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महिला दिवस पर भारतीय रेलवे में लोकोपायलट से लेकर कैटरिंग का जिम्मा महिलाएं ने उठाया

मुंबई: अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारतीय रेलवे ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (सीएसएमटी) से चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस की जम्मेदारी पहली बार पूरी तरह से महिलाओं के हाथों में दे दी। इस ट्रेन में लोकोपायलट से लेकर कैटरिंग का जिम्मा महिलाओं ने उठाया।

मुंबई से चलने वाली ट्रेन संख्या 22223, जो सीएसएमटी से साईनगर शिरडी के लिए रवाना हुई, इस ट्रेन में लोको पायलट और सहायक लोको पायलट, ट्रेन प्रबंधक और टिकट परीक्षक, साथ ही ऑन-बोर्ड कैटरिंग स्टाफ सभी महिलाएं थीं। भारतीय रेलवे इस पहल से महिला शौर्य और साहस को सम्मानित करने के साथ रेलवे में महिलाओं की शक्ति और नेतृत्व को बढ़ावा दे रहा है।

पश्चिम रेलवे ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर एक पोस्ट के जरिए महिला शक्ति का वंदन किया। पश्चिम रेलवे के एक्स पोस्ट में कहा गया, “उनके हर कदम पर हम उनके साथ खड़े हैं, उनकी यात्रा और विकास का समर्थन करते हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर, पश्चिम रेलवे सभी महिलाओं की शक्ति, उनकी दृढ़ता और उपलब्धियों को नमन करता है।”

बता दें कि हर साल 8 मार्च को विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन महिलाओं की उपलब्धियों को सम्मान देने और उनकी सराहना करने का अवसर है। इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में योगदान के उत्सव के तौर पर देखा जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत 1909 में हुई थी, और इसे औपचारिक मान्यता 1975 में मिली, जब संयुक्त राष्ट्र ने इसे एक थीम के साथ मनाना शुरू किया। इस बार का थीम ‘एक्सलरेट एक्शन’ है।

टाटा स्टील द्वारा बस्तियों में घातक प्रदूषण फैलाने का आरोप, निवासियों ने की कार्रवाई की मांग

जमशेदपुर। टाटा स्टील लिमिटेड द्वारा पत्थर डस्ट (गिट्टी डस्ट) के प्रदूषण से आसपास की बस्तियों में रहने वाले लाखों लोगों के स्वास्थ्य पर संकट मंडरा रहा है। इस गंभीर समस्या को लेकर क्षेत्रवासियों ने झारखंड स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के रीजनल मैनेजर को शिकायत पत्र सौंपा है और टाटा स्टील द्वारा फैलाए जा रहे इस प्रदूषण को अविलंब रोकने की मांग की है।

प्रदूषण से प्रभावित इलाके

शिकायत के अनुसार, टाटा स्टील अपने कारखाने के अंदर पूर्वी छोर पर न्यू कालीमाटी रोड स्थित 407 स्टैंड के पीछे करीब एक साल से पत्थर डस्ट का गंभीर प्रदूषण फैला रहा है। यह क्षेत्र हेम सिंह बागान की बस्तियों से मात्र 5 मीटर की दूरी पर स्थित है और दोनों के बीच केवल टाटा स्टील की चारदीवारी है। इसके अलावा, टुइलाडुंगरी, रिफ्यूजी कॉलोनी, बंगाली कॉलोनी, नेहरू कॉलोनी, गुरुद्वारा बस्ती, गाढ़ाबासा, केबुल कॉलोनी, केबुल बस्ती, गोलमुरी, टाटा स्टील के फ्लैट्स और एनएमएल कॉलोनी जैसी कई अन्य रिहायशी बस्तियां भी इस प्रदूषण की चपेट में हैं।

कैसे हो रहा है प्रदूषण?

क्षेत्रवासियों के अनुसार, टाटा स्टील अपने कारखाने के अंदर एक बड़े भूखंड पर भारी मात्रा में पत्थर की गिट्टी लाकर डंप करती है। इसके बाद जेसीबी की मदद से इन गिट्टियों को डंपर में लोड कर अन्यत्र भेजा जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान अत्यधिक मात्रा में पत्थर की धूल (डस्ट) हवा में फैलती है और आसपास की बस्तियों तक पहुंच जाती है। स्थानीय लोगों ने बताया कि इस डस्ट की परतें उनकी खड़ी कारों, घरों की छतों, पेड़-पौधों के पत्तों और यहां तक कि बाहर सूख रहे कपड़ों पर भी देखी जा सकती हैं।

स्वास्थ्य पर बुरा असर

विशेषज्ञों के अनुसार, पत्थर की यह धूल मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक होती है। इससे न केवल अस्थमा और टीबी जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है, बल्कि न्यूमोकोनियोसिस और सिलिकोसिस जैसी गंभीर बीमारियों का भी खतरा रहता है, जो फेफड़ों को स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त कर सकती हैं। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि इस प्रदूषण के कारण कई लोग पहले से ही सांस संबंधी बीमारियों से जूझ रहे हैं और यदि इसे जल्द नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में स्वास्थ्य संकट और भी गहरा सकता है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कार्रवाई की मांग

बस्तिवासियों ने झारखंड स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड से मांग की है कि वे इस समस्या का संज्ञान लें और टाटा स्टील को इस घातक प्रदूषण को रोकने के निर्देश दें। नागरिकों ने आरोप लगाया कि टाटा स्टील स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है और इसे तुरंत रोका जाना चाहिए।

यदि संबंधित विभाग द्वारा जल्द कार्रवाई नहीं की गई, तो स्थानीय लोग बड़े आंदोलन के लिए बाध्य होंगे। वहीं, इस मुद्दे पर टाटा स्टील की ओर से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है।

बाघ के हमले से किसान घायल, क्षेत्र में दहशत

बिलासपुर। तखतपुर के कठमुंडा में घूम रहे बाघ ने खेत जा रहे एक ग्रामीण पर हमला कर दिया, दूसरे किसानों के शोर मचाने पर बाघ भाग निकला, घायल ग्रामीण को उपचार के लिए सिम्स में भर्ती किया गया है। डीएफओ ने तखतपुर में बाघ के पग मार्क देखने के बाद इसकी पुष्टि करते हुए इस गांव के अलावा आसपास के गांवों में अलर्ट जारी किया है। जानकारी के अनुसार बिलासपुर वन मंडल के तखतपुर वन परिक्षेत्र अंतर्गत कठमुंडा में गुरुवार की सुबह गांव का एक किसान शिवकुमार जायसवाल अपने खेत में पानी डालने जा रहा था। इस दौरान अचानक झाड़ियों से निकले बाघ ने शिवकुमार पर हमला कर दिया, जिससे उसके के सिर, हाथ और पैर में गंभीर चोट पहुंची।

