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रोज़गार माँगने की क़ीमत पिटाई!

भर्तियों में देरी और रोज़गार माँगने के बदले युवाओं की पिटाई से खुल सकता है बड़े आन्दोलन का रास्ता 

बिहार में रेलवे भर्ती के नतीजों में धाँधली के आरोपों के बाद शुरू हुआ छात्र आन्दोलन क्या देश भर में रोज़गार के मुद्दे को एक बड़े रूप में खड़ा कर सकेगा? यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन छात्रों / युवाओं ने जिस तरह इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखायी है और सत्ताधीशों ने इसे कुचलने की कोशिश की है, उससे यह तो साफ़ है कि चुनाव से ऐन पहले शुरू हुए इस आन्दोलन ने सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है। फ़िलहाल यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बिहार से शुरू हुआ छात्र विरोध उत्तर प्रदेश में भी पाँव पसार रहा है। हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के बाद यह नये रूप में सामने आये और सरकारें इससे मुश्किल में पड़ती दिखें।

आन्दोलन बिहार में रेलवे भर्ती में नतीजों में धाँधली के विरोध में शुरू हुआ। ज़ाहिर है इससे पता चलता है कि किस स्तर पर भ्रष्टाचार योग्य उम्मीदवारों को उनके हक़ से वंचित कर रहा है। सबसे ख़राब बात यह रही कि रोज़गार का हक़ माँगने सडक़ों पर उतरे युवाओं को पुलिस ज़ुल्म का शिकार बनाया गया। उन्हें लाठियों से लहूलुहान करके उनकी आवाज़ दबाने की कोशिश की गयी।

आन्दोलन के बीच ही कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इन छात्रों के प्रति अपना समर्थन ज़ाहिर किया। लेकिन मीडिया और बाक़ी राजनीतिक दल इस विरोध पर ख़ामोशी अख़्तियार किये रहे। दिन-रात राजनीतिक चाटुकारिता में मग्न मीडिया को यह कोई बड़ी ख़बर नहीं लगी, जबकि सच्चाई यह है कि यही इस देश के असली मुद्दे हैं। बिहार बन्द के दिन 28 जनवरी को जाकर राजनीतिक दलों ने छात्रों के नाम पर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश की। जबकि आन्दोलन के दौरान जब छात्र सडक़ों पर पुलिस के हाथों लहूलुहान हो रहे थे, तब उनकी भूमिका शून्य ही थी।

छात्रों का कहना था कि उन्होंने 10 दिन तक लगातार ट्वीट किये। एक करोड़ ट्वीट हुए; लेकिन सरकार सोयी रही। इसके बाद हमें मजबूरी में सडक़ पर उतरना पड़ा। सरकार के इस मामले में समिति बनाने को भी छात्र शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनका कहना है कि सरकार समिति बनाकर हमारे ग़ुस्से को ठंडा करना चाहती है, ताकि उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के चुनावों पर असर न हो और बेरोज़गार शान्त रहें। हम सरकार की साज़िश समझ रहे हैं।

बिहार की राजधानी पटना और कई शहरों में ग़ुस्साये छात्रों के प्रदर्शन का असर उत्तर प्रदेश में भी दिखायी दिया है। कई स्थानों पर हिंसा हुई है। ट्रेनों को जलाया गया है। बड़ी संख्या में छात्र गिरफ़्तार किये गये हैं। उन पर पुलिस के लाठीचार्ज का सर्वत्र विरोध हुआ है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने छात्रों पर लाठीचार्ज के बाद इसकी कड़ी निंदा करते हुए छात्रों के समर्थन का ऐलान किया। छात्रों का ग़ुस्सा तब भडक़ा, जब 14 जनवरी को रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) ने नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (एनटीपीसी) परीक्षा के नतीजे घोषित किये। उन्होंने नतीजों में बड़े पैमाने पर धाँधली के आरोप लगाये। बड़ी संख्या में छात्र इनके ख़िलाफ़ मैदान में उतर आये। छात्रों का आरोप था कि इन नतीजों में गड़बड़ी है और इसके चलते ऐसे छात्र बाहर हो जाएँगे, जिनके पास मेरिट है।

छात्रों का कहना था कि परीक्षा की तैयारी के लिए हरेक छात्र के ज़्यादा नहीं, तो चार से पाँच लाख रुपये तो ख़र्च हुए ही थे। मगर जब नतीजे आये, तो उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। छात्रों के मुताबिक, नतीजों में गड़बड़ी ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। आन्दोलन के दौरान छात्रों और पुलिस के बीच पत्थरबाज़ी से लेकर लाठीचार्ज तक हुआ। पुलिस ने छात्रों को पकड़-पकडक़र मारा, जिससे दर्ज़नों छात्र लहूलुहान भी हुए। छात्रों का आरोप है कि परीक्षा के नतीजों में भ्रष्टाचार ने उनके भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है।

छात्रों के आन्दोलन और प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार को मजबूरन जाँच समिति गठित करनी पड़ी। जल्दी में किये गये इस फ़ैसले का बड़ा कारण उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी थे। छात्रों को भी लगता है कि समिति बनाने का फ़ैसला उनके ग़ुस्से को शान्त करने का तरीक़ा मात्र था। हालाँकि छात्रों ने इस समिति को ख़ारिज़ कर दिया और आरोप लगाया कि यह समिति नहीं, उत्तर प्रदेश चुनाव तक बेरोज़गारी के ठंडा रखने की साज़िश है। छात्रों के मुताबिक, किसानों की तरह सरकार छात्रों को भी झुनझुना पकड़ाकर चुप करके बैठा देना चाहती है, ताकि एक बार चुनाव निकल जाएँ और फिर वो अपना असली रूप दिखाए।

नतीजों में धाँधली के अलावा छात्र रिक्तियाँ समय पर नहीं निकलने के कारण भी नाराज़गी है। छात्रों के मुताबिक, रिक्तियाँ निकालने में भी देरी की जा रही है। आज से पहले रेलवे की भर्ती सन् 2019 में निकली थी। तब लोकसभा के चुनाव होने वाले थे। अभी तक उसके नतीजे नहीं निकले हैं। छात्रों के पास भर्ती परीक्षाओं और नतीजों का कैलेंडर तक नहीं है, जिससे कि उन्हें पता चल सके कि सीबीटी-2 (कम्प्यूटर बेस्ड टेस्ट), स्किल टेस्ट और इंटरव्यू कब होगा? नतीजे कब आएँगे?

सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या बिहार में शुरू हुआ छात्रों का यह विरोध एक बड़े आन्दोलन में तब्दील हो पाएगा? निश्चित ही बेरोज़गारी देश में आज सबसे बड़ा मुद्दा है। लेकिन यह मुद्दा आन्दोलन का रूप नहीं ले पाया है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि छात्रों के इस ग़ुस्से को थामा नहीं गया, तो ये बड़े आन्दोलन में तब्दील हो सकता है। देश में हाल के वर्षों में बेरोज़गारी की कतार इतनी लम्बी हो गयी है कि छात्र और युवा बेक़ाबू होने लगे हैं। इस ग़ुस्से को थोड़ी-सी भी हवा मिली, तो इसके बड़े आन्दोलन में बदलते देर नहीं लगेगी।

यह स्थिति सिर्फ़ बिहार तक सीमित नहीं है, कमोवेश पूरे देश में है। अभी तक भले इस विरोध आन्दोलन का कोई नेतृत्व नहीं है; लेकिन यदि यह भडक़ा और बड़े स्तर पर फैला तो नेतृत्व आते देर नहीं लगेगी। कई संगठन हैं, जो रोज़गार को लेकर असन्तोष के स्तर पर हैं। यह सभी साथ मिल गये, तो बड़ा आन्दोलन खड़ा होते देर नहीं लगेगी। फिर राजनीति भी इससे जुड़ जाएगी। सन् 1973 में ऐसा देखने को मिला था, जब छात्रों का आन्दोलन सन् 1974 आते-आते छात्र राजनीति के रूप बदल गया था।

जैसे किसान आन्दोलन स्थगित तो हो गया है; लेकिन किसानों की तरह सरकार पर छात्रों को भी भरोसा नहीं है। सरकार और छात्रों के बीच संवाद का गम्भीर अभाव है। इसका कारण यह है कि हाल के वर्षों में सरकार मामलों को लटकाने की नीति अपनाती रही है। रोज़गार के मामले में यह सबसे ज़्यादा हो रहा है। भर्तियाँ रुकी पड़ी हैं। अनुबन्ध (कॉन्ट्रेक्ट) व्यवस्था ने नौकरी की आस में बैठे छात्रों / युवाओं में असुरक्षा की भावना भर दी है। यहाँ तक की नतीजे आने के बाद भी नियुक्तियाँ नहीं हो रही हैं, या उनमें लम्बा व$क्त लगने लगा है।

बुन्देलखण्ड में बदलेंगे सियासी समीकरण

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी हलचल तेज़ है और प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में इस बार भी चुनावी मुद्दे वहीं हैं, जो लम्बे समय से चले आ रहे हैं। लेकिन मुद्दों के समाधान को लेकर लोगों की माँगों ने ज़ोर पकड़ा है। इनमें बुन्देलखण्ड राज्य की माँग तो है ही, मगर दूसरी ओर रोज़गार के न होने से पलायन जैसे मुद्दे भी इस बार हावी हैं। बताते चलें कि बुन्देलखण्ड के हिस्से में कुल सात ज़िले आते हैं, जिनमें चार लोकसभा सीटें और 19 विधानसभा सीटें हैं। बुन्देलखण्ड निवासियों का कहना है कि चुनाव तो आते-जाते हैं; लेकिन चुनाव दौरान किये गये सियासी दलों द्वारा किये वादे पूरे न होने से वे ख़ुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों को लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता ने लोगों से बातचीच की, तो उन्होंने अपने मन की बात रखी।

