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बंगाल में सियासी तूफान

पश्चिम बंगाल में सीबीआई द्वारा सन् 2014 में किये गये एक स्टिंग मामले में टीएमसी के चार दिग्गज नेताओं की गिरफ़्तारी को लेकर नया सियासी तूफ़ान खड़ा हो गया है। दरअसल स्टिंग में पार्टी नेताओं को एक पत्रकार से कथित तौर पर रिश्वत लेते हुए दिखाया गया था, जो एक कारोबारी बनकर उनसे मिला था। केंद्रीय एजेंसी की इस कार्रवाई के समय पर सवाल उठता है कि आख़िर नवनिर्वाचित विधानसभा का सत्र बुलाये जाने से ऐन पहले ही गिरफ़्तारियाँ क्यों की गयीं? गिरफ़्तारियाँ करने से पहले विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति तक नहीं ली गयी। वैसे भी जिन जन-प्रतिनिधियों को गिरफ़्तार किया गया था, वे मंत्री और विधायक निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सक्रिय हुए और उन्होंने कहा कि उन्हें नियुक्ति प्राधिकारी होने के नाते अभियोजन को मंज़ूरी देने का अधिकार था। राज्यपाल इससे पहले तब सुर्ख़ियाँ बटोर चुके हैं, जब उन्होंने कूचबिहार में चुनाव बाद की हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था; जो कथित तौर पर राजनिवास कार्यालय के संवैधानिक औचित्य का उल्लंघन था। मामले में बदले की राजनीति शुरुआत से ही दिखायी देती है। क्योंकि यह महज़ संयोग नहीं हो सकता है कि पश्चिम बंगाल में सन् 2016 के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले ही स्टिंग ऑपरेशन के टेप जारी किये गये थे।

सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि स्टिंग टेप में लिप्त दो बड़े नेताओं को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया? पश्चिम बंगाल में हिंसा को लेकर नागरिकों के एक समूह ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर कथित राजनीतिक हत्याओं की निष्पक्ष जाँच और त्वरित न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी में विशेष जाँच दल गठित कर जाँच कराये जाने की माँग की है। समूह ने माँग की है कि इन मामलों को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी यानी एनआईए को सौंपा जाए। चक्रवात ‘यास’ के लिए केंद्र द्वारा घोषित राहत राशि को लेकर भी विवाद पैदा हो गया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया है कि ओडिशा और आंध्र प्रदेश की तुलना में बड़ी और अधिक घनी आबादी के बावजूद आपदा राहत के लिए राज्य को कम राशि जारी की गयी। दो तटीय राज्यों की तुलना में राहत राशि के तौर पर पश्चिम बंगाल को 400 करोड़ रुपये मिले, जबकि ओडिशा और आंध्र प्रदेश को 600-600 करोड़ रुपये दिये गये। इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि वह प्रधानमंत्री से बैठक कर चर्चा करेंगी। राहत राशि जनसंख्या घनत्व, इतिहास, भूगोल और सीमाओं पर और इस तथ्य पर निर्भर होनी चाहिए थी कि 15 लाख से ज़्यादा लोगों को चक्रवात के मद्देेनज़र सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया।

कलकत्ता उच्च न्यायालय की पाँच जजों की पीठ ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) से सवाल किया है कि स्टिंग ऑपरेशन मामले में आरोपी चार नेताओं को पिछले सात साल में गिरफ़्तार नहीं किया, तो अब उन्हें चार्जशीट दाख़िल होने के बाद क्यों गिरफ़्तार किया जा रहा है? इस बीच सीबीआई ने कलकत्ता हाईकोर्ट की सुनवाई को स्थगित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया था, लेकिन फिर स्वयं ही अपनी याचिका वापस ले ली। केंद्र-राज्य के बीच जारी गतिरोध कोई अच्छा संकेत नहीं है और दोनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस घटनाक्रम के पीछे सियासी मक़सद हावी न हो। क्योंकि सियासी या सत्ता का मक़सद पूरा करने के लिए चले गये दाँव-पेच में आख़िरकार जनता पिसती है, जो किसी भी राज्य के लिए बेहतर नहीं हो सकता।

चरणजीत आहुजा

ब्रिक्स वर्चुअल बैठकः मुश्किल वक्त में एक-दूसरे का साथ देने का वादा

ब्रिक्स देशों के विदेश मंत्रियों की मंगलवार को आनॅलाइन बैठक हुई। बैठक का मुख्य मुद्दा कोरोना संक्रमण के हालात और उससे पैदा हुई चुनौतियों से निपटना था। इसमें सभी देशों से सहयोग की अपील की गई थी। बैठक की अध्यक्षता भारत ने की।

ब्रिक्स पांच देशों का समूह है। इसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका शामिल हैं। इसका नाम सदस्य देशों के नाम के हिसाब से रखा गया है। हर देश के नाम का पहला पहला अल्फाबेट लिया गया है। वर्चुअल बैठक चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि उनका देश इस मुश्किल दौर में भारत के साथ खड़ा है।

चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा- भारत महामारी के मुश्किल दौर से गुजर रहा है। इस मुश्किल समय में हम नई दिल्ली को सहयोग का वादा करते हैं। हम बाकी ब्रिक्स देशों से भी कहना चाहते हैं कि चीन इस मामले पर सहयोग के लिए तैयार है। भारत कोरोना की दूसरी लहर से बेहद प्रभावित हुआ है और उसमें सभी को मदद के लिए आगे आना चाहिए।

बैठक में दक्षिण अफ्रीका के विदेश मंत्री ने कोरोना टीके का मुद्दा उठाते हुए कहा कि वैक्सीन के मामले में टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और प्रोडक्शन पर सहयोग और समझौते की जरूरत है। हमें यह याद रखना होगा कि जब तक सभी सुरक्षित नहीं हो जाते, तब तक हम भी सुरक्षित नहीं हैं। टीके के मामले में पूरी दुनिया को एककजुट होना होगा और सभी को इसे मुहैया कराना होगा।

बैठक की अध्यक्षता करते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि सभी देशों के विदेश मंत्रियों ने एक-दूसरे को सामूहिक रूप से हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सभी देश देशों को बराबरी का हक और प्रतिनिधित्व मिले। एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान भी संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के हिसाब से किया जाना चाहिए।

सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा रद्द, पीएम मोदी ने की बैठक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बैठक के बाद सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा (2021) रद्द कर दी गई है। केंद्र सरकार ने यह बड़ा फैसला कोविड-19 के बढ़ते मामलों के मद्देनजर किया है। बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि बोर्ड परीक्षा से ज्यादा छात्रों की सेहत महत्वपूर्ण है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में मंगलवार शाम हुई बैठक के बाद केंद्र सरकार और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा रद्द करने का फैसला किया। छात्र और अभिभावक भी यही मांग कर रहे थे। राजधानी दिल्ली समेत कुछ राज्य सरकारों ने भी 12वीं बोर्ड परीक्षा रद्द करने की मांग उठाई थी।

पीएम मोदी के साथ बैठक में कुछ अन्य केबिनेट मंत्री भी शामिल रहे। इसमें यह फैसला किया गया कि परीक्षा न हो। इससे पहले 23 मई को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में भी राज्य के सभी शिक्षा मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के साथ हुई बैठक में राज्यों से परीक्षा को लेकर सुझाव मांगे गए थे। यही नहीं बोर्ड परीक्षा रद्द कराने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर की गई है, जिसपर 31 मई को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से 2 दिन का समय मांगा था।
सीबीएसई 12वीं की परीक्षा रद्द करने के फैसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा – ‘छात्रों का स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा प्राथमिकता है, जिससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। परीक्षा को लेकर छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों में तनाव की जो स्थिति बनी है, उसे खत्म करना चाहिए। सभी भागीदारों के इस मामले में संवेदनशीलता दिखानी चाहिए।’

रिजल्ट ऐसे होगा तैयार
सीबीएसई 12 की परीक्षा रद्द होने के बाद अब मार्क्स और रिजल्ट को लेकर कहा गया है कि समय के अनुसार उचित प्रक्रिया के तहत मार्किंग की जाएगी और रिजल्ट तैयार होगा। वहीं स्टूडेंट्स को पिछली बार की तरह परीक्षा देने का विकल्प भी दिया जाएगा। जो स्टूडेंट्स अपने मार्क्स से संतुष्ट नहीं होंगे वे बाद में एग्जाम देने का विकल्प चुन सकेंगे।

