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क़ानून के सही प्रयोग और कुछ सुधारों से मिटेगा भ्रष्टाचार

आई.बी. सिंह

राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए यह कहा था कि दिल्ली से जो एक रुपया देश के किसी गाँव के लिए भेजा जाता है, उसमे से कुल 15 पैसे ही वह गाँव तक पहुँचते हैं। ऐसा नहीं है कि यह उन्हीं के शासन में होता था। यह पहले भी होता रहा है और आज भी होता है। शासक कितनी भी डींगें मार लें कि अब तो सीधे लाभार्थी के बैंक अकाउंट में रुपये पहुँच रहे हैं और कोई भ्रष्टाचार नहीं हो रहा है, परन्तु सत्यता यही है कि जो स्थिति राजीव गाँधी जी के समय में थी, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इसका सबसे बड़ा उदहारण गाँव में चलने वाले मनरेगा के निष्पादन में व्याप्त भ्रष्टाचार है। बचपन में हमें पढ़ाया जाता था कि बादशाह ने एक भ्रष्ट कर्मचारी को लहरें गिनने के काम में लगा दिया कि वहाँ वह भ्रष्टाचार नहीं कर पाएगा, परन्तु उसने लहरें गिनने के नाम पर सभी नावें रोककर पैसे कमाने शुरू कर दिये। हम लोग उसको तारीफ़ की निगाह से देखने लगते हैं। प्रेमचंद के नमक का दारोग़ा के बंशीधर को आज के हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों में 95 फ़ीसदी लोग नहीं जानते हैं। हम यह कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार हमारी नस-नस में समा गया है।

सन् 2014 के पूर्व जब पिछली सरकार थी, तब एक से बढक़र एक बड़े-बड़े घोटाले हुए, जैसे- 2जी घोटाला, कोयला खदान घोटाला, बैंक घोटाला, किंगफिशर के माल्या द्वारा किया गया घोटाला। इस सरकार के आने के बाद नीरव मोदी कांड, रोटो मेट घोटाला, यस बैंक घोटाला, पीएमसी बैंक घोटाला, यूपीपीसीएल प्रोविडेंट फंड काण्ड आदि घोटाले हुए, जिसमें एक साथ हज़ारों-लाखों करोड़ की लूट हो गयी और आम जनता बैठी देखती रह गयी। अभी हाल ही में राफेल मामले में भी मौज़ूदा केंद्र सरकार पर घोटाले का आरोप लगा है।

एक आँकड़े के अनुसार, जो बड़े-बड़े उद्योगों को लगाने के लिए और बड़े व्यापार करने के लिए, बैंकों से हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को दिये जाते हैं और जो लौटकर नहीं आते, उन्हें सरकार एनपीए अकाउंट में डाल देती है। इस प्रकार से उच्च कोटि के भ्रष्टाचार के कारण सरकार को नुक़सान होता है और जो एनपीए अकाउंट में डाल दिया जाता है, वह राशि लगभग 21 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम रक़म है। परन्तु आम आदमी को उन बड़े घोटालों की फ़िक्र अधिक नहीं होती है। वह उस भ्रष्टाचार से सीधा प्रभावित होता रहता है, जिसमें उसे अपने थोड़ी-सी आमदनी में से निकालकर हज़ार-पाँच सौ रुपये पुलिस वाले को या शिक्षा विभाग, राशन विभाग, महापालिका के अधिकारी को, बिजली विभाग के कर्मचारी को, इंजीनियर, लेखपाल, पटवारी को या किसी प्रमाण-पत्र के लिए आदि अनेक विभाग हैं, जहाँ उसे आये दिन रिश्वत देनी पड़ती है।

आम आदमी ऐसे भ्रष्टाचार से सीधा प्रभावित होता है, जहाँ गाँव के सडक़, स्कूल, अस्पताल के नाम पर पैसा आता है और लुट जाता है। यहाँ हर क़दम पर, हर मोड़ पर लहरें गिनने वाले बैठे हैं और सरकारों ने उनकी ओर देखना ही बन्द कर दिया है, अर्थात् उन्हें लूटने की पूरी छूट दे दी गयी है। पूर्व में समय-समय पर पुलिस सुधार के लिए जो सुझाव दिये गये थे, वो आज की नयी तकनीकि, नये नियम, नयी व्यवस्था में महत्त्वहीन हो चुके हैं। ऐसे में कुछ ऐसा प्रभावशाली करने की ज़रूरत है, जो आम आदमी को शीघ्रता शीघ्र इस सदियों पुरानी बीमारी को कम कर सके। उसके लिए मेरे अनुभव के आधार पर कुछ सुझाव हैं :-

क़ानून में हों क्या-क्या सुधार?
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1947 में लागू किया गया था। उसे सन् 1964 में सनाथनम समिति के रिपोर्ट की संस्तुतियों के बाद यथोचित संसोधित किया गया। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के प्रावधान और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम-1947 दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए और दोनों के बीच के भ्रम को दूर करने के लिए 1988 में दूसरा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम लागू किया गया। ‘यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन’ में लिये गये निर्णयों को लागू करने के लिए सन् 2018 में पुन: सन् 1988 के अधिनियम में कुछ महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये हैं।

2. यह कहा जा सकता है कि सन् 2018 के संशोधन के बाद आज जो भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम लागू है, उसकी सभी परिभाषाएँ’, जैसे कि सरकारी कर्मचारी (पब्लिक सर्वेंट), अनुचित लाभ (अनड्यू एडवांटेज), सन्तुष्टि क़ानूनी पारिश्रमिक (ग्रैटीफिकेशन, लीगल रेम्युनेरेशन), सार्वजनिक कर्तव्य (पब्लिक ड्यूटी) आदि शामिल हैं; वह पूर्ण रूप से पर्याप्त हैं। अब उनमें संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है।

3. सन् 2018 के संशोधन की धारा-13 में आपराधिक कदाचार (क्रिमिनल मिसकंडक्ट) की परिभाषा, जो स्थानापत्र (सब्स्टीट्यूट) किया गया है, वह भ्रष्टाचार में लिप्त रहने वाले सरकारी कर्मचारियों को लाभ पहुँचाने में सहायक है। मेरे विचार से पूर्व में सन् 1988 के क़ानून में जो आपराधिक कदाचार की परिभाषा थी, वह बहुत व्यापक व प्रभावशाली थी और उसमें भ्रष्टाचार में पकड़े जाने वाले अपराधियों के बच निकलने की सम्भावना बहुत कम थी। यह कहा जा सकता है कि धारा-13 में जो संशोधन किया गया है, वह अभियुक्तों के हित में जा सकता है।

4. इसके अतिरिक्त अधिनियम की धारा-13 में जो सज़ा का प्रावधान है, उसे भी अपराध की श्रेणी के अनुसार बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। जैसे धारा-13 में कम-से-कम 4 वर्ष की सज़ा का प्रावधान है। यह तो ठीक है; परन्तु जो अधिक से अधिक 10 वर्ष की सज़ा का जो प्रावधान है, उसे 14 वर्ष तक या आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान करने की आवश्यकता है।

5. सन् 2018 के संशोधन में धारा-17(ए) जोड़ी गयी है, उसमें उच्च पदों पर जो लोग नीति निर्णय (पॉलिसी डिसीजन) लेते हैं, उन्हें इतनी सुरक्षा दी गयी है कि उनके विरुद्ध कोई तहक़ीक़ात या जाँच शुरू होने के पहले, उनके नियुक्ति प्राधिकारी से अनुमति लेनी पड़ती है। मेरे विचार से यह अनुपयुक्त है और इस प्रावधान को तुरन्त ही हटा देना चाहिए। जब तक जाँच नहीं होगी, तब तक यह पता ही नहीं चलेगा कि उक्त अधिकारी ने लोकहित में निर्णय लिया है या किसी भ्रष्टाचार के उद्देश्य से। जब न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने के पूर्व नियुक्ति प्राधिकारी के संस्तुति की आवश्यकता है ही, तब जाँच शुरू होने के पहले संस्तुति की कोई आवश्यकता नहीं है। इस दोहरे कवच के कारण उच्च पदों पर बैठे लोगों, जो नीति निर्णय लेते हैं; को भ्रष्टाचार करने की नीयत से निर्णय लेने की पूरी छूट मिल जाएगी। मेरी जानकारी में ऐसे कुछ मामले हैं।

6. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह प्रावधान है कि अपराध चाहे पाँच रुपये के लिए किया गया हो, या पाँच लाख करोड़ रुपये के लिए; एक ही सज़ा होगी। इस अधिनियम में अधिक-से-अधिक सज़ा सात वर्ष की जेल और ज़ुर्माना हो सकता है। मात्र धारा-13 में 10 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है। मेरे विचार से इसमें संशोधन करने की आवश्यकता है।

7. इसको तीन श्रेणी में बाँटा जा सकता है। पाँच हज़ार तक की धनराशि तक के लिए किये गये अपराध को निम्न श्रेणी में रखा जा सकता है। इसी प्रकार से पाँच हज़ार या उससे ऊपर और पाँच लाख तक के धनराशि के लिए किये गये अपराध को मध्य श्रेणी के अपराध की संज्ञा में रखा जा सकता है। और पाँच लाख से ऊपर किसी भी धनराशी के लिए किये गये अपराध को उच्च श्रेणी के अपराध की संज्ञा में रखा जाना चाहिए।

8. उदहारण के लिए नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज एक्ट-1985 में कुछ इसी तरह का प्रावधान था कि यदि अपराध पाँच मिलीग्राम तथ्य के लिए किया गया हो या पाँच कुंतल के लिए; सज़ा कम-से-कम 10 वर्ष का ही था। परन्तु 2 अक्टूबर, 2001 को अधिनियम में संशोधन करके उसमें अपराध को तीन भाग में बाँटा गया, जिसमें अपराध को स्मॉल क्वांटिटी, मीडियम क्वांटिटी और कमर्शियल क्वांटिटी की परिभाषा में रखा गया और उसके अनुसार सज़ा का भी प्रावधान किया गया है। संशोधन के पश्चात् स्मॉल क्वांटिटी के लिए छ: महीने तक की सज़ा, मीडियम क्वांटिटी के लिए 10 वर्ष तक की सज़ा और कमर्शियल क्वांटिटी के लिए कम-से-कम 10 वर्ष के सज़ा का प्रावधान है। ऐसा ही प्रावधान भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में भी किया जा सकता है।

9. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के सभी अपराध को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। किसी भी अपराध को असंज्ञेय अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए।

10. वाणिज्यिक प्रतिष्ठान (कमर्शियल इस्टैब्लिशमेंट) व उससे जुड़े सभी सम्बन्धित अपराधों के लिए लाभार्थी वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के प्रमुख पदों पर आसीन, जैसे कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक (मैनेजिंग डायरेक्टर), मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) जैसे लोगों के लिए कम-से-कम 10 वर्ष की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए।

11. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के परिक्षण और उसके निस्तारण में समय बचने के लिए यह प्रावधान भी रखा जा सकता है कि वो अभिलेख, जो विवेचनाधिकारी द्वारा अभियुक्त के क़ब्ज़े से बरामद किया गया हो; उन अभिलेखों पर सम्बन्धित व्यक्ति के हस्ताक्षर को साक्ष्य रूप में इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया जाए कि उन्हें अभियुक्त को खण्डन (रिबटल) का अधिकार रहेगा।