किसान पर हमला होते हुए देख ग्रामीणों ने शोर मचाना शुरु कर दिया, जिससे बाघ वहां से भाग निकला। ग्रामीणों ने घायल को प्राथमिक उपचार के लिए तखतपुर हास्पिटल में भर्ती किया, डाॅक्टरों ने मरहम पट्टी करने के बाद घायल शिवकुमार जायसवाल को सिम्स में रिफर कर दिया, जहां उसका उपचार किया जा रहा है। बाघ के अचानक किसान पर हुए हमले से ग्रामीणों में दहशत का माहौल बना हुआ है। लोग अब अपने खेतों में जाने से घबरा रहे हैं।बाघ घटना की सूचना मिलते ही बिलासपुर वन मंडल के वन मंडलाधिकारी सत्यदेव शर्मा ने तत्काल स्टाफ को निगरानी करने के साथ अलर्ट रहने का आदेश जारी कर दिया। पग मार्ग के अनुसार शुरुआत में टाइगर के स्थान पर उसके लकड़बग्घा होने की आशंका व्यक्त की जा रही थी। दोपहर 1 बजे तखतपुर वन परिक्षेत्र के साथ कानन पेण्डारी मीडियम जू, अचानकमार टाइगर रिजर्व और बिलासपुर वन मंडल का अमला बाघ की खोजबीन करता रहा। दोपहर डेढ़ बजे डीएफओ सत्यदेव शर्मा ने मौके पर पहुंचकर जांच में पगमार्क बाघा के होने की पुष्टि की। उन्होंने बताया कि खेत से कुछ किलोमीटर की दूरी पर झाड़ियों में बाघ को आराम करते हुए देखा गया है। सूचना मिलते ही तत्काल टीम को निगरानी करने के अलावा ग्रामीणों को सतर्क रहने की सलाह की दी है।

प्यासी विरासत: आगरा की सूखी नदियाँ, ग़ायब होते तालाब, अतिक्रमण ग्रस्त नहरें

बृज खंडेलवाल द्वारा 

आगरा, जो कभी मुग़लिया सल्तनत की शान और ताजमहल की रूहानी खूबसूरती के लिए मशहूर था, आज अपनी प्यास बुझाने को तरस रहा है। यह शहर एक ऐसे भविष्य की तस्वीर पेश कर रहा है, जहाँ पानी की कमी एक बर्बर हकीकत बन चुकी है। यमुना, जो कभी जीवन की धारा हुआ करती थी, आज जहर की नदी बन चुकी है। सीवेज और औद्योगिक कचरे से लबालब यह नदी, दशकों के कुप्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की मार झेल रही है। 

140 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन, जो दूर से गंगाजल लाती है, शहर को सिर्फ़ एक अस्थायी राहत देती है। यह नाज़ुक जीवन रेखा, हालांकि तात्कालिक ज़रूरतों को पूरा करती है, लेकिन यह गहरी और व्यवस्थागत समस्याओं को छिपा लेती है। “गंगाजल पाइपलाइन पर अत्यधिक निर्भरता ने एक खतरनाक आत्मसंतुष्टि को जन्म दिया है, जिससे यमुना का क्षरण बेरोकटोक जारी है। ताजमहल के नीचे प्रस्तावित बैराज और यमुना के कायाकल्प के वादे, चाहे वे राष्ट्रीय नेतृत्व के हों या राज्य सरकार के, सभी अधूरे हैं। 2015 में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी द्वारा दिल्ली से आगरा तक नौका सेवा शुरू करने का वादा भी आज तक हवा-हवाई है,” कहते हैं पर्यावरणविद डॉ देवाशीष भट्टाचार्य।

यह संकट शहर के केंद्र से बाहर तक फैला हुआ है। ताजमहल से कुछ ही दूरी पर स्थित पचगाई पट्टी गाँव के लोग एक मूक त्रासदी झेल रहे हैं। उनका एकमात्र जल स्रोत, भूजल, फ्लोराइड की अधिकता से दूषित हो चुका है, जिससे पीढ़ियों को गंभीर विकृतियों का सामना करना पड़ रहा है। पाइप्ड गंगाजल की उनकी गुहार को अनसुना कर दिया गया है।

पिछले 25 सालों में, शहर के 90% तालाब ग़ायब हो चुके हैं, अनियंत्रित शहरीकरण और भूमि अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं। यमुना की सहायक नदियाँ भी तलछट और कचरे से भरी हुई हैं, जो उन्हें समान रूप से संकटग्रस्त बना रही हैं। चंबल नदी, जो एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है, कम प्रवाह का सामना कर रही है, जबकि उतंगन जैसी छोटी धाराएँ पहले ही सूख चुकी हैं, आगरा सिविल सोसायटी के अनिल शर्मा कहते हैं।

स्थानीय लोग निर्वाचित अधिकारियों पर उँगलियाँ उठा रहे हैं, उन पर वादे तोड़ने और निष्क्रियता का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन आगरा का जल संकट कोई अकेली मिसाल नहीं है। पूरा भारत भूजल संकट से जूझ रहा है। उत्तरी भारत ने सिर्फ़ 2002 से 2021 के बीच 450 क्यूबिक किलोमीटर भूजल खो दिया है। विश्व बैंक के अनुसार, 2025 तक भारत के 60% भूजल ब्लॉक गंभीर स्तर पर पहुँच जाएंगे। प्रदूषण एक और बड़ी चिंता है, जहाँ 440 जिलों में भूजल में नाइट्रेट की अत्यधिक मात्रा पाई गई है, जो अनियंत्रित उर्वरक उपयोग और औद्योगिक अपशिष्ट का सीधा नतीजा है। 

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के मुताबिक, “वैश्विक स्तर पर भी हालात कम चिंताजनक नहीं हैं। 1980 के दशक से पानी की खपत में सालाना 1% की वृद्धि हुई है, और 2050 तक मांग में 30% की बढ़ोतरी का अनुमान है। दो अरब से ज़्यादा लोग पहले से ही जल-तनाव वाले इलाकों में रह रहे हैं, और चार अरब लोग हर साल कम से कम एक महीने के लिए गंभीर कमी का सामना करते हैं। “

दुनिया का 80% अपशिष्ट जल, जो मानव और औद्योगिक विषाक्त पदार्थों से भरा हुआ है, बिना उपचारित किए पारिस्थितिकी तंत्र में बहाया जा रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण ने जलीय जीवन को और भी बर्बाद कर दिया है, नदियों और महासागरों को अवरुद्ध कर रहा है। 

आगरा का संघर्ष इस वैश्विक आपातकाल का एक साफ़ नज़ारा है। अगर तत्काल और निर्णायक कार्रवाई नहीं की गई, तो यह शहर एक ऐसे भविष्य का डरावना नमूना बन जाएगा, जहाँ पानी की कमी और प्रदूषण अरबों लोगों की ज़िंदगी को परिभाषित करेंगे। खोखले वादों और टुकड़ों में समाधान का समय अब खत्म हो चुका है। हमारे बहुमूल्य जल संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए एक ठोस, वैश्विक प्रयास ही उस भविष्य को टाल सकता है, जहाँ कुएँ सूख जाएंगे और नदियाँ जहर बन जाएंगी।

लोकतंत्र पर हावी राजनीतिक वंशवाद

शिवेन्द्र राणा

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुम्भ के बीच प्रदेश की राजनीति वंशवाद-परिवारवाद के शापित कुंड में केलि-क्रीड़ा में मग्न थी। हुआ कुछ यूँ कि पिछले दिनों एनडीए गठबंधन के सहयोगी दल निषाद पार्टी के प्रदेश सचिव धर्मात्मा निषाद ने उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री और पार्टी के सर्वेसर्वा संजय निषाद तथा उनके दोनों बेटों पर अपने परिवार के लिए उनकी राजनीतिक सम्भावनाओं की बर्बादी, फ़र्ज़ी मुक़दमे लगवाने, स्वयं के स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल जैसे गंभीर आरोप लगाकर आत्महत्या कर ली।

