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जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक हलचल

क्या मोदी सरकार इस केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव करवाने की तैयारी में है?

जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 से पहले का दृश्य याद कीजिए; वहाँ अचानक सेना की संख्या बढ़ायी गयी। अब क़रीब ढाई साल बाद केंद्र सरकार ने पिछले दिनों ऐसा ही किया है। चर्चा है कि जम्मू-कश्मीर में कुछ ‘बड़ा होने वाला है। इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को एक से ज़्यादा बार दिल्ली बुलाया गया और कुछ महत्त्वपूर्ण बैठकें हुईं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का भी हस्तक्षेप रहा, लिहाज़ा इन्हें अहम माना जा सकता है। जो बड़ी घटना जून के तीसरे हफ़्ते हुई वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जम्मू-कश्मीर के ‘गुपकार गठबन्धन और कांग्रेस सहित अन्य नेताओं के साथ दिल्ली में बैठक थी। केंद्र शासित प्रदेश में परिसीमन की प्रक्रिया जारी है और चुनाव करवाने के अलावा राज्य के एक और विभाजन की बात भी राजनीतिक $िफज़ाँ में हैं, भले केंद्र इससे इन्कार कर रहा हो। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा सबसे सम्भावित विकल्प माना जा रहा। वैसे पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए केंद्र को संसद की मंज़ूरी लेनी अनिवार्य होगी।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद स्थानीय ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव में कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों का गुपकार गठबन्धन हावी रहा था। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि भाजपा परिसीमन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर का सीटों के आधार पर फेरबदल करना चाहती है, ताकि जम्मू का प्रतिनिधित्व (विधानसभा में) कश्मीर से ज़्यादा हो सके। विपक्ष में रहते हुए भाजपा इसकी हमेशा माँग करती रही है। यहाँ तक कि वो जम्मू से भेदभाव का आरोप लगाते हुए हाल के दशकों में आन्दोलन भी करती रही है। जम्मू-कश्मीर को लेकर भाजपा का रुख़ हैरानी वाला रहा है। जिस पीडीपी पर वह 20 साल तक अलगाववादियों के प्रति ‘सॉफ्ट कॉर्नर रखने का आरोप का आरोप लगाती थी, उसी के साथ उसने सरकार बनायी। दो साल से ज़्यादा चली इस सरकार में भाजपा ने जम्मू वाले मसले और परिसीमन को लेकर कुछ नहीं किया। अब जबकि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार अनुच्छेद-370 ख़त्म कर चुकी है और कश्मीर के हिस्से से लद्दाख़ के रूप में एक अलग केंद्र शासित राज्य बनाया जा चुका है, भाजपा अब परिसीमन के सहारे जम्मू को राजनीतिक और जनसंख्या के आधार पर कश्मीर से बड़ा करने की कोशिश में है।

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। कश्मीर में निश्चित ही ऐसी किसी भी कोशिश का विरोध होगा। वैसे भी अभी तक कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को स्वीकार नहीं किया गया है। भले इसे लेकर खुला विरोध नहीं हुआ है, लेकिन इसका एक कारण पिछले महीनों में वहाँ सेना की बड़ी संख्या होना भी है। दूसरे कोविड-19 के चलते घाटी में ज़िन्दगी का ठहर जाना है।

श्रीनगर में वरिष्ठ पत्रकार माज़िद जहाँगीर ने ‘तहलकाÓ से फोन पर बातचीत में कहा- ‘जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत से बाहर जैसी प्रतिक्रिया हुई है, उसे देखते हुए केंद्र सरकार यहाँ ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियों को शुरू करना चाहती है, ताकि कश्मीर को लेकर दुनिया में एक सकारात्मक सन्देश जाए और यह दिखे कि यहाँ स्थिति सामान्य है। चूँकि इसके लिए स्थानीय मुख्य धारा के दलों को साथ लेना ज़रूरी है, उनसे बातचीत का दौर शुरू हुआ है ताकि यह न लगे कि दिल्ली से कश्मीर पर फ़ैसले थोपे जा रहे हैं। यह तो ज़ाहिर ही है कि इन दलों को साथ लिए बिना कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होना सम्भव नहीं।

परिसीमन पर सवाल
परिसीमन के पहले क़दम के रूप में सरगर्मी तब तेज़ हुई, जब 6 मार्च, 2020 को जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग का एक साल के लिए गठन किया गया था। सेवानिवृत्त जज रंजन प्रकाश देसाई को इसका चेयरमैन नियुक्त किया गया था। परिसीमन आयोग ने केंद्र शासित प्रदश के सभी 20 उप आयुक्तों से एक रिपोर्ट माँगी। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से 18 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में कमीशन की पहले बैठक और उसके बाद उप आयुक्तों से रिपोर्ट माँगने में कमीशन को गठन के बाद 15 महीने का लम्बा वक़्त लग गया। दरअसल प्रदेश में विधानसभा की सीटें बढ़ाना भी लम्बे समय से प्रस्तावित रहा है। जानकारी के मुताबिक, कुल सात नयी विधानसभा सीटों में से चार सीटें जम्मू और तीन कश्मीर में बढ़ेंगी। हाल में जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा की केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से दिल्ली में बैठकें हो चुकी हैं। इन बैठकों में ख़ुफ़िया ब्यूरो (आईबी) के प्रमुख अरविन्द कुमार, रॉ प्रमुख समंत कुमार गोयल, जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव ए.के. मेहता, जम्मू-कश्मीर डीजीपी दिलबा$ग सिंह और राज्य की डीजीपी सीआईडी रश्मि रंजन स्वैन और अन्य अधिकारी भी उपस्थित रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला परिसीमन का विरोध तो नहीं कर रहे; लेकिन इसके अपनायी गयी प्रक्रिया का सख़्त विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे राज्य की जनता की लड़ाई लड़ते रहेंगे। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने फोन पर ‘तहलका से बातचीत में कहा- ‘परिसीमन आयोग का गठन पुनर्गठन क़ानून के तहत किया गया है लिहाज़ा यह गै़र-क़ानूनी है; क्योंकि इस क़ानून को चुनौती वाली याचिका पहले से सर्वोच्च न्यायालय में अभी लम्बित है। जब तक उस पर फ़ैसला नहीं आ जाता, तब तक इस तरह का गठन क़ानूनी रूप से अमान्य है। हालाँकि पार्टी ने केंद्र की बुलायी बैठकों में हिस्सा लेने की हामी ज़रूर भर दी, ताकि यह सन्देश न जाए कि इतनी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया में उसकी भागीदारी नहीं रही। परिसीमन के बाद केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जाति को पहली बार जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा। इसका कारण यह है कि परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सात विधानसभा सीटों की नामावली (रोस्टर) बदल जाएगी। वैसे तो नियम यह कहता है कि हर दो विधानसभा चुनाव के बाद नामावली बदली जानी चाहिए। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में अब तक चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं; पर नामावली को इस दौरान कभी संशोधित नहीं किया गया।

यहाँ भी दिलचस्प यह है कि आरक्षित अनुसूचित जनजाति की यह सभी सीटें जम्मू में ही हैं। इनमें सांबा, चनैनी, रायपुर दोमाना और छंब हैं। चूँकि यह अब आरक्षित सीटों के दायरे से बाहर आनी हैं, आरक्षण में आने वाली सीटों को लेकर राजनीतिक दलों में सक्रियता बढ़ी हुई है। जम्मू-कश्मीर प्रशासन यह संकेत दे रहा है कि परिसीमन प्रक्रिया में पहले से बनी विसंगतियाँ दूर की जा सकती हैं। इसमें ऐसे विधानसभा क्षेत्रों पर भी नज़र रहेगी, जो एक से अधिक ज़िलों में फैले हों। साथ ही ऐसी तहसीलें, पटवार हलक़े, राजस्व गाँव भी, जो एक से ज़्यादा विधानसभा हलक़ों में फैले हों। परिसीमन में प्रवासियों की संख्या भी देखी जाएगी। पूर्वी पाकिस्तान से बँटवारे के समय भारत के इस हिस्से में आये लोगों को भी विधानसभा के लिए मताधिकार दिया जाना है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों का जनसंख्या के लिहाज़ से बड़ा असन्तुलन है।

कई सीटें एक लाख मतदाताओं वाली हैं, तो कुछ में 50,000 के आसपास मतदाता हैं। इस बड़े अन्तर को पाटा जा सकता है। इसकी पूरी जानकारी परिसीमन आयोग में उप अ आसपास युक्तों से माँगी है। ज़ाहिर है परिसीमन की प्रक्रिया बहुत संवेदनशील रहने वाली है। जम्मू के प्रतिनिधि, ख़ासकर भाजपा, इस सम्भाग को अधिक सीटों की माँग करते रहे हैं, जबकि कश्मीर के प्रतिनिधि (मुख्य अनुच्छेद की कश्मीरी पार्टियाँ) जनसंख्या संतुलन में परिवर्तन करके कश्मीर को कमज़ोर करने की साज़िश का आरोप लगाते रहे हैं। यह लड़ाई पहले से चल रही है और यदि परिसीमन में बड़ा उलटफेर हुआ, तो ज़ाहिर है इससे कश्मीर में बहुत शोर मचेगा, जो अनुच्छेद-370 और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का पहले से मुखर विरोध कर रहा है। यहाँ तक की राष्ट्रीय दल कांग्रेस में भी केंद्र के इन फ़ैसलों से बड़े स्तर पर असहमति है। इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम का कहना है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए। चिदंबरम ने कहा- ‘कांग्रेस का शुरू से रुख़ रहा है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए, इसमें किसी भी सन्देह या अस्पष्टता नहीं रहनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को दोबारा लागू किया जाना चाहिए।


सैनिकों की संख्या बढ़ायी
जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार परदे के पीछे ख़ासी सक्रिय है। ट्रैक-2 पर कूटनीति जारी है। अब तो जम्मू-कश्मीर के नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी की बैठक भी हो चुकी है। इस सारी क़वायद के बीच जून के मध्य में जब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी लम्बे समय के बाद दिल्ली पहुँचे, जिसके बाद चर्चाओं को और बल मिला। लेकिन इस दौरान जो सबसे बड़ा घटनाक्रम हुआ है, वह घाटी में अचानक सुरक्षा बलों की संख्या बढऩा है।
‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, मई और जून में सुरक्षा बलों की 50 से 60 के बीच कम्पनियों को जम्मू-कश्मीर रवाना किया गया है। अगस्त, 2019 में जब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा संसद में बिल के ज़रिये ख़त्म किया गया था, तब भी सूबे में बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती की गयी थी। हालाँकि 2020 में कोरोना महामारी के चलते हुई तालाबंदी के दौरान इनकी संख्या कम कर दी गयी थी। अब अचानक जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती ने चर्चाओं को जन्म दिया है।

घाटी की मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का रुख़ पहले बहुत सख़्त था और वो दिल्ली से कोई बातचीत करने के हक़ में नहीं थीं; लेकिन धीरे-धीरे उनका रुख़ कुछ नरम हुआ है। परिसीमन के सख़्त विरोधी रहे पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के सर्वेसर्वा फ़ारूक़ अब्दुल्ला, जिनका घाटी में अन्य किसी भी नेता के मुक़ाबले जनता के बीच सबसे ज़्यादा असर है; भी जून के दूसरे हफ़्ते परिसीमन को लेकर नरम पड़े। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा कि उनकी पार्टी परिसीमन के ख़िलाफ़ नहीं है और केंद्र से बातचीत के विकल्प खुले रख रही है। इसके बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने 24 जून की बैठक की घोषणा की।

जानकारी के मुताबिक, परिसीमन आयोग को सितंबर के आख़िर तक अपना काम पूरा करने की सलाह दी गयी है। यदि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विधानसभा का दर्जा बहाल करने का मन बनाती है या वहाँ केंद्र शासित व्यवस्था के तहत ही चुनाव करवाने की सोच रही है, तो ऐसा दिसंबर और मार्च से पहले या बाद में ही किया जा सकता है। यह चार महीने बर्फबारी के कारण वहाँ चुनाव सम्भव नहीं होते। सेना की संख्या बढ़ाने का एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि आतंकवादियों के चुनाव प्रक्रिया में खलल डालने का ख़तरा हो। नई दिल्ली में यह आम विचार है कि पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और आतंकवादी कश्मीर में चुनाव नहीं होना देना चाहेंगे। नई दिल्ली में यह भी गहरे से महसूस किया जा रहा है कि सरकार और जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच संवाद बिल्कुल ख़त्म हो गया है तथा वहाँ अविश्वास और गहरा हुआ है। भले उप राज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) राजनीतिक पृृष्ठभूमि के हैं, वह चुने हुए स्थानीय विधायक की तरह जनता से संवाद नहीं रख सकते। सुरक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है। डीडीसी के चुनाव के बाद अब मोदी सरकार विधानसभा के चुनाव को लेकर गम्भीर दिख रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कश्मीर को लेकर जो कहा जाता है, चुनाव करवाकर उस पर भी विराम लगाया जा सकता है। वर्तमान स्थिति पाकिस्तान के बहुत अनुकूल है और उसने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का राग ख़ूब अलापा है। पाकिस्तान कश्मीरी अवाम पर ज़ुल्म की बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर करता है, लिहाज़ा इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचता है। चाहे इन आरोपों में उतना सच न हो। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सन् 2014 के बाद भारत की यह आम छवि बन रही है कि मुसलामानों से भेदभाव किया जा रहा है। चूँकि कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, इसलिए वहाँ पाकिस्तान को प्रोपेगंडा करना और आसान हो जाता है।