दरअसल सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की पूरी-की-पूरी 19 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कर इतिहास रचा था। तब लोगों ने उम्मीद की थी कि भाजपा को सभी 19 सीटों पर जीत दिलायी है और केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है, तो निश्चित तौर पर बुन्देलखण्ड का विकास होगा और साथ ही अलग से राज्य भी बनेगा। लेकिन सारी-की-सारी उम्मीदें धरी-की-धरी रह गयीं। अब इस बार के विधानसभा चुनाव आते ही लोगों ने नेताओं को पुराने वादे याद कराने की कोशिश कर रहे हैं। युवाओं का कहना है कि चुनावी वादे को सिर्फ़ वादा समझने वालों को जनता इस बार चुनाव में सबक़ सिखाएगी। समाजवादी नेता पूरन सिंह ने बताया कि सन् 2014 में जब लोकसभा का चुनाव था। तब झाँसी, ललितपुर लोकसभा सीट से भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती ने बुन्देलखण्ड के विकास को लेकर तमाम वादे किये थे। साथ ही बुन्देलखण्ड राज्य बनाने का वादा किया था। लेकिन वो वादा अब तक पूरा नहीं हुआ है। हालाँकि इतना ज़रूर हुआ है कि 28 फरवरी, 2019 को सियासत दबाव और लोगों को दिखाने के लिए बुन्देलखण्ड विकास बोर्ड का गठन हुआ है। बोर्ड में बैठे पदाधिकारी भी अपनी सियासी पकड़ के चलते बुन्देलखण्ड के नाम पर कुछ भी नहीं कर रहे हैं।

जहाँ तक 2022 के विधानसभा चुनाव की बात है, तो बुन्देलखण्ड में तीसरे चरण में 19 विधानसभा सीटों पर 20 फरवरी को मतदान होना है। इस बार भाजपा और सपा के बीच चुनावी जंग आर-पार की है। बसपा और कांग्रेस चुनावी माहौल बनाने में लगे हैं। लोगों का कहना है कि यह तो बात पक्की है कि सियासत में जुमलों और वादों का दौर चलता है; लेकिन इतना भी नहीं चलता है कि चुनाव जीतने के बाद भुला दिया जाए और जनता फिर भी ख़ामोश बैठी रहे।

बुन्देलखण्ड के विकास और यहाँ सूखा पडऩे से बेहाल किसानों की सहायता के लिए काम करने वाले विनीत कुमार ने बताया कि सन् 2007 से पहले लोगों ने यह सोचा था कि मायावती सदैव दलितों के हित की बात करती हैं। लेकिन जब सन् 2007 में बसपा ने जो दलित-ब्राह्मण कार्ड खेला था, जिसमें वे सफल भी हुईं; तब लोगों को लगा था कि दलितों के साथ सामान्य वर्ग का भी विकास होगा। उनकी समस्याओं का समाधान होगा। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। बस एक सामान्य सरकार की तरह बसपा सरकार भी आरोपों-प्रत्योरोपों से घिरी रहने वाली साबित हुई।

उसके बाद सन् 2012 में अखिलेश यादव की सरकार बनी, तो लोगों ने यह आशा की थी कि अखिलेश यादव एक युवा नेता हैं और विदेश से पढक़र आये हैं। अखिलेश ज़रूर प्रदेश के विकास के साथ बुन्देलखण्ड का विकास करेंगे, जिससे इस छिटके क्षेत्र में पानी की क़िल्लत दूर होगी। किसानों को राहत मिलेगी और ग़रीबों व बेरोज़गारों का पलायन रुकेगा। हालाँकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बुन्देलखण्ड में तालाबों के जीर्णोद्धार करने के साथ नये तालाब भी बनवाये हैं। लेकिन तालाबों की ख़ुदार्इ से लेकर और उसकी मिट्टी का ठेका ख़ासकर एक-दो विशेष जाति के लोगों को दिये जाने से बाक़ी लोगों में नाराज़गी देखी गयी। साथ ही लोगों को एम-बाई फैक्टर (मुस्लिम-यादव) के बढ़ते दबदबे से लोगों के साथ ख़ासकर महिलाओं और स्कूलों में नाराज़गी बढ़ी थी। क्योंकि थानों में और सरकारी दफ़्तरों में एम-बाई फैक्टर की ही सुनी जा रही थी। इन्हीं सब घटनाओं से क्षुब्ध होकर लोगों ने सन् 2017 के विधानसभा के चुनाव में एक तरफ़ा सभी 19 विधानसभा सीटों पर भाजपा को ऐसिहासिक जीत दिलायी।

जब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बने, तो फिर लोगों ने यह उम्मीद की थी कि योगी आदित्यनाथ पूर्वांचल के लोगों की परेशानियों से वाक़िफ़ हैं और प्रदेश के विकास के साथ-साथ बुन्देलखण्ड में विकास की गंगा बहाएँगे और पलायन को रोकेंगे। लेकिन उन्होंने भी इस महती क्षेत्र के साथ वही सब किया, जो दूसरे सियासतदान करते हैं; सिर्फ़ और सिर्फ़ वादे, और कुछ नहीं।

बुन्देलखण्ड निवासी राजेश शुक्ला ने बताया कि बुन्देलखण्ड की कई बुनियादी समस्याओं के अलावा इसके हिस्से वाले सातों ज़िलों- बाँदा, जालौन, हमीरपुर, झाँसी, ललितपुर, महोबा और चित्रकूट की अपनी-अपनी अलग-अलग बुनियादी समस्याएँ हैं। किसी ज़िले में कुछ विकास हुआ है, तो किसी ज़िले में विकास न के बराबर ही हुआ है। ऐसे में सरकार का दायित्व तो यह बनता था कि प्रत्येक ज़िले की समस्याओं और पूरे बुंदेलखण्ड के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विधिवत् योजनाओं को साकार करना किया जाए। लेकिन किसी भी सियासी दल ने यह कभी सोचा तक नहीं है। राजेश शुक्ला का मानना है कि बुन्देलखण्ड में झाँसी ज़िले का विकास जिस तरह हुआ है, उस तरह अन्य छ: ज़िलों में नहीं हैं। ऐसे में बाक़ी छ: ज़िले काफ़ी पिछड़े हुए हैं। सन् 2020 में कोरोना महामारी ने तो बुन्देलखण्ड को और भी पिछड़ा कर दिया है। किसानों की हालत ख़राब है। पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है। अब फिर से बुन्देलखण्ड में अपराध बढऩे लगा है। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड की जनता चाहती है कि सरकार किसी भी पार्टी की बने, पर युवाओं को रोज़गार मिले और किसानों को दिये जाने वाले बजट को और बढ़ाया जाए, तब जाकर कुछ होगा; अन्यथा बुन्देलखण्ड पिछड़ता ही जाएगा।

भाजपा नेता बी.एल. आर्या ने बताया कि बुन्देलखण्ड के लोगों का अपना अलग ही मिजाज़ है और तौर-तरीक़े भी अलग हैं; तो यहाँ की सियासत भी अलग है। क्योंकि यहाँ के नेता तो चाहते हैं कि बुन्देलखण्ड राज्य बने, जिसको लेकर स्थानीय नेताओं से लेकर विधायक और सांसद आवाज़ उठाते रहते हैं। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को लेकर संसद में महोबा-हमीरपुर से भाजपा सांसद पुष्पेंद्र चंदेल और बाँदा से सांसद आर.के. पटेल ने कई बार बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को उठाया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश विधानसभा में बुन्देलखण्ड की आवाज़ 19 विधायकों ने भी उठायी है।

बुन्देलखण्ड की सियासत के जानकार सन्तोष पटेल का कहना है कि इस बार चुनाव में बुन्देलखण्ड के सातों ज़िलों में चुनावी मिजाज़ बदला-बदला सा नज़र आ रहा है। सन् 2017 में भाजपा ने सभी 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन इस बार शायद भाजपा दोबारा जीत हासिल नहीं कर सकेगी। वैसे पूरे राज्य की तरह बुन्देलखण्ड में भी जाति-धर्म के ध्रुवीकरण की सियासत होती है, जिससे वोटों को बँटवारा आसानी से हो जाता है। लेकिन इस बार बुन्देलखण्ड में सातों ज़िलों की अलग-अलग सीटों पर कहीं बसपा, तो कहीं सपा का माहौल बनता दिख रहा है। वहीं भाजपा के लिए अपनी दोबारा जीत के लिए माहौल बनाना पड़ रहा है। कांग्रेस तो खोये हुए जनाधार पाने के लिए संघर्ष कर रही है। इस बार अगर भाजपा के विधायकों के प्रति लोगों का रोष और सरकार की नीतियों का विरोध मतदान में दिखता है, तो चुनावी परिणाम चौंकाने वाले साबित होंगे।

इधर कांग्रेस नेता मनोज तिवारी का कहना है कि बुंदेलखण्ड में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा का अपना जनाधार है। इस जनाधार में सेंध लगाने के लिए सियासत दल और प्रत्याशी हर सम्भव कोशिश करते हैं। इस बार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बार मतदाता ज़्यादा सजग हो गया है। वजह साफ़ है कि वे जानते हैं कि कोरोना महामारी में जिन्होंने अपने परिजनों को खोया है, उसकी वजह प्रदेश सरकार की उदासीनता और तानाशाही है। मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन को लेकर उनके परिजनों को जिस तरह जूझना पड़ा है; दवाएँ नहीं मिलीं। अस्पताल में जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिली। अपनों की जान बचाने के लिए कई-कई गुने दाम चुकाने पड़े। बावजूद इसके भी बहुत लोगों की जान चली गयी। यह सब बुन्देलखण्ड के निवासी भूलने वाले नहीं हैं। उनका कहना है कि मौज़ूदा दौर का यह दुर्भाग्य है कि सियासतदान चुनाव में विकास के मुद्दों की चर्चा करते हैं। आज की सियासत जनहित और देशहित की बात भुलाकर सत्ता का लाभ लेने के लिए चुनाव के दौरान बड़ी आसानी से धर्म और जाति का चुनाव बना देती है, जिससे भोला-भाला मतदाता उनके जाल में फँसकर मतदान कर देता है। उनका कहना है कि भाजपा के जो 19 विधायक चुनकर आये थे, उनमें से आधे से अधिक विधायकों के ख़िलाफ़ जनता का आक्रोश मतदान के दिन साफ़ दिखेगा।