एक ही केंद्रीय जाँच संस्था
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम से सम्बन्धित सभी अपराधों के जाँच के लिए केंद्रीय संस्थाओं में ले-देकर एक मात्र केंद्रीय अन्वेषण विभाग (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन यानी सीबीआई) ही एकमात्र प्रभावकारी जाँच संस्था (इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) है। उसको भी कभी अदालतों के आदेश से और कभी राज्य सरकारों के माँग पर, भ्रष्टाचार सम्बन्धित अपराधों के अतिरिक्त का भी काम दे दिया जाता है, जिसमें उनका काम मुख्य उद्देश्य से भटककर अन्यत्र चला जाता है।

2. इसके अतिरिक्त सीबीआई की स्थापना दिल्ली विशेष पुलिस स्थानपना अधिनियम-1965 (डेल्ही पुलिस इस्टैब्लिशमेंट एक्ट-1965) के प्रावधान के तहत किया गया है, जो स्वयं में आज तक विवादित है कि यह एक वैधानिक संस्था है या नहीं। यह विवाद अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। ऐसे में मेरे विचार से एक भ्रष्टाचार निवारण संगठन, संसद के द्वारा पारित अधिनियम से स्थापित किया
जाना चाहिए।

3. ऐसे भ्रष्टाचार निवारण संगठन के स्वतंत्र शाखाएँ होनी चाहिए, जो विभिन्न विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने, उन विभागों में होने वाले अपराधों की जाँच करने, अपराध सम्बन्धी सूचनाएँ एकत्रित करने और अपरधियों को न्यायालय में उनके द्वारा किये गये अपराधों की सज़ा दिलवाने का काम करे। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार के शिक्षा विभाग, चिकित्सा विभाग, ऊर्जा विभाग, चिकित्सा शिक्षा विभाग, उद्योग विभाग, रेलवे, केंद्रीय लोक निर्माण विभाग, जीएसटी, पेट्रोलियम आदि-आदि। ऐसे सभी महत्त्वपूर्ण विभागों के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र संवर्ग (इनडिपेंडेंट काडर) की एक सतर्कता / जाँच / सूचना विभाग होना चाहिए, जो अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सभी क़दम उठाए।

4. इन सभी विभागों के जाँच एजेंसी को पूर्ण रूप से स्वतंत्र संवर्ग के रूप में रखा जाए। परन्तु जैसा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज एक्ट-1985 में यह प्रावधान है कि विभिन्न विभागों के अधिकारियों का यह कर्तव्य होगा कि वे जाँचकर्ता या अपराध को रोकने वाले अधिकारी के कार्य में सहयोग करें। ऐसा ही प्रावधान इस अधिनियम के अंतर्गत भी होना चाहिए, जिससे दूसरे किसी भी विभाग का अधिकारी, अपराधी या अपराध को सीधे या परोक्ष रूप से प्रश्रय न प्राप्त हो सके, उसको रोके और अपराधी को बचने का भी अवसर न प्राप्त हो सके।

5. स्वतंत्र संवर्ग का एक विशेष कारण यह भी है कि आज के युग में जब हर दिन नयी-नयी तकनीकि निकल रही है, अपराधी भी उतनी ही तेज़ी से उसमें कमियाँ ढूँढकर भ्रष्टाचार का रास्ता ढूँढ लेते हैं। यदि जाँच अधिकारी का एक ही काडर होगा, तो वह अपने विभाग और क्षेत्र में अपराधी के बराबर की तकनीकि और उसकी सोच व तरीक़े का मुक़ाबला करने में सक्षम होगा। उदाहरण के लिए बिजली विभाग के एक जाँच अधिकारी को उस विभाग के तकनीकि सीखने में ही वर्षों लग जाते हैं, तब तक अपराधी चोरी और बेईमानी करता रहता है और जब तक यह सब जाँच अधिकारी को समझ में आता है, तब तक उसका तबादला किसी दूसरे विभाग में कर दिया जाता है।

6. इसके अतिरिक्त प्रभावशाली ढंग से जाँच के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी भी अपराध के लिए यथासम्भव एक ही जाँच अधिकारी या एक जाँच अधिकारी के नेतृत्व में एक ही टोली (टीम), अपराध की जाँच करे। इसका एक यह भी लाभ होगा कि सत्र परिक्षण के अन्त में त्रुटिपूर्ण या बेईमानी के जाँच के लिए उत्तरदायित्व निर्धारित किया जा सके।

7. अपराध की सूचना देने वाले की पहचान को पूर्ण रूप से गोपनीय रखा जाए। सही सूचना देने वाले को अपराधी की सज़ा होने पर ईनाम का प्रावधान होना चाहिए। इसी प्रकार से जानबूझकर या द्वेष की भावना से ग़लत सूचना देने वाले का उत्तरदायित्व निर्धारित कर उसे भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। इससे ईमानदार व्यक्ति के विरुद्ध द्वेषपूर्ण शिकायतों में कमी आएगी।

राज्य सरकारों की जाँच संस्थाएँ
1. राज्य सरकारों के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग की तो और भी हालत दयनीय है। एक दारोग़ा जो आज चौराहे पर यातायात नियंत्रण कर रहा होता है, उसे दूसरे ही दिन किसी नेता के सुरक्षा में लगा दिया जाता है। फिर किसी जाँच में लगा दिया जाता है। कितने क्षेत्रों में समाज और सरकार के विभाग बँटे हुए हैं? इसकी गिनती भी करना मुश्किल है। जैसे संगीत, शिक्षा के कई स्तर, विश्वविद्यालय की डिग्री सम्बन्धित अपराध, बिजली विभाग, चिकित्सा, शिक्षा चिकित्सा, महापालिका आदि। ऐसे में एक साधारण से पुलिस वाले से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह सभी क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त कर लेगा।

2. इसी कारणवश पुलिस जाँच में इतनी $खामियाँ रह जाती हैं कि मुक़दमे छूटने का फ़ीसद इतना रहता है कि कभी किसी के साथ न्याय हो पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार असल अपराधी के विरुद्ध आरोप पत्र ही नहीं प्रस्तुत हो पाता है और कभी-कभी पूर्ण निर्दोष के विरुद्ध आरोप-पत्र प्रस्तुत हो जाता है। यही नहीं, कई बार तो असल अपराधी साफ़-साफ़ बच जाता है और निर्दोष को सज़ा हो जाती है।

3. ऐसे में आवश्यकता है कि केंद्रीय विभागों और केंद्र सरकार से सम्बन्धित विभागों के जाँच के लिए जाँच संस्था का स्वतंत्र संवर्ग बनाकर केंद्र सरकार की ही तरह उन जाँच संस्थाओं को स्वतंत्र रूप से काम करने का अवसर दिया
जाना चाहिए।

4. इसका एक लाभ यह भी होगा कि त्रुटिपूर्ण जाँच या बेईमानी से हुई जाँच में उत्तरदायित्व निर्धारित करने में भी आसानी होगी।

विशेष लोक-अभियोजक
1. जिस प्रकार से निष्पक्ष और योग्य जाँच अपराध के लिए उत्तरदायित्व ठहराने के लिए अभियुक्त निर्धारित करना आवश्यक होता है, उसी तरह उस अभियुक्त को न्यायालय से सज़ा दिलाने के लिए एक योग्य लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार सम्बन्धी मुक़दमों को न्यायालय में प्रस्तुत करने, साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए और बहस के लिए एक स्वतन्त्र, योग्य और ईमानदार लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है।

2. अत: विशेष न्यायालयों में सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक स्वतंत्र विशेष लोक-अभियोजक का संवर्ग हो। इन लोक अभियोजकों को कम-से-कम 10 वर्ष तक वकालत का अनुभव होना चाहिए और इनकी सेवानिवृत्ति की आयु निर्धारित होनी चाहिए। ऐसा न हो कि एक सरकार के बनने पर सत्ताधारी पार्टी के चहेतों को लोक-अभियोजक बना दिया जाए और शासन परिवर्तन होते ही उन्हें हटा दिया जाए।

3. उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के मुक़दमों की पैरवी के लिए इसी संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजक के अधिकारियों को ही बहस और पैरवी के लिए पदोन्नति देकर ज़िम्मेदारी देनी चाहिए। इससे संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजकों के मन में और भी मेहनत तथा ईमानदारी से काम करने की रुचि बढ़ेगी।

विशेष न्यायालय
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह प्रावधान है कि अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराधों के परिक्षण के लिए विशेष अदालतें होंगी, जो किसी भी अपराध का सीधा संज्ञान लेंगी। उन मुक़दमों को दण्डाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के यहाँ ले जाने की ज़रूरत नहीं होगी।

2. इसी प्रकार से वर्तमान अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि यथासम्भव प्रतिदिन के हिसाब से किसी भी परीक्षण की कार्यवाही सम्पन्न की जाएगी और दो वर्ष के अन्दर यथासम्भव परिक्षण सम्पन्न कर दिया जाएगा। और यदि दो वर्ष में कार्यवाही समाप्त नहीं हो पाती है, तो एक समय में कारण बताते हुए छ: माह तक के लिए कार्यवाही सम्पन्न करने की कोशिश की जाएगी। ऐसे विभिन्न कारणों से कभी भी क़ानून का पालन नहीं हो पाता है। इसे स$ख्ती से पालन कराने की आवश्यकता है।

3. आज की तिथि में उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विशेष अदालतें लखनऊ और गा•िायाबाद में ही हैं। इतनी दूर और इतने कम विशेष न्यायालय होने के कारण मुक़दमों की सुनवायी में बहुत कठिनायी होती है। मेरे विचार से ऊपर लिखे गयी जाँच एजेंसीज के गठन के बाद एकाएक मुक़दमों की भरमार होगी। यह अत्यंत आवश्यक होगा कि विशेष न्यायाधीशों की अदालतें प्रत्येक ज़िले में उसी तरह बनायी जाएँ जैसे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उत्पीडऩ अधिनियम के अंतर्गत विशेष न्यायाधीश की अदालतों की स्थापना प्रत्येक ज़िले में की गयी है।

4. अधिनियम में यह भी प्रावधान किया जाए कि सत्र परिक्षण के समापन के समय यदि मुक़दमा छूटता है, तो न्यायालय जाँच अधिकारी द्वारा जानबूझकर की गयी लापरवाही या किसी को लाभ पहुँचाने के लिए किये गये कृत्य के लिए उसके उत्तरदायित्व को निर्धारित करे।

निचोड़
1. भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है, जो मानव उत्पत्ति के समय से ही तक़रीबन सभी देशों में क्षेत्र, जाति, वर्ग, धर्म के आधार पर हर स्थान और संस्था में व्याप्त है। हाँ, कभी और कहीं-कहीं यह कम होता है और कहीं बहुत अधिक भी होता है। परन्तु इसको रोकने का प्रयत्न सदैव से होता रहा है। इसे रोकना शासक की इच्छाशक्ति, ईमानदारी और प्रयत्न पर निर्भर करता है। इससे हारकर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है।

2. यदि शासक और शासन एक बार ठान ले और इसे दूर करने की सोच लें, तो मानव कल्याण के लिए इससे अच्छी और कोई बात नहीं हो सकती। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए भारत में उसी तरह से क़ानून, व्यवस्था और सज़ा का प्रावधान करना चाहिए जैसा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज के अपराधियों और बाल यौन शोषण करने वाले अपराधियों के साथ किया जा रहा है।