कश्मीर में राजनीतिक सक्रियता
इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला तो दिल्ली पहुँचे ही, श्रीनगर में भी महीनों से ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियाँ अचानक तेज़ हुई हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और माकपा के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों ने एक से ज़्यादा बार बैठकें की हैं। यही नहीं, कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का विरोध करने और इसकी बहाली की माँग के लिए बने गुपकार गठबन्धन की बैठकें शुरू हुई हैं।
कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर में ख़ासा प्रभाव रखती है और उसकी 2002 में पीडीपी के नेतृत्व और 2005 में अपनी गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार रही है। हाल के महीनों में कांग्रेस भाजपा और मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर को लेकर रुख़ के ख़िलाफ़ रही है। इसके बावजूद कांग्रेस ने 24 जून की बैठक में हिस्सा लेकर जम्मू-कश्मीर में अपनी सक्रियता जता दी है। इसी दौरान पीडीपी के वरिष्ठ नेता सरताज मदनी, जो महबूबा मुफ़्ती के नज़दीकी रिश्तेदार भी हैं; की अचानक रिहाई और अगले ही दिन पूर्व शिक्षामंत्री नईम अख़्तर की नज़रबंदी समाप्त करने के फ़ैसले भी हुए, जिससे राजनीतिक माहौल को पुनर्जीवित करके के ठोस संकेत मिले। विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर सरताज मदनी और अख़्तर को 21 दिसंबर, 2020 को अहतियात के तौर पर हिरासत में लिये गये थे।

श्रीनगर में 22 जून को गुपकार की बैठक में आख़िर फ़ैसला किया गया कि उसके सभी नेता, जिन्हें दिल्ली से 24 की बैठक में शामिल होने के लिए न्यौता आया है; इस बैठक में शामिल होंगे। इससे पहले पीडीपी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने बैठक में शामिल होने से इन्कार कर दिया था। बैठक के बाद नेशनल कांग्रेस के प्रमुख फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ सर्वदलीय बैठक में कश्मीर के सभी नेता शामिल होंगे। फ़ारूक़ ने कहा कि हम सभी सर्वदलीय बैठक में अपनी बात प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के सामने रखेंगे। केंद्र की ओर से बैठक का कोई भी एजेंडा स्पष्ट नहीं किया गया है। बता दें इससे पहले जम्मू-कश्मीर के चार मुख्यमंत्रियों सहित 14 नेताओं को न्यौता दिया गया था, जिसमें आठ पार्टियाँ- एनसी, पीडीपी, भाजपा, कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी, माकपा, पीपुल्स पार्टी और पैंथर्स शामिल थीं।

नेतृत्व का इम्तिहान

FILE PHOTO: India's Prime Minister Narendra Modi removes his face mask to address a gathering before flagging off the "Dandi March", or Salt March, to celebrate the 75th anniversary of India's Independence, in Ahmedabad, India, March 12, 2021. REUTERS/Amit Dave

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने खड़ी हो चुकी हैं ढेरों चुनौतियाँ

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जनता को जिस मुसीबत से गुज़रना पड़ा, उसने देश की शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों की विश्वसनीयता को कमज़ोर किया है। ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोगों, गाँव-गाँव जलती अनेक चिताओं और नदियों में तैरते शवों ने एक नयी, लेकिन दु:ख भरे भारत की तस्वीर सामने रखी। ज़ाहिर है इस नाकामी का सबसे बड़ा नुक़सान शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी को हुआ है। हाल के हफ़्तों में कई सर्वे रिपोट्र्स में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को बड़ा नुक़सान होता दिखाया गया है। ऐसे में ये कयास लगने लगे हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक मोदी को अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए बड़ी चुनौतियाँ झेलनी पड़ सकती हैं। एक नेता के रूप में मोदी के सामने महँगाई और मंदी से लेकर बेरोज़गारी तक बड़ी चुनौतियाँ हैं। इन्हीं हालात पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश और देश के बाहर पिछले एक महीने में किये गये सर्वे बताते हैं कि पिछले सात साल की सत्ता के दौरान पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में जबरदस्त कमी आयी है। वह अभी भी देश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता हैं; लेकिन उनकी लोकप्रियता को ग्रहण लगाने वाली वर्तमान चुनौतियाँ आने वाले समय में राजनीतिक रूप से ज़्यादा विकराल हो सकती हैं। अगले साल छ: राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा का मज़बूत $िकला बना उत्तर प्रदेश भी शामिल है; जिसमें हाल के स्थानीय निकाय के चुनावों में पार्टी की लोकप्रियता में बड़ी दरार पड़ी है। हाल की कुछ बड़ी असफलताओं ने प्रधानमंत्री की धार्मिक-राष्ट्रवादी वाली छवि से क़द्दावर हुई विश्वसनीयता को तो नुक़सान पहुँचाया ही है, कोरोना की दूसरी लहर के असाधारण दौर में देश भर में लोगों ने ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोगों और जलती हज़ारों चिताओं को देखा, जिसने पहली बार जनता के मन के भीतर यह सन्देह पैदा किया है कि मोदी उनकी हर समस्या का हल नहीं हैं, जिससे उनकी छवि को बट्टा लगा है।

सरकार और भाजपा जानते हैं कि कोरोना प्रबन्धन में गम्भीर नाकामी से बड़ा नुक़सान हुआ है; लिहाज़ा इसकी भरपाई ‘धन्यवाद मोदी जी वाले भारी भरकम ख़र्च के द्वारा ‘मुफ्त कोरोना वैक्सीन जैसे विज्ञापनों से करने की कोशिश हुई है। सात साल में जो दूसरी बड़ी बात भाजपा में देखने को मिली है, वह प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के विख्यात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच खटपट की बड़े स्तर पर हो रही चर्चा है। अब सवाल यह है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में अगले 24 महीनों में होने वाले घटनाक्रम मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री का चेहरा बनने में रोड़ा बन सकते हैं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का क्या रोल रहेगा? यह भी बहुत महत्त्वपूर्व है, जो हाल में ‘दिल्ली के विरोधÓ के बावजूद योगी की ढाल बनकर खड़ा होता दिखा है।

भाजपा के भीतर हाल के महीनों में ऐसी कुछ चीज़ो हुई हैं, जो खुलकर बाहर नहीं आयी हैं। यह कहना नितांत ग़लत है कि भाजपा के भीतर एक नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी का बिल्कुल भी विरोध नहीं है। सात साल के बाद भाजपा के भीतर हलचल है, जो बाहर आने के लिए ‘उचित समय और ‘खिड़की ढूँढ रही है। कुछ बड़े मंत्रियों से लेकर कुछ बड़े नेता शीर्ष नेतृत्व की शैली से असहमत हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्तों को लेकर हाल के हफ़्तों में कुछ चीज़ो मीडिया में आयी हैं, जो पूरी तरह ग़लत नहीं हैं और इशारा करती हैं कि भाजपा के भीतर कुछ पक रहा है। ऐसा नहीं होता, तो हर दूसरे दिन उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बदले जाने की बातें सामने नहीं आतीं। यहाँ तक कि वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह तक का नाम गाहे-ब-गाहे उछलता रहता है। मोदी सरकार में वरिष्ठ मंत्री और आरएसएस के बहुत प्रिय नितिन गडकरी के प्रधानमंत्री बनने के नारे तो 23 जून को हिमाचल के कुल्लू में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की उपस्थिति में तब लग गये, जब गडकरी सूबे के दौरे पर आये हुए थे।

देश के इतिहास पर नज़र डालें, तो दोबारा सत्ता में आये कमोवेश हर प्रधानमंत्री, चाहे वह नेहरू हों या इंदिरा गाँधी हों या मनमोहन सिंह, 7-8 साल के बाद उनके सामने विश्वसनीयता की गम्भीर दिक़्कतें आनी शुरू हुईं। यह वो समय होता है, जब नाराज़ हो रही जनता विपक्ष के सरकार पर आरोपों के प्रति सहानुभूति दिखाने लगती है और उसे यह आरोप सही लगने लगते हैं। भले भाजपा स्वीकार न करे, मगर प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी यह दिक़्क़त आती दिख रही है। देश में ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। पेट्रोल-डीजल की क़ीमतें आम आदमी के बस से बाहर जा चुकी हैं। अर्थ-व्यवस्था का बैंड बजा पड़ा है। जीडीपी माइनस में चल रही है। अनियोजित तालाबंदी (लॉकडाउन) के बाद बेरोज़गार हुए 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है, जिससे बेरोज़गारों की क़तार और लम्बी हो गयी है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार ने लगभग असंवेदनशील अंदाज़ में काम किया है। किसान आन्दोलन आज भी जारी है और सरकार समर्थक मीडिया और शोशल मीडिया किसानों को आज भी ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी बता रहा है। अर्थ-व्यवस्था की हालत यह है कि हमारी तुलना बांग्लादेश से होनी लगी है और उसके आर्थिक प्रबन्धन को हमसे बेहतर बताया जा रहा है। मनमोहन सरकार को तो 2011 में स्वयंसेवी अन्ना हजारे के व्यापक प्रभाव वाले जन-आन्दोलन का सामना करना पड़ा था; मोदी ऐसे किसी भी आन्दोलन से बचे रहे हैं। विपक्ष भी सुस्त रहा है। दूसरे पिछले डेढ़ साल में कोरोना के कारण राजनीतिक गतिविधियाँ वैसे ही सीमित-सी हो गयी हैं। यदि ऐसा न होता, तो शायद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर आन्दोलन हो रहे होते।

इसके अलावा हाल के वर्षों में भारतीय लोकतंत्र को चोट पहुँचाने वाली जो सबसे बड़ी बात देखने को मिली है, वह केंद्र और ग़ैर-भाजपा राज्यों के बीच खाई का चौड़ा होना है। इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व के मन में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के प्रति तल्ख़ी बढ़ी है, जिसका विकास कार्यक्रमों पर उलटा असर पड़ा है। यह तल्ख़ी किस स्तर की है? इसका अनुमान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ‘हर समय झगड़ा ठीक नहींÓ वाले ट्वीट के बाद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की उस टिप्पणी से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने मोदी को ‘झगड़ालू प्रधानमंत्री की संज्ञा दी है।

कोरोना वैक्सीन के वितरण को लेकर भी ग़ैर-भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्री भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं। जीएसटी का राज्यों का हिस्सा उन्हें नहीं मिला है। उनकी योजनाओं में केंद्र के हस्तक्षेप से भी राज्य नाख़ुश हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के जबरदस्त बहुमत से जीतने की बाद भी वहाँ सरकार को गिराने की तमाम तिकड़में जारी हैं। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सामने आकर कहना पड़ा कि मोदी सरकार बंगाल को विभाजित करने पर तुली है। उन्होंने कहा कि भाजपा का एक वर्ग उत्तर बंगाल को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन राज्य में किसी भी ‘फूट डालो और राज करोÓ की नीति को वह सफल नहीं होने देंगी।

विपक्ष की चुनी सरकारों को चुन-चुनकर गिराने की भाजपा की कोशिशें और इसमें वहाँ का राज्यपालों की भूमिका पर भी ढेरों सवाल उठे हैं। अरुणाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक भाजपा ने कांग्रेस की सरकारों को गिराया है। आम जनता में इसका ग़लत सन्देश गया है और भाजपा की छवि ‘सत्ता की लालची पार्टीÓ की बन गयी है। देश में कोरोना की दूसरी लहर में इस महामारी के बड़े स्तर पर पाँव पसारने के बावजूद बंगाल में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अन्तिम समय तक भीड़ भरी जनसभाओं के साथ चुनाव प्रचार जारी रखा, उससे भी ग़लत सन्देश गया।

Chief Minister of Uttar Pradesh state Yogi Adityanath celebrates the party’s victory in Lucknow, India, Thursday, May 23, 2019. Indian Prime Minister Narendra Modi’s party claimed it had won reelection with a commanding lead in Thursday’s vote count, while the stock market soared in anticipation of another five-year term for the pro-business Hindu nationalist leader. (AP Photo/Rajesh Kumar Singh)

दिल्ली में चिन्ता

भले अभी ज्यादा बाहर नहीं आयी है; लेकिन भाजपा के भीतर निश्चित ही खटपट है। उत्तर प्रदेश में हाल के निकाय चुनाव में भाजपा को बड़ी मार पड़ी है। दिल्ली में भाजपा के भीतर इससे भय पसरा है; क्योंकि उत्तर प्रदेश नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए अगले चुनाव में फिर जीत का सबसे बड़ा आधार है और वहाँ भाजपा का कमज़ोर होना उनके सपने को तोड़ सकता है। वैसे भी यहाँ 2014 की 80 सीटों के मुक़ाबले सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की 11 सीटें घटकर 69 रह गयी थीं। वह भी तब, जब वहाँ भाजपा की सरकार है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह रही है कि मई के शुरू में पंचायत चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में भाजपा की बुरी तरह हार हुई है। इस चुनाव में मोदी के वाराणसी संसदीय क्षेत्र के तहत कुल 40 सीटों में से भाजपा को सि$र्फ आठ सीटें मिलीं। इससे पहले अप्रैल में भी वाराणसी की संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र चुनाव में भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी को बुरी तरह हराकर कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई ने सभी सीटें जीत ली थीं।