ग्रामीण महिला पूजा मिश्रा का कहना है कि सन् 2017 में भाजपा ने जिस तरह बड़ी जीत दर्ज की थी, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी के नाम पर की थी। लेकिन यहाँ के विधायक यह सोचते हैं कि उन्होंने अपने दम पर जीत हासिल की है। सो उन्होंने पूरे पाँच साल में जनता की एक नहीं सुनी। अब इस बार जनता उनकी सुनने को तैयार नहीं है। क्योंकि बुन्देलखण्ड में खनिज सम्पदा के अलावा कई स्रोत हैं, जिसके बल पर विकास किया जा सकता था। लेकिन विधायकों ने जमकर खनिज, बालू में लूटपाट की है; जिसका जबाब जनता चुनाव में देगी।

विवाहित बेटी भी है अनुकम्पा नौकरी की हक़दार

न्यायालयों ने आधी आबादी के प्रति सरकारों से उनकी सामंतवादी सोच त्यागकर प्रगतिशील सोच अपनाने को कहा

देश की दो उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में अपनी हालिया टिप्पणियों, फ़ैसलों से लड़कियों व महिलाओं को और अधिक सशक्त करने की पहल की है। न्यायालयों ने राज्य सरकारों को एक बार फिर आधी आबादी के प्रति सामंतवादी सोच का त्याग कर प्रगतिशील सोच की राह अपनाने का कड़ा सन्देश दिया है। सबसे पहले राजस्थान उच्च न्यायालय के अहम आदेश का ज़िक्र किया जा रहा है। राजस्थान की जैसलमेर की शोभा देवी के पिता गणपत सिंह जोधपुर विद्युत निगम में लाइनमैन थे। 5 दिसंबर, 2016 को उनका निधन हो गया। पीछे उनकी पत्नी शान्ति देवी और बेटी शोभा रह गयीं। बेटी शोभा ने जोधपुर डिस्कॉम में आवेदन किया कि उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं रहती है, लिहाज़ा आश्रित कोटे से विवाहित बेटी को नौकरी दी जाए। लेकिन 6 जून, 2017 को जोधपुर विद्युत निगम ने आवेदन निरस्त करते हुए कहा कि विवाहित महिला आश्रित की श्रेणी में नहीं आती। इस पर महिला ने राजस्थान उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।

न्यायालय ने हाल ही में शोभा के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए जोधपुर विद्युत निगम को 3 महीने के अन्दर शोभा को पिता की जगह नौकरी देने का आदेश दिया। दरअसल जोधपुर विद्युत निगम ने शोभा को अनुकम्पा नौकरी नहीं देने के पीछे दलील दी कि विवाहित बेटी अब पति के परिवार का हिस्सा है। इसलिए उसके अधिकार भी उसी परिवार में हैं। विवाहित बेटी मृतक आश्रित नहीं मानी जा सकती। ऐसे में उसे नौकरी पर नहीं रखा जा सकता। राजस्थान उच्च न्यायालय की पीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान जोधपुर विद्युत निगम की दकियानूसी दलील पर कड़ी आपत्ति ज़ाहिर करते हुए टिप्पणी की कि शादी के बाद बेटी पिता के कुनबे की हिस्सा नहीं रहती, बल्कि वह पति के कुनबे का हिस्सा हो जाती है; यह विचार बहुत पुराने हो चुके हैं। वह अपने पिता के अधिकारों में हमेशा हमवारिस रहती है। जैसे अधिकार उसके अविवाहित होने पर रहते हैं, वैसे ही विवाहित होने के बाद भी रहते हैं। क्योंकि किसी के अविवाहित या विवाहित होने से उनके माता-पिता के साथ रिश्ते बदल नहीं जाते, न ही उनकी ज़िम्मेदारी कम हो जाती है। वह पिता की अनुकम्पा नौकरी की उतनी ही हक़दार है, जितना कि बेटा। विवाहित होने के बाद भी जैसे एक बेटा अपने माता-पिता की देखरेख के लिए ज़िम्मेदार होता है, ठीक वैसे ही बेटी की ज़िम्मेदारियाँ भी कम नहीं हो जातीं। और जब विवाहित बेटे और विवाहित बेटी की ज़िम्मेदारी एक समान हैं, तो फिर अनुकम्पा नौकरी के समय विवाहित बेटी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।

दरअसल अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए राज्य सरकारों के नियम अलग-अलग हैं और अधिकांश नियम पितृसत्तामक सोच को दर्शाते हैं।

ग़ौरतलब है कि अनुकम्पा नियुक्ति / नौकरी एक सरकारी सामजिक सुरक्षा योजना है। इस योजना के तहत जब किसी सरकारी कर्मचारी की नौकरी के दौरान मृत्यु हो जाती है या वह अपने मानसिक स्वास्थ्य के ठीक नहीं होने पर सेवानिवृत्ति ले लेता है, तो ऐसी परिस्थितियों में परिवार के भरण-पोषण के लिए उस कर्मचारी पर आश्रित परिवार का सदस्य अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन कर सकता है। मगर कड़ुवी हक़ीक़त यह है कि राज्य सरकारें अनुकम्पा नौकरी के नियमों की व्याख्या आवेदन करने वालों के हित में न करके अपने हित में करती हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय समाज 21वीं सदी में भी इस बीमार मानसिकता से ग्रस्त है कि बेटियाँ पराया धन होती हैं। शादी के बाद उसका मायके पर कोई अधिकार नहीं रहता। उसका नाता सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों को निभाने तक सिकुडक़र रह जाता है। इसी स्त्री विरोधी मानसिकता को राज्य सरकारें मौक़ा मिलते ही अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। जबकि राज्य सरकारों को तो संविधान के अनुसार चलकर महिलाओं को बराबरी के मौक़े देने चाहिए। लेकिन महिलाओं को उनकी लैंगिकता के आधार पर ऐसे मौक़े नहीं देने के मामले बार-बार न्यायालयों में आते हैं।

अनुकम्पा नौकरी देने के सन्दर्भ में बेटी के विवाहित होने की आड़ में बेटियों के आगे बढऩे की राह में बेवजह दिक़्क़तें पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। ऐसे ही एक मामले में पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने जुलाई, 2020 में अपने फ़ैसले में साफ़ किया कि विवाहित महिलाओं को भी अनुकम्पा नौकरी के लिए विचार के दायरे में लाया जा सकता है।

फ़ैसला सुनाने वाले न्यायाधीश ने ग़ौरतलब बिन्दु उठाया कि योजना की मंशा आश्रित परिवार को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना है। योजना में बेटे को अनुकम्पा नौकरी देते व$क्त उसके वैवाहिक दर्जे के बाबत कुछ नहीं कहा गया, तो लडक़ी के कुँआरी होने पर ज़ोर क्यों? विवाहित बेटी को आश्रित परिवार सदस्यों की परिभाषा से बाहर रखने का मतलब संविधान के अनुच्छेद-14,15 और 21 का उल्लघंन है। उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि संस्था ने सोच-समझकर इस योजना से विवाहित महिला को नहीं जोड़ा कि शादी के बाद महिला अपने पति व ससुराल पक्ष पर निर्भर होती है। यह पुरातनपंथी सोच है।

एक मुख्य बात यह है कि अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए अलग-अलग नियम हैं। उत्तर प्रदेश देश का ऐसा अकेला राज्य है, जिसने हाल ही में यह नियम बनाया है कि विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी मिल सकती है। यह नियम उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायालयों की कड़ी फटकार सुनने के बाद हाल ही में उठाया है।

ग़ौरतलब है कि प्रयागराज की मंजुल ने अपने पिता के निधन के बाद अनुकम्पा नौकरी के लिए आवेदन किया था। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अधिकारी ने जून, 2020 में आवेदन यह कहते हुए मंज़ूर नहीं किया कि मंजुल की शादी हो चुकी है। मंजुल इलाहाबाद उच्च न्यायालय गयीं और 14 जनवरी, 2021 को न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया कि बेटी को पिता के परिवार से बाहर मानना असंवैधानिक है। न्यायालयों के ऐसे फ़ैसलों के दबाव में आकर उत्तर प्रदेश सरकार ने दो महीने पहले 11 नवंबर, 2021 को नया नियम बनाया, जिसके तहत विवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर पिता की नौकरी मिल सकती है। राज्य सरकार ने इसके लिए मृत सरकारी कर्मियों के आश्रितों की भर्ती नियमावली 2021 में 12वाँ संशोधन किया है।

जहाँ तक अन्य राज्यों का सवाल है, वहाँ अनुकम्पा नौकरी के नियम बेटों की और अधिक झुके हुए हैं। ऐसी नौकरियों पर पहला हक़ अक्सर बेटों का मान लिया जाता है।  अगर किसी की एक बेटी है और वह विवाहित है, तो उसे यह कहकर अनुकम्पा नौकरी नहीं दी जाती कि विवाह के बाद वह अपने पति पर आश्रित है। सरकारें नियमों का हवाला देकर उसे अनुकम्पा नौकरी की श्रेणी से ही बाहर कर देती हैं। सवाल यह है कि ऐसा करने का मतलब लैंगिक आधार पर उसके साथ भेदभाव करना है। एक अहम सवाल यह भी है कि कितनी बेटियाँ इसके लिए न्यायालय जाती हैं? सवाल यह है कि विवाहित बेटियों को इसके लिए बार-बार न्यायालय क्यों जाना पड़ता है?