3. ऑस्टिन का सिद्धांत है कि प्रतिबन्ध या भय या कठोरता ही ऐसा उपाय है, जिससे अपराध को कम किया जा सकता है। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए किसी भी उदारता का परिचय नहीं देना चाहिए। सरकार प्रत्येक वर्ष आम जनता के कल्याण के लिए एक-से-एक कर कई योजनाएँ बनाती है और उन्हें लागू करने के लिए कार्यपालिका पर छोड़ देती है। यदि भ्रष्टाचार से कठोरता से योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं निपटा जाएगा, तो सरकार के जन-कल्याण के सारे प्रयत्न विफल होते रहेंगे।

4. मैं जो कुछ भी सुझाव दे सकता हूँ, वो सभी मेरे अपने अनुभवों पर आधारित हैं। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरे सुझाव सर्वोत्तम हैं। परन्तु यदि सरकार की इच्छा शक्ति भ्रष्टाचार को कम करने की है, तो इन पर जन-हित और देश-हित में विचार किया जा सकता है।

मुझे आशा है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामले में जो जीरो टॉलरेंस (शून्य सहनशीलता) की बात कहती है; उसे लागू भी करेगी।

(लेखक लखनऊ उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं समाजसेवी हैं।)

तेज़ी से बेरोज़गार हो रहीं महिलाएँ

रजनी क़रीब सात-आठ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक गाँव से दिल्ली आयी और पूर्वी दिल्ली की एक ऐसी बस्ती में रहने लगी, जहाँ अधिकांश लोग दिहाड़ी मज़दूर किराये के छोटे कमरों में रहते हैं। अलग से कोई रसोई की व्यवस्था नहीं, शौचालय भी सामुदायिक यानी कई परिवार एक ही शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। रजनी का पति गारमेंट्स बनाने की कम्पनी में कपड़े सिलने का काम करता था। रजनी ने अपनी बस्ती से दो कि.मी. की दूरी पर स्थित अपार्टमेंट्स में बर्तन धोने और सफ़ाई करने का काम करके और क़रीब 8,000 रुपये महीने कमा लेती थी। उसकी इस आय का अधिकांश हिस्सा उसके चार बच्चों को अच्छी शिक्षा व भोजन पर ख़र्च होता था।

लेकिन जब कोविड-19 महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए बीते साल 24 मार्च को देश भर में तालाबंदी (लॉकडाउन) की गयी, तो सरकारी आदेश के मद्देनज़र उसे काम पर जाना बन्द कर करना पड़ा। कुछ दिनों के बाद वह घरों से अपना पैसा लेने के लिए आयी और उसके बाद वह अपने परिवार के साथ अपने गाँव लौट गयी। एक साल हो गया वह दिल्ली नहीं लौटी। ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले के रामाबहल गाँव की एक युवा शिक्षित महिला को दिल्ली में मार्च, 2020 में नौकरी मिली। लेकिन तालाबंदी के कारण उसे बताया गया कि हालात सही होने पर आने के लिए सूचित कर दिया जाएगा। नौकरी पक्की नहीं थी। लेकिन युवती को उम्मीद थी कि हालात सामान्य होने पर उसे फोन आएगा। जुलाई में वह ओडिशा अपने गाँव लौट गयी।

यही नहीं, उसकी आठ-नौ सहेलियाँ, जो अन्य शहरों में काम करने गयी थीं; भी तालाबंदी की वजह से गाँव लौट गयीं। अब सभी बेरोज़गार हैं। ऐसे सैंकड़ों क़िस्से मिल जाएँगे, जो बताते हैं कि बीते साल कोविड-19 की पहली लहर ने देश में रोज़गार के लैंगिक पहलू को किस क़दर प्रभावित किया है। कोविड-19 की वजह से तक़रीबन सभी देशों में तालाबंदी की गयी। विभिन्न अध्ययन व आँकड़े बताते हैं कि कोविड-19 से महिलाओं के रोज़गार पर ख़राब प्रभाव पड़ा है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान महिलाओं को सबसे पहले नौकरी गँवानी पड़ी। नौकरियों में उनकी वापसी देर से हुई, नौकरी खोने वाली सभी महिलाओं को फिर नौकरी नहीं मिली। तालाबंदी में बच्चों के दैनिक देखभाल केंद्र (डे-केयर सेंटर) और विद्यालय बन्द होने के चलते भी कई महिलाओं को न चाहते हुए भी नौकरी छोडऩी पड़ी।

दरअसल इतिहास बताता है कि जब भी आर्थिक संकट आता है, चाहे वह महामारी या ग़लत औद्योगिक-आर्थिक नीतियों के कारण हो; उसकी क़ीमत महिलाएँ अधिक चुकाती हैं। भारत में बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ अनोपौचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इसमें कृषि, निर्माण कार्य, कपड़ा उद्योग, हथकरघा, खुदरा क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, घरेलू कार्य आदि शमिल हैं। नगरों, महानगरों में घरों में सफ़ाई, बर्तन धोने, भोजन बनाने आदि का काम भी अधिकतर महिलाएँ ही करती हैं। तालाबंदी में अधिकांश की नौकरी चली गयी। शहरी शिक्षित रोज़गार महिलाओं को भी इस महामारी ने प्रभावित किया है। भारत में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पहले ही चिन्ता का विषय है और मौज़ूदा महामारी ने इस मुद्दे को और गम्भीर बना दिया है। साथ ही नीति निर्माताओं के समक्ष रोज़गार में लैंगिक फ़ासले को पाटने व अन्य विसंगितयों को दूर करने के लिए अल्पकालीन लक्ष्य नहीं, बल्कि दीर्घकालीन लक्ष्य हासिल करने के वास्ते नीतियाँ बनाने का एक अवसर भी दिया है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, भारत में कार्य बल यानी लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी सन् 2010 में 26 फ़ीसदी थी, जो गिरकर सन् 2019 में 21 फ़ीसदी रह गयी। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॅमी ने एक अध्ययन कराया, जिससे पता चला कि बीते साल नवंबर, 2020 में नौकरियों में शहरी महिलाओं की हिस्सेदारी केवल सात फ़ीसदी रह गयी है। सन् 2019 में शहरों में 9.7 फ़ीसदी महिलाएँ काम कर रही थीं। तालाबंदी के कारण यह संख्या घटकर 7.4 फ़ीसदी रह गयी। नवंबर, 2020 में यह 6.9 फ़ीसदी रह गयी। इस अध्ययन के अनुसार, काम में महिलाओं की कम हिस्सेदारी के कारण भारत में काम करने वाले लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा नहीं हो पा रहा है।

सन् 2016 में यह संख्या 46 करोड़ थी और अब 40 करोड़ है। यदि भारत में रोज़गार-दर चीन या इंडोनेशिया के बराबर होती, तो यह संख्या 60 करोड़ के आसपास होती। भारत में प्रवासी मज़दूरों के बारे में बात करते ही सामान्य तौर पर पुरुष मज़दूरों की तस्वीर सामने आ जाती है। यह हक़ीक़त है कि प्रवासी मज़दूरों में 80 फ़ीसदी पुरुष हैं। लेकिन महिला प्रवासी मज़दूरों की संख्या में सन् 2001 से लेकर सन् 2011 के दरमियान दो गुना इज़ाफ़ा हुआ। मगर तालाबंदी में व बाद में उनकी दयनीय हालत पर कितनी चर्चा हुई। सम्भवत: अभी भी घर चलाने की प्रमुख ज़िम्मेदारी पुरुष की ही मानी जाती है। महिला का काम घर व बच्चे सँभालने का मान लिया गया है। इस तालाबंदी में एकल माँ (सिंगल मदर) की आर्थिक हालत क्या हो चुकी होगी? यह भी चर्चा का विषय है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 1.3 करोड़ घर एकल माँएँ ही चला रही हैं। इसके अलावा 3.2 करोड़ एकल माँ अपने रिश्तेदारों के परिवारों में हैं। ज़ाहिर है कि आर्थिक आघात ने इन्हें भी प्रभावित किया होगा।

आर्थिक झटके श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी को अनुपातहीन प्रभावित करते हैं। युवा महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 10.7 फ़ीसदी थी, मगर तालाबंदी के पहले महीने अप्रैल में 13.9 फ़ीसदी महिलाओं की नौकरी चली गयी। बता दें कि नवंबर, 2020 तक जिन पुरुषों की नौकरी चली गयी थी, उनमें 30 फ़ीसदी से अधिक को काम मिल चुका है। लेकिन महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कम हुआ है। नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की गयी, उसके बाद क़रीब 24 लाख महिलाओं की नौकरी चली गयी, जबकि दूसरी तरफ़ नौ लाख पुरुष नौकरी बाज़ार (जॉब मार्केट) में दाख़िल हो गये। यही नहीं, देश में कोरोना-काल के दौरान कामकाजी महिलाओं पर घरेलू काम का बोझ बढ़ा है।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की ओर से तैयार की गयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पहले जहाँ महिलाएँ दो घंटे का समय खाना बनाने में लगाती थीं, वहीं अब कर्नाटक में यह समय 20 से 62 फ़ीसदी और राजस्थान में 12 से 58 फ़ीसदी तक बढ़ गया है। घर से ही दफ़्तर का काम करने यानी घर में अधिक समय तक रहने के कारण और बच्चों के भी घर पर रहने के चलते महिलाओं पर काम का बोझ अधिक बढ़ा है। यही नहीं घरेलू कामगारों के नहीं आने से भी वे सब काम अधिकतर महिलाओं को ही करने पड़े। इस रिपोर्ट के मुताबिक, तालाबंदी और उसके बाद के महीनों में 61 फ़ीसदी पुरुषों की नौकरियाँ बची रहीं और सि$र्फ सात फ़ीसदी को नौकरी खोनी पड़ी। जबकि महिलाओं के मामले में सिर्फ़ 19 फ़ीसदी की ही नौकरी बचा रही, जबकि 47 फ़ीसदी महिलाएँ ऐसी रहीं, जिन्हें नौकरी खोनी पड़ी।

तालाबंदी में नौकरी खोने वाले पुरुषों में कुछेक ने बाद में अपना काम शुरू कर दिया, तो कुछ अन्य कामों में लग गये; लेकिन नौकरी, दिहाड़ी खोने वाली महिलाओं के लिए ऐसे विकल्प पुरुषों की तुलना में बहुत ही कम हैं। इसी तरह शादीशुदा महिला एक बार रोज़गार से बाहर हो जाती है, तो उसके काम पर लौटने के अवसर बहुत कम हो जाते हैं, जबकि एक शादीशुदा पुरुष के लिए नौकरी से बाहर होने के बाद फिर से काम हासिल करने वाले अवसर महिलाओं की तुलना में अधिक होते हैं। उन्हें उन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता, जो वे अक्सर झेलती हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की महिलाओं पर गम्भीर असर डाला है। सबसे अधिक नुक़सान नौकरीपेशा महिलाओं को हुआ है। इस महामारी के कारण दुनिया भर में क़रीब 6.4 करोड़ नौकरीपेशा महिलाओं को नौकरी गँवानी पड़ी यानी हर 20 कामकाजी महिलाओं में से एक को।

बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की एक हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है। इसमें बताया गया है कि महिलाओं पर अधिक असर इसलिए पड़ा, क्योंकि सबसे अधिक नुक़सान महिला कर्मचारियों की अधिकता वाले खुदरा (रिटेल), उत्पाद (मैन्युफैक्चरिंग) व सेवा क्षेत्र पर पड़ा है। इनमें क़रीब 40 फ़ीसदी महिलाएँ काम करती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं की नौकरी को लेकर एक जैसा स्वरूप देखने को मिला है। लगभग हर देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक नौकरी खोयी है। ऐसे शीर्ष-10 देशों में अमेरिका, कनाडा, स्पेन और ब्राजील भी हैं।