अलापन ममता के सलाहकार बने, हरिकृष्ण द्विवेदी नए मुख्य सचिव

पश्चिम बंगाल के जिन मुख्य सचिव अलापन बंद्योपाध्याय को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र के खिलाफ ताल ठोंकी, वे अलापन सोमवार को पद से सेवानिवृत्त हो  गए और मंगलवार को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें अपना मुख्य सलाहकार नियुक्त कर दिया। अलापन की जगह ममता ने 1988 बैच के आईएएस अधिकारी हरिकृष्ण द्विवेदी को मुख्य सचिव बनाया है।
अलापन के मामले में ममता बनर्जी और केंद्र सरकार के बीच सीधी भिड़ंत हो गयी थी। अपनी  60 साल की उम्र होने पर अलापन सोमवार को रिटायर होने वाले थे, लेकिन केंद्र सरकार की ओर से 24 मई को बंगाल सरकार के आग्रह पर उनके तीन महीने के कार्यकाल विस्तार को मंजूरी दे दी गयी थी। कुछ दिन पहले पीएम मोदी के बंगाल दौरे के दौरान पीएम के साथ बैठक पर जो विवाद हुआ था उसके बाद केंद्र ने नाराज होकर 28 मई को उनका तबादला  दिल्ली कर दिया था।
हालांकि, ममता बनर्जी ने केंद्र के इस फैसले पर सख्त ऐतराज जताया और उन्हें बंगाल से रिलीव करने से साफ़ मना कर दिया। अलापन ने एक्सटेंशन न लेते हुए सोमवार को ही रिटायरमेंट ले लिया। केंद्र सरकार से टकराव के बीच मुख्यमंत्री  ममता बनर्जी ने अलापन बंद्योपाध्याय को रिटायरमेंट दे दिया। अब ममता ने उन्हें  अपना मुख्य सलाहकार बना लिया है। ममता ने ऐसा करके अलापन को दिल्ली जाने से तो रोक ही लिया, वहीं उनके अनुभव का लाभ लेते हुए उन्हें अपनी टीम का हिस्सा भी बना लिया।
ज्यादातर विशेषज्ञों ने अपनी राय जताते हुए कहा था कि केंद्र सरकार जबरदस्ती अलापन को दिल्ली आने के लिए मजबूर नहीं कर पाएगी। इसके लिए उन्होंने कुछ नियमों का हवाला दिया था। अलापन 1987 बैच के आईएएस हैं जबकि 1988 बैच के आईएएस हरिकृष्ण द्विवेदी को अब मुख्य सचिव बना दिया गया है। द्विवेदी बंगाल के गृह सचिव के पद पर थे और वे बंगाल काडर के ही आईएएस अधिकारी हैं। उनके पास लंबा प्रशासनिक अनुभव है। उनकी जगह बीपी गोपालिका को गृह सचिव नियुक्त किया गया है।

सोनिया की गठित टीम से मिले सिद्धू, आलाकमान मसला हल करने की कोशिश में है जुटी

पंजाब कांग्रेस के बीच उठा तूफ़ान अभी शांत नहीं हुआ है। कांग्रेस आलाकमान जल्दी से जल्दी मसला हल करने की कोशिश में है। मंगलवार को दिल्ली में पंजाब के नाराज नेता/विधायक/मंत्री लगातार दूसरे दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से बनाई गयी तीन सदस्यीय टीम से मिले। बैठक के बाद मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से नाराज चल रहे नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा – ‘मैं यहां आलाकमान के सामने जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की आवाज पहुंचाने आया हूं। लोगों की शक्ति लोगों के पास लौटनी चाहिए। मैंने आलाकामन की टीम के सामने साफ़ तौर पर सत्य कहा है। सत्य प्रताड़ित हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं।’
पंजाब कांग्रेस में चल रही उठापटक को सुलटाने के लिए सोनिया गांधी ने राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में तीन नेताओं की समिति गठित की है जिसे मसले का हल निकालने का जिम्मा सौंपा गया है। खड़गे के अलावा पंजाब  के प्रभारी महासचिव हरीश रावत और वरिष्ठ नेता जेपी अग्रवाल समिति में शामिल हैं।
आज सिद्धू सहित अन्य नाराज नेता समिति से मिले। सोमवार को पंजाब प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ सहित अन्य नेता मिले थे। कल भी मुलाकातों का दौर चलेगा।
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक समिति सोनिया गांधी को बैठकों के बाद सिद्धू को लेकर चार सुझाव दे सकती है। एक – उन्हें उनके पुराने मंत्रालयों के साथ दोबारा मंत्री बना दिया जाए। दो – उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए। तीन – उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में बड़ा पद (महासचिव/उपाध्यक्ष) दे दिया जाए। चार – उन्हें यह भरोसा दिया जाए कि अगले विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। आलाकमान विधानसभा चुनाव तक कैप्टेन अमरिंदर सिंह को हटाने के पक्ष में नहीं है। वैसे एक विचार अमरिंदर को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का भी पार्टी के बीच चर्चा में रहा है।
आज समिति से मिलने के बाद सिद्धू ने पत्रकारों से कहा – ‘आलाकमान ने बुलाया है। पार्टी  को लेकर जो पूछा गया उसके बारे में उन्हें सजग कर दिया है। मेरा एक स्टैंड था, है और रहेगा कि पंजाब के लोगों की ताकत जो सरकार के पास जाती है वह लोगों के वापस आनी चाहिए। सत्य प्रताड़ित हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं हो सकता।’
सिद्धू ने कहा – ‘पंजाब के हक की आवाज मैंने आलाकमान को बताई है। जीतेगा पंजाब, जीतेगी पंजाबियत और जीतेगा हर पंजाबी।’
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक समीति बुधवार को भी पंजाब के नेताओं की बात सुनेगी। सोमवार को पंजाब के 26 विधायक दिल्ली पहुंचे थे। सिद्धू के अलावा, मंत्री, हॉकी खिलाड़ी रहे और विधायक परगट सिंह और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अन्य नेता मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।
सोमवार को प्रदेश अध्यक्ष झाखड़ के अलावा मंत्री चरणजीत चन्नी, सुखजिंदर सिंह रंधावा भी समिति से मिले थे। बैठक के बाद कल जाखड़ ने कहा था कि बैठक मंथन के लिए है। यह किसी एक नेता के लिए नहीं बल्कि पंजाब और कांग्रेस के लिए रखी गई है। उनके मुताबिक विधायक, सांसद और वरिष्ठ नेता इस दौरान मिलेंगे और देखेंगे कि पार्टी को कैसे और मजबूत किया जाए।’
दरअसल पंजाब में गुरु ग्रंथसाहिब बेअदबी और कोटकापुरा फायरिंग मामले को लेकर कांग्रेस के बीच घमासान है। पार्टी नेताओं का एक वर्ग साल 2015 में फरीदकोट के कोटकपुरा में बेअदबी मामले के बाद हुई गोलीबारी की घटना में की गई कार्रवाई को लेकर असंतोष जाहिर करता रहा है। इसे लेकर उभरे तनाव के बाद अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तीन सदस्यीय समिति गठित की है। नवजोत सिद्धू पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की ओर से पिछले महीने कोटकपुरा गोलीबारी मामले में जांच रद किए जाने के बाद इस मामले में काफी मुखर हैं। कई विधायक कोटकापुरा पुलिस फायरिंग में मारे गए लोगों के लिए जल्द न्याय की मांग कर रहे हैं।
आलाकमान के लिए चिंता की बात यह है कि पंजाब में अगले साल ही विधानसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में वहां सरकार और संगठन के बीच खींचतान को आलाकमान समय रहते सुलटा लेना चाहती है। सिद्धू अब मुख्यमंत्री अमरिंदर के खिलाफ काफी मुखर हो चुके हैं। अमरिंदर के साथ पहले उनके संबंध सुधरते दिखे थे, लेकिन बाद में फिर इनमें दरार दिखने लगी।
अब बैठकों का दौर जारी है। फिलहाल समिति के सदस्य सबसे बातचीत करने के बाद सोनिया गांधी को अपनी रिपोर्ट देंगे, जिसके  बाद पंजाब को लेकर कुछ फैसला होगा। आलाकमान के सामने मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह भी अपनी बात रख सकते हैं। हालांकि, सच यह है कि विधायकों का काफी दबाव है लिहाजा कोई स्पष्ट फैसला सामने आने की उम्मीद है।

लाँकडाउन से बचने के लिये कोरोना गाइड लाईन का पालन जरूरी है

जैसे –जैसे कोरोना का कहर प्रकोप कम हो रहा है। वैसे-वैसे लोगों में कोरोना के प्रति सजगता कम हो रही है। जो कोरोना जैसी महामारी को बढ़ावा दे सकती है। इस बारे दिल्ली और एनसीआर के लोगों ने बताया कि कोरोना को लेकर सही मायने में जनता बड़ी वे -परवाह है। जिसका नतीजा ये है कि कोरोना जैसी महामारी कम होने का नाम तक नहीं लें रही है।इस बारे में गाजियाबाद के धनजंय का कहना है कि कोरोना को लेकर लाँकडाउन और अनलाँकडाउन के बीच सरकार एक ऐसी गाइड लाइन बनानी चाहिये ताकि, लोगों के बीच दिनचर्या बन जाये।जैसे मास्क का लगाना, सोशलडिस्टेंसिंग और समय-समय पर सैनेटाइजर का प्रयोग करना आदि।

स्वास्थ्य अधिकारी डाँ ओ पी शर्मा ने बताया कि कोरोना को लेकर लोगों के बीच ये भ्रम व्यापक है। कि कोरोना अब जाने लगा है। उन्होंने लोगों को याद कराया कि इसी साल फरवरी माह में भी तो कोरोना लगभग चला सा गया था। पूरे देश में व मुश्किल से 8 से 10 हजार ही मामले बचें थे।

अचानक मार्च के अंन्तिम सप्ताह से अप्रैल से जो कोरोना को कहर बरपा उसने पूरे देश में हाहाकार मचा दिया। गौरतलब है कि कोरोना के कहर साथ –साथ डेंगू, मलेरिया और मौसमी बीमारियों का प्रकोप देश में तेजी से फैल रहा है। जून के महीने से ही जलजनित बीमारी के कारण युवा , बच्चे और बुजुर्ग काफी बीमार होते है। तो ऐसे में लोगों को कोरोना के साथ किसी भी प्रकार की कोई बीमारी को नजरअंदाज ना करना चाहिये। दिल्ली सरकार के अस्पताल के डाँ पी के शर्मा का कहना है कि सरकार को एक ऐसी गाइड लाइन बनानी चाहिये ताकि बीमारी से असानी से निपटा जा सकें।और काम-काज भी प्रभावित ना हो।लोगों के दैनिक कामों पर भी असर ना पड़े।

आत्मा का कोई धर्म नहीं होता

एक बार एक जंगल में आग लग जाती है। जंगल के सभी पशु-पक्षी व्याकुल होकर भागने-उडने लगे। लेकिन एक चिडिया पास के तालाब से अपनी चोंच में पानी भरकर लाती और ऊपर से आग पर छोड़ देती। चिडिय़ा की यह कोशिश देखकर कौवा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। कौवा चिडिय़ा का मखौल उड़ाते हुए बोला- ‘अरी पागल! जंगल में इतनी भीषण आग लगी है। पास के गाँवों के सैकड़ों लोग उसे बुझाने में लगे हैं, तब भी वह नहीं बुझ रही है। तेरे एक-एक बूँद पानी से यह आग कैसे बुझेगी? नादानी छोड़ और दूसरे जंगल में उड़ चल।’ चिडिय़ा कौवे की बात पर मुस्कुराते हुए बोली- ‘मैं जानती हूँ कि मेरे इस प्रयास से जंगल की आग कभी नहीं बुझेगी। लेकिन जब इस आग लगने और इसके बुझने का इतिहास लिखा जाएगा, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, बुझाने वालों में लिखा जाएगा।’

आज हमारे देश में भी कोरोना वायरस जैसी महामारी की आग लगी हुई है। लेकिन कुछ लोग तमाशाई बने हुए हैं। कुछ लोग इस आग में अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं और कुछ लोग अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से इसे बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। जो लोग पीडि़तों की मदद करके इस आग को बुझाने की कोशिश कर रहे हैं, वे वास्तव में इंसान हैं। उन्होंने बता दिया है कि इंसान का पहला धर्म क्या है? उन्होंने बता दिया है कि जिस तरह दूसरे लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं, अगर हमने आज उनकी मदद नहीं की, तो अगली बारी किसी और की या ख़ुद हमारी भी हो सकती है। मज़हबी दीवारों को तोडक़र इस समय बहुत-से लोग बिना किसी भेदभाव के ऐसे-ऐसे महान् कार्य कर रहे हैं, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है।

इससे बड़ा दुनिया का कोई धर्म नहीं हो सकता, जब मज़हब-ए-इस्लाम को मानने वाले लोग सनातन रीति से, पूरे मान-सम्मान के साथ किसी सनातनी के शव का अन्तिम संस्कार करें। जब कोई सनातन या दूसरे धर्म का व्यक्ति किसी मुस्लिम के मुर्दे को उसके मज़हब के रिवाज़ के हिसाब से उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करे। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता, जब कोई इंसान बिना किसी कोरोना मरीज़ की ज़ात और उसका मज़हब पूछे उसकी तीमारदारी करे। उसे खाना खिलाये। उसके लिए ऑक्सीजन की व्यवस्था करे। आज महामारी के बुरे वक़्त में स्पष्ट हो गया है कि अगर हमारे बीच बुरे और शैतान लोगों की कमी नहीं है, तो ऐसे बहुत इंसान हैं, जो भगवान तो नहीं, लेकिन भगवान से कम भी नहीं है; कम-से-कम उन लोगों के लिए तो ज़रूर, जिनकी ज़िन्दगी बचाने की वे कोशिशें कर रहे हैं।

लेकिन कितने ही लोग अभी भी नफ़रतें बो रहे हैं। घृणा कर रहे हैं। कोई भी बच्चा जब पैदा होता है, तो न तो उसे किसी से नफ़रत होती है। न ही वह किसी से भेदभाव करता है। न उसे किसी की ज़ात या मज़हब से कोई लेना-देना होता है। न ही उसे अपने-पराये का भान होता है। इसीलिए तो उसे परमहंस कहा जाता है। ईश्वर का रूप कहा जाता है। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, हम स्वार्थवश उसे अपने-पराये का भेदभाव सिखा देते हैं। नफ़रत और क्रोध की घुट्टी पिला देते हैं। मज़हबी चोला पहना देते हैं। दूसरे धर्म के लोगों से दूर रहने का सबक़ देने लगते हैं। दूसरे धर्म के रीति-रिवाज़ों से दूर रहने की तालीम देते हैं। छुआछूत का ज़हर उसकी नसों में घोल देते हैं। दूसरे धर्म में एक ही ईश्वर, सही मायने में अपने ही ईश्वर का अलग नाम होने के चलते उसे ही गालियाँ देना और भला-बुरा कहना सिखा देते हैं। इसी के चलते वही बच्चे आगे चलकर ख़ून-ख़राबा करते हैं। नफ़रतें बोते हैं। और आगे चलकर अपने बच्चों की नसों में अपने माँ-बाप से भी ज़्यादा ज़हर घोलते हैं।

लेकिन जो लोग अपने बच्चों को मज़हबी बनने से पहले इंसान बनने की सीख देते हैं। या उनके मज़हब में दी गयी शिक्षाओं पर सही से अमल करते हैं, वे कभी ऐसा नहीं करते, बल्कि मुसीबत के समय बिना किसी की ज़ात पूछे, बिना उसका मज़हब जाने उसी मदद करते हैं। आज ऐसे ही लोग हमारे सामने हैं और महामारी में फ़रिश्ते बनकर पीडि़तों की सेवा कर रहे हैं। ख़ून और प्लाज्मा दे रहे हैं। रोज़ा तोडक़र ख़ून और प्लाज्मा देना अपना पहला धर्म समझ रहे हैं। यही तो असली धर्म है। ख़ून का कोई मज़हब नहीं होता। चाहे वह किसी भी इंसान का हो। इंसान भी अगर मज़हबी चोले में न रहे, तो केवल चेहरा देखने भर से कोई नहीं पहचान सकता कि वह किस धर्म को मानता है। वास्तव में मज़हब है ही मानने की चीज़। उसे किसी पर भी जबरन थोपा नहीं जा सकता। आत्मा का भी धर्म नहीं होता, कोई जाति नहीं होती। आत्मा को तो कोई जानता भी नहीं है। सब शरीर को जानते हैं। और शरीर के लिए ही सब कुछ करते हैं।

अगर कोई आत्मा को पहचानता है, तो वह परमहंस हो जाता है, उसे तेरे-मरे से, भेदभाव से, घृणा से, ईष्या से, मोह से कोई काम नहीं। उसके लिए सारा संसार एक जैसा है। उसे क्रोध भी नहीं आता। वह दयालु और मददगार प्रवृत्ति को अपना लेता है। उसे दुनियावी मज़हबों से कोई लेना-देना नहीं। उसे मनुष्य में सिर्फ़ एक ही जाति दिखती है- मनुष्य जाति। उसका एक ही धर्म होता है- इंसानियत। उसका एक ही कर्म होता है- सभी की भलाई। और उसका एक ही उद्देश्य होता है- ईश्वर की प्राप्ति। मुझे आज के तथाकथित उन साधु-सन्तों, मुल्ला-पादरियों पर हैरानी होती है, जो इस संकट की घड़ी में भी मानव सेवा के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। उनसे से अच्छे वे लोग हैं, जो भले ही क्रूर और क्रोधी स्वभाव के हैं, लेकिन कम-से-कम अव्यवस्था पर सवाल तो उठा रहे हैं। और सबसे भले वे हैं, जो मानव-सेवा में दिन-रात लगे हैं। हमें कम-से-कम ऐसा संसारी बनकर रहना चाहिए, तभी हमारी आने वाली पीढिय़ाँ सुरक्षित रह सकेंगी। सुखी रह सकेंगी।

हनुमान की जन्मस्थली पर विवाद

पुनीत नगरी को पर्यटन स्थल के रूप में देखना चाहते हैं लोग

राम भक्त हनुमान का जन्म कहाँ हुआ था? यह एक अहम सवाल है। कई राज्य हनुमान के जन्म स्थली का दावा कर रहे हैं। हाल में आंध्र प्रदेश ने भी हनुमान जी के जन्म का दावा किया है। इससे लगभग आधा दर्ज़न राज्यों का पहले से अपने यहाँ हनुमान जी के जन्म का दावा है। इनमें से एक झारखण्ड भी है। हालाँकि झारखण्ड के लोग जन्म के दावे के विवाद में नहीं पड़ना चाहते। वे चाहते हैं कि पूर्व की योजना की तरह ही हनुमान जन्म स्थली को पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित करके पर्यटन धर्म क्षेत्र बनाया जाए।

झारखण्ड के गुमला ज़िले से 18 किमी दूर आंजनी ग्राम स्थित पहाड़ी और मन्दिर में हनुमान जी के जन्म की मान्यता है। हालाँकि पुरातत्त्विक रूप से अभी तक हनुमान जी के जन्म का प्रमाण नहीं मिला है। लोगों की मान्यता और ऐतिहासिक महत्त्व को ही देखते हुए सरकार ने भी इस स्थल को पर्यटन के रूप में हनुमान जी के जन्मस्थली के रूप में विकसित करने की योजना बना रखी है। स्थानीय लोगों का मानना है कि भले ही देश के अन्य हिस्सों से हनुमान जी के जन्म का दावा किया जा रहा हो, लेकिन झारखण्ड के जन्म स्थली का जो ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व है, वह कम नहीं होगा। उन्हें उम्मीद है कि क्षेत्र का विकास अवश्य किया जाएगा।


आंध्र प्रदेश के दावे से फिर उठा मामला
हनुमान जी की असल जन्मभूमि को एक बार फिर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा शुरू हो गयी है। आंध्र प्रदेश ने दावा किया है कि जिस अंजनाद्री पहाड़ पर हनुमान जी ने जन्म लिया था, वह तिरुमाला के सात पहाड़ों में से एक है। प्रदेश दावे के समर्थन में पौराणिक, ज्योतिषीय और वैज्ञानिक साक्ष्य होने की बात भी कह रहा है। उधर, कर्नाटक का दावा है कि रामायण में हम्पी में जिस अंजेयांद्री पहाड़ पर भगवान राम और लक्ष्मण के हनुमान जी से मिलने का ज़िक्र है, वही उनकी असल जन्मभूमि है। उस पहाड़ के शीर्ष पर एक हनुमान मन्दिर है, जहाँ पहाड़ों से काटकर बनायी गयी भगवान राम, माता सीता की प्रतिमाएँ भी हैं और पास में ही अंजना देवी का भी मन्दिर है। इसके अलावा गुजरात के नवसारी में स्थित अंजन के पहाड़, हरियाणा का कैथल इलाक़ा, महाराष्ट्र के नासिक ज़िले में त्र्यंबकेश्वर मन्दिर से सात किलोमीटर दूर स्थित अंजनेरी आदि जगहों पर भी हनुमान जी के जन्म की बात आती है। इन सबके बीच लम्बे समय से झारखण्ड के गुमला ज़िले के आंजनी ग्राम में हनुमान जी के जन्म की बात राष्ट्रीय स्तर पर भी हुई है। लिहाज़ा झारखण्ड में भी इन दिनों इस मुद्दे पर चर्चा गर्म है।

स्थानीय लोगों की मान्यता
आंजन गाँव जंगल व पहाड़ों से घिरा है। लोगों की मान्यता है कि यहीं पहाड़ की चोटी स्थित गुफा में माता अंजनी के गर्भ से भगवान हनुमान का जन्म हुआ था। जहाँ आज अंजनी माता की मूर्ति विद्यमान है। अंजनी माता जिस गुफा में रहा करती थीं। उसका प्रवेश द्वार एक विशाल चट्टान से बन्द था। जिसे कुछ साल पहले खुदाई करके खोला गया है। कहा जाता है कि गुफा की लम्बाई 1500 फीट से अधिक है। किसी का साहस नहीं होता है कि इस गुफा में अन्दर तक जाए। क्योंकि गुफा के रास्ते ख़ूँखार जानवर व विषैले जीव जन्तु घर बनाये हुए हैं। लोगों की यह भी मान्यता है कि आंजन पहाड़ पर रामायण युगीन ऋषि-मुनि जन-कोलाहल से दूर शान्ति की खोज में आये थे। यहाँ ऋषि-मुनियों ने सप्त जनाश्रम स्थापित किया था। यहाँ सात जनजातियाँ निवास करती थीं। इनमें शबर, वानर, निषाद, गृद्ध, नाग, किन्नर व राक्षस थे। आंजन में शिव की पूजा की परम्परा प्राचीन है। अंजनी माता प्रत्येक दिन एक तालाब में स्नान कर शिवलिंग की पूजा करती थीं। वे गुफा से निकलकर हर दिन एक शिवलिंग की पूजा करती थीं। अभी भी यहाँ उस ज़माने के 100 से अधिक शिवलिंग और दर्ज़नों तालाब उपलब्ध हैं।

सरकार के पोर्टल पर भी है जन्म स्थली का ज़िक्र
झारखण्ड सरकार के पर्यटन विभाग का पोर्टल हो या गुमला ज़िला का पोर्टल, दोनों पर आंजन धाम की चर्चा है। पर्यटन विभाग की वेबसाइट पर राज्य के सभी पर्यटन स्थलों का ज़िक्र किया गया है। इसमें धार्मिक पर्यटन के नाम पर आंजन ग्राम को दिखाया गया है। इसके बारे में लिखा गया है कि यह हनुमान जी की जन्म स्थली है। इसी तरह गुमला ज़िले के पोर्टल पर पर्यटन स्थलों के रूप में यह चिह्नित है। इस पर लिखा है- ‘आंजन क़रीब गुमला से 18 किलोमीटर दूर पर एक छोटा गाँव है। गाँव का नाम हनुमान जी की माँ देवी अंजनी के नाम से लिया गया है। गाँव से चार किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी पर गुफा है, जहाँ माँ अंजनी रहती थीं। इस जगह से प्राप्त पुरातात्त्विक महत्त्व के कई वस्तुएँ हैं, जो पटना संग्रहालय में रखी गयी थीं। अंजनी गुफा के नज़दीक उसकी गोद में हनुमान के साथ माँ अंजनी की एक मूर्ति है। इसी स्थान को हनुमान जी की जन्म स्थली कहा जाता है।’


पर्यटन स्थल क्यों?
झारखण्ड के दावे को अभी तक पुरातात्त्विक दृष्टिकोण से साबित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इस दिशा में अभी तक बहुत अधिक काम ही नहीं हुए हैं। अभी तक जो प्रमाण मिले हैं, वह जन्म स्थली को साबित करने के लिए नाकाफ़ी हैं। उधर, झारखण्ड समेत आंजन ग्राम के निवासियों की मान्यता, प्राचीन कथाएँ, लोक गाथाएँ, किवदंतियाँ आदि काफ़ी मज़बूत हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि हनुमान जी का जन्म कहाँ हुआ? वे इस विवाद में पडऩा नहीं चाहते। देश के किसी भी हिस्से से हनुमान जी के जन्म का दावा किया जा रहा हो, इससे भी कोई फ़$र्क नहीं पड़ता। हमारी मान्यता और भावना को नहीं बदला जा सकता है। इससे क्षेत्र का महत्त्व कम नहीं होगा। लोग चाहते हैं कि इस क्षेत्र के विकास के लिए सरकार ने जो योजनाएँ बनायी हैं, उन्हें अमलीजामा पहनाया जाए। यह एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो।

कोरोना संकट के बाद तेज़ होगा काम
झारखण्ड को देश में खनिज सम्पदा के रूप में जाना जाता है। लेकिन यहाँ पर्यटन स्थल भी कम नहीं हैं। वर्तमान की हेमंत सरकार राज्य को देश के मुख्य पर्यटक स्थलों के मानचित्र पर लाना चाहती हैं। पूर्व की रघुवर सरकार भी यही चाहती थी। पिछले कई साल से राज्य के पर्यटन स्थलों का सर्किट बनाने का प्रयास चल रहा है। इसमें डैम, फॉल व जंगल, एडवेंचर, ईको, पुरातत्त्विक, आध्यात्मिक, धार्मिक आदि पर्यटन स्थल को तैयार करने की योजना है। पर्यटन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि पिछले एक साल से कोरोना संक्रमण के कारण पर्यटन स्थलों का विकास कार्य धीमा है; लेकिन भविष्य में योजनाओं पर काम में तेज़ी आने की उम्मीद है। जब विकास कार्य शुरू होंगे, तो आंजनधाम भी विकसित होगा।

आंजनधाम के बारे में किवदंतियाँ बहुत हैं। पुरातात्त्विक दृष्टिकोण से अभी तक जो चीज़े वहाँ मिली हैं, वो भगवान हनुमान के जन्म को साबित करने के लिए काफ़ी नहीं हैं। अभी तक इस तरह का पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं हैं। हालाँकि किवदंतियों, लोककथाओं और लोक गीत आदि के ज़रिये इस जगह का बहुत ही मज़बूत पक्ष है। पुरातत्त्व के एक पक्ष में इन बातों को भी ध्यान में रखा जाता है। इस लिहाज़ से आंजनधाम का महत्त्व तो है ही। इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना को तो आगे बढ़ाया ही जा सकता है।’’
-नरेंद्र शर्मा, पुरातत्त्ववेत्ता

 

देश में कई जगहों से हनुमान जी के जन्म का दावा है। सबका आधार अलग-अलग है। झारखण्डवासी जन्म स्थली के विवाद में नहीं पडऩा चाहते हैं। आंजन धाम आस्था और धर्म से जुड़ा है। गुमला समेत झारखण्ड की जनता मानती है कि यह क्षेत्र हनुमान जी की जन्म स्थली है। क्षेत्र का धार्मिक महत्त्व है और भारी संख्या में लोग इस आस्था में यहाँ आते हैं। इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का प्रयास राज्य की पिछली सरकार ने भी किया था और मौज़ूदा सरकार की भी यही योजना है। यहाँ विकास के काम हुए भी हैं। अब इसमें रुकावट नहीं आएगी। कोरोना संकट के बाद विकास तेज़ी से करवाने का प्रयास होगा।’’
-सुदर्शन भगत, सांसद, गुमला

 

क़ानून के सही प्रयोग और कुछ सुधारों से मिटेगा भ्रष्टाचार

आई.बी. सिंह

राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए यह कहा था कि दिल्ली से जो एक रुपया देश के किसी गाँव के लिए भेजा जाता है, उसमे से कुल 15 पैसे ही वह गाँव तक पहुँचते हैं। ऐसा नहीं है कि यह उन्हीं के शासन में होता था। यह पहले भी होता रहा है और आज भी होता है। शासक कितनी भी डींगें मार लें कि अब तो सीधे लाभार्थी के बैंक अकाउंट में रुपये पहुँच रहे हैं और कोई भ्रष्टाचार नहीं हो रहा है, परन्तु सत्यता यही है कि जो स्थिति राजीव गाँधी जी के समय में थी, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इसका सबसे बड़ा उदहारण गाँव में चलने वाले मनरेगा के निष्पादन में व्याप्त भ्रष्टाचार है। बचपन में हमें पढ़ाया जाता था कि बादशाह ने एक भ्रष्ट कर्मचारी को लहरें गिनने के काम में लगा दिया कि वहाँ वह भ्रष्टाचार नहीं कर पाएगा, परन्तु उसने लहरें गिनने के नाम पर सभी नावें रोककर पैसे कमाने शुरू कर दिये। हम लोग उसको तारीफ़ की निगाह से देखने लगते हैं। प्रेमचंद के नमक का दारोग़ा के बंशीधर को आज के हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों में 95 फ़ीसदी लोग नहीं जानते हैं। हम यह कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार हमारी नस-नस में समा गया है।

सन् 2014 के पूर्व जब पिछली सरकार थी, तब एक से बढक़र एक बड़े-बड़े घोटाले हुए, जैसे- 2जी घोटाला, कोयला खदान घोटाला, बैंक घोटाला, किंगफिशर के माल्या द्वारा किया गया घोटाला। इस सरकार के आने के बाद नीरव मोदी कांड, रोटो मेट घोटाला, यस बैंक घोटाला, पीएमसी बैंक घोटाला, यूपीपीसीएल प्रोविडेंट फंड काण्ड आदि घोटाले हुए, जिसमें एक साथ हज़ारों-लाखों करोड़ की लूट हो गयी और आम जनता बैठी देखती रह गयी। अभी हाल ही में राफेल मामले में भी मौज़ूदा केंद्र सरकार पर घोटाले का आरोप लगा है।

एक आँकड़े के अनुसार, जो बड़े-बड़े उद्योगों को लगाने के लिए और बड़े व्यापार करने के लिए, बैंकों से हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को दिये जाते हैं और जो लौटकर नहीं आते, उन्हें सरकार एनपीए अकाउंट में डाल देती है। इस प्रकार से उच्च कोटि के भ्रष्टाचार के कारण सरकार को नुक़सान होता है और जो एनपीए अकाउंट में डाल दिया जाता है, वह राशि लगभग 21 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम रक़म है। परन्तु आम आदमी को उन बड़े घोटालों की फ़िक्र अधिक नहीं होती है। वह उस भ्रष्टाचार से सीधा प्रभावित होता रहता है, जिसमें उसे अपने थोड़ी-सी आमदनी में से निकालकर हज़ार-पाँच सौ रुपये पुलिस वाले को या शिक्षा विभाग, राशन विभाग, महापालिका के अधिकारी को, बिजली विभाग के कर्मचारी को, इंजीनियर, लेखपाल, पटवारी को या किसी प्रमाण-पत्र के लिए आदि अनेक विभाग हैं, जहाँ उसे आये दिन रिश्वत देनी पड़ती है।

आम आदमी ऐसे भ्रष्टाचार से सीधा प्रभावित होता है, जहाँ गाँव के सडक़, स्कूल, अस्पताल के नाम पर पैसा आता है और लुट जाता है। यहाँ हर क़दम पर, हर मोड़ पर लहरें गिनने वाले बैठे हैं और सरकारों ने उनकी ओर देखना ही बन्द कर दिया है, अर्थात् उन्हें लूटने की पूरी छूट दे दी गयी है। पूर्व में समय-समय पर पुलिस सुधार के लिए जो सुझाव दिये गये थे, वो आज की नयी तकनीकि, नये नियम, नयी व्यवस्था में महत्त्वहीन हो चुके हैं। ऐसे में कुछ ऐसा प्रभावशाली करने की ज़रूरत है, जो आम आदमी को शीघ्रता शीघ्र इस सदियों पुरानी बीमारी को कम कर सके। उसके लिए मेरे अनुभव के आधार पर कुछ सुझाव हैं :-

क़ानून में हों क्या-क्या सुधार?
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1947 में लागू किया गया था। उसे सन् 1964 में सनाथनम समिति के रिपोर्ट की संस्तुतियों के बाद यथोचित संसोधित किया गया। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के प्रावधान और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम-1947 दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए और दोनों के बीच के भ्रम को दूर करने के लिए 1988 में दूसरा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम लागू किया गया। ‘यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन’ में लिये गये निर्णयों को लागू करने के लिए सन् 2018 में पुन: सन् 1988 के अधिनियम में कुछ महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये हैं।

2. यह कहा जा सकता है कि सन् 2018 के संशोधन के बाद आज जो भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम लागू है, उसकी सभी परिभाषाएँ’, जैसे कि सरकारी कर्मचारी (पब्लिक सर्वेंट), अनुचित लाभ (अनड्यू एडवांटेज), सन्तुष्टि क़ानूनी पारिश्रमिक (ग्रैटीफिकेशन, लीगल रेम्युनेरेशन), सार्वजनिक कर्तव्य (पब्लिक ड्यूटी) आदि शामिल हैं; वह पूर्ण रूप से पर्याप्त हैं। अब उनमें संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है।

3. सन् 2018 के संशोधन की धारा-13 में आपराधिक कदाचार (क्रिमिनल मिसकंडक्ट) की परिभाषा, जो स्थानापत्र (सब्स्टीट्यूट) किया गया है, वह भ्रष्टाचार में लिप्त रहने वाले सरकारी कर्मचारियों को लाभ पहुँचाने में सहायक है। मेरे विचार से पूर्व में सन् 1988 के क़ानून में जो आपराधिक कदाचार की परिभाषा थी, वह बहुत व्यापक व प्रभावशाली थी और उसमें भ्रष्टाचार में पकड़े जाने वाले अपराधियों के बच निकलने की सम्भावना बहुत कम थी। यह कहा जा सकता है कि धारा-13 में जो संशोधन किया गया है, वह अभियुक्तों के हित में जा सकता है।

4. इसके अतिरिक्त अधिनियम की धारा-13 में जो सज़ा का प्रावधान है, उसे भी अपराध की श्रेणी के अनुसार बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। जैसे धारा-13 में कम-से-कम 4 वर्ष की सज़ा का प्रावधान है। यह तो ठीक है; परन्तु जो अधिक से अधिक 10 वर्ष की सज़ा का जो प्रावधान है, उसे 14 वर्ष तक या आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान करने की आवश्यकता है।

5. सन् 2018 के संशोधन में धारा-17(ए) जोड़ी गयी है, उसमें उच्च पदों पर जो लोग नीति निर्णय (पॉलिसी डिसीजन) लेते हैं, उन्हें इतनी सुरक्षा दी गयी है कि उनके विरुद्ध कोई तहक़ीक़ात या जाँच शुरू होने के पहले, उनके नियुक्ति प्राधिकारी से अनुमति लेनी पड़ती है। मेरे विचार से यह अनुपयुक्त है और इस प्रावधान को तुरन्त ही हटा देना चाहिए। जब तक जाँच नहीं होगी, तब तक यह पता ही नहीं चलेगा कि उक्त अधिकारी ने लोकहित में निर्णय लिया है या किसी भ्रष्टाचार के उद्देश्य से। जब न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने के पूर्व नियुक्ति प्राधिकारी के संस्तुति की आवश्यकता है ही, तब जाँच शुरू होने के पहले संस्तुति की कोई आवश्यकता नहीं है। इस दोहरे कवच के कारण उच्च पदों पर बैठे लोगों, जो नीति निर्णय लेते हैं; को भ्रष्टाचार करने की नीयत से निर्णय लेने की पूरी छूट मिल जाएगी। मेरी जानकारी में ऐसे कुछ मामले हैं।

6. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह प्रावधान है कि अपराध चाहे पाँच रुपये के लिए किया गया हो, या पाँच लाख करोड़ रुपये के लिए; एक ही सज़ा होगी। इस अधिनियम में अधिक-से-अधिक सज़ा सात वर्ष की जेल और ज़ुर्माना हो सकता है। मात्र धारा-13 में 10 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है। मेरे विचार से इसमें संशोधन करने की आवश्यकता है।

7. इसको तीन श्रेणी में बाँटा जा सकता है। पाँच हज़ार तक की धनराशि तक के लिए किये गये अपराध को निम्न श्रेणी में रखा जा सकता है। इसी प्रकार से पाँच हज़ार या उससे ऊपर और पाँच लाख तक के धनराशि के लिए किये गये अपराध को मध्य श्रेणी के अपराध की संज्ञा में रखा जा सकता है। और पाँच लाख से ऊपर किसी भी धनराशी के लिए किये गये अपराध को उच्च श्रेणी के अपराध की संज्ञा में रखा जाना चाहिए।

8. उदहारण के लिए नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज एक्ट-1985 में कुछ इसी तरह का प्रावधान था कि यदि अपराध पाँच मिलीग्राम तथ्य के लिए किया गया हो या पाँच कुंतल के लिए; सज़ा कम-से-कम 10 वर्ष का ही था। परन्तु 2 अक्टूबर, 2001 को अधिनियम में संशोधन करके उसमें अपराध को तीन भाग में बाँटा गया, जिसमें अपराध को स्मॉल क्वांटिटी, मीडियम क्वांटिटी और कमर्शियल क्वांटिटी की परिभाषा में रखा गया और उसके अनुसार सज़ा का भी प्रावधान किया गया है। संशोधन के पश्चात् स्मॉल क्वांटिटी के लिए छ: महीने तक की सज़ा, मीडियम क्वांटिटी के लिए 10 वर्ष तक की सज़ा और कमर्शियल क्वांटिटी के लिए कम-से-कम 10 वर्ष के सज़ा का प्रावधान है। ऐसा ही प्रावधान भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में भी किया जा सकता है।

9. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के सभी अपराध को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। किसी भी अपराध को असंज्ञेय अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए।

10. वाणिज्यिक प्रतिष्ठान (कमर्शियल इस्टैब्लिशमेंट) व उससे जुड़े सभी सम्बन्धित अपराधों के लिए लाभार्थी वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के प्रमुख पदों पर आसीन, जैसे कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक (मैनेजिंग डायरेक्टर), मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) जैसे लोगों के लिए कम-से-कम 10 वर्ष की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए।

11. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के परिक्षण और उसके निस्तारण में समय बचने के लिए यह प्रावधान भी रखा जा सकता है कि वो अभिलेख, जो विवेचनाधिकारी द्वारा अभियुक्त के क़ब्ज़े से बरामद किया गया हो; उन अभिलेखों पर सम्बन्धित व्यक्ति के हस्ताक्षर को साक्ष्य रूप में इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया जाए कि उन्हें अभियुक्त को खण्डन (रिबटल) का अधिकार रहेगा।

एक ही केंद्रीय जाँच संस्था
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम से सम्बन्धित सभी अपराधों के जाँच के लिए केंद्रीय संस्थाओं में ले-देकर एक मात्र केंद्रीय अन्वेषण विभाग (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन यानी सीबीआई) ही एकमात्र प्रभावकारी जाँच संस्था (इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) है। उसको भी कभी अदालतों के आदेश से और कभी राज्य सरकारों के माँग पर, भ्रष्टाचार सम्बन्धित अपराधों के अतिरिक्त का भी काम दे दिया जाता है, जिसमें उनका काम मुख्य उद्देश्य से भटककर अन्यत्र चला जाता है।

2. इसके अतिरिक्त सीबीआई की स्थापना दिल्ली विशेष पुलिस स्थानपना अधिनियम-1965 (डेल्ही पुलिस इस्टैब्लिशमेंट एक्ट-1965) के प्रावधान के तहत किया गया है, जो स्वयं में आज तक विवादित है कि यह एक वैधानिक संस्था है या नहीं। यह विवाद अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। ऐसे में मेरे विचार से एक भ्रष्टाचार निवारण संगठन, संसद के द्वारा पारित अधिनियम से स्थापित किया
जाना चाहिए।

3. ऐसे भ्रष्टाचार निवारण संगठन के स्वतंत्र शाखाएँ होनी चाहिए, जो विभिन्न विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने, उन विभागों में होने वाले अपराधों की जाँच करने, अपराध सम्बन्धी सूचनाएँ एकत्रित करने और अपरधियों को न्यायालय में उनके द्वारा किये गये अपराधों की सज़ा दिलवाने का काम करे। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार के शिक्षा विभाग, चिकित्सा विभाग, ऊर्जा विभाग, चिकित्सा शिक्षा विभाग, उद्योग विभाग, रेलवे, केंद्रीय लोक निर्माण विभाग, जीएसटी, पेट्रोलियम आदि-आदि। ऐसे सभी महत्त्वपूर्ण विभागों के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र संवर्ग (इनडिपेंडेंट काडर) की एक सतर्कता / जाँच / सूचना विभाग होना चाहिए, जो अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सभी क़दम उठाए।

4. इन सभी विभागों के जाँच एजेंसी को पूर्ण रूप से स्वतंत्र संवर्ग के रूप में रखा जाए। परन्तु जैसा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज एक्ट-1985 में यह प्रावधान है कि विभिन्न विभागों के अधिकारियों का यह कर्तव्य होगा कि वे जाँचकर्ता या अपराध को रोकने वाले अधिकारी के कार्य में सहयोग करें। ऐसा ही प्रावधान इस अधिनियम के अंतर्गत भी होना चाहिए, जिससे दूसरे किसी भी विभाग का अधिकारी, अपराधी या अपराध को सीधे या परोक्ष रूप से प्रश्रय न प्राप्त हो सके, उसको रोके और अपराधी को बचने का भी अवसर न प्राप्त हो सके।

5. स्वतंत्र संवर्ग का एक विशेष कारण यह भी है कि आज के युग में जब हर दिन नयी-नयी तकनीकि निकल रही है, अपराधी भी उतनी ही तेज़ी से उसमें कमियाँ ढूँढकर भ्रष्टाचार का रास्ता ढूँढ लेते हैं। यदि जाँच अधिकारी का एक ही काडर होगा, तो वह अपने विभाग और क्षेत्र में अपराधी के बराबर की तकनीकि और उसकी सोच व तरीक़े का मुक़ाबला करने में सक्षम होगा। उदाहरण के लिए बिजली विभाग के एक जाँच अधिकारी को उस विभाग के तकनीकि सीखने में ही वर्षों लग जाते हैं, तब तक अपराधी चोरी और बेईमानी करता रहता है और जब तक यह सब जाँच अधिकारी को समझ में आता है, तब तक उसका तबादला किसी दूसरे विभाग में कर दिया जाता है।

6. इसके अतिरिक्त प्रभावशाली ढंग से जाँच के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी भी अपराध के लिए यथासम्भव एक ही जाँच अधिकारी या एक जाँच अधिकारी के नेतृत्व में एक ही टोली (टीम), अपराध की जाँच करे। इसका एक यह भी लाभ होगा कि सत्र परिक्षण के अन्त में त्रुटिपूर्ण या बेईमानी के जाँच के लिए उत्तरदायित्व निर्धारित किया जा सके।

7. अपराध की सूचना देने वाले की पहचान को पूर्ण रूप से गोपनीय रखा जाए। सही सूचना देने वाले को अपराधी की सज़ा होने पर ईनाम का प्रावधान होना चाहिए। इसी प्रकार से जानबूझकर या द्वेष की भावना से ग़लत सूचना देने वाले का उत्तरदायित्व निर्धारित कर उसे भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। इससे ईमानदार व्यक्ति के विरुद्ध द्वेषपूर्ण शिकायतों में कमी आएगी।

राज्य सरकारों की जाँच संस्थाएँ
1. राज्य सरकारों के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग की तो और भी हालत दयनीय है। एक दारोग़ा जो आज चौराहे पर यातायात नियंत्रण कर रहा होता है, उसे दूसरे ही दिन किसी नेता के सुरक्षा में लगा दिया जाता है। फिर किसी जाँच में लगा दिया जाता है। कितने क्षेत्रों में समाज और सरकार के विभाग बँटे हुए हैं? इसकी गिनती भी करना मुश्किल है। जैसे संगीत, शिक्षा के कई स्तर, विश्वविद्यालय की डिग्री सम्बन्धित अपराध, बिजली विभाग, चिकित्सा, शिक्षा चिकित्सा, महापालिका आदि। ऐसे में एक साधारण से पुलिस वाले से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह सभी क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त कर लेगा।

2. इसी कारणवश पुलिस जाँच में इतनी $खामियाँ रह जाती हैं कि मुक़दमे छूटने का फ़ीसद इतना रहता है कि कभी किसी के साथ न्याय हो पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार असल अपराधी के विरुद्ध आरोप पत्र ही नहीं प्रस्तुत हो पाता है और कभी-कभी पूर्ण निर्दोष के विरुद्ध आरोप-पत्र प्रस्तुत हो जाता है। यही नहीं, कई बार तो असल अपराधी साफ़-साफ़ बच जाता है और निर्दोष को सज़ा हो जाती है।

3. ऐसे में आवश्यकता है कि केंद्रीय विभागों और केंद्र सरकार से सम्बन्धित विभागों के जाँच के लिए जाँच संस्था का स्वतंत्र संवर्ग बनाकर केंद्र सरकार की ही तरह उन जाँच संस्थाओं को स्वतंत्र रूप से काम करने का अवसर दिया
जाना चाहिए।

4. इसका एक लाभ यह भी होगा कि त्रुटिपूर्ण जाँच या बेईमानी से हुई जाँच में उत्तरदायित्व निर्धारित करने में भी आसानी होगी।

विशेष लोक-अभियोजक
1. जिस प्रकार से निष्पक्ष और योग्य जाँच अपराध के लिए उत्तरदायित्व ठहराने के लिए अभियुक्त निर्धारित करना आवश्यक होता है, उसी तरह उस अभियुक्त को न्यायालय से सज़ा दिलाने के लिए एक योग्य लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार सम्बन्धी मुक़दमों को न्यायालय में प्रस्तुत करने, साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए और बहस के लिए एक स्वतन्त्र, योग्य और ईमानदार लोक-अभियोजक की भी आवश्यकता होती है।

2. अत: विशेष न्यायालयों में सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए एक स्वतंत्र विशेष लोक-अभियोजक का संवर्ग हो। इन लोक अभियोजकों को कम-से-कम 10 वर्ष तक वकालत का अनुभव होना चाहिए और इनकी सेवानिवृत्ति की आयु निर्धारित होनी चाहिए। ऐसा न हो कि एक सरकार के बनने पर सत्ताधारी पार्टी के चहेतों को लोक-अभियोजक बना दिया जाए और शासन परिवर्तन होते ही उन्हें हटा दिया जाए।

3. उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के मुक़दमों की पैरवी के लिए इसी संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजक के अधिकारियों को ही बहस और पैरवी के लिए पदोन्नति देकर ज़िम्मेदारी देनी चाहिए। इससे संवर्ग के विशेष लोक-अभियोजकों के मन में और भी मेहनत तथा ईमानदारी से काम करने की रुचि बढ़ेगी।

विशेष न्यायालय
1. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह प्रावधान है कि अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराधों के परिक्षण के लिए विशेष अदालतें होंगी, जो किसी भी अपराध का सीधा संज्ञान लेंगी। उन मुक़दमों को दण्डाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के यहाँ ले जाने की ज़रूरत नहीं होगी।

2. इसी प्रकार से वर्तमान अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि यथासम्भव प्रतिदिन के हिसाब से किसी भी परीक्षण की कार्यवाही सम्पन्न की जाएगी और दो वर्ष के अन्दर यथासम्भव परिक्षण सम्पन्न कर दिया जाएगा। और यदि दो वर्ष में कार्यवाही समाप्त नहीं हो पाती है, तो एक समय में कारण बताते हुए छ: माह तक के लिए कार्यवाही सम्पन्न करने की कोशिश की जाएगी। ऐसे विभिन्न कारणों से कभी भी क़ानून का पालन नहीं हो पाता है। इसे स$ख्ती से पालन कराने की आवश्यकता है।

3. आज की तिथि में उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विशेष अदालतें लखनऊ और गा•िायाबाद में ही हैं। इतनी दूर और इतने कम विशेष न्यायालय होने के कारण मुक़दमों की सुनवायी में बहुत कठिनायी होती है। मेरे विचार से ऊपर लिखे गयी जाँच एजेंसीज के गठन के बाद एकाएक मुक़दमों की भरमार होगी। यह अत्यंत आवश्यक होगा कि विशेष न्यायाधीशों की अदालतें प्रत्येक ज़िले में उसी तरह बनायी जाएँ जैसे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उत्पीडऩ अधिनियम के अंतर्गत विशेष न्यायाधीश की अदालतों की स्थापना प्रत्येक ज़िले में की गयी है।

4. अधिनियम में यह भी प्रावधान किया जाए कि सत्र परिक्षण के समापन के समय यदि मुक़दमा छूटता है, तो न्यायालय जाँच अधिकारी द्वारा जानबूझकर की गयी लापरवाही या किसी को लाभ पहुँचाने के लिए किये गये कृत्य के लिए उसके उत्तरदायित्व को निर्धारित करे।

निचोड़
1. भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है, जो मानव उत्पत्ति के समय से ही तक़रीबन सभी देशों में क्षेत्र, जाति, वर्ग, धर्म के आधार पर हर स्थान और संस्था में व्याप्त है। हाँ, कभी और कहीं-कहीं यह कम होता है और कहीं बहुत अधिक भी होता है। परन्तु इसको रोकने का प्रयत्न सदैव से होता रहा है। इसे रोकना शासक की इच्छाशक्ति, ईमानदारी और प्रयत्न पर निर्भर करता है। इससे हारकर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है।

2. यदि शासक और शासन एक बार ठान ले और इसे दूर करने की सोच लें, तो मानव कल्याण के लिए इससे अच्छी और कोई बात नहीं हो सकती। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए भारत में उसी तरह से क़ानून, व्यवस्था और सज़ा का प्रावधान करना चाहिए जैसा कि नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेज के अपराधियों और बाल यौन शोषण करने वाले अपराधियों के साथ किया जा रहा है।

3. ऑस्टिन का सिद्धांत है कि प्रतिबन्ध या भय या कठोरता ही ऐसा उपाय है, जिससे अपराध को कम किया जा सकता है। भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए किसी भी उदारता का परिचय नहीं देना चाहिए। सरकार प्रत्येक वर्ष आम जनता के कल्याण के लिए एक-से-एक कर कई योजनाएँ बनाती है और उन्हें लागू करने के लिए कार्यपालिका पर छोड़ देती है। यदि भ्रष्टाचार से कठोरता से योजनाबद्ध तरीक़े से नहीं निपटा जाएगा, तो सरकार के जन-कल्याण के सारे प्रयत्न विफल होते रहेंगे।

4. मैं जो कुछ भी सुझाव दे सकता हूँ, वो सभी मेरे अपने अनुभवों पर आधारित हैं। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरे सुझाव सर्वोत्तम हैं। परन्तु यदि सरकार की इच्छा शक्ति भ्रष्टाचार को कम करने की है, तो इन पर जन-हित और देश-हित में विचार किया जा सकता है।

मुझे आशा है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामले में जो जीरो टॉलरेंस (शून्य सहनशीलता) की बात कहती है; उसे लागू भी करेगी।

(लेखक लखनऊ उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं समाजसेवी हैं।)

तेज़ी से बेरोज़गार हो रहीं महिलाएँ

रजनी क़रीब सात-आठ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक गाँव से दिल्ली आयी और पूर्वी दिल्ली की एक ऐसी बस्ती में रहने लगी, जहाँ अधिकांश लोग दिहाड़ी मज़दूर किराये के छोटे कमरों में रहते हैं। अलग से कोई रसोई की व्यवस्था नहीं, शौचालय भी सामुदायिक यानी कई परिवार एक ही शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। रजनी का पति गारमेंट्स बनाने की कम्पनी में कपड़े सिलने का काम करता था। रजनी ने अपनी बस्ती से दो कि.मी. की दूरी पर स्थित अपार्टमेंट्स में बर्तन धोने और सफ़ाई करने का काम करके और क़रीब 8,000 रुपये महीने कमा लेती थी। उसकी इस आय का अधिकांश हिस्सा उसके चार बच्चों को अच्छी शिक्षा व भोजन पर ख़र्च होता था।

लेकिन जब कोविड-19 महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए बीते साल 24 मार्च को देश भर में तालाबंदी (लॉकडाउन) की गयी, तो सरकारी आदेश के मद्देनज़र उसे काम पर जाना बन्द कर करना पड़ा। कुछ दिनों के बाद वह घरों से अपना पैसा लेने के लिए आयी और उसके बाद वह अपने परिवार के साथ अपने गाँव लौट गयी। एक साल हो गया वह दिल्ली नहीं लौटी। ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले के रामाबहल गाँव की एक युवा शिक्षित महिला को दिल्ली में मार्च, 2020 में नौकरी मिली। लेकिन तालाबंदी के कारण उसे बताया गया कि हालात सही होने पर आने के लिए सूचित कर दिया जाएगा। नौकरी पक्की नहीं थी। लेकिन युवती को उम्मीद थी कि हालात सामान्य होने पर उसे फोन आएगा। जुलाई में वह ओडिशा अपने गाँव लौट गयी।

यही नहीं, उसकी आठ-नौ सहेलियाँ, जो अन्य शहरों में काम करने गयी थीं; भी तालाबंदी की वजह से गाँव लौट गयीं। अब सभी बेरोज़गार हैं। ऐसे सैंकड़ों क़िस्से मिल जाएँगे, जो बताते हैं कि बीते साल कोविड-19 की पहली लहर ने देश में रोज़गार के लैंगिक पहलू को किस क़दर प्रभावित किया है। कोविड-19 की वजह से तक़रीबन सभी देशों में तालाबंदी की गयी। विभिन्न अध्ययन व आँकड़े बताते हैं कि कोविड-19 से महिलाओं के रोज़गार पर ख़राब प्रभाव पड़ा है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान महिलाओं को सबसे पहले नौकरी गँवानी पड़ी। नौकरियों में उनकी वापसी देर से हुई, नौकरी खोने वाली सभी महिलाओं को फिर नौकरी नहीं मिली। तालाबंदी में बच्चों के दैनिक देखभाल केंद्र (डे-केयर सेंटर) और विद्यालय बन्द होने के चलते भी कई महिलाओं को न चाहते हुए भी नौकरी छोडऩी पड़ी।

दरअसल इतिहास बताता है कि जब भी आर्थिक संकट आता है, चाहे वह महामारी या ग़लत औद्योगिक-आर्थिक नीतियों के कारण हो; उसकी क़ीमत महिलाएँ अधिक चुकाती हैं। भारत में बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ अनोपौचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इसमें कृषि, निर्माण कार्य, कपड़ा उद्योग, हथकरघा, खुदरा क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, घरेलू कार्य आदि शमिल हैं। नगरों, महानगरों में घरों में सफ़ाई, बर्तन धोने, भोजन बनाने आदि का काम भी अधिकतर महिलाएँ ही करती हैं। तालाबंदी में अधिकांश की नौकरी चली गयी। शहरी शिक्षित रोज़गार महिलाओं को भी इस महामारी ने प्रभावित किया है। भारत में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पहले ही चिन्ता का विषय है और मौज़ूदा महामारी ने इस मुद्दे को और गम्भीर बना दिया है। साथ ही नीति निर्माताओं के समक्ष रोज़गार में लैंगिक फ़ासले को पाटने व अन्य विसंगितयों को दूर करने के लिए अल्पकालीन लक्ष्य नहीं, बल्कि दीर्घकालीन लक्ष्य हासिल करने के वास्ते नीतियाँ बनाने का एक अवसर भी दिया है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, भारत में कार्य बल यानी लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी सन् 2010 में 26 फ़ीसदी थी, जो गिरकर सन् 2019 में 21 फ़ीसदी रह गयी। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॅमी ने एक अध्ययन कराया, जिससे पता चला कि बीते साल नवंबर, 2020 में नौकरियों में शहरी महिलाओं की हिस्सेदारी केवल सात फ़ीसदी रह गयी है। सन् 2019 में शहरों में 9.7 फ़ीसदी महिलाएँ काम कर रही थीं। तालाबंदी के कारण यह संख्या घटकर 7.4 फ़ीसदी रह गयी। नवंबर, 2020 में यह 6.9 फ़ीसदी रह गयी। इस अध्ययन के अनुसार, काम में महिलाओं की कम हिस्सेदारी के कारण भारत में काम करने वाले लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा नहीं हो पा रहा है।

सन् 2016 में यह संख्या 46 करोड़ थी और अब 40 करोड़ है। यदि भारत में रोज़गार-दर चीन या इंडोनेशिया के बराबर होती, तो यह संख्या 60 करोड़ के आसपास होती। भारत में प्रवासी मज़दूरों के बारे में बात करते ही सामान्य तौर पर पुरुष मज़दूरों की तस्वीर सामने आ जाती है। यह हक़ीक़त है कि प्रवासी मज़दूरों में 80 फ़ीसदी पुरुष हैं। लेकिन महिला प्रवासी मज़दूरों की संख्या में सन् 2001 से लेकर सन् 2011 के दरमियान दो गुना इज़ाफ़ा हुआ। मगर तालाबंदी में व बाद में उनकी दयनीय हालत पर कितनी चर्चा हुई। सम्भवत: अभी भी घर चलाने की प्रमुख ज़िम्मेदारी पुरुष की ही मानी जाती है। महिला का काम घर व बच्चे सँभालने का मान लिया गया है। इस तालाबंदी में एकल माँ (सिंगल मदर) की आर्थिक हालत क्या हो चुकी होगी? यह भी चर्चा का विषय है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 1.3 करोड़ घर एकल माँएँ ही चला रही हैं। इसके अलावा 3.2 करोड़ एकल माँ अपने रिश्तेदारों के परिवारों में हैं। ज़ाहिर है कि आर्थिक आघात ने इन्हें भी प्रभावित किया होगा।

आर्थिक झटके श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी को अनुपातहीन प्रभावित करते हैं। युवा महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 10.7 फ़ीसदी थी, मगर तालाबंदी के पहले महीने अप्रैल में 13.9 फ़ीसदी महिलाओं की नौकरी चली गयी। बता दें कि नवंबर, 2020 तक जिन पुरुषों की नौकरी चली गयी थी, उनमें 30 फ़ीसदी से अधिक को काम मिल चुका है। लेकिन महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कम हुआ है। नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की गयी, उसके बाद क़रीब 24 लाख महिलाओं की नौकरी चली गयी, जबकि दूसरी तरफ़ नौ लाख पुरुष नौकरी बाज़ार (जॉब मार्केट) में दाख़िल हो गये। यही नहीं, देश में कोरोना-काल के दौरान कामकाजी महिलाओं पर घरेलू काम का बोझ बढ़ा है।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की ओर से तैयार की गयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पहले जहाँ महिलाएँ दो घंटे का समय खाना बनाने में लगाती थीं, वहीं अब कर्नाटक में यह समय 20 से 62 फ़ीसदी और राजस्थान में 12 से 58 फ़ीसदी तक बढ़ गया है। घर से ही दफ़्तर का काम करने यानी घर में अधिक समय तक रहने के कारण और बच्चों के भी घर पर रहने के चलते महिलाओं पर काम का बोझ अधिक बढ़ा है। यही नहीं घरेलू कामगारों के नहीं आने से भी वे सब काम अधिकतर महिलाओं को ही करने पड़े। इस रिपोर्ट के मुताबिक, तालाबंदी और उसके बाद के महीनों में 61 फ़ीसदी पुरुषों की नौकरियाँ बची रहीं और सि$र्फ सात फ़ीसदी को नौकरी खोनी पड़ी। जबकि महिलाओं के मामले में सिर्फ़ 19 फ़ीसदी की ही नौकरी बचा रही, जबकि 47 फ़ीसदी महिलाएँ ऐसी रहीं, जिन्हें नौकरी खोनी पड़ी।

तालाबंदी में नौकरी खोने वाले पुरुषों में कुछेक ने बाद में अपना काम शुरू कर दिया, तो कुछ अन्य कामों में लग गये; लेकिन नौकरी, दिहाड़ी खोने वाली महिलाओं के लिए ऐसे विकल्प पुरुषों की तुलना में बहुत ही कम हैं। इसी तरह शादीशुदा महिला एक बार रोज़गार से बाहर हो जाती है, तो उसके काम पर लौटने के अवसर बहुत कम हो जाते हैं, जबकि एक शादीशुदा पुरुष के लिए नौकरी से बाहर होने के बाद फिर से काम हासिल करने वाले अवसर महिलाओं की तुलना में अधिक होते हैं। उन्हें उन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता, जो वे अक्सर झेलती हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की महिलाओं पर गम्भीर असर डाला है। सबसे अधिक नुक़सान नौकरीपेशा महिलाओं को हुआ है। इस महामारी के कारण दुनिया भर में क़रीब 6.4 करोड़ नौकरीपेशा महिलाओं को नौकरी गँवानी पड़ी यानी हर 20 कामकाजी महिलाओं में से एक को।

बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की एक हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है। इसमें बताया गया है कि महिलाओं पर अधिक असर इसलिए पड़ा, क्योंकि सबसे अधिक नुक़सान महिला कर्मचारियों की अधिकता वाले खुदरा (रिटेल), उत्पाद (मैन्युफैक्चरिंग) व सेवा क्षेत्र पर पड़ा है। इनमें क़रीब 40 फ़ीसदी महिलाएँ काम करती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं की नौकरी को लेकर एक जैसा स्वरूप देखने को मिला है। लगभग हर देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक नौकरी खोयी है। ऐसे शीर्ष-10 देशों में अमेरिका, कनाडा, स्पेन और ब्राजील भी हैं।

अमेरिका में 2019 में कार्य बल में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी और उस दशक में ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन 2020 में कोरोना महामारी के चलते जब देश में तालाबंदी हुई, तो नौकरी गँवाने वालों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी। श्रम बाज़ार या नौकरी बाज़ार में महिलाओं को फिर से काम मिलना आसान नहीं होता। नौकरी बाज़ार और समाज के नियम लैगिंक पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं। यहाँ महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को प्राथमिकता और महत्त्व दिया जाता है।

नीलसन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 84 फ़ीसदी से भी अधिक पुरुष बच्चों की देखभाल को महिलाओं की ज़िम्मदारी मानते हैं। यह मानसिकता कमोवेश दुनिया के अधिकांश हिस्सों में देखी जा सकती हैं, इसके फ़ीसदी में फ़$र्क हो सकता है; पर लिंग के आधार पर भेदभाव व्याप्त है। इस समय कोरोना महामारी की दूसरी ख़तरनाक लहर से गुज़र रहे भारत और उसके विभिन्न राज्यों में कहीं आशिंक, तो कहीं पूर्ण लॉकडाउन लगा हुआ है, इस दौरान महिला रोज़गार पर क्या असर हुआ होगा? इसका ख़ुलासा आने वाले वक़्त में होगा और प्रभाव भी सामने आएँगे।