सरकारें नियम क्यों नहीं बदलतीं? और इस सन्दर्भ में मिसाल कायम करने में आगे क्यों नहीं आ रहीं? सरकारों को दीर्घकालीन प्रगतिशील नज़रिये के साथ समाज से कई क़दम आगे चलना चाहिए, न कि समाज की पिछड़ी सोच के साथ। महिलाओं को पीछे छोडक़र कोई भी समाज, देश, दुनिया तरक़्क़ी नहीं कर सकता। न्यायालय कई बार इसकी तस्दीक़ अपने फ़ैसलों के ज़रिये करते रहते हैं।

राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक फ़ैसले में कहा कि शादी के बाद महिला का निवास प्रमाण-पत्र नहीं रोक सकते। निवास की पहचान उसके या माता-पिता के जन्मस्थल से है और इसका विवाह से कोई वास्ता नहीं है। इधर सर्वोच्च न्यायालय ने 20 जनवरी को कहा कि अगर कोई व्यक्ति (पिता) मरने से पहले वसीयत नहीं करता है, तो उसकी मौत के बाद उसकी स्व-अर्जित व पुश्तैनी सम्पत्ति में बेटियों का हक़ है, और उनकी भी हिस्सेदारी है। यही नहीं, बेटियों को सम्पत्ति के अधिकार में वरीयता मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने बेटियों के सन्दर्भ में यह भी कहा कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 से पहले भी पिता की सम्पत्तियों के बँटवारे में बेटियों को बराबर का हिस्सा मिलेगा। यह देश की बेटियों की एक बहुत बड़ी जीत है। सन् 1956 के इस अधिनियम से पहले लड़कियों को यह अधिकार हासिल नहीं था।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त, 2020 में कहा था कि हिन्दू क़ानून-1956 संहिता बन्द होने के वक़्त से ही बेटियाँ अपने पिता, दादा और परदादा की सम्पत्ति में बेटों के समान ही बराबर की हक़दार हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बाद 20 जनवरी, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने देश की बेटियों को क़ानूनी रूप से और अधिक सशक्त करने व उन्हें लैंगिक इंसाफ़ दिलाने की दिशा में एक अहम क़दम उठाया है। सरकारों और प्रशासन को सुनिश्चित करना चाहिए कि आधी आबादी इससे सच्चे अर्थों में लाभान्वित हो।

सीतारमण के पिटारे से राहत की उम्मीद लगाए बैठी है आम जनता

मंत्रिमंडल ने मंगलवार सुबह केंद्रीय बजट को मंजूरी दे दी। अब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सुबह 11 बजे संसद में 2022-23 आम बजट पेश करेंगी। इस बीच सेंसेक्स आज सुबह 850 अंकों के साथ ऊपर गया है। आम जनता से लेकर उद्योग जगत सरकार से  बड़ी राहतों की उम्मीद कर रहा है। पांच राज्यों में महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव देखते हुए इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार लोकलुभावन बजट लाए।

सीतारमण का बतौर वित्त मंत्री यह चौथा बजट है। महामारी के सर्विस सेक्टर पर असर को देखते हुए उसे राहत की बड़ी उम्मीद है। खासकर आयकर में छूट की सीमा कम से कम दो लाख होने की उम्मीद वह लगाए बैठा है। सर्विस सेक्टर देश की जीडीपी का बड़ा हिस्सा है, लिहाजा देखना दिलचस्प होगा कि कम से कम चुनाव को  ही, वित्त मंत्री इस सेक्टर को राहत दें।

आर्थिक सर्वे में जिस तरह जीडीपी 8 से 8.30 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया है उससे तो यही संकेत मिलता है कि देश की अर्थव्यवस्था पटड़ी पर लौटने की दिशा में है। हालांकि, कोविड का नए नए रूपों में सामने आना अर्थव्यवस्था के सुधार के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी राहतें देना उतना आसान भी नहीं है।

हाल के किसान आंदोलन और किसानों की भाजपा के प्रति नाराजगी को देखते हुए सरकार इस क्षेत्र को राहत दे सकती है। जानकारों का कहना है सीतारमण हर क्षेत्र की जरूरतों का बजट में रखेंगी और यह समावेशी बजट हो सकता है। खासकर, किसानों की नाराजगी देखते हुए सरकार उन्हें किसी जरिये से खुश करने की कोशिश कर सकती है।

उद्योग जगत भी वित्त मंत्री से बड़ी उम्मीद कर रहा है। कोविड से पस्त हुआ एमएसएमई सबसे ज्यादा राहत की ज़रुरत महसूस कर रहा है। छोटे उद्योग कोविड की मार सह रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकार ने दया नहीं दिखाई तो उनकी हालत और खराब हो जाएगी।

वैसे हर बजट के बाद कुछ चीजें महंगी हो जाती हैं जबकि कुछ सस्‍ती हो जाती हैं।   कोरोना की मार में अर्थव्‍यवस्‍था को मजबूती देना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। महंगाई से जनता त्रस्त है, लिहाजा उसे राहत नहीं मिली तो इसका राजनीतिक नुकसान चुनाव में हो सकता है।

पेट्रोल-डीजल की कीमतों में काफी बढ़ौतरी हाल के महीनों में हुई है। सरकार उत्पाद शुल्क में कटौती करके राहत का रास्ता निकाल सकती है। एलपीजी गैस सिलेंडर पहले से काफी महंगा हुआ है। इसका कारण उसपर सब्सिडी कम करना है। जनता को उम्मीद है कि इसमें उसे राहत मिले।

क्या सेना में महिलाओं को मिलेगा बराबरी का हक़?

भारतीय रक्षा अकादमी (नेशनल डिफेंस एकेडमी) की प्रवेश परीक्षा 10 अप्रैल को होना तय है और इसके लिए संघ लोक सेवा आयोग ने महिलाओं के लिए मात्र 19 सीटें ही रखी हैं। इससे पहले 2021 में भी 19 सीटें ही रखी थीं। तब सर्वोच्च न्यायालय से केंद्र सरकार ने कहा था कि बुनियादी ढाँचे की समस्या के कारण इतनी कम संख्या रखी गयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर सरकार से सवाल किया था। पर 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा के लिए भी जब सीटें 19 ही रखी गयीं, तो कुश कालरा फिर सर्वोच्च न्यायालय में गये। इस पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश की खण्डपीठ ने सरकार के अतिरिक्त महा न्यायाभिकर्ता (सॉलिसीटर जनरल) ऐश्वर्या भाटी से कहा कि सरकार को यह बताना होगा कि उसके आदेश के बावजूद संघलोक सेवा आयोग द्वारा 2022 के लिए अधिसूचित प्रवेश परीक्षा के लिए महिलाओं के वास्ते 19 सीटें ही क्यों रखी गयीं?

खण्डपीठ ने सरकार को अपना जवाब तीन सप्ताह में दाख़िल कर देने और उसके बाद दोनों पक्षों को दो सप्ताह के भीतर उस पर अपना अपना पक्ष पेश करने का समय दिया है। मामले पर अगली सुनवाई अब 6 मार्च  को होगी। यह उम्मीद किसी को भी नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के मार्च में फ़ैसले के बाद भारतीय सेना में महिलाएँ पुरुषों की बराबरी के स्तर पर आ जाएँगी। फिर भी सरकार के तर्क अपने पक्ष में रहे। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले कुछ समय से भारतीय सेना में महिलाओं के प्रवेश या पदोन्नतियों को लेकर दिये जा रहे फ़ैसले सरकार व सेना में कूट-कूटकर भरी पुरुष मानसिकता पर कड़ा प्रहार ज़रूर कर रहे हैं। इसलिए यह संख्या 19 से आगे बढ़ेगी, इसकी उम्मीद वे 1002 महिलाएँ ज़रूर करेंगी, जिनका चयन 14 नवंबर, 2021 को हुई एनडीए की प्रवेश परीक्षा के बाद सेवा चयन बोर्ड परीक्षा और चिकित्सा परीक्षण के लिए किया गया है।

वैसे प्रवेश परीक्षा अधिसूचना के मुताबिक, इस परीक्षा में पास महिलाओं में से थल सेना में मात्र 10, नौसेना में तीन और वायुसेना में छ: महिलाएँ ही जा पाएँगी। याचिकाकर्ता कुश कालरा के वकील चिन्मय प्रदीप शर्मा ने परीक्षा में चयनित कुल 8,009 उम्मीदवारों में महिला-पुरुषों की संख्या को आधार बना एक अतिरिक्त हलफ़नामा पेश करके सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि कैसे 2022 में होने जा रही प्रवेश परीक्षा में भी महिलाओं के लिए कुल सीटें और महिला-पुरुष अनुपात 2021 जितना ही है। उन्होंने बताया कि 2021 की परीक्षा के लिए कुल 400 कैडेट चुने जाने थे और उनमें से महिलाएँ मात्र 19 ही थीं। 2022 में होने जा रही परीक्षा से भी 400 कैडेट चुने जाने हैं और उनमें महिलाएँ केवल 19 ही हैं। जबकि केंद्र सरकार की ओर से 20 सितंबर, 2021 को दायर हलफ़नामें में कहा गया था कि मई, 2022 तक महिला कैडेटों की संख्या बढ़ाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएँ जाएँगे। लेकिन 10 अप्रैल को होने जा रही परीक्षा सम्बन्धी अधिसूचना से साफ़ है कि स्थिति जस की तस है। और यह संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 16 व 19 का उल्लंघन है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने अतिरक्त सॉलिसीटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से पूछा कि उसके पिछले आदेश के बावजूद यूपीएससी की ओर से 2023 के लिए तय सीटों में महिलाओं का आँकड़ा बढ़ा क्यों नहीं? तब आपने बुनियादी ढाँचे की कमी को कारण बताया था। पर समझ लें कि 19 सीटों की संख्या हमेशा नहीं हो सकती। यह केवल एक तदर्थ उपाय ही था। अप्रैल, 2022 में होने वाली प्रवेश परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों में 400 कैडेटों की भर्ती 2023 में होनी है। तदर्थ उपाय से न्यायालय का क्या अभिप्राय है?