अमेरिका में 2019 में कार्य बल में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी और उस दशक में ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन 2020 में कोरोना महामारी के चलते जब देश में तालाबंदी हुई, तो नौकरी गँवाने वालों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी। श्रम बाज़ार या नौकरी बाज़ार में महिलाओं को फिर से काम मिलना आसान नहीं होता। नौकरी बाज़ार और समाज के नियम लैगिंक पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं। यहाँ महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को प्राथमिकता और महत्त्व दिया जाता है।

नीलसन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 84 फ़ीसदी से भी अधिक पुरुष बच्चों की देखभाल को महिलाओं की ज़िम्मदारी मानते हैं। यह मानसिकता कमोवेश दुनिया के अधिकांश हिस्सों में देखी जा सकती हैं, इसके फ़ीसदी में फ़$र्क हो सकता है; पर लिंग के आधार पर भेदभाव व्याप्त है। इस समय कोरोना महामारी की दूसरी ख़तरनाक लहर से गुज़र रहे भारत और उसके विभिन्न राज्यों में कहीं आशिंक, तो कहीं पूर्ण लॉकडाउन लगा हुआ है, इस दौरान महिला रोज़गार पर क्या असर हुआ होगा? इसका ख़ुलासा आने वाले वक़्त में होगा और प्रभाव भी सामने आएँगे।

महामारी से पर्यटन ठप

पिछले साल कोरोना वायरस के कारण लगे तालाबंदी से भारत को क़रीब 1.25 ख़रब रुपये से अधिक का नुक़सान हुआ है और लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं

पर्यटन स्थलों और दुनिया की सबसे पुरानी परम्परा व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध भारत में आज पर्यटन और इससे जुड़े कारोबार बिल्कुल चौपट पड़े हैं। कोरोना महामारी ने भारतीय पर्यटन उद्योग को जिस तरह तबाह किया है, उसके जल्दी उबरने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। पिछले साल मार्च से विदेशी पर्यटक बिल्कुल भी भारत का रुख़ नहीं कर रहे हैं, क्योंकि भारत सरकार ने पिछले साल 20 मार्च से पर्यटक वीजा पर रोक लगा रखी है। भारत में दूसरे साल भी पर्यटन चालू न होने से अनुमानित तौर पर 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुक़सान हो चुका है। इस नुक़सान के चलते भारत सरकार को टैक्स का बहुत बड़ा घाटा हुआ है।

इंडियन एसोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स (आईएटीओ) के देश में क़रीब 1,600 ऑपरेटर सदस्य हैं। इसके अलावा दूसरी कम्पनियों के हजारों ऑपरेटर, पर्यटन से जुड़े दूसरे लोग, जैसे- गाइड, ड्राइवर, कंडक्टर, सेवादार आदि के अलावा होटल, रेस्त्रां और दूसरे व्यापारों से जुड़े लोग, छोटे-बड़े दुकानदार हैं, जिनकी संख्या पूरे देश में लाखों में है। पर्यटन एक ऐसा उद्योग है, जो मौसमी (सीजनली) है, लेकिन फिर भी मौसम के अलावा भी यह थोड़ा-बहुत चलता ही रहता है। मूल रूप से पर्यटन की बुकिंग अक्टूबर से अगले साल के मार्च महीने तक होती है और विदेशी पर्यटक फरवरी से जुलाई तक भारत में ख़ूब आन्नद करते हैं, जिससे यहाँ के लाखों लोगों के घरों का चूल्हा जलता है। पर्यटन से जुड़े नैनीताल निवासी एक गाइड कैलाश (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि उनका यही एक सहारा है।

पिछले साल से ही उनका काम ठप पड़ा है, जिसके चलते न तो बच्चों की फीस जमा हो पा रही है और न ही घर ठीक से चल पा रहा है। अचानक आँख में आँसू भरकर कैलाश कहते हैं, 10-15 हजार महीना कमाने वाले का रोजगार छिन जाए, तो वह इस तालाबंदी (लॉकडाउन) में क्या करे? बाहर निकलो, तो पुलिस की मारे; घर में रहो, तो भूख की नौबत…; हम कहाँ जाएँ? क्या करें? कोई तो बताए। और फिर कैलाश के आँसू आ जाते हैं। देश में न जाने ऐसे कितने कैलाश हैं, जिन्होंने पर्यटन और उससे जुड़े धन्धों को अपनी आजीविका बनाया था, जो अब कोरोना महामारी के समय में धोखा दे गयी। भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर साल तक़रीबन पाँच करोड़ पर्यटक घूमने निकलते हैं, जिनमें विदेशियों की संख्या काफ़ी होती है। कोरोना वायरस के असर पर कंफेडरेशन ऑफ इंडस्ट्री (सीआईआई) के एक अध्ययन के अनुसार, भारत के पर्यटन उद्योग पर आने वाले कई महीने और भी भारी पडऩे वाले हैं। पर्यटन उद्योग से जुड़े लोगों की हालत दिन-ब-दिन दयनीय होती जा रही है, जिसमें सबसे बदतर हालत छोटे स्तर पर काम करने वालों की है।

एक अन्य अनुमान के अनुसार, देश में पर्यटन से अक्टूबर, 2019 से मार्च, 2020 तक 28 अरब डॉलर की मुद्रा एकत्रित होने का अनुमान था, लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह संचय पहले 60 से 65 फ़ीसदी रह गया, जो बाद में यह बिल्कुल चौपट-सा हो गया। सीआईआई की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि विदेशों में बसे भारतीय प्रवासी भी हर साल अप्रैल से सितंबर के महीने में परिवार से मिलने यहाँ आते हैं, जो कि कोरोना महामारी की वजह से नहीं आ पा रहे हैं। अनेक भारतीय तो कोरोना महामारी और भारत में तेजी से हो रही मौतों से इतने डरे हुए हैं कि अपनी यात्रा रद्द करवा रहे हैं। पर्यटन की रिपोर्टों पर गौर करें, तो पता चलता है कि भारत में सन् 2017 में 1.4 करोड़ विदेशी पर्यटकों ने यात्रा की थी। साल 2018 में 1.56 करोड़ विदेशी पर्यटकों ने भारत का दौरा किया, जबकि साल 2019 में केवल 1.93 लाख विदेशी पर्यटकों ने ही भारत भ्रमण किया। 2020 आते-आते यह संख्या घटकर 30 लाख से कम रह गयी, जो कि अब शून्य हो चली है। वहीं कई भारतीय मूल के प्रवासी, जो कि साल 2020 में कोरोना महामारी के चलते स्वदेश वापस लौटकर आ गये थे; अब तक यहीं रुके हुए हैं। पिछले साल केंद्रीय पर्यटन राज्य मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने भी पर्यटन में हो रहे करोड़ों के घाटे पर राज्यसभा में चिन्ता व्यक्त की थी।

देश में कई पर्यटन व्यवसायी ऐसे हैं, जो हर साल इस उद्योग से करोड़ों रुपये की कमायी करते हैं। ऐसे व्यापारियों में हर एक कम-से-कम 40-50 लोगों को रोजगार देता है। ऐसे में इन व्यापारियों के साथ-साथ इनके यहाँ नौकरी करने वाले और ठेके पर काम करने वाले लोग भी बड़ी तादाद में बेरोजगार हुए हैं। बहेड़ी में एक टूर एंड ट्रैवल एजेंसी पर बस चलाने वाले संजय कहते हैं कि वह हर साल नैनीताल में विदेशी लोगों से भरकर बस लाते-ले जाते थे। लेकिन पिछले डेढ़ साल से उनका काम बन्द पड़ा है। दूसरा कोई काम उन्हें आता नहीं है। आता भी होता, तो करते क्या? सब कुछ तो बन्द पड़ा है। बाहर से लोग आ नहीं रहे हैं, तो दूसरा काम भी कैसे चलेगा?

90 फ़सदी लोगों की गयी नौकरी


इंडियन एसोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स के अनुसार, कम्पनी के अधिकतर सदस्यों के व्यापार में 90 फ़ीसदी तक असर पड़ा और 60,000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है। अधिकतर पर्यटन कम्पनियों ने 80 से 90 फ़ीसदी कर्मचारियों को या तो हटा दिया है या बिना वेतन के छुट्टी पर भेज दिया है। उद्योग पर दोहरी मार पड़ी है। व्यापार ठप होने से कमायी नहीं हो रही है, लेकिन कार्यालय के किराये, वाहनों की ईएमआई आदि का भुगतान जारी है। रोड टैक्स के रूप में भी भुगतान करना पड़ रहा है।

विदेशी उड़ानें बन्द
कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बढ़ते प्रकोप से हर कोई घबराया हुआ है। भारत में इससे अब तक ढाई लाख लोगों की जान जा चुकी है और लाखों लोग बीमार हैं। कोरोना महामारी को देखते हुए दुनिया के 90 फ़ीसदी देशों ने भारत को रेड जोन में डालकर भारत को आने वाली लगभग सभी उड़ाने बन्द कर दी हैं। भारतीय नागरिकों के विदेश में फँसे होने और भारत में विदेशी नागरिकों के फँसे होने के चलते उन्हें निकालने के लिए ही इक्का-दुक्का उड़ानें भरी जा रही हैं। इसके चलते हवाई टिकट काफ़ी महँगे हो गये हैं। मसलन दिल्ली से न्यूयॉर्क की आख़िरी उड़ान का एक टिकट 7.50 लाख रुपये तक में बिक चुका है। जबकि लंदन का टिकट दो लाख में मिल रहा है और वह भी केवल ब्रिटिश नागरिकों के लिए ही उपलब्ध है। कई एयरलाइंस के विमान भारत से बिना यात्री के वापस जा रहे हैं। मालदीव जैसे पर्यटन स्थलों तक में भारतीयों के प्रवेश पर पूरी तरह रोक लगा दी गयी है। केयर रेटिंग्स की एक रिपार्ट के अनुसार, भारत में पर्यटन उद्योग को तालाबंदी के चलते केवल हवाई यात्रा रुकने भर से साल 2020 से अब तक ख़रबों रुपये से अधिक का नुक़सान हुआ है।

कई क्षेत्र केवल पर्यटन पर निर्भर
भारत में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिनकी आय का मुख्य स्रोत केवल पर्यटन ही है। इनमें बाला जी, शिरडी, हरिद्वार, केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरनाथ, वैष्णो देवी, मथुरा, वृंदावन, बरसाना, रामेश्वरम्, चित्रकूट, दिल्ली, आगरा, कन्यकुमारी, द्वारिका, राजस्थान के कई शहर, जैसे उदयपुर आदि के अलावा कश्मीर, मसूरी, नैनीताल, पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से सटा सुन्दरवन और बौद्ध व जैन धर्म के तीर्थ स्थल। इन स्थानों पर घूमने के लिए हर साल क़रीब डेढ़ करोड़ विदेशी भारत आते हैं और क़रीब तीन करोड़ भारतीय जाते हैं। लेकिन पिछले साल की तरह इस साल भी सभी पर्यटन स्थल सूने रहेंगे, जिसके चलते इन स्थलों पर काम करने वाले लाखों लोग बेरोजगार रहेंगे।