इन नतीजों से निश्चित ही दिल्ली में चिन्ता है। बंगाल विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद जब भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने पार्टी की एक टीम लखनऊ भेजी, उसके बाद ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच तनातनी की ख़बरें मीडिया में आनी शुरू हुईं। बिना आग के धुआँ नहीं उठता, लिहाज़ा इन्हें काफ़ी सु$िर्खयाँ मिलीं। अटकलें यह भी रहीं कि पार्टी उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन या मंत्रिमंडल विस्तार की सोच रही है।
योगी को नाराज़ करने वाली एक और चर्चा राजनीतिक हलक़ों में गर्म हुई, वह यह कि दिल्ली एक साल बाद के विधानसभा चुनाव से पहले ही उत्तर प्रदेश का विभाजन करने की इच्छुक है। हालाँकि इतने कम समय में ऐसा करना बहुत आसान प्रतीत नहीं होता। अलग पूर्वांचल, बुंदेलखण्ड और हरित प्रदेश की माँग उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से होती रही है। मायावती सरकार ने तो बाक़ायदा विधानसभा में इसका प्रस्ताव तक पास करवा लिया था। अलग पूर्वांचल बनता है, तो योगी का गढ़ गोरखपुर उसी के तहत आता है, जहाँ से वह पाँच बार सांसद रहे हैं। चर्चा के मुताबिक, प्रस्तावित पूर्वांचल में 125 विधानसभा सीटें और अधिकतम 25 ज़िले बनाये जा सकते हैं। कहते हैं कि योगी इसे लेकर बिल्कुल सहमत नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में कहावत है कि जिसने पूर्वांचल जीता, उसकी सरकार बनी। वैसे पूर्वांचल के मतदाता को लेकर कहा जाता है कि वह हर बार अपनी पसन्द बदल लेता है। वहाँ कई ऐसे ज़िले हैं, जहाँ भाजपा कमज़ोर है। वहाँ भाजपा की पैठ बढ़ाने के लिए ही योगी सरकार ने पूर्वांचल के विकास की योजना तैयार की थी और उसमें 28 ज़िलों को चुना था, जिन पर फोकस करना था।

इस सारे घटनाक्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि दिल्ली से बैठक के लिए भाजपा नेताओं की टीम के लखनऊ जाने के दौरान जब उत्तर प्रदेश सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा ने तेज़ी पकड़ी, तो आरएसएस का भी बयान आया; जिसमें यह कहा गया कि उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व में ही अगले चुनाव होंगे। इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद क़रीबी पूर्व अधिकारी ए.के. शर्मा को उत्तर प्रदेश भेजकर विधानपरिषद् का सदस्य बनाने को भी योगी और मोदी-शाह की जोड़ी के बीच जंग के रूप में लिया गया है। शर्मा वहीं व्यक्ति हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में कोरोना प्रबन्धन का ज़िम्मा दे रखा है। यदि योगी के पक्ष को देखें, तो हाल के महीनों में उनकी सरकार ने अपनी योजनाओं को लेकर बड़े स्तर पर प्रचार का सहारा लिया है। यह माना जाता है कि योगी की टीम में कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल हैं, जो प्रचार की भाषा और कंटेंट का ख़ास ख़याल रखते हैं। विज्ञापनों को बहुत सन्तुलित तरीक़े से जनता के सामने लाने की कोशिश की जाती रही है। कोरोना को लेकर भी इन विज्ञापनों के ज़रिये सरकार की कुशलता का बख़ान किया गया था।
राजनीतिक हलक़ों में यह माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में योगी को लेकर राजनीतिक असुरक्षा की भावना रही है। हाल के वर्षों में योगी को जिस तरह हिन्दू नेता के तौर पर और मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभारा गया है; उससे यह स्थिति बनी है। चुनाव में प्रचार के लिए मोदी जैसी ही माँग भाजपा नेताओं में योगी की भी रहती है। ऐसे में वह स्वाभाविक तौर पर हिन्दुत्व के एजेंडे वाले राजनीतिक दल भाजपा में प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं। यह अलग बात है कि एक मुख्यमंत्री के तौर उनका प्रदर्शन बहुत ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रहा है; लेकिन इसके बावजूद हिन्दुओं में उनकी अपनी छवि है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह के आने के बाद ही भाजपा में यह नियम बना था कि 75 साल की आयु के बाद पार्टी के नेता को सरकारी पद के लिए नहीं चुना जाएगा। साल 2024 में जब लोकसभा के चुनाव होंगे, उस साल सितंबर में मोदी 73 साल के हो जाएँगे। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले नेता अपना नाम आगे करेंगे। लेकिन मोदी और योगी के बीच एक बड़ा नाम अमित शाह का भी है, जिन्हें उनके समर्थक अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं। अमित शाह मोदी से क़रीब 14 साल छोटे हैं और 75 साल की सीमा में भी नहीं आते।
लेकिन भाजपा के भीतर इन सबसे हटकर एक और नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए क़तार में माना गया है और वह नितिन गडकरी हैं। ख़ुद गडकरी या उनके समर्थकों ने कभी इसकी इच्छा ज़ाहिर नहीं की; लेकिन उन्हें आरएसएस का सबसे मज़बूत चेहरा इस पद के लिए माना जाता रहा है। गडकरी गम्भीर नेता तो हैं ही, साथ ही जिस तरह उन्होंने मोदी सरकार में अपने विभागों को सँभाला है, उससे उनकी छवि एक मेहनती मंत्री की बनी है; जो ज़मीनी हक़ीक़तों से भी रू-ब-रू होता है। इसके अलावा गडकरी लोकतांत्रिक नेता की छवि भी रखते हैं। भाजपा का अध्यक्ष पद भी उन्हें अचानक ही मिला था और इसके पीछे भी आरएसएस ही था। सबसे बड़ी बात यह है कि विपक्ष में भी गडकरी की मान्यता मोदी, शाह और योगी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है।

मोदी की परेशानियाँ
इसमें कोई दो-राय नहीं कि जिस तरह आज की तारीख़ में नरेंद्र मोदी भाजपा में बहुत ज़्यादा ताक़तवर हैं, उन्हें चुनौती देने वाला विपक्ष बिखरा और कमज़ोर-सा है। भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी और देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस संगठन की चुनौतियाँ झेल रही है। मोदी की बड़ी नाकामियों के बावजूद होने की एक बड़ी बजह कांग्रेस का एक राजनीतिक दल के रूप में उनके ख़िलाफ़ कोई बड़ा जन-आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाना भी है। यदि देखा जाए, तो पिछले क़रीब डेढ़ साल के भीतर ऐसे कई बड़े अवसर आये, जिन पर मोदी सरकार को घेरा जा सकता था। मोदी सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा आन्दोलन नहीं होने से आम जनता का मनोवैज्ञानिक लाभ मोदी को मिला है।

याद करिये 2011 में जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जन-आन्दोलन शुरू किया था, तो देखते-ही-देखते देश में कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बन गया था। हालाँकि यूपीए सरकार की बड़ी उपलब्धियाँ भी थीं और आरटीआई जैसा जनता को ताक़त देने वाला क़ानून भी वो लेकर आयी थी। लेकिन एक बार जब माहौल बना तो बनता ही गया। अन्ना का आन्दोलन भी ख़त्म हो गया, लेकिन लोगों के दिमाग़ में यह बैठा गया कि कांग्रेस ‘भ्रष्टाचारी दलÓ है। देखा जाए तो यूपीए की सरकार ने उन सब मामलों की जाँच की थी, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे और मंत्रियों सहित तमाम आरोपियों को सज़ा भी मिली थी। लेकिन जो माहौल सरकार के ख़िलाफ़ बना था, उसमें कमी नहीं आयी। तीन साल बाद नरेंद्र मोदी ने पहले से बन चुकी कांग्रेस विरोधी इस ज़मीन को अपने लिए शब्दों की जादूगरी से भरे शब्दों से ख़ूब भुनाया। बहुत से लोग यह मानते हैं कि उस समय मोदी की जगह यदि आडवाणी भी भाजपा का नेतृत्व करते, तो भी भाजपा ही जीतती।

यदि पिछले सात साल का रिकॉर्ड देखें, तो मोदी ने जिन सबसे आकर्षक मुद्दों- बड़े पैमाने पर रोज़गार, विकास और भ्रष्टाचार को ख़त्म करना, आदि के बूते चुनाव जीता था और देश की राजनीति के शीर्ष पर आ पहुँचे थे, उनमें ही वह ज़्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं। रोज़गार की हालत ख़राब है। उलटे पहले पाँच साल के कार्यकाल में मोदी ने जिन बड़े सुधारों की घोषणाएँ कीं, उन्हें अमलीज़ामा उस स्तर पर नहीं पहना सके। उनके सात साल के कार्यकाल में आर्थिक आँकड़ें बहुत कमज़ोर रहे हैं। बड़े स्तर पर सरकारी या अद्र्ध-सरकारी सम्पत्तियों को बेचा गया है। पाँच ट्रिलियन अर्थ-व्यवस्था का वादा निराशा के सागर में हिचकोले खा रहा है।

उनके वर्तमान कार्यकाल में विकास की रफ्तार बेहद सुस्त है, जिसे कोरोना महामारी ने और ज़्यादा ख़स्ता हालत में ला खड़ा किया है। कुछ घंटे के नोटिस पर लागू लॉकडाउन ने अर्थ-व्यवस्था में गम्भीर गिरावट पैदा की और अक्टूबर, 2020 में औसत पारिवारिक आमदनी पिछले साल के मुक़ाबले 12 फ़ीसदी कम हो गयी। इसका सबसे बड़ा असर ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ा। अर्थ-व्यवस्था उम्मीद से कहीं ज़्यादा ख़राब हालत में है। महँगाई उच्चतम स्तर पर है। साल 2019 के आख़िर तक यह दावा किया जा रहा था कि 2025 तक हमारी अर्थ-व्यवस्था 2.6 लाख करोड़ डॉलर की हो जाएगी; लेकिन यह अब बहुत लक्ष्य बड़ा लग रहा है। मुद्रास्फीति और तेल के दामों में उछाल भी इसके बड़े कारण हैं। जब मनमोहन सरकार सत्ता से बाहर हुई थी, उस समय भारत का जीडीपी दर कहीं बेहतर सात से आठ फ़ीसदी के बीच थी; लेकिन मोदी सरकार के समय 2019-20 की चौथी तिमाही आते-आते यह बहुत कमज़ोर 3.1 फ़ीसदी के स्तर पर पहुँच गयी।

जब बहुत उम्मीद और जोश से प्रधानमंत्री मोदी ने नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की थी और दावा किया था कि इससे जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद सहित देश की बहुत-सी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी; तब लोगों को लगा था कि यह बहुत बड़ा फ़ैसला हुआ है। लेकिन कुछ हफ़्तों ही में अपना ही पैसा लेने के लिए लम्बी क़तारों में दिन-दिन भर खड़ा होने पर जनता का इससे मोहभंग हो गया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी की दोबारा जीत ने भले नोटबंदी को पीछे डाल दिया, लेकिन उसके बाद सामने आये तथ्य ज़ाहिर करते हैं कि देश को इसका बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा है। जीएसटी मोदी सरकार का दूसरा बड़ा फ़ैसला था और अब लगभग यह मान लिया गया है कि इस फ़ैसले ने देश में व्यापार की कमर तोड़ दी। पहले कार्यकाल में बतौर प्रधानमंत्री मोदी देश के युवाओं को वादे के अनुसार रोज़गार देने में नाकाम रहे हैं। हाल में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग दि इंडियन इकोनॉमी का एक सर्वे आया था, जिसमें कहा कि 2016 से देश ने कई आर्थिक झटके झेले हैं। नोटबंदी, जीएसटी और 2020 में कोरोना के चलते किश्तों में की गयी तालाबंदी ने रोज़गार कम कर दिया। मोदी सरकार में देश में बेरोज़गारी की दर पिछले 48 साल में सर्वाधिक है। कुछ सर्वे में बताया गया है कि केवल 2021 के इन छ: महीनों में ही क़रीब 2.6 करोड़ लोग अपना रोज़गार गँवा चुके हैं। इससे ग़रीबी रेखा का आँकड़ा भी बढ़ा है और यह 7.5 करोड़ पर पहुँच चुका है। इनमें एक बड़ी संख्या मध्यम वर्ग की है, जिसने सन् 2014 और सन् 2019 के चुनावों में मोदी का सबसे ज़्यादा समर्थन किया था।

यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि देश में हर साल अर्थ-व्यवस्था को दो करोड़ नौकरियाँ चाहिए; लेकिन पिछले एक दशक में यह आँकड़ा महज़ 43 लाख रहा है। अर्थात् इतनी ही नौकरियों का सृजन हो सका। मोदी के महत्त्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया में भी जिस उत्पादन को जीडीपी का 25 फ़ीसदी बनाने का लक्ष्य था, वह 2020-21 के माली साल तक बमुश्किल 15 फ़ीसदी तक ही पहुँचा है।सच तो यह है कि सबसे ख़राब हालत ही उत्पाद क्षेत्र की हुई है, जो सेंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस के सर्वे से भी ज़ाहिर होती है। उत्पादन क्षेत्र में 2016 से लेकर अब तक नौकरियाँ लगभग आधी ही बची हैं। निर्यात तीसरा बड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोदी सरकार की चुनौतियाँ हैं। देश में पिछले क़रीब एक दशक में निर्यात 300 अरब डॉलर पर थम गया है। यहाँ तक कि पिछले पाँच-छ: साल में बांग्लादेश जैसा छोटा देश भारत के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से निर्यात में, जिसमें उसका वस्त्र उद्योग प्रमुख ज़रिया है, अपना मार्केट शेयर बढ़ा चुका है; जिसका सीधे रूप से भारत पर असर पड़ा है।

हाल के वर्षों में मोदी सरकार ने टैरिफ बढ़ाये हैं। इसका एक कारण ‘आत्मनिर्भर भारत के अपने नारे को मूर्त रूप देने की कोशिश भी है। हाँ, डिजिटल पेमेंट के मामले में भारत ने बड़ी छलाँग लगायी है, जिसका बड़ा श्रेय सरकार समर्थित भुगतान व्यवस्था को भी जाता है।