असल में अगस्त, 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले से एनडीए में महिलाओं की भर्ती के लिए रास्ता साफ़ किया था और फ़ैसले की अनुपालना के लिए सरकार ने फोरी तौर पर 19 महिलाओं की भर्ती यह कहकर की थी कि महिलाओं के लिए एनडीए में अभी बुनियादी ढाँचा तैयार करना पड़ेगा। यह एनडीए में महिलाओं की पहली भर्ती थी। इससे पहले सेना में उनके प्रवेश पर बहस व विचार-विमर्श तो लम्बे समय से चल रहा था, मगर भर्ती का फ़ैसला सरकार नहीं ले रही थी, क्योंकि सेना के अधिकारी इसके पक्ष में नहीं थे। इसके पीछे दिये जाने वाले समस्त कारण लैंगिक ही थे। पर दिल्ली के वकील कुश कालरा की अपील पर जब मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और ऋषिकेश राय की खण्डपीठ ने उसे लैंगिक समानता के संवैधानिक तराजू में तौला, तो सरकार व सेना दोनों को हथियार डालने पड़े। संघ लोक सेवा आयोग ने 9 जून, 2021 को अधिसूचना जारी कर एनडीए की प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन माँगे थे। यह केवल पुरुषों के लिए ही थे। कुश कालरा ने इसे संविधान के लैंगिक समानता के अनुच्छेदों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी।

न्यायालय ने इस पर सरकार व सेना (दोनों) को पार्टी बना न केवल आड़े हाथ लिया, बल्कि सरकार के नीतिगत निर्णय में दख़लंदाज़ी के तर्क की भी धज्जियाँ उड़ायीं। अंतरिम फ़ैसला देते हुए न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि 9 सितंबर को होने जा रही परीक्षा में महिलाओं को भी आवेदन करने दिया जाए। तब आयोग ने नये सिरे से अधिसूचना जारी कर 14 नवंबर को परीक्षा की तारीख़ तय की।

एनडीए में महिलाओं की भर्ती को लेकर उस समय सरकार ने अपना बचाव यह कहकर भी किया था कि सैनिक स्कूलों में लड़कियों का प्रवेश शुरू हो चुका है। इस पर न्यायालय ने उससे पूछा था कि राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज 99 साल पुराना संस्थान है। इसमें लड़कियों का प्रवेश नहीं है। क्या यह अपने 100 साल लैंगिक समानता के आधार पर मना सकेगा? न्यायालय का सवाल ऐसे ही नहीं था। भारतीय सेना में ग़ैर-चिकित्सकीय पदों पर महिला अधिकारियों का पहला जत्था (बैच) लघु सेवा आयोग (शॉर्ट सर्विस कमीशन) के ज़रिये सन् 1992 में आया था। स्थायी आयोग की लड़ाई जीतने में उसे 30 साल लग गये थे। न्यायालय के फ़ैसले के बाद रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने कहा कि परीक्षा के लिए कुल 5,75,856 अभ्यर्थियों में से 1,77,654 महिलाएँ थीं। पहली बार में ही इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं का परीक्षा में बैठना बताता है कि वे सेना में जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं और ज़ाहिर है कि शारीरिक मज़बूती व कड़ी मशक़्क़त का अंदाज़ भी उन्हें होगा ही। ऐसे में मात्र 19 सीटों की संख्या को ही दोहरा दिया जाना या तो सरकार व सेना के पितृसत्ता के रवैये का प्रतीक है या फिर लापरवाही। राज्यसभा में दिये गये अपने जवाब में मंत्री ने यह भी बताया था कि सेना में 7,476 अधिकारियों की कमी है। माना जाता है कि इसके पीछे मुख्य कारण अब युवकों का सेना के प्रति रुझान का कम हो जाना है। एक समय था, जब सैनिक परिवारों के बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सेना में जाते थे। पर अब नयी पीढ़ी कार्पोरेट सेक्टर में जाना पसन्द करती है। ऐसे में महिलाओं की भर्ती न केवल इस कमी को पूरा कर सकती है, बल्कि उनके आने से हमारी सेना का महिला विरोधी चेहरा भी बदलेगा। रक्षा मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, 2020 में चिकित्सा को छोड़ दें, तो भारतीय सेना में महिला अधिकारी मात्र तीन फ़ीसदी थीं। वहीं अमेरिका में 16, फ्रांस में 15, और रूस व ब्रिटेन में 10-10 फ़ीसदी थीं। दुनिया में शिखर पर पहुँचने के सपने देख रहा भारत इस क्षेत्र में अगर पिछड़ा रह जाता है, तो उसके दावों में कमी तो रहेगी ही, संविधान के प्रति उसकी निष्ठा भी शंका के दायरे में खड़ी रहेगी।

सेना के मौज़ूदा रवैये से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। फिर भी सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे का बयान उम्मीद बँधाता है। हाल ही में एनडीए परेड देखने के बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सेना में लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ा क़दम है। मुझे उम्मीद है कि बतौर कैडेट लड़कियाँ लडक़ों से बेहतर प्रदर्शन करेंगी। 40 साल बाद हो सकता वे वहाँ खड़ी दिखायी दें,जहाँ मैं आज खड़ा हूँ।

पर सवाल है कि क्या वह उन 19 महिलाओं को अपने संगठन के भीतर कट्टर-पुरुषवादी नज़रिये से बचाकर अपनी पूरी क्षमताओं के साथ काम करने का माहौल दे पाएँगे, जो 2022 में बतौर कैडेट भर्ती होने जा रही हैं? आगे की राह तो उसी माहौल से आसान होगी।

(लेखिका स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

हदें लाँघता चीन

भारत और चीन के बीच सीमा पर चीनी सेना की कायराना हरकतों को लेकर विकट तनाव बना हुआ है। डेढ़ साल पहले गलवान घाटी में भारत और चीनी सैनिकों के बीच ख़ूनी संघर्ष के बाद नये साल में 1 जनवरी को गलवान घाटी में कथित रूप से चीनी झण्डा फहराये जाने के बाद दोनों देशों के बीच तल्ख़ी बढ़ी है। चीनी सेना पिछले कई साल से अपनी आपत्तिजनक गतिविधियों को जारी रखे हुए हैं और भारत की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा करने के प्रयास कर रही है। कई बार चीन उसकी सीमा से लगे भारत की तमाम क्षेत्रों को अपना बताने का प्रयास कर चुका है। सैटेलाइट से उपलब्ध तस्वीरे बयाँ करती हैं कि चीन ने भारत की ज़मीन पर अपने कई बंकर, एक गाँव और बड़े स्तर पर सेना की तैनाती कर रखी है। लेकिन इस बार उसने अरुणाचल प्रदेश में जो हरकतें की हैं, उनसे लगता है कि वह भारत को चुनौती दे रहा है।

अरुणाचल प्रदेश से सटी भारत चीन अन्तरराष्ट्रीय सीमा से 18 जनवरी को 17 साल के युवक मिराम तारोम का लापता होना और ये ख़बरें आना कि उसका अपहरण चीनी सेना ने किया है, भारत के लिए एक नयी चुनौती रही। चीनी सूत्रों का कहना है कि मिराम तारोम को कथित तौर पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएससी) के पार जाने पर चीनी सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने गिरफ़्तार किया। वहीं स्थानीय लोगों व ख़ुद अरुणाचल के भाजपा सांसद ने तापिर गाओ ने इस घटना की निंदा करते हुए चीनी सेना पर मिराम तारोम के अपहरण का आरोप लगाया। इसे लेकर दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों में लम्बी बातचीत हुई। काफ़ी कोशिशों पर 10 दिन बाद किशोर मिराम तारोम को चीनी सेना ने भारतीय सेना को सौंपा। क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने ट्वीट कर बताया कि चीनी सीमा के पास से लापता हुए अरुणाचल प्रदेश के एक युवक को चीनी सेना भारतीय सेना को वाचा-दमई सम्पर्क बिन्दु पर सौंप दिया है।

बता दें कि मिराम तारोम अरुणाचल प्रदेश के अपर सियांग ज़िले के जिदो गाँव का रहने वाला है। बताया गया कि मिराम तारोम अपने एक दोस्त के साथ चीन की सीमा से लगे भारतीय क्षेत्र (अरुणाचल) में शिकार के लिए गये थे। मिराम तारोम आदिवासी समुदाय से हैं और सीमावर्ती गाँव में रहते हैं। आमतौर पर यहाँ के लोग शिकार करने भारतीय क्षेत्र में भ्रमण करते हैं। यहाँ भारत सरकार को भारतीय सीमा क्षेत्रों और भारतीय लोगों की सुरक्षा को लेकर चीन पर दबाव बनाने की ज़रूरत है। क्योंकि चीन ने हमेशा झूठ का सहारा लिया है। इससे पहले भी चीनी सेना ने अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सुबन सिरी जिले से पाँच युवकों का अपहरण कर लिया था। हालाँकि तब भारत सरकार के दख़ल के बाद इन युवकों को उसने रिहा कर दिया था।

बिगड़ते जा रहे हालात

सर्वविदित है कि लद्दाख़ से अरुणाचल प्रदेश तक चीन के साथ 3,400 किलोमीटर लम्बी वास्तविक सीमा रेखा (एसएसी) लगती है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुज़रने वाली एलएसी पश्चिमी क्षेत्र यानी जम्मू-कश्मीर, मध्य क्षेत्र यानी हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड, और पूर्वी क्षेत्र यानी सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं को छूती है। अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती इलाक़ों में टैगिन आदिवासी समुदाय के काफ़ी लोग सीमा के उस पार चीन में रहते हैं और उनके रिश्तेदार अरुणाचल प्रदेश में बसे हैं। कुछ साल पहले तक दोनों तरफ़ के लोगों का आना-जाना होता था। लेकिन जबसे सीमा पर चीन के साथ तनाव बढ़ा है, इन लोगों की आवाजाही का सिलसिला रुक गया है। क्योंकि चीन का रवैया शत्रुता भरा है और वह सीमा पर अराजक गतिविधियाँ चलाता रहता है। उसकी हरकतों का हाल यह है कि अगर भारत भी उसकी तरह सिर उठाता, तो कब का युद्ध छिड़ गया होता।

चीन की हेकड़ी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मिराम तारोम को लेकर भारत और चीन के सैन्य कमांडरों के बीच 14 दौर से अधिक की बातचीत हुई; तब कहीं जाकर सकारात्मक हल निकल सका है।

चीन द्वारा गलवान घाटी पर झण्डा फहराये जाने और चीनी सैनिकों का भारत की सीमा में अन्दर कथित रूप से घुस जाने के मामले पर केंद्र सरकार पर सवाल उठ रहे हैं कि आख़िर चीन की आक्रामकता का जवाब मोदी सरकार कड़ाई से क्यों नहीं देती? इस बीच चुनावी माहौल के बीच राजनीतिक हलक़ों में भी चीन की चर्चा हो रही है। कांग्रेस सहित विपक्ष की पार्टियाँ सवाल उठा रही हैं कि चीन वर्ष 2020 के मई महीने से लगातार आक्रामक तेवर अपनाये हुए है; 15-16 जून, 2020 को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया, जिसके बाद संघर्ष में 20 जवान शहीद हो गये।

हालाँकि भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों का डटकर मु$काबला किया और दो दर्ज़न से अधिक को मौत के घाट उतार दिया। फिर 5 मई, 2021 को भी पूर्वी लद्दाख़ के पेंगौंग झील इलाक़े में चीनी सेना ने सीमा सन्धि को तोड़ते हुए हरकतें कीं, जिसके बाद दोनों देशों की सेनाओं में संघर्ष हुआ था। हालाँकि इसके बाद सीमा पर भारत ने गस्त बढ़ा दी है। लेकिन चीन सीमा पर गतिविधियाँ बढ़ाने से बाज़ नहीं आ रहा है।

क्या कहते हैं जानकार?