दुनिया भर में बड़ा नुक़सान
हाल ही में वल्र्ड ट्रैवल एंड टूरिज्म काउंसिल, जो कि दुनिया की तमाम बड़ी ट्रैवल कम्पनियों के संगठन है; ने कहा है कि कोरोना महामारी के चलते लगे तालाबंदी के कारण 2020 में दुनिया भर में पर्यटन उद्योग जगत में कार्यरत क़रीब साढ़े सात करोड़ लोगों की नौकरियाँ ख़त्म हो चुकी हैं। इतना ही नहीं इससे पूरी दुनिया के पर्यटन उद्योग को क़रीब 2.10 ख़रब डॉलर का नुक़सान हो चुका है, जिसमें केवल भारत को 1.25 ख़रब रुपये के नुक़सान हुआ है।

केयर रेटिंग्स के एक अध्ययन में भी कहा गया है कि कोरोना महामारी के चलते 2020 में पर्यटन को बहुत बड़ा नुक़सान हुआ है, जिसकी भरपाई आने वाले कई साल में सम्भव नहीं है। वहीं, भारत में कोरोना महामारी के फिर से भीषण तरीक़े से लौटने से भारतीय पर्यटन व्यापार रोजगार के इस अनिश्चित संकट को लेकर बेहद परेशान हो रहे हैं। क्योंकि इस साल तो भारत का पर्यटन उद्योग और भी ठप रहेगा। हालाँकि पिछले साल अक्टूबर से फरवरी, 2021 तक पर्यटकों ने बुकिंग करायी थीं; लेकिन कोरोना महामारी को देखते हुए 98 फ़ीसदी लोगों ने अपनी यात्राएँ रद्द करा दी हैं। एक अनुमान के अनुसार, कोरोना महामारी के चलते भारतीय रेलवे को केवल सन् 2020 में 87 फ़ीसदी घाटा हुआ है।

कोई उम्मीद नजर नहीं आती
कोरोना महामारी के चलते अभी कम-से-कम इस साल पर्यटन उद्योग के दिन फिर से पलटने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। ऐसा लगता है कि जब तक भारत में एक भी कोरोना का मामला रहेगा या नये मामले आने बन्द नहीं होंगे, तब तक विदेशी पर्यटकों का रुख़ भारत की तरफ़ दोबारा नहीं होगा। कोरोना महामारी से निपटने के लिए भारत सरकार को और कड़े क़दम उठाने की जरूरत है, ताकि पर्यटन के अलावा चौपट पड़े दूसरे व्यापारिक धन्धे भी जल्द-से-जल्द उबर सकें और लोगों का जीवन पटरी पर लौट सके।

देशद्रोह की सीमाएं परिभाषित करने का समय आ गया : सुप्रीम कोर्ट

आंध्र प्रदेश की दो तेलुगु चैनल पर की गई कार्रवाई रोक लगाते हुए शीर्ष अदालत ने की टिप्पणी

देश की सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को दो तेलुगु चैनलों के खिलाफ आंध्र प्रदेश सरकार की कार्रवाई पर रोक लगाते हुए कहा कि ‘समय आ गया है कि हम देशद्रोह की सीमाएं परिभाषित करें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आंध्र प्रदेश सरकार को तेलुगु समाचार चैनलों टीवी 5 और एबीएन आंध्र ज्योति के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई न करे। कोर्ट ने कहा कि चैनलों के खिलाफ आंध्र सरकार की ओर से राजद्रोह की कार्रवाई करना सही नहीं है। चैनलों की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र सरकार से चार हफ्तों में जवाब तलब किया है।

भारतीय दंड विधान में शामिल देशद्रोह की धारा के तहत केस दर्ज करने के बढ़ते मामलों के बीच सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बेहद अहम है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि आंध्र प्रदेश सरकार चैनलों के खिलाफ देशद्रोह के मामले दर्ज कर उनको दबा रही है। यह समय है कि अदालत देशद्रोह को परिभाषित करे।

सुप्रीम कोर्ट की विशेष पीठ ने इन चैनलों की याचिकाओं पर राज्य सरकार से चार हफ़्ते के भीतर जवाब तलब किया है। इन चैनलों के खिलाफ देशद्रोह सहित विभिन्न अपराधों के लिए आरोप लगाए गए हैं। इस पीठ में न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट भी शामिल हैं। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि उस एफआईआर से संबंधित समाचार चैनलों के कर्मचारियों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हमारा मानना है कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों 124ए (राजद्रोह) और 153 (विभिन्न वर्गों के बीच कटुता को बढ़ावा देना) की व्याख्या की जरूरत है, खासकर प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर।

आंध्र प्रदेश के दोनों समाचार चैनलों ने यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट की याचिका दायर की थी कि आंध्र सरकार ने हाल ही में कोर्ट द्वारा दिए गए उस आदेश का उल्लंघन किया है, जिसमें सरकारों को कोविड महामारी से संबंधित शिकायतें करने वाले नागरिकों को दंडित नहीं करने का निर्देश दिया गया था।

क्या था मामला
दोनों तेलुगु समाचार चैनलों ने आंध्र में सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के बागी सांसद के रघु राम कृष्ण राजू के ‘आपत्तिजनक’ भाषण का प्रसारण किया था। इसलिए राज्य सरकार ने उन चैनलों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया था। सांसद राजू अपनी ही सरकार की कोविड नीतियों के आलोचना कर रहे हैं। इस पर वाईएसआर कांग्रेस सरकार ने राजू को भी देशद्रोह के आरोप में केस दर्ज उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। सांसद राजू को 21 मई को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली।

तम्बाकू के सेवन से कैंसर के साथ तामाम बीमारियों का खतरा

विश्व तम्बाकू विरोधी दिवस के अवसर पर देश व्यापी तम्बाकू विरोधी कार्यक्रम का आयोजन किया गया । जिसमें देश के जाने-माने डाक्टरों ने भाग लिया। डाक्टरों का कहना है कि कोरोनाकाल चल रहा है। जरा सी लापरवाही घातक साबित हो सकती है। एम्स के कैंसर रोग विशेषज्ञ डाँ राहुल का कहना है कि तम्बाकू के सेवन से कैंसर होता है। मुंह का कैंसर तम्बाकू के सेवन से होता है और फेफड़ों का कैंसर धूम्रपान करने से होता है।

मैक्स अस्पताल के कैथलैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार का कहना है कि तम्बाकू के सेवन से हार्ट रोग को बढ़ावा मिलता है। तम्बाकू खोने और धूम्रपान करने वालों को हार्ट अटैक का खतरा भी अधिक रहता है। क्योंकि हार्ट की धड़कन भी अनियमित होती है। बैचेनी के बढ़ने से घबराहट होती है। कालरा अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डाँ आर एन कालरा का कहना है कि इस समय कोरोना का कहर ज्यादा है। जो लोग तम्बाकू और सिगरेट,बीड़ी का सेवन अधिक करते है। उनको कोरोना के समय में जान का खतरा अधिक रहता है।

क्योंकि जो लोग सिगरेट और तम्बाकू का सेवन अधिक करते है, उनके फेफड़ों में 30 से 40 प्रतिशत तामाम तरह की दिक्कतें होती है। ऐसे में कोरोना काल में सिगरेट का सेवन जानलेवा साबित हो सकता है क्योकि कोरोना अपनेआप में ही  फेफड़ों की बिमारी है।

राजीव गांधी अस्पताल के डाँ अनुज कुमार का कहना है कि तम्बाकू के सेवन करने वालों को कैंसर की ही बीमारी ही नहीं होती है। बल्कि मानसिक , अस्थमा, हार्ट और न्यूरों की समस्या होती है। इसलिये तम्बाकू के ना कहें और नशा विरोधी जीवन यापन करें। जिससे कैंसर कैंसर जैसी बीमारी को काबू पाया जा सकें।

भेष बदलकर पुलिस कमिश्नर ले रहे थानों का जायज़ा

 

इस कोरोना-काल के संक्रमण में भी कुछ लोग पाप और अपराध करने से नहीं चूक हैं। इस महामारी में भी कई तरह की आपराधिक घटनाएँ देश के कई राज्यों के साथ-साथ महाराष्ट्र के पुणे में भी घटित हो चुकी हैं। मसलन, पुणे के पिंपरी चिंचवड के एक निजी अस्पताल में कोरोना-मरीज के जेवरात और दूसरी चीजों की चोरियों की शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। पर जहाँ शातिर अपराधी हैं, वहाँ पुलिस भी उनकी शिनाख़्त करके उन्हें सलाख़ो के पीछे पहुँचाने से पीछे नहीं हटती। कई पुलिसकर्मी और पुलिस अधिकारी तो ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इसके लिए उन्हें कभी-कभार भेष भी बदलना पड़ता है। हमारे देश में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें पुलिस और ख़ुफिया विभाग के अफ़सरों ने भिखारी, पागल और किन्नरों तक का भेष बदलकर अपराधियों को पकडऩे के कारनामे किये हैं।

वहीं कई अफ़सर अपने विभाग की जाँच करने और अपने मातहतों की ईमानदारी और कर्मठता का जायज़ा लेने के लिए भी ऐसा करना पड़ता है। इन दिनों पुणे (महाराष्ट्र) के पिंपरी चिंचवड शहर के मशहूर पुलिस आयुक्त (कमिश्नर) कुछ इसी तरह वेशभूषा बदलकर पुलिस महकमे के कामकाज का जायज़ा लेने रात में निकल रहे हैं। उनके काम को देखकर बस यही कहना होगा कि पुलिस आयुक्त हो, तो ऐसा; जो अपनी जनता की समस्याओं और पीड़ा को समझे। पुलिस कर्मचारियों के पेच कसे और गुण्डों, गिरोहबाजों, अवैध धन्धे करने वालों की नाक में नकेल डाले।

पिछले दिनों एक रात पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश रमज़ान महीने में एक मुस्लिम व्यक्ति की दाढ़ी वाली वेशभूषा बदलकर हिंजवडी, वाकड, पिंपरी पुलिस थानों में अचानक पहुँच गये। उनका साथ देने के लिए उनकी बेग़म के किरदार में एसीपी प्रेरणा कट्टे थीं। दोनों ने एक निजी कार का इस्तेमाल किया। इस रात पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने चेहरे पर नक़ली दाढ़ी, सिर पर नक़ली मेहंदी कलर के बाल लगाकर, पैर में फैशनेबल जूता, कुर्ते पर जीन्स पैंट पहनकर सिर पर नमाजी टोपी लगाकर अपने ही पुलिस थाने में जाकर मौजूदा ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों से उर्दू-हिन्दी लहजे में शिकायत की कि वह अपनी बेग़म के साथ खाना खाने निकले थे।

कुछ गुण्डों ने बेग़म के साथ छेडख़ानी की और क़ीमती सामान छीनकर भाग गये। हमारी शिकायत दर्ज करने की मेहरबानी करें और गुण्डों को गिरफ्तार करें। हिंजवडी और वाकड में ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाले तुरन्त घटना स्थल पर गये। हालाँकि वहाँ कोई अपराधी नहीं मिला। लेकिन एक के मोबाइल के बारे में और कुछ संदिग्ध लोगों का पता चला। भेष बदले पुलिस कमिश्नर की एफआईआर ड्यूटी अफ़सर दर्ज करने लगे, तो पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने अपनी नक़ली वेशभूषा को हटाया। मौजूदा सारे पुलिस कर्मचारियों को झटका लगा। उनके सामने उन्हीं के पुलिस कमिश्नर और एसीपी मुस्लिम वेषभूषा खड़े हैं। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश और एसीपी प्रेरणा कट्टे इसी वेशभूषा में पिंपरी पुलिस स्टेशन पहुँचे। वहाँ उनकी कथा दूसरी थी। उन्होंने यहाँ कहा कि उनके घर का एक व्यक्ति कोरोना संक्रमण पीडि़त है। एंबुलेंस से अस्पताल पहुँचाना है।

