले हैं”

बृज खंडेलवाल द्वारा

व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप और ज़ेलेंस्की के बीच हुई जुबानी जंग को देखकर लोगों ने कहा, “समरथ को नहीं दोष गुसाईं”। यह कहावत आज के दौर में सच साबित होती दिख रही है। ज़ेलेंस्की को एक ऐसे कुत्ते की तरह देखा गया, जो न घर का रहा न घाट का, और ट्रंप को उस चालाक बंदर की तरह, जो दो लड़ती बिल्लियों को न्याय दिलाने के बहाने पूरी रोटी हड़प जाता है। यह नज़ारा सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में साहित्य, संस्कृति, डिप्लोमेसी और शिष्टाचार की धज्जियाँ उड़ती दिख रही हैं। 

भारत में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। एक राजनीतिक रैली में एक नेता ने अपने प्रतिद्वंद्वी के निजी जीवन पर इतनी अभद्र टिप्पणी की कि सुनने वालों के कान पक गए। टीवी चैनलों पर बहस के नाम पर होने वाली चीख-पुकार और मारपीट ने दर्शकों को निराश कर दिया। सार्वजनिक स्थानों पर लड़के-लड़कियों के बीच गाली-गलौज का युद्ध छिड़ जाता है। सोशल मीडिया पर अलग राय रखने वालों को अपमानित करना आम बात हो गई है। पहले शादी-ब्याह में महिलाएं गालियों के रूप में मज़ाक करती थीं, लेकिन आज लैंगिक समता के नाम पर गर्ल स्टूडेंट्स भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। उनके शब्दकोश में भी चटपटी गालियों का भरपूर स्टॉक है। 

पुरानी पीढ़ी के लोग कहते हैं कि आधुनिक समाज में मर्यादा और शिष्टाचार की सीमाएं धुंधली होती जा रही हैं। “नंगई” शब्द, जो पहले दिखावे और बेशर्मी का प्रतीक था, आज एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। यह प्रतिस्पर्धा, जिसमें हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है, न केवल भौतिकता से जुड़ी है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मूल्यों पर भी एक गहरा सवाल खड़ा करती है। 

राजनीति, जो कभी समाज का मार्गदर्शन करती थी, आज नंगई का अखाड़ा बन गई है। नेता और सार्वजनिक व्यक्ति अपनी गरिमा को ताक पर रखकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं। हाल ही में एक राजनीतिक बहस में एक नेता ने दूसरे नेता पर इतने व्यक्तिगत हमले किए कि उनकी राजनीतिक मंशा की बजाय उनका व्यक्तिगत द्वेष सामने आ गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी डिप्लोमेसी का मज़ाक बनते देखा गया है। 

मीडिया, जो समाज का दर्पण माना जाता है, भी इस नंगई की होड़ में शामिल हो गया है। टीवी चैनल खबरें दिखाने की बजाय तमाशा बन गए हैं। बहसों में हंगामा, चीख-पुकार और व्यक्तिगत हमले आम हो गए हैं। भाषा की गरिमा कहीं खो गई है। 

रिश्तों का लिहाज़ भी पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है। नेता और अफसरों के बीच का संबंध अब केवल भूमिका तक सीमित नहीं रहा। आज, अफसर अपने नेता को सम्मान देने की बजाय उन्हें डाँटते हुए नज़र आते हैं। यह अराजकता सरकारी दफ़्तरों से लेकर सड़कों तक देखी जा सकती है। 

साधु-संत भी इस नंगई से अछूते नहीं हैं। आध्यात्मिकता के प्रतीक अब बेशर्मी की बातें करने लगे हैं। उनके शिष्टाचार और संयम का कोई महत्व नहीं रह गया है। 

इस तरह, आज का समाज एक “बेशर्म समाज” में बदल गया है, जहाँ नैतिकता, मूल्य और गरिमा का कोई स्थान नहीं रहा है। सब कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ और दिखावे के इर्द-गिर्द घूमता है। चाहे राजनीति हो, मीडिया हो या समाज, हर जगह नंगई की एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। 

यह समझना ज़रूरी है कि इस नंगई की प्रतिस्पर्धा से न केवल हमारी पहचान प्रभावित होती है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक ग़लत उदाहरण पेश करती है। हमें इस प्रवृत्ति का सामना करने और इसे समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा, मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी और समाज के हर वर्ग को मर्यादा और शिष्टाचार का पालन करना होगा। तभी हम एक स्वस्थ और संस्कारित समाज की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

विकसित दिल्ली : भाजपा सरकार की कठिन परीक्षा

प्रियंका तंवर

लगभग पौने तीन दशक बाद राष्ट्रीय राजधानी पर दोबारा क़ब्ज़ा करने वाली भाजपा के लिए दिल्ली की सत्ता पर क़ाबिज़ रहना इसे सुरक्षित करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। इस उद्देश्य से पार्टी ने आने वाले वर्षों में शहर को विकसित करने के लक्ष्य के साथ ‘विकसित दिल्ली’ नाम की योजना शुरू की है। भाजपा ने शहर की सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के लिए एक महत्त्वाकांक्षी रोडमैप तैयार किया है; क्योंकि 20 मिलियन से अधिक निवासियों के साथ दिल्ली के बुनियादी ढाँचे में भारी कमियाँ हैं और भाजपा ने इन मुद्दों को सुलझाने का वादा किया है। केंद्र में पार्टी की सरकार नि:संदेह इन आवश्यक परियोजनाओं के लिए धन और समर्थन सुरक्षित करना आसान बना देगी।

भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता में यमुना नदी की सफ़ाई है, जो विवादों की वजह से लंबित थी, जिसने मतदाताओं के समर्थन का आधार एक सही विकल्प के रूप में प्रदान किया। भाजपा का ध्यान शहर के बुनियादी ढाँचे को विकसित करने और उस प्रदूषण को दूर करने पर भी है, जिसके कारण हर साल सर्दियों में शहर का दम घुटने लगता है। केंद्र में भाजपा के मज़बूत नियंत्रण के साथ अब उसके पास उन नीतियों को लागू करने का अवसर है, जो स्थानीय और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप हैं और भगवा पार्टी का बहुप्रचारित डबल इंजन मॉडल भी है। स्थानीय और केंद्र की सरकारों के बीच इस सामंजस्य से परियोजनाओं की तेज़ी से मंज़ूरी और उन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के कार्यान्वयन का मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद है, जो लंबे समय से लंबित हैं या राजनीतिक गतिरोध के कारण बाधित हैं।

जीत हासिल करने के तुरंत बाद दिल्ली भाजपा प्रमुख वीरेंद्र सचदेवा ने कहा कि नयी सरकार अगले पाँच वर्षों में दिल्ली को विकसित राजधानी बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगी। उन्होंने कहा कि ‘बैठक में सभी विधायकों ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में विकास कार्यों को कैसे आगे बढ़ाया जाए, इस पर चर्चा की। हमारी सरकार सभी परियोजनाओं को पूरा करेगी और लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करेगी। झूठ फैलाकर भाजपा को बदनाम करने की आप की कोशिशों का मुक़ाबला हमारे विधायकों के काम से किया जाएगा।’

विकसित दिल्ली प्रदान करने पर भाजपा के फोकस ने कई लोगों का ध्यान आकर्षित किया है; ख़ासकर युवाओं और परिवारों का, जो देश की राजधानी में जीवन की बेहतर गुणवत्ता के लिए तरस रहे हैं। बेहतर शासन, बेहतर सुरक्षा और स्वच्छ सार्वजनिक स्थानों के पार्टी के वादे निश्चित रूप से उन निवासियों को पसंद आये हैं, जो ठोस बदलाव की आवश्यकता महसूस करते हैं। लेकिन पार्टी स्मार्ट शहरों के निर्माण और शहरी बुनियादी ढाँचे के आधुनिकीकरण के अपने व्यापक राष्ट्रीय एजेंडे के अनुरूप नागरिकों के लिए उच्च गुणवत्ता वाला जीवन प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो शायद है भी। इसके अतिरिक्त अपने पास मौज़ूद राष्ट्रीय संसाधनों के साथ भाजपा का लक्ष्य दिल्ली को सरकार की विकासात्मक नीतियों का एक चमकदार उदाहरण बनाना है। उदाहरण के लिए, मंत्रिमंडल की पहली बैठक में दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी में बहुत विलंबित आयुष्मान भारत योजना के कार्यान्वयन को मंज़ूरी दे दी।

हालाँकि यह सिर्फ़ शासन के वादे नहीं हैं, जो दिल्ली के मतदाताओं को आकर्षित कर रहे हैं। भाजपा ने मुफ़्त उपहार देने की रणनीति भी अपनायी है। यह एक ऐसा उपकरण है, जिसका उपयोग भारत में कई राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए करती रही हैं। बढ़ती महँगाई के चलते जीवनयापन करने में आने वाली मुश्किलों और शहर की दूसरी चुनौतियों के साथ उपयोगिताओं पर सब्सिडी, वंचितों के लिए मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल तक बेहतर पहुँच जैसे कल्याणकारी उपायों के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता ने दिल्ली के कामकाजी वर्ग और मध्यम वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित किया, जो चुनाव परिणामों में परिलक्षित हुआ।

दिल्ली की दो सत्ताओं में से एक दिल्ली नगर निगम अभी भी आम आदमी पार्टी के पास है। नयी सरकार को शहर में आवश्यक स्वच्छता सुधार लाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत के साथ पार्टी ने अब ख़ुद को राजधानी के राजनीतिक क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में स्थापित कर लिया है। हालाँकि वादों को पूरा करना उसके लिए कठिन चुनौतियों से भरा काम होगा। दिल्ली सरकार और केंद्र की सरकार के बीच तालमेल बनने में अब सुगमता रहेगी और यह भाजपा को अपने महत्त्वाकांक्षी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली मंच प्रदान करेगा। जैसे-जैसे दिल्ली आगे बढ़ रही है, देश की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि भाजपा आने वाले वर्षों में एक सुरक्षित, स्वच्छ और अधिक समृद्ध शहर बनाने के अपने वादों को कैसे पूरा करेगी?

संघ के दम पर दिल्ली जीती भाजपा?

हर चुनाव में भाजपा के लिए ज़मीन तैयार करते हैं संघ के पदाधिकारी और कार्यकर्ता

इंट्रो– नरेंद्र मोदी के चेहरे और गुजरात मॉडल के नाम पर सन् 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा की सत्ता न सिर्फ़ केंद्र में क़ायम है, बल्कि कई ऐसे राज्यों में भी उसने सत्ता हासिल की है, जहाँ जीत हासिल कर पाना उसके लिए दूर की कौड़ी थी। लेकिन उसकी इस जीत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। दिल्ली में भी वह 27 साल के अंतराल के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रणनीतिक समर्थन के चलते दिल्ली में सत्ता हासिल कर सकी है। दिल्ली में भी भाजपा ने हर राज्य की तरह दिल्ली में भी लोगों के अनुमान के विपरीत कई दिनों के असमंजस के बाद मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा की और रेखा गुप्ता को इस पद पर बैठाया। लेकिन आंतरिक मतभेदों से उभरना भी भाजपा के लिए राजधानी पर शासन करने जितना ही महत्त्वपूर्ण होगा। दिल्ली में भाजपा की जीत में संघ की भूमिका और रणनीतियों को लेकर नितिन महाजन की रिपोर्ट :-

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले 11 वर्षों से केंद्र में और देश भर के 20 से अधिक राज्यों में राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल कर रही है। लेकिन दिल्ली में सरकार बनाना लगभग तीन दशकों से भगवा पार्टी के लिए एक मायावी सपना बना हुआ था; क्योंकि दिल्ली में उसकी अंतिम मुख्यमंत्री के रूप में दिवंगत सुषमा स्वराज ने 03 दिसंबर, 1998 तक शासन किया, जिसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को दिल्ली की जनता ने सत्ता सौंपी थी। इस वर्ष 20 फरवरी को अपने छ: कैबिनेट सहयोगियों के साथ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता के शपथ लेने के बाद दिल्ली सरकार के मुख्यालय, प्लेयर्स बिल्डिंग से भाजपा का वनवास समाप्त हो गया। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को हराकर राष्ट्रीय राजधानी में राजनीतिक जीत हासिल करने का मिशन आसान नहीं था और भाजपा नेतृत्व इस दुविधा से अवगत था। दिल्ली में सफलता हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी प्रमुख जे.पी. नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह सहित भाजपा नेतृत्व ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के समर्थन पर ज़्यादा निर्भर रहने का फ़ैसला किया और पार्टी के लिए समर्थन बढ़ाने के लिए अपने कार्यकर्ताओं की सक्रिय भागीदारी की तलाश की; जैसा कि पार्टी नेतृत्व ने कुछ महीने पहले महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में किया था।

फोटो: नवीन बंसल

शीर्ष भगवा नेतृत्व से हरी झंडी मिलने के बाद आरएसएस ने पिछले कई महीनों से दिल्ली के आम लोगों का दिल जीतने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। यह मिशन आसान नहीं था; क्योंकि अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली सरकार ने दिल्ली में मज़बूत पकड़ बना रखी थी और उनकी दो बार रही सरकारों द्वारा पैदा की गयी मुफ़्त सुविधाओं की संस्कृति, जिसे भाजपा ने मुफ़्त की रेवड़ी-संस्कृति क़रार दिया था; के कारण आम आदमी पार्टी ने बड़े पैमाने पर लोकप्रियता हासिल की थी। आम आदमी पार्टी की सरकार को सफलतापूर्वक हटाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने में भगवा नेतृत्व महीनों पहले ही योजना और राजनीतिक रणनीति बनाने में लग गया था।

प्रारंभिक प्रक्रिया 2022 से शुरू हुई, जिसमें कथित भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर सबसे पहले आम आदमी पार्टी के सत्येंद्र जैन, फिर क्रमश: मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, अरविंद केजरीवाल जैसे वरिष्ठ नेताओं के अलावा कई अन्य वरिष्ठ नेताओं को लगातार निशाना बनाया गया। भाजपा ने यह सुनिश्चित किया कि आम आदमी पार्टी का नेतृत्व, जो भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के दम पर राष्ट्रीय राजधानी के सत्ता गलियारों तक पहुँचने में गर्व महसूस करता है; इतनी आसानी से इन आरोपों से बच नहीं सकता। इन नेताओं की लगातार खोज और उन पर आरोप लगाने से यह सुनिश्चित हो गया कि जाँच एजेंसियों द्वारा अभियोग (चार्जशीट किये जाने) के बाद जैन, सिसोदिया और केजरीवाल को जेल में डाल दिया गया। इससे यह सुनिश्चित हो गया कि आम आदमी पार्टी के नेतृत्व की स्वच्छ छवि धूमिल हो गयी और आम लोगों के मन में संदेह पैदा हो गया।

दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली की चुनावी राजनीति में पहली बार भाजपा को भी इन विधानसभा चुनावों में केजरीवाल द्वारा बेहद लोकप्रिय मुफ़्त की योजनाओं का ऐलान करने का फ़ैसला करना पड़ा। भाजपा दिल्ली में पिछले कुछ चुनावों में ऐसे किसी भी वादे से दूर रही है। हालाँकि शीर्ष नेताओं के परामर्श से स्थानीय नेतृत्व ने सत्ता में आने पर महिलाओं की मुफ़्त बस यात्रा, रियायती बिजली और पीने योग्य पानी सहित पहले से लागू सब्सिडी को जारी रखने के पार्टी के फ़ैसले की घोषणा की। इसके अलावा भाजपा ने भी आगे बढ़कर अतिरिक्त वोट हासिल करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजधानी में आर्थिक रूप से कमज़ोर, योग्य महिलाओं को 2,500 रुपये की मासिक सहायता देने का वादा किया।

फोटो: नवीन बंसल

इस बीच चुनावों के दौरान भगवा सहयोगियों द्वारा दिल्ली नेतृत्व के बीच किसी भी गुटबाज़ी से बचने का भी प्रयास किया गया। स्थानीय नेताओं से कहा गया कि अगर वे राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता में लौटना चाहते हैं, तो केंद्रीय नेताओं द्वारा तैयार की गयी रणनीति का पालन करें और स्थानीय काडर को साथ लें। दिल्ली भाजपा ऐतिहासिक रूप से आंतरिक प्रतिद्वंद्विता से जूझती रही है। विजेंदर गुप्ता, मनोज तिवारी और प्रवेश वर्मा जैसे नेता अक्सर प्रभाव डालने की होड़ में एक-दूसरे से भिड़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया ने गुटबाज़ी को दबाने में काफ़ी मदद की।

इन राजनीतिक रणनीतियों के कार्यान्वयन के लिए संघ, जो कि भाजपा का वैचारिक अभिभावक है; ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले संघ काडर द्वारा एक व्यापक आउटरीच कार्यक्रम लागू किया गया था, जहाँ राष्ट्रीय राजधानी भर में 60,000 से अधिक बैठकें आयोजित की गयीं, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि 27 वर्षों के बाद राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा की सत्ता में वापसी के लिए ज़मीन तैयार हो गयी है। विभिन्न नामों पर अटकलों के बावजूद यह समझा जाता है कि चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद से रेखा गुप्ता को संघ का मज़बूत समर्थन प्राप्त था। संघ ने उन पर पूरा भरोसा जताया था और यह बात भाजपा नेतृत्व को भी बता दी गयी थी। कथित तौर पर संघ और भाजपा आलाकमान ने स्वच्छ छवि और व्यापक अपील वाले उम्मीदवार का समर्थन किया।

2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के हल्के प्रदर्शन के बाद से संघ चुनावी रणनीति को आकार देने और अपने राजनीतिक सहयोगी के लिए समर्थन बढ़ाने में अधिक सक्रिय हो गया है। यह तथ्य पहले भी हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के दौरान ही स्पष्ट हो गया था, जहाँ संघ काडर ने यह सुनिश्चित किया था कि भाजपा के समर्थक मतदान के दिन मतदान करने के लिए बाहर आएँ और यह इन राज्यों के अनिर्णीत और युवा मतदाताओं से जुड़ें और इस रणनीति से भगवा मोर्चे की प्रभावशाली जीत सुनिश्चित हुई। लोकसभा चुनावों के बाद से संघ काडर ने अपनी पहुँच बढ़ा दी थी, जहाँ पहली बार मतदाताओं, युवाओं और महिलाओं के साथ राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी सरकार के लोक कल्याण उपायों से सम्बन्धित मुद्दों पर चर्चा की गयी थी। संघ कार्यकर्ताओं की इन आउटरीच बैठकों के परिणाम हाल के हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनावों में देखे गये हैं, इस तथ्य को भाजपा नेतृत्व ने स्वीकार किया है।

पिछले साल हरियाणा में भाजपा ने लगातार तीसरी बार 90 में से 48 सीटें जीतीं, जबकि महाराष्ट्र में महायुति गठबंधन- जिसमें भाजपा, शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार) शामिल थे; ने 288 में से 228 सीटें जीतने का दावा किया। इन दोनों राज्यों में भगवा जीत का श्रेय पार्टी के पक्ष में संघ की प्रभावी पहुँच को दिया गया। दिल्ली में संघ द्वारा अभियान महाराष्ट्र चुनाव के तुरंत बाद शुरू किया गया था और शहर को 30 ज़िलों और 173 नगरों को पूरा करते हुए आठ क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। दिल्ली में आउटरीच कार्यक्रम में संघ प्रचारकों के अलावा विभिन्न सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने भी हिस्सा लिया।

गुप्ता मंत्रिमंडल पर संघ की छाप

दिल्ली में सुषमा स्वराज (भाजपा), शीला दीक्षित (कांग्रेस) और आतिशी (आम आदमी पार्टी) के बाद महिला मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता का नामांकन हुआ है। वह दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री हैं और स्पष्ट रूप से संघ के अनुमोदन की मुहर लगने पर बनी हैं। वरिष्ठ नेता संघ की युवा शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से आती हैं और उन्हें भगवा संगठनों का पूरा भरोसा प्राप्त है। उन्हें संघ सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबले का वफ़ादार माना जाता है।

समझा जाता है कि हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों में संघ के मज़बूत समर्थन के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के लिए संघ की उम्मीदवार को समायोजित किया है, जो कि भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री चेहरों के चयन में संघ के प्रभाव की एक और स्वीकारोक्ति है। ऐसा माना जाता है कि संघ से जुड़े संगठनों के ठोस और अटूट समर्थन के कारण अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को हराकर भाजपा दिल्ली विधानसभा की 70 में से 48 सीटें हासिल करने में सफल रही। किसी भी राज्य में भाजपा के शासन में पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता की नियुक्ति पार्टी के महिला मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से मेल खाती है, जिन्होंने दिल्ली की जीत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

भाजपा ने यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल में नियुक्तियों में जातिगत समीकरणों और सामुदायिक आकांक्षाओं का ध्यान रखा जाए। गुप्ता की नियुक्ति को संभावित रूप से ऐतिहासिक माना जा रहा है; क्योंकि जिन 21 राज्यों में भाजपा सत्ता में है, उनमें से किसी में भी भाजपा की कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं रही है। उनकी स्वच्छ छवि, ज़मीनी स्तर पर जुड़ाव, संगठनात्मक कौशल और शालीमार बाग़ में उनकी ठोस जीत को शीर्ष पद के लिए उनके चयन के कारणों के रूप में उद्धृत किया गया है। रेखा गुप्ता को दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने एक साथ कई समीकरण बना दिये हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी के कार्यकाल के दौरान मुख्यमंत्री रहे अरविंद केजरीवाल (बनिया) और आतिशी मार्लेना (महिला) से कमान सँभाली और इन समुदायों की आकांक्षाओं को पूरा किया। इससे भगवा कार्यकर्ताओं को एक सकारात्मक संदेश जाता है कि अगर कोई संगठन के लिए लगातार काम करता है, तो एक साधारण एबीवीपी कार्यकर्ता भी मुख्यमंत्री बन सकता है।

प्रवेश वर्मा (जाट), आशीष सूद (पंजाबी, बनिया), मनजिंदर सिंह सिरसा (सिख, अल्पसंख्यक), कपिल मिश्रा (ब्राह्मण), रविंदर इंद्राज सिंह (दलित) और पंकज कुमार सिंह (पूर्वांचली) को मंत्री बनाकर उनकी क्षेत्रीय, जातीय और सामुदायिक आकांक्षाओं को पूरा किया गया है। इसके अलावा बनिया समुदाय से आने वाले वरिष्ठ नेता विजेंद्र गुप्ता को सदन के अध्यक्ष के रूप में समायोजित किया गया है। इन समुदायों के नेताओं को शामिल करके भाजपा ने उन सभी प्रमुख समुदायों और जातियों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया है, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करने में मदद की है।

सोशल इंजीनियरिंग से यह सुनिश्चित करने की उम्मीद है कि हाल के विधानसभा चुनावों और पिछले साल लोकसभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने वाले वोटिंग ब्लॉक और समुदायों को दिल्ली कैबिनेट में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले। भाजपा को उम्मीद है कि यह आवास राष्ट्रीय राजधानी में भगवा मोर्चे की राजनीतिक स्थिति को बढ़ावा देगा। अन्य राज्यों में विधानसभा सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत मंत्री बनाया जा सकता है। हालाँकि दिल्ली में विधानसभा की 10 प्रतिशत सीटें यानी कुल सात मंत्री ही बनाये जा सकते हैं। दिल्ली विधानसभा में 70 सदस्य हैं। दिल्ली के फॉर्मूले के मुताबिक, मुख्यमंत्री समेत कुल सात मंत्री कैबिनेट में हो सकते हैं। यानी एक मुख्यमंत्री और छ: कैबिनेट मंत्री।

जीतना और इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता पर बने रहना। भाजपा के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि वह इसे एक विश्व स्तरीय शहर के रूप में प्रदर्शित और विकसित करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले कहा था कि वह राजधानी को एक आधुनिक महानगर के रूप में विकसित करना चाहते हैं, जिसे भारत के गौरव के रूप में प्रदर्शित किया जा सके। भगवा पार्टी को लगता है कि उसकी डबल इंजन अवधारणा प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए आदर्श होगी। भाजपा में यह धारणा बन गयी थी कि जब तक दिल्ली में एक मित्रवत् सरकार सत्ता में नहीं आएगी, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निर्धारित लक्ष्य को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में भगवा इकाई को राष्ट्रीय राजधानी में निराशाजनक समय का सामना करना पड़ रहा था; क्योंकि इसकी कई विकासात्मक पहल शहर में लागू नहीं की गयी थीं। जैसा कि भगवा पार्टी लगभग तीन दशकों में दिल्ली में अपना पहला कार्यकाल शुरू कर रही है, आंतरिक दरारों को प्रबंधित करना शहर पर शासन करने जितना ही महत्त्वपूर्ण होगा।

माना जा रहा है कि राज्य नेतृत्व का एक धड़ा रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाये जाने से नाख़ुश है और भविष्य में परेशानी खड़ी कर सकता है। दिल्ली में भाजपा की जीत उल्लास का क्षण है; लेकिन इसकी आंतरिक गतिशीलता पर असंतोष की छाया बड़ी है। केवल समय ही बतायेगा कि क्या इस आंतरिक कलह को सुलह की भावना से शान्त किया जा सकता है? या भगवा मोर्चे के भीतर विद्रोह भड़का सकता है? दिल्ली इकाई के विघटनकारी अतीत का मतलब है कि सतह के नीचे तनाव बढ़ सकता है। अगर नयी सरकार लड़खड़ाती है, तो भड़कने के लिए तैयार है। भगवा मोर्चे के भीतर कोई भी आंतरिक कलह केंद्रीय भाजपा नेतृत्व द्वारा निर्धारित लक्ष्यों और राष्ट्रीय राजधानी में राजनीतिक सत्ता बनाये रखने की उसकी दीर्घकालिक योजना को ख़तरे में डाल सकता है। ख़ासकर तब, जब घायल; लेकिन लचीले अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी भाजपा के किसी भी ग़लत क़दम का फ़ायदा उठाने की प्रतीक्षा कर रही है। जैसा कि भगवा पार्टी लगभग पौने तीन दशक बाद दिल्ली में अपना पहला कार्यकाल शुरू कर रही है, उसके लिए आंतरिक दरारों को प्रबंधित करना भी महत्त्वपूर्ण होगा।

दिल्ली सरकार को अपने वोट बैंक का विश्वास बनाये रखने के लिए भाजपा के महत्त्वाकांक्षी वादों, जैसे- प्रदूषण से निपटना, बुनियादी ढाँचे में सुधार, परिवहन और आर्थिक राहत प्रदान करने की ज़रूरत है। ऐसा लगता है कि कुछ ही दिन पहले शपथ ग्रहण करने वाली नयी सरकार ने सत्ता सँभालने के बाद से विभिन्न परियोजनाओं की समीक्षा और नये विकास कार्यों की शुरुआत के लिए सरकारी अधिकारियों के साथ कई दौर की बैठकें की हैं।