चाइना रेडियो से लम्बे समय तक जुड़े वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव ने ‘तहलका’ को बताया कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त (सुपर पॉवर) बनना चाहता है। इसी विस्तारवादी नीति के कारण वह काम कर रहा है। इतिहास में जाएँ, तो चीन हमेशा से परोक्ष रूप से दूसरे देशों पर आधिपत्य जमाने के लिए जाना जाता है। वह दो क़दम आगे बढ़ाकर एक क़दम पीछे लेने की नीति पर काम करता है। चीन का हमेशा से अपने पड़ोसी देशों के साथ यही रवैया रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण दक्षिण चीन सागर में उसके द्वारा धीरे-धीरे क़ब्ज़ा करना है। चीन ने इसी 1 जनवरी से सीमाओं से लगे इलाक़ों के लिए एक नया क़ानून लागू कर दिया है। इस क़ानून के माध्यम से उसने सीमावर्ती गाँवों में हर तरह की सुविधाएँ मुहैया कराने का प्रावधान रखा है। चीन इन सीमावर्ती गाँवों को आदर्श गाँव बनाने की बात करते हुए इनमें रेल और सडक़ों से लेकर यातायात के सभी साधन उपलब्ध कराने के साथ-साथ दूसरी सहूलियतें उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहा है।

बता दें कि भारत ने भी एलएसी पर पिछले कुछ साल से अपनी स्थिति मज़बूत की है। भारत ने भी इन इलाक़ों में सुरंग, पुल, हेलीपैड और सडक़ें बनायी हैं। लेकिन अपनी सीमा में। जबकि चीन अतिक्रमण की नीति अपनाता है, जो कि ग़लत है। रक्षा मंत्रालय की साल 2018-19 की सालाना रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार ने भारत चीन सीमा पर 3812 किलोमीटर इलाक़े को सडक़ निर्माण के लिए चिह्नित किया है, जिसमें से 3418 किलोमीटर सडक़ बनाने का काम सीमा सडक़ संगठन (बीआरओ) को दिया है। इनमें से अधिकतर परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। लद्दाख़ में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सन् 1982 से सन् 1984 तक तैनात (अब सेवानिवृत्त) लेफ्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णी कहते हैं कि भारत एलएसी को मानता है और कभी उससे आगे नहीं गया है।

भारत ने एलएसी पर अपनी स्थिति पिछले कुछ समय से मज़बूत की है। दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर बातचीत रुक-सी गयी है। चीन की तरफ़ से लगातार दबाव बनाया जा रहा है। कुछ वाक़ये हाल ही में हुए, जब चीन ने अरुणाचल प्रदेश के 15 स्थानों के लिए चीनी, तिब्बती और रोमन में नये नामों की सूची जारी की है। इस बारे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यपत्र ‘अंग्रेजी डेली ग्लोबल टाइम्स’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन के नागरिक मामलों के मंत्रालय ने अरुणाचल प्रदेश को चीनी नाम ‘जांगनान’ देकर अपना बताने का प्रयास किया है।

इस पर विदेश मामलों के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक कहा कि हमने इसे देखा है। ये पहली बार नहीं है, जब चीन ने नाम बदलने की कोशिश की है। चीन ने अप्रैल में भी ऐसे नाम रखना चाहा था। अरुणाचल प्रदेश हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है और आगे भी रहेगा। महज़ प्रदेश का नाम बदलकर रख देने से तथ्य नहीं बदले जा सकते।

बता दें कि चीन ने अक्टूबर, 2021 में उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर आपत्ति जतायी और कहा कि भारत ऐसा कोई काम न करे, जिससे सीमा विवाद का विस्तार हो। फिर सन् 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अरुणाचल जाने पर भी विरोध किया था। फिर सन् 2020 में गृह मंत्री अमित शाह के अरुणाचल जाने पर आपत्ति जतायी। एक सांसद के तिब्बत के एक कार्यक्रम में शामिल होने पर भी चीन ने उन्हें पत्र लिखकर आपत्ति जतायी। ऐसे में चीन भारत पर लगातार दबाब बनाने की कोशिश में जुटा है।

विदेश और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ और लेखक ब्रहा चेल्लानी ने एक लेख में लिखा है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पहले से ही अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों को ताक पर रखती आ रही है। शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन ने क़मज़ोर देशों की सम्प्रभुता को प्रभावित करने की कोशिश की है। यहाँ तक कि लिथुआनिया जैसे देशों को चीन में अपने दूतावासों को बन्द करने तक के लिए मजबूर कर दिया। चीन एक मात्र देश है, जिसने व्यापार को भी वेपनाइज यानी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। यहाँ तक जिन देशों ने ताइवान के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाये रखे, चीन ने उन देशों को भी अपने निशाने पर रखा हुआ है।

चीन मामलों के जानकार पंकज श्रीवास्तव कहते हैं कि जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी और भारत के विदेश मंत्री एस. जय शंकर की मुलाक़ात हुई थी, तो उसमें भी बार-बार यही दोहराया गया कि सीमा विवाद को एक तरफ़ रखा जाए और आपसी रिश्तों को सामान्य बनाया जाए। चीन के जितने भी पड़ोसी देश हैं, उनमें भारत ही चीन के ख़िलाफ़ खड़ा होने की क्षमता रखता है। भारत ने यह दिखा दिया है कि अगर चीन देर तक सीमा पर खड़ा रह सकता है, तो भारत भी अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में समर्थ है।

कोहली के विराट होने का इंतज़ार

क्या कप्तानी के बोझ से मुक्त होकर फॉर्म में लौटेगा यह दिग्गज बल्लेबाज़?

सात साल की कप्तानी में ढेरों उपलब्धियाँ हासिल करने वाले विराट कोहली अब भारतीय टीम में किसी भी फॉर्मेट (प्रारूप) के कप्तान नहीं। कप्तानी छोडऩे के उनके फ़ैसले पर कुछ विवाद रहे। लेकिन इस तथ्य में कोई विवाद नहीं कि हाल के ढाई साल छोड़ दिये जाएँ, तो विराट कोहली ने भारतीय टीम के लिए कई उम्दा पारियाँ खेलीं; जिनमें शतकों की भी कमी नहीं रही। विराट ने बेहतरीन कप्तानी भी की, अभिलेख (रिकॉर्ड) इसके गवाह हैं। लेकिन विराट के कप्तानी छोड़ते (ऑफ फॉर्म होते) ही आलोचकों ने उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी। देश की क्रिकेट में यह एक परम्परा-सी बन गयी है। वर्षों उच्च कोटि का प्रदर्शन करने वाला खिलाड़ी कुछ समय के लिए फॉर्म से बाहर क्या हो जाए, उसकी आलोचना करने वालों की भीड़ जुट जाती है। अब जबकि विराट कोहली ने ख़ुद को कप्तानी के सभी बोझों से दूर कर लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि क्रिकेट प्रेमी फिर पुराने विराट कोहली के दर्शन कर पाएँगे।

चार महीने पहले तक विराट कोहली भारतीय क्रिकेट के सभी फार्मेट के कप्तान थे। लेकिन 15 जनवरी को दक्षिण अफ्रीका से टेस्ट सीरीज में हार के बाद विराट ने टेस्ट की कप्तानी भी छोड़ दी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने महान् खिलाड़ी को अपनी कप्तानी एक तरह से विवादास्पद परिस्थितियों में छोडऩी पड़ी, जबकि सच यह है कि विराट कोहली ने भारतीय टीम को हर क्षेत्र में अपना 100 फ़ीसदी दिया। देश भर में क्रिकेट के प्रशंसक कोहली के साथ ऐसे व्यवहार से ख़ुश नहीं और उन्हें पक्का भरोसा है कि अब कप्तानी के दायित्व से मुक्त होकर कोहली बतौर बल्लेबाज़ नये रिकॉर्ड बनाएँगे।

विराट ने अपनी शानदार कप्तानी के बल पर भारत को दुनिया की नंबर एक टेस्ट टीम बनाया। पिछले पाँच साल से भारतीय टीम रैंकिंग में पहले पायदान के इर्दगिर्द घूम रही है और हर साल आईसीसी की टेस्ट मेज हासिल कर रही है। कोहली ने पहले टी-20, फिर वनडे तीन से कप्तान के रूप में इस्तीफ़ा दिया और अब अब टेस्ट की कप्तानी भी उन्होंने छोड़ दी है। सन् 2015 में कोहली ने सबसे पहले टेस्ट की ही कप्तानी सँभाली थी और इन वर्षों में कई नये कीर्तिमान (रिकॉर्ड) बनाते हुए टीम को भी शिखर पर पहुँचाया।

अब टेस्ट से कप्तानी छोडक़र कोहली ने पूरी तरह कप्तानी का ज़िम्मा छोड़ दिया है और टीम में वे एक खिलाड़ी की हैसियत से खेलेंगे। भारतीय क्रिकेट में कई साल तक बहुत ताक़तवर रहे कोहली पिछले दो-तीन महीने से अलग-थलग से दिख रहे थे। $खासकर रवि शास्त्री के बतौर कोच-मैनेजर टीम से विदाई लेने के बाद नये कोच राहुल द्रविड़ के आने के बाद यही चर्चा थी कि शायद कोहली अब टेस्ट की कप्तानी भी ज़्यादा देर तक नहीं करेंगे। परदे के पीछे यह भी चर्चा थी कि टीम में कुछ खिलाड़ी जानबूझकर कोहली को सहयोग नहीं कर रहे। दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर तीन टेस्ट की सीरीज के पहले ही मैच में भारत ने मेजवान टीम को हरा दिया था; लेकिन अगले दो मैच भारत हार गया। इसके बाद कोहली ने कप्तानी छोडऩे का ऐलान कर दिया।

यह सब अचानक हुआ और सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी ने भी इस पर आश्चर्य जताया। हालाँकि उन्होंने कहा कि कोहली ने हमेशा टीम को 100 फ़ीसदी दिया और उम्मीद जतायी कि भविष्य में भी टीम को ऐसे ही योगदान देते रहेंगे। कोहली ने सबसे पहले पिछले साल सितंबर में टी20 टीम की कप्तानी छोडऩे का ऐलान किया था। तब कोहली ने कहा था कि वह टी20 विश्व कप के बाद टी-20 की कप्तानी तो छोड़ देंगे; लेकिन एक दिवसीय और टेस्ट की कप्तानी करते रहेंगे। हालाँकि बीसीसीआई ने दिसंबर में कोहली को अचानक वनडे की कप्तानी से हटाकर रोहित शर्मा को कप्तानी सौंप दी।

माना जाता है कि कोहली इस तरीक़े से उन्हें हटाने से काफ़ी आहत हुए। बतौर कप्तानी कोहली बहुत ज़्यादा सफल रहे। टेस्ट में तो उन्होंने भारत को शीर्ष पर पहुँचाया। कोहली से जब वनडे की कप्तानी ली गयी थी, तब मीडिया में बहुत आया कि कोहली और बीसीसीआई के बीच मतभेद हैं। बीसीसीआई अध्यक्ष सौरव गांगुली ने वैसे तो दावा किया कि उन्होंने कोहली से टी20 कप्तानी नहीं छोडऩे को कहा था। लेकिन इसके बाद एक पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में कोहली ने साफ़तौर पर इसे ग़लत बताया।

उस समय कोहली ने कहा था- ‘मैंने बीसीसीआई को बताया कि मैं टी-20 की कप्तानी छोडऩा चाहता हूँ। जब मैंने ऐसा किया तो बोर्ड ने मेरी इस बात को बहुत अच्छे ढंग से स्वीकार किया। उनके भीतर कोई झिझक नहीं थी। बोर्ड ने मुझसे बोला कि यह एक अच्छा क़दम है। मैंने बोर्ड से उसी वक़्त कहा था कि मैं वनडे और टेस्ट में टीम का नेतृत्व करना चाहता हूँ। मेरी तरफ़ से यह सन्देश स्पष्ट था; लेकिन मैंने अधिकारियों से यह भी कह दिया था कि अगर उन्हें ऐसा नहीं लगता है, तो भी कोई परेशानी नहीं। मैं टेस्ट और वनडे की कप्तानी जारी रखना चाहता था। लेकिन टेस्ट टीम के सिलेक्शन के दौरान मुख्य चयनकर्ता ने उन्हें बताया कि वन-डे की कप्तानी वापस ली जा रही है।’

माना जाता है कि सौरव गांगुली, जो ख़ुद कभी बहुत ही ख़राब तरीक़े से टीम से बाहर किये गये थे; कोहली के बयान से नाराज़ हुए। इसके बाद बतौर एक कप्तान बोर्ड से जो समर्थन मिलना चाहिए, वह कोहली को नहीं मिला। टी-20 आईसीसी ट्रॉफी में भारत की हार के बाद कोहली के ऊपर दवाब बनाया जाने लगा था। बतौर बल्लेबाज़ भी कोहली सफल नहीं हो रहे थे। पिछले क़रीब दो साल में कोहली एक भी शतक नहीं बना पाये हैं। इसे लेकर भी उनकी निंदा करने वाले सक्रिय हो चुके थे। अब दक्षिण अफ्रीका से सीरीज 1-2 से हारने के बाद अचानक कोहली का बतौर टेस्ट कप्तान भी इस्तीफ़ा सामने आ गया।

किसी समय उनके मज़बूत समर्थक रहे पूर्व कोच रवि शास्त्री के भी नहीं होने के बाद कोहली टीम में कमोवेश अकेले से पड़ गये थे। वह अलग बात है कि कोहली और शास्त्री की जोड़ी ने भारतीय टीम को कामयाबी के ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

ट्वीट से दी जानकारी

किंग कोहली के नाम के मशहूर विराट कोहली ने भारतीय क्रिकेट की टेस्ट टीम की कप्तानी छोडऩे की सूचना एक भावुक ट्वीट करके दी। उनके इस ऐलान के बाद बीसीसीआई के अध्यक्ष सौरव गांगुली ने ट्वीट कर विराट कोहली की तारीफ़ की। गांगुली ने लिखा- ‘विराट के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट ने खेल के सभी प्रारूपों में तेज़ी से प्रगति की है। उनका फ़ैसला निजी है और बीसीसीआई इसका बहुत सम्मान करता है। वह भविष्य में इस टीम को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सदस्य होंगे। वह एक महान् खिलाड़ी हैं। उन्होंने अच्छा किया।’

टीम इंडिया की कप्तानी छोड़ते हुए विराट ने एमएस धोनी को विशेषतौर पर शुक्रिया कहा। विराट ने लिखा- ‘ये सात साल की कड़ी मेहनत, लगन और कठोर परिश्रम का नतीजा है। मैंने हर रोज़ टीम को सही दिशा में पहुँचाने की कोशिश की। इस दौरान मैंने अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ किया और अपनी तरफ़ से कोई क़सर नहीं छोड़ी। हर सफ़र कहीं-न-कहीं एक दिन ख़त्म होता है। मेरे भारतीय टेस्ट टीम के कप्तान के रूप में सफ़र यहीं समाप्त होता है। कप्तानी के इस सफ़र में बहुत से उतार-चढ़ाव आये; लेकिन मेरे प्रयास और विश्वास में कहीं कोई कमी नहीं आयी। मैंने इस दौरान जो कुछ किया, उसमें अपनी ओर से 120 फ़ीसदी योगदान देने की कोशिश की। अगर मैं ऐसा नहीं सकता हूँ, तो समझता हूँ कि ये मेरे लिए सही नहीं है। मेरे दिल में पूरी साफ़गोर्इ है और मैं अपनी टीम के लिए बेईमान नहीं हो सकता।’

कोहली ने ट्वीट में कहा- ‘मैं इतने लम्बे समय कर देश का नेतृत्व का मौक़ा देने के लिए बीसीसीआई का शुक्रिया अदा करता हूँ। मैं टीम के साथी खिलाडिय़ों का ख़ासतौर पर शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ, जिन्होंने पहले दिन से मेरे विजन को पूरा करने में मदद की। उन्होंने हर परिस्थिति में मेरा साथ दिया और कभी हथियार नहीं डाले। आप लोगों ने मेरी कप्तानी के सफ़र को ख़ूबसूरत और यादगार बनाया। हमारी गाड़ी को रवि भाई और उनका सपोर्ट स्टाफ (सहकर्मी) इंजन की तरह टेस्ट क्रिकेट में लगातार ऊँचाई पर ले गया। इस सपने को हक़ीक़त में तब्दील करने में आप सभी का बड़ा योगदान रहा। अन्त में एम.एस. धोनी का बहुत-बहुत शुक्रिया, जिन्होंने बतौर कप्तान मुझ पर भरोसा जताया और पाया कि मेरे अन्दर भारतीय क्रिकेट को आगे ले जाने की क्षमता है।’

बतौर कप्तान कोहली का सफ़र

कोहली ने 68 टेस्ट मैचों में भारतीय टीम का नेतृत्व किया, जिसमें 40 में टीम को सफलता मिली। वह टेस्ट में भारत के सबसे सफल कप्तान हैं। सन् 2018 बॉर्डर गावस्कर ट्रॉफी में कोहली की कप्तानी में टीम इंडिया ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से सीरीज में हराया। वहीं इंग्लैंड में हुई सीरीज में भी भारत 2-1 से आगे रहा (कोरोना के चलते यह सीरीज स्थगित हो गयी) और इसका एक मैच होना बाक़ी है। अन्य कामयाब कप्तानों की बात करें, तो धोनी की कप्तानी में भारत ने 61 में से 27 टेस्ट जीते, जबकि गांगुली ने 49 टेस्ट में भारत का नेतृत्व किया। इनमें से वह टीम को 21 मैचों में जीत दिला सके। कोहली का बतौर कप्तान टेस्ट में जीत का फ़ीसदी 58.82 फ़ीसदी रहा, जबकि मोहम्मद अजहरुद्दीन और सुनील गावस्कर का जीत का फ़ीसदी क्रमश: 29.78 और 19.14 फ़ीसदी ही था। यही नहीं, विराट कोहली ने बतौर कप्तान 68 मैचों में 54.80 के शानदार औसत से 5,864 रन बनाये। इस दौरान उन्होंने 20 शतक और 18 अद्र्धशतक जड़े। कोहली टेस्ट क्रिकेट में बतौर कप्तान भारत के लिए सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज़ भी रहे। टेस्ट कप्तान के रूप में उन्होंने सन् 2019 में दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ नाबाद 254 रन की पारी खेली।

भोगनी ही होगी पापों की सज़ा

सभी मज़हबों (धर्मों) में कहा गया है कि अगर पापों से मुक्ति चाहते हो, तो ईश्वर की शरण में चले जाओ। ईश्वर दयालु है और वह बड़े-बड़े पापियों को माफ़ कर देता है। यह एक ऐसा लोक-लुभावन धार्मिक जुमला है, जिसने पापियों के मन से डर को ख़त्म करके उन्हें और पाप करने को प्रोत्साहित किया है।

हद तो यह है कि दुनिया में कुछ लोग पाप करने इल्ज़ाम भी ईश्वर पर डाल देते हैं। वे कहते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं उसमें ईश्वर की मर्ज़ी है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि दूसरे धर्म के लोगों की हत्या करने का हुक्म उन्हें उनके ईश्वर ने दिया है। मेरी समझ में नहीं आता कि किसी की हत्या कर देने, किसी का हक़ मार लेने या किसी पर अत्याचार करने का हुक्म किस ईश्वर ने दिया है? अगर यह किसी धर्म में लिखा है, तो वह धर्म धर्म कैसे हो सकता है? और अगर ईश्वर ने ऐसा कहा है, तो इसके क्या सुबूत हैं? फिर धर्म-ग्रन्थों में पापियों को सज़ा देने की बात क्यों कही गयी है? कई धर्मों में साफ़ कहा गया है कि शैतान या राक्षस बुरे होते हैं या बुरे कर्म के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह बात कहीं भी नहीं कही गयी है कि ईश्वर बुरे कर्म करवाता है; या करने को कहता है। ईश्वर को तो हर धर्म में दयालु, पापनाशक और पतित पावन, सबका जन्मदाता, परम्पिता, जन्म-मरण से मुक्ति देने वाला और परम् दयालु बताया गया है। जो लोग जीव हत्या और दूसरों पर अत्याचार को ईश्वर का हुक्म मानते हैं, क्या वे बताएँगे कि जो दयालु है; जन्मदाता है; वह भला किसी की हत्या को प्रेरित क्यों करेगा? जो मन को पापमुक्त, पवित्र करने वाला है; वह किसलिए किसी के मन में पाप के बीज बोयेगा? जब कोई भी इंसान एक ही तरह का हो सकता है; या तो बुरा या फिर अच्छा। तो ईश्वर दो अच्छा भी और बुरा भी कैसे हो सकता है? हाँ, आदमी में अच्छाई और बुराई दोनों हो सकती हैं। किसी में अच्छाई ज़्यादा होती है और किसी में बुराई। लेकिन ईश्वर तो सिर्फ़ अच्छाई से ही समृद्ध है। अगर ऐसा नहीं होता, तो शैतान और उसमें फ़र्क़ क्यों होता? बड़ी हैरानी होती है, जब कोई यह कहता है कि पाप करने के बाद ईश्वर माफ़ कर देता है। अगर ऐसा होता, तो दुनिया के सारे पापी तर जाते और आज कोई भी अपने पापों का भोग नहीं भोग रहा होता। सभी का भाग्य चमक रहा होता। दुनिया में असमानता और नसीबों का खेल नहीं होता। अलग-अलग दण्ड भुगतने का प्रावधान नहीं होता। लोग अलग-अलग भोग नहीं भोग रहे होते। किसी भी बुरे या अनैतिक काम को बुरा नहीं कहा जाता।

दरअसल ईश्वर पापियों को माफ़ नहीं करता। वह तो ख़ुद निष्पाप और कर्म-अकर्म से परे है। इसीलिए कहा गया है कि जो भी निष्काम और निश्छल होकर ईश्वर की शरण में जाता है, ईश्वर उसके मन को निर्मल और निष्पाप कर देता है। अर्थात् जो ईश्वर के विधान को मानते हुए उसकी भक्ति करता है, उसका मन पाप करने की कल्पना तक नहीं करता। मन निर्मल-पावन हो जाता है; और बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इससे इंसान पाप करने से बच जाता है। न कि पापियों को वह माफ़ कर देता है। अगर ऐसा होता, तो बड़े-बड़े पापियों को संसार बुरा नहीं कह रहा होता; न ही कोई पाप करने के बाद पछताता; और न अन्त में किसी की दुर्गति होती। क्योंकि पापी-से-पापी आदमी भी यही सोचता है कि वह जो कर रहा है, उसमें ईश्वर की ही मर्ज़ी है। हो सकता है कि कोई ऐसा न भी सोचे; लेकिन अन्त में हर आदमी ईश्वर को याद ज़रूर करता है। भले ही वह अपने पापों की क्षमा माँगने के लिए ऐसा करे।

इसलिए पाप करने से बचो और ईश्वर की शरण में पाप करने के बाद जाने के बजाय, पाप करने से पहले ही जाओ; ताकि तुम पाप करने से बच सको। अन्यथा आपको अपने किये कर्मों के साथ-साथ पापों का फल भी भोगना ही पड़ेगा। धर्म का रास्ता दिखाने वाले जो लोग यह कहते हैं कि उसकी शरण में गये, तो आपके पाप-कर्मों को ईश्वर माफ़ कर देगा; तो ऐसे लोग आपको गुमराह कर रहे हैं। वे लोग ख़ुद धर्म पर नहीं हैं। क्योंकि उनके मन में भी कहीं-न-कहीं पाप पल रहा है। और जिनका मन ख़ुद निष्पाप नहीं है, वे दूसरों को निष्पाप होने का मार्ग कैसे दिखा सकते हैं? अगर किसी को सत्कर्मों का सुफल मिल सकता है, तो बुरे कर्मों की सज़ा क्यों नहीं मिलेगी? कई लोगों में यह भ्रान्ति फैली है कि अगर उनसे जीवन में कोई पाप हुआ भी है, तो अन्त में वो अपने तीर्थस्थल जाकर या फिर ईश्वर का नाम लेकर उस पाप से बच जाएँगे। अगर ऐसा होता, तो तीर्थ स्थलों या विभिन्न धर्मों के पूजा-स्थलों के पास रहने वालों का तो उद्धार हो गया होता!

दरअसल भ्रांतियाँ और विसंगतियाँ धर्म के वही ठेकेदार फैलाते हैं, जो अपनी प्रभुता बचाये और बनाये रखने के लिए ईश्वर को भी मेरे-तेरे में बाँटने का ढोंग करके लोगों को बाँटे रखते हैं। समझने वाली बात यह है कि जिनको यह भी अक्ल नहीं कि ईश्वर एक ही है; वे भला दूसरों को रास्ता कैसे दिखा सकते हैं? जो ख़ुद ही धर्म से बुरी तरह भटके हुए हैं, उनका बताया धर्म का रास्ता कैसे सही हो सकता है? जो लोग ख़ुद निष्पाप नहीं हैं, वे दूसरों को निष्पाप किसी विधान अथवा पूजा-इबादत आदि से कैसे कर सकते हैं? वैसे भी अगर कोई निष्पाप नहीं है, तो कोई भी पूजा-इबादत, तीर्थ उसे निष्पाप नहीं कर सकता। सोना भी आग में तपने से कुंदन होता है, धोने से नहीं। इसी तरह आदमी भी सत्य, तपस्या, ईमानदारी, अहिंसा और मेहनत की भट्ठी में तपकर ही शुद्ध अर्थात् निष्पाप हो सकता है। और यह वही कर सकता है, जिसके मन में ईश्वर का डर है। अन्त में अपना एक दोहा, आपके लिए-

‘‘अन्धा बन खोजत फिरै, पारब्रह्म को मूढ़।

ब्रह्म ज्ञान से सूक्ष्म है, दीप प्रेम लै ढूँढ।।’’

भाजपा और सपा में गैर यादव वोट बैंक पर सेंध लगाने की होड़

उत्तर प्रदेश की सियासत में अब नये-नये समीकरण ऊभरकर सामने आ रहे है। जो पिछले चुनावों से लेकर  2017 में दांव चले गये थे। वो इस बार नहीं चले जा रहे है। क्योंकि राजनीति में अनुभव का अपना महत्व है। इस बार पुराने अनुभवों को देखते हुये समाजवादी (सपा) पार्टी ने मुस्लिम–यादव (एमबाई) वोटों को साधते हुये गैर यादव पिछड़ी जातियों जिनमें कुर्मी, लोधी, प्रजापति और शाक्य आदि जातियों को महत्व दिया है।

सपा का कहना है, कि भाजपा ने 2017 में गैर यादव पिछड़ी जाति को महत्व दिया था। इस लिहाज से भाजपा को काफी बढ़त उत्तर प्रदेश के चुनाव में मिली थी। उसी रणनीति के तहत सपा ने गैर यादव वाली पिछड़ी जाति को महत्व दिया है। क्योंकि सपा जानती है और मानती भी है। सपा के साथ यादव-मुस्लिम है। यानि का उनका वोट बैंक यादव–मुस्लिम कहीं जाने वाला नहीं है। ऐसे में भाजपा का जो वोट बैंक गैर यादव है। उसमें सेंध लगायी जाये।

जबकि भाजपा का मानना है कि (सपा) में यादव–मुस्लिम ही को महत्व मिलता है। इसलिये गैर यादव वोट बैंक भाजपा के साथ है। सपा की तुलना में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने गैर यादव को टिकट दिये है। उत्तर प्रदेश की सियासत के जानकार मिथलेश सिंह का कहना है कि बसपा की राजनीति सोशल इंजीनियरिंग पर चल रही है और दलित वोट बैंक को सांधकर चल रही है।

जबकि कांग्रेस अपने खोये हुये जनाधार को पाने के लिये लगातार संघर्ष कर रही है। इसलिये प्रदेश में असली मुकाबला सपा और भाजपा के बीच है। इन दोनों पार्टियों में पिछड़ी जातियों के वोट बैंक पर सेंध लगाने की होड़ मची हुई है।

आर्थिक सर्वे में 2022-23 में जीडीपी दर 8-8.5 फीसदी रहने का अनुमान

केंद्र सरकार ने अपने आर्थिक सर्वे में 2022-23 के माली साल के दौरान जीडीपी की दर 8 से 8.5 फीसदी के बीच रहने का अनुमान जताया है। यहाँ यह दिलचस्प है कि  वर्तमान वित्त वर्ष के जीडीपी अनुमान 9.2 फीसदी कम है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने साल 2021-22 के आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट संसद में पेश की। इसमें वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के 8 से 8.5 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान लगाया गया है। उधर राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के अनुमान के मुताबिक आर्थिक वृद्धि दर 9.2 प्रतिशत रह सकती है।

रिपोर्ट में 2021-22 में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की वास्तविक स्थिति के अलावा बढ़ौतरी में तेजी लाने के लिए किए ज़रूरी सुधारों का भी ब्योरा दिया गया है। वित्त वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.3 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई थी।  आर्थिक समीक्षा भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए आपूर्ति-पक्ष के मसलों पर केंद्रित है।

अब सीतारमण मंगलवार को संसद में माली साल 2022-23 के लिए बजट पेश करेंगी। आज आर्थिक सर्वेक्षण संसद में दोनों सदनों के पटल पर रखने के बाद लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही कल तक के लिए स्थगित कर दी गई।