एंबुलेंस वाले ज़्यादा रुपये माँग रहे हैं। सरेआम पीडि़त लोगों को लूट रहे हैं। उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करें और कार्रवाई करें। पिंपरी पुलिस स्टेशन में ड्यूटी पर तैनात पुलिस वालों ने कहा कि यह हमारा काम नहीं है। साथ ही उनके बातचीत करने का व्यवहार भी ग़लत पाया गया। आयुक्त पिंपरी पुलिस स्टेशन के कामकाज से नाख़ुश हुए।
पुलिस आयुक्त का वेशभूषा बदलकर पुलिस थानों के कामकाज का जायज़ा लेने के पीछे इतना ही मक़सद था कि पुलिस का आम लोगों के प्रति कैसा व्यवहार है? शिकायतकर्ताओं की शिकायतें सुनी जाती हैं या नहीं? रात के समय पुलिस किस अवतार में नजर आते हैं? सोते हैं या जागते हैं? पुलिस आयुक्त कृष्ण प्रकाश ने एक सम्मेलन में पुलिस वालों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि थानों में आने वाला व्यक्ति तनाव, चिन्ता और परेशानियों से भरा होता है।

वह त्रस्त होकर ही अपनी शिकायतें पुलिस थाने लेकर आता है। लेकिन जब वह पुलिस से मिलकर वापस जाए, तो चेहरे पर समाधान, सन्तुष्टि लेकर जाए। लेकिन वर्तमान में क्या पुलिस थानों में ऐसा हो रहा है? इसी का मुआयना करने रात के समय वह तीन थानों में वेश बदलकर गये थे। उन्होंने कहा कि इससे पुलिस थानों के कर्मचारियों में अपने काम के प्रति जागरूकता आयेगी। डर बना रहेगा। कामकाज में पारदर्शिता दिखायी देगी।

पुलिस आयुक्त ने कहा है कि ऐसा ही औचक निरिक्षण आगे भी होते रहेंगे। इसके आगे वह अवैध धन्धों के अड्डों, देर रात तक चलने वाले होटलों, बार आदि में ग्राहक के रूप में जाएँगे। जिन पुलिस थानों की सीमा में और थानों के अन्दर ग़लत काम पाया जाएगा, वहाँ के थानेदार नपेंगे। शहर में आपराधिक घटनाएँ शून्य (जीरो टॉलरेंस) होने के साथ 100 फ़ीसदी अवैध धन्धे, माफियागीरी, भाईगीरी बन्द होनी चाहिए। शहर में अमन-चैन बरक़रार रखना उनका एकमात्र लक्ष्य है। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए पिंपरी चिंचवड शहर की पुलिस को जनता की सन्तुष्टि और हित के हिसाब से काम करना होगा।

उन्होंने कहा कि मेरे शब्दकोष में ग़लत काम के लिए माफ़ी नाम का शब्द नहीं है। बता दें कि जबसे कृष्ण प्रकाश पुणे के पिंपरी चिंचवड़ के पुलिस आयुक्त बने हैं, तबसे अब तक कई पुलिस निरीक्षक, कर्मचारी बरख़ास्त हो चुके हैं। कई गिरोहबाज गुण्डों पर मकोका और तड़ीपार के तहत कार्रवाई हो चुकी है। कई गिरोह और गुण्डे रडार पर हैं। अब पुलिस वालों को पुरानी खब्बूगीरी की परम्परा छोडऩी होगी और इस सख़्त पुलिस आयुक्त के ईमानदारी, कर्मठता और सच्चाई साँचे में फिट बैठना होगा।

कहाँ जाएँ क़र्ज़दार

सरकार आत्मनिर्भरता पर बल दे रही है। लेकिन वे लोग कैसे आत्मनिर्भर हों, जिनके रोज़गार छिन चुके हैं और सिर पर क़र्ज़ा बढ़ रहा है। ऐसे लोगों को बैंक, सूदख़ोर इन दिनों बुरी तरह परेशान कर रहे हैं। सरकारी सिस्टम में दोष का आलम यह है कि कमज़ोर तबक़ा सरकारी तंत्र में सुनवाई नहीं होने से वे ग़ैर-सरकारी तंत्र का सहारा ले रहे हैं। साहूकारों सेक़र्ज़ा ले रहे हैं। इन्हीं तामम पहलुओं पर शहर से लेकर ग्रामीणों पर ‘तहलका’ ने पड़ताल की।

पांडव नगर निवासी दिल्ली के किशन कुमार शर्मा का कहना है कि वे एक निजी कम्पनी में सन् 2019 में काम करते थे। लेकिन पारिवारिक समस्या के चलते उनको नौकरी छोडऩी पड़ी। कुछ समय बाद आर्थिक संकट गहराने लगा। परिवार वालों की सलाह पर उन्होंने प्रोवीजन स्टोर खोलने के लिएक़र्ज़ा लेने के लिए सरकारी बैंकों से लेकर निजी बैंकों तक तामाम चक्कर लगाये, लेकिनक़र्ज़ा नहीं मिला। फिर उन्होंने साहूकार से एक लाख क़र्ज़ा लेकर किराये की दुकान पर प्रोवीजन स्टोर फरवरी, 2020 में खोला। अचानक मार्च, 2020 में लॉकडाउन के लगने से उनकी दुकान बन्द होने से सारा सामान दुकान में सड़ गया और ख़राब हो गया। फिर जून, 2020 से लेकर मार्च, 2021 तक दुकान चलने लगी। अब फिर सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया। ऐसे में अब न तो वे दुकान का किराया निकाल पा रहा है और न साहूकार का क़र्ज़ा दे पा रहे हैं। अब साहूकार के आदमी उन्हें आये दिन धमकाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि अगर दुकान भी खोलते हैं, तो सरकारी तंत्र परेशान करता है कि दुकान के काग़ज़ दिखाओ, ये करो, वो करो या कुछ लेन-देन करो।

ऐसे हालात में उनके परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट गहरा रहा है। इसी तरह नोएडा के म्यू-1 और म्यू-2 के लोगों का कहना है कि सरकार तामाम दावे कर रही है कि वह ग़रीबों के रोज़गारों पर आँच नहीं आने देगी। लेकिन सरकारी तंत्र इस क़दर तानाशाह है कि जो पढ़े-लिखे युवा अपनी छोटी-मोटी दुकानें चलाकर आत्मनिर्भरता पर काम कर रहे हैं, उनकी दुकानों को बन्द कराया जा रहा है और प्रताडि़त भी किया जा रहा है। म्यू-1 में रहने वाले राजकुमार का कहना है कि सरकार कहती है कि बैंक सेक़र्ज़ा आसानी मिलेगा। लेकिन ज़मीनी स्तर पर देखा जाए, तो बैंक में 10,000 के मामूलीक़र्ज़ा के लिए भी महीनों के चक्कर लगाने के बाद हीक़र्ज़ा नहीं मिलता है। बैंक कई ख़ामियाँ निकालकरक़र्ज़ा नहीं देते हैं। यही वजह है कि साहूकारों का कारोबार पनप और फल-फूल रहा है। साहूकार सरकारी सिस्टम में ख़ामियों का जमकर लाभ उठाते हैं और ज़रूरतमंदों को मनमाने सूद परक़र्ज़ा देकर उनकी ज़मीनें और घर हथियाने की कोशिशों में लगे रहते हैं।

उत्तर प्रदेश बाराबंकी निवासी राकेश कुमार इस दर्द से गुज़र रहे हैं। उनका कहना है कि उनका मासूम बेटा पैदा होने के बाद से लगातार बीमार रहता है। इस कारण वह बर्बाद हो चुके हैं। क़रीब ढाई महीने पहले उसे हल्का-सा बुख़ार आया। डॉक्टर से दवा दिलायी। इसके बाद उसकी तबीअत और बिगड़ गयी और डॉक्टर ने भर्ती करने को कहा। मजबूरन बच्चे को भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टर ने पाँच दिन के अन्दर 1,40,000 रुपये का बिल बना दिया, जिसे पाटने के लिए कई लोगों से उधार लेना पड़ा। एक सूदख़ोर ने उन्हें 20 फ़िसदी सैकड़ा के मासिक ब्याज पर पैसा दिया, जिसके बाद से वह जितना कमाते हैं, उसका 80 फ़िसदी हिस्सा केवल ब्याज में चला जाता था। अब काम बन्द है। क़र्ज़ा बढ़ रहा है। ऐसे में न तो परिवार का गुज़ारा हो रहा है और न बड़ी बेटी की पढ़ाई। कोई मदद भी नहीं करता।

उत्तर प्रदेश के नरैनी के निवासी अनूप कुमार ने बताया कि सामाजिक मान, मर्यादा के चलते ग्रामीण सरकारी झंझटों से बचने के लिए साहूकार या दबंग लोगों से मोटे ब्याज परक़र्ज़ा ले लेते हैं। ऐसे में क़र्ज़दार पैसा चुकाते हुए भीक़र्ज़ा के बोझ में दबता चला जाता है। अनूप कुमार का कहना है कि ऐसा नहीं है कि क़र्ज़दार कोई आम लोग हैं। वास्तव में ये लोग राजनीति, गुण्डागर्दी और सरकार से किसी-न-किसी रूप से जुड़े हैं, जिनका जाल पूरे देश में फैला हुआ है। मजबूर होकर लोग इनसेक़र्ज़ा लेते हैं और फिर बुरी तरह फँस जाते हैं। बाद में या तो क़र्ज़दारों को अपना घर-ज़मीन गँवाने पड़ते हैं या कई बार आत्महत्या तक कर लेते हैं। कई बार सूदख़ोर वसूली के लिए हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

मध्य प्रदेश के जतारा तहसील के निवासी पूरन चंद्र का कहना है कि जिस प्रकार कोरोना-काल में लॉकडाउन लगने से देश में आर्थिक मंदी और बंदी का दौर आया है, उसकी मूल वजह सरकार की नीतियाँ हैं; जो बिना सोचे-समझे लागू की गयी हैं। जैसे लॉकडाउन तो लगा दिया, लेकिन दुकानें बन्द करा दीं। इससे मध्यम वर्गीय और निम्नवर्गीय तबक़ा और कमज़ोर हुआ है। इसी के चलते लोगों को घर ख़र्च के लिएक़र्ज़ा लेना पड़ रहा है। मौज़ूदा वक़्त में देश राजनीतिक संक्रमण काल और कोरोना संक्रमण काल से गुज़र रहा है। ऐसे में कुछ लोग सरकारी सिस्टम का $फायदा लेकर सारी मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख कर ग़रीबों-पीडि़तों का जमकर दोहन कर रहे हैं। ग़रीब-किसान सहयोगी मंच से जुड़े बांदा ज़िले के निवासी गोविन्द दास का कहना है कि सरकार देशवासियों की पीड़ा समझना नहीं चाह रही है। वह लॉकडाउन भी अपने नफ़ा -नुक़सान को देखकर लगा रही है। इससे बाहुबली और सत्ता से जुड़े लोग निजी लाभ के लिए कुछ भी करते हैं। जमाख़ोरी कर महँगा सामान बेचते हैं। मोटे ब्याज पर पैसा उठाते हैं। सरकारी सिस्टम को फेल देखकर लोगों में निराशा पनप रही है। लोग सोच में हैं कि कहीं कोरोना की आड़ में सरकार कोई खेल तो नहीं कर रही है?