कृषि क्षेत्र में भी हालत बेहतर नहीं हो सकी है। मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आन्दोलन ज़ाहिर करता है कि किसानों और कृषि को उसके महत्त्व के अनुरूप सरकार से समर्थन नहीं मिला है। किसान कह रहे हैं कि क़ानूनों के प्रावधान उनकी आय को कम कर देंगे। देश की बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है और यह अभी भी रोज़गार का एक बड़ा ज़रिया बना हुआ है; लेकिन सच यह है कि जीडीपी में कृषि का योगदान बहुत कम है। कृषि क्षेत्र की यह हालत तब है, जब मोदी ने वादा किया था कि उनका लक्ष्य किसानों की आय दोगुनी करना है।

कम हुए मोदी-समर्थक

देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन करने वाला वर्ग हाल के हफ्तों में कुछ बेचैन हुआ है। इसका कारण मोदी का कोरोना वायरस जैसी महामारी के मोर्चे पर नाकाम होना है। लोग मानते हैं कि सबसे बड़े संकट में प्रधानमंत्री ने आँखें मूँद लीं और जनता को उसी के भरोसे छोड़ दिया गया। जिस पैमाने पर ऑक्सीजन की कमी देश में हुई और लोगों की मौत हुई, उससे वे विचलित हुए हैं। ऐसे बहुत लोग हैं, जिन्होंने माना कि इतने बुरे समय में प्रधानमंत्री मोदी का चुप रहना ग़लत था। बहुत-से ऐसे लोग अब मोदी के समर्थक नहीं रहे। यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर वे उन सन्देशों का समर्थन करते दिखे हैं, जो मोदी के ख़िलाफ़ हैं। यदि एजेंसियों की बात करें, तो ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर के सर्वे में मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की गिरावट बतायी गयी है, जो सात साल में सबसे ज़्यादा है।

तालाबंदी से लोगों का बड़ी संख्या में बेरोज़गार होना भी मोदी के ख़िलाफ़ गया है। वाशिंगटन स्थित प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे के मुताबिक, हाल के महीनों में मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या 3.20 करोड़ कम हो गयी है। कोरोना के हाल के संकट में सबसे बड़ी मार मध्यम वर्ग को ही पड़ी है। उधर ‘लोक नीतिÓ के सर्वे के मुताबिक, मोदी के प्रति लोगों में निराशा बढ़ी है। मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है। प्रधानमंत्री के काम को नापसन्द करने वालों की जो संख्या अगस्त, 2019 में 12 फ़ीसदी थी, वह अप्रैल, 2021 में बढ़कर 28 फ़ीसदी पहुँच गयी है।

मॉर्निंग कंसल्ट ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर और अन्य सर्वे के मुताबिक, अगस्त, 2019 से जनवरी, 2021 के बीच मोदी की अप्रूवल रेटिंग (मानांकन) लगभग 80 फ़ीसदी के आसपास रही। लेकिन अप्रैल, 2021 में यह रेटिंग 67 फ़ीसदी हो गयी। अर्थात् मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की कमी आयी है। उधर 13 देशों के राष्ट्राध्यक्षों (ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इटली, जापान, मेक्सिको, साउथ-कोरिया, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका) की अप्रूवल रेटिंग और डिसअप्रूवल रेटिंग को ट्रैक करने वाली मॉर्निंग कंसल्ट की ‘ग्लोबल अप्रूवल रेटिंगÓ के हालिया आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि अभी भी इन 13 देशों के नेताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की कमी आयी है। अप्रैल में जो रेटिंग 73 थी, वह 11 मई को घटकर 63 फ़ीसदी हो गयी। उनके डिसअप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। हाल में भारतीय पॉलस्टर ओरमैक्स मीडिया के 23 राज्यों के शहरी मतदाताओं के बीच कराये सर्वे में भी प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग, जो दूसरी लहर से पहले 57 फ़ीसदी थी; वह 11 मई तक 9 फ़ीसदी घटकर 48 फ़ीसदी पर आ गयी।

मोदी की अप्रूवल रेटिंग पहली बार 50 फ़ीसदी के नीचे आयी है। भारतीय टीवी चैनल भी समय समय पर सर्वे करते हैं। हाल में एवीपी न्यूज-सी वोटर के सर्वे में जब जनता से पूछा गया कि क्या दूसरी लहर में प्रधानमंत्री का चुनाव प्रचार करना सही था? तो 58 फ़ीसदी शहरी और 61 फ़ीसदी ग्रामीणों ने ‘नहींÓ में जवाब दिया। एक सवाल यह था कि केंद्र और राज्य सरकारों में से लोग आख़िर किससे ज़्यादा नाराज़ हैं? तो सि$र्फ 17 फ़ीसदी लोगों ने राज्य सरकार से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की; जबकि केंद्र से नाराज़ रहने वालों की तादाद सर्वे में 24 फ़ीसदी थी। वहीं 54 फ़ीसदी ने बताया कि वह इस बारे में कुछ नहीं बता सकते हैं। लोगों से पूछा गया कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उनकी सबसे बड़ी नाराज़गी क्या है? जवाब में 44 फ़ीसदी शहरी और 40 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘कोरोना से न निपटना। वहीं 20 फ़ीसदी शहरी लोगों ने और 25 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा- ‘कृषि क़ानून, जबकि नौ फ़ीसदी शहरी और नौ ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘सीएए पर दिल्ली दंगेÓ। यही नहीं, 10 फ़ीसदी ग्रामीण और सात फ़ीसदी शहरी लोगों ने भारत-चीन सीमा विवाद को भी एक कारण बताया। यह स्नैप पोल 23 से 27 मई के बीच किया गया था।

टिकैत ने सरकार को दी चेतावनी

 

क़रीब सात महीने से तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आन्दोलन अब फिर से तेज़ी पकड़ रहा है। पिछले कुछ दिनों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब से किसान ग़ाज़ीपुर बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर और सिंघु बॉर्डर पहुँच रहे हैं। किसान पिछले क़रीब एक साल से नये कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, लेकिन अब तक कोई समाधान नहीं निकला है। सरकार ने कानों में तेल डाल लिया है और सेंट्रल विस्टा बनाने में जुटी है। क़रीब 12 दौर की किसान-सरकार वार्ता फेल होने के बाद सरकार ने इस मुद्दे से जिस तरह मुँह फेरा है, वह किसानों की अवहेलना ही है। लेकिन सरकार को किसानों की ताक़त का अंदाज़ा नहीं है। देश के किसान 2022 में उत्तर प्रदेश समेत छ: राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर प्रभाव डाल सकते हैं। वैसे भी किसान भाजपा सरकार को देश की सत्ता से जड़ से उखाडऩे की बात कह चुके हैं, जिसे हल्के में लेना सरकार को भारी पड़ सकता है।

भाकियू (टिकैत) के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा कि संसद तो किसानों का अस्पताल है। वहाँ हमारा इलाज होगा। हमें पता चला है कि किसानों का इलाज एम्स से अच्छा तो संसद में होता है। हम अपना इलाज वहाँ कराएँगे। अब जब भी हम दिल्ली जाएँगे, संसद में जाएँगे। बता दें कि हाल के दिनों में अलग-अलग राज्यों में किसानों की गिर$फ्तारियाँ की जा रही हैं, जिस पर टिकैत ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि हमारे जिन पदाधिकारियों को पकड़ा गया है, उन्हें या तो तिहाड़ जेल भेजा जाए या फिर राज्यपाल से मुलाक़ात करायी जाए। हम आगे बताएँगे कि दिल्ली का क्या इलाज करना है?

उन्होंने कहा कि दिल्ली बग़ैर ट्रैक्टर के नहीं मानती। लड़ाई कहाँ होगी? उसका स्थान और समय क्या होगा? यह तय करके अब बड़ी क्रान्ति होगी। देश के किसान सात महीने से बड़ी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं। सरकार बार-बार आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसके मंसूबे फेल हो रहे हैं। किसी भी हाल में किसान अपना अधिकार लेने के बाद ही घर वापसी करेंगे। कृषि क़ानून के विरोध में ग़ाज़ीपुर में बैठे किसान रघुवीर सिंह का कहना है कि केंद्र सरकार यह सोचती है कि किसान की माँगों को अनदेखा कर दो, शायद किसान आन्दोलन समाप्त करके घर चले जाएँगे; लेकिन यह सरकार की भूल है। किसानों ने अपनी माँगों का ख़ातिर आन्दोलन में जानें दी हैं, गोलीकांड से लेकर अग्निकांड को सहा है। तामाम देशद्रोही लांछन किसानों पर लगे हैं। अब कैसे किसान आन्दोलन को समाप्त कर दें? किसानों ने जब 26 नवंबर, 2020 को किसान आन्दोलन शुरू किया था, तब किसानों की देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहित तामाम केंद्रीय मंत्रियों से 12 दौर की बैठकें हुईं। लेकिन सरकार ने कोई समाधान नहीं निकाला और अपनी ज़िद पर अड़ी है कि देश के किसान इस आन्दोलन को समाप्त कर दें।

ग़ाज़ीपुर पर आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि सरकार को यह अनुमान था कि पूस-माघ की सर्दी में किसान ठिठुरन के डर से और जेठ-आषाढ़ की तपती और उमस भरी गर्मी के चलते किसान आन्दोलन को स्वयं समाप्त कर देंगे; मगर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि किसान देश का स्वाभिमान हैं। खुले आकाश में, सर्दी-गर्मी-बारिश में अपनी जान पर खेलकर अन्य पैदा करता हैं। अब तो लड़ाई आर-पार की है। किसान नेता गगन सिंह कहते हैं कि देश की आज़ादी से लेकर आज तक सभी को यही बताया गया है कि भारत कृषि प्रधान देश है। देश की अर्थ-व्यवस्था में कृषि क्षेत्र की अहम भूमिका है। फिर भी न जाने क्यों सरकार देश के दो-चार पूँजीपतियों को लाभ देने के लिए किसानों की ज़ामीन हड़पना चाहती है। किसान संगठन से जुड़े किसान राजकुमार ने कहा कि आन्दोलन समाप्त करने के लिए किसानों को कोरोना का भय दिखाया गया, लेकिन किसानों ने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहकर आन्दोलन को शान्तिपूर्वक जारी रखा है। ऐसे में सरकार को भी शान्तिपूर्ण रवैया अपनाते हुए समाधान करना चाहिए। अगर सरकार ने ऐसा नहीं किया, तो 2022 में छ: राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी नुक़सान होगा।

‘तहलका को सरकार से जुड़े एक प्रतिनिधि ने बताया कि जब भाजपा पश्चिम बंगाल में चुनाव हार गयी है, तबसे भाजपा राजनीति का ऐसा ताना-बाना बुन रही है कि किसानों की माँगों को मान लिया जाए और उनका आन्दोलन समाप्त कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया जाए। क्योंकि किसानों के एक बड़े समूह ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को एकमत होकर समर्थन दिया था। सन् 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी भाजपा की झोली किसानों ने वोटों से भर दी थी। लेकिन भाजपा ने गत वर्षों में किसानों के साथ जो भेदभाव वाला व्यवहार किया है, उससे किसान सन्तुष्ट नहीं हैं, बल्कि रोष में हैं।
आम आदमी पार्टी के सांसद सुशील गुप्ता का कहना है कि केंद्र की मोदी सरकार सत्ता के नशे में चूर है और यह भूल रही है कि देश के किसान जायज़ा माँगों को लेकर सात महीनों से आन्दोलन कर रहे हैं। किसानों की पीड़ा और उनकी आर्थिक स्थिति को जाने बग़ैर सरकार उनका दमन कर रही है। आन्दोलन को कुचलने के लिए साज़िश कर रही है। लेकिन आम आदमी पार्टी देश के हर किसान के साथ है। उन्होंने कहा कि हरियाणा सरकार किसानों को परेशान करने की तमाम कोशिशें लगातार कर रही है; मगर आम आदमी पार्टी के चलते कुछ नहीं कर पा रही है।

किसान को ज़िन्दा जलाने वालों को मिले सज़ा

हरियाणा के बहादुरगढ़ में चल रहे किसान आन्दोलन के बीच 17 जून को कसार गाँव निवासी किसान मुकेश सिंह को ज़िन्दा जला दिया गया। इस घटना से किसानों और किसान समर्थकों में रोष है। इस घटना से किसान दहशत में हैं कि उन पर भी हमला हो सकता है। लेकिन इस घटना से देश के किसानों में रोष भी है; क्योंकि यह एक आपराधिक घटना है, जिस पर सरकार को कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। कुछ किसानों ने इस घटना के पीछे हरियाणा सरकार की साज़िश बताया है। बहादुरगढ़ के निवासी भरत का कहना है कि किसान आन्दोलन को कुचलने का खेल का$फी समय से चल रहा है। एक ओर किसानों का आन्दोलन कृषि क़ानूनों के विरोध में है, तो दूसरी ओर क़ानूनों के समर्थन में आन्दोलन खड़ा किया गया है। ऐसे में अगर किसी किसान को ज़िन्दा जलाने जैसी घटना होती है, तो यह ज़ारूर कोई साज़िश है।
मृतक के परिजनों का कहना है कि मुकेश आन्दोलन स्थल पर घूमने जाता था। जबकि उसके साथी मुकेश के साथ खुले में शराब भी पीते थे। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि रायचंद गाँव, ज़िला जींद निवासी कृष्ण कुमार जो आरोपी पकड़ा गया है, उसने अपने साथियों के साथ मिलकर मुकेश को ज़िन्दा जला दिया, वह भी किसान शहीद के नाम पर।
सवाल ये भी हैं कि जब मुकेश को ज़िन्दा जलाया जा रहा था, तब वहाँ उपस्थित लोगों ने अपराधियों को क्यों नहीं रोका? घटना रोकने के बजाय वीडियो क्यों बनाया? किसी ने पुलिस को सूचना क्यों नहीं दी? जब मुकेश की हालत गम्भीर हो गयी, तब उसे अस्पताल में भर्ती किया गया। लेकिन उसकी मौत हो गयी। मृतक मुकेश के भाई मदन का कहना है कि यह पूरी तरह सोची-समझी हत्या है। मुकेश शराब तो पीता था; लेकिन हिंसक और लड़ाई वाली मानसिकता का नहीं था।
आम आदमी पार्टी के किसान नेता विजय कुमार का कहना है कि आन्दोलनकारी किसानों की सुध लेने तक का हरियाणा सरकार के पास समय नहीं है। किसान अपने बलबूते पर आन्दोलन कर रहे हैं। उनकी सुरक्षा का सही बंदोबस्त तक नहीं है। अगर सही बंदोबस्त होता, तो अपराधी मुकेश को ज़िन्दा नहीं जला पाते। यह वीभत्स घटना सरकार की लचर क़ानून व्यवस्था के कारण हुई है।
बहादुरगढ़ के लोगों का कहना है कि आन्दोलन स्थल पर सत्ता से जुड़े लोग किसानों को छींटाकशी करते रहते हैं। अक्सर तनाव वाली स्थिति बनी रहती है। कोई कहता है कि यह किसानों का आन्दोलन नहीं है। तो कोई कहता है कि सरकार को परेशान करने के लिए यह आन्दोलन चल रहा है। इस तरह की हरकतें करने वालों के ख़िला$फ सरकार भी कुछ नहीं करती।

सेंसरशिप की खिड़की

हाल ही में डाटा (विवरण) गोपनीयता का मुद्दा सोशल मीडिया दिग्गज ट्विटर और केंद्र सरकार के बीच आमने-सामने का मुक़ाबला बन गया, जिसके फलस्वरूप मीडिया प्लेटफॉर्म ने सरकार के नये दिशा-निर्देशों को ‘मुक्त और खुले संवाद को बाधित करने का प्रयास बताया। नये नियम अधिकारियों द्वारा माँग करने पर सोशल मीडिया कम्पनियों को सूचना के जनक का नाम उजागर करने के लिए मजबूर करते हैं। केंद्र सरकार का कहना है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार निरंकुश होने की सीमा तक नहीं हो सकता और न इतना व्यापक कि क़ानूनी व्यवस्था को ही कमज़ोर कर दे।

यह झगड़ा उस समय चरम पर पहुँच गया, जब केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आरोप लगाया कि ट्विटर ने कॉपीराइट (प्रतिलिप्याधिकार) क़ानून के उल्लंघन की शिकायत के आधार पर लगभग एक घंटे तक उन्हें उनके खाते तक पहुँच से वंचित कर दिया, जो वस्तुत: एक म्यूजिक कम्पनी के इस आधार पर किये गये दावे से उपजा था कि ‘यह संयुक्त राज्य अमेरिका के डिजिटल मिलेनियम कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन था। प्रसाद ने कहा कि बाद में उन्होंने खाते तक पहुँच की अनुमति दे दी।

इस विवाद के दौरान ही केंद्र सरकार एक विधेयक लायी, जो गम्भीर परिणामों से अटा पड़ा है; लेकिन कमोवेश सभी सोशल मीडिया कम्पनियों का इस पर ध्यान नहीं गया। सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक-2021 के मसौदे में किसीफ़िल्म के प्रमाणन को वापस लेने या बदलने के प्रस्ताव जैसे हस्तक्षेप का रास्ता खोलता है। यह ‘सुपर सेंसरशिप और रचनात्मक स्वतंत्रता पर एक अंकुश के समान है। क्योंकि केंद्रीयफ़िल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के बाद भी, सरकार सीबीएफसी प्रमाणन को वापस बुला सकती है या उलट सकती है। सरकार द्वारा अपीलीय निकाय,फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) को समाप्त करने के मद्देनज़र यह क़दम आशंकाएँ पैदा करता है। ट्रिब्यूनल, सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एक वैधानिक निकाय, ट्रिब्यूनल रिफॉम्र्स (रेशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) ऑर्डिनेंस, 2021 के माध्यम से समाप्त कर दिया गया था, जो 4 अप्रैल से प्रभावी हुआ था। विधेयक में दर्शकों की शिकायतों की प्राप्ति के बाद पहले से प्रमाणितफ़िल्म के पुन: प्रमाणन का आदेश देने के लिए सरकार को सशक्त बनाने का प्रस्ताव है, जो केंद्रीयफ़िल्म प्रमाणन बोर्ड से इतर सेंसरशिप से कम नहीं लगता है।

सरकार ने एक नोट में इस क़दम को सही ठहराया, जिसमें कहा गया था- ‘कभी-कभी किसी फ़िल्म के ख़िलाफ़ शिकायतें प्राप्त होती हैं, जो फ़िल्म प्रमाणित होने के बाद सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा-5 बी(1) के उल्लंघन का संकेत देती है।
सवाल यह है कि क्या सरकार को सेंसर करने वाली बॉडी पर सुपर सेंसर के रूप में काम करना चाहिए? या किसीफ़िल्म की जाँच और प्रदर्शन के लिए मंज़ूरी मिलने के बाद सेंसरिंग बॉडी द्वारा दिये गये प्रमाणन को वापस लेना चाहिए? या उसमें बदलाव करना चाहिए? या उसमें काट-छाँट करनी चाहिए? मंत्रालय ने एक अधिसूचना के माध्यम से आम जनता को 2 जुलाई तक ‘बदले हुए समय के अनुरूप, प्रदर्शन के लिएफ़िल्मों को मंज़ूरी देने की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने और चोरी के ख़तरे को रोकने के लिए मसौदा विधेयक पर टिप्पणी भेजने के लिए कहा है। कोई केवल यह आशा कर सकता है कि प्रतिक्रिया माँगना एक दिखावा भर नहीं है और केवल भविष्य के लिए आगे बढऩे के लिए है; न कि सेंसरशिप के दिनों की तरफ़ लौटने के लिए।

चरणजीत आहुजा

महाराष्ट्र में घर-घर टीकाकरण के लिए केंद्र की मंजूरी की जरूरत क्यों: हाईकोर्ट

बाॅम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा कि उसे वरिष्ठ नागरिकों, दिव्यांगों और बिस्तर पर पड़े अस्वस्थ लोगों को घर जाकर कोविड-19 टीकाकरण शुरू करने के लिए केंद्र सरकार की की मंजूरी की जरूरत क्यों है। महाराष्ट्र सरकार ने मंगलवार को अदालत में हलफनामा दाखिल करते हुए कहा कि प्रायोगिक आधार पर घर पर टीकाकरण शुरू किया जा सकता है, लेकिन केवल ऐसे लोगों के लिए जो चल-फिर नहीं सकते या घर पर रहने को मजबूर हैं। हालांकि इस बीच उसने यह भी कहा कि इस पर भी पहले केंद्र सरकार से स्वीकृति लेनी होगी।

प्रधान न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जी एस कुलकर्णी की खंडपीठ ने कहा कि आपको इसमें केंद्र मंजूरी की जरूरत क्यों है? स्वास्थ्य राज्य का भी विषय है। क्या राज्य सरकार हर एक काम केंद्र सरकार से मंजूरी लेकर कर रही है? क्या केरल, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों ने ऐसे कार्यक्रम शुरू करने के लिए केंद्र सरकार से स्वीकृति ली है?

अदालत उस जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें केंद्र सरकार को 75 साल से अधिक उम्र के लोगों, दिव्यांगों तथा बिस्तर वाले मरीजों के लिए घर जाकर टीका लगाने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।इससे पहले केंद्र सरकार कह चुकी है कि विभिन्न कारणों से घर जाकर टीकाकरण का कार्यक्रम अभी शुरू नहीं किया जा सकता जिनमें टीके की बर्बादी और टीके के प्रतिकूल प्रभाव जैसे कारणों को वजह बताया था। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि क्या उसकी घर-घर टीकाकरण शुरू किए जाने की इच्छा है।

फर्जी टीकाकरण में बड़ी मछलियों को पकड़ें

बाॅम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि शहर में फर्जी कोविड-19 टीकाकरण शिविरों की जांच कर रही मुंबई पुलिस को ऐसे मामलों में शामिल बड़ी मछलियों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। किसी को भी नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी की पीठ ने बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) को भी निर्देश दिया कि वह अदालत को उन कदमों के बारे में सूचित करे, जो नगर निकाय ने एंटीबॉडी के लिए ऐसे शिविरों द्वारा ठगे गए लोगों और फर्जी टीके के कारण उनके स्वास्थ्य पर किसी भी प्रतिकूल प्रभाव की जांच करने के वास्ते प्रस्तावित किए हैं।

सरकार की ओर से अदालत को बताया गया कि मुंबई में 2000 से ज्यादा लोग फर्जी टीकाकरण का शिकार हो चुके हैं। राज्य के वकील दीपक ठाकरे ने उच्च न्यायालय को बताया कि इस मामले में सात प्राथमिकी दर्ज की गई हैं और 13 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। उन्होंने कहा कि मामले की जांच अभी जारी है।

जम्मू-कश्मीर में सिख लड़कियों के धर्मांतरण मामले में किशन रेड्डी के साथ बैठक

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी के साथ जम्मू-कश्मीर में दो सिख लड़कियों का कथित जबरन धर्म परिवर्तन कराने के मुद्दे पर चर्चा के लिए बैठक हुई।  मंगलवार को हुई इस बैठक में सिख समुदाय की जागो पार्टी के कार्यकर्ता और संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने शिरकत की।

बैठक में जम्मू कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के विधान परिषद के सदस्य चरणजीत सिंह खालसा, जागो पार्टी के प्रधान मंजीत सिंह प्रधान, भाजपा के प्रवक्ता आरपी सिंह व जागो पार्टी के अन्य कार्यकर्ता शामिल हुए।

हाल ही में, कश्मीर में सिख समुदाय की दो लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन और शादी की घटना के मामले सामने आए हैं।  हालांकि पाकिस्तान में हिंदू महिलाओ और बच्चो के साथ अपहरण और धर्मांतरण की घटनाएं होती रहती हैं। परंतु जम्मू कश्मीर में ऐसी घटनाओं का होना बेहद गंभीर है। इस घटना ने सबको चौंका तो दिया ही है साथ ही जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है।

पहली घटना, कश्मीर के रेनावाड़ी की है जहां सिख समुदाय की 18 वर्ष की लड़की की शादी 62 वर्ष के बुजुर्ग के साथ जबरन करा दी गर्इ। जो की पहले से ही शादीशुदा था व उसके कर्इ बच्चे भी हैं। लड़की के परिवार ने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई और पुलिस को बताया कि यह शादी बंदूक के बल पर कराई गई थी। पुलिसकर्मियों ने परिवार को आश्वासन दिया कि वह उनकी बेटी को 35 घंटो के भीतर उसके परिवार को सौंप दिया जाएगा। परंतु श्रीनगर की स्थानीय अदालत ने शादी को वैध करार दे दिया है।

दूसरी घटना, श्रीनगर की है जहां लडकी की जबरन शादी अधेड़ उम्र के व्यक्ति से कराई गई थी। और शादी के बाद से ही लड़की लापता है। भारतीय जनता पार्टी के विधान परिषद के सदस्य चरणजीत सिंह खालसा ने बताया, यह घटना कोई पहली बार नहीं हुई है ऐसी घटना पहले भी हो चुकी हैं। और गृह राज्य मंत्री से आज की बैठक में चिंता का विषय भी कश्मीर में कराए जा रहे जबरन अपहरण और धर्मांतरण का ही है। इस गंभीर विषय पर सिख समुदाय ने एलजी को पत्र भी लिखा है जिसमें उन्होंने जम्मू-कश्मीर में कानून की मांग का अनुरोध किया है।

खालसा ने बताया कि जिस तरह यूपी और मध्य प्रदेश में लव-जिहाद कानून लाया गया है ठीक उसी प्रकार के कानून की मांग की गुजारिश हमने केंद्र सरकार से जम्मू कश्मीर में अल्पसंख्यक महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए की है।

मोदी सरकार के पैकेज को राहुल ने बताया ढकोसला; चिदंबरम का सवाल, और क़र्ज़ क्यों ले व्यापारी

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मंगलवार को कोरोना संकट से निपटने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से घोषित राहत पैकेज को ढकोसला बताया है। सोमवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कुछ उपायों की घोषणा की थी जिसे लेकर आज कांग्रेस नेता ने कहा कि वित्तमंत्री की तरफ से दी गई आर्थिक राहत से देश का कोई भी परिवार अपने भरण-पोषण, बच्चों की फीस और दवाओं का खर्च नहीं कर सकता है।
एक ट्वीट में राहुल गांधी ने कहा कि यह पैकेज नहीं, एक और ढकोसला है। हाल के महीनों में राहुल गांधी मोदी सरकार के कोरोना से निपटने के तौर-तरीकों के कटु आलोचक रहे हैं।
बता दें कोविड महामारी में डावांडोल हुई देश की अर्थव्यवस्था को संतुलित करने के लिए सोमवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रेस कांफ्रेंस करके कुछ घोषणाएं की थीं। बुरी हालत में पहुँच चुकी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सीतारमण ने डेढ़ लाख करोड़ रूपये के अतिरिक्त क्रेडिट का ऐलान किया था जिसमें स्वास्थ्य और पर्यटन क्षेत्र पर ख़ास फोकस था। हालांकि, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा – ‘वित्तमंत्री की तरफ से दी गई आर्थिक राहत से देश का कोई भी परिवार अपने भरण-पोषण, बच्चों की फीस और दवाओं का खर्च नहीं कर सकता है’।
उधर कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने भी इस पैकेज  सरकार को कठघरे में कहड़ा किया है। एक ट्वीट में चिदंबरम ने कहा – ‘संकट के दौर में सीधे लोगों तक पैसा पहुंचाने की जरूरत थी। खासकर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ये बेहद जरूरी है। क्रेडिट गारंटी क्रेडिट नहीं होती, क्रेडिट का मतलब और ज्यादा कर्ज। कोई भी बैंकर पहले से ही कर्ज में डूबे बिजनेस पर आगे नहीं बढ़ना चाहेगा। इस समस्या का हल ये है कि लोगों के हाथों में सीधा पैसा पहुंचाया जाए, खासकर गरीब और लोअर मिडिल क्लास के लोगों तक’।

राहुल गांधी का ट्वीट –
Rahul Gandhi
@RahulGandhi
FM के ‘आर्थिक पैकेज’ को कोई परिवार अपने रहने-खाने-दवा-बच्चे की स्कूल फ़ीस पर ख़र्च नहीं कर सकता।
पैकेज नहीं, एक और ढकोसला!

काले धन का खेल जारी

कोरोना-काल में भारतीयों का स्विस बैंकों में क़रीब तीन गुना बढ़ा काला धन

स्विस बैंकों की ताज़ा रिपोट्र्स के मुताबिक, उनमें भारतीयों का जमा काला धन कम होने के बजाय लगातार बढ़ रहा है। यह पिछले 13 साल के दौरान रिकॉर्ड ऊँचाई के स्तर पर पहुँच गया है। वित्त मंत्रालय ने इस मामले में 19 जून, 2021 को स्विस अधिकारियों से इस काले धन के बारे में जानकारी माँगी; साथ ही इसके पीछे की वजहों की पड़ताल भी की। स्विस बैंकों में भारतीयों द्वारा जमा किया गया काला धन नाटकीय तरीक़े से बढ़कर सन् 2020 के अन्त तक 20,700 करोड़ रुपये हो गया। सन् 2019 में यह 6,625 करोड़ रुपये था। स्विस बैंकों में कोरोना-काल में बेतहाशा बढ़े इस काले धन पर पड़ताल करती भारत हितैषी की यह रिपोर्ट:-

स्विस बैंकों में कथित काले धन का ख़ुलासा होने के बाद इस पर सियासत भी गरमा गयी है। स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) के जारी आँकड़ों पर नज़र डालें, तो 17 जून, 2021 तक स्विस बैंकों में पिछले एक साल के दौरान भारतीयों द्वारा जमा किये गये धन में 86फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। भारतीयों की तरफ़से जमा कराया गया यह संदिग्ध काला धन स्विस बैंकों में भारत के निरंतर दबदबे को दर्शाता है, जिस पर आश्चर्य होना ला•िाम है। स्विस बैंक स्विट्जरलैंड का चर्चित गोपनीय अड्डा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसकी दीवारें वर्षों से काले धन के लिए बदनाम हैं। विडम्बना यह है कि काले धन में यह वृद्धि कोरोना संक्रमण यानी महामारी के भीषण-काल के दौरान देखी गयी है। यानी एक वायरस के ख़ौफ़में जहाँ लोग रोज़ी-रोटी के लिए तरस रहे हैं, वहीं कुछ लोग बेइंतहा काली कमायी करके उस काले धन को ठिकाने लगाने पर तुले हुए हैं। महामारी से लाखों लोगों की जान तो जा ही रही है, साथ ही इससे लोगों की आजीविका छिन गयी है और उनकी कमायी भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। व्यापार और उद्योग सब प्रभावित हुए हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि अर्थ-व्यवस्था इस दौरान इतनी ख़राब हो गयी कि पूरे भारत में लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। वित्त वर्ष 2020-21 में 98 लाख लोगों ने नौकरियाँ गँवायीं, जो कि रिकॉर्ड में दर्ज हैं। भारत में वित्त वर्ष 2019-20 में कुल 8.59 करोड़ वेतनभोगी नौकरियाँ थीं; जो मार्च, 2021 के अन्त में घटकर 7.62 करोड़ रह गयीं।

एसएनबी के मुताबिक, साल 2020 के अन्त में स्विटजरलैंड में 243 बैंक थे। यहाँ तक कि बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट के आँकड़े भी इस ओर इशारा करते हैं कि भारतीय व्यक्तियों द्वारा स्विस बैंकों में जमा धनराशि में साल 2019 की तुलना में साल 2020 में 39फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। यह आँकड़ा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि सन् 2014 में सत्ता सँभालने से पहले भाजपा, ख़ासकर तब के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से दावा किया था कि भारतीयों का स्विट्जरलैंड में जमा काला धन वापस लाया जाएगा। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ तक कहा गया था कि अगर काले धन को हर भारतीय पर बाँटा जाए, तो यह क़रीब 15 लाख रुपये के हिसाब से हरेक को मिलेगा।

उन दिनों इस तरह की ख़बरें भी मीडिया में चलायी गयीं कि नरेंद्र मोदी अगर प्रधानमंत्री बने, तो काला धन वापस लाएँगे, जिससे हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपये आएँगे। स्विटजरलैंड के बैंकों में 250 अरब डॉलर (17.5 लाख करोड़ रुपये) छिपाकर जमा किये गये थे। हालाँकि, अब जारी किये गये ताजा आँकड़ों यह साबित हो जाता है कि स्विस बैंकों में भारतीयों का पैसा बढ़कर 20,700 करोड़ रुपये (2.55 अरब स्विस फ्रैंक) से अधिक हो गया है। इस जमाख़ोरी ने सन् 2019 के अन्त में 6,625 करोड़ रुपये ( 899 मिलियन स्विस फ्रैंक) जमा धन में गिरावट की प्रवृत्ति को उलट दिया है। हालाँकि बैंकों द्वारा एसएनबी को बताये गये आधिकारिक आँकड़ों में यह नहीं बताया गया है कि उनके पास बहुचर्चित कथित काले धन की मात्रा स्विट्जरलैंड में कितने भारतीयों की है? रिपोर्ट में यह यह भी बताया गया है कि यह पिछले 13 साल में जमा सबसे ज़्यादा राशि है। इन आधिकारिक आँकड़ों से वित्त मंत्रालय भी पूरी तरह से बेख़बर रहा।

स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) को बैंकों द्वारा की गयी रिपोट्र्स के मुताबिक, भारतीयों द्वारा रखे गये कथित काले धन की राशि से ऐसे ही संकेत मिलते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन आँकड़ों में वो पैसा शामिल नहीं किया गया है, जो एनआरआई भारतीयों या अन्य भारत से जुड़े लोगों की संस्थाओं के नाम से स्विस बैंकों में जमा हो सकता है। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि भारत और स्विट्जरलैंड प्रशासनिक स्तर पर बहुपक्षीय सम्मेलन पर परस्पर अपनी सहमति दे चुके हैं। टैक्स मामलों में सहायता (एमएएसी) और दोनों देशों ने बहुपक्षीय सक्षम प्राधिकरण समझौते (एमसीएए) पर भी हस्ताक्षर किये हैं। इन समझौतों के ज़रिये वित्तीय खाते की जानकारी साझा करने को दोनों देशों के बीच सूचना का आदान-प्रदान ज़रूरी है। सन् 2018 के बाद के लिए हर साल इसकी जानकारी साझा की जाती है। भारत और स्विट्जरलैंड के बीच एक दोहरा कराधान बचाव समझौता (डीटीएए) भी है। डीटीएए के प्रावधानों के आधार पर दोनों देश अनुरोध के आधार पर सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। समझौते में उल्लेखित करों से सम्बन्धित घरेलू क़ानूनों के प्रशासन या प्रवर्तन के लिए यह प्रासंगिक हैं। भारत और स्विट्जरलैंड टैक्स मामलों (एमएसी) में पारस्परिक प्रशासनिक सहायता पर बहुपक्षीय सम्मेलन के हस्ताक्षरकर्ता हैं और दोनों देशों ने बहुपक्षीय सक्षम प्राधिकरण समझौते (एमसीएए) पर भी हस्ताक्षर किये हैं। इसके मुताबिक, सूचना का आदान-प्रदान किया जाना है।

01 जनवरी, 2018 से प्रभावी वित्तीय खातों की जानकारी साझा करने के लिए दोनों देशों के बीच यह समझौता लागू है। इसके अलावा हर देश के भारतीय निवासियों के सम्बन्ध में वित्तीय खातों की जानकारी का आदान-प्रदान करने के लिए भी सन् 2019 में दोनों देशों के बीच समझौता हो चुका है। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि वित्तीय खातों की जानकारी के आदान-प्रदान करने के लिए मौज़ूदा क़ानूनी व्यवस्था होने के बावजूद भारतीयों द्वारा काला धन जमा करने का चलन जारी रहा, वह भी कोरोना-काल में। विदेशों में अघोषित सम्पत्ति के माध्यम से भारतीयों द्वारा कर (टैक्स) चोरी महत्त्वपूर्ण कारक है। इसी के बरअक्स स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि में वृद्धि हुई है, जो कि उनकी अघोषित और अनुचित आय में है।

सूचना का आदान-प्रदान संदिग्ध
स्विस बैंकों में विदेशी ग्राहकों की जमा राशि के चार्ट को देखें, तो इंग्लैंड 377 बिलियन स्विस फ्रैंक के साथ सबसे ऊपर है। इसके बाद अमेरिका दूसरे स्थान पर है, जिसकी राशि 152 अरब डॉलर है। शीर्ष 10 में अन्य वेस्टइंडीज, फ्रांस, हॉन्गकॉन्ग, जर्मनी, सिंगापुर, लक्जमबर्ग, केमैन आइलैंड्स और बहामास थे। इसके बाद न्यूजीलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, हंगरी, मॉरीशस, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका का स्थान आता है। ब्रिक्स देशों में भारत चीन और रूस से नीचे है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील से ऊपर है। भारत से ज़्यादा जिन देशों का यहाँ पैसा जमा है, उनमें नीदरलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, जापान, ऑस्ट्रेलिया, इटली, सऊदी अरब, इजरायल, आयरलैंड, तुर्की, मैक्सिको, ऑस्ट्रिया, ग्रीस, मिस्र, कनाडा, क़तर, बेल्जियम, बरमूडा, क़ुवैत, दक्षिण कोरिया, पुर्तगाल, जॉर्डन, थाईलैंड, सेशेल्स, अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, मलेशिया और जिब्राल्टर प्रमुख हैं।

जिन देशों में स्विस बैंकों ने ग्राहकों को देय राशि में गिरावट की सूचना दी, उनमें यूएस और यूके शामिल हैं; जबकि व्यक्तियों द्वारा जमा की गयी धनराशि के मामले में बांग्लादेश के उद्यमों में भी 2020 के दौरान गिरावट आयी। सन् 2019 में भारत को पहली बार पहली बार इसकी जानकारी हासिल हुई थी। स्विस बैंक खाते के विवरण की $िकश्त और इसे काले धन के ख़िलाफ़मोदी सरकार की लड़ाई की एक बड़ी सफलता के रूप में देखा गया। हालाँकि विवरण अब भी गोपनीय रखा गया है। इसमें किसी भी नाम का ख़ुलासा नहीं कया गया है, जो कि स्विस सरकार के संघीय राजपत्र में प्रमुखता से छापे गये थे। जो भारतीय नाम छापे गये, उनमें कृष्ण भगवान, रामचंद्र, पोटलुरी राजामोहन राव, कल्पेश हर्षद किनारीवाला, कुलदीप सिंह ढींगरा, भास्करन नलिनी, ललिताबेन शामिल हैं। इसके अलावा चिमनभाई पटेल, संजय डालमिया, पंकज कुमार सरावगी, अनिल भारद्वाज, थरानी रेणु टीकमदास, महेश टीकमदास थरानी, सवानी विजय कन्हैयालाल, भास्करन थरूर, कल्पेश भाई पटेल, महेंद्र भाई, अजय कुमार और दिनेश कुमार हिम्मतसिंगका, रतन सिंह चौधरी और राकेश कुमार कठोटिया जैसे नाम शामिल हैं।

ख़ुलासे में भी खेल बेशक स्विस सरकार के संघीय राजपत्र में कुछ नामों का उल्लेख है। लेकिन फिर भी ऐसे कई मामले थे, जहाँ केवल भारतीय नागरिकों के लिए आधे-अधूरे नामों का ख़ुलासा किया गया था और इनमें केवल संक्षिप्ताक्षर या आद्याक्षर (अद्र्ध अक्षर) जैसे एनएमए, एमएए, पीएएस, आरएएस, एबीकेआई, एपीएस, एएसबीके, एमएलए, एडीएस, आरपीएन, एमसीएस, जेएनवी, जेडी, एडी, यूजी, वाईए, डीएम, एसएलएस, यूएल, एसएस, आरएन, वीएल, यूएल, ओपीएल, पीएम, पीकेके, बीएलएस, एसकेएन, वीकेएसजे, जेकेजेए।

दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई व्यक्ति और उनकी कम्पनियाँ कोलकाता, गुजरात, बेंगलूरु, दिल्ली और मुम्बई में स्थित हैं। लम्बी फ़ेहरिस्त में जिन भारतीयों को नोटिस जारी किया गया था, उनमें वे लोग भी शामिल हैं; जिनके नाम एचएसबीसी और पनामा सूची में शामिल हैं; साथ ही जिन लोगों की जाँच की जा रही है। अन्य एजेंसियों के बीच आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय भी जाँच कर रहा है। निकोलस मारियो लुशर के नेतृत्व में स्विस प्रतिनिधिमंडल, कर विभाग के उप प्रमुख, राज्य अंतर्राष्ट्रीय वित्त विभाग ने कुछ समय पहले राजस्व सचिव अजय भूषण के साथ बैठक भी की थी। पांडे और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के वरिष्ठ कर अधिकारी भी इसमें शामिल हुए थे। वित्तीय खाता जानकारी का स्वचालित आदान-प्रदान (एईओआई) सामान्य रिपोर्टिंग मानक (सीआरएस) के तहत इन पर विचार-विमर्शों का यह नतीजा रहा।

विशेषज्ञों का कहना है कि स्विट्जरलैंड पिछले कुछ समय से स्विस बैंकों के बारे में जनता की धारणा को बदलने की कोशिश कर रहा है; क्योंकि यह काला धन जमा करने के एक सुरक्षित ठिकाने के तौर कुख्यात हो गया है। भारत में चुनावों के दौरान, राजनीतिक दलों ने प्रतिद्वंद्वियों को रौंदने के लिए ब्राउनी प्वाइंट हासिल करने के लिए इस मुद्दे को उठाया गया था। देर से ही सही, भारत और स्विटजरलैंड ने लोगों को जोडऩे (बुक करने) के लिए सहयोग बढ़ाने के लिए इन संदिग्ध रिकॉर्ड को साझा करके अपने द्विपक्षीय आर्थिक सम्बन्धों को मज़बूत किया है; ख़ासकर अगर काले धन को लेकर बात की जाए तो। दोनों देशों की सूची का शीर्ष एजेंडा निश्चित रूप से भारतीयों द्वारा स्विस बैंकों में काला धन जमा करना है। भारत अब उन 75 देशों में शामिल है, जिनके साथ स्विट्जरलैंड के संघीय कर प्रशासन (एफटीए) ने आदान-प्रदान किया है। एईओआई पर वैश्विक मानकों के ढाँचे के भीतर वित्तीय खातों की जानकारी देनी होती है। एईओआई महज़ कुछ मामलों में सामने आता है।

भारतीयों के नाम पर खाते
एईओआई वर्तमान में स्विटजरलैंड में लागू है और आर्थिक संगठन के ग्लोबल फोरम नामक एक प्राधिकरण भी है। ईओआई सहयोग और विकास जो कार्यान्वयन की देखरेख करता है। संघीय कर प्रशासन ने अब तक के बारे में जानकारी दी गयी है। समझौता करने वाले देशों को लगभग 3.1 मिलियन वित्तीय खाते और साझेदार राज्यों से लगभग 2.4 मिलियन के बारे में जानकारी प्रदान की गयी है। सूचना का आदान-प्रदान सख़्त गोपनीयता खण्डों द्वारा शासित होता है, और एफटीए अधिकारियों ने विशिष्ट विवरण का ख़ुलासा करने से इन्कार कर दिया जाता है। खातों की संख्या या स्विस बैंकों के भारतीय ग्राहकों से जुड़ी वित्तीय सम्पत्तियों की मात्रा के बारे में नहीं दी गयी। केवल एईओआई उन खातों से सम्बन्धित है, जो आधिकारिक तौर पर भारतीयों के नाम पर हैं और उनमें व्यवसाय और अन्य वास्तविक उद्देश्यों के लिए उपयोग किये जाने वाले खातों का ब्यौरा मिल सकता है। बदले गये विवरण में पहचान, खाता और वित्तीय जानकारी शामिल है। इनमें नाम, पता, निवास की स्थिति और कर शामिल हैं। साथ ही पहचान संख्या, साथ ही वित्तीय संस्थान, खाता शेष और पूँजीगत आय से सम्बन्धित जानकारी भी दी जाती है।

स्विस क़ानूनों के तहत, स्विस बैंकों के विदेशी ग्राहकों को अपने प्रस्तावित विवरण साझा करने के ख़िलाफ़अपील करने का अवसर दिया जाता है। आपसी सहायता सन्धि वाले देश या बहुपक्षीय सूचना विनिमय के पक्ष के बाद 30 दिन (कुछ मामलों में केवल 10 दिन), संदिग्ध वित्तीय ग़लत कामों के पर्याप्त सुबूत देते हुए विवरण माँगा जाता है। जबकि स्विस सरकार किसी विदेशी ग्राहक को अपील का अवसर दिया जाता है, तो राजपत्र अधिसूचनाएँ सार्वजनिक की जाती हैं; कुछ मामलों में उनके पूरे नाम को संशोधित किया जाता है। कुछ गोपनीयता खण्ड और केवल कुछ विवरण जैसे कि उनके आद्याक्षर, जन्म तिथि और राष्ट्रीयता को सार्वजनिक किया जाता है। इस साल की शुरुआत से जारी इस तरह की साप्ताहिक अधिसूचनाओं का विश्लेषण करने से पता चलता है कि इन नोटिसों में भारतीय नागरिक भी शामिल हैं। इनमें लगभग हर हफ्ते, हालाँकि अधिकांश मामलों में पूरे नामों को संशोधित किया गया है।

शिकंजे के लिए एक अभियोजन मामला काफ़ी
भारत को हासिल हुए आँकड़े उन लोगों के ख़िलाफ़एक मज़बूत अभियोजन मामला स्थापित करने के लिए काफ़ी उपयोगी हो सकता है, जिनके पास बेहिसाब सम्पत्ति है। इसकी वजह यह है कि यहाँ प्रतिभूतियों और अन्य में निवेश के माध्यम से जमा और हस्तांतरण के साथ-साथ सभी आय का सम्पूर्ण विवरण प्रदान सम्पत्ति जितना ही जारी किया जाता है। हालाँकि ऐसा भी कहा जाता है कि काले धन पर वैश्विक कार्रवाई के बाद कई मूल निवासियों ने अपने खाते बन्द कर दिये होंगे। स्विस बैंकों के बारे में लम्बे समय से लगे कलंक को साफ़करने के लिए अपने बैंकिंग क्षेत्र को जाँच के लिए खोलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव में स्विट्जरलैंड कुछ झुका है; लेकिन इसके बावजूद अघोषित धन के लिए सुरक्षित ठिकाना बना हुआ है। गेंद अब अभियोजन पक्ष के पाले में है कि इसे प्राप्त आँकड़ों का उपयोग बेहिसाब धन का पता लगाने और उसे अमल में लाने के लिए देशों को क्या क़दम उठाने चाहिए। जो एचएसबीसी सूची, पनामा और पैराडाइज पेपर्स में शामिल हैं और अब स्विस बैंक सूची में शामिल हैं; उनके ख़िलाफ़मामला दर्ज किया जाना चाहिए। हालाँकि एक बड़े विवरण की पहली क़िश्त का हिस्सा उन खातों से सम्बन्धित है, जो कार्रवाई के डर से पहले ही बन्द कर दिये गये हैं; यह काफ़ी उपयोगी हो सकता है।
सरकार की तरफ़से उन लोगों के ख़िलाफ़एक मज़बूत अभियोजन मामला दर्ज किया जाना चाहिए, जिनके पास स्विस खातों में बेहिसाब सम्पत्ति है।

आख़िर यह पैसा कैसे बढ़ा?
वित्त मंत्रालय का कहना है कि इसमें कई कारक हो सकते हैं, जो स्विस बैंकों में जमा राशि में वृद्धि को दर्शाते हैं। स्विट्जरलैंड में भारतीय कम्पनियों द्वारा रखी गयी जमा राशि में वृद्धि व्यापार लेन-देन के कारण और भारत की स्विस बैंक शाखाओं के कारोबार के कारण दर्ज की गयी है। स्विस बैंकों और भारतीय बैंकों के बीच अंतर्-बैंक लेन-देन में वृद्धि भारत में एक स्विस कम्पनी की सहायक कम्पनी के लिए पूँजी वृद्धि है, जो बक़ाया यौगिक वित्तीय बही-खातों के हिसाब से इसमें इज़ाफ़ा करते हैं; जिसे इस रिपोर्ट में दर्शाया गया है।
सरकार का दावा है कि विदेशों में जमा काले धन के ख़िलाफ़कई सक्रिय क़दम उठाये गये हैं। एक व्यापक और अधिक कठोर नया क़ानून काला धन (अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति) और कर अधिरोपण अधिनियम-2015, जो 01 जुलाई से लागू है। यह क़ानून कहीं ज़्यादा कठोर है, जिसमें दण्डात्मक परिणामों को निर्धारित करने के अलावा, इसमें कर से बचने के लिए जानबूझकर प्रयास आदि को अपराध के तौर पर शामिल किया गया है। धन शोधन निवारण अधिनियम-2002 (पीएमएलए) के तहत अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति को भी अपराध के तौर पर अधिसूचित किया गया है।

सरकार ने कर दाताओं को अपनी घोषणा करने का अवसर प्रदान करने के लिए तीन महीने का मौक़ा भी दिया था। नये क़ानून के अधिक कड़े प्रावधानों के अधीन होने से पहले अघोषित विदेशी सम्पत्तियाँ या जो काला धन (अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति) कर अधिनियम-2015 के तहत लाया गया। इसके बाद 648 घोषणाकर्ताओं ने 30 सितंबर, 2015 तक इस बारे में जानकारी दी। इससे 4,164 करोड़ रुपये की अघोषित विदेशी सम्पत्ति का ख़ुलासा हुआ; लेकिन इसकी आख़िरी तारीख़ निकल गयी। इस तरह क़रीब 2,476 करोड़ रुपये इस तरह सरकार ने कर और ज़ुर्माने के तौर पर हासिल किये।

सरकार की ओर से दावा किया गया कि जब भी इस सम्बन्ध में कोई विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है, तो उसने सक्रिय और प्रभावी क़दम उठाये हैं। विदेशों में जमा काला धन- चाहे एचएसबीसी मामलों में, चाहे आईसीआईजे मामलों में, पैराडाइज पेपर्स या पनामा पेपर्स के तौर पर हो, उस पर सरकार की नज़र है। इन क़दमों में संविधान के तहत बहु एजेंसी समूह के प्रासंगिक मामलों में काले धन को लाने के लिए विदेशी अधिकार क्षेत्र से निश्चित जानकारी की माँग करने जैसे प्रासंगिक क़ानून और अपराधियों के ख़िलाफ़मुक़दमे दर्ज करना आदि शामिल है।

ताज्ज़ुब है कि इन सभी बड़े-बड़े दावों और स्विस बैंक के स्वचालित विनिमय के बावजूद काले धन को रखने के लिए स्विटजरलैंड भारतीयों का सुरक्षित ठिकाना बना हुआ है। स्विट्जरलैंड और भारत के बीच सन् 2018 से कर मामलों की जानकारी साझा करने का नियम लागू है। चूँकि स्विस बैंकों को बड़ी जमा राशि और जमाकर्ताओं की ज़रूरत बनी थी, इसलिए यह क़ानून बनाया और समझौता किया। हालाँकि गोपनीयता भी इस मामले में एक अहम भूमिका वाला मसला था। लेकिन अब भारत और स्विट्जरलैंड पारस्परिक पर बहुपक्षीय सम्मेलन के हस्ताक्षरकर्ता हैं। इससे कर मामलों और बहुपक्षीय सक्षम प्राधिकरण समझौते में प्रशासनिक सहायता को साझा करना ज़रूरी है। इससे स्वचालित आदान-प्रदान को सक्षम करते हैं।

समझौतों पर हस्ताक्षर के बाद से दोनों देशों के बीच वित्तीय खातों की जानकारी और नागरिकों की जमा राशि के बारे में जानकारी का आदान-प्रदान करना ज़रूरी हो गया है। यह समझौता साल 2019 के साथ-साथ साल 2020 में भी लागू रहा। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि स्विस बैंकें एकमात्र ऐसी जगह नहीं हैं, जहाँ भारतीय जमाकर्ता अपनी अघोषित धनराशि रखते हैं। स्विस बैंकों के अलावा ऑफशोरिंग, लेयरिंग और समेकन जैसे कई तरीक़े हैं, जिनसे बड़ी मात्रा में काले धन को चैनलाइज (प्राणालिक) और सुरक्षित तरीक़े से ठिकाने लगा दिया जाता है। अमीर ग्राहकों को अग्रणी अंतर्राष्ट्रीय लेखा फर्में और बिचौलिये विश्वस्त और दूरस्थ अंतर्देशीय कम्पनियों में धन स्थापित करने को राज़ी करते हैं और इसमें मदद करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड, साइप्रस, मकाओ, ग्वेर्नसे, आइल ऑफ मैन आदि स्थानों को अपतटीय कर मुक्त क्षेत्र (टैक्स हेवन) को कथित तौर पर काले धन को ठिकाने लगाने के तौर पर जाना जाता है।
फिर भी स्विस बैंक भारतीयों द्वारा धन जमा करने के लिए पसन्दीदा स्थान बने हुए हैं। क्योंकि भारतीय बड़ी आसानी से यहाँ काला धन जमा करा लेते हैं। यही वजह है कि सन् 2019 से सन् 2020 तक यहाँ जमा भारतीयों का काला धन 6,625 करोड़ रुपये से क़रीब तीन गुना बढ़कर 20,700 करोड़ रुपये से अधिक हो गया। यह भी ध्यान रहे कि पिछले 13 वर्षों में जमा पूँजी का यह उच्चतम आँकड़ा है। इनमें भारतीय व्यक्तियों और फर्मों द्वारा स्विस बैंकों में जमा की गयी राशि शामिल है। हालाँकि स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक के वार्षिक आँकड़े कहते हैं कि प्रतिभूतियों और इसी तरह के उपकरणों के माध्यम से स्वामित्व के तौर पर देखें, तो ग्राहक जमा में गिरावट आयी है।

स्विस बैंकों के साथ भारतीय ग्राहकों का कुल धनराशि सन् 2006 में लगभग 6.5 बिलियन स्विस फ्रैंक के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर थी। स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) के मुताबिक, सन् 2011, सन् 2013 और सन् 2017 सहित कुछ वर्षों को छोड़कर जमा राशि में लगातार गिरावट दर्ज की जाती रही है। एसएनबी के आँकड़ों के मुताबिक, भारतीयों द्वारा सीधे स्विस बैंकों में रखी गयी कुल राशि बढ़कर 999 मिलियन स्विस फ्रैंक (6,891 करोड़ रुपये) हो गयी। सन् 2017 में यह 16.2 मिलियन स्विस फ्रैंक (112 करोड़ रुपये) तक बढ़ गयी। यह आँकड़ा सन् 2016 के अन्त में क्रमश: 664.8 मिलियन स्विस फ्रैंक और 11 मिलियन स्विस फ्रैंक था। स्विस बैंकों में भारतीय धन में 464 मिलियन स्विस फ्रैंक (3,200 करोड़ रुपये) ग्राहक जमा के रूप में, 152 मिलियन स्विस फ्रैंक (1,050 करोड़ रुपये) अन्य बैंकों के माध्यम से और 383 मिलियन स्विस फ्रैंक (2,640 करोड़ रुपये) 2017 के अन्त में प्रतिभूतियों, जैसे ‘अन्य देनदारियों के रूप में जमा हुए। एसएनबी के आँकड़ों के मुताबिक, पिछले साल सभी श्रेणियों में भारी गिरावट के मुक़ाबले तीनों मदों के तहत काला धन तेज़ी से बढ़ा था।
सन् 2007 तक अकेले ज़िम्मेदार व्यक्तियों (फिडुशियरी) के माध्यम से अरबों रुपये का धन इसमें जमा किया गया था। लेकिन उसके बाद कार्रवाई के डर से इसमें गिरावट दर्ज होनी शुरू हो गयी। सन् 2006 के अन्त में स्विस बैंकों के पास भारतीयों द्वारा रखा गया कुल काला धन 6.5 बिलियन स्विस फ्रैंक (23,000 करोड़ रुपये) के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर था। लेकिन फिर एक दशक में उस स्तर के क़रीब 10वें हिस्से पर आ गया।

उन रिकॉर्ड स्तरों के बाद से यह केवल चौथी बार है, जब भारतीयों के काले धन में में 286फ़ीसदी का इज़ा$फा हुआ है। इससे पहले इसमें सन् 2011 में 12फ़ीसदी, सन् 2013 में 43फ़ीसदी, सन् 2017 में 50.2फ़ीसदी वृद्धि हुई है। दरअसल, ज्यूरिख स्थित एसएनबी के नवीनतम आँकड़े आश्चर्यजनक हैं। हालाँकि यह एसएनबी के आधिकारिक आँकड़े भी करते हैं कि स्विस बैंकों में भारतीयों, एनआरआई भारतीयों या अन्य लोगों के नाम पर जो धन हो सकता है, उसे इसमें शामिल न किया जाए। विदेशी और घरेलू, दोनों शासन क्षेत्र (डोमेन), जिसमें एक नये क़ानून का अधिनियमन, एंटी-मनी में संशोधन शामिल है; में स्टैश-फंड (धन छिपाने) का ख़तरा रहता है, जिसमें लोगों को अपनी छिपी हुई सम्पत्ति घोषित करने के लिए लॉन्ड्रिंग (काले धन को वैध) अधिनियम और अनुपालन विंडो (खिड़की) का मौक़ा दिया। आयकर विभाग ने पिछली जाँचों में काले धन का पता लगाया था। भारतीयों द्वारा विदेशों में धन जमा करने के बारे में वैश्विक ख़ुलासे पर जाँच के बाद पता चला कि हज़ारों करोड़ रुपये का काला धन चलन में था, जो अब भी जारी है। इनमें से सैकड़ों के ख़िलाफ़मुक़दमा चलाया गया, जिनमें एचएसबीसी की जिनेवा शाखा में खाते भी शामिल हैं। नवीनतम आँकड़ों से पता चलता है कि भारत से ग्राहकों के कारण अन्य राशियों में सबसे बड़ा अन्तर रहा है, जो छ: गुना से अधिक बढ़ गया है। सन् 2019 के अन्त में 253 मिलियन स्विस फ्रैंक रहा। इस दौरान सभी चार घटकों में गिरावट आयी थी।

एसएनबी के मुताबिक, भारतीय ग्राहकों के प्रति स्विस बैंकों की कुल देनदारियों के लिए इसका विवरण (डाटा) भारतीयों के सभी प्रकार के जमा धन को रिकॉर्ड में रखता है। जबकि स्विस बैंकों में ग्राहकों, व्यक्तियों, बैंकों और उद्यमों से जमा राशि सहित जानकारी होती है। इसमें स्विस बैंकों की शाखाओं का वह विवरण शामिल होता है, जिसमें ग़ैर-जमा देनदारियों के रूप में भी भारत की शाखाएँ भी हैं। दूसरी ओर बैंक के स्थानीय बैंकिंग आँकड़े अंतर्राष्ट्रीय निपटान (बीआईएस), जिसे अतीत में भारतीय और स्विस अधिकारियों द्वारा अधिक विश्वसनीय उपाय के रूप में वर्णित किया गया है। स्विस बैंकों में भारतीय व्यक्तियों द्वारा जमा, 2020 के दौरान इस तरह की राशि में क़रीब 39फ़ीसदी की वृद्धि होने के बाद 125.9 मिलियन अमेरिकी डॉलर (932 करोड़ रुपये) रही।

यह आँकड़ा स्विस-अधिवासित बैंकों के भारतीय ग़ैर-बैंक ग्राहकों की जमा राशियों के साथ-साथ ऋणों को भी रिकॉर्ड में लेता है। और इसमें वृद्धि हुई थी। सन् 2019 में सातफ़ीसदी, सन् 2018 में 11फ़ीसदी और सन् 2017 में 44फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गयी। यह सन् 2007 के अन्त में बढ़कर 2.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर (9,000 रुपये से अधिक) से अधिक पर पहुँच गया था।

टी-20 विश्व कप भारत से यूएई स्थानांतरित

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए बुरी खबर यह है कि वे इस साल स्टेडियम में बैठकर मैच का लुत्फ नहीं उठा सकेंगे। टी-20 विश्व कप का आयोजन भारत में नहीं किया जाएगा। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सचिन जय शाह ने सोमवार को बताया कि हम भारत में होने वाले टी-20 विश्व कप 2021 को संयुक्त अरब अमीरात स्थानांतरित कर रहे हैं। इस मामले में बीसीसीई की तरफ से आईसीसी को जानकारी आज ही दे दी जाएगी।

आईपीएल के तत्काल बाद टी-20 विश्व की शुरुआत हो जाएगी, क्वालीफायर मुकाबले ओमान में हो सकते हैं लेकिन विश्व कप मुकाबले तीन स्थानों दुबई, अबूधाबी और शारजाह में खेले जाएंगे। आईपीएल के बाकी मैच भी यूएई में ही हो सकते हैं।

जय शाह ने बताया कि यूएई में होने वाली टी-20 विश्व कप का टाइम टेबल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद तय करेगी।  टी-20 विश्व कप 2021 का आयोजन भारत में होना था, लेकिन वैश्विक महामारी कोरोना वायरस को देखते हुए बीसीसीआई ने इसे संयुक्त अरब अमीरात स्थानांतरित करने का फैसला लिया। इससे पहले कोरोना की वजह से 2020 में ऑस्ट्रेलिया में खेले जाने वाले टी-20 वर्ल्ड कप को रद्द कर दिया गया था।

बीसीसीआई के वाइस प्रेसीडेंट राजीव शुक्ला ने कहा कि जहां तक विश्व कप का संबंध है, आज डेडलाइन थी और बीसीसीआई को अपने निर्णय के बारे में आईसीसी को अवगत कराना था। बीसीसीआई अधिकारियों ने कॉन्फ्रेंस के जरिए बात की, इस दौरान हमने कोरोना की स्थिति का भी जायजा लिया।  राजीव शुक्ला ने आगे कहा, कोई नहीं जानता कि 2-3 महीने बाद क्या होने वाला है। वैसे हमारी प्राथमिकता भारत ही था, लेकिन हालात क्या रहेंगे अभी कुछ कह नहीं सकते।

इसके अलावा, बीसीसीआई आईपीएल के बाकी मैचों का आयोजन यूएई में कराने पर विचार कर रहा है। इस संदर्भ में कई फ्रेंचाइजी के अधिकारी संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर जाने वाले हैं।  ऐसा कहा जा रहे है कि मध्य सितंबर में आईपीएल का बाकी सत्र शुरू होगा जो मध्य अक्टूबर तक चलेगा। इसी के बाद विश्व कप का आयोजन किया जाएगा।

अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए आठ क़दमों का ऐलान, स्वास्थ्य और पर्यटन पर ख़ास फोकस  

केंद्र सरकार ने सोमवार को अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए आठ क़दमों का ऐलान किया है। इन फैसलों की जानकारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने एक प्रेस कांफ्रेंस में दी और इसमें स्वास्थ्य और पर्यटन पर ख़ास ध्यान दिया गया है। वित्त मंत्री ने जहाँ स्वास्थ्य सेक्टर को 50 हजार करोड़ देने का ऐलान किया वहीं कोरोना प्रभावित क्षेत्रों को 1.1 लाख करोड़ की लोन गारंटी का ऐलान भी किया गया है।
निर्मला सीतारमण के अंग्रेजी में बताये फैसलों की हिंदी में जानकारी देते हुए अनुराग ठाकुर ने कहा कि एमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम में अतिरिक्त 1.5 लाख करोड़ रुपए दिए जाएंगे और अब स्कीम के तहत फंडिंग को 4.5 लाख करोड़ रुपए तक बढ़ा दिया गया है। कोविड से प्रभावित सेक्टर और हेल्थ सेक्टर के अलावा अन्य  सेक्टर्स के लिए भी 60 हजार करोड़ रुपए की बात कही गयी है। हेल्थ सेक्टर के लिए लोन पर 7.95 फीसदी सालाना से ज्यादा ब्याज नहीं होगा जबकि दूसरे सेक्टर्स के लिए ब्याज 8.25 फीसदी से ज्यादा नहीं होगा।
इसके अलावा ईसीएलजीएस  में 1.5 लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त दिए जाएंगे।
अब इस स्कीम का दायरा 4.5 लाख करोड़ रुपए होगा। पहले स्कीम में 3 लाख करोड़ रुपए की घोषणा की थी। सभी सेक्टर्स को इसका फायदा मिलेगा।
उधर क्रेडिट गारंटी स्कीम में एनबीएफसी, माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूट से छोटे कारोबारी को 1.25 लाख तक का कर्ज मिलेगा। बैंक एमसीएलआर पर अधिकतम 2 फीसदी ब्याज लिया जा सकेगा। लोन की अवधि 3 साल होगी और सरकार गारंटी देगी जबकि योजना का लाभ करीब 25 लाख लोगों को मिलेगा।
अनुराग ठाकुर ने रजिस्टर्ड टूरिस्ट गाइड/ ट्रैवल टूरिज्म को मदद का भी ऐलान किया। कोविड से प्रभावित रजिस्टर्ड टूरिस्ट गाइड और ट्रैवल टूरिज्म स्टेकहोल्डर्स को वित्तीय मदद दी जाएगी। टूरिस्ट गाइड को एक लाख रुपए और ट्रैवल एजेंसी को 10 लाख रुपए का लोन दिया जाएगा और इसपर 100 फीसदी गारंटी रहेगी। कोई प्रोसेसिंग फीस भी नहीं होगी। उन्होंने मुफ्त मिलेगा विदेशी टूरिस्ट वीजा पर कहा कि  पहले 5 लाख विदेशी टूरिस्ट वीजा मुफ्त जारी किए जाएंगे। यह योजना 31 मार्च, 2022 तक लागू रहेगी और इसके लिए 100 करोड़ रुपए की वित्तीय मदद की जाएगी। एक टूरिस्ट सिर्फ एक बार स्कीम का फायदा उठा सकता है जबकि विदेशी टूरिस्टों को वीजा की अनुमति मिलते ही स्कीम का फायदा मिलेगा।
सरकार ने आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना को भी 31 मार्च, 2022 तक बढ़ाने का ऐलान किया है। योजना के तहत सरकार 15 हजार से कम वेतन वाले कर्मचारियों और कंपनियों के पीएफ का भुगतान करती है। सरकार ने योजना में 22,810 करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य रखा है। अब तक करीब 21.42 लाख लाभार्थियों के लिए 902 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। योजना का फायदा करीब 58.50 लाख लोगों को मिलेगा।
वित्त मंत्री ने यह भी ऐलान किया कि किसानों को 14,775 करोड़ रुपए की अतिरिक्त सब्सिडी दी जा रही है। इसमें 9125 करोड़ रुपए की सब्सिडी डीएपी पर दी गई है जबकि 5650 करोड़ रुपए की सब्सिडी एनपीके पर दी गई। रबी सीजन 2020-21 में 432.48 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीदारी की गई और अब तक किसानों को 85,413 करोड़ रुपए सीधे उनके खाते में दिए गए हैं।
अनुराग ठाकुर ने कहा कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को मई 2021 में फिर से लॉन्च किया गया है। कोविड से प्रभावित गरीबों की मदद के लिए 26 मार्च, 2020 को योजना शुरू की गई थी। माली साल 2020-21 में इस स्कीम पर 1,33,972 करोड़ रुपए खर्च हुए। करीब 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज मुफ्त बांटा जा रहा है। नंवबर तक यह मुफ्त राशन की सुविधा जारी रहेगी। स्कीम पर इस साल करीब 93,869 करोड़ रुपए खर्च होंगे।
इस तरह सरकार ने आठ बड़े उपायों की घोषणा की है। हालांकि, देखा जाए तो मुख्य फोकस स्वास्थ्य और पर्यटन सेक्टर पर रखा गया है। हाल के महीनों में भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर काफी चिंता जताई गयी है। हाल के महीनों में भारत की अर्थव्यवस्था की यह हालत भी है कि उसकी जीडीपी माइनस 24 तक पहुँच गयी जो दुनिया भर में सबसे कमजोर थी।