राजनीतिक संदर्भ में यह घटना सामान्य नहीं है। लेकिन प्रायोजित ख़बरों की सुर्ख़ियों में एक युवक की मौत की ख़बर कहीं दब गयी। असल में यह आत्महत्या नहीं है, बल्कि जम्हूरियत में उभरती संभावनाओं की मौत है। यह हत्या है- जनतांत्रिक मूल्यों की, लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ की और उस राजनीतिक संचेतना की, जिसमें लोकतंत्र को जीवंत रखने का नैतिक संबल है। लेकिन वंशवाद के इस अनाचार का दु:खद पहलू यह है कि सबको अपने-अपने स्वार्थ दिख रहे हैं। देश की भी तंद्रा भी नहीं टूटी, न ज़रा भी विचलित हुई। एक तरफ़ धर्मात्मा निषाद की लाश थी और उसी दौरान दूसरी तरफ़ भारत के रक्षामंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह के छोटे बेटे नीरज सिंह को उत्तर प्रदेश बॉक्सिंग फेडरेशन का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। उनके बड़े बेटे पंकज सिंह विधायक हैं ही। नीरज सिंह को तो बॉक्सिंग भी नहीं आती और उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं है; क्योंकि उनके पास कहीं अधिक बड़ी योग्यता है- राजनाथ सिंह का बेटा होने की। उसी प्रकार जैसे कि पहले बीसीसीआई के सचिव और फिर आईसीसी के चेयरमैन पद पर जमे जय शाह को क्रिकेट नहीं आती। लेकिन उनके पास भी गृहमंत्री अमित शाह के बेटा होने की राजनीति-प्रदत्त विशेष योग्यता है, जिसके बाद किसी और योग्यता की ज़रूरत ही नहीं हैं।

वास्तव में अयोग्यों की ऐसी नियुक्तियाँ किसी शक्तिशाली राजनीतिक समूह की जीत से कहीं अधिक जनतांत्रिक मूल्यों की हार है, जहाँ धन एवं सत्ता से पोषित तंत्र की ये सर्वाधिकारवादी व्यवस्था आमजन के सामूहिक सम्मान को पैरों तले रौंदती है। इस वंशवाद ने सार्वजनिक रूप से देश में बड़े और मलाई वाले पदों पर जबरन क़ब्ज़ा करने की विद्रूप स्थिति पैदा कर दी है।

मछलीशहर लोकसभा सीट से सांसद चुनी गयी सपा की वरिष्ठ नेता तूफ़ानी सरोज की बेटी प्रिया सरोज के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद टीवी मीडिया के पत्रकार ने राष्ट्रीय विमर्श से इतर सवाल पूछा कि आप तो अब सांसद बन गयी हैं, तो आपके प्रशंसक इंस्टाग्राम पर आपकी रील को बहुत मिस करेंगे? तो मैडम ने मुस्कुराकर आगे भी अपने फॉलोवरों से जुड़े रहने का वादा किया। फ़िलहाल इस सस्ती पत्रकारिता को जाने देते हैं; उन मोहतरमा की बात करें। धरती-पुत्र मुलायम सिंह यादव की विरासत वाली समाजवादी पार्टी को उस पूरे संसदीय क्षेत्र में तूफ़ानी सरोज की बेटी से अधिक योग्य कोई और प्रत्याशी मिला ही नहीं और कृपा जनता जनार्दन की, कि एक नेता की बेटी ही संसद पहुँचीं।

ज़्यादातर पार्टियों में ऐसे कई-कई उदाहरण इस देश की लोकतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था के चारित्रिक पतन का प्रमाण हैं। राजनीतिक शुचिता तो भारतीय लोकतंत्र में जैसे बची ही नहीं है। ख़ुद को सार्वजनिक रूप से बाहुबली प्रदर्शित करने वाले और आये दिन विवादों में रहने वाले बृजभूषण सिंह ने भाजपा को धमकाकर कैसरगंज की संसदीय सीट को अपने बेटे करण भूषण को सांसद बनवा दिया। और कहा यह कि मेरे क्षेत्र से किसी भी व्यक्ति ने पार्टी से टिकट के लिए आवेदन ही नहीं किया था। लेकिन असल में यह बाहुबल द्वारा संरक्षित वंशवाद का उदाहरण है।

कांग्रेस और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से शोषित, दलितों के संघर्ष की प्रतीक बसपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर सपा, राजद, रालोद, द्रमुक जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने तो वंशवाद को संस्थागत रूप दे दिया है। लेकिन इसे बिलकुल नये परिवेश में तथाकथित पार्टी विद डिफरेंस वाली सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने प्रस्तुत किया है। यानी भाजपा ने तो परिवारवाद को ग्लैमराइज करना प्रारम्भ कर दिया है। जैसे सुषमा स्वराज की बेटी, जो अपनी वकालत की प्रैक्टिस से सीधे दिल्ली भाजपा के कार्यकर्ताओं के ऊपर मुसल्लत कर दी गयीं। ऊपर से तुर्रा यह कि निर्लज्ज भाजपा नेता दूसरे विपक्षी दलों के वंशवाद की आलोचना करते हैं।

क्या यह एक गणतांत्रिक राष्ट्रीयता के साथ क्रूर और भद्दा मज़ाक़ नहीं है? आख़िर कैसे एक जागृत लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था वंशवाद के इस घृणित स्वरूप को इतने सम्मान के साथ अपना सकती है; लेकिन भारत में यह क़ायम है। असल में हज़ार वर्षों के दासत्व भाव ने भारत के राष्ट्रीय समाज को व्यावहारिक और चारित्रिक रूप से इतना नंपुसक और पतनशील बना दिया है कि ज़्यादातर लोगों को ग़ुलामी की आदत पड़ गयी है। हालाँकि धर्मात्मा निषाद की इस प्रत्यक्ष आत्महत्या और परोक्ष हत्या के लिए मात्र राजनीतिक वंशवाद एवं परिवारवाद ही नहीं, बल्कि जातिवाद की कुत्सित सोच भी ज़िम्मेदार है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में जातिवाद की जितनी भी सार्वजनिक आलोचना हो, किन्तु यह एक अतिव्याप्त आदर्श सत्य है। मरहूम युवा नेता ने जाति आधारित राजनीति में ही अपने लिए अवसर और सामाजिक ज़मीन तलाशने का प्रयास किया, जिस पर पहले से ही उसकी जाति के शक्तिशाली लोग क़ाबिज़ थे। यानी धर्मात्मा ने राजनीतिक प्रगति के लिए वही शॉर्टकट का रास्ता लिया, जो पिछले सत्तर वर्षों से सर्वविदित है और यहीं वह चूक गये।

पिछले क़रीब तीन दशकों की जम्हूरियत की राजनीतिक यात्रा पर नज़र दौड़ाएँ, तो एक निर्धारित पैटर्न दिखेगा कि कभी भी जाति आधारित राजनीति करने वाले नेताओं और उनके परिवार ने अपने परिवार के बाहर कोई भी नया नेतृत्व पनपने नहीं दिया। जैसे पप्पू यादव बिहार के यादव समाज में काफ़ी लोकप्रिय है। आम जनता से जुड़े हैं। निर्दलीय चुनकर संसद पहुँचते रहे हैं। और लालू यादव मार्का भदेसपन की राजनीति के वास्तविक उत्तराधिकारी वही थे; लेकिन पुत्र मोह में राजद ने उनके उभार के सारे रास्ते कुंद कर दिये। रामविलास पासवान ने अपने परिवार के बाहर कोई पासवान नेता पनपने ही नहीं दिया। मायावती के स्वर्णिम-काल में उनके आगे कोई दलित नेतृत्व उभर ही सका। ऐसे तमाम उदाहरण राजनीति में भरे पड़े हैं।

आज देश में जिस वंशवादी अयोग्यता का बोलबाला है, उसकी मुख्य प्रणेता राजनीति ही है; क्योंकि वही राष्ट्र की चालक शक्ति है और उसका अनुगमन अन्य दूसरे क्षेत्र करते हैं। राजनीति इस वंशवादी कलुषता का मात्र मुखर प्रतिनिधित्व करती है। वंशवाद और परिवारवाद की राजनीति से चाहे लाभ किसी भी दल या वर्ग को मिलता हो; लेकिन लोकतांत्रिक चेतना को इससे भारी नुक़सान पहुँच रहा है।

आज जो एकल पार्टीवादी डेमोक्रेसी या निस्तेज विपक्षहीन संसदीय व्यवस्था भारतीय जम्हूरियत के ऊपर हावी है, उसकी मूल वजह भी यही वंशवादी षड्यंत्र है। यदि ऐसा न होता, तो सत्ता की ढिठाई एवं नौकरशाही की गुंडई पर लोकतंत्र का अंकुश लगा होता। वंशवाद के इस निकृष्ट स्वरूप के लिए राष्ट्रीय समाज भी समान रूप से उत्तरदायी है। इसलिए देखिए, सोचिए और समझिए कि योग्यता तथा अपने हिस्से के संघर्ष से ख़ुद का वजूद बनाने के बावजूद मौत को गले लगाने वाले ऐसे युवाओं के गुनाहगारों में निर्वाचक यानी मतदाता के रूप में आप भी तो शामिल नहीं हैं? क्योंकि आपकी जाति आधारित व्यक्ति पूजन की वृत्ति ने लोकतंत्र की राष्ट्रीय भावना को किस पतनशीलता की ओर धकेल दिया है, धर्मात्मा निषाद की आत्महत्या उसका सबसे निकृष्ट ताज़ा प्रमाण है। कभी डॉ. अम्बेडकर ने व्यक्तित्व में ईश्वरीय भावना के आरोपण को लोकतंत्र के लिए एक घातक प्रवृत्ति कहा था; लेकिन देश ने उनकी भी जातिवाद आधारित नायक के रूप में पूजा की, किन्तु उनके संदेश को समझने का प्रयास नहीं किया। प्रख्यात शायर अब्बास ताबिश ने ख़ूब कहा है :-

‘इंसान था आख़िर तू मेरा रब तो नहीं था।

ये औजे-तग़ाफ़ुल तेरा मनसब तो नहीं था।।

 ये सहव मिरे दिल से ही सरज़द हुआ वरना,

उस शख़्स की पूजा मेरा मज़हब तो नहीं था।’

लेकिन देश तो व्यक्ति पूजन और उसके आधार पर विकसित परिवार-वंशवाद को ही अपना मज़हब मान बैठा है। इसका नतीजा है- यह अर्थहीन होती संसदीय व्यवस्था, जिसमें जनप्रतिनिधित्व का यथार्थ सैद्धांतिक पहलू ही नदारद है। वैसे इस गंभीर विषय पर अर्थपूर्ण बहसें-मुबाहिसे लंबे समय से जारी रही हैं; लेकिन जनतंत्र की मूल अधिकारिणी जनता के मध्यम और निम्न वर्ग अपने मुफ़्त राशन, बिजली, पानी तथा जाति-धर्म के यूटोपिया में निमग्न हैं। दूसरा राष्ट्र का उच्च शिक्षित तथा एलीट वर्ग विकास के नये प्रतिमान, संविधान प्रदत्त अधिकार एवं अर्थ-व्यवस्था के नंबरों में ही ख़ुद को बड़ा बनाने में लगा है। पत्रकारिता की चारित्रिक निष्ठा केवल ज्वलंत एवं जनोन्मुखी मुद्दे को उठाकर सनसनी पैदा करना नहीं है, बल्कि उनका समाधान के विकल्प भी प्रस्तुत करना है। जैसा कि उपरोक्त विमर्श का मूल प्रश्न है कि लोकतंत्र की संचेतन आस्था पर आघातनुमा पसरते वंशवाद के इस दुर्दम्य रोग के शमन का क्या उपाय है? हालाँकि इस देश में समस्याओं के निस्तारण हेतु जागरूक दो वर्गों में में पहला है, जो यह मानता है कि मैं ही क्यों? या मुझसे क्या मतलब? इस निकृष्ट और निष्क्रिय वर्ग के लोगों ने इस राजनीतिक कीचड़ और प्रताड़ना को ही अपना प्रारब्ध मान लिया है। लेकिन यह वर्ग सुविधाओं के लिए सबसे आगे खड़ा मिलता है। दूसरा वर्ग इस अवस्था से क्षुब्ध है और इस स्थिति में बदलाव चाहता है; लेकिन कुछ करने में स्वयं को अकेला तथा अक्षम मानता है। इन जागरूक नागरिकों को महात्मा गाँधी से सीखने की आवश्यकता है। वैसे ही जैसा कि डॉ. लोहिया लिखते हैं- ‘किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ अपने बलबूते, बिना किसी की सहायता के अत्याचार का विरोध करने के योग्य बनाना मेरी समझ से गाँधी के व्यक्तित्व और कर्मधारा की सबसे बड़ी विशेषता है।’ (मार्क्स, गाँधी एंड सोशलिज्म, पृष्ठ-122)

वंशवादी पार्टियों और उनके प्रयोजक राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध मतदाता के रूप में निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह का व्यवहार किया जाना चाहिए। क्योंकि इसी रणनीति से गाँधी ने तत्कालीन सर्वशक्तिमान साम्राज्यवादी ब्रिटेन के विरुद्ध जनान्दोलन खड़ा कर दिया था। अत: आवश्यक है कि भविष्य में अपने लिए जनप्रतिनिधि का निर्वाचन करते समय जाति-मज़हब से परे धर्मात्मा निषाद जैसे युवा की दु:खद मौत और ऐसे ही अनगिनत प्रतिभावान सामान्य पृष्ठभूमि के परिश्रमी वर्ग के संघर्ष तथा वर्तमान में चौतरफ़ा व्याप्त निम्न श्रेणी के परिवारवादियों-वंशवादियों के उभार से होने वाले लोकतांत्रिक पर आसन्न संकट का स्मरण कर लीजिएगा। यक़ीन मानिए, आपकी यह छोटी-सी कोशिश वंशवाद-परिवारवाद के इस क्रूर दैत्य को गहरी चोट पहुँचाएगी। साथ ही यह भी हो सकता है कि भविष्य में आपके मतदान और लोक-कल्याण की यह पवित्र भावना 75 वर्ष के भारतीय गणतंत्र की जनतांत्रिक यात्रा को एक निष्पक्ष विधान बनाने का काम करें।

पर्यावरण का संग: मस्ती न करें भंग

बृज खंडेलवाल द्वारा

होली का त्योहार दस्तक दे रहा है, और आगरा शहर  समेत समूचा ब्रज मंडल रंगों के इस जश्न की तैयारी में जुट गया है।

होली, ब्रज क्षेत्र में मनाया जाने वाला प्रमुख उत्सव है, जहाँ रंग, मस्ती, और हुल्लड़ की भरपूर झलक देखने को मिलती है। फाल्गुन में जब यह पर्व आता है,  पिचकारियों से रंगों की बौछार और ठंडाई की मिठास  की खासियत बढ़ जाती है।

आगरा में होली के पर्व की अपनी खास परंपराएँ हैं, जो मुग़ल युग से चली आ रही हैं। मूर्खों का सम्मान किया जाता है। आगरा नगर निगम पालीवाल पार्क में मेला आयोजित करता है। अतीत में, यहाँ होली का उत्सव विशेष रूप से शानदार होता था, जहाँ बादशाह और दरबारी रंगों में रंगते थे। आगरा के किले में होली के दिन बड़े समारोह आयोजित होते थे, जिसमें मनोहारी संगीत, नृत्य, और रंगों की बौछार होती थी। मुग़ल बादशाह रंगों से भरे जल में अपने दरबारियों के साथ खेलते थे। आगरा के लोगों के बीच मिठाईयों का आदान-प्रदान भी होता रहा है, जिससे यह पर्व और रंगीन हो जाता है। इस प्रकार, आज भी आगरा में होली का उल्लास मुग़ल काल की समृद्ध परंपराओं को जीवित रखता है।

मगर, इस बार होली की धूम में पर्यावरण की फिक्र भी जरूरी है। अब जबकि त्योहार में सिर्फ दस दिन बाकी हैं,  पर्यावरण प्रेमियों ने  मांग की है कि होली के दौरान प्रदूषण को कम करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। उनका कहना है कि “गौ काष्ठ” (गाय के गोबर से बनी ईंटें) जैसे पर्यावरण के अनुकूल विकल्पों को बढ़ावा दिया जाए और होलिका दहन के दौरान हानिकारक कचरे को जलाने पर पाबंदी लगाई जाए। यही नहीं, उन्होंने लोगों को जागरूक करने और प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर देने की भी अपील की है।

होली के दौरान पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। पर्यावरणविद् देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं कि लोग होलिका दहन के लिए पेड़ों की टहनियाँ काटते हैं और घरों का कचरा, प्लास्टिक, पॉलीथीन, चमड़े का कचरा और अन्य जहरीली चीजें जलाते  हैं। जब यह सब जलता है, तो हवा में प्रदूषणकारी गैसें फैलती हैं, जो आगरा की पहले से खराब हवा को और भी ज़हरीला बना देती हैं। यह स्थिति बेहद चिंताजनक है, खासकर तब जब आगरा का वायु प्रदूषण स्तर पहले ही खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है।

इस समस्या का एक और पहलू यह है कि होलिका दहन अक्सर सड़कों के चौराहों पर किया जाता है। ग्रीन एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर ने बताया कि इन अलावों से सड़कों पर तारकोल जल जाता है और गड्ढे पड़ जाते हैं, जिनकी मरम्मत महीनों तक नहीं होती है। कुछ लोग तो पुराने टायर भी जला देते हैं, जिससे हवा में और भी जहर घुल जाता है। ऐसे में, प्रशासन को सख्त कदम उठाने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि होली का जश्न पर्यावरण के लिए बोझ न बने।

आगरा का हरित क्षेत्र पहले से ही सिमटता जा रहा है। रिवर कनेक्ट कैंपेनर राहुल राज ने बताया कि शहर का हरित क्षेत्र महज 9 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय दिशानिर्देश के मुताबिक यह 33 प्रतिशत होना चाहिए। ताज ट्रैपेज़ियम ज़ोन, जो ताजमहल के लिए बेहद अहम है, भी खतरे में है। मानसून में लगाए गए हज़ारों पौधे उपेक्षा के कारण मुरझा जाते हैं, और होली के दौरान पेड़ों की कटाई से हरियाली और भी कम हो जाती है। दीपक राजपूत ने कहा कि लोगों को जागरूक करने और उन्हें पर्यावरण के अनुकूल विकल्प देने की जरूरत है।

इस मुद्दे का पैमाना देखें तो यह और भी गंभीर हो जाता है। कार्यकर्ता चतुर्भुज तिवारी के मुताबिक, आगरा में हर साल एक हज़ार से ज्यादा होलिका दहन किए जाते हैं। अगर हर अलाव में दस क्विंटल जलाऊ लकड़ी जलती है, तो पर्यावरण को होने वाला नुकसान का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में लोग गोबर के उपले और विलायती बबूल की टहनियाँ जलाते हैं, लेकिन शहरों में जलाऊ लकड़ी महंगी होने के कारण लोग कूड़ा-कचरा जलाते हैं, जिससे हवा में जहर घुल जाता है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए कार्यकर्ताओं ने कई सुझाव दिए हैं। उन्होंने प्रशासन से जनता को प्रदूषण के खतरों के बारे में जागरूक करने और होलिका दहन के लिए जैविक कचरे जैसे विकल्पों को बढ़ावा देने की अपील की है। साथ ही, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वायु गुणवत्ता पर नज़र रखनी चाहिए और नियमों को सख्ती से लागू करना चाहिए। नगर निगम को होलिका दहन से क्षतिग्रस्त सड़कों की तुरंत मरम्मत करनी चाहिए।

होली के रंगों की बात करें तो सिंथेटिक रंगों के बजाय प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए। सिंथेटिक रंगों में मौजूद हानिकारक रसायन त्वचा को नुकसान पहुँचा सकते हैं और पर्यावरण को भी प्रदूषित करते हैं। प्राकृतिक रंगों से न सिर्फ त्योहार का मजा दोगुना होगा, बल्कि पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।

आगरा की हवा पहले से ही जहरीली है। सुप्रीम कोर्ट के 1993 के फैसले के बावजूद, ताजमहल को प्रदूषण से बचाने के लिए जो उपाय किए गए, उनका असर नगण्य है। होली के दौरान अलाव और सिंथेटिक रंगों का इस्तेमाल इस समस्या को और भी बढ़ा देता है।

होली के इस मौके पर सरकार, नगर निगम और आम लोगों को मिलकर काम करना चाहिए। पर्यावरण के अनुकूल तरीके से होली मनाकर आगरा दूसरे शहरों के लिए मिसाल कायम कर सकता है। आइए, इस होली को जीवन, प्रकृति और स्थिरता का उत्सव बनाएं। होली का रंग हो, पर्यावरण का संग हो!

पूर्व डीजीपी की बेटी 12 करोड़ की गोल्ड स्मैगलिंग करते गिरफ्तार

चर्चित एक्ट्रेस के घर पर 2 करोड़ रुपये मिले

बैंगलुरू: चर्चित एक्ट्रेस रान्या राव करोड़ों की सोने की तस्करी करते रंगे हाथों गिरफ्तार होने के बाद मुश्किलों में घिर गयी है। डायरेक्टोरेट आफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (DRI) ने 12 करोड़ की गोल्ड के साथ रान्या को अरेस्ट किया है। पूर्व डीजीपी की बेटी रान्या राव के बारे में डीआरआई को खुफिया जानकारी मिली थी।

जीसके बाद अमीरात की फ्लाइट से लैंड करने के बाद एक्ट्रेस को रेवेन्यू डिपार्टमेंट ने बड़ी सूझबूझ के साथ गिरफ्तार कर लिया। वो दुबई से बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहुंची थीं। उन्होंने ने 15 दिनों के भीतर दुबई की चार ट्रिप की, जिससे संदेह पैदा हुआ। यहां एयरपोर्ट पर उनकी मदद के लिए पहले से ही बसवराजू नाम का एक पुलिस कांस्टेबल तैयार था।

उसी की मदद से एक्ट्रेस ने सिक्योरिटी चेक से बच निकलने की कोशिश की, लेकिन डीआरआई की टीम उन पर पहले से ही नजर बनाए हुई थी, जिन्होंने उन्हें रोक लिया और सोने की खेप के साथ रंगे हाथों पकड़ लिया। जांच के दौरान, अधिकारियों ने उनके जैकेट में छिपे विदेशी मूल का 14.2 किलोग्राम सोना बरामद किया।

27 लाख की लेन-देन में राजस्थान के व्यवसायी की हत्या, रांची में मिला सिर, खूंटी पुलिस ने किया खुलासा

रांची: झारखंड के खूंटी जिले में एक सनसनीखेज हत्याकांड का खुलासा हुआ है, जिसमें राजस्थान के व्यवसायी की बेरहमी से हत्या कर दी गई। खूंटी पुलिस ने नामकुम पुलिस की मदद से इस जघन्य अपराध की गुत्थी सुलझाई है। मामला खूंटी जिले के मारंगदाहा थाना क्षेत्र से जुड़ा है, जहां पुलिस को सड़क किनारे एक व्यक्ति का सिर कटा शव मिला था।

गहन जांच के बाद पुलिस ने दो आरोपियों को गिरफ्तार किया, जिनकी निशानदेही पर मृतक का सिर रांची के नामकुम इलाके से बरामद किया गया। शव की शिनाख्त राजस्थान के 27 वर्षीय व्यवसायी पुखराज के रूप में हुई, जो झारखंड में डोडा (अफीम से जुड़ा उत्पाद) की खरीद-फरोख्त करता था। गिरफ्तार आरोपियों ने खुलासा किया कि व्यवसाय से जुड़े 27 लाख रुपये के लेन-देन को लेकर हत्या को अंजाम दिया गया।

हत्या के बाद सिर को खेत में दफनाया गया

खूंटी पुलिस के मुताबिक, हत्या नामकुम थाना क्षेत्र के सुकरीडीह में की गई थी। अपराधियों ने व्यवसायी का सिर धड़ से अलग करने के बाद उसे खेत में दफना दिया था, जबकि शव को खूंटी में सड़क किनारे फेंक दिया गया था।

खूंटी पुलिस ने राजस्थान पुलिस को मामले की जानकारी दे दी है, ताकि मृतक के परिजन आगे की प्रक्रिया के लिए पुलिस से संपर्क कर सकें और शव को अपने कब्जे में ले सकें।

न उत्तरदायित्व, न काम

पंडित प्रेम बरेलवी

संसार में हर व्यक्ति अपने नियत कर्म से बँधा होता है। लेकिन सत्ता मिलने पर अय्याशी करने वाले बहरूपिया राजनेता न उत्तरदायित्व निभाते हैं और कोई काम करते हैं। दिन भर सजना-सँवरना, इधर-उधर घूमना, लफ़्फ़ाजी करना, जनकल्याण की जगह सिर्फ़ अपने आकाओं और अपने लिए धन लूटना; बस यही ऐसे भारत के राजनेताओं की ज़िन्दगी का मक़सद हो चुका है। ऐसा नहीं कि भारत में इस प्रवृत्ति का कोई एक नेता है। ऐसे नेताओं की आज देश भर में भरमार है, जो अपने उत्तरदायित्व की नहीं, बल्कि चंदे और धंधे की ही चिन्ता करते हैं।

ऐसे नेता अपने अपराधों को भी जायज़ मानते हैं। दुर्भाग्य से इस प्रवृत्ति के नेताओं की संख्या इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि अब उनके हाथों से सत्ता छीन पाना बहुत मुश्किल है। ये नेता निर्लज्जता से सरेआम झूठ बोलते हैं। मनमानी करके देश को विकट नुक़सान पहुँचा रहे हैं। पूँजीपतियों के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार के मामलों को निजी मामला बता देते हैं। विपक्षी पार्टियों की सरकारों को गिराने और परेशान करने के लिए षड्यंत्र रचते हैं। पत्रकारों के सवालों से ऐसे बचने लगते हैं, जैसे मेहनत से कोई आलसी कामचोर बचना चाहता है। सवाल पूछे जाने पर भारत के लोकतंत्र, संस्कृति, दर्शन और वसुधैव कुटुंबकम् की भारतीय धारणा की दुहाई देते हुए भ्रष्टाचार के मामलों को भी निजी और पारिवारिक बता देते हैं। देश को तर$क्क़ी के रास्ते पर ले जाने से लेकर दुनिया भर में उसका मान-सम्मान और क़द बढ़ाने की ज़िम्मेदारी निभाने की जगह दलाली का काम करते हैं। नैतिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने की जगह हास्यास्पद ज्ञान बघारते फिरते हैं। हर काम का आभार और वाहवाही लूटने में माहिर हैं और दुर्घटनाओं पर मुँह में इतना दही जमा लेते हैं कि संवेदना तक प्रकट नहीं करते। देश के ईमानदार अधिकारियों को धमकाकर और रिश्वतख़ोर अधिकारियों को रिश्वत खाने की छूट देकर उनसे मनचाहे काम कराते हैं।

हाल ही में जब ऐसी ही आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं पर रोक लगाने की सोच से जब अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाकर आपराधिक प्रवृत्ति के सांसदों, विधायकों और नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके आपराधों पर न्यायिक फ़ैसले जल्द-से-जल्द करने की माँग की, तो सत्ता में बैठे अपराधियों ने तुरंत अपने बचाव में केंद्र सरकार की तरफ़ से जवाब दाख़िल करवाकर अपना बचाव कर लिया। केंद्र सरकार की तरफ़ से जवाब आया कि न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ होती हैं। न्यायालय क़ानून की प्रभावशीलता के आधार पर संसद के फ़ैसले को चुनौती नहीं दे सकता। अपराधों पर प्रतिबंध की अवधि संसद की नीति का हिस्सा है। इसे चुनौती देकर किसी अपराधी पर आजीवन (चुनाव लड़ने पर) प्रतिबंध थोपना सही नहीं होगा।

अपराधियों पर प्रतिबंध लगने की आहट से ही यह बचाव इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि संसद से लेकर विधानसभाओं तक में अपराधी भरे पड़े हैं। इनकी हिम्मत इतनी बढ़ चुकी है कि ये न्यायालय को चुनौती दे रहे हैं। इन अपराधियों को यह हिम्मत आँख बंद करके जाति, धर्म, पार्टी के नाम पर लोकलुभावने वादों के झाँसे में आकर मतदान करने वालों ने दी है। इसी हिम्मत के दम पर ये लोग संविधान द्वारा प्रदत्त संसद की शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय को एक प्रकार की धमकी दे रहे हैं कि वह इस मामले में दख़ल न दे। क्योंकि अपराध के रास्ते सत्ता तक पहुँचने वाले ये लोग इतने ताक़तवर हो चुके हैं और बहुमत में हैं कि हर प्रकार की मनमानी पर उतारू हैं। अपराधियों के लिए राजनीतिक पक्ष की क़ानूनी अवधारणा इतनी कमज़ोर और सस्ती हो चुकी है कि कोई भी शातिर अपराधी संसद की सीढ़ियाँ आसानी से चढ़ जाता है। जो जितना बड़ा शातिर अपराधी होता है, वह उतनी ही बड़ी सत्ता पा जाता है। लेकिन इसमें सिर्फ़ जनता का ही दोष नहीं है, बल्कि कौड़ियों के भाव ईमान बेचने वाले संवैधानिक संस्थाओं में बैठे मठाधीश, अफ़सर, पत्रकार और बुद्धिजीवी भी बहुत बड़े दोषी हैं। लेकिन इन सबके लालच की भेंट अंत में जनता ही चढ़ती है। 

सत्ता की ताक़त के आगे सर्वोच्च न्यायालय की लाचारी इतनी बढ़ चुकी है कि वह अब आपराधिक बहुमत के राजनीतिक क़िलों पर टिप्पणी ही कर सकता है, सत्ता में पहुँच चुके अपराधियों को जेल नहीं भिजवा सकता। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग षड्यंत्र रच रहे हैं। अपने और अपनी सत्ता के बचाव के लिए देश से लगातार झूठ बोल रहे हैं। खुलेआम देश की संपदा और जनता की मेहनत की कमायी लूट रहे हैं। मूर्ख लोग नियति और राजनीतिक परंपरा की दुहाई देते हुए बड़ी आसानी से कह देते हैं कि हर सरकार में भ्रष्टाचार होता है। निर्बलों को इसकी परवाह नहीं है। जो बोलते हैं, वे एकजुट नहीं हैं। यही कारण है कि सरकारों में बहुमत में बैठे दाग़ी शासकों की हिम्मत इतनी बढ़ चुकी है कि वे बड़ी आसानी से न्यायालयों के फ़ैसलों में हस्तक्षेप कर देते हैं। फिर भी जनता ही सर्वशक्तिमान है; लेकिन यह जनता तभी कुछ कर सकती है, जब वह ख़ुद न्यायप्रिय, जागरूक, लालच से दूर, देश और जनहित की समझ रखने वाली होगी।

योगी के राम-राज्य में जनता की दशा

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन का दूसरा कार्यकाल चल रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके समर्थक उनके शासन को राम राज्य बताकर अब तक का सर्वश्रेष्ठ शासनकाल कह रहे हैं; मगर जनता में सब इस बात से सहमत नहीं हैं। अनेक समस्याओं एवं प्रशासनिक दबाव से त्राहिमाम कर रही अधिकांश जनता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ-साथ भाजपा से भी छुटकारा पाना चाहती है। इसका स्पष्ट उदाहरण बीते वर्ष लोकसभा चुनाव में भाजपा को अत्यधिक कम मिली सीटें हैं। दूसरा उदाहरण मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर मतदान में हुई कथित गड़बड़ी है।

मास्टर नंदराम कहते हैं कि भाजपा की करनी एवं कथनी में धरती-आकाश का अंतर दिखायी देता है। जनता ने जिस आशा से बड़े सम्मान के साथ भाजपा को देश एवं उत्तर प्रदेश का शासन सौंपा है, जनता को उसका मलाल होने लगा है। प्रदेश में आपराधिक घटनाएँ हर दिन घट रही हैं। बुलडोज़र अवैध निर्माणों के अतिरिक्त निर्दोषों के निर्माणों पर भी दहाड़ रहा है। भ्रष्टाचार भी नहीं रुका है। नौकरियाँ घट रही हैं एवं शिक्षा व्यवस्था ठप होती दिख रही है। इसका परिणाम ये देखने को मिल रहा है कि लूट, चोरी एवं हत्या की वारदात बढ़ती जा रही हैं; मगर शासन प्रशासन में कोई मानने को तैयार नहीं है कि प्रदेश में अपराध हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता करन सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रदेश की व्यवस्था नहीं सँभल रही है। अपराधों की तो कोई गिनती ही नहीं है। बलात्कार की घटनाओं से मन दु:खी होता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं को न्यायाधीश समझते हैं एवं घोषणा करते हैं कि वह संत हैं; मगर प्रदेश में हर दिन कई-कई जघन्य अपराध होने के उपरांत भी उनका हृदय नहीं रोता है। उनके सारे प्रयास स्वयं की छवि चमकाने एवं अपनी कमियों पर पर्दा डालने के दिखते हैं। उन्होंने आज तक किसी बलात्कार पीड़िता के घर जाकर उसकी पीड़ा को कम करने के लिए बलात्कारियों को नेस्तनाबूद करने की क़सम नहीं खायी। ऊपर से उन्होंने अपनी पार्टी के अनेक बलात्कारियों को बचाने के प्रयास ही किये हैं। उन्नाव कांड, कानपुर कांड, हाथरस कांड, बदायूँ कांड, पीलीभीत कांड, गोरखपुर कांड, बाराबंकी कांड से लेकर हर जनपद में कोई-न-कोई घिनौनी दुराचार की घटना होती रहती है; मगर मुख्यमंत्री योगी की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ। उनका हृदय मासूम बच्चियों के बलात्कार से भी नहीं पसीजता है। भाजपा कार्यकर्ता योगेंद्र कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में अपराधी बचे ही नहीं है। जब योगेंद्र से पूछा गया कि अगर प्रदेश में अपराध नहीं हो रहे हैं, तो हर दिन अपराध के अनेक समाचार कैसे प्रकाशित हो रहे हैं? इस पर योगेंद्र ने उत्तर दिया कि छोटी-मोटी घटनाएँ कहाँ नहीं होती हैं? अपराध की बड़ी-बड़ी घटनाओं पर इस प्रकार का उत्तर देना भाजपा की मानसिकता दर्शाता है।

दहल उठीं महिलाएँ

उत्तर प्रदेश में हर दिन बलात्कार की अनेक घटनाओं से समाचार पत्र भरे दिखते हैं; मगर योगी शासन में इन घटनाओं को आम घटनाएँ कहने का चलन बन गया है। एक पुलिसकर्मी नाम प्रकाशित करने की विनती करते हुए कहते हैं कि अपराध पर रोक लगाने में पुलिस को मात्र 24 घंटे का समय पर्याप्त है। मगर अपराध की घटनाओं को अंजाम देकर भी अगर कोई अपराधी पुलिस की पकड़ से बचा रहता है, तो इसका अर्थ स्पष्ट समझ लीजिए कि उस अपराधी का बचाव कोई राजनीतिक ताक़त कर रही है। पुलिस के लिए अपराधियों को सीधा करना कोई कठिन चुनौती नहीं है। राजनीतिक दबाव एवं अपराधियों के संरक्षण का चलन राजनीति में रहता है, क्योंकि नेता चुनाव से लेकर सत्ता में अपना दबदबा बनाये रखने तक के लिए अपराधियों का सहारा लेते हैं।

तात्कालिक आपराधिक घटनाओं पर दृष्टिपात करने पर देखा जा सकता है। बीती 20 जनवरी को बरेली के हाफिजगंज थाना क्षेत्र के एक गाँव में झब्बू नाम के एक व्यक्ति ने खेत पर जा रही सात वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म करके उसका गला दबाकर हत्या करने का प्रयास किया। परिजनों ने बलात्कारी को पकड़ लिया, जिसके बाद पुलिस ने उसे हिरासत में लेकर न्यायालय में प्रस्तुत किया, जहाँ विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो एक्ट) कोर्ट-3 उमाशंकर कहार ने फोरेंसिक साक्ष्यों के आधार पर झब्बू को दोषी मानते हुए 20 वर्ष का सश्रम कारावास एवं 10,000 रुपये के आर्थिक दंड की सज़ा सुनायी। इससे पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्म स्थली उनके ही गोरखपुर नगर में एक हुक्का बार में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार की वारदात हुई थी। बीती 27 जनवरी को ही मुज़फ़्फ़रनगर में भी एक कैफे में एक 15 वर्षीय 10वीं की छात्रा का सामूहिक बलात्कार किया गया। मुज़फ़्फ़रनगर में ही फरवरी के पहले सप्ताह में एक अन्य नवविवाहिता के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गयी। 30 जनवरी को भगवान राम की नगरी में एक मंदबुद्धि युवती से सामूहिक बलात्कार करके अज्ञात लोगों ने उसे इतना पीटा कि उसकी पसलियाँ तक टूट गयीं। 2 फरवरी को उसका शव मिला। पुलिस इस घटना को दबाने के प्रयास में लगी रही। अयोध्या में ऐसे जघन्य अपराध की घटना बताती है कि प्रदेश में राम राज्य की बात एक जुमला ही है। 29 जनवरी को शाहजहांपुर में एक छात्रा का अपहरण करके अपराधियों ने सामूहिक बलात्कार करके उसके अश्लील वीडियो बना लिये। अपराधियों ने छात्रा को धमकाते हुए घटना के बारे में किसी को न बताने एवं बुलाने पर चले आने को कहकर छोड़ दिया। घटना की जानकारी पुलिस को हुई, तो अपराधियों की गिरफ़्तारी के लिए दबिश दी गयी मगर अपराधियों ने पुलिस पर ही गोलियाँ चला दीं। मुठभेड़ में पुलिसकर्मी भी घायल हो गये; मगर अपराधी पकड़े गये। अपराधियों के इतने बुलंद हौसले बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में आपराधिक घटनाएँ नहीं रुकी हैं एवं राम राज्य कहीं नहीं है। ये केवल कुछ ही बलात्कार की घटनाएँ हैं। प्रदेश में हर प्रकार के अपराध की घटनाएँ हर दिन घटित हो रही हैं।

बुलडोज़र से समर्थक भी तंग

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उपरांत भी उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र कार्रवाई नहीं रुक रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुलडोज़र बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो चुके प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बुलडोज़र एवं एनकाउंटर को अपनी न्याय नीति का प्रमुख हथियार मानते हैं। यही कारण है कि उनका बुलडोज़र न इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आपत्ति पर रुका एवं न सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उपरांत रुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में पुलिस एनकाउंटर को लेकर भी आपत्तियाँ दर्ज हुई हैं; मगर उस पर भी रोक नहीं लगी है। एक भाजपा नेता नाम प्रकाशित न करने की विनती करते हुए कहते हैं कि योगी जनता को डराकर स्वयं को शक्तिशाली घोषित करना चाहते हैं। उनकी बुलडोज़र एवं एनकाउंटर नीतियाँ अनेक अपराधियों को डराने के नाम पर चर्चित अवश्य हुई हैं; मगर आम जनता में इसका संदेश अच्छा नहीं गया है।

बुलडोज़र केवल अपराधियों के घरों, व्यावसायिक केंद्रों एवं अवैध निर्माणों पर ही नहीं चल रहा है, वरन् सरकार के विरुद्ध हुंकार भरने वालों के घरों एवं व्यावसायिक केंद्रों पर चलने के आरोप लग रहे हैं। यह भी नहीं है कि बुलडोज़र केवल भाजपा के पक्ष में खड़े होने वालों के अवैध निर्माण ढहा रहा है। कई गाँवों में देखा गया है कि ग्राम सभा की भूमि पर अवैध निर्माण करने वाले कई भाजपा समर्थकों को भी बुलडोज़र कार्रवाई में छोड़ा नहीं गया है। भाजपा के पक्ष में बोलने एवं मतदान करने वाले दो ऐसे ही व्यक्तियों तुलाराम एवं कोमिल प्रसाद के उन निर्माणों को भी तोड़ने के लिए नाप लिया गया है, जो ग्राम सभा की भूमि पर बने हुए बताये जाते हैं। तुलाराम कहते हैं कि उन्होंने अपने घेर का निर्माण ग्रामसभा की भूमि पर अवश्य कराया है; मगर वह ग्रामसभा की भूमि उन्हें घर बनाने के लिए वर्षों पहले पट्टे पर मिली थी। कोमिल प्रसाद कहते हैं कि उनका घर तो उनके खेत में बना हुआ है फिर भी उसे तोड़ने के लिए सरकारी अधिकारी नापकूत करके ले गये हैं। गाँव के दूसरे लोग कहते हैं कि कोमिल प्रसाद ने अपना घर खेत में ही बनाया है; मगर सड़क किनारे की सरकारी भूमि को भी पाटकर उन्होंने घर सड़क किनारे बनाया है। इन दोनों लोगों के निर्माण अवैध हैं अथवा वैध यह बिना आधिकारिक घोषणा के नहीं कहा जा सकता; मगर दोनों ही लोग भाजपा के कट्टर समर्थक हैं। अब जबसे उनके निर्माणों पर बुलडोज़र चलने की बात सामने आयी है, भाजपा एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों को लेकर दोनों के सुर बदल गये हैं।

उर्दू पर प्रहार का विरोध

बीते दिनों उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी ने उर्दू को कठमुल्लापन की भाषा बताकर विवाद मोल ले लिया है। उर्दू लखनऊ की तहज़ीब वाली भाषा मानी जाती है एवं पूरे प्रदेश में उर्दू के शब्दों का अपनी स्थानीय भाषा एवं हिंदी में सम्मान के साथ सभी लोग उपयोग करते हैं। स्वयं योगी आदित्यनाथ उर्दू का विरोध करते हुए उर्दू के शब्द बोल रहे थे। उन्होंने विधानसभा में एक शायरी भी पढ़ी जो उर्दू की थी। मगर वह उर्दू को मुसलमानों की भाषा एवं उसका अपमान करके फँस गये हैं। उर्दू के प्रति उनकी इस घृणा पर मुसलमान तो फिर भी कम बोल रहे हैं, हिंदू उनको संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त घृणा फैलाने वाला मुख्यमंत्री बता रहे हैं। एक साहित्यकार कहते हैं कि पहली बात तो उर्दू भारतीय भाषा है एवं आम बोलचाल की भाषा का अभिन्न अंग है। दूसरी बात यह एक मीठी ज़ुबान है, जिसके बिना काम चल ही नहीं सकता। मगर योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करनी है एवं उन्हें हिंदुओं का नेता बनने का भूत सवार है; वह भी घृणा फैलाकर, अच्छे काम करके नहीं। ऐसे में उन्हें कौन पसंद करेगा?

संगम के जल पर विवाद

प्रयागराज में महाकुंभ स्नान के बीच संगम में त्रिवेणी के जल को न नहाने योग्य बताने वाली केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भड़क गये हैं। वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी पर बरसने के उपरांत त्रिवेणी के जल को नहाने योग्य न बताने वाली रिपोर्ट को लेकर भी भड़क गये। वह कहते हैं कि महाकुंभ में संगम का जल पूर्णत: स्नान करने योग्य है एवं आचमन करने योग्य भी है। संगम के जल में ऑक्सीजन की मात्रा आठ से नौ तक है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड लगातार जल स्वच्छ करने की दिशा में कार्य कर रहा है। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने महाकुंभ में बड़े-बड़े लोगों के स्नान करने की बात कही। मुख्यमत्री योगी आदित्यनाथ ने आरोप लगाया कि महाकुंभ को बदनाम करने की साज़िश चल रही है। झूठे वीडियो चल रहे हैं।

विदित हो कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने संगम के जल के कई नमूने लेकर परीक्षण किया था, जिसकी रिपोर्टर 03 फरवरी को उसने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कहा था कि गंगा-यमुना के पानी में तय मानक से कई गुना फ़ीकल कोलीफार्म बैक्टीरिया हैं। इसके उपरांत 18 फरवरी को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को अनुचित बताते हुए एक नयी रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जल के पुनर्परीक्षण की नयी रिपोर्ट माँगी है।