तबाही की जंग पर उतरे इजराइल और हमास

 

  हमास दाग़ रहा रॉकेट, तो इजराइल कर रहा भयंकर हवाई हमले
  मौतों के तांडव से लोगों में ख़ौफ़, फिलिस्तीनी कर रहे पलायन

इजराइल और फिलिस्तीनी चरमपंथी हमास के बीच तबाही का युद्ध छिड़ा हुआ है। यह युद्ध इतना भीषण है कि संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी पर भी नहीं रुक रहा है। अगर युद्ध रुक भी जाता है, तो भी दोनों देशों के शासकों और आम नागरिकों दिलों पर बड़ी तबाही की दास्तान लिख जाएगा। युद्ध का यह दौर एक महीने पहले यरुशलम में शुरू हुआ, जो इजराइल की तरफ़ से उकसाया गया रमज़ान के महीने के दौरान हथियारों से लैस इजराइली पुलिस तैनात रही और यहूदी शरणार्थियों द्वारा दर्जनों फिलिस्तीनी परिवारों को निर्वासित करने के ख़तरे ने प्रदर्शनों को हवा दी, जिससे उनकी पुलिस के साथ झड़पें हुईं। पुलिस ने जब अल अक्सा मस्जिद में आँसू गैस के गोले और फिलिस्तीनियों पर ग्रेनेड फेंके, तो यरुशलम को बचाने का दावा करने वाले हमास ने 10 मई की देर रात इजराइल में रॉकेट दाग़ने शुरू कर दिये, जिसके बाद युद्ध शुरू हो गया। वैसे तो गाजा पट्टी को लेकर दोनों देशों- इजराइल और फिलिस्तीन के बीच साल 2014 से युद्ध जारी है, मगर अब यह बहुत बड़े स्तर पर पहुँच चुका है। बता दें कि पहले का युद्ध फिलिस्तीन क्षेत्र और इसकी सीमा पर बसे इजराइली समुदायों वाले इलाक़े तक ही सीमित था, मगर अब यह यरुशलम में शुरू हुआ है; जिससे बड़ा नरसंहार हो रहा है। इस लड़ाई ने इजराइल में दशकों बाद भयावह यहूदी-अरब हिंसा को जन्म दिया है।

युद्ध की एक बड़ी वजह यह है कि हमास को इजराइल एक आतंकी संगठन मानता आया है। अब दोनों देशों के बीच मई के पहले सप्ताहांत से फिर युद्ध छिड़ गया है। ख़बर लिखे जाने तक हमास ने इजराइल पर क़रीब 1800 रॉकेट दाग़ दिये थे, वहीं इजराइल फिलिस्तीन के क़ब्ज़े वाली गाजा पट्टी क्षेत्र पर 600 से ज़्यादा हवाई हमले कर चुका है। इन हमलों में 14 मई की शाम तक क़रीब ढाई दर्जनों बच्चों समेत क़रीब 100 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी। इजरायली सेना का अनुमान है कि गाजा में हमास के पास इस समय 20 से 30 हज़ार रॉकेट हैं। वहीं इजरायल ने यह भी कहा है कि अब वह हमास के उग्रवादियों को हमेशा के लिए शान्त करके ही दम लेगा। दोनों तरफ़ से जारी हमलों से आम लोगों की घबराहट बढ़ी हुई है, जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है और इजराइल के हवाई हमलों से घबराकर फिलिस्तीन के लोग गाजा पट्टी क्षेत्र छोडक़र पलायन कर रहे हैं।

राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से मिली जानकारी के अनुसार, इस जवाबी कार्रवाई में हमास के 11 कमांडर मारे जा चुके हैं। युद्ध में 70 लोगों के मारे जाने की पुष्टि फिलिस्तीन कर चुका है। सूत्र बताते हैं कि 300 से ज़्यादा लोग इजराइली हमले में घायल हुए हैं। वहीं इजरायल केवल छ: नागरिकों के मारे जाने की बात स्वीकार रहा है। हालाँकि कुछ ख़बरों की मानें, तो दोनों ओर से अधिक मौतें हुई हैं। इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि हमले जारी रहे, तो इजरायल और फिलिस्तीन के बीच भयंकर युद्ध छिड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने कहा है कि वह ताज़ा हिंसा को लेकर बहुत चिन्तित हैं। वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने नेतन्याहू को फोन करके इजराइल के अपने प्रतिरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है।

सदियों से चल रहा तनाव

दोनों देशों के बीच हो रहा यह भीषण युद्ध सन् 2014 में भी हुआ था। दरअसल यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मों के बीच तीनों की पवित्र नगरी येरुशलम को लेकर सदियों से टकराव चल रहा है। जिस पर सभी अपनी-अपनी दावेदारी करके उस पर क़ब्ज़ा जमाना चाहते हैं।

भारत ने की शान्ति की पहल
इजरायल और फिलिस्तीनी चरमपंथियों में लगातार होते युद्ध को लेकर भारत ने चिन्ता ज़ाहिर की है और सभी हिंसक गतिविधियों, विशेषकर गाजा से किये गये रॉकेट हमलों की निंदा करते हुए युद्ध को तत्काल रोकने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने ट्वीट करके कहा है कि भारत सभी तरह की हिंसक गतिविधियों, ख़ासकर गाजा से किये गये रॉकेट हमलों की निंदा करता है। तिरुमूर्ति ने इजरायल में एक भारतीय नागरिक की मौत पर शोक जताया और ज़ोर दिया कि हिंसा में तत्काल कमी लाना समय की ज़रूरत है। दोनों पक्षों को ज़मीन पर यथास्थिति में बदलाव से बचना चाहिए।

नहीं रहीं टाइम्स ग्रुप की अध्यक्ष इंदु जैन

भारत के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी लिमिटेड (बीसीसीएल), जिसे टाइम्स ग्रुप के नाम से जाना जाता है; की अध्यक्ष (चेयरपर्सन) 84 वर्षीय इंदु जैन हमारे बीच नहीं रहीं। कोरोना वायरस की चपेट में आने के बाद वह पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती थीं। उन्होंने 13 मई की शाम को निर्वाण प्राप्त किया। इंदु जैन भारतीय मीडिया की प्रमुख शख़्सियत थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। वह आजीवन आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर रहीं और परोपकार, कला संरक्षण एवं महिला अधिकारों की समर्थक रहीं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई बड़ी हस्तियों ने इंदु जैन की निर्वाण प्राप्ति पर श्रद्धांजलि दी है।

उत्तर प्रदेश के फै़ज़ाबाद में 8 सितंबर, 1936 में साहू-जैन जन्मीं इंदु जैन का विवाह टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अशोक कुमार जैन से हुआ था। सन् 1999 में उनके पति अशोक जैन का निधन हो गया था। इंदु जैन के दो बेटे- बीसीसीएल के मौज़ूदा प्रबन्ध निदेशक विनीत जैन और समीर जैन हैं।

कई बार फोब्र्स की सबसे अमीर शख़्सियतों की सूची में आ चुकी इंदु जैन दि टाइम्स फाउंडेशन की संस्थापक एवं अध्यक्ष, भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट की अध्यक्ष और फिक्की की महिला विंग (एफएलओ) की संस्थापक अध्यक्ष थीं, जिसकी स्थापना उन्होंने सन् 1983 में की। इंदु जैन ने सन् 2000 में दि टाइम्स फाउंडेशन की स्थापना की थी। दि टाइम्स फाउंडेशन आपदा राहत के लिए सामुदायिक सेवा, रिसर्च फाउंडेशन और टाइम्स रिलीफ फंड चलाता है। टाइम्स ग्रुप में टाइम्स नाउ, मिरर नाउ, मूवीज नाउ, जूम, रोमी नाउ जैसे समाचार न्यूज और मनोरंजन चैनल, टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और इकोनॉमिक टाइम्स जैसे अ$खबार शामिल हैं। इंदु जैन हमेशा काम को तवज्जो देने वाली एक सफल व्यावसायिक महिला थीं। समाज सेवा और कला आदि क्षेत्र में रुचि रखने के चलते उन्हें दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।सन् 2016 में उन्हें पद्म भूषण, सन् 2019 में इंस्टीट्यूट ऑफ कम्पनी सेक्रेटरीज ऑफ इंडिया द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, सन् 2018 में अखिल भारतीय प्रबन्धन संघ द्वारा मीडिया को लाइफटाइम कंट्रीब्यूशन के लिए पुरस्कार, भारतीय महिला कांग्रेस द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। पिछले साल उन्होंने सहस्राब्दी विश्व शिखर सम्मेलन (मिलेनियम वल्र्ड पीस समिट) में संयुक्त राष्ट्र को भी सम्बोधित किया था।

इंदु जैन का कहना था- ‘वर्तमान में जीने का मतलब है- अतीत के लिए पछतावा नहीं, भविष्य की चिन्ता नहीं। जीवन वही है, जो अभी है। मैं एक साधक पैदा हुई थी। मैं तलाश करने के लिए बहुत जिज्ञासु और उत्सुक रही। मुझे $खुश रहने और एक उद्देश्य होने के बीच कोई विकल्प नहीं दिखता। अलग-अलग प्रतीत होने वाले विकल्प बस एक ही हो सकते हैं। जीवन एक अविश्वसनीय साहसिक कार्य है और आपको इसे अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए।’

शायद उन्हें अपने निर्वाण का पूर्वाभास था। इसलिए उन्होंने अपने निर्वाण से पहले कहा था- ‘यदि कोई अंतिम इच्छा है, तो यह है कि किसी को भी मेरे जाने की सूचना नहीं दी जानी चाहिए। किसी को पूछने की ज़रूरत नहीं है कि इंदु कहाँ है? क्योंकि जहाँ भी हँसी होगी, वे उसे वहीं पाएँगे। शरीर के निर्जीव खोल का अन्तिम संस्कार उसी तरह किया जा सकता है, जिस तरह से आश्रमवासियों को सबसे अच्छा लगता है। मेरे गुरु जहाँ भी होंगे, मेरी तरफ़ से निश्चित रूप से पंख लगाएँगे। फिर मैं लम्बे समय से प्रतीक्षित मिलन-मिलान में अग्नि, भूमि, जल, वायु और अंतरिक्ष में मिस जाऊँगी। हमेशा मैं तुम
में। प्यार!’
वह श्री श्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी वासुदेव की अनुयायी थीं। आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक श्री श्री रविशंकर के साथ उनका गहरा जुड़ाव था। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए श्री श्री रविशंकर ने कहा- ‘इंदु माँ के साथ मेरा जुड़ाव सन् 1980 के दशक में शुरू हुआ था और उनकी सबसे शुरुआती यादों में से एक आध्यात्मिक चीज़ों के लिए उनकी अतृप्त जिज्ञासा थी।’


टाइम्स समूह के अध्यक्ष श्रीमती इंदु जैन के निधन में हमने एक अद्वितीय मीडिया नेता और कला और संस्कृति के एक महान् संरक्षक को खो दिया। उन्होंने उद्यमिता, आध्यात्मिकता और परोपकार के क्षेत्रों में अपनी विशेष छाप छोड़ी। उनके परिवार, दोस्तों और प्रशंसकों के प्रति संवेदना।’’
रामनाथ कोविंद, राष्ट्रपति
(एक ट्वीट में)

टाइम्स समूह की अध्यक्ष इंदु जैन के निधन से दु:खी हूँ। सामुदायिक सेवा के क्षेत्र में उनके द्वारा उठाये गये क़दमों, भारत की प्रगति को लेकर उनके जज़्बे और संस्कृति के प्रति गहरी दिलचस्पी के लिए उन्हें याद किया जाएगा। वह समाज के लिए किये गये योगदान के लिए याद रखी जाएँगी।’’
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
(एक ट्वीट में)

अभिशाप बनता जातीय व नस्लीय भेदभाव

 

झारखण्ड में आदिवासी महिला दारोग़ा की मौत पर मुख्यमंत्री की चुप्पी कठघरे में

प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस जातिवाद और नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध एकजुटता का आह्वान करता है। बावजूद इसके भारतीय समाज जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा हुआ है। आये दिन ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं, जब वंचित वर्ग के प्रतिभाओं को जाति तथा नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत का शिकार होना पड़ता है।

ऐसा ही एक मामला झारखण्ड में सामने आया है। झारखण्ड के साहेबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत के कारण मौत की शिकार हुईं, जो आदिवासी समुदाय से हैं। झारखण्ड के आदिवासी बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि आदिवासी समुदाय से होने के कारण रूपा तिर्की का विभाग के ही अधिकारियों द्वारा उत्पीडऩ किया जाता था। बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रूपा के मौत की सीबीआई जाँच कराने की माँग की है।
क्या है मामला?

साहिबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की का शव 3 मई, 2021 की रात संदेहास्पद स्थिति में उनके फ्लैट में पंखे से लटका मिला। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों पर भी दाग़ने के निशान थे। रूपा तिर्की के परिजनों और स्थानीय लोगों का कहना है कि रूपा काफ़ी मृदुभाषी होने के साथ मिलनसार थीं। रूपा आत्महत्या नहीं कर सकती हैं। रूपा की हत्या की गयी है। रूपा के परिजनों ने सरकार से निष्पक्ष जाँच करके इंसाफ़ की माँग की है।
रूपा की माँ ने एसपी को आवेदन देकर कमेटी गठित कर जाँच कराने की माँग की। आवेदन कहा गया है कि रूपा की हत्या की गयी है। उनका घुटने के बल था। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों में जगह-जगह पर दाग़ने के निशान थे। दोनों हाथों को देखने पर ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके हाथों को पकड़ा गया हो। घुटने पर मारने जैसे निशान हैं। पूरे मामले की जाँच कमेटी गठित कर की जाए। रूपा के क्वार्टर (सरकारी कमरे) के सामने रहने वाली दारोग़ा मनीषा कुमारी व ज्योत्सना महतो हमेशा उसे टॉर्चर करती थीं। छोटी-छोटी बातों पर उसे हमेशा नीचा दिखाती थीं। 10 दिन पहले दोनों ने किसी पंकज मिश्रा के पास रूपा को भेजा था। थाने से आने के बाद अन्तिम कॉल में रूपा ने कहा था-‘मम्मी, पानी पीने के बाद मुझे दवा जैसा लगा। अब तक ऐसा लग रहा है।’

‘आत्महत्या नहीं, हत्या’
विभिन्न संगठनों एवं राजनीतिक दलों ने रूपा को न्याय दिलाने के लिए विरोध-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया है और सोशल मीडिया में भी सवाल उठाये जा रहे हैं। मामले की जाँच कर रही पुलिस प्रथम-दृष्टया इसे आत्महत्या मान कर चल रही है; जबकि सामाजिक संगठनों का आरोप है कि हत्या को आत्महत्या दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। 7 मई को राज्य की राजधानी रांची के रातू स्थित काठीटाड़ चौक में आदिवासी छात्र संघ ने विरोध-प्रदर्शन किया। इस दौरान काठीटाड़ चौक पर लोगों ने हाथों में पोस्टर लेकर नारेबाज़ी की और रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच की माँग की। रांची के नामकुम में भी विरोध-प्रदर्शन किया गया। भाजपा महिला मोर्चा ने भी पलामू ज़िला मुख्यालय में भी विरोध-प्रदर्शन किया।
सोशल मीडिया पर ‘जस्टिस फॉर रूपा तिर्की’ लगातार ट्रेंड कर रहा है। ट्वीटर पर 50,000 से ज़्यादा लोगों ने ट्वीट किया है। सोशल मीडिया में यूजर्स द्वारा अनेक सवाल किये जा रहे हैं कि क्या घुटनों के बल बैठकर आत्महत्या सम्भव है? जहाँ खड़े होकर फंदा लगाया जा सकता है, वहाँ कुर्सी की ज़रूरत क्यों हुई? क्या मरते समय रूपा तिर्की को कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी? क्या उसने हाथ-पैर नहीं चलाये? फिर बेडशीट एकदम बराबर कैसे? फंदे वाली रस्सी कमर के पास से तौलिये के अन्दर से कैसे गुज़री? कोई भी इंसान कम कपड़ों में फाँसी क्यों लगाएगा? रूपा तिर्की का सुसाइड नोट कहाँ है? उनके शरीर पर निशा क्यों निकले?

सीबीआई जाँच की माँग
रूपा तिर्की की मौत को साज़िश के तहत हत्या बताते देते हुए झारखण्ड के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सीबीआई जाँच की माँग की है। भाजपा विधायक दल के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, राज्यसभा सांसद समीर उरांव, मांडर विधायक बंधु तिर्की, बोरियो विधायक लोबिन हेंब्रम, आदिवासी सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष रमेश हांसदा, आदिवासी जन परिषद् के अध्यक्ष प्रेम शाही मुंडा समेत कई बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री से रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच कराने का आग्रह किया है। वहीं, झारखण्ड सरकार में मंत्री मिथलेश ठाकुर का कहना है कि होनहार पुलिस अधिकारी की असामयिक मौत हुई है। प्रथम दृष्ट्या आत्महत्या का मामला लगता है। मर्माहत करने वाली घटना है। मुख्यमंत्री ने भी संवेदना व्यक्त की है। जाँच के निर्देश दिये गये हैं। साहेबगंज एसपी के नेतृत्व में टीम गठित है। जाँच में कुछ सामने आएगा, तो फिर कार्रवाई होगी। सीबीआई जाँच सभी घटना का विकल्प नहीं है। विपक्ष के नेता केंद्र सरकार से कोरोना-काल में राज्य के लिए सहयोग माँगने के बजाय सिर्फ़ झूठी संवेदनशीलता के लिए बयानबाज़ी करते हैं।
भेदभाव का ज़हर
झारखण्ड के प्रसिद्ध आदिवासी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग ने सोशल मीडिया पल लिखा कि ‘रूपा तिर्की के आत्माहत्या का मामला साधारण नहीं है। यह आदिवासियों के ख़िलाफ़ वर्ण एवं जाति आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा भारतीय समाज के कुकर्म का परिणाम है। आप लोगों को याद होगा, डॉक्टर पायल तडवी प्रकरण। सरकारी नौकरी करने वाले लगभग सभी आदिवासियों के साथ इसी तरह से नस्ल और जाति आधारित भेदभाव, हिंसा और प्रताडऩा होता है फिर भी आदिवासी चुप रहते हैं। रूपा को न्याय देने के लिए सीबीआई जाँच होनी चाहिए। हम आदिवासी लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ एकजुट होकर ही ऐसे भेदभाव, अन्याय और अत्याचार का मुक़ाबला कर सकते हैं।’
आदिवासी अख़बार ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के प्रकाशक-संपादक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ति तिर्की कहते हैं कि रूपा तिर्की ने आत्महत्या की या उनकी हत्या की गयी? इसमें कई तरह बातें सुनने में आ रही हैं। लेकिन यह काफ़ी गम्भीर मामला है। झारखण्ड सरकार ने न कोई न्यायिक जाँच बैठायी है और न ही वह कोई उच्चस्तरीय जाँच करवा रही है। सामान्य रूप से एफआईआर दर्ज कर जाँच की जा रही है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत भी एफआईआर दर्ज नहीं की गयी है।

रूपा तिर्की का जातिगत उत्पीडऩ भी हुआ है और उनके ऊपर अधिकारियों का कुछ तात्कालिक दबाव भी था। उन पर मानसिक अत्याचार हुआ है। यदि रूपा ने आत्महत्या भी की है, तो उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया है। आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाना भी एक गम्भीर अपराध है। रूपा एक पुलिस अफ़सर थीं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। यह तो पुलिस की प्रतिष्ठा का भी सवाल है। पुलिस अफ़सर की मौत के मामले में तो वैसे भी सीबीआई जाँच होनी चाहिए। आख़िर क्यों जाँच नहीं हो रही है? झारखण्ड के मुख्यमंत्री, जो ख़ुद आदिवासी हैं; की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह लोगों के सवालों का जवाब दें और रूपा को न्याय दिलाएँ।

भारत के कथित ऊँची जातियों के लोग कहते हैं कि भारत में नस्लवाद नहीं है, जो कि एक सफ़ेद झूठ है। जाति के आधार पर उत्पीडऩ भी एक तरह का नस्लवाद ही है। पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत के लोगों के विरुद्ध भी रंग-रूप के आधार पर उत्पीडऩ किया जाता है और नस्लवादी टिप्पणियाँ की जाती हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। सन् 2019 में आदिवासी समुदाय से आने वाली मुम्बई के बीवाईएल नायर अस्पताल की 26 वर्षीय रेजिडेंट डॉक्टर पायल तड़वी ने तीन वरिष्ठ चिकित्सकों के जातिवादी-नस्लीय उत्पीडऩ से परेशान होकर अपने कमरे में फाँसी लगाकर जान दे दी। मार्च, 2020 में मणिपुर की एक महिला को कोरोना बताकर, उसके मुँह पर थूकने जैसा घृणित काम किया गया। पूर्वोत्तर भारत के लोगों को ‘चिंकी’ और ‘नेपाली’ कहना, तो आम प्रचलन-सा हो गया है। दिल्ली-मुम्बई समेत कई नगरों, महानगरों में निम्न जाति और आदिवासी लोगों का अनेक तरह से उत्पीडऩ किया जाता है।


पीडि़त क़ानून का लें सहारा
जातिवादी एवं नस्लवादी टिप्पणियों एवं उत्पीडऩ के सैकड़ों मामले हर साल पुलिस थानों में दर्ज किये जाते हैं। लेकिन पीडि़तों को क़ानून की सही जानकारी न होने के कारण उनके साथ न्याय नहीं हो पाता या बहुत मुश्किल से बहुत कम मापदण्ड या भेदभाव के आधार पर ही होता है। ऐसे मामले अगर थानों तक चले भी जाते हैं, तो पुलिस दोषियों को सज़ा देने की बजाय या तो पीडि़त को ही फटकार या धमकाती है अथवा समझौते का दबाव बनाती है।

लेकिन भारत में इसके लिए बाक़ायदा क़ानून है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15, 16 और 29 ‘नस्ल’, ‘धर्म’ तथा ‘जाति’ के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा-153(ए) भी ‘नस्ल’ को संदर्भित करती है। बावजूद इसके जातिवादी-नस्लवादी उत्पीडऩ काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। हालाँकि नस्लवादी-जातिवादी उत्पीडऩ को रोकने के लिए कड़े क़ानून बनाने एवं बड़े स्तर पर नस्लवाद-विरोधी कार्रवाई करने की आवश्यकता है। साथ ही इसके लिए सहिष्णुता, समानता के साथ ही भेदभाव विरोधी एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया जाना भी बेहद ज़रूरी है। नस्लवाद और जातिवाद से सम्बन्धित भेदभाव की हालिया घटनाएँ सम्पूर्ण समाज को समानता के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं को नये सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं।